वैज्ञानिक चेतना की आवश्यकता पीयूष त्रिपाठी |
वर्तमान दौर अजीब विडंबनाओं का दौर है. एक तरफ मानव जीवन को बेहतर और आरामदायक बनाने के लिए वैज्ञानिक शोध तथा आविष्कार किए जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ इन्हीं वैज्ञानिक आविष्कारों के माध्यम से विज्ञान के बारे में भ्रांति फैलाकर उसे तुच्छ बताने का जतन भी किया जा रहा है. इस दौर में एक छोर पर असीमित मानवीय रचनाशीलता तथा दूसरे छोर पर तर्कहीन दुराग्रह अस्तित्व में हैं.
इस विडंबना का एक सरल उदाहरण इंटरनेट पर ज्योतिष से संबंधित बढ़ती जिज्ञासाओं से समझा जा सकता है. शरीर रचना विज्ञान में इतने शोध के बावजूद नस्लीय, धार्मिक तथा जातिगत श्रेष्ठताक्रम न केवल अपना अस्तित्व बनाने हुए है, बल्कि यह दिनों दिन और मजबूत होता जा रहा है. वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद वैज्ञानिक मनोवृत्ति के अनुरूप आचरण नहीं करना इसी विडंबना का विस्तार है.
वैज्ञानिक मनोवृत्ति संदेहवादी होती है. वैज्ञानिक मनोवृत्ति से संपन्न व्यक्ति किसी भी ज्ञान को प्रदत्त अथवा पवित्र नहीं मानता. वह अपने आचरण में संदेहवादी होता है. संदेह के निराकरण के क्रम में ही नवीन ज्ञान का सृजन होता है तथा प्रचलित ज्ञान की समीक्षा होती है. संदेहवादी मान्यता के अनुसार ज्ञान का उद्घाटन नहीं होता बल्कि ज्ञान का क्रमिक विकास होता है.
वाद, प्रतिवाद, संवाद, संशोधन तथा परिष्कार से ही ज्ञान की गति संचालित होती है. वैज्ञानिक मनोवृत्ति को मानने वाला व्यक्ति मानववादी होता है. मानववादी मान्यता के अनुसार मनुष्य ही अपने प्रारब्ध का निर्माता है. किसी भी दैवीय सत्ता द्वारा उसकी नियति का निर्माण नहीं किया जा सकता.
वैज्ञानिक मनोवृत्ति से संचालित व्यक्ति अंतर-राष्ट्रवादी होता है. उनके अनुसार धार्मिक और सांस्कृतिक पहचानो के आधार पर विभिन्न राष्ट्रीयता तथा राज्य का निर्माण किया जाना कृत्रिम है. विभिन्न नृजातीय समूहों में रंग रूप का अंतर किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र में हजारों साल से बसे होने के कारण जैविक अनुकूलन का परिणाम है. एक वैज्ञानिक के नजरिए से अमीर और गरीब, अफ्रीकी और यूरोपीय, स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है. वह इन सबको किसी विशिष्ट प्राणी के रूप में न समझ कर सामान्य जैविक संरचना के रूप में समझने का प्रयास करता है.
मनुष्य के बारे में यह तो नहीं कहा जा सकता कि वह प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, परन्तु इतना जरूर कहा जा सकता है की वह प्रकृति में अपना विशिष्ट स्थान रखता है. वह केवल भावना से संचालित जीव भर नहीं है, वह एक तर्कशील प्राणी भी है. भावना ने उसे मानव समुदाय के रूप में विकसित होने का अवसर दिया तो जिज्ञासा के गुण ने प्रकृति के रहस्यों को जानने के बारे में विवश किया. दिन और रात कैसे होते हैं, जीवन और मृत्यु क्या है, बाढ़ और सूखा की घटनाएँ क्यों होती हैं? क्या ये सभी घटनाएँ किसी सर्वशक्तिमान दैवीय सत्ता द्वारा नियंत्रित होती हैं अथवा इनकी कोई तार्किक व्याख्या की जा सकती है? इन सवालों के जवाब दैवीय सत्ता में खोजने वालों ने धर्म नामक संस्था की स्थापना की, तो दूसरी ओर इन घटनाओं की व्याख्या करने के क्रम में कार्य-कारण संबंधों की खोज ने विज्ञान का मार्ग प्रशस्त किया.
मानव जाति के इतिहास में आस्था और तर्क का हमेशा से सह अस्तित्व रहा है; परंतु आधुनिक काल में तर्क ने आस्था पर वरीयता प्राप्त कर ली. आधुनिकता का संबंध अनुभववाद तथा तर्क बुद्धिवाद तथा वैज्ञानिक पद्धति से जोड़ा गया. आधुनिकता के आगमन के साथ किसी भी विषय में प्रचलित विचार अथवा संस्था के औचित्य पर प्रश्न उठाए गए तथा किसी भी दावे को मान्यता देने से पहले उसे अनुभव व तर्क की कसौटी पर कसा गया. धर्म, राज्य, परिवार तथा समाज जैसी कोई भी संस्था इस मामले में अपवाद नहीं थी. यही कारण है कि आधुनिक समय में धर्म नाम की संस्था को स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए उसे विज्ञान सम्मत सिद्ध करने की होड़ लगी है, जबकि इससे पहले वैज्ञानिकों को अपनी मान्यताओं के अनुमोदन हेतु धर्मसत्ता का अनुमोदन लेना पड़ता था.
इसी बहस में एक सार्थक हस्तक्षेप करती गौहर रज़ा की पुस्तक ‘मिथकों से विज्ञान तक: ब्रह्मांड के विकास के बदलती कहानी’ धर्म तथा विज्ञान के मध्य मूलभूत प्रश्नों के मध्य अंतर बताती है तथा वैज्ञानिक मनोवृत्ति को समझने के बारे में एक नया परिप्रेक्ष्य देती है. यह पुस्तक ब्रह्मांड की उत्पत्ति तथा मानव उद्विकास की कहानी को सरल भाषा में समझाने का प्रयास करती है. पुस्तक में इस बात पर चर्चा की गई है कि कैसे मिथकों ने संगठित धर्मों का रूप लिया और वैज्ञानिकों ने कार्य-कारण संबंधों की खोज करके इस ग्रह को मनुष्यों के रहने लायक बनाया.
प्रसिद्ध इतिहासकार युआल नोवा हरारी का मानना है कि मानव जाति के इतिहास में किस्सों की एक महत्वपूर्ण भूमिका है. भाषा के आविष्कार के साथ ही मनुष्य ने अपनी बातों, भावनाओं, कल्पनाओं तथा योजनाओं को दूसरों तक प्रसारित करना आरंभ कर दिया. भाषा के द्वारा ही मिथकों का निर्माण संभव हुआ. धर्म, राष्ट्र, जाति तथा अन्य मिथकों से तादात्म्य स्थापित करने से के कारण अलग-अलग अस्मिताओं तथा सामाजिक समूहों की पहचान स्थापित हुई. अब किसी समूह के साथ जुड़ने का मतलब था उस साझा मिथक के बारे में जान लेना. धर्म का मिथक भी कुछ ऐसा ही है.
पुस्तक की भूमिका पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लिखी है. अपनी भूमिका में अग्रवाल लिखते हैं कि
“एक तरफ प्रौद्योगिकी का ऐसा विस्तार, दूसरी तरफ आहत भावनाओं के नाम पर वैज्ञानिक सोच का जबर्दस्त नकार-यह हमारे समय की विकट विडंबनाओं में से एक है.”
पुस्तक पर चर्चा करने से पहले विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मध्य अंतर समझ लेना आवश्यक होगा. किसी विषय का व्यवस्थित अध्ययन तथा कार्यकारण संबंधों की खोज विज्ञान है जबकि विज्ञान के अनुप्रयोगों के आधार पर कोई आविष्कार करना प्रौद्योगिकी कहलाता है. परीक्षाओं में जिस आमतौर पर ‘विज्ञान: वरदान या अभिशाप’ विषय पर निबंध लिखने को दिया जाता है, वह वास्तव में प्रौद्योगिकी के रचनात्मक तथा विध्वंसात्मक पहलुओं के मध्य बहस है.
ज्यादातर रूढ़िवादी लोग अपनी बातों को प्रमाणित बताने के लिए विज्ञान शब्द का उपयोग सुविधानुसार करते हैं. रूढ़िवादी कभी यह कहते हुए पाए जाते हैं कि उनकी मान्यताएँ सर्वाधिक विज्ञान-सम्मत हैं तो कभी वे विज्ञान को नकारते हुए उसकी सीमाएँ याद दिलाने लगते हैं. रज़ा ने इस सम्बन्ध में एक रोचक विरोधाभास का जिक्र किया है. उनका कहना है कि आमतौर पर विज्ञान को कोसने वाले प्रौद्योगिकी के प्रेमी होते हैं. वे अपनी बात प्रसारित करने के लिए विज्ञान की नींव पर खड़ी प्रौद्योगिकी का सहारा लेते हैं. वे लाउडस्पीकर, टी वी, इंटरनेट, कार तथा मोबाइल फोन जैसे प्रौद्योगिकी जनित उत्पादों का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं.
पुस्तक छह अध्यायों में विभाजित है. पुस्तक के पहले अध्याय ‘विज्ञान क्या है’ में रज़ा बताते हैं कि “इतिहास में तर्कसंगतता, अनुभववाद, भौतिकवाद, अनुभवजन्य तर्क और वैज्ञानिक सोच की जड़ें गहरी नजर आती हैं.”
उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समझने के लिए चार्वाक या लोकायत दर्शन, बौद्ध दर्शन, अरस्तू व अल-हसन-इब्र-अल-हेथम से लेकर एडम स्मिथ, थॉमस कुहन तथा कार्ल पॉपर तक के नजरिए को रखा है. दर्शन की इन समस्त धाराओं में प्रत्यक्षवाद तथा अनुभव को ज्ञान की कसौटी के रूप में स्वीकार किया गया था तथा अतीन्द्रिय अनुभवों को ज्ञान के दायरे से बाहर रखा जाता है. इसी अध्याय में रज़ा ने वैज्ञानिक कार्यप्रणाली को समझने के दौरान तीन बड़ी बाधाओं का जिक्र किया है. पहली, वैज्ञानिक कार्यप्रणाली की समझ के लिए एक खास तरीके के ज्ञान की जरूरत होती है. दूसरी, वैज्ञानिक निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए कई तरीकों का प्रयोग किया जाता है जिनकी जानकारी आम लोगों को नहीं होती. तीसरी बाधा यह है कि वैज्ञानिक जानकारी के विस्तार के साथ-साथ वैज्ञानिक कार्यशैली में बदलाव आता रहता है जिसे समझना आमलोगों के लिए आसान नहीं होता.
दूसरे अध्याय का शीर्षक है- ‘आम नागरिक की नजर में विज्ञान’. लेखक का दावा है कि आम आदमी (और ज्यादातर मामलों में धर्मपरायण व्यक्ति भी) विज्ञान तथा वैज्ञानिकों को बेहद सम्मान की नजर से देखता है. उन्होंने बताया है कि
“आम नागरिक की विचार संरचना में धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों तरह के विचार पनपते हैं. ………..अपनी दिनचर्या में वह ज्यादातर तर्कवादी होता है पर कुछ खास हालत में धार्मिक, आध्यात्मिक, यहाँ तक कि अंधविश्वासी भी हो जाता है.”
अधिकांश समय में व्यक्ति अपनी जिंदगी के निर्णय भौतिक वास्तविकता के आधार पर लेता है. वे आगे बताते हैं कि
“धर्म की राजनीति सत्ता के ऐसे ढांचे को खड़ा करने में मदद करती है जिसमें सवाल पूछने की क्षमता कम से कम रहे, तर्क वितर्क तथा बहस की गुंजाइश खत्म हो जाए और सत्ता के आगे बिना सवाल पूछे सिर झुकाने की आदत आम हो जाए”
पुस्तक का तीसरा अध्याय ‘ब्रह्मांड और सृष्टि की उत्पत्ति को समझने की कोशिशें’ है. अलग-अलग जनजातियों, सभ्यताओं तथा धर्मों ने ब्रह्मांड तथा सृष्टि की उत्पत्ति तथा रहस्यों के बारे में अपने-अपने तरीके से विचार करने का प्रयास किया है. अफ्रीकी तथा भारतीय जनजाति समूहों, मेसोपोटामिया, मिस्र, ग्रीक, रोमन तथा चीन की सभ्यताओं, अब्राहमिक धर्मों तथा हिन्दू जैन तथा बौद्ध धर्मों ने इन जटिल प्रश्नों पर शताब्दियों से विचार किया है. आरंभिक धर्मों की स्थापना प्रकृति के प्रकोप के विरुद्ध सुरक्षा उपायों के रूप में अदृश्य शक्तियों की कल्पना के रूप में हुई होगी. यही कारण है कि ज्यादातर आरंभिक धर्म प्राकृतिक शक्तियों की उपासना पर जोर देते थे. लेखक के अनुसार “जैसे-जैसे बदलते समाज की वजह से इंसान के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ, ईश्वर और देवताओं के कार्यक्षेत्र का भी विस्तार होने लगा.”
अब उनकी प्रार्थनाओं का जोर आध्यात्मिक संतुष्टि के स्थान पर जानमाल की सुरक्षा तथा भौतिक संपन्नता जैसे धन-धान्य तथा संपत्ति में बढ़ोत्तरी करना आदि था. व्यवस्थित रूप से राज्य का निर्माण होने के बाद धर्म के माध्यम से मनुष्य ने भौतिक लक्ष्यों के साथ-साथ आध्यात्मिक संतुष्टि पाने का लक्ष्य निर्धारित किया.
पुस्तक के चौथे अध्याय में ‘आधुनिक विज्ञान की नजर से ब्रह्मांड की उत्पत्ति’ की बात की गई है. इस अध्याय में लेखक ने ब्रह्मांड की उत्पत्ति के अभी तक के सबसे मान्य सिद्धांत बिग बैंग के बारे में चर्चा की है. 16 वीं शताब्दी में कॉपरनिकस ने बता दिया था कि धरती सूरज के चारों ओर घूमती है. ब्रूनो तथा गैलीलियो ने अपने प्रेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला कि पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है. न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के नियमों की खोज करके ब्रह्मांड के पूरे अस्तित्व को अलौकिक शक्ति से मुक्त कर दिया. इसके बाद सूर्य केन्द्रित ब्रह्मांड का मॉडल भी गलत सिद्ध हो गया. 20वीं सदी तक आते-आते लेमेत्रे तथा हब्बल के प्रयोगों ने यह सिद्ध किया कि ब्रह्मांड फैल रहा है और मंदाकिनियाँ एक दूसरे से दूर जा रहीं हैं. ब्रह्मांड के फैलने की गति मापकर यह अनुमान लगाया गया कि बिग बैंग की यह प्रक्रिया 13.8 बिलियन वर्ष पहले शुरू हुई होगी. इसके पूर्व आइन्स्टाइन का समीकरण E=MC² यह सिद्ध कर चुका था कि पदार्थ और ऊर्जा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. अगर पूरे ब्रह्मांड की आयु एक वर्ष मानी जाए तो मानव सभ्यता के पूरे इतिहास को समेटने के लिए केवल 16 सेकेंड ही मिलेंगे. इस तरह विज्ञान हमें ‘श्रेष्ठतम’ होने के भाव से मुक्त करता है.
पाँचवाँ अध्याय ‘बुद्धिमान मानव का सफर’ है. लेखक के अनुसार “बिग बैंग हो या फिर धरती पर जीवन के विकास तक पहुँचने की कहानी, दोनों लगभग एक जैसी हैं. प्रज़ातियों के विकास के सिद्धांत को समझने में डार्विन तथा लैमार्क के सिद्धांत के साथ पुरातत्त्व विज्ञान, आनुवंशिकी, जीवाश्म विज्ञान, भ्रूण विज्ञान तथा एवोल्यूशनरी ऐन्थ्रोपोलाजी के विद्वानों के साथ साथ भाषा विज्ञान के जानकारों ने भी अपनी भूमिका निभाई है. लैमार्क ने विभिन्न वर्गों के सभी जीवधारियों को सरलता से जटिलता के क्रम में व्यवस्थित किया. इसमें यह मूल विचार निहित था कि जीवन, खासकर सरल सूक्ष्म जीवन, निर्जीव पदार्थों के खास तरीके से संगठित होने से पैदा हुआ और फिर शक्लें बदलकर जटिल होता चल गया.
डार्विन ने ‘प्राकृतिक चयन’ के सिद्धांत के प्रतिपादन के साथ यह सुझाया कि अलग-अलग प्रजातियाँ एक सामान्य पूर्वज से विकसित हो सकती हैं. डार्विन ने अपना यह सिद्धांत तब पेश किया था जब डीएनए की खोज भी नहीं हुई थी. लेखक ने इस अध्याय में विस्तार से बुद्धिमान मानव के सफर के बारे में बताया है. मानव मस्तिष्क के न्यूरॉन्स ने सूचनाओं को संसाधित करना सीखा, बोलने की कला विकसित की और अपनी संज्ञानात्मक क्षमता का विकास करते हुए विचार विनिमय को आसान बनाया. कृषि क्रांति, निजी संपत्ति का उदय, लिपि का आविष्कार, काल गणना, परस्पर व्यापार, खगोल विज्ञान, राज्य के विकास आदि ने पूरी मनुष्य जाति को प्रकृति की अन्य जातियों की तुलना में अलग कर दिया.
छठे और अंतिम अध्याय ‘विज्ञान और धर्म के सवालों में अंतर’ में लेखक ने बताया है कि धर्म और विज्ञान ब्रह्मांड के रहस्यों को समझने के दो भिन्न तरीके हैं. विज्ञान के प्रश्न ‘क्या है’ खोजने का प्रयास करते हैं, वहीं धर्म से जुड़े सवाल ‘क्यों है’ पर जोर देते है. उदाहरण के लिए ‘जीवन क्या है?’ का प्रश्न विज्ञान से जुड़ा सवाल है. वहीं ‘जीवन क्यों है? इसका उद्देश्य क्या है?’ आदि प्रश्न धर्म के दायरे में आते हैं. जहां धर्म ब्रह्मांड के प्रत्येक रहस्य के बारे में अंतिम सत्य जानने का दावा करता है; वहीं विज्ञान इन रहस्यों की व्याख्या अपनी सीमाओं के अंतर्गत करने का प्रयास करता है. वैज्ञानिक अभी तक जिन रहस्यों की खोज नहीं कर पाए हैं, उन्हें अपनी सीमाओं के रूप में स्वीकार करते हैं. यह विज्ञान तथा वैज्ञानिकों की विनम्रता है जो उन्हें भविष्य में और अधिक अनुसंधान करने के प्रोत्साहित करती है.
एक वैज्ञानिक किसी भी घटना की व्याख्या कार्य कारण नियमों के आधार पर करने का प्रयास करता है; जबकि, धार्मिक व्यक्ति पवित्र किताबों के अपरिवर्तनीय आदेशों का पालन करता है. वैज्ञानिक विधि विद्यमान ज्ञान के अनवरत खंडन व परिष्कार के साथ नए ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया है. विज्ञान के संदर्भ में प्रक्रिया का भी उतना ही महत्त्व है जितना निष्कर्षों का.
यही कारण है कि नई प्रक्रिया के द्वारा प्राप्त निष्कर्ष पुराने ज्ञान को पुष्ट करने, संशोधित करने अथवा खारिज करने का दावा करते है. वैज्ञानिक प्रक्रिया संदेह की प्रक्रिया होती है; जबकि, धर्म विश्वास पर आधारित होता है. विज्ञान के दायरे के अंतर्गत नए तथ्यों और तर्कों के आलोक में परीक्षण और निष्कर्ष बदलते रहते हैं; जबकि, धार्मिक ग्रंथों का स्वरूप शताब्दियों तक अपरिवर्तित रहता है.
गौहर रज़ा की यह किताब विज्ञान के इतिहास को सामाजिक संदर्भों में समझाने का प्रयास करती है. यह वैज्ञानिक मनोवृत्ति का अभ्यास करने के लिए भी एक संदर्भ ग्रंथ का काम कर सकती है. यह पुस्तक मानव की तर्कशीलता से उपजे विज्ञानवाद तथा संवेदनात्मक पहलू के परिणामस्वरूप उपजे धार्मिक सवालों में अंतर करना बताती है.
गौहर रज़ा के अनुसार ब्रह्मांड में महत्वहीन ग्रह होने के बावजूद धरती ख़ास है
“क्योंकि इस पर इंसान बसते हैं. इंसान जो सवाल पूछते हैं, जो जवाब तलाश करते हैं, जो जवाबों और सवालों के ताने-बाने से बदलाव बुनते हैं. जो ब्रह्मांड के नियमों को पहचान कर उन्नति के उस रास्ते पर चलना सीख गए जो कोई और जीव नहीं सीख सकता”
“लेकिन विज्ञान के सफ़र को जारी रखने के लिए ज़रूरी है सामाजिक अमन, चैन, आपसी मुहब्बत और भाईचारा. हिंसा, नफ़रत और युद्ध विज्ञान के रास्ते की सबसे बड़ी बाधाएँ हैं. वैज्ञानिकों को कोई भी समाज जो सबसे बड़ा तोहफ़ा दे सकता है, वह है डर से निजात और सुकून. डर से निजात इसलिए, कि वो बेबाक सवाल पूछ सकें और सुकून इसलिए, कि वो इन बेबाक सवालों के जवाब तलाश कर सकें.”
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पुस्तक पेंगुइन रैंडम हाउस द्वारा 2024 में प्रकाशित है. पुस्तक 208 पृष्ठों की है. पुस्तक का मुद्रित मूल्य 299 रुपए है. इसे यहाँ से प्राप्त किया जा सकता है.
पीयूष त्रिपाठी |
अति महत्वपूर्ण सामयिक हस्तक्षेप। आज के भारत मैं हर किसी को पढ़नी चाहिए।विज्ञान आधारित नैतिकता और धर्म आधारित नैतिकता के अंतर पर अलग से विचार वांछनीय है .
यह किताब इस विषय पर हिंदी में एक अभाव को काफी हद तक पूरा करती है। स्वागतेय।