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मांट्रियल से लौटकर
नहीं लगा इतने साल बीत गए
रही ऐसी आपा-धापी
नींद से जागने फिर लौटना उसी में
कि नहीं समझ सकी बर्फ का गिरना देखना जरूरी था
बर्फ तो बहुत थी कायनात में
मालूम था
पर धरती पर तो वह दु:ख को ढकने के लिए ही गिरती है
या शायद याद दिलाने
हर बार प्रेम चूक जाएगा
वह इतना कम बच गया है इस शहर में
तभी तो कैथरीन का चेहरा इतना बदल गया है इन बीस-एक वर्षों में
कि लगता है कभी वह कितना माशूक रहा होगा
और यह भी कहाँ पता था
वह तय करेगी अकेले ही रहना
आजकल दिल के इलाज के लिए जब जाना होता है अस्पताल उसे
पकड़ लेती है मेट्रो
दिल की धड़कन जब थमती है ज़रा
शांत हो वह टैक्सी लेती है घर लौटने के लिए
रास्ते में माउंट रॉयल पहाड़ के सौंदर्य को देखती हुई
वह कृतज्ञ होती रहती है जीवन अभी बाकी है थोड़ा
चिनार के लाल पत्तों का सत्य अभी भी अंतरात्मा को हलचलों से भर देता है
यह भी कि क्या कम है यह
कि वह इस शहर में रहती रही है इन्हें देखने के लिए
आज के दिन मैं उसके साथ थी
आज के दिन मैं उसे देख रही थी
और वह पहाड़ को
पहाड़ हम दोनों को.
जब माया मिली
आउट्रमों मेट्रो स्टेशन पर मैं
माया को उसका इंतजार करती हुई
मिलना चाहती थी
मैं चाहती थी वह जाने इस उम्र में भी
उसका इंतजार करती हैं किन्हीं की आँखें
एक छोटा सा संदेश उनसे व्हाट्सऐप के जरिए भेजा था
‘स्टेशन के बाहर एक बेंच होगा
वहीं मिलेंगे
दो फर्लांग की दूरी पर एक कैफे है
उस तरफ चल पड़ेंगे
वहाँ कॉफी के साथ किश खा सकते है
वह नमकीन होती है
जानकर सदमा लगा तुम्हें मधुमेह ने घेर लिया है’
संदेश पढ़ते हुए मैं सोचने लगी
क्या अब भी उसकी आँखें उतनी ही चमक से भरी होंगी जितनी पहले
किसी बीमारी ने उसे भी तो नहीं
अपना आवास बना लिया
समय मुझे बहुत डरा रहा है
जबसे मैं यहाँ आई हूँ
इसी बीच एक मोटी गिलहरी मेरे पास आई
शायद उसे मूंगफली चाहिए थी
मेरे पास अभी अपने दिल की धड़कनों
के सिवाय कुछ नहीं था
मैं उसे बस देखे जा रही थी
और वह अपनी उम्मीद जाहिर करती हुई बहुत करीब चली आई थी
तभी माया नमूदार हुई
समय की किसी खोह से निकली
कोई याद जैसे हल्का-बक्का कर जाए
माया आज भी एक सुंदर छवि थी
अपनी ही आत्मा की
प्रेम करने वाली वही लड़की
जिसे अपने लिखने से ज्यादा
लिखी जाने वाली अपनी कहानियों के किरदारों से प्रेम था
हैरत की बात कि उसे वे सारी बातें याद थीं जो हम दोनों तब किया करते थे
जब साथ कॉफी पीने शेरब्रुक की तरफ़ जाते थे
उसने कहा वह अब कॉफी और उपनिवेशवाद के रिश्ते के इतिहास को जानती है
उसपर उसने बड़ा शोध
इस कारण ही किया
कि जाने अपनी दादी और दादा को और ठीक से
वे दोनों कॉफी की फलियों की ही तो खेती करते थे
दोनों जीवन भर कुछ और नहीं कर सके
कोलंबिया छोड़ वे कहीं और नहीं गए
आज हम दोनों देर तक बातें करते रहे ऐसी ही बातों पर
और कॉफी पीते रहे
उठते समय उसके पैरों में दर्द था
दोनों पैर नाकाम से हो गए है
सैर की गुंजाइश नहीं बची
इसलिए मेट्रो स्टेशन लौटना होगा
वापिस घर ही जाना होगा
हमारा मिलना एक चमत्कार की तरह लग रहा था
जीवन में कभी-कभार ऐसा भी हो सकता है
मामूली जीवन में भी खुशी बिजली सी चमक सकती है
दो दोस्त दुनिया के अलग छोरों पर रहते हुए भी
एक दिन मिल सकते है
अपना दिल एक दूसरे के सामने
खोल सकते हैं दिखा सकते हैं भीतर इकट्ठा हुए ईंट-पत्थर
उठते हुए मैंने अनायास कहा ‘अलविदा सौंदर्य’ जो इतना सहज है आज भी
धन्यवाद जीवन हमें चौंका सकते हो अगर चाहो
बाहर आकर देखा गिलहरी अब भी मुब्तिला थी अपने काम में
उसे अब भी दरकार थी मूंगफली के दानों की
वह मुंतजिर थी ऐसे शख्स की
जिसके पास दिल की धड़कनों के अलावा कुछ और भी हो.
वृत्त
अब जब फिर से आ गई हूँ उस वृत्त में
जिसमें से निकल गए
जाने कितने ही दोस्त मेरी ही तरह
जेफ अपने शोध के साथ दूर कहीं
जहाँ से उसे कोई और नहीं दिखता होगा
मार्टिन और मरियम जो सां डेनी स्ट्रीट पर रहते थे
और जिनके घर कभी-कभी कई दोस्त इकट्ठा होते थे
राजनीति से लेकर कला पर बातें करने के लिए
यह सड़क हमारी अधीरता को जानती थी
कातर नजरों से हमें देखती जानती हमारे भविष्य को
हम सब आगे पढ़ेंगे लिखेंगे इसका कोई आश्वासन उसके पास
नहीं था
लेवांत तो आखिर कम उम्र में ही कैंसर से गया इस दुनिया से
और हामिद विश्वविद्यालय छोड़ फिलिस्तीन गया अपने देश को बचाने
ईरान गया कासिम खेती करने
यहाँ रहने से बेहतर लगी उसे वह सरजमीं जहाँ अब्बास कियरोस्तामी दुनिया की सबसे अच्छी फिल्में बना रहा था
मैं भी क्या जानती थीं अपने बारे में
भारत की आधुनिकता एक पहेली बन जाएगी और फासीवाद हकीकत
और इसपर ही लिखती सोचती
लिखी जाएगी एक लंबी कविता
स्वप्न के माफिक जो मेरा रूप धर लेगी
मेरा ‘स्वप्न समय’ दुस्वप्नों की बस एक कविता!
आत्मा में सुराख लिए मैं रहूँगी
फिर कितने वर्षों सोचती
नाजिम हिकमत और सिल्विया प्लाथ पर
मेरा सानी कोई न होगा
भ्रष्ट स्त्रियाँ और पुरुष होंगे आस-पास जैसे बारिश और उमस
आज जब लौटी हूँ वहाँ
जहाँ मेरा होना था
जहाँ मैं नहीं थी
बहुत सारी बातें इकट्ठी हैं वहाँ
हम सब के इंतज़ार में
बातचीत के नए दौर के लिए तरसती-सी.
तफ़रीह
आज जब तफ़रीह के लिए निकली
तो सड़कों के नाम पढ़ती रही
ये नाम वही है इनके अर्थ मगर क्यों इतने बदले जान पड़ते है
किताबों की वह दुकान जहाँ नई और पुरानी किताबें बिका करती थी
वहीं मिल्टन स्ट्रीट पर है
लगभग वैसी ही दिखती
हरे रंग की लकड़ी के रैक में गुमसुम
हमें देखती किताबें!
जैसे अपनी तयशुदा जगहों पर ही हों
याद आई यहाँ से खरीदीं किताबें
जो अब मेरे घर में बनी रैक में लगीं है: प्राइमसी ऑफ परसेप्शन से लेकर मार्क्युजा की इरोस एंड सिविलाइजेशन और न जाने कितनी सेकंड हैंड किताबें
पेंसिल से मार्क की हुईं
दर्ज़ की गईं हताशाएँ हाशिए पर लिखी मिली थीं
मुझसे पहले इनको पढ़नेवालो के बारे में
सोचने को विवश करतीं
सारी बातें कैसे रेशा-रेशा याद हैं
दिल धड़कने लगा था
सेंट जूलियन तक पहुँचते-पहुँचते यह धड़कन बढ़ती गई थी
यहीं गुम हुई थी एक दिन जीवन की चाभी
कहाँ होगा वह मनुष्य जिसने मंटो पर एक किताब लिखी थी
और लेनार्ड कोहेन से मुझे मिलवाया था
खुले रेस्तरां में एक दिन
कितना सहज था वह सुंदर गायक
किन उदास आँखों से मुझे देखता रहा था
मैं सुन रही थी वह गा रहा था
सुजैन, सुजैन, सुजैन
यह गीत अबतक गूंजता है मेरे भीतर
जिस दिन वह इस दुनिया से गया
मैंने दिन भर उसके गाए गीतों को सुनते हुए गुजारा खुद को
वह सच में एक भारी दिन था
जाने किन-किन और मोहल्लों, सड़कों से होती हुई मैं वापिस लौटी अपने मित्र के घर जहाँ ठहरी थी उत्तरोमोंत इलाके में
जहाँ सड़कों पर बच्चे खेल रहे थे
धूप खिली हुई थी
खूब ठंड थी मगर
भीतर ही भीतर लग रहा था
खुद की ओर आती एक स्त्री की तफ़रीह अभी बहुत बहुत बाकी है
क्या करे वह
कहाँ तक जाए
किधर से मुड़े की लौटना न पड़ें
चलते जाना ही होता रहे
सामने आसमान साफ़ था अभी
हवा भी थी मद्धिम मद्धिम.
अपनी ही सांस
आज मिलना था उन दोस्तों से
जिनसे वर्षों से खतों-खिताबत भी नहीं रही
जाने क्या हुआ
किस अधूरेपन ने मेरी आवाज़ बंद कर रखी थी
मेरी कलम रोक रखी थी किसी ने
छूटी यादों में
किताबों से लेकर मेज और टेबल लैंप थे
चिट्ठियाँ एक छोटे काठ के बक्से में डालकर
पुरानी झील में डाल आई थी
मैं एक दिन पुरानी क्यूबेक सिटी गई थी
बदले में मेपल सिरप खरीद लाई थी
जो छूट रहा था वह इतना ज्यादा था बनिस्बत उसके जिसे साथ ले आई थी
ऐसा लगता है जैसे अपनी सांस छोड़ आई थी वहाँ
तब से वह चलतीं रही है यहीं इसी झील के करीब
तभी हल्की नींद ही सो पाई थी इतने वर्षों
लगता रहा था कुछ चुपचाप गुम हो गया है मेरा
रौनक जैसे छिप गई है कहीं
इस बार मिली अपनी ही इस छूटी सांस से
वह दुबली हो गई थी
इंतज़ार करती रही थी किसी हवा का
उसके पास मेरी जिंदगी थी उसे पता था
वह उसे लौटाना चाहती थी इस बार
मैं भी चाहती थी
उसे अपने भीतर रख लूं
जब लौटूं देश
लेकिन थोड़ी हैरान थी मैं
मेरे लिए उसकी आँखों में उत्सुकता नहीं थी
उदासीनता भी नहीं
उसे पता था मैं लौटूंगी एक दिन
और पाऊंगी चलती हुई
सबकुछ वैसे ही था बर्फ के गिरने के इंतज़ार जैसा यहाँ
एक युग बीत गया था अगर तो बस मेरे लिए
सेंट लॉरान तक आते आते जाने क्यों अचानक परेशान हो उठी
सोचने लगी मैं कैसे जी रही थी अब तक
इतनी कम सांस के सहारे
बिना उदासी के
बिना बर्फ के
कैसे अपने सारे काम कर रही थी
दुनिया जहान घूम रही थी
किताबें लिख रही थी पढ़ रही थी
इस दुनिया में एक औरत सचमुच हैरान कर देने वाली शै है
उसे खुद भी नहीं पता
वह कब जलती है
कब बुझ जाती है सितारे-सी
अपने भीतर की रात में.
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यही सब सोचती हुई मैं अक्टूबर में अपने देश लौटी. किताब लिखी जानी है. हमारी यादों में बचा मांट्रियल मेरी कविताओं में जगह पाए इसकी वजह से ये कविताएँ लिखी गईं. मेरा एक जीवन वहाँ अब भी है, ऐसा लगा. वह एक सुंदर जीवन था, पढ़ने लिखने वाला, जहाँ अद्भुत दोस्तियाँ हुईं और अपनी मनुष्यता पर फख्र हुआ. अब जो भी है, उसे ही लिखना है, उसी ईमानदारी और समझदारी संग. उसी में टेलर, जेम्स टली, सैम न्यूमोफ, फ्रांसेस्का न्यूमोफ, दया वर्मा, रूथ एबी, डायान शे, राणा बोस, डोलोरस चीयू,श्री मुले, एरिक डरिए और अन्य मित्र भी रहते रहेंगे अपनी कल्पनाओं और सच्चाइयों के साथ. |
सविता सिंह का जन्म फरवरी, 1962 को आरा, बिहार में हुआ. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एम.ए., एम.फिल., पी-एच.डी. की. मांट्रियाल (कनाडा) स्थित मैक्गिल विश्वविद्यालय में साढ़े चार वर्ष तक शोध व अध्यापन किया. ‘भारत में आधुनिकता का विमर्श’ उनके शोध का विषय रहा. सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से अध्यापन आरम्भ करके डेढ़ दशक तक उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया. वे अमेरिका के इंटरनेशनल हर्बर्ट मारक्यूस सोसायटी के निदेशक मंडल की सदस्य एवं को-चेयर हैं. उनके प्रकाशित कविता-संग्रह हैं—‘अपने जैसा जीवन’ (2001), ‘नींद थी और रात थी’ (2005), ‘स्वप्न समय’ (2013), ‘खोई चीज़ों का शोक’ (2021), ‘वासना एक नदी का नाम है’ (2024), ‘प्रेम भी एक यातना है’ (2024). दो द्विभाषिक काव्य-संग्रह ‘रोविंग टुगेदर’ (अंग्रेज़ी-हिन्दी) तथा ‘ज़ स्वी ला मेजों दे जेत्वाल’ (फ्रेंच-हिन्दी) (2008). उड़िया में ‘जेयुर रास्ता मोरा निजारा’ शीर्षक से संकलन प्रकाशित. ‘प्रेम भी एक यातना है’ का उड़िया अनुवाद प्रकाशित (2021). अंग्रेज़ी में कवयित्रियों के अन्तर्राष्ट्रीय चयन ‘सेवेन लीव्स, वन ऑटम’ (2011) का सम्पादन जिसमें प्रतिनिधि कविताएँ शामिल. ‘पचास कविताएँ : नई सदी के लिए’ चयन शृंखला के तहत प्रतिनिधि कविताएँ प्रकाशित. प्रतिरोध का स्त्री-स्वर : समकालीन हिन्दी कविता, सम्पादित (2023, राधाकृष्ण प्रकाशन). ल फाउंडेशन मेजों देस साइंसेज ल दे’होम, पेरिस की पोस्ट-डॉक्टरल फैलोशिप के तहत कृष्णा सोबती के ‘मित्रो मरजानी’ तथा ‘ऐ लड़की’ उपन्यासों पर काम प्रकाशित. राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में ‘रियलिटी एंड इट्स डेप्थ : ए कन्वर्सेशन बिटवीन सविता सिंह एंड रॉय भास्कर’ प्रकाशित. आधुनिकता, भारतीय राजनीतिक सिद्धान्त और भारत में नारीवाद आदि विषयों पर तीन बड़ी परियोजनाओं पर काम जारी. ‘पोएट्री एट संगम’ के अप्रैल 2021 अंक का अतिथि-सम्पादन. ‘खोयी चीज़ों का शोक’ का बंगला तथा मराठी अनुवाद इसी वर्ष छपा है:‘हारिये जावा जिनिसेर शोक’ (भाषा संसद प्रकाशन), मराठी में : ‘हारवालेला वस्तूंचा शोक’ (कॉपर क्वाइन, 2024). कई विदेशी और भारतीय भाषाओं में कविताएँ अनूदित-प्रकाशित. कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में कविताएँ शामिल और उन पर शोध कार्य. हिन्दी अकादमी और रजा फाउंडेशन के अलावा ‘महादेवी वर्मा पुरस्कार’ (2016), ‘युनिस डि सूजा अवार्ड’ (2020) तथा ‘केदार सम्मान’ (2022) से सम्मानित. सम्प्रति इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में प्रोफेसर, स्कूल ऑव ज़ेंडर एंड डेवलपमेंट स्टडीज़ की संस्थापक निदेशक. |
सुबह इन कविताओं की चित्रावली से, प्राचीन मित्रताओं की नयी स्मृतियों और उस प्रेम से भर गई जो सच्चे अवसाद से प्रसूत होता है। इन कविताओं में जीवन की विरल और सीधी उपस्थिति है।
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इस दुनिया में एक औरत सचमुच हैरान कर देने वाली शै है…. बहुत बहुत ख़ूब।
भारत की आधुनिकता एक पहेली बन जाएगी और फासीवाद हक़ीक़त…शानदार।
सुबह बन गई मेरी। सुबह की ब्लैक कॉफ़ी के साथ ये कविताएं जैसे केक पर आइसिंग हैं। पहली नज़र में इन कविताओं से गुज़रने के बाद यही कहूंगी कि बहुत अच्छी कविताएं हैं। अपने साथ साथ एक यात्रा पर ले चलती हैं। कैथरीन से मिलवाती हैं कभी, कभी पहाड़ से,कभी बर्फ़ से, कभी वह गिलहरी मन मे फुदकने लगती है… आह बहुत बधाई सविता जी और शुक्रिया अरुण जी।
ये कवितायें स्त्री के भीतर की उथल-पुथल की कवितायें हैं। बर्फ़ होते जाते समय में अपने लिये एक चिंगारी बचा लेने वाली स्त्रियां इन उदास कविताओं के केन्द्र में हैं। शिल्प का गठन भी इन कविताओं की एक अतिरिक्त विशेषता है।
उम्मीद है ऐसी कविताओं के द्वारा अपने समय को जिये जाने की।
Savita Singh की कविताएं हमेशा दूर से टिमटिमाते तारे की तरह रही हैं।उनका टिमटिमाना कहीं से भी दिख जाता है।ये कविताएं महज यादनामा नहीं होकर एक स्त्री की पीड़ा को उसकी विडंबनाओं के संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखते हुए एक ऐसे दृश्य के रूप में उपस्थित हो जाती हैं जिसके लिए देश काल समय सीमा सबकुछ व्यर्थ हो जाता है।पीड़ा और दुःख का यह ऐसा अध्याय है जो लगभग शोकगीत की तरह विह्वल कर देता है।
इस दुनिया में एक औरत सचमुच हैरान कर देने वाली शै है
उसे खुद भी नहीं पता
वह कब जलती है
कब बुझ जाती है सितारे-सी
अपने भीतर की रात में.
सुन्दर कविताएं.. मुझे इन्हें पढ़कर सविता के युवा दिनों में लिखी कविताओं *एक अधूरी कविता * की स्मृति फिर हो आयी. सविता के पास वह कविता अब नहीं है. मैंने एक दिन पूछा तो सविता बोली, आपकी स्मृति में है वह. खोई नहीं है.
स्मृति के आसरे जितना स्त्री रहती है लगता है सम्पूर्ण जीव जगत की मादाएं रहती होंगी.
इन्हें धीरे धीरे पढ़ना चाहिए. बर्फ़ के फाहों को गिरते देखने की उदासी जैसे…
ये सांगीतिक अनुध्वनियाँ लौटने किंतु न पहुँच पाने के विलंबन और अवसाद से भरी हैं। एक बार फिर सम्मिलन की खुशी का आलोक बिरवरता है ज़रूर लेकिन कितना तो विकंपित और कितना तो थरथराहट से भरा। इस मिलने में आवासीयता की बजाय निर्वासन और बेदखली की प्रगाढ़ता ही रेखांकित होती है। कि जैसे विषमता, युद्धों और फ़ाशीवाद की गूँजती धमक के बीच सम्बंधों को पाया भी जाय तो कैसे । मिलना बड़ी परिघटना है लेकिन अकुंठ प्रफुल्लता के लिए जगह कहाँ बची। तब क्या फ्रायड का वह महान वाक्य बिजली की तरह कौंध नहीं जाता कि ख़ुशी एक बुराई है। धीमी चलती ये कविताएँ काव्य में निरलंकृति का पाठ भी हैं ।
इस सरलता से जब आप बड़ी बात करते हैँ l तो उसे अरजने में एक जीवन लगता है l अच्छी लगीं कवितायें l कवि और समलोचन को धन्यवाद l
मॉन्ट्रियल ही नहीं हमें हर उसे जगह के लोकतंत्र को बचाना है जहां अब इस जैसे अनेक संप्रत्ययों की परिभाषाओं में अवसाद को जगह मिलने लगी है । समय के साथ मन उसी तरह यात्रा नहीं करता जैसे भौतिक वस्तुएं करती हैं। इन कविताओं में उसी मन को बचाए रखने की कोशिश है। _–शरद कोकास ,दुर्ग छत्तीसगढ़
मद्धम से स्वर में नेपथ्य से आती सिंफनी सी ये कविताएं एक लौ सी टिमटिमाती है ज़हन में
दो कविताएं ही पढ़ी कि सांस थम सी गई। सविता सिंह के साथ मैं भी ऐसे प्रदेश में रम गई जो बीत भी चुका था और मेरे भीतर पल भी रहा था ।
आज कविताएँ पढ़ पाया। Savita Singh (जी) की कविताएँ subterranean नदियों सी कविताएँ है। उनकी बाढ़, उनका सूखा, शैवाल, मछलियाँ सब ज़मीन से बहुत नीचे, एकदम गहराइयों में है। वहाँ तक बहुत कम कवियों को भाषा पहुँच पाती है। वहाँ तक यह कहिये कि बहुत कम कवि पहुँच पाते है और इसलिए ऐसी कविता को हम अपनी बेध्यानी में overlook कर सकते है, इन्हें देखना सहज नहीं यह दीख जाए तो हमारा सौभाग्य है।
प्रस्तुत कविताएँ समय के बीत जाने का पर्व है जैसे मुहर्रम पर्व होता है, यहाँ भले हर्ष न हो किंतु है यह पर्व, दुख और शोक का पर्व और यहाँ सुख के भी दुर्लभ ही सही किंतु कुछ क्षण है जैसे अंतः सलिला नदी के अंधकार में कहीं किन्हीं छिद्रों से धूप आ जाती है।
कई दफ़ा लौटना एक निश्शब्द दुर्घटना की तरह होता है। जब हम अपनी पुरानी जगहों पर लौटते हैं तो समय के उस बियाबान में एकदम अकेले होते हैं— वह दुनिया जो कभी थी, जिसमें कभी हम थे, उसे हमारे सिवा कोई नहीं पहचानता।
सविता जी की कविताएं उस विगत अनुपस्थिति की— उस जगह लौटने की कविताएं हैं जहां स्मृतियों के केवल भूरे चिह्न बचे हैं—जहां आगंतुक के अलावा सब कुछ बदल गया है।
सविता जी को सुनना और पढ़ना धैर्य और विश्वास देता है। उनकी कविता का वितान कई दूर तक जाता है। अनुभव भव के साथ जोड़ते हुए वे हमें दूर की यात्रा पर लेजाती है. उनकी कवितायेँ नगर जीवन के कई छोरों से मिलती मन के अंदर लौट आने की मनमर्जी का लोक समेटकर कोई बिम्ब खड़ा करती हैं।