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समालोचन

Home » केसव सुनहु प्रबीन : रबि प्रकाश

केसव सुनहु प्रबीन : रबि प्रकाश

रबि प्रकाश, थापर स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स (पटियाला) में समाजशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं. प्रारम्भिक आधुनिक हिंदी साहित्य और उसकी राजनीतिक संस्कृति उनकी रुचि और विशेषज्ञता के क्षेत्र हैं. ऐलिशन बुश की पुस्तक ‘केसव सुनहु प्रबीन: मुग़लकालीन हिंदी साहित्यिक परिवेश’ पर उनकी यह समीक्षा इस ओर संकेत करती है कि साहित्यिक स्रोतों का उपयोग तत्कालीन समय की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना को समझने के लिए किया जा सकता है. आधुनिक हिंदी विद्वानों के लिए रीतिकाल एक ऐसा साहित्यिक युग है, जिसे न पूरी तरह अपनाया जा सकता है, न पूरी तरह त्यागा जा सकता है. इसे दरबारी, पतनशील प्रवृत्तियों का पोषक, आडंबरपूर्ण, अश्लील और समाज के लिए अनुपयोगी कहकर साहित्य की मुख्य धारा से लगभग बहिष्कृत कर दिया गया है. कोलंबिया विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर रहीं ऐलिशन बुश का यह शोध कार्य प्रतिमान परिवर्तन (paradigm shift) का शानदार उदाहरण है. पंद्रह वर्षों की अथक मेहनत से तैयार यह पुस्तक हिंदी साहित्य से जुड़े अध्येताओं और शोधार्थियों के पास अनिवार्य रूप से होनी चाहिए. साहित्य में मानक शोध कार्य कैसे किया जाता है, इसका भी यह अच्छा उदाहरण है. साथ ही फ्रांसेस्का ओर्सिनी और दलपत राजपुरोहित द्वारा लिखित भूमिकाएँ भी इसे समृद्ध बनाती हैं. रेयाजुल हक़ का अनुवाद सटीक है. इसे वाणी ने प्रकाशित किया है. समीक्षा प्रस्तुत है.

by arun dev
June 18, 2025
in समीक्षा
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केसव सुनहु प्रबीन : रबि प्रकाश
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केसव सुनहु प्रबीन
आरंभिक आधुनिकता की अवधारणा  और देशज-आलोचनात्मक विमर्श की संभावनाएँ


रबि प्रकाश

 

दिवंगत अमेरिकन स्कॉलर ऐलिशन बुश की चर्चित किताब ‘पोइट्री ऑफ किंग्स’ (Poetry of Kings: The Classical Hindi Literature of Mughal India) का हिन्दी अनुवाद ‘केसव सुनहु प्रबीन: मुग़लकालीन हिंदी साहित्यिक परिवेश’ के नाम से हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. साल २०११ में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित ऐलिसन बुश की यह किताब हिन्दी-साहित्य के इतिहास में रीति-काल को एक नए नजरिए से देखने का प्रस्ताव रखती है. किताब ‘रीति-काव्य’ के पुनरावलोकन का प्रयास है.

रीति-काव्य के पुनरावलोकन का सवाल हिन्दी साहित्य के समकालीन इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण और संवेदनशील है. हिन्दी-साहित्य के इतिहासकारों के बीच, भक्ति-साहित्य और रीति-साहित्य न केवल दो भिन्न साहित्यिक विधाएँ हैं, बल्कि ये दोनों, दो तरह की बौद्धिक परंपराएँ या दो तरह की साहित्यिक संस्कृतियाँ भी हैं. भक्ति और रीति साहित्य के संबंधों पर हिन्दी-साहित्य के इतिहास-लेखन में बहुत लंबी और गहरी बहस चली है. इस बहस के केंद्र में, रीति-साहित्य और भक्ति-साहित्य की अवधि का निर्धारण, और उनके बीच विषय-वस्तु में भिन्नता स्थापित करने के प्रयास के साथ, रीति-साहित्य का एक खास चरित्र-चित्रण है. यह बहस रीतिकाल को भक्ति-साहित्य के विरुद्ध देखने का आग्रह करती है.

इस परियोजना के परिणामस्वरूप रीति-साहित्य को लेकर एक नैतिक धारणा स्थापित होती है जो उसे मध्यकालीन भारतीय समाज के नैतिक-पतन के प्रतिनिधि साहित्य के रूप में देखती है. रीति-साहित्य के बरक्स, भक्ति-साहित्य मध्यकालीन भारत में धार्मिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक संस्कृति के निर्माण में देशभाषा की अहम भूमिका को दर्शाता है, जिसमें, कबीर, सूरदास, मीराबाई, तुलसीदास जैसे भक्ति के बड़े स्वर हिन्दी की साहित्यिक और बौद्धिक संस्कृति को समृद्ध करते हैं.  भक्ति-साहित्य के कीर्तिगान का एक और आधार, भक्ति में तथाकथित वैदिक-ब्राह्मण रूढ़िवादी परंपरा के प्रति विद्रोह-भाव और असहमति के स्वर के पठन की खुली संभावना है, जो इसे सांस्कृतिक उत्थान के साहित्य के रूप में देखने का प्रस्ताव करती है.

इस सोद्देश्यवादी (teleological) नजरिये में, भक्ति के तथाकथित ‘निर्गुण’ कवियों की रचनाओं में ‘प्राक’ समाज-सुधारक के स्वर देखने के साथ, इनकी रचनाओं में कथित ‘विवेकशीलता’ और ‘तार्किकता’ के तत्वों को आधार बना कर, इन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को पुनः संगठित करने की प्रक्रिया के पहलकर्ता के रूप में देखे जाने का आग्रह भी शामिल है. इस लिहाज से, भक्ति-साहित्य, आधुनिक समय के प्रगतिशील और रूढ़िवादी दोनों ही तबकों के बुद्धिजीवियों में समान रूप से प्रतिष्ठित है. इसके विपरीत, रीति-साहित्य को लेकर, हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों के बीच एक साझी राय रही है जिसमें, रीति-साहित्य नैतिक-बोध से रहित, दैहिक और दरबारी-सामंती समाज की विलासिता के उपकरण होने के साथ, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से पतनशील समाज के साहित्य का द्योतक है. जाहिर है इस विमर्श के आलोक में यह समझा जाता रहा है कि रीति-साहित्य और इसके रचयिताओं का कोई सामाजिक और राजनीतिक सरोकार नहीं है, बल्कि इनका एक सांस्कृतिक -आलंकारिक विधा जैसे कि ‘नायिका-भेद’ और अपने लेखन में शृंगारिकता का प्रदर्शन ही मुख्य ध्येय है.

ऐलिशन बुश की पुस्तक इन स्थापनाओं से प्रस्थान करने का आग्रह पेश करती है. वे रीति-साहित्य के कवियों की रचनाओं के मूल्यांकन के लिए भक्ति-रीति के द्वैत से बाहर निकाल कर, इस साहित्यिक विधा को हिन्दी साहित्य की ‘क्लासिकल’ परंपरा  के रूप में देखने की पुरजोर वकालत करती है. इसके तहत, इस काल के  कवियों और रचनाकारों को ‘बौद्धिक-वर्ग’ (intellectuals-class) के रूप में देखने का आग्रह शामिल है. इस आग्रह का आधार, बौद्धिकों के एक ऐसे तबके को चिह्नित करना है जिसने देश-भाषा को साहित्यिक-तकनीकी रूप से समृद्ध किया, भाषा को परिमार्जित किया और एक गहरी राजनीतिक-बौद्धिक संस्कृति के विकास में अहम भूमिका निभाई. इस दृष्टि से, ऐलिसन बुश रीति-साहित्य को ‘राजनीतिक-सामाजिक साहित्य’ के रूप में देखने का विमर्श खड़ा करती हैं. उनकी पूरी जद्दोजहद, इस काल के हिन्दी-साहित्यिक लेखन के उद्देश्य  के पुनर्निर्धारण की है.

इस संदर्भ में उनका मानना है कि रीति-साहित्य न केवल राजदरबारों के सांस्कृतिक, बौद्धिक और सौन्दर्यबोधी जीवन का साहित्य है, बल्कि इस काल में होने वाली सांस्कृतिक, व ऐतिहासिक घटनाओं का काव्यात्मक दस्तावेज भी हैं. ये दोनों प्रस्थापनाएँ ऐसी है जो रीति-साहित्य के पारंपरिक आकलन से प्रस्थान करती हैं और उन्हें एक नए ऐतिहासिक नजरिए से देखने का प्रस्ताव रखतीं हैं. पिछले एक दशक में, इस किताब ने जो प्रतिष्ठा हासिल की है उसका आधार इन प्रस्थापनाओं का आज प्रासंगिक  होना है. हालांकि अभी तक, इस किताब की लोकप्रियता हिन्दी-साहित्य के सामान्य पाठकों और हिन्दी-साहित्य से सरोकार रखने वाले हिन्दी-भाषी विद्वानों से ज्यादा, भारतीय-इतिहास लेखन के उभरते विमर्शों से सरोकार रखने वाले अंग्रेजी-भाषी विद्वानों के बीच अधिक है. इस किताब के विभिन्न पहलुओं पर ज्यादातर बहस अंग्रेजी में ही हुई हैं, चाहे इसकी बहुतेरी समीक्षा के जरिए हुई हों  या इसकी मूल प्रस्थापनाओं को अन्य विद्वानों द्वारा संदर्भित करने के सिलसिले में. एक दशक के बाद ही सही, अब यह किताब अनूदित होकर  हिन्दी के पाठकों और हिन्दी-भाषी विद्वानों में बीच उपलब्ध है. इसलिए यह उम्मीद तो बनती है कि इसकी मौलिक स्थापनाएँ हिन्दी-साहित्येतिहास के अध्येताओं के बीच विमर्श की हिस्सा बनेगीं.

हिन्दी में उपलब्ध, इस किताब का शीर्षक, केशवदास की एक पंक्ति को लेकर ‘केसव सुनहु प्रबीन’ रखा गया है, जो कई मायनों में इस किताब की केन्द्रीय विषय-वस्तु को दर्शाता है. केशवदास का लेखन अगर इस किताब का केन्द्रीय स्रोत हैं तो ‘प्रबीन’ इस किताब का महत्वपूर्ण रुपक है. केशवदास, रीति-काव्य के उद्घाटक और सबसे महत्वपूर्ण लेखक हैं, उनका लेखन एक तरफ़ उनके बाद आने वाले बौद्धिक कवि-लेखकों की पीढ़ियों के लिए प्रेरक बना, तो दूसरी तरफ़ उन्हें लेखन में प्रवीणता हासिल करने के आह्वान के साथ उन दक्षताओं को हासिल करने में उपयोगी युक्तियाँ भी प्रदान करता है. केशवदास के जीवन में ‘रायप्रवीण’ नाम की एक गणिका थी जो उनकी करीबी मानी जाती थी, उन’की सुहृद-शिष्या-सखा  भी थी जिसकी अपनी कुछ रचनाएँ  भी मिलती हैं. इससे इतर, रीति-काव्य अपने आशय में काव्यात्मक प्रवीणता को अत्यधिक महत्व देता है. केशवदास, अपने उत्कृष्ट रीति-ग्रंथ ‘कविप्रिया’ में कवियों और रचनाकारों से ‘दोष-मुक्त’ रचना करने की आग्रह करते हैं.

हिन्दी के पाठकों के लिए एक सुखद संयोग यह भी है कि यह पुस्तक अपने हिन्दी संस्करण में, दलपत राजपुरोहित द्वारा लिखित एक बहुत ही गंभीर व विद्वतापूर्ण भूमिका के साथ उपलब्ध है. यह भूमिका न केवल पाठकों को किताब के मुख्य ध्येयों से परिचित करवाती है बल्कि उन विमर्शों का खाका भी प्रस्तुत करती है जो साहित्य के इतिहास-लेखन को लेकर अंग्रेजी में चल रहे हैं. यह भूमिका इस किताब के प्रस्थान बिन्दुओं के निर्धारण में बहुत निर्णायक भूमिका निभाती है. ऐलिसन बुश की अनुपस्थिति में इस किताब का हिन्दी के पाठकों के बीच उपलब्ध होना, इस भूमिका को और भी लाज़िमी बनाता है, जो इस किताब के अकादमिक जगत पर प्रभाव पर भी एक पैनी निगाह रखने का आग्रह करती है. रेयाज़ुल हक़ ने एक इस पुस्तक का बेहतरीन अनुवाद किया है उनका गद्य हिन्दी के पाठकों के लिए सुगम व सहज रूप पठनीय है.

 ऐलिसन बुश का निधन हिन्दी-साहित्यिक इतिहास के अध्ययन के लिए एक बड़ी क्षति या कहें तो एक बड़ा आघात था. बहुत कम समय में उन्होंने न केवल अकादमिक शोध के क्षेत्र एक बड़ा मुकाम हासिल कर लिया था, बल्कि हिन्दी के प्रारम्भिक स्रोतों को एक बड़े विमर्श से जोड़ने के प्रयास में सफल रहीं थीं. अगर उनकी इस किताब और इसके बाद के उनके शोध-लेखों को देखें तो यह बात साफ हो जाता है कि उन्होंने आरंभिक आधुनिक कालीन हिन्दी-साहित्य के स्रोतों को न केवल हिन्दी का एक बेहतर इतिहास लिखने के लिए इस्तेमाल किया था, बल्कि उन्होंने इन स्रोतों के आधार पर उत्तर-भारत के इतिहास लेखन के प्रति एक नए नजरिए को पेश करने में भी मुख्य भूमिका निभाई थी. यह संभावना कि देश-भाषा में लिखने वाले और मूल-रूप से राजदरबारों से सरोकार रखने वाले, रीति-कवियों और रचनाकारों को एक ‘बौद्धिक वर्ग’ के रूप में देखा जा सकता है, उनकी एक नई प्रस्थापन है, जो औपनिवेशिक- काल के पूर्व की बौद्धिक संस्कृति पर एक बड़ी टिप्पणी है.

हिन्दी-साहित्य की पहली और दूसरी पीढ़ी के भारतीय इतिहासकारों के लिए रीति-कवियों को इस नजर से देख पाना पहले संभव नहीं था. जहाँ रीति के कवि, दरबारी, श्रृंगार व प्रशस्ति के रचनाकार, जैसे विशेषणों तक सीमित थे. वहीं, ऐलिशन बुश ने उन्हीं काव्यों को पढ़ कर इन कवियों को बौद्धिक और ‘क्लासिकल’ कवि का दर्जा प्रदान किया और उनकी इस व्याख्या को हिन्दी साहित्य के नए अध्येताओं और हिन्दी साहित्य के बाहर पूर्व-आधुनिक भारत के इतिहासकारों ने स्वीकार भी किया. इन काव्यों को पढ़कर ऐलिसन बुश ने १६वीं से १८ वीं शताब्दी की राजनीतिक घटनाओं पर हिन्दी के इन ‘बौद्धिकों’ के नजरिये का विश्लेषण किया है. रीति काव्य के महत्त्व को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि इसमें मुग़ल साम्राज्य और राजपूत राज्यों तथा अन्य सत्ता-वर्ग के बीच उभरते रिश्तों, उनकी एक साझी राजनीतिक संस्कृति का विकास, और राजनीतिक-सत्ता को लेकर एक नए विमर्श जिसमें संप्रभुता की नई संकल्पना और राजनीतिक महत्वाकांक्षा का इतिहास लिखने की गुंजाइश है.

लेकिन जिस तरह, हर एक रचना अपने समय का उत्पाद होती है, उसी तरह ऐलिशन बुश की यह महत्वपूर्ण कृति भी अपने समय की रचना है. यह पुस्तक एक ऐसे समकालीन विमर्श का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें इतिहास-लेखन को लेकर एक बड़ी बहस उसके स्रोतों, और अभिलेखों का संग्रह (archive), इतिहास के  ‘अवधि-निर्धारण’ और वैश्विक स्तर पर आधुनिकता के प्रादुर्भाव व उसके प्रभाव को लेकर चल रही है. इस विमर्श में मध्यकालीन इतिहास-लेखन में फ़ारसी और संस्कृत के स्रोतों को ही केवल कथित रूप से ‘वैध’ ऐतिहासिक-स्रोत स्वीकारने की प्रवृत्ति पर सवाल शामिल है. यह किताब साथ ही इस तथ्य को रेखांकित करती है कि ‘क्लासिकल’ भाषाओं का अभिजात्य सामाजिक चरित्र उनके अभिलेख-संग्रह (archive) में भी झलकता है और इन स्रोतों पर आधारित इतिहास भी उस समाज और राजनीति के पक्षपाती पहलुओं की झलक दे सकता है. एक ओर जहाँ इस विमर्श में देश भाषाओं के उपलब्ध स्रोतों की प्राथमिकता है, वहीं, इस विमर्श के लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि देश भाषाओं में लिखित-स्रोतों का इस्तेमाल कर कैसा इतिहास लिखा जा सकता है?

देश भाषा का अभिलेख-संग्रह और ऐतिहासिक स्रोत, समाज के किस समुदाय और वर्ग के हितों की नुमाइंदगी करते हैं? अगर फ़ारसी और संस्कृत, मध्यकालीन समाज के अभिजात्य, शासक, व प्रबल वर्गों के  इतिहास का प्रतिनिधित्व करते हैं तो क्या देश भाषाओं के अभिलेख, वैकल्पिक ऐतिहासिक व्याख्या की संभावना खोलते हैं? यहाँ ध्यातव्य यह है कि ये भाव उत्तर-भारत के बौद्धिक परिदृश्य में लंबे समय से रहे हैं, जिसकी एक अभिव्यक्ति के रूप में, उत्तर-भारत के मध्यकालीन भक्ति संतों की रचनाओं को लेकर आधुनिक इतिहासकारों और विद्वानों में उत्साह को देखा जा सकता है.  कबीर, तुलसी, मीराबाई, सूरदास, दादू, सुंदरदास, नानक, रैदास सभी संत-कवि देश भाषा में रचना करते हैं और इन्हें संस्कृत के ब्राह्मणवादी शास्त्र के बरक्स तथा विरोध में पढ़ने का परिपाटी रही है. मध्यकालीन इतिहास-लेखन से जुड़ा हुआ एक सवाल काल-निर्धारण से है. यह कैसे तय हो कि ‘मध्यकाल’ कब समाप्त हुआ, ‘उत्तर-मध्यकाल’ की अवधि कब-से-कब तक मानी जाए, इसी तरह, ‘आधुनिक-काल’ की शुरुआत कब से मानी जाए? क्या इन कालों का कोई सार्वभौमिक लक्षण है? क्या भारत का ‘मध्यकाल, यूरोप के मध्यकाल जैसा ही है?

इन प्रश्नों से जूझने के लिए, देश-भाषा के अध्ययन में इतिहासकारों की रुचि इधर बढ़ी है. इस दिशा में, देश-भाषा के स्रोतों को ‘नए अभिलेखागार’ (new-archive) के रूप देखा जा रहा है और उनके इस्तेमाल से इतिहास-लेखन में नए प्रश्नों और नवीन दृष्टियों के उत्पन्न होने की संभावना को भी समझा जा रहा है. बहुत समय तक उत्तर-भारत के मध्यकालीन राजनीतिक और बौद्धिक इतिहास-लेखन में, देश भाषाओं के स्रोतों का इस्तेमाल न के बराबर हुआ और इस अवधि के इतिहास मूलरूप से, फ़ारसी और कुछ हद तक, संस्कृत के स्रोतों के अध्ययन पर ही आधारित रहे हैं. आरंभिक आधुनिक हिन्दी काव्यों के पठन की सीमा हिन्दी-साहित्य के इतिहास लेखन की सीमा भी रही है. हिन्दी में उपलब्ध स्रोतों की मान्यता सामाजिक- राजनीतिक इतिहास-लेखन में ‘वैध-ऐतिहासिक’ स्रोत के रूप में पहले नहीं थी. इसको इस रूप में भी कह सकते हैं कि हिन्दी स्रोतों के पाठक व्यापक ऐतिहासिक विमर्श में शामिल नहीं हुए.

इतिहास-लेखन की यह व्यापक बहस, इस किताब की पृष्ठभूमि में है. इस बहस में, ऐलिसन बुश रीति-साहित्य  के मौलिक और अभिनव पठन में शामिल होती हैं. इस संदर्भ में, यदि इस किताब के  योगदान की बात करें तो मेरी नज़र में, हिन्दी-साहित्य के इतिहास-लेखन को लेकर यह एक  नया विमर्श खड़ा करता है, पर इससे भी ज्यादा मौलिक योगदान, उत्तर-भारत के साहित्यिक स्रोतों का इस्तेमाल कर एक वैकल्पिक इतिहास लिखने की संभावना को खोलने में है. जब हम इस तथ्य को रेखांकित कर रहें है कि यह किताब एक बड़े विमर्श का हिस्सा तथा उसकी उपज है, तो हमारा आशय उस बौद्दिक-अकादमिक बहस से है जिसमें आधुनिक-काल से पूर्व की बौद्धिक-राजनीतिक संस्कृतियों के स्वरूप और और उनमें हो रहे बदलाव को सैद्धांतिककृत  करने का प्रयास है. इस बहस में देश-भाषाओं की भूमिका केन्द्रीय है और उनसे संबंधित सवाल कुछ ऐसे हैं; क्या देश-भाषाओं के उभार से किसी प्रकार का राजनीतिक और सांस्कृतिक बदलाव होता है?

यदि देशभाषा एक नई प्रकार की साहित्यिक और सांस्कृतिक गठन करती हैं तो उस नवीनता के मायने क्या हैं? इस विमर्श को सुदृढ़ रूप से रखने का श्रेय अमेरिकन संस्कृतविद और इंडोलॉजिस्ट शेल्डन पॉलक की देशभाषाओं (vernacular) के उभार को लेकर दी गई थीसिस है. पॉलक के अनुसार, यूरोप और दक्षिण एशिया में दूसरी सहस्राब्दी की आरंभिक शताब्दियों में देश भाषाएँ बौद्धिक संस्कृति के केंद्र में आने लगती हैं, और उनमें होने वाली वैचारिकी और उसके उभरते स्वरूप एक नई बौद्धिक-संस्कृति की नींव रखती हैं. पॉलक की इस मान्यता के केंद्र में, क्लासिकल भाषाओं की सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से गिरावट और देश-भाषाओं के राजनीतिक और सांस्कृतिक ज्ञान की भाषा के रूप में विकसित होने की ऐतिहासिक प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया को पॉलक ‘देश-भाषाकरण’ की संज्ञा देते हैं. वे देश-भाषाओं के उभार में सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक बदलावों को रेखांकित करते हैं, जैसे कि क्षेत्रीय-राज्यों का उद्भव, इन राज्यों की सांस्कृतिक-राजनीति और इनकी ‘क्षेत्रीयता’ या अस्मिता की राजनीति जैसे विषयों पर प्रकाश डालते हैं. मध्यकाल के शुरुआती दौर में होने वाले ये सांस्कृतिक बदलाव, उत्तर-मध्यकाल में व्यापक बदलाव के वाहक बन जाते हैं.

पॉलक की नजर में, देशभाषाओं का प्रमुखता से उभरना एक वैश्विक परिघटना थी, लिहाजा, इस दृष्टि से यह एक व्यापक सांस्कृतिक, राजनीतिक, और ज्ञान के क्षेत्र में होने वाली क्रांतिकारी परिवर्तनों की अभिव्यक्ति थी. इन बदलावों ने जहाँ मध्यकालीन यूरोप में आधुनिकता के बीज बोए, तो दूसरी संस्कृतियों में भी कमोवेश सदृश्य बदलाव देखने को मिलते हैं. पॉलक की इस स्थापना ने आरंभिक-आधुनिकता के विमर्श को सैद्धांतिकी प्रदान की जिसे दक्षिणी-एशिया के विद्वानों ने गंभीरता से लेते हुए, देश-भाषाओं के स्रोतों को व्यापक परिप्रेक्ष्य  में स्थापित करते हुए शोध-कार्य का एक नया सिलसिला शुरू किया.

इस बहस के केंद्र में, औपनिवेशिवक-काल के पूर्व के दक्षिण-एशिया में देश-भाषाओं को केंद्र में रख कर, सांस्कृतिक और राजनीतिक बदलावों को समझने की कोशिश है. पॉलक और इस परियोजना के अन्य विद्वानों की उत्तर-औपनिवेशिक (post-colonial) इतिहासकारों की  इस स्थापना से असहमति है जिसमें, वे आमतौर पर सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक बदलावों के लिए, औपनिवेशिक शासन की नीतियों, वैचारिकी, और प्रशासनिक तकनीकों को जिम्मेदार मानते हैं.

अगर पॉलक और अन्य विद्वानों की इस परियोजना को कोई एक नाम दें तो वह दक्षिणी एशिया में आरंभिक-आधुनिकता को समझने की परियोजना हो सकती है.  इस परियोजना के केन्द्रीय आग्रह, पॉलक ने अपनी किताब, ‘फॉर्मस ऑफ नालेज इन अर्ली मॉडर्न इंडिया’ में दक्षिणी एशिया की ‘अर्ली माडर्निटी’ के अनुभव को पाश्चात्य संस्करण के ‘टेलोस’ के रूप में न देख कर, इसे भारतीय संदर्भ में देखने का आग्रह किया है. तो इस नजरिए से, इस बहस के केंद्र में आधुनिकता की सांस्कृतिक संकल्पना है, जो आधुनिकता के वर्तमान स्वरूप से अलग अन्य सांस्कृतिक संभावनाओं पर विचार करने की मांग करती है.

इस नजर से ऐलिसन बुश की किताब ने, प्रत्यक्ष  या परोक्ष रूप से, इन सवालों के जवाब स्वरूप हिन्दी के रीति-काव्यों की बनावट व उनके व्यापक सांस्कृतिक और राजनीतिक सरोकारों को देखने की पहल की है. जहाँ देश भाषा के रूप में ब्रज-भाषा मुग़ल और क्षेत्रीय राज्यों के अभिजात्य वर्ग के लिए न केवल एक सम्प्रेषण की भाषा थी, बल्कि, एक साझे बौद्धिक और सांस्कृतिक जीवन की भाषा थी, जिसमें सौन्दर्य, संगीत, और साहित्य का रसास्वादन मुग़ल और स्थानीय राजनीतिक अभिजात्य वर्ग साझे रूप में कर रहे थे. रीति-काव्य की लोकप्रियता राजपूत और मुग़ल राजदरबारों में एक समान थी. रीति-काव्य रचने वाले कवियों का आश्रयदाता वर्ग मुग़ल-शासित हिंदुस्तान के विभिन्न इलाकों में था जिससे उसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है.

साथ ही, रीति-काव्य की अंत:क्षेत्रीय और अंत:सांस्कृतिक स्वीकार्यता भी स्पष्ट होती है. ध्यातव्य है कि देश-भाषा की रीतिकाव्य परंपरा सार्वदेशिक (cosmopolitan) होने की दिशा में अग्रसर थी जो कि इस बात को दर्शाता है कि क्षेत्रीय भाषाएँ, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन की वाहक-भाषा के रूप में उभर रही थी. रीति-कवियों और उनके-काव्यों के सर्वव्यापी होने का प्रमुख कारण एक संवेदनशील और सौन्दर्य-बोधी भाषा का विकास है.

ऐलिशन बुश ने इन्हीं तत्वों को पकड़ने की कोशिश की है. वे रीति-काव्यों को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में एक बहुत ही समृद्ध अभिलेखों के संग्रह के रूप में देखने का आग्रह करती हैं जो इस बात पर आधारित है कि रीति-काव्य रचना के स्तर पर नवीनता को आत्मसात करते हुए कई विधाओं को जन्म दे  रही थी. इस नजरिए से ऐलिशन बुश की दृष्टि में रीति-काव्य भारतीय इतिहास के पूर्व-आधुनिक काल के बौद्धिक और राजनीतिक संस्कृति की नुमाइंदगी करता है. कई मायनों में यह किताब, इतिहास-लेखन और साहित्यिक-इतिहास लेखन में भारत की आरंभिक-आधुनिकता के विमर्श का हिस्सा है.

आरंभिक-आधुनिकता, एक ओर, जहाँ औपनिवेशिक-काल के पूर्व, गैर-पाश्चात्य समाजों के इतिहास को समझने की कोशिश है वहीं पश्चिमी-आधुनिकता के सवाल को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखने और समझने की कवायद है. पाश्चात्य समाज के लिए तथाकथित ‘आधुनिकता का संकट’  सांस्कृतिक और मानवीय स्तर पर उनका अपना प्रश्न है जैसे कि ‘व्यक्तिवादी’ समाज में सामूहिक-मानवीय सोच का सिकुड़ता दायरा, मानवीय रिश्तों में भौतिकवादी और उपभोक्तावादी संस्कृति का हावी होना, और पाश्चात्य-समाज का सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से एकाश्म, और एकाकी होने का खतरा. आधुनिकता के इस विमर्श के केंद्र में जो सवाल है वे यही हैं कि आधुनिकता अगर समय की नियति थी तो क्या उसकी यही परिणति होनी थी?

क्या आधुनिक होने की दूसरी कोई सांस्कृतिक संभावना थी, जो एक भिन्न सामाजिक अवधारणा को जन्म दे सकती है? आरंभिक आधुनिकता को लेकर चल रही इतिहास-लेखन की बहस विभिन्न सांस्कृतिक संभावनाओं को लेकर, एक सुव्यवस्थित बहस है जिसके केंद्र में आधुनिकता के बहु-संस्करण, (multiple modernities) और आरंभिक आधुनिकता (early modernity) जैसी अवधारणा है.

‘केसव सुनहु प्रबीन’ इस लिहाज से, हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में पिछले तीन दशकों में जिन रचनाओं ने अहम भूमिका निभाई है उनके केंद्र में हिन्दी साहित्य का इतिहास और उसमें आधुनिकता के तत्व व उसकी वैचारिकी को तलाश करने वाली अनोखी पुस्तक है.

आधुनिकता के मानक चिन्हों में तार्किकता (rationality), व्यक्तिवाद, भौतिकवादी प्रगतिवाद, व सार्वभौम सत्य की स्थापना आदि मूल्य रहे हैं. सवाल यह है कि हिन्दी पट्टी के समकालीन विमर्श में, भारत का देशज विमर्श जिसमें भारत के हिन्दी अकादमिक शामिल रहे है, इस विमर्श को किस रूप में देखते हैं.

जहाँ एक ओर, वि-औपनिवेशिकरण (decolonization) ने साहित्य और इतिहास-लेखन के विमर्श में केन्द्रीय स्थान हासिल कर लिया है, वहीं वि-औपनिवेशिकरण और आधुनिकता के सवाल पर एक सार्थक और गहरी बहस अनुपस्थित ही रही है. हिन्दी साहित्य के इतिहास के विमर्श में आरंभिक आधुनिकता, जो कि एक पाश्चात्य अकादमिक विमर्श की उपज है, जहाँ देशज अकादमिक वि-औपनिवेशिकरण के विमर्श को गंभीरता से लेती है, लेकिन उसके मुख्य ध्येय या तो राष्ट्रवादी रहे हैं या आत्मावलोकन के रहे है.

सवाल यह है कि क्या हिन्दी के विद्वान पश्चिमी विमर्श के ढांचे से बाहर निकल कर, आधुनिक-पूर्व साहित्यिक और बौद्धिक स्रोतों और विमर्शों को अपने देशज शर्तों पर समझने की कोशिश कर सकते है जो न राष्ट्रवादी पूर्वाग्रह से ग्रसित और न पाश्चात्य अकादमिक विमर्श के सम्मोहन का शिकार. भारतीय समाज के यथार्थ को समझने के लिए आधुनिक पूर्व राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श का  कैसे आकलन हो, इस बात पर देशज विद्वानों का ध्यान जाना चाहिए. उदाहरण के लिए यहाँ ध्यातव्य है कि जहाँ एक तरफ, भक्ति और सूफ़ी परंपरा की समझ बनाते हुए एक धार्मिक रूप से समरसता भरे समाज का चित्रण जहाँ प्रबल है वहीं जातिगत सामाजिक संबंधों और सामाजिक पहचान का विमर्श का अध्ययन गौण है.  किताब को जब हिन्दी के पाठक पढ़ें तो इस आलोचनात्मक दृष्टि को ध्यान में  रखना जरूरी है. जहाँ एक तरफ, आरंभिक आधुनिकता के सोद्देश्यवादी (teleological) विमर्श की गहरी परख की जरूरत है वहीं, राष्ट्रवादी और वि-औपनिवेशिकता की राजनीति पर भी राष्ट्रवादी और सांस्कृतिक कौमपरस्ती से सतर्क होने की जरूरत है. एक प्रस्ताव तो इस विमर्श को समझने का समाजशास्त्रीय नजरिया हो सकता है जिसके अंतर्गत साहित्यिक विधा की विवेचना के परे, आधुनिक पूर्व के साहित्यिक स्रोतों को तात्कालिक समाज के विश्लेषण के लिए पढ़ा जाए.

संदर्भ:

बुश, ऐलिशन पोइट्री ऑफ किंग्स, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस २०१२.
बुश, ऐलिशन,  केसव सुनहु प्रबीन: मुग़लकालीन हिंदी साहित्यिक परिवेश (अनुवाद) रेआजुल हक, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, २०२४.
शेल्डन, पॉलक फॉर्म्स ऑफ नालिज इन अर्ली मॉडर्न एशिया: एक्स्प्लॉरैशनस इन इंनटेलेकचुअल हिस्ट्री ऑफ इंडिया एण्ड तिब्बत १५००-१८००, ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस, २०११.

 

यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें.

रबि प्रकाश, थापर स्कूल ऑफ लिब्रल आर्ट्स, पटियाला, पंजाब, में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं.
ईमेल- rprakash.rabi@gmail.com 

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