शिक्षक नामवर सिंह कमलानंद झा |
नामवर सिंह के विद्यार्थी उनसे पढ़ते हुए और उनके व्याख्यानों को सुनते हुए इस बात को अच्छी तरह महसूस करते होंगे कि शिक्षण प्रविधि केवल स्कूल के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि उच्च शिक्षा में भी इसका महत्व है.
नामवर सिंह दुर्लभ शिक्षक के साथ-साथ साहित्य के गंभीर शिक्षाशास्त्री भी थे. उनके शिक्षण-कौशल तथा उनके द्वारा निर्मित पाठ्यक्रम में उनके इन दोनों रूपों को तलाशा जा सकता है.
नामवर सिंह बतौर शिक्षक सर्वप्रथम अपनी विद्वता और प्रचंड बौद्धिकता को शिक्षण से दूर रखते थे. कई बार आपको यकीन ही नहीं होता था कि आप इतने बड़े विद्वान से पढ़ रहे हैं. इस कला से वे विद्यार्थी और विद्वता के अंतराल को भर देते थे. विद्यार्थियों को वे विद्वता के आतंक से बचाते थे और उन्हें सहज करते चलते थे. वे इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि सहज हुए बगैर ‘सिखाना’ संभव नहीं है.
उनके सुयोग्य शिष्य पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लिखा है कि
‘नामवर सिंह सिर्फ़ पढ़ाते नहीं सिखाते हैं. सजग रूप से भी, अनजाने भी. अपनी उपलब्धियों से भी, असफलताओं से भी. अपनी संभावनाओं से भी, विवशताओं और दुर्बलताओं से भी.’
मैं कई शिक्षकों को जानता हूँ जो पहली ही क्लास में अपनी विद्वता की ‘धाक’ विद्यार्थियों पर ‘जमा’ देते हैं. इससे विद्वता की धाक तो पता नहीं कितनी जम पाती है लेकिन विद्यार्थियों में जिस कुंठा का जन्म होता है, उससे कई विद्यार्थी आजीवन मुक्त नहीं हो पाते हैं.
अच्छा शिक्षक अपने विद्यार्थियों को कुंठामुक्त करता है. नामवर सिंह अपने छात्र-छात्राओं को कुंठा रहित तो करते ही थे उनके चित्त से पूर्व की कई कुंठाओं को भी निकालने का प्रयास करते थे. उदाहरण के लिए वे अपने विद्यार्थी से कस्बे या गाँव के कॉलेज में उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक का नाम पूछते और कहते कि ‘मैंने उनका नाम सुना है’, कई बार कहते ‘उनसे मिला हूँ’, ‘वे बहुत अच्छे शिक्षक हैं’. इससे विद्यार्थियों में आत्मविश्वास का भाव जगता और उन्हें ऐसा महसूस होता कि वह भी कोई ‘इग्गी-दुग्गी’ शिक्षक से पढ़कर नहीं आया है.
इसी तरह पढ़ाने के क्रम में वे ऐसा कोई मौक़ा नहीं चूकते जब वे विद्यार्थियों को भाषिक, लैंगिक और जातिगत कुंठा से भी मुक्त करने का प्रयास करते. नामवर सिंह को नागार्जुन “हिंदी आलोचना का ‘जंगम विश्वविद्यालय’ कहा करते थे’. चलता-फिरता विश्वविद्यालय. समृद्ध ज्ञान के साथ चलते-फिरते रहे. भारत जैसे देश में, जहाँ लिखित साहित्य का प्रसार कम है, यहाँ कोई आचार्य यदि घूम-घूम कर विचारों का प्रसार करता है, तो यह एक आवश्यकता की पूर्ति है.”
पढ़ाने की कला और कला की पढ़ाई
नामवर सिंह घोषित रूप से कहते कि विद्यार्थियों ने मुझे नामवर बनाया. पाँच विश्वविद्यालयों में पढ़ते और तीन विश्वविद्यालयों में पढ़ाते हुए मुझे आज तक कोई ऐसा शिक्षक नहीं मिला जिसने विद्यार्थियों का मूल्यांकन इस रूप में किया हो.
विद्यार्थियों के प्रति उनमें गहरा आत्मविश्वास था. पेडागोजी का अर्थ विस्तार करते हुए उनका कहना था कि शिक्षक ही विद्यार्थी नहीं बनाता बल्कि विद्यार्थी भी शिक्षक बनाता है. यह ज्ञान की दोतरफा आवाजाही है.
1992 ई. में भरी सभा में अपने विदाई समारोह में उन्होंने कहा था,
“यहाँ विद्यार्थियों से, छात्रों से जो बौद्धिक चुनौतियाँ मिली, अगर ये नहीं मिलतीं तो हम लोग भी उसी तरह से एक ख़ास तरह की ‘स्मगनेस’ (smugness) के शिकार हो गए होते.”
सामान्यता शिक्षक विद्यार्थी को महत्व नहीं देते. उनके ‘अज्ञान’ पर खीजते और अपनी विद्वता का महात्म्य प्रदर्शित करने का एक भी मौक़ा नहीं चूकते. ऐसे में अगर नामवर जी जैसा विद्वान विद्यार्थियों से मिली चुनौतियों को महत्व दे रहा हो तो इसके मायने को समझने की कोशिश करनी चाहिए और अपनी शिक्षण प्रणाली पर गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिए. अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं,
“हम लोग ये तो जिक्र करते हैं कि जेएनयू को हमने बनाया. यह भूल जाते हैं कि जेएनयू ने हमको कितना बनाया. जेएनयू का एक वातावरण है, हमारे छात्र-छात्राओं ने हमें बनाया. उनसे संवाद के दौरान हमने बहुत कुछ सीखा है. उनके सवाल ऐसे होते थे जिनका जवाब देने के लिए तैयारी करके जाते थे ताकि हम इस लायक हों कि उनके सवालों का संतोषप्रद जवाब दे सकें. घनानंद ने कहा है ‘लोग हैं लागि कवित्त बनावत, मोहे तो मोरे कवित्त बनावत’ इसलिए हमने ही छात्र नहीं बनाए, छात्रों ने भी हमें बनाया. इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए. सबसे बड़ी बात यह है कि अगर ऐसे छात्र न मिले होते, उनकी ओर से चुनौतियाँ न आयीं होतीं तो कहीं और होते हम लोग.”
(जे एन यू में नामवर सिंह, संपादक सुमन केसरी, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 35)
पढ़ाते समय जब कंटेंट जटिल या दुरूह होता तो वे हल्के मूड़ में होते, कई बार जरूरत से अधिक. लेकिन इसके विपरीत जब कंटेंट हल्का होता तो मूड गंभीर. काव्यशास्त्र में ध्वनि को पढ़ाते हुए उन्होंने एक विलक्षण प्राकृत-मुक्तक का उदाहरण दिया
‘भम धम्मिअ बीसत्यो….कहा कि एक बाबाजी प्रेमी-प्रेमिका के मिलन में बाधक बन गए. ठीक मिलन के समय ही वे फूल तोड़ने आ जाते तो एक दिन प्रेमिका ने बाबाजी को कहा
‘हे धार्मिक! तुम निश्चित होकर घूमो, क्योंकि जिस कुत्ते से तुम डरते थे उसे गोदावरी के कुञ्ज में रहने वाले बाघ ने आज ही मार डाला है.’
यहाँ कुल मिलाकर जो अकथित है, वही प्रधान है. यहाँ ध्वनि यह है कि अब और बड़ी बाधा आ गई है. पहले तो कुत्ता ही था, जिससे तुम डरते थे, अब वहाँ बाघ है. भूले से इधर मत आना.
मजेदार टिप्पणी लगाते हुए नामवर जी ने कहा ये जो धार्मिक होते हैं हमेशा फूल-पत्ती तोड़ते रहते हैं ‘जोरू न जाँता अल्ला मियाँ से नाता’ यहाँ यह व्यंजित है, ध्वनित है.
वाच्यार्थ या कथित तो विधि का है, परन्तु ध्वनि suggested meaning निषेध की है. इसके विपरीत विद्यापति या रीतिकाल का शृंगारिक पदों को पढ़ाते समय वे विशेष गंभीर रहते. विद्यार्थियों को अन्यथा छूट देने का तो प्रश्न ही नहीं था.
जेएनयू में हम लोगों की मासिक परीक्षा होनी थी. नामवर जी के पत्र में हम लोग बहुत डरे हुए थे कि न जाने वे क्या पूछ दें. उन्होंने बिलकुल सामान्य-से दो प्रश्न दिए, जिसमें एक का ही उत्तर लिखना था. हम लोगों के एक पढ़ाकू मित्र ने दोनों प्रश्नों का उत्तर लिख दिया और टिप्पणी लगायी कि कोई एक उत्तर देख लें. हमारे उस पढ़ाकू मित्र को नामवरजी ने सामान्य अंक दिए और बताया कि परीक्षा केवल आपके ज्ञान की परीक्षा नहीं लेती है, वह आपके अनुशासन की भी परीक्षा लेती है और ज्ञान के नियंत्रण की भी. परीक्षा का अर्थ ही है दूसरे की इच्छा. परीक्षा विद्वता का प्रदर्शन नहीं, ज्ञान के समायोजन और बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन है. परीक्षा अतिरिक्त ज्ञान को संदर्भित ज्ञान में रूपान्तरण की कला है. परीक्षा ज्ञान का वमन नहीं प्रश्नों के सन्दर्भ में ज्ञान का संतुलित-कलात्मक विभाजन है. परीक्षा सीखने से इतर चीज नहीं बल्कि वह सीखने की ही एक प्रक्रिया है. इसलिए परीक्षा आपके ज्ञान का आकलन नहीं करती वह आपके सीखने की दक्षता और कमियों की पड़ताल करती है. इस तरह उन्होंने एक क्लास ही परीक्षा, परीक्षा की अवधारणा, परीक्षा की मानसिकता, परीक्षा की सीमाएँ और संभावनाओं पर ले लिया. और हम लोगों को परीक्षा की नयी व्याख्याएँ सुनने को मिलीं.
क्लास में नामवर सिंह जिन कुछ चीज़ों से सायास परहेज करते, उनमें एक व्यक्तिगत और पारिवारिक प्रसंग था. उनके पास कहने को व्यक्तिगत बातें कितनी रही होंगी इसे कहने की आवश्यकता नहीं. क्योंकि उनका व्यक्तिगत भी साहित्यिक था. एक से एक घटनाएँ, अनुभव का जखीरा उनके पास था, लेकिन उन्होंने कभी क्लास में व्यक्तिगत बातें नहीं कीं. कभी-कभी बहुत कुरेदने पर एक दो वाक्य बोल जाते.
जेएनयू से इतर ऐसे कई शिक्षकों से देश भर के विद्यार्थी पीड़ित रहे हैं जो क्लास में घर-परिवार की बातें, अपनी कथा-कहानियां, गोष्ठियों में प्रतिपक्ष को ‘चित्त’ कर देने का वर्णन वीर रस में सुनाते हैं और छात्र इस ‘वीररस’ आख्यान सुनने को अभिशप्त होते हैं. एक बात जो खासे असुविधाजनक थी वह यह कि वे अपने क्लास में सवाल-जवाब, वाद-विवाद, डिस्कशन आदि को प्रोत्साहित नहीं करते. क्लास के बाद अत्यंत जरूरी एक दो सवाल अगर कोई पूछता तो वे उसका उत्तर भर देकर क्लास समाप्त होने का संकेत कर देते. पता नहीं उनकी यह शैली पहले से थी या बाद में विकसित हुई थी. यह जरूर था कि वे अपने क्लास में वाद-विवाद के कई सूत्र छोड़ जाते, जिस पर हमलोग बाद में आपस में ही यथासाध्य डिस्कशन कर लेते.
पाठ्यक्रम में पुनर्नवता की खोज में बेचैन आत्मा
पाठयक्रम अपना लक्ष्य तभी पूरा कर पाता है जब उसे पढ़ाने वाले उसी योग्यता और गंभीरता से लें. उन्होंने पाठ्यक्रम को वैज्ञानिक और चेतनशील बनाने का महत्वपूर्ण काम किया. इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. उन्होंने भक्तिकाल के निर्गुण हिस्से का नाम दिया प्रतिरोध की कविता (पोएट्री ऑफ़ प्रोटेस्ट) और सगुण कविता को संदर्भ की कविता (पोएट्री ऑफ़ कॉन्टेक्स्ट). यह नामकरण काव्यधारा की पूरी अवधारणा को स्पष्ट कर देता है. पाठ्यक्रम की संरचना, कंटेंट और कलेवर न सिर्फ शिक्षण-कला को प्रभावित करता है बल्कि उस पर निर्भर भी करता है. यदि पाठ्यक्रम निस्तेज, ठस्स और दृष्टिहीन हो तो शिक्षक चाह कर भी शिक्षण को चुनौतीपूर्ण नहीं बना सकते हैं. इसलिए पाठ्यक्रम में पुनर्नवा की सजगता लगातार नामवर सिंह में बनी रहती है.
हिंदी के पाठ्यक्रम में ‘एप्रोच टू लिटरेचर’ जैसे नवीन कोर्स को शामिल करना उनके वृहत्तर साहित्यिक सरोकार को दर्शाता है. साहित्य की समझ को दुरुस्त करने के लिए इस कोर्स के ऐतिहासिक महत्व को समझा जा सकता है. इसमें साहित्य की समझ के अलग-अलग रास्ते, टूल्स और पद्धतियों के बारे में पढ़ाया जाता था
यह तो सभी जानते हैं कि बतौर पाठ्यक्रम जेएनयू में नामवर सिंह ने हिंदी और उर्दू भाषा की दूरी को पाटने के लिए नए तरह का कोर्स डिजाइन किया था. लेकिन यह कम लोग जानते होंगे कि उन्होंने कुछ कोर्स दोनों भाषाओं के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य किया था. जिसमें एक विलक्षण कोर्स था- ‘हिन्दी-उर्दू प्रदेश का सांस्कृतिक इतिहास’. इसका हिन्दी प्रदेश वाला आधा हिस्सा नामवर सिंह स्वयं पढ़ाते और उर्दू वाला आधा हिस्सा किदवई साहब. जाहिर है इस कोर्स में समावेशी हिन्दुस्तान की परिकल्पना और हिन्दी-उर्दू के प्रति एक समानांतर सोच की अवधारणा अंतर्निहित थी.
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क्लास से क्लास नोट्स की यात्रा
नामवर जी क्लास में यदा-कदा अरस्तू के प्रकाशित क्लास नोट्स ‘पोएटिक्स’ की चर्चा करते, सुप्रसिद्ध भाषाविद सॉस्यूर के छात्र द्वारा तैयार किये गए नोट्स ‘ए कोर्स इन जेनेरल लिंग्विस्टिक्स’ की बात करते. हमारे सत्र में शैलेश और मधुप ऐसे दो विद्यार्थी थे जो क्लास में नामवर जी की लगभग सारी बात को लिख लिया करते थे. इन दोनों ने बहुत बाद में चलकर (2016) नीलम सिंह के साथ मिलकर उनके क्लास नोट्स को प्रकाशित करवाया. राजकमल से प्रकाशित काव्यशास्त्र का यह क्लास नोट्स ‘नामवर के नोट्स’ भारतीय काव्यशास्त्र की नितांत भिन्न किस्म की पुस्तक है.
इस पुस्तक के बाद डॉ. राजकुमार और उदयभान दुबे ने ‘पाश्चात्य आलोचक और आलोचना’ (वाणी प्रकाशन) शीर्षक से उनके पाश्चात्य काव्यशास्त्र के क्लास नोट्स भी प्रकाशित करवाया. भारतीय काव्यशास्त्र को पढ़ाते हुए पाश्चात्य काव्यशास्त्र, अन्य अनुशासनों, प्राकृत, अपभ्रंश और विभिन्न भारतीय भाषाओं के साथ मुक्तिबोध तक उनकी सहज आवाजाही तथा सरस उदाहरणों से गूढ़ सिद्धांतों को सरलतापूर्वक संप्रेषित कर देना उनके कक्षा व्याख्यान की विशेषता थी और इन पुस्तकों की भी.
मधुप कुमार अपने विद्वतापूर्ण सम्पादकीय ‘सर्व विद्यानां निष्यन्दः’ में उक्त क्लास नोट्स के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए लिखते हैं,
“भारतीय आचार्यों के प्रति उनका अनाक्रांत भाव विस्मित करता है. वे स्वाभाविक रूप से उन स्थानों को बताते हैं जहाँ काव्यशास्त्र की परम्परा में उलट-फेर हुआ है. दूसरे जहाँ बचकर निकलते हैं, नामवर जी वहीं रुकते हैं.”
‘नामवर के नोट्स’ भारतीय काव्यशास्त्र के नोट्स हैं, हम सभी जानते हैं कि काव्यशास्त्र में विशेषकर क्लास में कोई नई स्थापना नहीं की जा सकती हैं, करनी भी नहीं चाहिए. कथा साहित्य, कविता, मीडिया, साहित्य का इतिहास आदि में जितना खुलने और खिलने का अवसर मिल सकता है, काव्यशास्त्र में संभव नहीं है. शिक्षा और शिक्षण पर शोध करते हुए मैंने यही जाना है कि क्लास अथवा क्लास नोट्स का मुख्य लक्ष्य विद्यार्थियों और शोधार्थियों की समझ को दुरुस्त करना और उस विषय पर उन्हें जिज्ञासा से भर देना होता है. ‘नामवर के नोट्स’ पढ़ने पर ये विशेषताएं पर्याप्त मिलती हैं.
किसी भी अच्छे नोट्स में विषय की स्पष्टता, सहज और आत्मीय भाषा, अचूक सम्प्रेषणीयता, रोचक प्रस्तुति, विलक्षण समझ और जटिल से जटिल अवधारणाओं को सहज तरीके से खोलने की युक्ति अगर न हो तो वह सार्थक नोट नहीं कहला सकता. भले ही उसमें कितनी मौलिकता और नई स्थापना की गई हों. अच्छी पुस्तक के लिए स्थापना और मौलिकता अनिवार्य होती है. नामवर के नोट्स में ये विशेषताएं अपनी सारी संभावनाओं के साथ मौजूद हैं.
नामवर के नोट्स में एक अच्छे नोट्स की सारी विशेषताओं के अतिरिक्त महत्वपूर्ण यह है कि इसमें भारतीय काव्यशास्त्र के साथ पश्चिम के काव्यशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र और अन्योन्य विचारों को साथ-साथ लेकर चलने और उसे पढ़ाने की कोशिश की गई है. इस तुलनात्मक शिक्षण में दोनों शास्त्रों की अपनी-अपनी सीमाओं और संभावनाओं से भी परिचय स्वाभाविक रूप से हो जाता है. प्लेटो, अरस्तु आदि से लेकर नामचोम्स्की तक की उपस्थिति विषय को समकालीन बनाती है. सहजता पूर्वक बड़ी बात कह जाने की विलक्षण युक्ति इस क्लास नोट्स की अन्यतम विशेषता है. मसलन, काव्यशास्त्र का प्रयोजन बताते हुए नामवर जी कहते हैं कि ‘काव्यशास्त्र का प्रयोजन साहित्य के सिस्टम को जानना है’. काव्यशास्त्र के प्रयोजन को इतनी व्यापकता के साथ प्रस्तुत करना साधारण बात नहीं.
नामवर सिंह के क्लास नोट्स में काव्यशास्त्र का अध्यापन सीधे सिद्धांत से आरंभ नहीं होता बल्कि पहले उसकी मनोरम भावभूमि तैयार की जाती है. नामवर सिंह काव्यशास्त्र का संबंध रिटोरिक, पोएटिक्स, एसथेटिक्स और लिटरेरी क्रिटिसिजम आदि से बताते हुए आधुनिक भारतीय और पाश्चात्य चिंतन तक पहुंचते हैं. इसी क्रम में वे हिंदुस्तान के श्रेष्ठतम काव्यशास्त्री/आलोचकों के विचारों से रूबरू होते हैं, जिनमें आनंद के कुमार स्वामी, सुशील कुमार डे तथा गणेश त्रयंबकम देशपांडे जैसे विरल काव्यशास्त्री विद्वानों के मत-मतांतर को आमने- सामने रखने का प्रयास करते हैं.
नामवर सिंह के क्लास और क्लास नोट्स में काव्यशास्त्र को पढ़ते-पढ़ाते इतिहास-बोध के साथ ‘सेन्स ऑफ टाइम’ और ‘सेन्स ऑफ प्लेस’ को महत्वपूर्ण माना गया है. इसी बोध के परिणामस्वरूप वह काव्यशास्त्र को संप्रदायों में विभाजित कर पढ़ाने की चली आ रही परंपरा को उचित नहीं मानते. उन्होंने यथासाध्य अपने क्लास नोट्स में ऐसा ही करने का प्रयास भी किया है. यह अकारण नहीं है कि उनके क्लास नोट्स में भरतमुनि का नाट्यसिद्धान्त और रस सिद्धांत अंत में आता है.
‘काव्यशास्त्र का आस्वादक : सहृदय की अवधारणा’ को पढ़ाने के क्रम में नामवर जी के क्लास नोट्स में रीडर रिस्पांस, कॉमन रीडर, क्लोज रीडर और उसकी पूरी पृष्ठभूमि की पड़ताल की जाती है. अंत तक आते-आते वे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि “सहृदय पाठक की अवधारणा तत्कालीन भारतीय समाज का अभिजन है…. द्विज होना चाहिए.”
नामवर जी बताते हैं कि “संस्कृत काव्यशास्त्र का कालविदग्ध गोष्ठयों का काल था. प्राचीन संस्कृत काव्यशास्त्र की रचना रसिक अभिजनों द्वारा की गई और इसका संवाद भी उन्हीं अभिजनों से था.”
एक अच्छे क्लास या क्लास नोट्स की विशेषता अतिरिक्त ज्ञान या पांडित्य का विलोपन भी है. अधिकांश क्लास के विद्यार्थी इस पांडित्य से भयभीत हो जाते हैं. और सामान्य शिक्षक अपने इसी ‘पांडित्य’ से विद्यार्थियों पर दबदबा क़ायम रखते हैं. ‘नामवर के क्लास नोट्स’ में नामवर जी के महात्म्य और उनके पांडित्य विलोपन को सहजतापूर्वक देखा जा सकता है, जो किसी भी शिक्षाविद को आकर्षित कर सकता है. ‘नामवर के नोट्स’ पर विस्तार से विचार की आवश्यकता है. ‘भूमिका’ में मधुप जी ने कई गंभीर बातों की ओर संकेत भी किया है. कठिनाई यह है कि गेस पेपर और प्रतियोगी पुस्तकों से बजबजाती दुनिया में ‘नामवर के नोट्स’ के महत्त्व को समझना कठिन है.
कुछ विद्वान शुक्लजी और द्विवेदीजी के इतिहास को क्लास नोट्स की संज्ञा देते हैं, क्योंकि विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर ये किताबें लिखीं गईं हैं. उस रूप में नामवर सिंह का ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, ‘हिन्दी साहित्य के विकास में अपभ्रंश का योगदान’ और ‘छायावाद’ नामवर सिंह के क्लास नोट्स ही हैं. ये तीनों किताबें पूरे देश में बतौर क्लास नोट्स पढ़ी-पढ़ाई जाती हैं. लेकिन नामवर के नोट्स शब्द के सही अर्थों में क्लास नोट्स है, क्योंकि इसे विद्यार्थियों ने जो उनके क्लास में नोट किया, शब्दशः वही है.
उत्तर-कथा : नामवर
हिंदी परिसर में ‘नामवर-कुंठा’ का भी अपना रोचक इतिहास रहा है. बहुत सारे लेखक, शिक्षक ‘नामवर कुंठा’ से ग्रस्त रहे हैं. इन कुंठितों में उनके समकालीन और आगे-पीछे के लेखक और हिंदी-शिक्षक तो रहे ही हैं उनके विद्यार्थी भी रहे है. ऐसे ही उनके एक विद्यार्थी रहे हैं जदीश्वर चतुर्वेदी जी. ‘समालोचन’ पर ही पर उनका एक लेख (आलोचना में नामवर सिंह का मार्क्सवादी प्रेम ३ मई, 2012) पढ़ने को मिला. इस लेख का संबंध चूंकि नामवर जी के शिक्षण-युक्ति और उनकी शोध-दृष्टि से है इसलिए इसकी चर्चा यहाँ प्रासंगिक है. इस लेख का कुल लब्बोलबाब यह है कि वे भक्त पसंद शिक्षक थे, विद्वान तो थे किन्तु शिक्षक अच्छे नहीं थे, एक भी मेधावी छात्र उन्होंने नहीं तैयार किया. राजनीति में सक्रिय विद्यार्थी उन्हें नापसंद थे, उन्होंने सैकड़ों नियुक्तियाँ कीं, किन्तु अच्छे विद्यार्थियों की नहीं कीं, वे न तो देश में एक भी अच्छा विभाग निर्मित कर पाए न एक भी अच्छा शोध करा पाए.
यह लेख हवाई वक्तव्यों (स्वीपिंग स्टेटमेंट), अतार्किक मंतव्यों और परस्पर विरोधी विचारों से भरा पड़ा है. चतुर्वेदी जी दर्जन से अधिक पुस्तकों के मार्क्सवादी लेखक हैं. एक मार्क्सवादी लेखक से इस तरह के लेखन की कल्पना भी दुष्कर है. वे अपने इस लेख में यह स्पष्ट नहीं करते कि ‘नामवर के विद्यार्थी’ से उनका क्या आशय है? उनसे पढ़ने वाला या उनके निदेशन में शोध करने वाला? ‘मेधावी छात्र’ से उनका क्या आशय है? उनके लिए मेधावी छात्र का प्रतिमान क्या है? आईएएस परीक्षा उत्तीर्ण करना या अच्छा शिक्षक बनना? अगर वे स्वयं को अच्छा शिक्षक मानते हैं तो वे भी नामवर जी के शिष्य हैं. हिन्दी से जुड़े सभी लोग उनसे पढ़ चुके ऐसे कई शिक्षकों को जानते हैं जो शब्द के सही अर्थों में अच्छे शिक्षक हैं.
चतुर्वेदी जी उक्त आलेख में लिखते हैं,
“उनके सबसे प्रिय छात्र वे ही होते जो उनके अनन्य भक्त थे, ये लोग साहित्य ज्यादा हाँकते थे और राजनीति कम करते थे. वे उन छात्रों से कम प्रेम करते जो उनके भक्त नहीं थे, राजनीति और साहित्य कम करते थे.”
हम लोगों ने राजनीति की समझ और समझ पूर्ण राजनीति के कई पाठ नामवर सिंह के क्लास व्याख्यान से सीखा है. नामवर जी को ऐसे छात्र-छात्राएँ कम प्रिय न थे जो साहित्य को, कोर्स को उतनी ही गंभीरता से लेते जितनी गंभीरता से राजनीति को. वे साहित्य और पढ़ाई की कीमत पर राजनीति पसंद नहीं करते. जो विद्यार्थी राजनीति का धौंस और दंभ प्रकट कर साहित्य कम अर्थात कम पढ़ाई करते ऐसे विद्यार्थियों के प्रति उनकी कोई सहानुभूति नहीं होती. अन्यथा चमनलाल, पुरुषोत्तम अग्रवाल, वीरभारत तलवार, प्रणय कृष्ण, गोपाल प्रधान, आशुतोष से लेकर बत्तीलाल बैरवा तक उनके सभी शिष्य राजनीति रूप से सक्रिय रहे और उनके प्रिय भी.
‘भक्ति परम्परा’ के विद्यार्थी ये नहीं थे. चूंकि मैं उनके अंतिम सत्र का शिष्य रहा हूँ, इसलिए ऐसे बहुतेरे उनके शिष्यों को नहीं जानता हूँ जो राजनीति और साहित्य दोनों में रुचि रखते हों. अन्यथा यह सूची काफी लम्बी हो सकती है.
इसी लेख में वे लिखते हैं,
“यह सच है कि नामवर सिंह बहुत बड़े विद्वान हैं. खूब पढ़ते हैं. खूब सुन्दर पढ़ाते हैं. लेकिन सुन्दर मेधावी छात्र तैयार करने की कला एकदम नहीं जानते. विद्यार्थी को तराशना और शिक्षित-दीक्षित करना एकदम नहीं जानते हैं.”
एक अच्छे शिक्षक का असली गुण क्या है? खूब पढ़ना और खूब अच्छा पढ़ाना. जब ये दोनों गुण नामवर जी में थे तो फिर मेधावी छात्र कैसे तैयार नहीं हो सकते? खूब अच्छा पढ़ाना ही अपने में पर्याप्त है. यह तो छात्र पर भी निर्भर करता है कि वह मेधावी छात्र बनना चाहता है या नहीं? ‘खूब अच्छा पढ़ाने’ के बाद अगर कोई मेधावी नहीं बनता है तो यह उस विद्यार्थी का दोष या ‘खूब अच्छा’ पढ़ाने वाले शिक्षक का? ऐसा नहीं है कि उन्होंने मेधावी छात्र तैयार नहीं किये. पूरे देश में अगर हिन्दी के कुछ गिने-चुने अच्छे मेधावी शिक्षक हैं तो उनमें से कई नामवर जी के छात्र रहे हैं. उनके ‘भक्त’ छात्रों की सूची में नहीं रहने वाले और उनसे घोर असहमत सुप्रसिद्ध पत्रकार उर्मिलेश भी उनकी शिक्षण कला के मुरीद हैं. वे जेएनयू : एक अयोग्य छात्र के नोट्स में लिखते हैं,
“साहित्य और समाज को लेकर आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करने में डॉ. सिंह का एक-एक व्याख्यान हम छात्रों के लिए बेहद महत्वपूर्ण था. कोई शोध छात्र उनका एक भी व्याख्यान छोड़ना नहीं चाहता था. इसके लिए हमलोग सुबह का नाश्ता या दिन का खाना भी छोड़ सकते थे.”
बिल्कुल युवा अवस्था में ही उन्होंने ‘बहुत अच्छे शिक्षक’ के रूप में अपनी पहचान बना ली थी. उनके ‘ग्रुप’ के बाहर के विद्वान लेखक (उनसे मात्र एक क्लास कनिष्ठ छात्र) रामदरश मिश्र उनके बिल्कुल आरंभिक दिनों में बीएचयू में उनकी शिक्षण कला की तारीफ़ करते हुए लिखते हैं,
“कहने की आवश्यकता नहीं कि नामवर सिंह बहुत अच्छे शिक्षक रहे हैं. तब भी थे और उनकी कक्षाएँ भरी होती थीं. दूसरी कक्षाओं के छात्र भी वहाँ चले आते थे.” (हिंदी के नामवर, बहुवचन, जुलाई-सितम्बर, 2016, पृष्ठ 10)
जगदीश्वर चतुर्वेदी अपने उक्त लेख में लिखते हैं, ‘नामवर सिंह के रहते हुए एक भी बेहतरीन अनुसंधान कार्य विभाग की ओर से सामने नहीं आया.’ ‘बेहतरीन अनुसंधान’ से उनका क्या आशय है, समझना कठिन है. विदेशों में हो रहे अनुसंधानों से या देश के हिन्दी विभागों में हो रहे अनुसंधानों से? इस तरह के वक्तव्यों को उन्हें सप्रमाण सिद्ध करना चाहिए. जेएनयू के अलावा अन्य हिंदी विभागों में हो रहे कुछ ‘बेहतरीन अनुसंधानों’ का हवाला देकर इसे समझाया जा सकता था. विभिन्न अनुसंधानों की तुलना कर वे इन बातों को प्रमाणित करते तो पाठकों का ज्ञानवर्धन भी होता. हिन्दी अनुसंधान की कुछ नयी दिशाओं की ओर संकेत हो पाता. नामवर जी के रहते हुए नहीं हुआ तो जहाँ नामवर सिंह नहीं थे वहाँ किस तरह का ‘बेहतरीन अनुसंधान’ कार्य हुआ या उनके नहीं रहते जेएनयू में किस तरह का ‘बेहतरीन अनुसंधान’ हुआ आदि-आदि. यह मार्क्सवादी लेखन पद्धति कतई नहीं है. यह नितांत गैर-मार्क्सवादी पद्धति है. नामवर सिंह के निदेशन में संपन्न कई बेहतरीन अनुसंधान कार्य से हिन्दी पढने-पढ़ाने वाले वाकिफ़ हैं. उदहारण स्वरुप पुरुषोत्तम अग्रवाल की बहुपठित पुस्तक कबीर-अकथ कहानी प्रेम की नामवर सिंह के निदेशन में कबीर पर संपन्न शोध कार्य का संशोधित रूप है. कबीर पर हुए विरल शोधों में इस पुस्तक की गणना होती है.
वीरभारत तलवार का किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में प्रेमाश्रम का अध्ययन इतना ‘बेहतरीन शोध’ है कि रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक में विस्तार से इसकी चर्चा की है. रामविलास जी ने इसकी चर्चा तब की है जब तलवार जी युवा थे. हम सभी जानते हैं कि रामविलास जी असाधारण चीजों की नोटिस नहीं लिया करते थे.
डॉ. सुरेश शर्मा की पुस्तक ‘रघुवीर सहाय का काव्य’ कवि और उनकी कविता को समझने के लिए बेहतरीन पुस्तक है. यह नामवर सिंह के निदेशन में लघु-शोध प्रबंध का ही पुस्तक रूप है. यह सुनकर रोमांच होता है कि इसके परीक्षक प्रसिद्ध आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी जी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, “रघुवीर सहाय का काव्य शीर्षक लघु-शोध प्रबंध पर सुरेश शर्मा को पीएचडी की डिग्री दे दी जाय.”
यह अनुशंसा साधारण शिक्षक या विद्वान की नहीं हिन्दी के जाने-माने आलोचक की थी. इस टिप्पणी से शोध की गुणवत्ता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है. यह तो सिर्फ़ एक-दो बानगी हैं, ऐसे कई महत्वपूर्ण और रेखांकन योग्य शोध नामवर जी के विद्यार्थियों के खाते में है. यह अपने आप में रोचक अनुसंधान का विषय हो सकता है कि नामवर सिंह के रहते जेएनयू में किस तरह के अनुसंधान-कार्य हुए. उन्हीं दिनों देश के अन्य हिंदी विभागों में किस तरह के अनुसंधान-कार्य हो रहे थे.
हिन्दी अनुसंधान को कोरी भावुकता और रीति-नीति-श्रृंगार से निकालकर ठोस अन्तर-अनुशासनिक बनाने में नामवर सिंह की लाजबाव शिक्षण-पद्धति और गंभीर शोध-दृष्टि का भारी योगदान है. साहित्यिक शोध को सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों से समन्वित कर उन्होंने हिन्दी शोध को समाज विज्ञान के समकक्ष खड़ा किया, हिन्दी साहित्य को भारतीय भाषाओं से जोड़कर देखने की दृष्टि विकसित कर अनुसंधान को भारतीय संवेदना से संपृक्त करने का बड़ा काम किया.
अनुसंधान में परम्परा और आधुनिकता को देखने की नयी दृष्टि पैदा की. उन्होंने परम्परा को रूढ़ियों की जकड़बंदी से निकालकर प्रगतिशील चेतना की निरन्तरता में देखने की शोध-दृष्टि विकसित करने हेतु शोधार्थियों को प्रेरित किया. अनुसंधान में नवीनता और सृजनशीलता के पक्षधर नामवर सिंह ने अपने समय में शोध में आलोचना की प्रवृत्ति को विकसित किया. शोध विषय या शोध रचनाकार से तीखी जिरह करना शोधार्थियों को सिखाया. नामवर जी से पूर्व सामान्यता जिस रचनाकार पर शोधार्थी शोध कर रहे होते वे उन्हें पूज्य भाव से देखते या उनकी सिर्फ़ तारीफ़ करते. आज भी अधिकांश हिंदी विभागों में पूज्य भाव से ही शोध-कार्य होता है. नामवर जी अपने समय में शोधार्थियों को इस ‘महात्म्य मनोग्रन्थि’ से बाहर निकालने का काम किया.
नामवर सिंह ने लिखा कम, बोला बहुत. यह अनायास नहीं था. यह नामवर जी की सोची-समझी दृष्टि थी. वे आमजन से जुड़ना चाहते थे. साहित्य के माध्यम से देश भर के विद्यार्थियों से रूबरू होना चाह रहे थे. और इस कार्य में उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली. आज जब वे नहीं हैं तो उनकी किताबें तो हैं हीं, उनके बोले हुए का अधिकांश भाग आशीष त्रिपाठी जी के सौजन्य से पुस्तक के रूप में उपलब्ध है. जिन्होंने उनसे कभी पढ़ा ही नहीं, वे भी स्वीकार करते हैं कि नामवर सिंह मेरे गुरु हैं. वाचिक परम्परा को अपनाना, छोटे-बड़े सभी तरह के कार्यक्रमों में जाना, उनकी सुचिंतित रणनीति थी. वे अच्छी तरह से समझ गए थे हिन्दी पट्टी में शिक्षकों का अकाल है, और जो हैं, उनमें अधिकांश ‘कामायनी के बाद सब कुछ कूड़ा लिखा गया’ मानने और समझने वाले हैं, ‘पूजिए विप्र’ वाले हैं, मुक्तिबोध और नागार्जुन की रचनाओं को भी आस्था और भक्ति-भाव से पढ़ाने वाले हैं. इसलिए यथासाध्य उन सारी जगहों पर जाकर विद्यार्थियों में प्रगतिशील चेतना का संचार ही उनका लक्ष्य था.
वे यह भी जानते थे कि बहुत कम लोग किताब पढ़ पाते हैं, लेकिन घंटे भर का भाषण सुनना सहज है. उनके वक्तव्यों ने हिन्दी शिक्षण और जनमानस के विवेक निर्माण में जितना काम किया है, उतना कई किताबें नहीं कर सकतीं. हिन्दी के सबसे बड़े सायास ‘मोबाइल शिक्षक’ थे नामवर सिंह. वे किताब लिखने की कीमत पर जगह-जगह घूमते रहे. उनके इस दर-दर भटकने पर उनके कई चाहने वाले भी निंदा करते रहे. कई विरोधी तो यह भी कहते कि उन्हें अध्यक्षता की लत लग गई है. लेकिन वे अपने इस मिशन से डिगे नहीं. और उनका यही हठ उन्हें हजार-हजार विद्यार्थियों का शिक्षक बना दिया.
उनके छात्र रहे राजकुमार (प्रसिद्ध आलोचक) ने जब एक बार नामवर सिंह से एक अच्छे अध्यापक का गुर जानना चाहा तो उन्होंने कहा,
“यदि आप अध्यापन को दोयम दर्जे का काम समझते हैं तो अच्छे तो क्या सफल अध्यापक भी नहीं हो सकते. अध्यापन में रुचि लें, रस लें और उसे महत्वपूर्ण मानें. बिना तैयारी के क्लास में न जाएँ. विद्यार्थी को बहकाने की कोशिश न करें क्योंकि वह बखूबी जानता है कि आप कितने पानी में हैं. वह आपको तार-तार, आर-पार जानता है. यदि कहीं कोई दिक्कत है तो उसे स्वीकार करने में संकोच न करें क्योंकि शिक्षण एक सहकारी प्रयास है, जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी दोनों शामिल हैं.”
कमलानंद झा हिन्दी और मैथिली आलोचना में गहरी अभिरुचि. सौ से अधिक नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति एवं निर्देशन. हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार सम्प्रति: |
महत्त्वपूर्ण आलेख।
कितनी अंतर्दृष्टियाँ समेटे बेहतरीन संस्मरणात्मक आलेख लिखा है कमलानंद जी ने!
क्लास में बैठकर नामवर जी से पढ़ने का अवसर तो मुझे नहीं मिला पर विद्यार्थी जीवन से ही मुज़फ्फरपुर और पटना तथा बाद में बतौर अध्यापक हैदराबाद केंद्रीय विश्वाविद्यालय के अलावा भारत के अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित संगोष्ठियों में उन्हें बारम्बार सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ. कुछेक विचलनों को छोड़कर उनकी विलक्षण विद्वान् वक्ता वाली वही छवि मेरे भी मन है जिसका विस्तार से ख़ाका कमलानन्द जी ने खींचा है.यह अलग बात है कि संगोष्ठी में कई बार वे माहौल देखकर नेताओं की तरह तक़रीर भी किया करते थे.
ज्ञान की गहन साधना से उत्पन्न विचार और व्याकरण के साथ ही सह्रदयता का संतुलन नामवर जी के भाषण और लेखन की बड़ी विशेषता है.
नियुक्तियों में वाम-दक्षिण के साथ ही अपना-पराया को लेकर भेदभाव के जो आरोप उन पर लगे उसके बारे में वे लोग ज़्यादा बता सकते हैं जिनका उन्होंने भला या बुरा किया है. पर मुंबई विश्वविद्यालय में संगोष्ठी आरंभ होने के ठीक पहले शिवकुमार जी से उन्होंने किसी अध्यापक का नाम लेकर पूछा था कि “उसकी पोलिटिकल नवैयत क्या है?” शिवकुमार जी ने सिर्फ़ इतना कहा कि आदमी पढ़ा लिखा है पर उसकी राजनीतिक रुझान का पता नहीं. नामवर जी ने सप्ताह भर के भीतर उनसे पता करके बताने का यह कहते हुए अनुरोध किया कि “पंद्रह-बीस दिनों बाद उसकी प्रोफेसरशिप का इंटरव्यू होना है.”
ख़ुद को विष्णुकांत शास्त्री का मित्र कहनेवाले नामवर जी में विद्यानिवास जी के प्रति आदर भाव था. और तो और, स्वामी अखंडानन्द जी के पाण्डित्य को लेकर भी वे बहुत प्रभावित थे और हैदराबाद में सम्पन्न भक्तिकाव्य वाली संगोष्ठी में उन्होंने विस्तार से उनका ज़िक्र किया था.जीवन के अंतिम चरण में उनके सम्मान में आयोजित इंदिरा गाँधी कला केंद्र में केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह और महेश शर्मा के भाषण जिन लोगों ने सुने हैं उन्हें बताने की ज़रूरत नहीं कि वह समारोह कितना हास्यस्पद हो गया था.
कुल मिलाकर कहना यह है कि नामवर जी को देवता के आसन पर विराजमान कर देने वाली अंधश्रद्धा से बचते हुए स्वभावत: कुछ संस्कारगत मानवीय दुर्बलताओं एवं पूर्वग्रहों से ग्रस्त होने के बावजूद एक विद्वान् लेखक एवं वक्ता के रूप में उनका स्मरण करना बेहतर है.
बहुत सुंदर संस्मरणात्मक आलेख।
“अनुसंधान में परम्परा और आधुनिकता को देखने की नयी दृष्टि पैदा की. उन्होंने परम्परा को रूढ़ियों की जकड़बंदी से निकालकर प्रगतिशील चेतना की निरन्तरता में देखने की शोध-दृष्टि विकसित करने हेतु शोधार्थियों को प्रेरित किया।” खूबियों से कोई असहमति नहीं। नामवर सिंह जी की स्मृति को नमन
बहुत शानदार संस्मरणात्मक आलेख। वाक़ई नामवर सिंह अच्छे अध्यापक के साथ-साथ एक अच्छे वक्ता भी थे। जो उनके विद्यार्थी नहीं रहे वो भी उनकी प्रशंसा करते हैं। अपने सुपरिचित अंदाज़ में आपने ये लेख लिखा है। बहुत शुक्रिया झा सर।
हिन्दी पट्टी का आलोचनात्मक विवेक नामवर सिंह द्वारा किस तरह निर्मित किया गया, इस बड़े फलक को सिर्फ़ एक संस्मरणात्मक लेख समेटने की चेष्टा के लिए हार्दिक बधाई! जैसी उनकी शैली थी – तृप्ति और जिज्ञासा का अद्भुत युग्म! अपनी किसी पुस्तक या उसके उद्धरण का संदर्भ शायद ही उन्होंने अपनी कक्षा में कभी दिया हो। उन्हीं के मित्र विजय देव नारायण साही से शब्द लेकर कहें, तो वह पारदर्शी निर्वैयक्तिकता। यह मात्र संस्मरण नहीं, सृजनशील आलोचनात्मक लेख है। जिसे नामवर जी की एक भी कक्षा में बैठने का सौभाग्य मिला है, वह ‘भावानुकीर्तन’ का मर्म समझ जाएगा। हमलोगों का सौभाग्य की नामवर जी से क्लास रूम में पढ़े। दुर्भाग्य कि सिर्फ़ एक सेमेस्टर के लिए। उनकी स्मृति को प्रणाम एवं आपको पुन: बधाई और साधुवाद!
अपने गुरु नामवर जी के विषय में बहुत सुव्यवस्थित लिखा कमलानंद झा सर ने। उन्होंने नामवर जी की शिक्षण विधि-प्रविधि और शिक्षक रूपी कई पहलुओं को बहुत खूबसूरती से उजागर किया। नामवर जी के शिष्यों की सूची, किताबों के नाम, उनकी साहित्यिक दृष्टि और प्रसंग ने मुझ अज्ञानी को यक़ीनन, समृद्ध किया।
‘परिकथा’ और ‘बया’ में पढ़कर अक्टूबर 2024 में मैंने कमलानंद सर को फोन किया। बातचीत के दौरान जब शिक्षा, शिक्षार्थी, विद्यार्थी और शिक्षक का उल्लेख हुआ, तब उन्होंने कहा- हमें सदैव विद्यार्थी होकर, और विद्यार्थी का होकर अध्ययन-अध्यापन का कार्य करने चाहिए। परिणाम उसके बाद मिलता है।
यही सब कुछ मुझे इस आलेख में भी मिला। बहुत आनन्द आया पढ़कर ! इसी प्रकार की दृष्टि से शिक्षा, उच्च शिक्षा और विशेषकर हिंदी पट्टी एवं प्रोफेसरों में व्याप्त ज्ञान का आधा-अधूरा घमंड कुछ कम होगा। बहरहाल, समालोचन और कमलानंद झा सर को बहुत-बहुत शुक्रिया।