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Home » ख़लील : तनुज सोलंकी

ख़लील : तनुज सोलंकी

विश्वयुद्धों से कुछ सीखा नहीं गया. शताब्दी बीतते न बीतते, हम वहीं लौट आए हैं जहाँ से चले थे. युद्ध, धार्मिक अतिवाद, अनुदार और अलोकतांत्रिक व्यवस्था, लूट और झूठ की ओर. ऐन आँखों के सामने घट रही त्रासदी पर लिखना आसान नहीं. चर्चित कथाकार तनुज सोलंकी की यह कहानी अपने शिल्प में एक कोलाज की तरह है. जहाँ हिंसा के फटे पन्ने और झुलसे चेहरे टांक दिए गये हैं. और यह बहुत प्रभावशाली है. इसका उतना ही सशक्त अनुवाद भारतभूषण तिवारी ने किया है. इसे पढ़ना घायल समय से साक्षात्कार करना है- जो हमारा ही समय है. प्रस्तुत है कहानी- ख़लील.

by arun dev
June 17, 2025
in कथा
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ख़लील : तनुज सोलंकी
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ख़लील
तनुज सोलंकी


अनुवाद : भारतभूषण तिवारी

 

ग़ज़ा के वीडियो हैं और इसीलिए मालूम होता है कि एक ग़ज़ा अब भी है.

अब तलक मैंने ऐसे हज़ार वीडियो देख डाले होंगे.

शुरुआती महीनों में उन वीडियो में जिस्मों को ढोती हुई खच्चर गाड़ियाँ नज़र आती थीं. मुर्दा, ज़िंदा, घायल, झुलसे हुए, बिंधे हुए, परखच्चे उड़े हुए जिस्म. दीगर अहसासात के अलावा उन खच्चरों के लिए लेशमात्र चिंता हरदम रही आई: वे लाचार, बेचारे जानवर, आदिम बदहवासी, बर्बादी को ढोते, इधर की नाउम्मीदी से उधर की नाउम्मीदी की जानिब हाँके जाते.

ग़ज़ा के वीडियो में खच्चर गाड़ियाँ अब दिखाई नहीं देतीं. कम-अज़-कम मुझे तो नहीं. मैं सोच में पड़ जाता हूँ, क्या खच्चर ज़िंदा हैं? वे क्या खा रहे होंगे? या उन्हें ही खा लिया गया होगा?

 

 

ये सब, या इसमें से ज़्यादातर हुआ, मेरे वॉर एंड पीस पढ़ने वाले साल में.

उपन्यास के अंत तक पहुँच गया हूँ मगर याद नहीं पड़ता कि उसमें खच्चर हैं. घोड़े अलबत्ता बहुतायत में हैं, नर, मादा, आख्ता, सब तरह के. और फिर उन घोड़ों पर सवारी करने वाले इंसान हैं, हुसार, उलान, ड्रगून और दीगर घुड़सवार सैनिक. लड़ाइयाँ चलती हैं, छोटी-बड़ी बंदूकें और तोपें अपना गन्दा काम करती हैं, तो घोड़ों की तकलीफ़ें बढ़ती हैं और इंसानों की भी. इन सब तकलीफ़ों को बयाँ करते हुए तोल्स्तोय कभी-कभी निहायत सादगी भरी उपमाओं का सहारा लेते हैं, मानो विषयों ने खुद भाषाई अलंकरण पर रोक लगाई हो. जिस घोड़े को गोली लगी थी, उससे ख़ून किसी फुहार की तरह बह निकला. जिस बाँह में गोली लगी थी, उससे ख़ून बोतल की तरह बह निकला.

जब इंसानों की तकलीफ़ें बेहद बढ़ जाती हैं और खाने को कुछ नहीं मिलता तो वे घोड़े का माँस खाते हैं. इस कृत्य में, मुझे लगता है, रहमदिली और बेवफ़ाई दोनों शामिल हैं.

उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दौर में, जिसमें तोल्स्तोय का यह उपन्यास स्थित है, घोड़ों के बिना कोई जंग मुमकिन नहीं थी. घोड़ों के बिना अमन भी नामुमकिन था. यह सूरतेहाल एकाध सदी और बना रहा. और फिर पहले विश्वयुद्ध के तुरंत बाद घोड़ों का रसूख, जो कम-से-कम ढ़ाई हज़ार साल तक बरक़रार रहा था, हमेशा के लिए मिट गया. जंग-ओ-अमन दोनों के केंद्र में होने से लेकर, गीतों, मिथों और आख्यानों से चलकर फिर उपन्यासों का मजमूँ होने के बाद यह पशु अधिकतर प्रतीकात्मक कलाओं की विषयवस्तु बनकर रह गया, जिनमें उसका अभिरूप (जिस से बेशक़ इंकार नहीं किया सकता) उसका प्रमुख आकर्षण बन गया.

अश्व, दरअसल, अश्वशक्ति (हार्सपावर) से हार गया और गायब हो गई उस हार के साथ उन कहानियों से उसकी वह जगह जो हम अपने आप को सुनाते थे. अब न कोई और मरेंगो होगा और न ही कोई चेतक. शक्ति और वेग और स्वामीभक्ति के प्रतीक को अलविदा, श्रेष्ठ मानवी संकल्प का उत्प्रेरक हुआ कीर्तिभूमि से बेदखल.

मगर…मगर ग़ज़ा के उन खच्चरों, असहनीय बोझा ढोते उन जानवरों का क्या? क्या उन खच्चरों के नाम थे? क्या उनकी तारीफ़ों के पुल नहीं बाँधे जाने चाहिए?

ग़ज़ा के खच्चरों के गर नाम न थे या उनके नाम जानना अब हमारे लिए संभव नहीं तो उन्हें नाम देना मुझे ज़रूरी लगता है. उतना ही ज़रूरी जितना उनकी स्मृति को जीवित रखने की कोई और कोशिश. तो देखे हुए वीडियो में नज़र आए एक भूरे खच्चर को मैं नाम देता हूँ ख़लील. ख़लील को मैं उपयुक्त मिथक देने की कोशिश करूँगा.

 

 

उन्नीस साल के शबां अल-दलू का अस्पताल के तम्बू में बिस्तर पर पड़े-पड़े ज़िंदा जल जाने का वह वीडियो था. सबने देखा.

जिस दिन मैंने वह वीडियो देखा, मेरी `वॉर एंड पीस` की पढ़त में तोल्स्तोय बयां कर रहे थे कि नेपोलियन के पाँच हफ़्ते चले निज़ाम के दौरान मास्को क्यों धूधू जल उठा. मास्को पूर्णतः लकड़ी का बना हुआ था, यह कारण तो था ही, मगर तोल्स्तोय ने इसकी मूल वजह चीन्ही फ्रांसीसियों का प्रतिरोध करने के मास्कोवासियों के तरीके में, यानी शहर को छोड़ जाने में. उन्होंने आक्रमणकारी सेना का स्वागत नहीं किया बल्कि अपने शहर को आगजनी और दुर्घटना-प्रवण कर छोड़ना पसंद किया.

वह हिस्सा पढ़ चुकने के बाद मैंने सोचा कि यह एक प्रिविलेज ही है कि पीछे हटकर पनाह लेने को इतना विशाल देश उपलब्ध हो, अपने शहर को यूँ ही तजने का विकल्प हो, और अपने घर और माल-असबाब को ख़ाक हो जाने दिया जाए, भले ही इस मुग़ालते को बनाए रखने की क़ीमत के तौर पर कि दहकती ज्वालाओं में शत्रु फँस जाएगा. स्थलांतर की साधारण क्रिया के माध्यम से आक्रांता को हैरान कर डालना. जहाँ सामने वाला आहों-कराहों और चीखों की उम्मीद कर रहा है वहाँ उसे रिक्तता पेश करना. न रहम की ज़रुरत, न रत्ती भर इंसानियत की, न ज़मीर की.

 

 

कुछ साल पहले मैंने एक उपन्यास पढ़ा था जिसमें उसके कथावाचक-नायक, तेईस वर्षीय पुरुष सारांश पर डूब चुके सीरियाई बच्चे एलन कुर्दी की तस्वीरों का गहरा असर पड़ा दर्शाया गया था. तस्वीरों को देखते हुए सारांश बच्चे का नाम दर्ज करता जाता है और बुदबुदाता है- एलन कुर्दी. सहसा उसे अहसास होता है कि भूलने की प्रक्रिया में अजानेपन का कितना महत्त्व है. चुनाँचे वह अब नाम से वाक़िफ़ है और अपनेआप से बुदबुदा चुका है, उस बच्चे के शरीर की छवियाँ उसके मन में और गहरे जलती हैं और कहानी- जो एक बिंदु से आगे अजानी है, अजानी है पिता की देशांतर की कोशिश, बर्बाद आशियाने को पीछे छोड़ एक ऐसे देश जाने का प्रयास जहाँ उनका स्वागत नहीं होने वाला था, सबकुछ दाँव पर लगाना क्योंकि सबकुछ पहले से ही दाँव पर लगा था- उसकी स्मृति में हमेशा के लिए अंकित हो गई है.

बाद में उन छवियों के उस पर पड़े असर के बारे में अपनी गर्लफ्रेंड ज्योति से बात करते हुए सारांश कहता है: ‘हम जानते हैं कि बच्चे का शरीर पावन होता है. एक तरह से, दरअसल मैं तो यह भी कहूँगा कि, उस को हम एक अकेली पावन चीज़ के तौर पर जानते हैं.’

एक अकेली पावन चीज़.

मैं सोचता हूँ कि इसी सारांश को कितनी तकलीफ़ हुई होती मृत बच्चों, हाथ या पैर कटे हुए बच्चों, भूख से बेज़ार बच्चों, पुर्जा-पुर्जा उड़ चुके बच्चों, झुलस चुके बच्चों, रोते हुए बच्चों, भयाक्रांत बच्चों के वीडियो से… फिर दीगर वीडियो, छाती पीटते माता-पिताओं के, दुख से रुंधे गले वाले भाई-बहनों के, दो साल के बच्चों का ध्यान रखते आठ साल के बच्चों के, बस एक और बार देखने के लिए कफ़न हटाते और जा चुके बच्चे को एक धीर मुस्कान देते हुओं के, मानो यह कहने के लिए ‘बस अब सब निपट गया, मेरे बच्चे, कम से कम तुम्हारे लिए तो निपट ही गया है.’ जिस चीज़ को सारांश पावन मानता था, उसके निर्ममता के साथ रौंदे जाने से सारांश खुद को ख़त्म कर लेने को हो जाता, इस बात पर कभी-कभी मुझे पूरा भरोसा होता है. कभी और, मैं देखता हूँ कि वह दीवानों की तरह गज़ा के तमाम मृत बच्चों के नाम याद करने की कोशिश कर रहा है, हरेक नाम अपने दिमाग़ पर दर्ज करने की कोशिश, स्मृति संस्थापन का समूचा ज़िम्मा अपने पर ले लेने की कोशिश. शायद यह सारांश को एक तरह के खच्चर के तौर पर देखे जाने जैसा है, खच्चर जो नृशंसता का कभी न ख़त्म होने वाला अपार बोझा लादे है. इस दूसरे परिदृश्य में भी मैं उसे मरते हुए देखता हूँ, दिमाग़ के अत्यधिक काम करने से उसकी नस फट जाती है. मैं उसकी आँखों और कानों और मुँह से खून बहते हुए देखता हूँ.

मगर जब यह घट रहा है तो उसके चेहरे पर मुस्कान छाई है.

 

 

एक साल से ज़्यादा हो चुका है और गज़ा में छियालीस हज़ार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं. वीडियो की वजह से रसातल में पहुँचा दिए जाने के ख़तरे से बचने के लिए मैं वह करता हूँ जिसकी सलाह नहीं दी जा सकती. मैं भयावहता को सापेक्ष ढंग से समझने की कोशिश करता हूँ. 1812 में हुई बोरोडिनो की लड़ाई में, जो तोल्स्तोय के `वॉर एंड पीस` में प्रमुखता से झलकती है, महज एक दिन में अड़सठ हज़ार से ज़्यादा हताहत हुए थे. एक इतिहासकार ने इस क़त्लेआम की तुलना यूँ की- ‘एक पूरी तरह भरा 747 विमान आठ घंटों तक हर पाँच मिनट में क्रैश हो और कोई ज़िन्दा न बचे.’ फिर पहली जुलाई 1914 को हुई सोम की लड़ाई है जिसमें लगभग सत्तर हज़ार मारे गए थे. फिर बाबी यार, जहाँ सितम्बर 1941 में दो दिन के अंदर तैंतीस हज़ार मार दिए गए थे. फिर उसके बाद था…

इस सापेक्षीकरण से कभी कोई मदद नहीं होती और कभी हुई भी तो यह मुझे एक रसातल से तुरंत ही दूसरे रसातल की ओर ले जाता है. और फिर विश्लेषण करने वाला दिमाग़ का हिस्सा दख़ल देता है, यह दावा करते हुए कि लड़ाइयों में एक सेना के मुक़ाबिल दूसरी सेना होती है और उनकी तुलना गज़ा के साथ करना ठीक नहीं. वही हिस्सा कहता है कि ऊपर दिए गए तीन उदाहरणों में बाबी यार ही गज़ा का तुल्य है.

और फिर रसातलों के दरमियाँ हँसने के अलावा कुछ और करने को नहीं रह जाता, क्योंकि बाबी यार में मारे गए लोग यहूदी थे. मैं हँसता हूँ, हाँ, मगर इसलिए नहीं कि इसमें कुछ प्रहसनात्मक है, या कुछ ऐसा जो इतिहास के नाम पर फट देनी से मुहावरा दे दे. अब तो मैं दरअसल उन लोगों से कुढ़ने लगा हूँ जो ‘पहले त्रासदी की तरह, फिर प्रहसन की तरह’ कहना पसंद करते हैं. मेरे हिसाब से तो: पहले नरसंहार की तरह, फिर नरसंहार की तरह, इस दम और हरदम नरसंहार की तरह.

नरसंहारों के बीच अगरचे हम में से कुछ स्मृति को थामे रखने की कोशिश करते हैं. यह ऐसा काम है जिसकी दरकार है एक अलग तरह की कल्पनाशक्ति की, और इसी वजह से जिसका कथानकीय तत्त्व से कोई बैर नहीं. हम सब का नाम याद रखना चाहते हैं, हम सबकी कहानी याद रखना चाहते हैं, और अगर ये ज्ञात नहीं हो सकता तो हम वह याद रखेंगे जिसकी हम भली भाँति कल्पना कर सकते हैं.

 

 

जिस दिन बमबारी शुरू हुई, खच्चर ख़लील ने अपने खच्चर दिमाग़ में नए प्रवाह बहते महसूस किए. अपने मालिक जमाल से मुख़ातिब हो वह एकबारगी रेंका और अपने पीछे बँधी ठेलागाड़ी के साथ ख़ुद ही निकल पड़ा. अगला बड़ा धमाका जहाँ हुआ, वहाँ जा पहुँचा. घटनास्थल पर ख़लील ने घायलों को अस्पताल पहुँचाने के लिए ख़ुद को पेश किया. पहले ही दिन तीन चक्कर लगा कर ख़लील ने तीन इंसानों और एक बिल्ली की जान बचाई.

अगले दिन भी उसने वैसा ही किया, फिर अगले दिन और उसके बाद हरेक दिन, और वह सब उसने किया खाने और पीने की ज़रूरत महसूस किए बिना. कोई उसकी लगाम थामे, इसके बिना, पीठ पर कोई चाबुक पड़े बिना.

जिन जगहों पर बम गिरे थे, वहाँ अक्सर ध्वस्त इमारतों के नीचे लोग फँसे हुए होते. पहली बार ऐसी स्थिति में होने पर ख़लील ने हताशा में, और जो किया जाना चाहिए, इसकी रहस्यमयी समझ के वशीभूत होकर, बाहर निकले सरिए को दाँतों में पकड़ कर ज़ोर से खींचा. कुछ लम्हों बाद समूचा कंक्रीट स्लैब हिलने लगा. अगल-बगल के लोग तालियाँ-सीटियाँ बजाने लगे और ख़लील की पीठ थपथपाने लगे. मलबे के नीचे दबे दो बच्चे बच गए मगर उनकी स्थिति देखते हुए उन्हें अस्पताल ले जाना बेमानी लग रहा था. एक बार फिर हताशा और समझदारी के वशीभूत होकर ख़लील बच्चों के ज़ख्म चाटने लगा. कुछ मिनटों में बच्चे होश में आ गए और उन्होंने अपने नाम बताए: फ़ातिमा और ज़ाहिरा. पास खड़े लोगों ने इसका मतलब ये लगाया कि ख़लील की लार एक तरह की जीवनरक्षक औषधि में बदल गई है.

आगे जब अस्पताल उड़ा दिया गया तो ख़लील ने हर क़िस्म के ज़ख्मों को चाटना शुरू कर दिया. इसका असर मिलाजुला रहा. पाया गया कि बच्चों को उसकी लार ज़्यादा फ़ायदा करती. ज़रुरत पड़ने पर ख़लील दाँतों से नाभिनाल भी काट देता, हाथों-पैरों की ऐसी उँगलियों या ऐसे समूचे हाथों-पैरों को दाँतों से ही काट देता जिन्हें बचाना मुमकिन नहीं, कब्रें खोदता, पानी के कुएँ खोदता.

मुश्किलें बढ़ने पर, जब खाना मिलना मुश्किल हो गया, ख़लील तब तक रेंकता रहा जब तक उसके इर्दगिर्द वालों की समझ में न आ गया कि वह खाने के लिए अपना शरीर पेश कर रहा है. शुरुआत में कुछ संभ्रम की स्थिति रही क्योंकि खच्चर का गोश्त इस्लाम में हराम माना गया है, मगर ख़लील की ढेंचू के सुरों ने सभी को यक़ीन दिला दिया कि जो भी वह पेश कर रहा है, वह हराम नहीं हो सकता. तो फिर, ख़लील के पुट्ठे का हिस्सा काटा गया. जिन्होंने गोश्त खाया, उन्होंने उसे सबसे ज़्यादा पौष्टिक नेमत बतलाया. नेमत वहीं नहीं थम गई, ख़लील का ज़ख्म रातोंरात भर गया और अगली सुबह वह पूर्ववत हो गया.

ख़लील के लिए हर कोई कुछ करना चाहता था अगरचे, और जल्दी ही संभव के परिक्षेत्र से बाहर से या शायद अकल्पनीय ढंग से उसी के भीतर से, ढह चुके बीमों और कालमों के फैलारे के बीच घास की कोंपलें नज़र आने लगीं, मुट्ठी भर घास इस हाथ से उस हाथ जाती, फिर और आती, उसके बाद और. अपनेआप चलने वाली किसी जटिल लॉजिस्टिकल प्रणाली के अंतर्गत मुट्ठी भर घास का ये सिलसिला अंततः ढेर में बदल गया, नतीजतन ख़लील के लिए हमेशा पर्याप्त भोजन रहा जिसे वह अपने शरीर के हिस्से काटे जाने पर मज़े से खाता रहा.

फिर एक रात, जब उसके शरीर का कुछ घण्टों पहले काटा गया हिस्सा दुबारा उग रहा था, `थाउजेंड पाउंडर बम` ने ख़लील के परखच्चे उड़ा दिए. रत्ती भर तसल्ली जो उसके होने से थी, वह दीगर बहुत सी चीज़ों की तरह ही मिट गई. लेकिन कुछ किरपा, जो बेहद कम ही सी, कल्पनातीत ढंग से बची रही. इस बात पर अब गहरा सुबहा है कि ख़लील की असाधारण कहानी उस बम ने तमाम कर दी या नहीं. कहा जाता है कि कंक्रीट अपने आप हिलता है, सूखी-झुलसी जगहों पर पानी के कुएँ खुद जाते हैं, टेंट बाँधने की रस्सियाँ तेज़ हवाओं में कसके पकड़ी जाती हैं. कुछ ग़ज़ावासी मुर्दों और मरते हुओं को ढोती बिना खच्चर की एक ठेलागाड़ी का ज़िक्र करते हैं. उसके वीडियो वे कभी नहीं बनाते.

___________

मूल अँग्रेज़ी कहानी ‘मिंट ‘के ‘लाउन्ज फ़िक्शन स्पेशल’ 2025 में जनवरी 2025 में प्रकाशित हुई थी.

 

मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश में जन्मे तनुज सोलंकी एक इंश्योरेंस कंपनी में कार्यरत हैं, अंग्रेज़ी में उनकी चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. 2019 में कहानी संग्रह ‘दीवाली इन मुज़फ़्फ़रनगर’ के लिए साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित हैं. गुड़गाँव में रहते हैं. भारतभूषण तिवारी
लेखक-अनुवादक
bharatbhooshan.tiwari@gmail.com
Tags: 20252025 कहानीख़लीलग़ज़ातनुज सोलंकीभारतभूषण तिवारी
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Comments 10

  1. कुमार अम्बुज says:
    2 months ago

    युद्ध और नरसंहारजन्य त्रासदी की मानवीय कथा इस तरह भी लिखी जा सकती है- यह उसका प्रभावी उदाहरण है। फैंटेसी भी का सुंदर उपयोग। लंबे समय के बाद बेहतर कहानी से गुज़रना हुआ। इस करुणा से भरी, संवेदित कहानी के लिए तनुज सोलंकी जी को, प्रवाही अनुवाद हेतु भारत भूषण तिवारी जी को बधाई और धन्यवाद।
    समालोचन भी इसका हक़दार हुआ।

    Reply
  2. आशुतोष कुमार says:
    2 months ago

    यह छोटी सी कहानी कई उपन्यासों के बराबर है। लेखक, अनुवादक और समालोचन को सलाम।

    Reply
  3. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    2 months ago

    कितना बेहतर कि लिख दिया गया यह अनुवाद है। त्रासदी की प्रभावी कथा, बिना किसी चित्रण अतिरेक और हृदयघात के खतरे के। करुणा को मन तक उतार देने में पूरी तरह सक्षम।
    लेखक, अनुवादक और समालोचन को मेरा आभार धन्यवाद।

    Reply
  4. Teji Grover says:
    2 months ago

    एक बार फिर बढ़िया अनुवाद में एक बेहतरीन कहानी।
    ख़लील!!!! और किस क़दर मारक असर है एक जानवर की उपस्थिति का जिसके वुजूद में ग़ैबी ताक़त को बुन दिया गया है क्योंकि अब मानुस तो या मर रहा है या मारा जा रहा है।
    मुझे नहीं पता इस कहानी में औपन्यासिक विस्तार की गुंजाइश है या नहीं लेकिन इस कृति का लाघव अपने आप में उपन्यास की सम्पूर्ण संभावनाओं को समेटे हुए है। इसे इतना ही लाघव दरकार था। विस्तार से बिखर जा सकती थी यह सांद्रता
    भारत पाकिस्तान मुठभेड़ों में भैंसों को जले हुए दिखाने वाले किसी पत्रकार ने उस मनुष्येतर त्रासदी को छू लिया था जिसकी सुध युद्ध में कोई नहीं लेता। फिर ख़लील तो सिर्फ़ पशु नहीं है, एक बड़ा रूपक और मिथक भी है।
    तनुज ने इस कहानी को लिखते वक्त अन्य उपन्यासों के पठन को भी कहानी में गूंथा है। बड़ी त्रासदी के सामने उपमाएँ मामूली ही रह जा सकती हैं। मीडिया के ज़रिए आयी कुछ अविस्मरणीय images…तट पर पड़े उस मृत बच्चे की। और किसी के देहात्म में उसका ऐसा वास हो जाना कि वह इमेज अपने गिर्द पूरी दुनिया बसा लेती है…फ़िल्म या उपन्यास की जगह पसरी हुई एकल इमेज!!
    कहानी के अन्त में आया एक शब्द है “सुबहा”। उसे “शुबहा” कर लें।
    ऊपर कहीं “दरकार” भी है। जो संज्ञा नहीं होना चाहिए। वह विशेषण है। ज़रूरत नहीं है दरकार का अर्थ। ज़रूरी है।

    Reply
    • समालोचन says:
      2 months ago

      शुक्रिया. ठीक कर दिया गया है.

      Reply
  5. M P Haridev says:
    2 months ago

    छोटी मगर प्रभावशाली कहानी । ‘अश्व को अश्व-शक्ति हॉर्स पॉवर खा गई । परंतु इस खच्चर ने कइयों को मरने से बचाया । बच्चों को बचाया । इसे परिंदों को बचाने की चिंता थी ।
    कहानी की बुनावट बेहतरीन है । दिल दहलाती है । अल जज़ीरा चैनल पर खच्चर-रेहड़ियों पर अब भी निर्वासन के लिए या किसी रक्षा शिविर में जाते लोग नज़र आते हैं ।
    क़रीब हफ़्ता पहले ख़बर थी कि अब तक फ़िलिस्तीन में एक सौ पचास लाख टन मलबा जमा हो चुका । संग्रहणीय कथा ।
    लेखक, अनुवादक और समालोचन को बधाई ।

    Reply
  6. Jaswinder Kaur says:
    2 months ago

    बहुत ही अच्छा अनुवाद और कहानी thanks समालोचन बहुत ही अच्छा literature दिया kahani bahut acahi hai

    Reply
  7. पंकज मित्र says:
    2 months ago

    युद्धों की त्रासदी और मानवीय करूणा के रग रेशों से बुनी गई ,अलग शिल्प में कही गई कहानी। कथाकार, अनुवादक और समालोचन को बधाई

    Reply
  8. नरेश गोस्वामी says:
    2 months ago

    हिंसा और दमन के देशांतरों तथा समय के अलग-अलग सिरों पर फैले घटना-क्रमों व स्मृतियों से लेकर ऐन हमारे सामने गुज़रते दृश्यों और विडंबनाओं के बीच संवेदना का ताना डालकर ‘ख़लील’ जैसी कहानी बुन देना एक गहरी कल्पनाशीलता और एक ऐसी इपिफ़नी की मांग करता है जो कथ्य से एक गहरे और लंबे सरोकार के बग़ैर संभव नहीं हो सकती।
    इस विध्वंस में ख़लील ही वह करुणा है जो जीवन को जीने लायक़ बनाए रख सकती है।
    भारतभूषण तिवारी ने कमाल का अनुवाद किया है— असल में, इस बात का एकदम आख़िर में पता चलता है कि हम एक अनुदित चीज़ पढ़ रहे थे।

    Reply
  9. श्‍याम बिहारी श्‍यामल says:
    2 months ago

    इक उम्र के बिना आह कैसी !

    तनुज सोलंकी की कहानी ‘ख़लील’ का शुरुआती चौथाई हिस्सा मूल कथानक से मुक्त है. कुल 218 में से यह प्रारंभिक 45 पंक्तियां पृष्ठभूमि गढ़ने में व्यय हो गई हैं. रचना चूंकि युद्ध (ग़ज़ा) से जुड़ी है, अतः यह इंट्रो कुछ यूं शुरू हुआ है : ” ये सब, या इसमें से ज़्यादातर हुआ, मेरे वॉर एंड पीस पढ़ने वाले साल में. उपन्यास के अंत तक पहुँच गया हूँ मगर याद नहीं पड़ता कि उसमें खच्चर हैं. घोड़े अलबत्ता बहुतायत में हैं, नर, मादा, आख्ता, सब तरह के. और फिर उन घोड़ों पर सवारी करने वाले इंसान हैं, हुसार, उलान, ड्रगून और दीगर घुड़सवार सैनिक. लड़ाइयाँ चलती हैं, छोटी-बड़ी बंदूकें और तोपें अपना गन्दा काम करती हैं, तो घोड़ों की तकलीफ़ें बढ़ती हैं और इंसानों की भी. इन सब तकलीफ़ों को बयाँ करते हुए तोल्स्तोय कभी-कभी निहायत सादगी भरी उपमाओं का सहारा लेते हैं, मानो विषयों ने खुद भाषाई अलंकरण पर रोक लगाई हो. जिस घोड़े को गोली लगी थी, उससे ख़ून किसी फुहार की तरह बह निकला. जिस बाँह में गोली लगी थी, उससे ख़ून बोतल की तरह बह निकला.”
    आधार-भूमि का यह आयतन आवश्यकता से बड़ा दिखता ही नहीं, आगे महसूस भी होता अर्थात् चुभता है. यह इसलिए भी अधिक अखर रहा है क्योंकि इसका अंदाज़ कथात्मक न होकर संदर्भ-सूचक है. अब किसी कथा-रचना में, बल्कि उसकी शुरुआत में ही, कोई सूचना कितनी लंबी ग्राह्य हो सकती है? क्या 40-45 पंक्तियों तक? कुल दो-सवा दो हजार की शब्द-संख्या वाली रचना में चार-साढ़े चार सौ शब्दों तक में? कहना होगा कि यह सरासर अपाच्य है. यह या तो लेखकीय योजना (यदि हो तो ; वैसे लग तो ऐसा नहीं रहा ) का अतिक्रमण है अथवा रचनाकार के असंयम और असंतुलन का द्योतक.
    इंट्रो में, युद्ध और अश्व के संदर्भ में एक स्थान पर चेतक का ज़िक्र आया है. यह गिनकर चार शब्दों में है! यह पूरी रचना में ऐसा इकलौता भारतीय संदर्भ है. यह अंश देखिए : ”अश्व, दरअसल, अश्वशक्ति (हार्सपावर) से हार गया और गायब हो गई उस हार के साथ उन कहानियों से उसकी वह जगह जो हम अपने आप को सुनाते थे. अब न कोई और मरेंगो होगा और न ही कोई चेतक. शक्ति और वेग और स्वामीभक्ति के प्रतीक को अलविदा, श्रेष्ठ मानवी संकल्प का उत्प्रेरक हुआ कीर्तिभूमि से बेदखल.”
    सवाल यह भी कि भारतीय संदर्भ को धोखे से बुदबुदाने की तरह लेने का क्या तुक? क्या तनुज सोलंकी की अंग्रेज़ी दुनिया में हमारे लिए इससे अधिक स्पेस संभव नहीं? पुराण और मिथकों से इतिहास तक, हमारे यहां युद्ध के जितने और जैसे-जैसे प्रसंग दर्ज़ हैं, ऐसा और कहां है! सागर-पार लंका की धरती पर राम-रावण युद्ध! कुरुक्षेत्र में घटित महाभारत से लेकर हल्दी घाटी की लड़ाई तक, हमारे यहां कितनी तो विश्वविश्रुत इतिहास-सिद्ध लड़ाइयां हैं, जिनमें लेखक की तात्कालिक कथाभूमि की अपेक्षा के अनुकूल ही अश्व-संदर्भों की भरमार है, फिर क्यों यह मात्र चार शब्द ? क्या यह भारतीय अंग्रेज़ी लेखन की कोई ख़ास मनोवैज्ञानिक सीमाबद्धता है? मानसिक अवगुंठन? जकड़ी हुई ग्रंथि?
    इसके समानांतर हिन्दी का हमारा यह परिदृश्य! ऐसा सर्वसमाहारी कि सर्वप्रमुख वेब मंच ‘समालोचन’ ने तनुज सोलंकी की इस रचना को अनूदित करा इस तरह फ्लैश किया! क्या अंग्रेज़ी के ऐसे किसी मुख्य प्लेटफॉर्म पर हमारे साहित्य की भी ऐसी उल्लेखनीय प्रस्तुति संभव हो पा रही है?
    जहां तक ‘ख़लील’ की बात है, यह वस्तुतः एक बनती हुई रचना लगी. ऐसी, जिसे अविकसित उतार लिया गया हो. बहुत जल्दबाजी में. नौ की जगह, तीसरे-चौथे या पांचवें ही महीने! कहने वाले तो अतीत में, एक-दो वाक्य के भी रचनात्मक संयोजन को कहानी कहकर निकल चुके हैं, जिसकी तार्किक संगति पर कभी अलग से बात हो सकती है, यहां फिलहाल यही कि कतिपय लोमहर्षक अनुभूतियां जगाने की क्षमता के बावजूद ‘ख़लील’ को कहानी स्वीकारना, इन पंक्तियों के लेखक के लिए संभव नहीं. हद से हद इसे, युद्ध (ग़ज़ा) के इस अत्यंत मौज़ू परिदृश्य में, एक जीवंत प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है.
    ऐसा भी नहीं कि यह ख़्याल किसी अन्य पाठक के मन में नहीं आया होगा. संयोग बस यह कि इस पर प्रतिक्रिया इस रूप में शुरू नहीं हुई. तुरंता के इस युग में आजकल व्यक्त किए जाने वाले विचार दो ही संवर्ग में सामने आते हैं. पहला, आंख मूंदकर वाह-वाह और दूसरा चरम विरोध! इसी में पेच यह कि शुरुआत जिस रुख से हो जाए, आगे कुछ देर या दिनों तक हवा फ़िर उसी दिशा में झरझराती रह जाती है. अर्थात्, प्रारम्भ यदि किसी ने प्रशंसा से किया है, तो आगे यही क्रम खिंचेगा. बीच में किसी ने विपरीत दम कसने की जुर्रत कर दी, तो अब आगे उससे प्रशंसक ब्रिगेड ही निबटना शुरू कर देगा. ऐसे में कैसा विमर्श संभव है, ज़ाहिर है.
    चिंताजनक यह कि आंख मूंदकर तारीफ़ करने वाले ही नहीं, चीज़ों की नीर-क्षीर समझ रखने वाले कई ज्येष्ठ जन भी इस मामले में ‘अति उदार’ हो उठे हैं. सोशल मीडिया पर अपने कीमती कुछ मिनट वह, ज़रा भी मन मुताबिक दिख जाने पर, प्रोत्साहन-पुष्प बरसाने में खर्च कर उठ जाते हैं. लेखक को सराहना देना अच्छी बात है, इससे किसी को आपत्ति कहां! लेकिन, ऐसा तो तभी होना चाहिए जब वह इसका बाज़िब हक़दार दिखे और इससे उसे शक्ति मिलने वाली हो. तब तो कदापि नहीं, जब उसे कड़वी सलाह की आवश्यकता हो. गड्ढे के पास जा पहुंचे बेपरवाह व्यक्ति को तत्क्षण रुकने, संभलने और ठीक से निरीक्षण के लिए कहना उचित होगा या सीधे ललकार देना?
    ‘वार एंड पीस’ और टॉल्स्टॉय के पिरोए संदर्भों से, ‘खलील’ में युद्ध की विभीषिका का संदर्भ अवश्य सामने आया है, लेकिन अफसोस कि इसमें अनुभूति की कोई सजलता नहीं है. उल्टे, पूर्वज्ञात सूचना का सूखापन और ऊसरता इस मात्र में अधिक कि कथा-मानसिकता ही बनते-बनते रह जाती है. कहानी का असल आरंभ और उससे संवेदना-स्राव तब शुरू हुआ जब कथानक फैंटेसी में प्रविष्ट हुआ। एक पशु की बेचैनी और भावनाओं में मानवीय संवेदना का ऐसा महार्घ अंतरण और इस तरह फंतासी का प्रयोग, दोनों विरल हैं! लेखक को संभवतः भविष्य में इसे पुनः लिखना पड़े क्योंकि इसमें एक अधूरेपन की आह छुपी हुई है। यह रचना को कलात्मक मोड़ से ज़्यादा कथानक को अवगुंठन देती परिलक्षित हो रही है।
    ‘ख़लील’ के रचनात्मक आत्मसंघर्ष में एक लेखक की प्रतिभा की झलक से इनकार नहीं किया जा सकता. इसलिए रचनाकार में भविष्य में निखार संभव हो, इस उद्देश्य या कामना के साथ रचना पर बात होनी चाहिए, जो बनते-बनते रह गई है. अब प्रश्न है यह (ख़लील) ऐसी गति को क्यों प्राप्त हुई? क्या इसका कारण लेखकीय अधैर्य है? या, यह अपरिपक्वता की परिणति है?
    लेखक में, नए से नए परिदृश्य और आंदोलित करते प्रकट यथार्थ पर लिखने का सर्जक आवेग स्वाभाविक है, लेकिन यही लेखक का पहला परीक्षा-द्वार है. वह स्थल, जहां उसकी विवेक-क्षमता या परिपक्वता का संकेत ग्रहण किया जा सकता है. यहीं जिज्ञासा हो सकती है कि उसका अगला कदम होता क्या है! वह तात्कालिक प्रतिक्रिया की आंधी में उड़ने का शॉर्टकट चुनता है या बवंडर के गुजर जाने और दृश्य के थिर व स्पष्ट होने तक प्रतीक्षा का रास्ता? रचनात्मक संधान का यह मार्ग ज़ाहिरन नाति दीर्घ या बहुत लम्बा भी हो सकता है, बेहद ऊबाई ! लेखक को तो यहीं अपना धैर्य दिखाना है! तुरन्त दूह कर दूध पाया जा सकता है, दही के लिए तो उसके जमने तक इंतजार करना होगा. इसका कहां विकल्प!’आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक’, दूसरा कहां रास्ता?
    साहित्य का सृजन निस्संदेह तुरंता उपक्रम नहीं है. वह तो सर्वोच्च बौद्धिक मानवीय प्रयास है. उसका कार्य सूचना देना नहीं, इसके लिए तो ख़बर और उनके विश्लेषण (न्यूज़ एंड व्यूज़) की एक पूरी दुनिया आबाद है, जो इस शताब्दी में कितनी विकसित स्थिति में सामने है, अलग से कहने की आवश्यकता नहीं. साहित्य का गुरुत्तर दायित्व मानव-मन को संवेदित और प्रकाशित करना है.
    ल्म या युद्ध का हर सामान जैसे अपग्रेड हो क्रमशः क्रूर और घातक होता जा रहा है, साहित्य का लक्ष्य भी वैसे ही अधिकतम संवेदन-सर्जक और प्रभावोत्पादक होता चलना चाहिए। यह (प्रभाव) यदि अपने खल-लक्ष्य पर ड्रोन आक्रमण जैसा कुछ संवेदन विक्षेप संभव कर दिखाए तो क्या ही अच्छा! ●

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