आमुख |
‘सुनीता’ उपन्यास को जिस आदर से पाठकगण ने अपनाया है और श्रीयुत् सुनीति कुमार चटर्जी ने जिस प्रेम से उसका अंग्रेजी के नामी मासिक पत्र में परीक्षण और समालोचन किया है, उससे उत्साह हमारा जरूर बढ़ गया है. हम समझते हैं कि उनकी कृपा मगही पर से घटती नहीं है, और यही सोच के हम फिर दूसरी पुस्तक के साथ उनके पास हाजिर हुए हैं. कमी और गलती जरूर इस सब में है और यथाशक्ति उन सब को हटाने की कोशिश भी की गयी है.
कुछ भूमिहार भाई इससे नाराज़ हो गए हैं कि उनके जात भाई की नक़्ल ‘सुनीता’ में बनाई गई है. उनसे हमारी अर्ज है कि हमारा हरगिज ऐसा ख्याल नहीं था. बुराई जो उसमें दर्शाई गई है, वह फैली हुई है, इसमें शक नहीं, और उसकी निंदा भी करनी चाहिए, यह भी निश्चित है. तो फिर जात का कोई भाव है यह सही नहीं कहा जा सकता. ‘फूल बहादुर’ में देखिए, हमारे एक लाला (कायस्थ) भाई ने यह भार उठाया है. और कुछ दिन बाद हमारी दूसरी कृति ‘गदह नीति’ में और किसी को यह भार उठाते आप देखेंगे.
इस रचना की समीक्षा से हमें बड़ाई (प्रशंसा) की ज्यादा उम्मीद न थी, लेकिन पहले मिलन के प्रेम के प्रवाह में शायद हमारी भाषा-संबंधी कुछ बातें भूल कर उन्होंने बड़ी खूबसूरती से अपनी भावनाओं को हमें संकेत से कह दिया है. उनके मुताबिक, अपनी मातृभाषा को सजाने-धजाने के लिए हम 20 साल से जुटे हैं, लेकिन धन की कमी के कारण उसे हम सही से देख नहीं सके. किताब सैकड़ों लिखी पड़ी हैं और बहुत सी पूरी तरह से तैयार हैं, लेकिन छपें कैसे? पिछले साल ‘बंगला भाषा की उत्पत्ति और विकास’ में अपनी प्रिय भाषा की आलोचना को पढ़कर हमने ठान लिया कि आलस करने से अब कोई फ़ायदा नहीं, और बिना कुछ किए जिंदगी बेकार हो जाएगी. इसीलिए तीन-चार दिन में ‘सुनीता’ लिख कर छापाखाने में भेज दिया गया, और इतनी जल्दी में वह छप भी गया, पूरे तरीके से उसका प्रूफ भी ठीक से नहीं देखा जा सका. लेकिन ज्यादा कृपा के कारण लोगों ने उसकी शिकायत नहीं की हैं. दबी जुबान से यह कहा गया है कि अगर अच्छे मज़मून से शुरू किया जाता तो इसमें जरूर कुछ अच्छा हो सकता था, लेकिन हमें यह लगा कि अपनी मातृभाषा के लिए अभी फ़िलहाल बैठने तक के लिए कोई जगह नहीं है, फिर भी जब हम इसे अपनी बहन समान आदर करने के ख्याल से उठ खड़े हुए हैं, तो पहले झाड़ू-बुहारी तो करना जरूर है. आसपास वालों को धूल धक्कड़ पड़ेगा तो सहयोगी धर्म निभाना कुछ जरूरी है, और हमें इस बात से बड़ी ख़ुशी है कि वह अपना धर्म पूरी तरह से निभा रहे हैं. कुछ शुभचिंतक अब भी छिटके हुए हैं, उनके लिए हम यह कहना चाहते हैं कि अबकी बार कुछ त्रुटियां हो चुकीं तो हो चुकीं. एक किताब में कुछ पानी छिटका तो छूटा. ‘गदहनीत’ में किसी को शिकायत नहीं होने वाला. अपनी मातृभाषा को समृद्ध करने के लिए हम नीचे लिखी किताबों को छपवाने की कोशिश कर रहे हैं:
- पाँच हजार साल के फूल में सुगंध (मतलब ऋग्वेद के काव्य के ख्याल से उम्दा मंत्र का मगही में अनुवाद. साथ-साथ जर्मन, फ्रांसीसी, अंग्रेजी और संस्कृत की व्याख्या की तुलना)
- मगही रामायण (यह बहुत दिन से प्रचलित है, हम इसे लिख रहे हैं)
- साढ़े तीन हजार साल के सुगंधित फूल (फ़ारसी गाथा का मगही अनुवाद, यह तैयार हो रहा है)
- मगही महाभारत
- मगही भागवत (तैयार है)
- मगही के भाषा-वैज्ञानिक तत्व
- मगही में बूढ़ी अम्मा (प्रचलित किस्सों का संग्रह)
- मगही कहावत (एक बंगाली भाई ने किया है)
- भारतवर्ष का पुराना हाल (अपनी खोज के अनुसार)
- मगही कुरान
- महम्मद साहेब की जीवनी, इत्यादि
इनमें से बहुत सी कृतियां हमारे जीवन में पूर्ण न हो सकेंगी, इसलिए हम कुछ धन बैंक में जमा कर देना चाहते हैं ताकि कुछ दिन बाद जब ब्याज की रकम पर्याप्त हो जाए तो जो इस धन का पंच (ट्रस्टी) होगा, वह मगही भाषा को, जो उस समय प्रचलित रहेगी, उसे और अन्य भाषाओं के बराबर सजाने की कोशिश करेगा. बंगला, हिंदी, 100-150 साल में बढ़ गए हैं. मगही को ज्यादा समय लगेगा. हमें एक डर है कि हिंदी (या खिचड़ी हिंदुस्तानी) मगही का लोप न कर दे. अंग्रेजी शासन के दौरान पूरी तरह से पढ़ाई की व्यवस्था नहीं हो सकती, पर उम्मीद है कि इसके कारण अनपढ़ मगही अपनी भाषा नहीं भूलेंगे. इससे यह नहीं कि स्वराज हासिल करने में हम रुक जाएंगे, लेकिन हमें यह कोशिश जरूर करनी चाहिए कि उनके उद्दंड सूरज डूबने से पहले ही मगही अपनी जगह पर कायम हो जाए.
मिति ३, वैशाख, सं १९८५ विक्रम (१ अप्रैल १९२८ ), नवादा.
जयनाथ पति
अरुण भाई
वर्षों पहले इसे मगही में पढ़ा था, एक बार पुनः हिन्दी में भी पढ़ा। गोपाल जी ने बहुत अच्छा अनुवाद किया है।
इस पेशकश के लिए आपका बहुत-बहुत आभार।
मैं झारखण्ड के पलामू जिले का हूँ. हमारी तरफ मगही ही बोली जाती है. पर हमारी मगही उस मगही से कदाचित भिन्न है जो बिहार शरीफ, नवादा क्षेत्र में बोली जाती है. कोस कोस पर पानी बदले सवा कोस पर बानी इत्यादि. मगही शब्द निश्चित ही मागधी से बना होगा, और मागधी हुई मगध में बोली जाने वाली प्राकृत. मगध क्षेत्र आज छः जिलों में फैला हुआ है – पटना, नालंदा, गया, औरंगाबाद, जहानाबाद और नवादा. हमारा पलामू जिला इस मगध में नहीं है किन्तु बोली वही है जो औरंगाबाद की है.
आपको मगही के सबसे पुराने उपलब्ध उपन्यास का हिंदी अनुवाद यहां मिलेगा.
लेखक नवादा के हैं, उपन्यास का देश बिहार शरीफ है. आमुख में लेखक ने बताया है उनके पहले उपन्यास “सुनीता” (प्रकाशन 1928) को लेकर भूमिहार समाज उनसे कुछ रुष्ट हुआ था. लेखक कायस्थ हैं और इस उपन्यास में उन्होंने एक कायस्थ मुख्तार की खिल्ली उड़ाई है. सबडिवीज़नल शहर में एसडीओ और डिप्टी साहबों की चलती थी. एक शिकायत / तकलीफ थी कि कमाई सबसे अधिक पुलिस वालों की थी. हाकिम मुख्तारों के कस्बिनों से रिश्ते आम होते थे.
समस्या उठ जाती थी जब किसी गणिका को कोई अपनी रक्षिता बना ले. इस उपन्यास के प्रतिनायक एक मुख्तार हैं, जो किसी सजातीय मुख्तार के घर कभी रसोइया होते थे और तीन बार अनुत्तीर्ण होने के बाद चौथी बार मुख्तारी पास कर पाए थे. ग्रन्थ-ज्ञान चाहे कितना भी कम रहे, व्यावहारिकता उनमे कूट कूट कर भरी थी. खूब पैसे कमाए, साहबों के बीच नाम कमाया, “किले जैसा घर” बनवाया और अब बस एक ख्वाहिश रह गयी – किसी तरह राय बहादुर बन जाएं.
अवश्य पढ़िए, बहुत छोटा उपन्यास है. देश-काल का बहुत सच्चा वर्णन.
बहुत ही सार्थक प्रयास होल हे।
“आधुनिक मगही साहित्य” विषय पर शोध औ “मगही साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास” लिखे खनि जयनाथपति के गाँव शादीपुर तक गेलूं हल। ऊ गाँव में कभी कायस्थ के समृद्ध टोला हलै। वैसे बाद में ऊ लोग नवादा औ दोसर जगह में समा गेलन।
मगही साहित्य में जयनाथपति अनमोल धरोहर हथ।
“फूलबहादुर” के अँग्रेजी अनुवाद जान के खुशी होल।
अनुवादक के आभार सहित शुभकामना।
नमस्कार।