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समालोचन

Home » जापान : अनूप सेठी

जापान : अनूप सेठी

‘अरिगातो गोज़ाइमस’ जापानी भाषा में धन्यवाद कहने का एक विनम्र तरीका है. कवि अनुवादक अनूप सेठी 2 से 14 मार्च 2025 के बीच परिवार और मित्रों के साथ जापान में थे. अरिगातो गोज़ाइमस कहने का एक और सुंदर तरीका यह भी है कि उस अनुभव को लिख दिया जाए. इस तरह से यात्रा सांस्कृतिक यात्रा में बदल जाती है. प्रस्तुत है.

by arun dev
June 23, 2025
in अन्यत्र
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जापान : अनूप सेठी
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अरिगातो गोज़ाइमस  जापान

(2 से 14 मार्च 2025 के बीच यात्रा)


अनूप सेठी

 

मैंने तो कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि जापान जाना है‌. सुमनिका की इच्छा का पता था कि वह जापान और चीन देखना चाहती है. उसने अपने यूनिवर्सिटी के दिनों में जापानी में डिप्लोमा भी किया था. बचपन में उसने अपनी एक चचेरी बहन के जन्म पर उसका नाम रख दिया- गोमो शोमो. परिवार जन उसे ही गोमो शोमो पुकारने लगे. उसका जापान से नाता जोड़ आनंदित होते रहे. क्योटो शहर में जब सुमनिका किमोनो (जापानी महिलाओं का पारंपरिक परिधान) पहन कर सड़क पर चली तो सच में लगता था वह जापानी ही है.

उसकी जापान जाने की इच्छा यूं ही पूरी हो जाएगी और साथ में या बोनस में मुझे भी जापान दर्शन हो जाएँगे, सोचा ना था. क्योंकि हम लोग, खास कर मैं योजना वीर ज्यादा हूं, कर्मवीर शून्य. खैर! सुमनिका के भाई यदु का फोन आया कि हम दो हफ्ते के लिए जापान जाने की सोच रहे हैं, आप दोनों भी चलिए. हमारी पहली प्रतिक्रिया, आदतन न करने की ही थी. पर यह सच भी था कि दिसंबर में ही हमारी बेटी का विवाह हुआ था. हम काफी थक गए थे; निचुड़ भी गए थे. पर यदु अपने इरादे में कामयाब हुए. हमने इसलिए भी हामी भर ली क्योंकि साथ में यदु का बेटा और बेटी-दामाद भी थे. ये तीनों कई देशों में घूम चुके हैं. हम इनके अनुगामी बनकर जापान की वैतरणी पर कर लेते. यह बात सच भी साबित हुई‌.

 

१)

तीन मार्च की सुबह टोक्यो होते हुए ओसाका हवाई अड्डे पर उतरे. वहाँ हाशिसान (जापान में सान सम्मानजनक शब्द है जो नाम के साथ लगाया जाता है जैसे हमारे यहाँ हिंदी में जी; हमारी बोली और पंजाबी में होरां या होरीं) अपनी बड़ी सी वैन लेकर आई हुई थीं. जापान जाने की तैयारी में अरुंधती की सहेली पूजा गाला ने काफी मदद की थी. पूजा ने यूं तो मनोविज्ञान की पढ़ाई की है और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी क्लीनिक चलाती है पर उसने अपने शौक से जापानी भाषा सीखी है; दो बार वहाँ जा चुकी है. सुमनिका ने अपने सोफिया कॉलेज में जापानी बोलना सीखने के सर्टिफिकेट कोर्स पूजा गाला से ही करवाए थे. इसी पूजा ने अपनी पहचान की एक महिला टैक्सी ड्राइवर हाशिसान का नंबर दिया था. इन्हीं भद्र महिला ने हमें ओसाका से क्योटो शहर के एक खूबसूरत होटल में छोड़ा.

होटल की बड़ी खिड़की से दिखाई पड़ती है चौड़ी सड़क, बीच में डिवाइडर, चौराहा, सिग्नल, थोड़ी-थोड़ी दूर पर छरहरे से पेड़ और सड़क के दोनों ओर साफ इमारतें, बहुत ज्यादा ऊंची नहीं; नीचे चमचमाती दुकानें, स्टोर या रेस्त्रां. चौराहे के पास एक गेट के अंदर सीढ़ियाँ नीचे उतरती हैं. इन्हें उतर कर आप भूमिगत रेल या कहें मेट्रो की तोजाई लाइन के कारासुमा ओइके स्टेशन पर पहुंच जाते हैं. सड़क पर ज्यादा ट्रैफिक नहीं रहती है. बीच-बीच में वाहन गुजरते हैं. सड़क के दोनों तरफ साफ सुथरे फुटपाथ बने हैं. होटल की सातवीं मंजिल पर अपने कमरे की बड़ी खिड़की से देखने पर मुझे नीदरलैंड के हेग शहर की उस सड़क की याद आती है जिसके किनारे एक घर के भूतल पर हम सन 2017 में तीन दिन रहे थे. वहाँ दोनों तरफ की सड़कों के बीच एक नहर थी. यहाँ नहर नहीं है. पर ठंड, बूंदाबांदी, रात और शांत चमकती हुई सी सड़क, थोड़ी बहुत आवाजाही, दोनों जगह एक जैसी है.

हमारे होटल से दो इमारतें छोड़कर सेवन इलैवन (7/11) नाम का कन्वीनिएँट स्टोर है, जिसे यहाँ काॅम्बिनी कहते हैं. थोड़ी-थोड़ी दूरी पर इस तरह के स्टोर दिख जाते हैं. हमारे यहाँ के जनरल स्टोर्स की तरह खाने पीने के समान से लेकर रोजमर्रा की ज़रूरत तक की चीजें यहाँ मिल जाती हैं. सब कुछ पैक्ड. होटल महंगा था. हमने ब्रेकफास्ट वाला पैकेज नहीं लिया था. 7/11 स्टोर से अंडा सैंडविच, क्रीम सैंडविच वगैरह लेकर काम चलाया.

लंबे सफर की थकान मिटा कर शाम को क्योटो टावर देखने निकले. भूमिगत रेलवे स्टेशन पर लगे कियोस्क से यात्रा के लिए इकोका (ICOCA) नामक स्मार्ट कार्ड बनवाया. इससे जापान की लोकल रेल और बस यात्रा की जा सकती थी. तीनों बच्चे मुस्तैदी से इस तरह के बंदोबस्त में लगे थे. टावर पर चढ़ने के टिकट उन लोगों ने भारत में रहते ही खरीद लिए थे. टावर के लगभग शिखर पर चढ़कर हमने क्योटो शहर का नजारा लिया. दूर-दूर तक इमारतें ही इमारतें. एक तरफ नीचे क्योटो सेंट्रल रेलवे स्टेशन दिख रहा था‌. दूर एक महलनुमा संरचना थी. कहीं खुला परिसर, कहीं ठसाठस कंक्रीट. ऊंचाई पर जाकर चारों ओर पसरे हुए शहरी विस्तार को देखना एक रोमांच है. पर्यटक यहाँ जरूर जाते हैं.

चित्र अनूप सेठी के सौजन्य से

इस टावर से सीढ़ियाँ उतरते जाएँ तो आप भूमिगत फूड कोर्ट में पहुंच सकते हैं. और वहाँ से जमीन के नीचे चलने वाली लोकल ट्रेन पकड़ कर अपने ठिकाने को निकल सकते हैं. हम लोगों ने जापान में पहली रात का भोजन इसी भूमिगत फूड कोर्ट में किया. यहाँ की दुकानों का रखरखाव साधारण था. जापान में शाकाहारी भोजन ढूंढ़ना आसान नहीं. मैं और सुमनिका शाकाहारी हैं. जापानी लोग चावल तो खाते हैं पर कोई केवल चावल कैसे खाए. रेस्त्रां वालों को समझाना भी मुश्किल होता है. अंग्रेजी उतनी ज्यादा नहीं चलती है. जो रेस्त्रां ज्यादा चलते हैं यानी जहाँ पर्यटकों की भीड़ रहती है, वहाँ वे व्यंजनों की तस्वीर या प्लास्टिक जैसी सामग्री का मॉडल बनाकर सजा देते हैं. आप उनमें से चुन लीजिए. आप अपनी मर्जी से किसी व्यंजन में फेर बदल नहीं करवा सकते. नाश्ते में अंडे का सैंडविच खा लेते थे. अंडे का नरम सा पेस्ट ब्रेड में लगा रहता था. उसका स्वाद जरा फर्क था. सुमनिका से वह ज्यादा नहीं खाया गया. भारत से कुछ थेपले, खाखरे, बिस्कुट और मेवे ले गए थे. इनका बड़ा सहारा रहा.

दूसरे दिन किन काकू जी मंदिर गए. यह बुद्ध धर्म की जेन शाखा का करीब सात सौ साल पुराना मंदिर है. बहुत बड़े और सुंदर परिसर में सरोवर के बीच सोने से मढ़ा हुआ. यहाँ सैलानी खिंचे चले आते हैं. उस दिन रिमझिम बारिश हो रही थी. होटल वाले अपने मेहमानों को बाहर निकलते समय छाता दे देते हैं. हम उसी के सहारे क्योटो शहर की टोह लेने निकले थे. ठंड भी खूब थी. हमने स्वेटर, जैकेट, मफलर, दस्ताने और टोपियाँ डांटी हुई थीं. बजरी और पत्थर के सर्पीले रास्तों से होते हुए लगभग परिक्रमा सी हमने की.

मुख्य सड़क पर आकर हम एक छोटे से ढाबे जैसे में लंच के लिए गए. शायद उसमें तीन ही मेज थे. यानी बारह लोग बैठ सकते थे. तीन कोनों में एक-एक मेज और चौथे कोने को थोड़ा पारदर्शी दीवार से ढक कर पेंट्री या किचन जैसा बनाया गया था. हम सात जन थे. दो मेजों पर हम बैठ गए. थोड़ी देर में तीसरी मेज पर दो और महिलाएँ आकर बैठ गईं. एक उम्र दराज महिला इस भोजनालय को संभाले हुए थी. दो युवतियाँ उसकी सहायता कर रही थीं. खाने के मेजों के बीच लोहे का तवा फिट किया हुआ था. पैनकेक यानी चीले और चावल सब्जी आदि का आर्डर हमने दिया. महिला चीला बनाने का घोल जिसमें बेसन या आटा, सब्जियाँ, अंडा वगैरह पड़ा हुआ था, मेज में फिट किए गए तवे पर बिछा गई. नीचे से गैस ऑन कर दी. बगल में एक छोटी सी रेत घड़ी रख दी कि जब सारी रेत नीचे उतर जाए तो चीले को पलट देना. हमारे लिए यह अजूबा ही था. मेज पर लगे चूल्हे के दो काम थे. एक यह कि खाना बनाने का आधा काम ग्राहक खुद कर ले और दूसरा कि थोड़ी सी गर्माहट भी उसे मिल जाए. यहाँ भारत में बार्बेक्यूनेशन में सिगड़ी पर कबाब सिकते तो देखे थे पर आप खुद चीला पकाएँ, यह नया अनुभव था. हमारे पीछे के मेज पर बच्चे (ज्योत्सना, हनुमंत और शशांक) बैठे थे. वे अपने लिए चिकन से कोई डिश पका रहे थे. रेस्त्रां वाली महिला बड़ी कर्मठ थी. छोटी सी जगह में भी दौड़-भाग कर रही थी. उनका किचन अंदर था. वह बीच-बीच में अपनी चप्पल उतार कर एक सीढ़ी चढ़ती, बगल का दरवाजा खोल कर अंदर जाती और भरा कटोरा ले आती. सीढ़ी उतरकर चप्पल पहनती और ग्राहकों की सेवा में लग जाती.

तीसरे मेज पर भी उसने कुछ पकने के लिए रख दिया. जब तक खाना पके, वे महिलाएँ चावल से बनी जापान की एक खास शराब ‘साके’ की चुस्कियाँ लेती रहीं. शराब पीना कहने से जो छवि बनती है, साके मदिरापान वैसा नहीं होता है. साके चीनी मिट्टी की एक छोटी सी सुंदर गिलसिया या नन्हीं सुराही जैसी में पेश की जाती है. उसे पीने के लिए चीनी मिट्टी के ही अति सुंदर छोटे-छोटे कटोरे या कप होते हैं. इनमें दो-तीन घूंट ही मदिरा आती है. उसे धीरे-धीरे चुस्कियाँ लेकर पिया जाता है. काफी देर बाद वे देखने लगीं कि उनकी डिश पक क्यों नहीं रही. रेस्रां वाली को बुलाया गया. उसने देखा कि वह गैस जलाना ही भूल गई थी. वह सॉरी सॉरी करके अपनी शर्मिंदगी छिपाती रही. इधर हमने भी दर्याफ्त किया कि हमारा आमलेट नहीं आया. अब वह हड़बड़ा गई. वह काम चलाऊ अंग्रेजी बोल लेती थी. सॉरी-वॉरी के बाद कहने लगी, आई हैव ओनली टू हैंड्स. हमारे यहाँ माताएँ जब अपने परिवार की सेवा कर-कर के थक जाती हैं, पर फरमाइशें थमने का नाम नहीं लेतीं, तो वे हाथ खड़े कर देती हैं, यह कहते हुए कि मेरे दो ही हाथ हैं. इसका मतलब इस तरह की अभिव्यक्ति जापानी में भी है. वह शायद उसका अनुवाद करके हमें बोल रही थी.

यूं वह हंसमुख और बतरसिया थी. भारत के बारे में भी थोड़ा बहुत जानती थी. उन्हीं दिनों कुंभ हो कर चुका था. वह कहने लगी मैं भी भारत जाना चाहती हूं और गंगा में डुबकी लगाना चाहती हूं. उसने यह बात नाक पकड़ कर काल्पनिक डुबकी लगाते हुए कही. उसने हमें जापानी चाय भी पिलाई. संतरों की खुशबू और स्वाद वाली ‘यूज़ू टी’. यूज़ू वहाँ के संतरों का नाम है. शायद यह चीन और फिर कोरिया होती हुई जापान पहुंची है. अंत में आजकल की नई परंपरा के मुताबिक हमने उसके साथ फोटो खिंचवाया.

खाना खा कर बस पकड़ी और सागा तोरक्को स्टेशन गए. यहाँ से सैलानियों के लिए एक रोमांटिक ट्रेन चलती है. पुराने जमाने के डिब्बे, लकड़ी के बेंच, छुक-छुक रेलगाड़ी जैसी. करीब आधा घंटा होजूगावा नदी के साथ चल कर जंगल और पहाड़ों के बीच से होती हुई, सुरंगें पार करती हुई शहर के बाहर जाकर यात्रियों को छोड़ती है. वहाँ से लौटे हम साधारण ट्रेन से. स्टेशन के आसपास मटरगश्ती करते रहे. क्योटो शहर आठवीं से अठारहवीं सदी तक जापान की राजधानी रहा है. यहाँ मंदिर भी कम नहीं हैं. कुछ छोटे कुछ बड़े. वहीं एक बांस वन भी मिला. उसके बीच में एक प्राचीन किस्म का मंदिर या कहिए देवालय था. वहाँ से लौटे तो बाजार के बीच सड़क किनारे एक और मंदिर का बहुत बड़ा परिसर प्रकट हुआ. उसका फेरा लगाने के लिए टिकट लेना पड़ता है. सारे परिसर को बहुत सहेज कर रखा गया था. बजरी वाले रास्ते, लकड़ी की बहुलता वाली इमारतें, पेड़, हरियाली, पानी. बस आप टहलते रहिए – स्वच्छ… सुरम्य… शांत… वह भी शहर के बीचों बीच.

वह शाम हमने इसी सड़क पर टहलते… ठिसरते… कॉफी पीते… छोटी-मोटी दुकानदारी करते बिताई. सड़क के एक सिरे पर रेलवे स्टेशन था, दूसरे पर कत्सुरा नदी पर पुल. बीच-बीच में मंद-मंद बारिश हो जाती. हम ठंड से बचने की कोशिश करते. स्ट्रीट लाइटें जल उठीं तो गीली सड़क पीली रोशनी में चमकने लगी. ठंड से बचने के लिए पहले पुल के पास एक छोटे से कैफे में गए. वहाँ एक काउंटर के शीशे के नीचे छोटे-छोटे खाने बनाए गए थे और उनमें अलग-अलग देशों की कॉफी के बीज प्रदर्शित किए गए थे. वहाँ बैठने की जगह कम थी, भीड़ भी थी. हम वहाँ रुक नहीं पाए. सड़क पर चलते-चलते एक ढाबा टाइप दुकान में घुसे, कॉफी पीने. वहाँ तीन भारतीय युवक मिल गए. उनमें से एक शायद केरल का था. सिंगापुर में नौकरी करता था. दोस्तों के साथ जापान घूमने आया था. उस दुकान पर शकरकंदी की मिठाई मिल रही थी. थोड़ी देर पहले एक और दुकान देखी थी, जिसमें सिर्फ शकरकंदी ही शकरकंदी थी लंबी-चौड़ी, मोटी-ताजी – तरह तरह की मिठाइयों के रूप में. मैं तो हैरान रह गया. जिस शकरकंदी को हम लोगों ने व्रत-उपवास के खाते में डाल रखा है, जापानी लोग उसका इतना कल्पनाशील इस्तेमाल करते हैं कि मन प्रसन्न हो गया. जापान की मुद्रा हमारे रुपए से सस्ती है पर वहाँ महंगाई बहुत है. आप यह समझ लीजिए कि हमारे हवाई अड्डों पर जिस दाम में चीजें मिलती हैं, लगभग उसी दाम से वहाँ शुरु होती हैं. जैसे शकरकंद के छोटे-छोटे टुकड़े पाँच सौ छह सौ येन के आते थे. इसलिए ज्यादातर जगहों में हम चीजों को देख-देख कर ही आनंद उठाते रहे. घूमते-टहलते इतनी देर हो गई कि खाने का कोई ठिकाना खुला नहीं मिला. आखिर ट्रेन पकड़कर क्योटो सेंट्रल के फूड कोर्ट में आए जहाँ पिछली रात भी खाना खाया था.

हमारे तीन श्रवण कुमार थे – ज्योत्सना और हनुमंत यानी यदु के बेटी-दामाद और शशांक, यदु का बेटा. बूढ़े माता-पिता हम चार जने – मैं सुमनिका और यदु सोनिया. हमें बहंगी की जरूरत नहीं थी. बस हमने खुद को उनके हवाले कर दिया था. इन लोगों ने जापान की देखने लायक जगहें ढूंढ़ रखी थीं. ज्योत्सना ने बाकायदा तारीखवार सूची बनाई हुई थी. ये रास्तों, बाजारों, दुकानों का पता लगा लेते थे. हम उनके साथ लपक लेते थे.

क्योटो के जिस होटल में हम ठहरे थे वह बहुत आरामदायक था. बाथरूम में गर्म पानी का जोरदार शावर और बाथटब अपनी ओर खींचते रहते थे. हालांकि उससे पहले बिस्तर का नरम गद्दा उठने नहीं देता था. बॉथरूम स्लिपर्स प्राय: हर होटल में मिल जाते हैं. वे लोग गाढ़े ग्रे रंग का नाइट सूट भी देते थे. जापान में सार्वजनिक स्नानागार की परंपरा है. यह गर्म पानी के चश्मों से निकली है. और पूर्व ऐतिहासिक जोमोन काल 14000 – 300 सदी ईसा पूर्व से चली आ रही है. इसका प्रयोग औषधीय उपचार और धार्मिक अनुष्ठान की तरह होता था. एक समय में वहाँ ऐसे बहुत से चश्मे थे. उसी के गिर्द सराए और स्नानागार यानी तालाब बना दिया जाता था. लोग उसमें नहाते थे. यह पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग होता था. इसमें शर्त यह है कि आप कोई कपड़ा पहन कर नहीं नहा सकते. इसे ओनसेन (Onsen) कहते हैं.

सारी दुनिया में तरणताल, नदी या समुद्र में तैराकी के परिधान पहन कर नहाया या तैरा जाता है. हमारे यहाँ भी नदी, तालाब, झील आदि में या घर के आंगन में जांघिया पहन कर ही नहाया जाता है. सामान्यतः भी बिना कुर्ते के रहने की छूट है पर जननांग ढके रहते हैं. जापानी ओनसेन में आप अपने नैसर्गिक रूप में ही प्रवेश करते हैं. इससे संकेत मिलता है कि जापानी समाज इस मामले में कितना निर्कुंठ है. एक जापानी फिल्म ‘परफेक्ट डेज’ में हमने पहली बार यह ओनसेन देखा था. नायक वहाँ नहाने जाता है. स्नान का दृश्य इतनी कुशलता से फिल्माया गया था कि दर्शक को नायक का निर्वस्त्र नहाना बुरा नहीं लगता.

हमारे होटल में भी एक ओनसेन था. होटल वालों ने ग्रे रंग का नाइट सूट कमरे से वहाँ तक जाने के लिए ही दिया था. उन्होंने हिदायत लिख रखी थी कि केवल यह पहन कर और अपने कमरे से तौलिया लेकर आइए. वहाँ इन कपड़ों को उतारिए, साबुन से नहा लीजिए और उसके बाद गर्म पानी के स्नानागार या कुंड में स्नान का आनंद लीजिए. उनके स्लीपर भी इतनी अच्छी किस्म के थे कि चुराने का मन कर आए. असल में वे ओनसेन तक जाने के लिए दिए गए थे. अपनी सांस्कृतिक जकड़न कितनी कड़ी होती है, यह वहाँ जाकर पता चला. मैं और लोगों के बीच इस तरह नहाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. अलबत्ता सुमनिका और यदु ने हिम्मत कर ली.

 

२)

हर रोज योजना होती थी कि नौ बजे घूमने निकल पड़ें. लेकिन उठने, चाय-कॉफी पीने और तैयार होने में अक्सर देर हो जाती. बच्चे फिर उस हिसाब से अपनी योजना में तब्दीली करते. किसी-किसी दिन ब्रेकफास्ट और लंच के बीच में कुछ खा लेते. अपने होटल से करीब बीस मिनट दूरी पर एक रेस्त्रां में दो बार टहलते हुए गए; जापान के क्योटो शहर की गलियों का आनंद लेते हुए. इस रेस्त्रां में टेबल पहले ही बुक करना होता है. सुबह साढ़े दस बजे मुंबई जैसी लाइन लग जाती है. यहाँ के तरह-तरह के पैन केक मशहूर हैं. एक बार मैंने बनाना केक मंगवाया तो केक के साथ छिला हुआ केला मिला. मैं केला पाकर खुश हो गया क्योंकि बाजार में फल कहीं दिख नहीं रहे थे. कॉम्बिनी स्टोर में एक केला सौ येन यानी सत्तर रुपए का मिलता था. हर वस्तु की कीमत रुपए में बदलने की आदत के चलते केले के केवल दर्शन ही किए थे. यहाँ केला साथ में मिल गया तो जी खुश हो गया.

यहाँ से ट्रेन पकड़ कर हम दक्षिण क्योटो के फुशिमी इनारी (Fushimi Inari) मंदिर गए. यह जापान के प्राचीन शिंटो धर्म के देवता का आठवीं सदी का मंदिर है. शिंटो धर्म ईसापूर्व लगभग एक हजार पुराना है और अब भी मौजूद है. शिंटो का मतलब है – देवताओं का मार्ग. यह प्रकृति में व्याप्त आध्यात्मिक शक्तियों में यकीन करता है. सबसे प्रमुख सूर्य की देवी है जिसे कामी देवी कहते हैं. लगता है हमारे यहाँ से इन सब बातों में कितनी समानता है. ये भी आर्यों की तरह प्रकृतिपूजक रहे हैं. जिस मंदिर में हम गए वहाँ लोमड़ी को इनारी देवता का संदेशवाहक माना जाता है. यह भी मान्यता है कि लोमड़ी मंदिर की रक्षा करती है. यहाँ मुख्य द्वार स्तंभों पर लोमड़ी की मूर्तियाँ लगी हैं. मंदिर के पीछे से एक पहाड़ी तक रास्ता जाता है. यह पहाड़ी पवित्र मानी जाती है. इस रास्ते में सिंदूरी रंग के हजारों तोरणद्वार बने हुए हैं. इन्हें टोरी गेट कहा जाता है. ये गेट लोगों के दान से बने हैं. कंपनियाँ भी इनके लिए दान देती हैं. ये द्वार शिंटो धर्म के मंदिरों की पहचान हैं. जिसकी जितनी हिम्मत होती है वह उतनी दूर तक पहाड़ी पर चढ़ता है. हम लोग भी अधबीच तक जा कर थम गए और फिर लौटे. प्रवेश द्वार के पास खाने का और यादगारी उपहारों का वैसा ही बाजार है, जैसा हमारे यहाँ तीर्थ स्थलों पर होता है. खाने में तरह तरह की मांसाहारी चीजें मिलती हैं. शकरकंदी के चपटे फिंगर चिप्स यहाँ भी मिल रहे थे. फिर एक दिन एक और पहाड़ी पर एक अन्य शिंटो मंदिर देखने गए. बहुत चढ़ाई और बहुत बड़ा परिसर. रास्ते में जापानी पॉटरी की दुकानें. हम लोगों ने भी यहाँ सामान खरीदा.

एक दिन नारा गए. सन 710 से 784 के बीच नारा जापान की राजधानी थी. सन 794 से 1868 तक क्योटो राजधानी रही. उसके बाद टोक्यो राजधानी बनी. नारा पहुंचने में ट्रेन में एक घंटा लगा. यह क्योटो शहर से बाहर का एक छोटा शहर है. ट्रेन से जापान के खेत, छोटे-छोटे घर, या देहात जैसे दिखते हैं. खुला खुला इलाका. नारा में तोदाईजी का विशाल बौद्ध मंदिर है. यहाँ बुद्ध की अति विशाल, शायद दुनिया में सबसे बड़ी कांस्य प्रतिमा है. यह मंदिर यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में है. इस इलाके में लगभग आठ मंदिर हैं. नारा का हिरण से गहरा संबंध है. माना जाता है कि एक मंदिर में एक देवता को एक पवित्र हिरण उठा कर लाया था, देश की समृद्धि और लोगों की खुशी के लिए. तब से वहाँ हिरण को प्यार से रखा जाता है. वहाँ एक डीयर पार्क बनाया गया है. इसमें सैंकड़ों हिरण लोगों के बीच घूमते रहते हैं. पर्यटक चावल के बिस्कुट खरीद कर इन हिरणों को खिलाते हैं.

यहाँ नारा राष्ट्रीय संग्रहालय देखने का अवसर मिला. यहाँ लगभग सौ प्रतिमाएँ स्थाई रूप से प्रदर्शित की गई हैं. इनमें से बहुत सी काष्ठ की प्राचीन प्रतिमाएँ हैं. ये मुख्यत: बौद्ध धर्म से संबंधित हैं. कई प्रतिमाओं के संस्कृत नाम भी लिखे गए थे. यह हमारे लिए आह्लादकारी था कि बौद्ध धर्म और कला के जरिए भी जापान के तार भारत से जुड़े हुए थे. और ये तार सदियों से जुड़े हुए चले आ रहे हैं.

हिरणों के बीच घूम कर और तोदाईजी मंदिर का फेरा लगा कर हम एक जापानी घर में चाय पीने गए. जापान में यूं तो बाजारों में चाय कॉफी इफरात में मिलती है. उनकी ‘माचा’ चाय और कॉफी बहुत लोकप्रिय है. इसके अलावा वहाँ चाय पान एक प्रसिद्ध पारंपरिक रस्म भी है (जिसे जापानी में चा-नो-यू कहते हैं). यदि आप ऐसी चाय पीना चाहते हैं तो इसकी बुकिंग करनी पड़ती है. हमारे बच्चों ने नारा के तोदाईजी मंदिर से थोड़ी दूरी पर ही एक पारंपरिक जापानी घर, जिसे ‘रयोकान’ (Ryokan) कहते हैं, में की थी. यह चाय कार्यक्रम मूलत: जमीन पर बैठ कर होता है. पर अब लोगों की सुविधा के लिए कम ऊंची कुर्सियों का भी चलन है. पारंपरिक घर प्राय: लकड़ी के होते हैं. हमें ऐसे ही घर के एक कमरे में बिठाया गया. घर के अंदर जूते नहीं ले जा सकते. हमारे कमरे में सामने की तरफ एक बड़ी खिड़की थी, जिसमें से आसमान, पेड़ और छोटा सा जलाशय दिख रहा था. थोड़ी देर में जापानी परिधान में एक महिला बिना दूध वाली गर्मागर्म चाय और कुकीज़ लेकर आई. बहुत ही ठहराव और सम्मान के साथ उन्होंने हम सब को बारी-बारी चाय का कप पेश किया. यूं देखने में लगेगा कि इसमें क्या खास है? लेकिन यह एक यादगार अनुभव था.

सारा माहौल इतना सुंदर, सुसंस्कृत और प्रियकर हो उठता है कि हम चाय के एक-एक घूंट के साथ उसे अपने भीतर जज्ब करते जाते हैं. जापानी लोग बड़े प्रेम से स्वागत करते हैं. विनम्रता उनकी देह भाषा का स्वभाव है. वे बहुत मंद स्वर में बोलते हैं. उनकी देखा-देखी हमारी आवाज भी उनका सुर पकड़ने की कोशिश करती है.

वहाँ सारा समय धीमी गति से बह रहा था. अपने चारों ओर देखने के लिए भी भीतर लाड़ सा उम्र पड़ता है. पेड़ों, पत्तियों, पानी, हवा में डोलती टहनियों, रास्तों पर बिखरी हुई बजरी, ढलवां छतों, लकड़ी की दीवारों, दरवाजों पर्दों को हम मानो स्लो मोशन में देखते हैं. आपस में बातें भी कर रहे हैं पर फुसफुसा कर. यहाँ ठहाकों, चीत्कारों, किल्लोलों, कर्कशताओं का प्रवेश वर्जित है. यहाँ मौन के साथ साक्षात्कार होता है. चाय पीते हुए, हरे रंग का कप देखते हुए, चाय की उठती भाप का पीछा करते हुए एक मौन, एक शांति, एक तृप्ति आपकी उंगली थामे रहती है. हम आनंदित, प्रसन्नचित्त वहाँ से उठते हैं; मुख्य द्वार से बाहर निकल कर ही इस दुनिया की आवाजों और रोशनियों का सामना हम करते हैं.

चित्र अनूप सेठी के सौजन्य से

एक दिन बच्चे हमें सातवीं सदी के पाँच मंजिला यसका पैगोड़ा (Yasaka Pagoda) ले गए. यह नष्ट होने के बाद पंद्रहवीं सदी में फिर से बनाया गया – पूरी तरह लकड़ी से. अभी भी इसके भूतल तक ही जाने दिया जाता है. इसके विशाल परिसर में कुछ और भी मंदिर थे. बाहर कुछ पेड़ों पर बौर आने लग गए थे – हल्के गुलाबी. जापान का चेरी ब्लॉसम का मौसम बड़ा प्रसिद्ध है. उन दिनों दुनिया भर से पर्यटक टूट पड़ते हैं. हम यहाँ हफ्ता भर पहले ही आ गए थे.

इसके बाद एक पुराने महल में गए. महल के बाग का ही चक्कर हमने लगाया, अंदर नहीं गए. बाग में पेड़ों की बंकिम देह यष्टि देखने लायक थी. टहनियाँ मानो विनम्रता से झुक झुक जाती थीं. झुकती हुई ऊपर चढ़तीं और फैल जातीं. ऐसा लगता जैसे उन्हें झुकना, मुड़ना और फिर ऊपर चढ़ना सिखाया गया है. यहाँ कुछ पेड़ नितांत ठूंठ जैसे भी थे. उन्हें पुआल जैसे सूखे घास से ढका गया था. कुछ पेड़ों की केवल जड़ों को ढका गया था. कुछ पेड़ों के सारे शरीर को ढका गया था. जैसे कोई परिधान पहना दिया गया हो. लिख भी रखा था कि पेड़ों को ठंड से बचाने के लिए ढका गया है. पेड़ों की प्रति इतनी संवेदनशीलता…! हम अभिभूत थे.

हालांकि पहले पेड़ों के सौंदर्य को देख कर मेरे मन में यह भाव भी उठ रहे थे कि इन पेड़ों को शायद बोनसाई की तरह बनाया गया है. बोनसाई यानी मनुष्य मनचाही बौनी आकृति में पेड़ को बड़ा कर लेता है. इस बात की हम लोगों ने चर्चा भी की. वहाँ चीड़ जैसे लगभग ये सभी पेड़ इसी शैली में बड़े हुए थे और खड़े थे. तो क्या उन्हें मनुष्य ने रस्सियों और तारों से जकड़ कर मनचाही आकृति में ढाला होगा? पर जब यह देखा कि बूढ़े पेड़ों को ठंड से बचने के लिए ढका गया है तो बोनसाई और उससे जुड़ी क्रूरता की बात मुझे व्यर्थ लगी.

यह संवेदनशीलता और सजकता जापानी जीवन शैली में भी दिखती है. शहर की गलियाँ, सड़कें, रेलवे स्टेशन, रेलें, सब जगह साफ सफाई दिखती है. राह चलते न कोई थूकता है, न कुछ फेंकता है. शहर में एक से अधिक नदियाँ बहती हैं. उनका पानी, उनके तट, किसी अछूती पहाड़ी नदी की तरह निर्मल दिखते हैं. क्योटो की अंतिम दो रातें हमने वहाँ के एक घर में बिताईं. लकड़ी के बने इन सादे घरों को रयोकान (Ryokan) कहते हैं. यह घर मुख्य सड़क से अंदर एक गली में था. मुख्य सड़क पर अट्टालिकाएँ, बाजार, बसें, ट्रेनें और जगर-मगर थी. जरा ही अंदर इस गली में शांति थी. गली के साथ एक नन्ही नहर है. इस तरह की जलधार को मेरी बोली में ‘कूह्ल’ कहते हैं. यह शब्द शायद संस्कृत में छोटी नदी के लिए ‘कुल्या’ शब्द से निकला है. मुख्य नदी से थोड़ा पानी घेर कर यह कूह्ल बनाई बनाई गई है. इसका जल पारदर्शी था. प्रवाह धीमा था. पानी चुपचाप बह रहा था.

इस रयोकान यानी घर के कुछ नियम थे. प्रवेश करते ही जूते खोल दीजिए. अंदर फर्श लकड़ी के थे. वहाँ नंगे पैर चलिए. शुरू में ही एक पैंट्री थी, जिसमें एक फ्रिज और चाय कॉफी का इंतजाम था. पैंट्री के दोनों तरफ बाथरूम थे. अंदर बैठक जैसा एक कमरा था. यहाँ जमीन पर बैठने की व्यवस्था थी. बीच में कम ऊंचा मेज था. आदमकद खिड़की के बाहर छोटी सी बगिया थी. और ओनसेन यानी स्नानागार भी था. ऊपर की मंजिल पर फर्श पर ही बिस्तर लगे थे. छत ढलवां थी. सड़क की तरफ एक खिड़की थी. वहाँ सोफा कुर्सी और मेज लगा हुआ था. सुबह-सुबह इसी खिड़की से गुनगुनी धूप अंदर आई. मैंने खिड़की से झांक कर देखा तो एक युवती सड़क किनारे की नाली में झाड़ू लगा रही थी. उसके पास कूड़े को समेटने के लिए एक लंबा सूप जैसा था. कूड़ा सूखा ही था. वह तल्लीनता से सफाई करती हुई आगे बढ़ गई. यह खिड़की प्रवेश द्वार की तरफ थी.

 

३)

हम तैयार हो कर बाहर निकले तो देखा क्यारी में नरगिस यानी डेफोडिल (जापानी में – सुऐक-को) के फूल खिले थे यानी सफेद और पीले रंग की मुस्कुराहटें. यदु ने इनकी फोटो खींची है जिसमें सुमनिका नरगिस को बड़े ध्यान से देख रही है. उसके कपड़ों में नीले रंग की अलग अलग छटाएँ हैं. उस चित्र में हरे, नीले रंग की छटाओं में सफेद और पीले रंग की आभा खिल रही है. बाद में नरगिस के फूलों ने टोक्यो के एक फुटपाथ पर भी दर्शन दिए. घर के बाहर बह रही कूह्ल यानी नन्ही नहर के दोनों तरफ सड़क थी. हम उसी कूह्ल के साथ चलते हुए नदी तट के पास एक छोटे से कैफे में नाश्ता करने रुके. वहाँ के रेस्टोरेंट प्राय: बनी बनाई चीजें देते हैं फिर भी देर बहुत लगाते हैं. हम लोग मजाक भी करते थे कि हमारे यहाँ ग्राहक इतना इंतजार नहीं कर सकता. खैर! इंतजार का फायदा यह हुआ कि हम में से कुछ एक उस खिड़की की तरफ मुंह करके बैठ गए जहाँ से सामने नदी दिखती थी. ठंड की वजह से धूप देखने में सुहानी लग रही थी. नदी अपनी मस्ती में बहे जा रही थी – चौड़ी और कई धाराओं में… मंद मदिर गति से. नदी में बतखों की तरह के पक्षी थे. कभी ध्यान मग्न हो जाते, कभी खुद को धारा में समर्पित कर देते. दूसरे तट पर पदचारियों, साइकिल चालकों के लिए रास्ता बना था. कुछ लोग वहाँ चल रहे थे, कुछ जॉग कर रहे थे. अगर सैंडविच और भी देर से आता तो भी बुरा न लगता, क्योंकि नदी की थोड़ी और संगत मिल जाती.

फिर नदी पार कर लोकल ट्रेन पकड़ कर हम सब गियॉन (Geon) गए. इस इलाके को गियॉन गीशा डिस्ट्रिक कहा जाता है. गीशा (Geisha) पारंपरिक परिधान किमोनो पहन कर मनोरंजन करने वाली महिलाओं को कहते हैं. गीशा का शाब्दिक अर्थ है – ‘कलावंत व्यक्ति’. गीशा महिलाएँ गायन, नर्तन और शामीसेन (तीन तार वाला गिटार जैसा वाद्य) नामक वाद्य बजाने में पारंगत होती हैं. वे वार्तालाप करने में भी माहिर होती हैं. चाय की रस्म (जिसे जापानी में चा-नो-यू कहते हैं) में फूलों की सजावट भी ये महिलाएँ करती हैं. जापानी महिलाएँ खास मौकों पर किमोनो नाम का गाउन पहनती हैं. ऐसा ही परिधान पुरुषों का भी होता है. पर्यटकों को यह परिधान किराए पर मिल जाते हैं.

हमारी तीनों लड़कियों सुमनिका, सोनिया और ज्योत्सना ने भी किमोनो किराए पर लिए. दुकानदार इन्हें पहना देते हैं क्योंकि इन्हें पहनने या बांधने की एक खास विधि है. दोनों नौजवानों हनुमंत और शशांक ने भी पुरुषों के किमोनो पहने. पुरुषों के लिए चोगे के ऊपर एक खुली जैकेट जैसी होती है. महिलाओं का कमरबंद बहुत कस कर बांधा जाता है. मैं और यदु इन पाँचों किराए के जापानियों के साथ सहयोगियों की तरह चले. उस दिन संयोग से धूप खिली हुई थी. ठंड में धूप का आनंद बढ़ गया था. तीन-चार घंटे और गियॉन डिस्ट्रिक्ट की सड़कों, गलियों, दुकानों में हम लोगों ने मटरगश्ती की. हनामिकोजी (Hanamikoji) यानी गीशा गली में भी गए जहाँ गीशा महिलाएँ अपनी कला का प्रदर्शन करती हैं. यह प्रदर्शन तो खैर घर या दुकानों के अंदर होता है, बाहर से दिखाई नहीं देता. ऐसी जगहों पर चाय की रस्म बहुत महंगी भी होती है. हम बाहर गली में ही घूमे और तस्वीरें खींचीं. पहले भी एक शाम यहाँ का फेरा लगाया था. वह गली बड़ी साफ और सुंदर है. वहाँ भी छोटी सी कूह्ल है. फूलों की क्यारियाँ हैं, पेड़ हैं, लकड़ी के पुराने घर हैं. इन घरों के फोटो खींचना वर्जित है. ज्योत्सना ने किमोनो के साथ एक छतरी भी ली थी. बांस और कागज से बनी, फूलों की छपाई वाली, बिल्कुल जापानी.

घूमते हुए हम इस इलाके के एक मंदिर में चले गए. यह शिंटो सम्प्रदाय का मंदिर था. लकड़ी, उस पर सिंदूरी रंग और फर्श पर स्लेटी पत्थर. सुंदर, पुराना, वास्तु शिल्प. मंदिर तक के रास्ते के दोनों तरफ खाने पीने की और उपहारों की दुकानें सजी थीं. दुकानदार ग्राहकों को रिझाने के लिए आवाज़ें लगा रहे थे. इस रास्ते को पार कर हमने सारे परिसर का एक चक्कर लगाया.

मंदिर से लौटे तो बाहर सड़क पर एक बड़ा तिराहा है. लगातार यातायात से आबाद चौड़ी सड़कें. ट्रैफिक जाम नहीं पर तेज गति से भागते, चमचमाते वाहन – कारें, बसें. क्योटो शहर में हमें कोई पुराना या फटीचर वाहन नहीं दिखा. हनुमंत कई दिनों से दुकानों के चक्कर लगा रहा था. जापान में चाकू, छुरियों, कटारों, तलवारों की खूब बिक्री होती है. मूलत: जापान योद्धाओं की धरती रही है- स्वाभिमानी वीरों की धरती. ऐसा लगता है औद्ध धर्म ने धीरे धीरे इनके जातीय मानस में सेंध लगाई और ध्यान और प्रशांति की तहजीब का बीज यहाँ फूटा. पुराना धर्म शिंटो और बौद्ध धर्म यहाँ हमजोलियों की तरह विद्यमान है. अगर आप बारीकी से न देखें तो दोनों के मंदिर एक सरीखे ही लगें. तो हमारा हनुमंत ऐसी धरती की एक तलवार अपने घर में सजाना चाहता था. इस तिराहे के पास एक शोरूम था जिसके चक्कर वह पहले भी लगा चुका था. वहाँ भांति भांति की तलवारें थीं. ये तलवारें होती हाथी के दांत जैसी ही हैं. यानी उनकी धार तेज नहीं होती. आखिर सौदा पट ही गया. तब हम लोग सामने के कैफे की तरफ सरक गए. वहाँ बैठने की जगह ही नहीं थी. उससे लगी हुई प्राचीन जापानी कलाकृतियों की एक दुकान थी. सोनिया, यदु और सुमनिका की बाछें खिल गईं. ये इस तरह की चीजों के प्रेमी हैं. उस दुकान से निकले तो दुकानदार की बांछें खिली हुई थीं. हमने फिर खड़े-खड़े ही काफी पी और धूप सेकी. यदु ने इसी बाजार में जापानी गुड़ियाँ खरीदी थीं. उनमें से एक या दो घर आकर मिली नहीं. आशंका है कि ये यहीं कहीं छूट गईं. लगता है वे गुड़ियाँ बिक जाने के बाद भी अपना देश छोड़ने को तैयार नहीं थीं.

शाम ढलने लगी तो इसी इलाके में एक पुल पार कर एक पतली गली पोंटोचो ऐली (Pontocho Alley) में घुसे. दोनों तरफ छोटे-छोटे मकान. गली के हर घर में खाने की दुकान या छोटे-छोटे रेस्त्रां थे. सभी भरे हुए. कहीं भी घुसने से पहले बाहर लगे मीनू में हम ढूंढ़ते कि कुछ शाकाहारी है या नहीं. आखिर एक ठिकाना मिल गया. मुंबई के संकरे भोजनालयों से भी ज्यादा छोटे और संकरे भोजनालय में हमने तरह-तरह के सुदर्शन और स्वादिष्ट व्यंजन खाए. भोजन सुंदर जापानी पॉटरी में पेश किया गया. ये एक और खासियत थी. यहाँ लगभग सभी जगह खाना सुंदर पॉटरी में सलीके से परोसा जाता है. संकरी होने के बावजूद गली साफ और सुंदर थी. पता चलता है कि जगह कम हो तो भी आतिथ्य का स्तर बनाए रखा जा सकता है.

 

४)

एक दिन ‘क्योटो का किचन’ नाम से मशहूर निशिकी मार्केट गए. वहाँ जापानी चित्रकृतियों और वुडकट प्रिंट्स की एक दुकान में हमने काफी समय बिताया. एक पुराने सामान की दुकान थी जिसमें तरह-तरह का सामान था. वहाँ सुमनिका ने बहुत समय बिताया. टूटे हुए, पुराने पड़ गए, प्राचीन, लेकिन सुंदर को संभालने सहेजने में सुमनिका का मन बहुत रमता है. उसकी चुनी हुई हर चीज को मैंने मुंडी हिला कर, मुंह बिचका कर नकार दिया. मुझे लग रहा था कि यह सामान हम कहाँ रखेंगे. वहाँ पारंपरिक जापानी स्त्री-पुरुष की एक कलाकृति थी. सुमनिका का उसे लेने का बहुत मन था पर वह भी मैंने लेने नहीं दी, क्योंकि शायद वह पुरानी थी. इससे सुमनिका का दिल बुझ गया. वह बहुत दिन निराश, उदास और नाराज रही. अभी भी शायद टीस बाकी है. छोटी सी इच्छा पूरी न करने देने का पछतावा मेरे भीतर भी है. उसी बाजार में एक गली थी जहाँ तरह तरह के खाने की चीजें थीं. वह हमारे यहाँ की खाऊ गली जैसी ही थी. बहुत भीड़, बहुत व्यस्त, तेज रोशनी और तरह-तरह की महकों से भरी हुई. शायद इसीलिए इसे ‘क्योटो का किचन’ कहा जाता है.

क्योटो के होटल से विदा होते समय सुमनिका ने रिसेप्शन पर बैठने वाली महिलाओं को जापानी भाषा में जापानी लिपि में (और यदु की सलाह पर) देवनागरी में धन्यवाद का एक नोट लिख कर दिया-

सुबाराशि ओमोतेनाशी ओ अरिगातो गोज़ाइमस.
आपकी अद्भुत मेहमान नवाजी के लिए धन्यवाद.

साथ में शायद छोटा सा उपहार भी दिया. वे महिलाएँ जापानी लिखने की इस अदा से बेहद प्रसन्न और अभिभूत हुईं. वह प्राय: हर बात हंसते हुए और झुक कर करती थीं. उस दिन और भी अधिक विनम्र और आत्मीय हो गईं. जैसा कि शुरु में मैंने सुमनिका के जापानी प्रेम का जिक्र किया था, यह उसी का प्रताप था. इसका जापानी प्रेम अभी भी बदस्तूर जारी है. उसने मोबाइल पर एक ऐप डाउनलोड किया है. उस पर वह जापानी सीखती रहती है. गाहे बगाहे एक मशीनी आवाज घर में अभी भी गूंजती रहती है.

क्योटो में सात दिन बिता कर बुलेट ट्रेन (जिसे वे शिन्कान्सेन कहते हैं) से टोक्यो आए. जापान के रेलवे स्टेशन आपको स्तब्ध कर देते हैं. एक ही जगह से भूमिगत रेल, लंबी दूरी की रेल, और तीव्र गति की बुलेट ट्रेन स्टेशन की इमारत की अलग-अलग मंजिलों से चलती हैं. बुलेट ट्रेन के लिए हमें कई मंजिल ऊपर आना पड़ा. और यहाँ पर भीड़ गजब की. पर सब कुछ व्यवस्थित. हमारे हवाई अड्डों की तरह वहाँ रेलवे स्टेशनों में बाजार भी है, मॉल भी और रेस्त्रां भी. बुलेट ट्रेन शायद हर आधे घंटे में चलती है. कुछ ही मिनट रुकती है. आपको अपने डिब्बे के दरवाजे के सामने खड़े रहना है. और बिना कोई व्यवधान डाले चढ़ना या उतरना है. लोकल ट्रेनों की तरह यहाँ भी आपको लाइन बनाकर खड़े रहना है; उतरने वालों के लिए जगह छोड़ते हुए. एक खास आकार का सामान लेकर ही आप बुलेट ट्रेन में यात्रा कर सकते हैं. भागती हुई ट्रेन में से हमने जापान का प्रसिद्ध पर्वत फूजीयामा भी देखा. जिस तरफ की खिड़कियों से यह पर्वत दिखेगा, टिकट खरीदते समय आप उस तरफ की सीटों को चुन सकते हैं. बच्चों ने हमारे टिकट इसी दिशा के लिए थे. तेज रफ्तार ट्रेन में बैठे-बैठे हिमच्छादित इस पर्वत के सबसे अच्छे चित्र यदु ने खींचे. चार घंटे में हम टोक्यो पहुंच गए. यहाँ कुदरत और जादुई यथार्थ दोनों के दर्शन एक साथ हुए.

टोक्यो स्टेशन से बाहर निकलते ही कांच की दीवारों वाली गगनचुंबी इमारतों ने हमारा स्वागत किया. हम जिस टैक्सी में बैठे उसे एक महिला चला रही थी. उसने कहा, हाँ मुझे होटल रॉयल पार्क पता है. टैक्सियाँ यहाँ भी साफ और नई हैं. ड्राइवर फॉर्मल कपड़े – टाई कोट पहने रहते हैं. उनकी सीट को फाइबर की दीवार से घेरा हुआ होता है; शायद उनकी सुरक्षा के लिए. वे नकदी एक ट्रे में लेते हैं. अगर जरूरत हो तो उसी में रखकर वापस करते हैं. हमारा होटल शियोडोमे नामक जगह में था. वहाँ का जादुई यथार्थ इस तरह शुरू हुआ कि हम तो जानते थे, जापान में भूकंप बहुत आते हैं, इसलिए यहाँ लकड़ी के मकान बनाए जाते हैं. लेकिन लगता है टोक्यो ने इमारतों के जरिए आसमान छूने की ठान ली है.

हमारे होटल का रिसेप्शन चौबीसवीं मंजिल पर था. उसके नीचे की मंजिलों पर दूसरी तरह के दफ्तर थे. हमारा कमरा तीसवीं मंजिल पर था. होटल के कमरे अड़तीस मंजिल तक थे. जापान में जगह की किल्लत को देखते हुए होटल का कमरा छोटा होना ही था. पर खिड़की से बाहर दृश्य विस्मयकारी था. सामने के टावर और भी ऊंचे थे. इमारतों के जंगल के बीच एक ऊंची रोशन कील आसमान की तरफ उठी हुई थी. यह टोक्यो टावर था; पेरिस के आइफल टावर की तर्ज पर बनाया गया. पर अब उससे भी ऊंचा टोक्यो स्काई ट्री बन गया है. यदु के कमरे से बाहर का दृश्य और भी अधिक स्तब्ध करने वाला था. नीचे पक्के फर्श वाली जमीन दिखती है. उसके ऊपर पुल जैसा है जिसमें ट्रेन चलती है. अगल बगल हमसे भी ऊंची अट्टालिकाओं का घेरा है. अपने कमरों से हम सड़क, रेल, बुलेट ट्रेन सब देख सकते हैं.

 

 

५)

एक दिन मैं और सुमनिका रिसेप्शन से नीचे उतरे कि सुविधा स्टोर से उदर पूर्ति का सामान खरीद लें. समझ ही न आए बाहर कहाँ से निकलें. नीचे दो मंजिल की पार्किंग है, किसी एक मंजिल से बाहर निकलिए तो रेलवे स्टेशन की तरफ का रास्ता निकलता है. दो-तीन गलत मंजिलों पर उतरने चढ़ने के बाद आखिर हम उस स्टोर पर पहुंचे जहाँ पैक किया हुआ सामान मिलता है. वहाँ शाकाहारी सामान ढूंढ़ रहे थे कि स्टोर में तैनात एक कर्मचारी के मुंह से हिंदी सुनकर हमें बड़ी राहत मिली. वह नेपाल की थी. उसने हमें शाकाहारी रामन (नूडल्स) ढूंढ़कर दीं. वहीं हमने हैश पोटैटो की खोज की. वह एक तरह की आलू की टिक्की थी. फिर तो हम रोज ही हैश पोटैटो खाने लगे.

टोक्यो दुनिया में सबसे ज्यादा और घनी आबादी वाला महानगर है. हम शियोडोमे में थे. यहाँ चार अलग-अलग दिशाओं को जानेवाली मेट्रो सेवा है. हम तो हैरान हैं कि ज्योत्सना, हनुमंत और शशांक ने कैसे इन भूल-भुलैया स्टेशनों में से होते हुए हमें जगह-जगह घुमाया. ज्योत्सना मोबाइल पर नजर गड़ाए रखती; हनुमंत लंबे-लंबे डग भरते हुए फर्लांग भर के दायरे में जगह की टोह ले आता और शशांक अपनी हाजिर जवाबी और कथा रस से सराबोर बातों से हम चारों का दिल लगाए रखता.

ये लोग हमें टोक्यो स्काई ट्री की चोटी तक ले गए. चारों तरफ जहाँ तक नजर जाती है कंक्रीट ही कंक्रीट. बीच-बीच में नहरों की तरह समुद्र का पानी, उन पर पुल और सड़कें. सड़कों पर वाहन. टोक्यो शहर टोक्यो खाड़ी के तट पर बसा है. मानव निर्मित इस ट्री के नीचे की मंजिलों पर बाजार ही बाजार और फूड कोर्ट हैं; जगमगाते हुए; चहल-पहल से लबरेज.

एक दिन असाकुसा (Asakusa) इलाके में गए. यहाँ टोक्यों के सबसे पुराने मंदिरों मे से एक है – सेन्सो जी मंदिर. इस तक पहुंचने के रास्ते के दोनों ओर बाजार है, छोटी-छोटी दुकानों वाला. जगह की कमी की वजह से जगह का अधिकतम उपयोग करना ये लोग जानते हैं, मुंबईकरों से ज्यादा. इस बाजार में पर्यटकों के लिए जापान की चीजों की रेलमपेल थी. सस्ता सामान चीन निर्मित भी है जापान में बना हुआ भी. यह जगह स्ट्रीट फूड के लिए भी मशहूर है. इस बाजार में हम सब अलग-अलग होकर काफी देर तक भटकते रहे. मंदिर का फेरा लगा कर निकलने लगे तो वहाँ भी तरह-तरह के सामान की दुकानें लगी थीं. यह अस्थाई दुकानें थीं. किसानों की मंडी की तरह या गांव के हाट की तरह. यहाँ चमड़े का जूता भी मिल रहा था और स्थानीय परफ्यूम भी. इस सारे परिसर में जहाँ देखो वहाँ सैलानी ही सैलानी, जबकि सैलानियों का सीजन आना अभी बाकी था.

इसके विपरीत एक शाम रिमझिम बारिश में गिंजा (Ginza) इलाके में गए. यहाँ शानोशौकत का जैसे पारावार ही नहीं था. दुनिया भर के एक से बढ़ कर एक कीमती ब्रांड इस बाजार में शोरूम सजा कर बैठे थे. निम्नमध्यवर्गीय उपयोगितावादी मानसिकता इस उच्च भ्रू वैभव को टेढ़ी नजर से देखेगी या हसरत भरी निगाहों से निरखेगी. पर मैंने इसे जग के मुजरे की तरह ही देखने की कोशिश की.

हमारी मंडली चमड़े के पर्स बैग आदि की एक दुकान में गई थी. मैं सड़क किनारे लैंप पोस्ट के पास खड़ा रहा. बूंदाबांदी सी हो रही थी. मेरे पास छाता था. लैंप पोस्ट के खंभे बड़े सुंदर थे, शायद रॉट आईरन के. उनके ऊपर लैंप शेड और भी सुंदर. जैसे होटल वाले अपने मेहमानों को छाता दे देते थे, उसी तरह हर दुकान के बाहर छाता रखने की जगह भी होती थी. जिस दुकान के बाहर मैं खड़ा था, वहाँ एक मशीन सी लगी थी. आप छाते को अच्छी तरह बंद करके उस मशीन में घुसाइए, तो छाते पर पॉलिथीन की एक थैली चिपक जाती है. अब आप छाते को दुकान के अंदर भी ले जा सकते हैं. वहाँ लोग यही कर रहे थे. तभी एक लड़की वहाँ आई. थोड़ी देर रुक कर इधर-उधर देखती रही. उसने छाते को मशीन में घुसा कर पॉलिथीन चिपकवाया फिर छाता लेकर थोड़ी देर खड़ी रही. अंदर नहीं गई. कुछ ही देर में दुकान की सीढ़ियाँ उतर कर अपने रास्ते चली गई. मैं इस दृश्य के बाद सड़क के उस पार देखने लगा जहाँ एक वैन खड़ी थी. वर्दीधारी दो कर्मचारी उसमें से कुछ सामान निकाल कर सड़क के दूसरे कोने में ले जा रहे थे.

इसी तरह एक शाम शिन्जुकु (Shinjuku) इलाके में गए. यहाँ अट्टालिकाएँ हैं, कारोबारी चहल-पहल है, बहुत व्यस्त स्टेशन है; और एक ‘यादों की गली’ है, जो दूसरे विश्व युद्ध में उजड़ गई थी. बार-बार गिर कर उठी. उसने लोगों को सस्ता और झटपट खाना खिलाना नहीं छोड़ा. आज भी वहाँ एक दूसरे से सटी दुकानों की भरमार है. पतली सी गली में या तो अंदर दड़वे में घुस कर खाइए या खुले में दुकानाें से सटी मेजों पर बैठकर यानी सड़क पर खाने का लुत्फ उठाइए. हम बाहर ही बैठे. खिड़की के अंदर सिगड़ी पर चिकन भुन रहा था. उसकी गर्म हवा बाहर रखे मेजों के नीचे तक पहुंचाने का इंतजाम किया गया था. ठंड में हमारी टांगों को थोड़ा सेक मिल रहा था. यहाँ कुछ घास-फूस हमें मिल गया. साथ में साके और प्लम वाइन का गर्म गिलास.

 

 

६)

एक दिन मैंने और सुमनिका ने अकेले निकलने की हिम्मत कर ली. आसपास कोई आर्ट गैलरी या संग्रहालय देखने का मन था. सुमनिका ने होटल के हेल्प डेस्क से पता किया तो उसे मित्सुबिशी आर्ट म्यूजियम का एक टिकट उपहार स्वरूप मिल गया. थोड़ी हिम्मत बढ़ी तो हमने एक और टिकट मांग लिया. यह म्यूजियम होटल से ज्यादा दूर नहीं था. हमने टैक्सी लेकर जाना ही ठीक समझा. यह म्यूजियम टोक्यो के मुख्य रेलवे स्टेशन के पास है. भव्य अट्टालिकाओं के बीच यह इंग्लैंड के वास्तुशिल्प में पत्थरों से बनी अपेक्षाकृत कम ऊंची इमारत है. उन्नीसवीं सदी की इस इमारत को बीसवीं सदी में ढहा दिया गया. फिर इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में पुरानी ही शैली में दोबारा बनाया गया. यहाँ उस दिन उन्नीसवीं सदी के लेखक और चित्रकार ऑबरे बीयर्डस्ले (Aubrey Beardsley) के चित्रों की सम्पूर्ण प्रदर्शनी लगी हुई थी. आप एक तरफ से चित्र देखते हुए तीसरी मंजिल तक जाते हैं और दूसरी तरफ से चित्र देखते हुए ही पहली मंजिल पर लौट आते हैं. महज पचीस साल की आयु पाने वाले इस कलाकार ने ऑस्कर वाइल्ड के नाटकों के लिए चित्र बनाए थे. वह मूलत: इलस्ट्रेटर था. कहा जाता है कि उसकी चित्रकारी ग्रोटस्क या भद्देपन की तरफ झुकी हुई है. अधिकतर चित्र श्वेत-श्याम थे. खासे आकर्षक और विविधता से भरे हुए. वह कवि भी था. इतनी कम उम्र में इतना ज्यादा काम कर जाना आश्चर्यजनक है.

वहाँ से बाहर निकल कर हम दोनों बात करने लगे कि नेशनल म्यूजियम आफ मॉडर्न आर्ट जाने के लिए टैक्सी किस दिशा से लें. गूगल के नक्शे पर देखा था, ज्यादा दूर नहीं है. अब सड़क की दिशा हमें तय करनी थी. तभी दो महिलाएँ उसी म्यूजियम से निकलीं जहाँ से हम निकले थे. हमें विदेशी जानकर पूछने लगीं कि कुछ मदद करें? उनके बताए रास्ते पर हम पैदल चल पड़े. दाईं ओर जाने वाली सड़क हमें नहीं दिखी. इसलिए हम सीधा आगे बढ़ते रहे. तभी सारा दृश्य एकदम खुला सा हो गया. सीधे चलो तो आप शाही बगीचों में पहुंच जाएँ. यहाँ सड़क किनारे एक जलाशय जैसा था. उसे पार कर अगले चौराहे तक चले गए. रास्ते में चीड़ जैसे पेड़ों की बंकिमता मनमोहक थी. इस बेहद चौड़ी सड़क को पार कर लिया तो वहाँ ट्रैफिक अपनी गति से चले जा रहा था. कोई टैक्सी नहीं. हम भी गूगल मैप की पूंछ पकड़ कर चलते रहे. आगे शाही बागों में जाने का गेट आ गया. लेकिन हम अपने फुटपाथ पर चलते रहे. धीमी-धीमी बारिश भी साथ चल रही थी. उससे सुमनिका की पेंट के पौंचे और जूते बिल्कुल भीग गए. पर बीच मझधार में रुकना भी मुनासिब नहीं था. आगे पंद्रह मिनट और चल कर आखिर हमें म्यूजियम की इमारत दिख गई.

चित्र अनूप सेठी के सौजन्य से

हम टिकट लेकर म्यूजियम की गैलरी में घुस गए. यह प्रदर्शनी भी तीन मंजिलों में फैली थी. इसमें रेशम पर जापानी चित्रकारी, तैल रंग, फोटोग्राफी, सबका मिश्रण था. यह भी एक तरह से जापानी चित्रकला का संपूर्ण इतिहास का जायजा लेने वाली प्रदर्शनी थी. यह चित्र उन्नीसवीं सदी से लेकर समकालीन समय तक के थे. वहाँ हमें एक चित्र दिखा जो रामायण के आधार पर बनाया गया था. यह कसोगी हुआन द्वारा 1928 में बनाया गया था. लगभग चार बाई ढाई फुट लंबे चौड़े चित्र के बीच में लाल परिधान में सीता जी खड़ी हैं. बगल में पेड़ पर श्वेत रंग में वानर रूप हनुमान उन्हें बता रहे हैं कि जल्दी ही राजकुमार राम आपको छुड़ा लेंगे. सीता का एक हाथ गाल पर है, दूसरे हाथ से सफेद रंग का फूल यह खबर सुनते ही छूट गया है. वह फूल हवा में लटक रहा है. एक स्त्री सीता के बगल में फूल लिए खड़ी है. दूसरी फूल छाती से लगाए घुटनों के बल बैठी है. इन्होंने साड़ी, चोली और चूनर जैसे परिधान पहने हैं. सीता का चूनर एकदम पारदर्शी है. कपड़ों पर मछली, मोरपंख, सितारों जैसे अभिप्राय बने हैं. चेहरे और केश विन्यास पर जापानी प्रभाव दिखाई देता है.

हर एक मंजिल पर कुर्सियाँ रखी गई थीं. मैं बीच-बीच में जरा देर आराम भी करता रहा. ठंड और बारिश में चित्र वीथियों का आनंद लेने के बाद चाय कॉफी की तलब हो रही थी पर म्यूजियम का कैफे बंद हो गया था. म्यूजियम की दुकान से चित्रों के कुछ प्रिंट लिए. कैफे ढूंढ़ने के बजाय टैक्सी ही ढूंढी और होटल का रुख किया.

इमारत से निकलने से पहले जब हम कैफे ढूंढ़ रहे थे तो पहली मंजिल पर एक कमरे में घुसे. वह एक लॉन्ज थी, जहाँ कुछ वर्क स्टेशन बने थे. यानी आप काम करना चाहें तो कर सकते हैं. उस कमरे की खिड़की बहुत बड़ी थी – एक दीवार से दूसरी दीवार तक फैली हुई. बाहर जादुई दृश्य था.

स्लेटी धुंधलापन
उसके बीच पेड़ों का मद्धम गाढ़ा हरा रंग
सड़क का गाढ़ा स्लेटी रंग
एक तरफ हरियाली का साम्राज्य
उसके पहले विशाल पत्थरों की प्राचीर
बीच में पानी की शांत जल राशि
हरियाली के बरक्स
ऊंची खड़ी इमारतें
नील हरित स्लेटी शीशों की दीवारों वाली
धुंध में लिपटा हुआ यह सारा दृश्य
किसी स्वप्न की तरह
हमारे सामने विद्यमान था
हम अभी घंटा भर पहले
इसी धुंध और बारिश और ठंड के बीच
अपने पैरों चल कर आए थे
तब हम भी इस दृश्य का हिस्सा रहे होंगे
अब हम पारदर्शी दीवार के इस पार से
उस सारे दृश्य को देख रहे हैं
दर्शक की तरह.

अगले दिन हम सातों इंपिरियल गार्डन्स यानी शाही बगीचे देखने इसी इलाके में आए. कल सुमनिका एक चित्र का बड़े आकार का प्रिंट खरीदना चाहती थी. मैंने लेने नहीं दिया था. मुझे एक तो वह ज्यादा प्रभावशाली नहीं लगा, दूसरे उसे ले जाना आसान नहीं था. उसके मन में यह बात अटकी रही. क्योटो में भी मैंने एक कलाकृति उसे लेने नहीं दी थी. इसलिए आज मैंने कहा-

‘‘मैं, तुम नहीं ’’
मैं तुम की इस खींचतान के बीच यदु ने कहा-
‘‘चलो हम भी चलते हैं.’’
न नुकर किए बिना हम सब उसी रास्ते से म्यूजियम पहुंचे. आज फिर दिल खोल कर प्रिंट और पुस्तकें खरीदी गईं.

लॉन में बैठ कर हमने कॉफी पी. उसके बाद शाही बगीचों की तरफ बढ़ गए, जहाँ करीब दो घंटे बिताए. इस तरह से टहलने का अलग ही मजा है. हरियाली, खुली जगह, पक्षी, पेड़ और कम भीड़. फिर कुछ खाने की जगह ढूंढ़ने लगे. गूगल मैप ने खूब छकाया. पर उन सड़कों पर चलने में आनंद बहुत आया. पेड़ों से सजे आखिर उसी परिसर के एक कैफे में आए, जहाँ हम कल मित्सुबिशी आर्ट म्यूजियम में प्रदर्शनी देखने आए थे. यह जगह बहुत ठहरी हुई सी थी. बाजार के बीच होते हुए भी बाजार की आपाधापी और जल्दबाजी से बेखबर. कलाओं के ठिकाने शायद ऐसे ही होते हैं. जैसे केतली में चाय को ब्रयू होने के लिए रख दिया जाता है. थोड़ा ठहर कर, चैन से और वह भी घूंट-घूंट पीने में ही खुशबू आती है. कलाकृतियों के साथ भी शायद ऐसा ही होता है. आपने एक बार देखा; दुबारा देखा. फिर वहाँ से हट गए. कुछ नहीं करते हुए रुक गए या टहलते रहे. तो कलाकृति धीरे-धीरे संवाद करने लगती है. खुलने लगती है. आप आनंद मग्न होने लगते हैं.

जापान के इस दौरे के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. हम गए और लौट आए. और बहुत दिन तक वह देखा हुआ, अनुभव किया हुआ मन में उभरता रहा. अपनी छवियाँ और छटाएँ खोलना रहा. यह भी लगता रहा कि यह एक सपना था. दूसरे क्षण एहसास हो जाता कि यह यथार्थ था. आंख-मिचौली का यह रोमांस कई दिन तक चला. इस यात्रा को लिखने के दौरान भी तो स्वप्न और यथार्थ की वह फिल्म रिवाइंड फॉरवर्ड हो रही है.

‘‘आप लोग आगे बढ़ो मैं वह प्रिंट लेकर आपको मिलता हूं.’’
‘‘तुम नहीं मैं ’’

जापान को जो थोड़ा बहुत देखा, उसके आधार पर ही कुछ धारणाएँ बनीं. सच्चाई इससे अलग हो सकती है. पर यह मेरी सच्चाई तो है. जैसे यह कि जापान के लोग बहुत विनम्र हैं.अनुशासनबद्ध हैं. एक अमीर देश के नागरिक जैसे ही दिखते हैं – सभ्य, शांत, स्वच्छ, सजे-संवरे, काम करने को तत्पर, काम करने में तल्लीन. काम करते रहने का तनाव भी शायद उन्हें रहता है. पता नहीं क्यों लगता है कि उनका व्यवहार कन्डीशन किया हुआ है या घड़ा गया है बोन्साई पेड़ों की तरह. अपने यहाँ तुलना करने पर यह ज्यादा महसूस हुआ क्योंकि अपना जनमानस कुछ ज्यादा ही स्वच्छंद और मनमौजी है. घरों में लोग कैसे रहते हैं यह देखने का मौका नहीं मिला.

जिस भी रेस्टोरेंट में जाओ, खाना खाने के लिए चॉपस्टिक दी जाती हैं. मांगने पर चम्मच कांटा दे देते हैं. चॉपस्टिक से खाना खाना सीखना पड़ता है. फिर भी ऐसा लगता है कि उनसे खाना धीमी गति से खाया जाता है और कम मात्रा में खाया जाता है. यह कहा भी जाता है कि जापानी कम खाना खाते हैं. जैसे हमारे यहाँ आयुर्वेद में कहा जाता है कि पूरा पेट मत भरो. जापानी लोग 80% पेट भरते हैं. यह उनकी सेहत का रहस्य भी है. पता नहीं इस बात में सच्चाई कितनी है.

लोकल ट्रेनों में भी प्राय: लोग ‘बीबा बच्चा’ बन कर बैठे रहते हैं. हमारी ट्रेनों की तरह न भीड़ न शोर न गंदगी. लोग धीमे बोलते हैं या अपने में या मोबाइल में खोए रहते हैं. एक आध बार हम लोग अपनी सहज आवाज में बात करने लगे तो लोग सिर उठाकर हमें देखने लगे, जैसे हम कुछ गलत कर रहे हों. एक वाकया यदु ने याद दिलाया. टोक्यो के एक लोकल स्टेशन से दूसरी लाइन की ट्रेन पकड़ने के लिए हम जल्दी-जल्दी चले जा रहे थे. लिफ्ट के सामने रुके. एक और स्थानीय उम्र दराज सज्जन भी वहाँ थे. लिफ्ट के आने पर उन्होंने हमें टोका कि पहले वरिष्ठ लोगों को जाने दो. मुझे और सुमनिका को लिफ्ट में पहले भेजा, फिर खुद अंदर आए और फिर बाकी लोगों को अंदर बुलाया.

 

७)

जापान में टॉयलेट गजब के होते हैं. होटलों के बारे में तो हम सोच सकते हैं कि शौचालय और कमोड में सफाई के लिए पानी की व्यवस्था है. यूरोप, अमेरिका और दूसरे देशों के शौचालयों में पानी की जगह टॉयलेट पेपर का प्रयोग होता है. पानी का प्रावधान ही नहीं है. उनके सिस्टम में ही नहीं है. हम भारतीयों को इसकी आदत नहीं है. जापान इस मामले में चार कदम आगे है. केवल ठंडा पानी नहीं, गर्म पानी. उसमें भी दो-तीन तरह के जैट से पानी निकलता है. इस यात्रा पर जाने से पहले हमने एक जापानी फिल्म देखी थी – ‘परफेक्ट डेज’. उसका नायक टॉयलेट साफ करने की नौकरी पर है. उसके पास एक वैन है, जिसमें जा-जाकर वह टोक्यो शहर के टॉयलेट्स की सफाई करता है. अपने काम से बहुत संतुष्ट है. सार्वजनिक शौचालय इतने सुंदर, साफ और तरह-तरह के वास्तुशिल्प के नमूने हो सकते हैं, यह अकल्पनीय था. जब हमने वास्तव में सार्वजनिक टॉयलेट्स का इस्तेमाल किया तो यह फिल्म सही निकली. सफाई और गर्म पानी की व्यवस्था हर कहीं थी. छोटी दुकानों में जहाँ जगह की कमी थी वहाँ जरूर निराशा हुई, पर प्राय: दिल खुश होता रहा. मैं सोचता था कि भारत जगत गुरु बनना चाहता है. कुछ लोग मानते हैं कि वह पहले से ही है. अगर ऐसा है तो वह सारे संसार को शौचालयों में पानी का प्रयोग करना सिखा दे. सब लोग ‘धोई-धोई’ के लिए जैट का इस्तेमाल करें. पर जापान तो इस मामले में हमारा भी गुरु निकला.

वहाँ की ट्रेनें, टैक्सिया, गाड़ियाँ, सड़कें, स्टेशन, चकाचक दिखते हैं. मौसम ठंडा होने की वजह से हमारे यहाँ की तरह धूल नहीं उड़ती. लोग सार्वजनिक जगहों यानी सड़कों और रास्तों पर कचरा नहीं फेंकते. यूं तो गरीब कहाँ नहीं होते, पर हमें नहीं दिखे. हम रहे भी तो शहरों में ही, वह भी सिर्फ बारह दिन. कितना जान पाएँगे. हाँ , जब शिंजुकू में ‘यादों की गली’ में खाना खाने जा रहे थे, तो रास्ते के किनारे एक बूढ़ा बैठा था. लगा भिखारी है. थोड़ा सामान भी उसके आसपास था. हालांकि कान में बड़े-बड़े एयरपॉड लगाए हुए था. यदु ने कहा, ‘‘हो सकता है यह बेघर हो.’’

यह तो हो नहीं सकता कि क्योटो और टोक्यो जैसे शहरों के लोग अपने घरों में खाना न बनाते हों. पर वहाँ जितनी तादाद में कन्वीनियंस स्टोर थे, उससे लगता है कि यहाँ पैक किया हुआ चलताऊ खाना बहुत लोग खाते होंगे. क्योटो के जिस इलाके में हम रह रहे थे, वहाँ बड़ी मुश्किल से एक दुकान दिखी थी, जिसमें कुछ फल और सब्जियाँ रखी हुई थीं. वहाँ फुटबॉल के आकार का एक शलगम था, दो किलो से ऊपर का रहा होगा. टोक्यो में होटल के पास हम एक स्टोर में कुछ खरीदारी करने गए. उसके पास ही एक और स्टोर था. वहाँ मुझे सब्जियाँ और फल दिखे. हृष्ट-पुष्ट, सुंदर और सजे हुए. गोभी, गाजर, भीमकाय शलगम, शिमला मिर्च, सेब, संतरे, केले वगैरह. यह सब देखकर बड़ी खुशी हुई. वहाँ ब्रेड मक्खन वगैरह भी था. वह हमारी वहाँ आखिरी शाम थी, वरना मैं सोचने लगा कि यहाँ से ब्रेड टमाटर खरीद कर हम आराम से नाश्ता करते रह सकते थे.

टोक्यो से विदा लेते समय होटल की रिसेप्शन पर खड़ी लड़कियों को सुमनिका ने उसी तरह जापानी में धन्यवाद किया जिस तरह क्योटो से चलते समय किया था.

आपकी अद्भुत मेहमान नवाजी के लिए धन्यवाद.

सुबाराशि ओमोतेनाशी ओ अरिगातो गोज़ाइमस.

 


अनूप सेठी
 (10 जून, 1958) के 
दो कविता संग्रह ‘चौबारे पर एकालाप’ और  ‘जगत में मेला’, अनुवाद की पुस्तक ‘नोम चॉम्स्की सत्ता के सामने’ दो मूल और एक अनूदित नाटक प्रकाशित हैं.
कुछ रचनाओं के मराठी और पंजाबी में अनुवाद भी हुए हैं. मुंबई में रहते हैं.


anupsethi@gmail.com 
Tags: अनूप सेठी जापान की यात्राअरिगातो गोज़ाइमस’
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Comments 1

  1. विजय शर्मा says:
    5 hours ago

    नोबेल पुरस्कार विजेताओं पर काम करते हुए जापान पर खूब पढ़ा, नक्शे पर अंगुलियाँ घुमाई। पर जैसा अनूप सेठी ने घुमाया वैसा जीवंत कभी न लगा। यह यात्रा संस्मरण की सीमा पार कर ललित निबंध में प्रवेश करता है। जापानियों और भारतीयों के मानस को दिखाता रोचक गद्य। सरल, सरस, सुंदर लेख हेतु अनूप सेठी , प्रस्तुति हेतु समालोचन, अरुण देव को बधाई!

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