प्रवास में कविता क्रान्ति बोध |
रमेश ऋषिकल्प का चौथा कविता संग्रह ‘यात्रा में लैंपपोस्ट विश्व के विभिन्न देशों के प्रवास और यात्रा के दौरान जहाँ भी संवेदनाओं से कवि प्रभावित हुआ या जहाँ भावावेग कविता की भूमि तक पहुंच सका है, उन क्षणों का दस्तावेज है. यहाँ देश या शहर महत्वपूर्ण नहीं है, वह कविता के अंत में ‘ताकि सनद रहे’ की तर्ज़ पर दर्ज है. कवि ने संग्रह के प्रारंभ में ही अपनी बात स्पष्ट की है कि
‘कविता का वही देश होता है जहाँ वह कवि के मन में फूटती है और वही समय होता है जिस समय बोध को वह अभिव्यक्ति देती है.’
इस तरह कविता का देश कवि मानस पर आश्रित है तो काल पाठक के मानस पर. हालांकि संग्रह की कविताओं को पढ़ते समय यदि उस देश या शहर का संदर्भ बाधा नहीं बनता और कविता संप्रेषित होती है, तो कविता को खोलने में भी खास मदद देता नहीं लगता. बस महसूस होता है तो कवि का वह कृतज्ञ भाव जो संभवतः कवि स्थल विशेष के प्रति प्रकट करना चाहता होगा, जैसे वह कविता के जरिए उस जगह से जुड़े रहना चाहता है.
लेकिन यह तय है कि संग्रह की कविताएँ अलग स्वाद और गहनता के साथ दरपेश हैं. यात्रा का उत्साह, प्रवास की टीस, वैश्विक मनुष्य की संभाव्यता और उसकी भावुक तार्किकता यहाँ दिखती है. लगभग 78 कविताओं के माध्यम से कवि अपने व्यतीत और वर्तमान में अलग-अलग स्थानों, स्थितियों और घटनाओं के बीच स्वयं को देखने का अवसर निकालता है. और ये उपलब्ध अवसर ही उसके लैंप पोस्ट हैं जिनके साथ वह आसपास के प्रति अपने संबंधों के लिए सजग हो सका है.
समय में यात्रा करती ये कविताएँ सुदीर्घ काल यात्रा में अर्थवत्ता की तलाश की कविताएँ हैं. प्रवास में अपनी जमीन से उखड़ा व्यक्ति जैसे अपने लिए जिजीविषा के आश्रय खोजता है, चाहे भावनात्मक या तार्किक, वह यहाँ भी है. एक बेचैनी, एक प्रश्नाकुलता, एक संभावित वजह की उत्कटता सभी कविताओं में दिखती है. कवि जैसे संस्कृति के सागर में पैठकर मशीनी जीवन से इतर आत्मीयता की स्थिति में स्वप्नों के संग्रहालय के बीच बैठा हुआ है जहाँ से वह अपनी देखी पूरी दुनिया को समाहित कर अपना रचनात्मक योगदान देना चाहता है. इस रचनात्मक प्रक्रिया में वह यात्रा की गति और लगाव की स्थिति दोनों को तर्क की चिमटी से पकड़ता है. इसी माध्यम से वह हर जगह से प्रभावित है और उस प्रभाव का तर्क है. यही उसकी यात्रा का हासिल है. यह एक ऐसी विशेषता है जो उसे विशिष्ट और संभावनाशील बनाती है. उसके भावुक निष्कर्ष उसे दार्शनिक भी बनाते हैं और सृजनशील भी. स्थान, परिवेश और प्राकृतिक साहचर्य के साथ स्वयं को एकमेक कर लेना एवं अनुभूतियों के स्तर पर उसमें शामिल होने और उसका हिस्सा बनने की एक आंतरिक लय संग्रह में दिखाई देती है. जिसे ‘सिंधु नदी के तट पर’ कविता में वे कहते हैं कि
हर पल बदल रही है सिंधु
जैसे
बदल रहा है मानव मन
जो समय और सभ्यताओं के बीच खड़ा है
न जाने कितनी बार
अपनी नियति को जानने के लिए प्रकृति से लड़ा है.
यहाँ नदी के माध्यम से कवि उस अविरल इतिहास से, जहाँ सभ्यताओं ने अपने शुरुआती चिह्न बनाएँ थे, स्वयं को जोड़ता है. वह जिजीविषा और जिज्ञासा की उस शाश्वत स्थिति में है जो मानव की जययात्रा का उत्स है. सिंधु जैसे कवि की वैश्विक यात्रा का प्रतिरूप है जिसमें सबकुछ सहते, देखते, जानते और बदलते हुए अविरल बहना है.
इन कविताओं में समय सबसे महत्वपूर्ण आयाम है. इसी में कवि अतीत और भविष्य के बीच वर्तमान के खास क्षण में ठहरा है और अपनी सार्थकता के लिए प्रयत्नशील है. ‘गेंट की संडे मार्केट’ में वह कहता है कि
मेरे अंदर एक सपेरा बैठा है
जो समय के सर्प को साधता है
यह कठिन से कठिन समय से उसके जुड़ाव की बात है. जिसमें वह अपना रचनात्मक हस्तक्षेप रखता है. समय के सातत्य में अपनी जगह की तलाश, एक परम्परा में अपनी भूमिका कवि की खोज है. जीवन की काकटेल, हमारे लिए समय, समय के साथ रिश्ता, एक सवाल, काल में से गुजरना, टूटा हुआ पुल, काल मुझसे पूछता है, अतीत की वर्तमानता आदि कविताएँ समय को अलग-अलग कोणों से देखते हुए उसमें बचे और बने रहने के तर्क की कविताएँ हैं, जिसमें रचनात्मकता का भी एक तर्क है.
समय मेरे अस्तित्व की सिलवटों में ही छिपा है
मेरे संपूर्ण वजूद से ही बना है.
मेरे ही अंदर रहता है समय
मैंने ही उसे जना है.
इस कविता को पढ़कर बरबस ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ कविता याद आती है. इस संग्रह का कवि अनंत काल प्रवाह में अपना जीवन, अपने जीवन में अपने वर्तमान का क्षण, उस क्षण में अपने अस्तित्व या स्वत्व की खोज और रचनात्मकता से उस स्वत्व की अमरता की कोशिश में लगा हुआ है. इसमें सभ्यता, संस्कृति, ईश्वर और प्रकृति सब उसके दायरे में हैं. संस्कृति का सागर, ईश्वर का बुत, चर्च में कन्फेशन, वो पैर, पिकासो की गैलरी देखने के बाद और ईश्वर मनुष्य की रचना है ऐसी ही कविताएँ हैं.
ईश्वर को पुकारना
खुद को ही पुकारना है.
इस खोज में उसे जहाँ जहाँ स्वयं को देखने का अवसर मिला, वही कवि की ‘यात्रा में लैंपपोस्ट’ हैं. यही संग्रह के शीर्षक की केंद्रीयता और सार्थकता है. इस रोशनी में ही वह पूरा संसार देखते हैं. प्रेम, संबंध, रिश्ते, अपनापन, पुरखे, पाना और खोना, स्कूल की रफ कापी, कंक्रीट के शहर में वसंत सब कुछ इस दायरे में हैं.
जो लोग लैंप पोस्ट बनकर आते हैं
वो रोशनी देकर
हमेशा की तरह पीछे छूट जाते हैं
यह यात्रा जहाँ अपने आप को पाने की है तो बाकी सबको छोड़ने की भी है. यह पूर्णता और इसी क्रम में पूर्णतया अकेले होते जाने की है. यह बाहर की भी है और अपने भीतर की भी. इसमें टीस और पीड़ा भी है, तो ऐश्वर्य और सामर्थ्य भी. ‘एक अनुभव डेनमार्क में’ तथा ‘अकेला होते जाना’ कविता में कवि महसूस करता है कि
अकेले होते जाना
ईश्वर होते जाना है.
और अंत में वह निगमित करता है कि ‘सत्य को पाने का समारोह है अकेलापन.’ अकेलेपन की यह स्थिति जहाँ कवि को साहचर्य की रागात्मक स्थिति की स्मृति में ले जाती हैं तो कहीं दार्शनिक औसतपन की ओर मोड़ देती हैं. प्यार अपने लिए पात्र ढूंढ़ता है, लंदन में तुम्हारे घर में, विलय होने का उत्सव है संबंध, हम वाइन के ग्लास बन गए हैं, एक स्पर्श, जब मैं किसी औरत को प्यार करता हूं, प्यार एक प्रक्रिया है, मित्र होना, घर की तलाश किसी शहर में, क्रिसमस पर तुम्हारा साथ, चलो टेम्स के किनारे बैठें संबंधों की रागात्मक भावभूमि पर स्थित हैं, ऐसी ही एक कविता ‘खिड़की से आती धूप’ में कवि ज्यादा सहज है, लगभग मुक्त. यहाँ स्वीकृति का तार्किक ताप नहीं, जरूरत की नहीं, यहाँ जीवन के खाली स्पेस को भरती गर्माहट है.
हर रोज़ सर्दियों में
मेरी खिड़की से
पीली टसर की साड़ी पहने
किसी मित्र की तरह
धूप आती है
और सोफे पर बैठ जाती है
वह जानती है
मेरे घर का हर छिपा कोना ठिकाना.
तो दूसरी ओर जहाँ शब्द कुछ भी कहते हुए शर्माते हैं, भाव की तकली से बंधा रिश्ता, जाल में जिंदगी, शून्य कुछ नहीं होता, आत्मा, बोलने से परे भी कुछ होता है आदि कविताएँ औसत दार्शनिक कथनों में तिरोहित हैं.
इनके अतिरिक्त कवि और दुनिया के बीच दुनियादारी का जो संबंध है वह भी कदाचित संग्रह में कहीं कहीं दिखता है. ऐसा लगता है कि जैसे यात्रा की आपाधापी में, काल की गति में इस ओर ध्यान तनिक कम ही गया है. खंडहर में पिकनिक, ऊंचे पद का व्यक्ति, हिन्दी बोलती जर्मन लड़कियाँ और तुम शब्द दा हो अलग कविताएँ हैं. यहाँ कवि जीवन के, उसकी व्यावहारिकता के ज्यादा करीब है. वहाँ तर्क से ज्यादा सहज अनुभूति की सांद्रता है. ‘हिन्दी बोलती जर्मन लड़कियाँ’ में पूरे यूरोप की यात्रा में हिंदी की स्वीकार्यता का हिस्सा आकर्षित करता है. हालांकि अपने ही देश में इसके बेगाने होते जाने का विरोधाभास इसकी विडंबना को गहरा करता है और सोचने को मजबूर भी. यह कविता भारत में ही हिन्दी पर चल रही बहस के लिए एक और अवसर देती है.
इसी तरह ‘खंडहर में पिकनिक’ कविता में खाए-अघाए लोगों के जीवन की नीरसता और ऊब को मिटाने के तरीके पर एक चोट है, स्वयं के प्रति ऐसे लोगों की उदासीनता की विडंबना इसे और मारक बनाती है.
संग्रह की कविताएँ निश्चित ही एक ऐसी संवेदनशील बेचैनी से उपजी हैं जहाँ शाश्वत प्रश्न हैं, जहाँ गहन आत्मावलोकन है और उसके काव्यात्मक निष्कर्ष हैं. सहमति असहमति अपनी जगह है पर एक प्रश्नाकुलता और उसके संभावित तर्क निरंतर कविता में डूबते-उतराते रहते हैं. यद्यपि कवि कविताओं की भावभूमि को लेकर बेहद सतर्क है लेकिन उनकी चिंतना का विधान विस्तृत है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण है अपनी स्थिति को अखंड काल में लोकेट करना और उसके भीतर अपने संबंधों की शिनाख्त. यात्रा इस सबके बीच एक सूत्र की तरह है, एक अनिवार्यता की तरह जिसके इर्द-गिर्द सारे प्रश्न, सारे विकल्प, सारी आकांक्षाएँ, सारे निष्कर्ष काव्यात्मक रूप से अनुस्यूत हैं.
एक ऐसी स्थिति जिसके बारे में आचार्य शुक्ल की शब्दावली में कहें तो यात्रा पर निकलती रही है बुद्धि पर हृदय को साथ लेकर. संग्रह की खास बात यह है कि कवि ने अपनी एक काव्यभाषा, एक मुहावरा पकड़ने की कोशिश की है जिससे कवि का एक खास और मुकम्मल चेहरा बनता है, यह और बात है कि यह चेहरा कुछ कोणों से निर्मल वर्मा की याद दिलाता है. फिर भी हालिया हिन्दी कविता में यह संग्रह यात्रा और प्रवास के बीच की स्थिति में विशिष्ट भाव और संवेदना के साथ प्रस्तुत होता है.
यह संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.
![]() क्रान्ति बोध एसोसिएट प्रोफेसर |
ख़ूबसूरत कविताओं की अनुप्रास अलंकार से युक्त समीक्षा । स्थिति के स्वप्नों के संग्रहालय एक उदाहरण है । सिलवटों पर लिखा । जैसे अशोक वाजपेयी ने केली के बाद रह गई सिलवटों जैसी ।
ईश्वर गुम होता है तो मैं प्रकट होना जैसी पंक्ति लिखी ।
आस्तिक यही कहते हैं ।
कविता संग्रह के ख़ूबसूरत उद्धरण लिखे हैं ।