• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » श्रेयसी : मनीषा कुलश्रेष्ठ

श्रेयसी : मनीषा कुलश्रेष्ठ

मनोचिकित्सक और कवि विनय कुमार का कविता संग्रह ‘श्रेयसी’ इस वर्ष राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. प्रख्यात संस्कृत विद्वान राधावल्लभ त्रिपाठी के अनुसार, यह संग्रह ‘सरस्वती के अनाविल उज्ज्वल स्वरूप का साक्षात्कार’ है. सात खंडों में विभक्त और 290 पृष्ठों में विस्तृत इस संग्रह की चर्चा लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ कर रही हैं.

by arun dev
June 8, 2025
in समीक्षा
A A
श्रेयसी : मनीषा कुलश्रेष्ठ
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
मैं तो स्वयं एक खोज हूँ!

मनीषा कुलश्रेष्ठ

‘सरस्वती’ को केंद्र में रख रची गई ‘श्रेयसी’ एक अनूठी और विराट कविता-श्रृंखला है. लगभग तीन सौ पन्नों में बहती यह काव्य-धारा सरस्वती के प्रकट अर्थों- देवी, नदी और वाणी पर ही केंद्रित नहीं, यह आपको समय के आर-पार और ज्ञान और चेतना के विश्वजनीन सन्दर्भों में भी ले जाती है. इस रचनात्मक प्रयास की जड़ें यक़ीनन भारतीय संस्कृति में हैं, मगर उँगलियाँ रोमन और ग्रीक मायथोलॉजी के पन्ने भी पलटती हैं. ‘श्रेयसी’ की सरस्वती भद्र, बौद्धिकों की सृजनशीलता की स्रोतस्विनी भर नहीं, यहाँ वह शिशु के रुदन से लेकर मानव के श्रम तक में अभिव्यक्त हुई है.

यह श्रृंखला ऐसी है जिसमें किसी को वीणा के तारों से झंकृत ज्ञान और भाव का गीतात्मक समन्वय मिलेगा, तो किसी को प्रकृति के अनूठे वितान और किसी को सरस्वती की वैश्विक अवधारणा. यहाँ सरस्वती की प्रछन्नता का सम्मान भी है और उसकी धरती और चेतन की धमनियों से गुज़रती धाराओं का संधान भी. यह उस तरलता का प्रबंध काव्य है जो मनुष्य के भीतर रचनात्मकता, उसके द्वारा कही गई कथाओं में एक दिव्यता और पृथ्वी पर एक नदी के रूप में बहती है. श्रेयसी के भीतर तीनों का प्रवाह है. नदी, देवी और प्रज्ञा की पारस्परिकता और समरूपता देख प्रसाद याद आते हैं- ‘एक तत्त्व की ही प्रधानता उसे कहो जड़ या चेतन!’ बहुआयामी प्रतीकों और मनोविज्ञान के साहचर्य से ही ऐसा अनूठा काव्य जन्म सकता था, जहाँ शब्द यात्रा समाप्त कर देते हैं मगर अर्थ बहुत आगे तक निकल जाते हैं. और सबसे अनोखी बात यह कि इन कविताओं में सरस्वती परम्परात्मक रूप में हैं ही नहीं, वे तो स्वयं परम्पराओं पर चोट करती चलती हैं.

अपने नाम के मंत्र और सूक्त में ही नहीं
अपने प्रतिवाद और विरोध के दर्शन में भी रहती हूँ मैं

यह श्रृंखला नाट्य-शास्त्र की परिपाटी से संकेत लेकर ‘नांदी-पाठ’ से आरंभ होती है,

हे, मेरी सरस्वती
तुम बूझो क्या है यह
बड़ी सी प्रार्थना या
छोटे से कवि का सहज ऋतुचक्र!

सरस्वती इन पंक्तियों पर मुसकुरायी होंगी कि लो, उतर आई मेरे बहाने स्त्री/नदी/वाणी तुममें?

मुझे इस संकलन में एक गहरा तथ्य और विचार जो मिला वह लैंगिक घुलनशीलता का था. एक ओर कवि सरस्वती के भीतर उतर कर उसके स्त्री होने के तमाम तरह के भावों को प्रकट करता है और दूसरी ओर सरस्वती विरंची द्वारा रचे जाने के कथा-भ्रम को तोड़ अपनी लैंगिक सीमाओं से मुक्त हो जाना चाहती है. इस पर हम आगे थोड़ा विस्तार से बात करेंगे.

किताब सात सर्गों में विभक्त है- वाणी, कवि, आख्यान, विविधा, म्यूज़, विनशन और विसर्जन. सारे सर्ग सारगर्भित और गागर में छलकती सरस्वती लिये हुए हैं. पहले सर्ग की पहली ही कविता आपको थाम लेती है, और आप प्रछन्न लहरों के हवाले जो होते हो तो आखिरी कविता पर जाकर रुकते हो. यह एक ऐसा काव्य है जो तरह-तरह की संबंधित और प्रासंगिक कथाओं की लड़ियों से रचा गया है. तो क्या कहें इसे खंड काव्य ? महाकाव्य? या सिर्फ नये समय का प्रबन्ध काव्य ? जो भी हो इसमें एक प्रबंधात्मकता अवश्य है और मैं इसके फोकस्ड वैविध्य को देखते हुए प्रबन्ध काव्य ही कहना चाहूँगी.

 

 

वाणी सर्ग

“पृथ्वी के भीतर किसे ढूँढ़ते हो ज्ञानियों
पार्थिवता कब मेरा स्वभाव
मैं तो सदा से यहीं या कभी नहीं कहीं”

ये बोल विनय कुमार की सरस्वती के हैं. वह जब जब अपने ‘वाणी’ स्वरूप में आती है तो अपने पिता शिवालिक को याद करती है, अपने मूर्त स्वरूप के भंजन का आह्वान करती है और ब्रह्मा द्वारा रचे जाने की मिथक कथा पर व्यंग्य करती है और ख़ूब करती वह ब्रह्मा से अनोखे सवाल कर बैठती हैं और ऐसा करके वे स्वयं को और ब्रह्मा को मुक्त करती हैं, पार्थिवता से. जिस सृजनात्मक प्रज्ञा के होने से कताओं का विराट और वैश्विक वितान वह ब्रह्मा या किसी इतर ईश को अपनी रचना का श्रेय कैसे दे सकती –

मगर जिनका यह अनुमान कि मुझे रचने से पहले
ब्रह्मा ने कमल का आसन और शुभ्र वस्त्र भी रच लिया होगा
उन्हें समझाओ कि शम्पाएँ वस्त्र नहीं पहनतीं
किरणें दुकूल नहीं धारण करतीं

सरस्वती को एक देवी नहीं, मुक्त स्त्री की तरह रचते हैं विनय जी. जो प्रतिरोध करती है, व्यंग्य करती है, खिन्न होती है, डाह करती है, राग में डूबती है तो वैराग्य में व्यक्त होती है.

उसे अपने पुत्रों से मोह भी है तो उनकी हरकतों से चिढ़ और विरक्ति भी. सरस्वती हर उस जगह अपना होना उदघाटित करती है जहाँ प्रकृति और मनुष्यता के बीच भाव-अभाव, राग-विराग, अंत-अनंत, सत्य और स्वप्न, व्यवहार और दर्शन हैं. और इन व्याप्तियों के बावजूद सरलता और लोकधार्मिता का आग्रह यह कि

कभी नहीं जान पाएंगे भाव के रसिया
कि मेरी काया अभावों से बनी है.

‘वाणी’ सर्ग सरस्वती का एकालाप है. यहाँ वह मुखातिब होती है कभी जगत से, कभी कवि से, कभी उस रचयिता से जिसे गुमान है कि ‘वाग्मिता’ को रचा भी जा सकता है. इस सर्ग में कवि सरस्वती के उस स्त्री-तत्त्व में गहरे जा पैठे हैं कि यह सर्ग सरस्वती के आत्मबोध की यात्रा बन गई है. ऐसी यात्रा आत्म-विस्मृति के बिना संभव नहीं. सरस्वती की, कवि की और संचारित होकर पाठक की भी आत्मविस्मृति. कला और जीवन दोनों में सर्जनात्मकता तभी संभव है, जब हम अपने अहं को विसर्जित कर दें. वाणी है वह तो शिशु की तुतलाहट में भी सुखी है, बस भाव संचारित होते हों. सर्ग की हर कविता में यह सार्थक होता है, जहाँ कवि के मन में बैठी सरस्वती हर उस जगह होने की बात कहती हैं, जहाँ हमने कल्पना तक नहीं की. मसलन –

मेरे प्राण तो वहाँ
जहाँ मेघों की आवश्यकता बसती है.

 

 

कवि सर्ग

इस सर्ग में कवि सरस्वती से मुखातिब है. इस सर्ग की इब्तिदा “इब्तिदा” से है. यहाँ कवि ‘नॉस्टाल्जिक’ होता है अपनी ‘खल्ली छुआने यानी इब्तिदा यानी आखर ज्ञान के पहले पाठ से.

तब कहाँ जानता था मोजज़ा हुआ है क्या
मुँहजुठी ज़हन की किस नूर के निवाले से
तब कहाँ जानता था फिर से पुकारूँगा तुझे
मैल में डूबी हुई रूह के उजाले से !

इस सर्ग की शेष कविताएँ सरस्वती के एकालाप में छूट गए आत्म-स्वर से मिलवाती है और एक आधुनिक, कहना चाहिए परा-आधुनिक सरस्वती के जीवित, मानवीय और तार्किक स्वरूप से साक्षात्कार कराती हैं. लेकिन क्रिया-रूपा सरस्वती की सक्रियता और नव-नवोन्मेषशालिनी क्षमता इतनी कि कवि सरस्वती के आह्वान में खुद को अधूरा और असमर्थ पाता है. वह ध्वनियों, रंगों, गंधों, दृश्यों और स्वप्नों में हाथ-पैर मारता है और हार जाता है. यह पराजय कितना अर्थपूर्ण है.

वसंत की अधिष्ठात्री के निहितार्थ प्रकृति के बहुत से मोहक दृश्य इन कविताओं में आए हैं. मानो इन कविताओं में प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि मानव भावनाओं की सहचरी और प्रतीक है.

मुझे विनय जी को पढ़ते हुए प्रतीकवाद के पाश्चात्य कवियों बोदलेयर और मलार्मे की कविताएँ याद आती हैं, कविताओं में प्रयुक्त अर्थबहुल बिंबों, भावों की बहुस्तरीय प्रकृति के साथ शब्दों में निहित ध्वनि की सार्थक गूंज के कारण. मलार्मे जिस सिंफनिक उल्लास की बात करते हैं विनय जी की कविताओं में मिलता है.

इन कविताओं का पाठ ऐसा है जो मस्तिष्क के रंगमंच पर उपस्थित हो जाता है, मानो एक सफेद कुर्ते-पाजामे में कोई कवि पुकार रहा है अक्षरों-भावों की मौन और थोड़ी खिन्न देवी को, अपने प्रश्नों और प्रति प्रश्नों में उलझा हुआ. विनय जी के यहाँ कविता में ‘मंचीय’ पुट जो आता है वह समूचे संकलन को दृश्यात्मक बना देता है. कितने कितने दृश्य, प्रकृति के परदे, पुराणों के मिथकीय और सांकेतिक खाँचे , इतिहास के गुँजल, समूचे ब्रह्मांड के नीचे अपनी अतीव जिज्ञासा से आकुल मनुष्य और उसके बनाये संसार और प्रतिसंसार सजीव हो जाते हैं. काल, प्रकृति और मनुष्य के परस्पर संबंध को वे बहुतस्तरीयता में लिखने की विज्ञता साध चुके हैं, उनकी कोई कविता इकहरी नहीं होती, कोई कविता ऐसी नहीं होती जिसमें लेयर्स न हों.

मुझे कहने दो सरस्वती
तुम उसी क्रिया की जिज्ञासा हो
क्रिया से अभिन्न एक यात्रा
जो क्रिया के भीतर और बाहर एक साथ बहती है.

कवि सर्ग की मेरी प्रिय कविता है– धर्म बोलता बहुत है, सोचने नहीं देता. सरस्वती के बहाने कवि ने बहुत से सामयिक और जलते हुए प्रश्न सहजता से बिना दुराग्रही हुए उठाए हैं, बिना पोज लिए. एक सार्थक सरोकार झलकता है इनमें. मिथक का बोध आपको भक्त या पोंगापंथी नहीं बनाता, वह समझ से हासिल एक साहस देता है कि आप कह सकें :

हे मेरे मस्तक में पृष्ठ – पृष्ठ खुलती पुस्तकें
तुमसे ही यह सामर्थ्य
कि मैं सृष्टि जे सारे देवताओं से आँख मिलाकर बात कर पाता हूँ

कहना न होगा कि चतुरानन ब्रह्मा से आँख मिला कर सवाल पूछती सरस्वती को गढ़ कर कवि को बहुत राहत मिली होगी.

ये कविताएं अनगिनत अनूठे प्रसंगों, शब्दों, व्यंजनाओं और बिंबों का खजाना है. किसी नवेले लेखक को अपनी शब्द सम्पदा, अभिव्यक्ति में व्यंजना बढ़ानी हो तो वह इन कविताओं को एक बार गहनता से पढ़ ले. ये कविताएँ अपने आप में एक रचनात्मकता की कक्षा है भाषा को बरतने का. बिटवीन द लाइंस ही बसते हैं यहाँ कविता के गहरे पाठ.

 

 

आख्यान सर्ग

यह एक अनूठा सर्ग है. काव्यात्मक प्रयोगशीलता के अनूठे उदाहरण यहाँ हैं, भाषा में हिन्दी का ठाट, सर्वथा नए बिम्ब, मानवीकरण, पुराण से लेकर इतिहास और वर्तमान तक समय के बीच की आवाजाही. इन कविताओं में अनूठे प्रयोग हैं जो हमारे ही पारंपरिक स्रोतों से प्रेरित प्रयोग हैं. बिल्कुल नयी कथाएँ मगर मूड और बनक मिथकीय! कुछ पुरानी कथाएँ हैं भी तो उनके साथ मानीखेज रचनात्मक खिलवाड़ की गयी है. यह प्रयोग इतने व्यंजनात्मक स्तरों पर जाता है कि कविता और कहन नए अर्थों में खुलते हैं. इस सर्ग में एक कविता ‘पुष्कर कथा’ है, जहाँ ब्रह्मा का एकमात्र मंदिर है. इस कविता के प्रसंग में जो कथा है वह मुख्य रूप से पद्म पुराण में मिलती है. हुआ यूँ कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के बाद पुष्कर (राजस्थान) में एक महायज्ञ करने का निर्णय लिया. यह यज्ञ सृष्टि के कल्याण और धर्म की स्थापना के लिए था. वैदिक परम्परा में यज्ञ के लिए पति-पत्नी दोनों का होना अनिवार्य माना जाता है. ब्रह्मा ने सरस्वती को यज्ञ में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन सरस्वती अपने दायित्वों में व्यस्त थीं समय पर यज्ञ स्थल पर नहीं पहुंचीं. ब्रह्मा को यज्ञ के मुहूर्त को टालना नहीं चाहते थे. ब्रह्मा ने एक ग्वालिन को यज्ञ के लिए अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया, जिसे बाद में गायत्री के रूप में जाना गया. गायत्री के साथ ब्रह्मा ने यज्ञ शुरू कर दिया. जब सरस्वती यज्ञ स्थल पर पहुंचीं, तो उन्होंने देखा कि ब्रह्मा ने उनके बिना गायत्री को वामांग बिठा कर यज्ञ आरंभ कर दिया है. इससे सरस्वती अत्यंत क्रोधित हुईं. उन्होंने ब्रह्मा को श्राप दिया कि पृथ्वी पर उनकी पूजा केवल पुष्कर में ही होगी और कहीं और उनकी पूजा नहीं की जाएगी. इसीलिए पुष्कर में ब्रह्मा का एकमात्र मंदिर है, और उनकी पूजा अन्य स्थानों पर प्रायः नहीं होती. इस कविता में सरस्वती का एक आत्मसचेत स्त्री का रूप उभर कर आया है, जो याग्निक पाखंडों अपने अपने ‘चतुर चतुरानन’ पर कटु व्यंग्य करती है –

अपने आराम में आत्मस्थ हई ही थी कि आया संदेश
आ जाओ सरस्वती, यज्ञ का आयोजन है
सुनते ही कुढ़ गई — ब्रह्मा और यज्ञ
निपट नेपथ्य का सृजन-रत आदिदेव
जिसके निमित्त सभी यज्ञ
वह भी इस मानवीय अभिनय का पात्र
तुच्छ-सी सफलता का उत्सव आवश्यक था?

ब्रह्मा–सरस्वती और गायत्री के प्रेम त्रिकोण की कथा को कविता में बड़े मोहक ढंग से रचते हुए आगे कवि उवाचते हैं –

पुष्कर की कथा समाप्त हुई
क्षमा करें भद्रजन कि कथा के अंत में
सृष्टि के बसंत में
सरस्वती पुरुष और प्राकृत हुई.

इस कविता पर दिनकर के यह शब्द याद आ गए- अर्धनारीश्वर केवल इसी बात का प्रतीक नहीं है कि नारी और नर जब तक अलग हैं तब तक दोनों अधूरे हैं, बल्कि इस बात का भी कि जिस पुरुष में नारीत्व नहीं, वह अधूरा है एवं जिस नारी में पुरुषत्व नहीं, वह भी अपूर्ण है. सरस्वती का पुरुष और प्राकृत हो जाना और कवि का सरस्वती के स्त्रीमन में पैठ करना इन्हीं अर्थों में है.

इन्हीं काव्य आख्यानों में कवि गणेश, व्यास, पाणिनी, नारद, एकलव्य को भी अपनी कविताओं में बड़े ही अचरज भरे प्रसंगों में आमंत्रित कर लेता है. वीणा, हंसिनी, पुस्तक का मानवीकरण कर देते हैं. व्यास गुफा और विल्व पुराण पर एक-एक कविता है.

निराली कल्पना से रचा गया यह समूचा काव्य-दृश्य बहुत मोहक है, मगर साथ ही जिज्ञासा जागती है कि आखिर सरस्वती खिन्न थीं क्यों? इसका कारण कविता में आता है

ब्रह्म नहीं हूँ मैं कि जन के मानस को माया कह
कथा के वन में जा बसूँ चाटती रहूँ अर्पित नैवेद्य
मिट्टी का जगत और मिट्टी का मन मेरा मायका है
नहीं तज सकती उसे भाषा के सैकत विस्तार में
होने दो उदास रोने दो मुझे
शिवालिक-शिलाओं को हिम-सा गलने दो

इन कविताओं में सरस्वती के पारदर्शी मन में जगत को लेकर चिंताऐं, मनुष्य के पाखंड़ो से हुए मोहभंग, विनष्ट होती प्रकृति, रक्तपात, अभाव और पीड़ाओं को विनय जी ने बहुत बारीकी से उकेरा है. सरस्वती होने के रूढ अर्थों पर सरस्वती स्वयं प्रहार करती है. विराट के सत्य और सत्य की विराटता का ज्ञान लीक पर चलकर नहीं होता. इसके लिए शास्त्रीय और भूराजनीतिक परिधियों को तोड़ना पड़ता है. विनय कुमार सार्वभौमिक समझ और चेतना ने सारी परिधियाँ पिघलाते हुए एक नयी सरस्वती को आकार देते हैं जिसमें यूरोप की एथीना, मिनर्वा और म्यूजेज भी हैं तो अफ्रीका की सेशत भी और जापान की बेंजायटन भी. राजनीतिक कुटिलताओं और युद्धों से घायल समय में श्रेयसी एक सार्वभौमिक विवेक के आह्वान को प्रतीकित करती है.

 

 

विविधा सर्ग

यह सर्ग सरस्वती का अंतर- अनुशासनिक विस्तार है. इसमें काली, वीणा, भाषा, बसंत पंचमी, वाजिद आली शाह, सत्तावन का गदर और ज़फ़र सहित ग्रीक, रोमन और जापानी मिथकीय चरित्र और उनके प्रसंग भी जुडते जाते हैं. इसी सर्ग के हिस्से आता है मैहर जहाँ त्रिकूट पहाड़ी पर प्राचीन सरस्वती मंदिर है और आजकल वह मंदिर सरस्वती के मंदिर होने के मायने खो चुका है. जैसा कि भारत के हर मंदिर का सांस्कृतिक ह्रास हुआ है, कपड़ों और फूलों से ढके सुंदर मौलिक विग्रह, लोहे के कपाटों और जालियों में बंद, पुजारी के बंदी देवी-देवता, भीड़ की भीड़ और प्लास्टिक का कचरा.

जा रहा हूँ सरस्वती
तुम्हारे परिसर के संगमरमर की चमक छोड़ कर
तुम्हारी पंचधातु की मूरत का गाढ़ा और गर्भित अंधकार ही बहुत है मेरे लिए. 

मैहर हो, सरस्वती हो तो बाबा अलाउद्दीन खान की वीणा कैसे चुप रहे. वह और उसके स्वर निर्वात ने विस्मृत नहीं किए हैं, ना ही कवि ने. बहुत मार्मिक कविता है – ‘बाबा अलाउद्दीन खान’ लंबी भी. इस कविता में बाबा शारदा माई के आगे बैठ वीणा बजाने के लिए आखिरी बार त्रिकूट की चढ़ाई कर रहे हैं और अपने बीते कल को याद कर रहे हैं. उनकी जीवन यात्रा से गुज़रते हुए जब आप अंतिम पंक्तियों तक पहुँचते हैं तो आपकी आँखों में बाबा के आँसू छलक जाते हैं.

शाम होने को है
हुकुम दो माई कि
शाम के सारे राग बजाते हुए
छोटी से बड़ी वीणा में लौट जाऊं!
(बाबा सितार को वीणा ही कहते थे.)

 

 

म्यूज़ सर्ग

अगला सर्ग है म्यूज़. सरस्वती की कथा में ग्रीक म्यूजेज के आह्वान का मनोवैज्ञानिक आधार देखिए :

 दोनों पर्वतों का आरोही मैं
अजब असमंजस में विकल हूँ
शिवालिक से निहारता हूँ तो पाता हूँ कि
श्रेयसी, केवल श्रेयसी हो तुम
और अलिम्पस से निहारता हूँ तो प्रेयसी, केवल प्रेयसी 

तो इस सर्ग में सृजन लोक के श्रेयस् नहीं प्रेयस् स्वरूप का आह्वान है और यह स्वरूप ग्रीक मिथक में सबसे अधिक प्रकट और मुखर है. संभवत: इसी मुखर लालित्य ने कवि को अपनी ओर खींचा और यह सर्ग सम्भव हुआ.

प्राचीन ग्रीस में, लोग काव्य या कला सृजन से पहले म्यूज़ से प्रेरणा मांगते थे, जैसे हम सरस्वती से. वे माउंट ऑलिंपस निवासी जिउस और निमोसिनी की पुत्रियाँ थीं और माउंट ऑलिंपस, हेलिकॉन पर्वत या परनासस पर्वत पर निवास करती थीं. इस सर्ग में सभी का आवाहन है मगर कवि सबसे अधिक डूबकर महाकाव्य की देवी कैलिऑपि को पुकारता है.

कि तभी एक बहुत सुंदर मूर्ति उस चौक से गुज़री
मूर्ति की तरह नहीं मनुष्य की तरह सुंदर थी वह
अपने नक़्श में नुक़्स लिए

“म्यूज़” रचनात्मकता का पहला स्फुलिंग! इस स्फुलिंग को संबोधित एक लंबी नज़्म है. विनय कविता की कई विधाओं के माहिर हैं इसलिए इस संकलन में आपको गीत भी मिलेगा और दो नज़्में भी. म्यूज शीर्षक नज़्म 160 पंक्तियों की है. क्लासिक उर्दू के ठाट वाली यह नज़्म जब अपनी लय में बहती है तो आप न सिर्फ एक आस्वाद में डूबे बहते चले जाते हैं बल्कि आत्म-चिंतन की अतल गहराइयों में उतरते चले जाते हैं.

तभी वो वक़्त आया जिसके लम्हे में इशारा था
तभी वो क़तरा जिसमें एक दरिया बेकिनारा था
तभी वो एक आहट जिसमें सौ सदियों की भगदड़ थी
तभी वो एक सिहरन जिसमें सौ तूफ़ाँ की लरज़िश थी
तभी वो सह्र जिसमें शाम के पेड़ों की रौनक़ थी
तभी वो धूप जिसमें वस्ल की
रातों के रस्ते थे
तभी वो जीस्त जिसमें मौत के रहने का कमरा था
तभी वो मौत जिसमें मर के भी जीने का नुस्ख़ा था

इसने सुंदर और गीतात्मक आहवान क्या हो सकता है किसी श्रेयसी के प्रेयस् तत्त्व का. राधा वल्लभ त्रिपाठी जी इस संकलन के ब्लर्ब में लिखते हैं– “ये कविताएँ चेतना के गह्वरों तक उतरती हैं और अतीत और इतिहास ही नहीं, वर्तमान को स्वरित करते हुए भविष्य की आहटों से परिचित कराती हैं.“

 

 

विनशन

यह सर्ग सारस्वत भूमि की आधुनिक संकटों की शिनाख्त करता है. महाभारत के अनुसार विनशन वह स्थान है जहाँ सरस्वती नदी विलुप्त हुई थी. वनपर्व महाभारत में उल्लेख है कि महाभारत संग्राम के बाद बलराम बहुत से तीर्थ करते हुए विनशन पर आकर रुके थे. इस प्रसंग पर एक बहुत मार्मिक कविता इस सर्ग में है, जहाँ सरस्वती हलधर से कहती हैं –

लौट जाओ हलधर
मैं कोई तीर्थ नहीं
टूटते हुए प्राणों को पूज कर क्या होगा
मुझे अपनी सैकत समाधि में अस्त होने दो
मैं किसी से कुछ नहीं मांगती
रेत की यह चादर भी मैं ने स्वयं बुनी है

महाभारत और कृष्ण की नीतियाँ और लाखों शवों की कीमत पर मिली विजय. अनेक सवाल उठते हैं इन कविताओं में सरस्वती के बहाने. वह विलुप्त नदी के क्रुद्ध-करुण स्वर में विकास के बरक्स पर्यावरण के सवाल भी हैं –

कोई भी नदी राज्य और धर्म की दासी नहीं
नदी का होना न होना तो प्रकृति के वश में
व्याख्या के विटप लगाने से
नदी का अभाव तीर्थ नहीं हो जाता.

विनशन सर्ग में एक लम्बी कविता है – वैजयंती. इस कविता में सरस्वती हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु हमले के बहाने सृजन के वैज्ञानिक स्वरूप और उनके अनैतिक-अमानवीय दुरुपयोग के प्रश्न उठाती है. बड़े फलक की यह कविता एक स्वतंत्र पाठ की माँग करती है.

 

 

विसर्जन सर्ग

इस अनूठी काव्य शृंखला का अंतिम सर्ग है विसर्जन. इस सर्ग में इस चिरंतन द्वंद्व का विसर्जन है, जहाँ से ब्रह्मा सरस्वती के रचयिता होने का श्रेय लेते हैं. इस सर्ग में अपनी कह कर सरस्वती की सुन कर कवि कहता है –

ज्ञान के दीपों की सामर्थ्य की सीमा देखते-देखते
बूझ गया हूँ सरस्वती कि यह जीवन
एक अज्ञान से दूसरे अज्ञान तक की यात्रा है

इस बेहद रोचक और कथा की तरह पढ़वा ले जाने वाले प्रबन्ध में एक महकाव्यात्मक वितान है. विनय जी की भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ देशज शब्दों का सुंदर मिश्रण होता है, जो कविताओं को लयबद्ध तो करता ही है, देशज व्यंजना का जीवंत रूप भी देता है. मुझे तो इसमें तत्समता और उर्दू-बहुलता के बीच के सारे शेड्स मिले. हिन्दी के अनूठे बिम्बों का प्रयोग, कविता को एक दृश्यात्मक और भावनात्मक गहराई प्रदान करता है. विनय जी उन कवियों में से हैं जिनके यहां छंद मुक्त तो होतें हैं लेकिन उच्छृंखल नहीं होते. हर सर्ग में विविध शैलियों में रची कविताओं का इतना शानदार संयोजन है कि मौन की सार्थक अभिव्यक्ति और प्रतीकों का उपयोग इन कविताओं को एक विराट गुंबद में देर तक उठती गूंज में बदल देते हैं. इन कविताओं को एक सूत्र में गूँथती कभी सरस्वती और कभी कवि की उदासी, प्रकृति और जीवन को समर्पित यज्ञ के पावन सरोकारों वाले मंत्रों की तरह सुखदायक है. यह संकलन उस सरस्वती को समर्पित है जो स्वयं पर संशय करती है, स्वयं पर संशय करना सिखाती है. प्रतिरोध जिसकी शक्ति , उसका लाड़ला स्वर्ण मंडित भवनों में नहीं किसी गाँव के जर्जर स्कूल की इमारत में बैठा कृषक पुत्रों को आखर-ज्ञान करवाने वाला है. या स्वयं को भूल ‘वीणा से निकल वीणा में लीन हो जाने वाला’. अस्त्र और स्वर्ण और वस्त्र से जिसकी अरुचि है.

इस संकलन को जो ‘महत्वपूर्ण’ बनाता है वह अप्रतिरोध्य रूप से वे विचार हैं जो इन कविताओं में पंक्तियों के बीच मौन में छिपे हैं. ‘श्रेयसी’ शब्द स्वयं में उत्कृष्टता और श्रेष्ठता का प्रतीक है, जो इस संकलन की रचनाओं में स्पष्ट रूप से झलकता है. यह संकलन केवल कवि डॉ विनय कुमार की काव्यात्मक उपलब्धि ही नहीं है, बल्कि सरस्वती में निहित मानवीय चेतना, आत्मबोध, और सर्जनात्मकता की खोज का एक गहन दस्तावेज भी है. इसए पढ़ा जाना चाहिए, गुना जाना चाहिए, इन कविताओं को विश्लेषित किया जाना चाहिए. यह कृति निश्चित रूप से पाठकों को प्रेरित करेगी और हिंदी काव्य की समृद्ध परंपरा को और सशक्त बनाएगी.

 

यह संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.


प्रसिद्ध कथाकार  मनीषा कुलश्रेष्ठ के कई कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हैं, उन्होंने अनुवाद भी किया है. वह कथक में विशारद हैं.

manishakuls@gmail.com

Tags: मनीषा कुलश्रेष्ठ
ShareTweetSend
Previous Post

न्गुगी वा थ्योंगो : दिगम्बर

Related Posts

अंग्रेज़ी साहित्य के गलियारे से : मनीषा कुलश्रेष्ठ
आत्म

अंग्रेज़ी साहित्य के गलियारे से : मनीषा कुलश्रेष्ठ

बिना कलिंग विजय के : मनीषा कुलश्रेष्ठ
समीक्षा

बिना कलिंग विजय के : मनीषा कुलश्रेष्ठ

कथक की अन्तर्यात्रा: मनीषा कुलश्रेष्ठ
नृत्य

कथक की अन्तर्यात्रा: मनीषा कुलश्रेष्ठ

Comments 1

  1. तेजी ग्रोवर says:
    36 minutes ago

    “ज्ञान के दीपों की सामर्थ्य की सीमा देखते-देखते
    बूझ गया हूँ सरस्वती कि यह जीवन
    एक अज्ञान से दूसरे अज्ञान तक की यात्रा है”

    इस यात्रा को सम्पन्न करना और फिर इस निष्कर्ष तक भी पहुंचना कवि की सुदीर्घ और बीहड़ काव्य यात्रा को इंगित करता है…इस यात्रा को सभी कवि अपने अपने ढंग से तय करते हैं। लेकिन हर कोई उस जगह को इस तरह पहचान नहीं पाता या इतने सन्यासी भाव से उस जगह को बखान नहीं पाता।

    फिर मनीषा की मेधा और काव्य पर उनकी गहरी विद्वत्तापूर्ण अंतर्दृष्टि … वाह!!

    मित्र विनय की अभी तक तीन पुस्तकें मैंने पढ़ी हैं। श्रेयसी को पढ़ना अभी शेष है।

    कभी कभी यक़ीन नहीं होता कि मनोवैज्ञानिक और काव्यात्मक तत्त्व आपस में उसी तरह घुलनशील हो सकते जैसे श्रेयसी के जेंडर…

    मनीषा ने जिस गहराई से सर्ग-दर-सर्ग इस लिखत पर मनन किया है इससे मनीषा की प्रतिभा का एक ऐसा आयाम नज़र आया कि मुझे मोह होता है वे काव्य पर निरंतर चिंतन करती रहें। यह भी नहीं भूल सकती उन्होंने विनय को पिछली किताब के लिए *आत्मज* शीर्षक सुझाया जिससे उपयुक्त कुछ हो ही नहीं सकता था। वे विनय के लेखन से जिस आत्मीयता से जुड़ी हैं …उससे उनका अपना लेखन भी ज़रूर समृद्ध हुआ है, यह इस निबन्ध से ज़ाहिर होता है।

    इस अत्यंत रोचक, रसपूर्ण और विचारोत्तेजक आलेख से यह आश्वस्ति मिली मुझे कि काव्य की गहरी और निष्ठावान रीडिंग के दिन अभी चुके नहीं हैं।

    किताब के लिंक के लिए आभार। जल्द ही मुझे मिलने वाली है। मेले से ला नहीं पायी थी।

    Vinay, दोस्त, आप रोज़ नित नया जन्म लेते रहते हैं..भले ही आप किसी को न बताएं लेकिन आपको जानने वाले जानते हैं।

    फिर भी आज के दिन सालगिरह मुबारक कहना तो बनता है!!

    आपसे जितना उपकृत हुई हूँ मैं ही जानती हूँ।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक