प्रसाद की कृतियों में आजीवक प्रसंग |
जयशंकर प्रसाद की ख्याति ऐतिहासिक-सांस्कृतिक कवि, उपन्यास लेखक और नाटककार की रही है. उनके नाटक चंद्रगुप्त की गिनती हिंदी के बहुप्रतिष्ठ नाटकों में की जाती है. प्रसादजी के दूसरे प्रमुख नाटकों अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, ध्रुव-स्वामिनी आदि की तरह चंद्रगुप्त भी ऐतिहासिक नाटक है. उसके केंद्रीय पात्र चंद्रगुप्त मौर्य का उल्लेख देशी-विदेशी सभी ग्रंथों में मिलता है. भारतीय इतिहास में जितना बड़ा सैन्यबल चंद्रगुप्त का था, उतना किसी और राजा का नहीं रहा. यही नहीं भारत की सीमाओं का जितना विस्तार चंद्रगुप्त के शासनकाल में हुआ, वह भी कभी नहीं दोहराया जा सका. आज जिसे वृहत्तर भारत कहा जाता है, असल में वह चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल का सीमांकन है. ऐसे महान सम्राट के बारे में चर्चा करना स्वतः ही विराट भारत के गौरवशाली राष्ट्रीयताबोध से जुड़ जाता है.
‘चंद्रगुप्त’ नाटक के गायब पन्नों के आजीवक प्रसंग
चंद्रगुप्त मौर्य को केंद्र में रखकर पहला नाटक बांग्ला में ख्यातिनाम नाटककार द्विजेंद्रलाल राय ने 1911 में लिखा था. 1917 में वह हिंदी में अनूदित होकर भी आ चुका था. पहले संस्करण के प्रकाशकीय से पता चलता है कि द्विजेंद्रलाल राय का नाटक प्रकाशित होने से पहले ही जयशंकर प्रसाद मौर्यकालीन इतिहास और संस्कृति के विशद् अध्ययन आरंभ कर चुके थे. चंद्रगुप्त नाटक का पहला संस्करण प्रेमचंद के सरस्वती प्रेस से छपा था. उसके प्रकाशकीय से दो महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं, जिन्हें यहाँ देना प्रासंगिक होगा —
- प्रसादजी ने 1908 में चंद्रगुप्त मौर्य शीर्षक से लंबा लेख लिखा था, जिसे उपर्युक्त नाटक के प्रथम संस्करण में शामिल किया गया था. उसे भारती भंडार, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित चंद्रगुप्त के संस्करणों में देखा जा सकता है.
- 1912 में उन्होंने कल्याणी परिणय शीर्षक से रूपक लिखा था. 1929 में नाटक सरस्वती प्रेस में भेजने के बाद प्रसादजी ने उक्त रूपक को भी ‘यथाप्रसंग परिवर्तित तथा परिवर्धित कर’ चंद्रगुप्त की पांडुलिपि में शामिल कर लिया था. कह सकते हैं कि दो वर्ष के अंतराल के बाद यह नाटक 1931 में, जब पहले संस्करण के रूप में बाजार में आया, तो प्रसादजी उसके कथ्य एवं शिल्प से संतुष्ट थे.
प्रकाशन में हुए अतिरिक्त विलंब पर प्रसाद वाङ्मय के संपादक रत्नशंकर प्रसाद ने स्पष्ट किया है कि चंद्रगुप्त प्रसादजी का छठा नाटक था. इसका लेखन स्कन्दगुप्त से पहले हो चुका था, किन्तु प्रकाशन संवत् 1988 (ईस्वी 1931) में हुआ. उससे दो वर्ष पूर्व इसे प्रेस में दे दिया गया था. सरस्वती प्रेस की दशा भी कुछ ऐसी नहीं थी कि वह बड़े काम शीघ्र कर दे. दैनंदिन व्यय छोटी-छोटी छपाइयों से चलते थे इसलिए उन्हें पहले करने की बाध्यता रहती थी. चन्द्रगुप्त को अन्यत्र देना भी संभव न था क्योंकि वह मुंशी प्रेमचन्द का प्रेस था जिनसे लेखक और प्रकाशक भारती भण्डार के स्वामी रायकृष्णदास के निजी सम्बन्ध रहे… पाण्डुलिपि 1929 से दो वर्षों तक अमुद्रित पड़ी रही और 1931 के मध्य में छप सकी. लेखन में भी पर्याप्त समय लगा संभव है कुछ नए तथ्यों के उजागर होने की प्रतीक्षा रही हो.[1]
ये नए तथ्य क्या रहे होंगे? प्रथम संस्करण के प्रकाशकीय से इतना पता तो चलता है कि प्रसादजी ने नाटक में कल्याणी परिणय को परिवर्तित-परिवर्धित कर चंद्रगुप्त का हिस्सा बनाया है, किंतु अपनी सृजनात्मकता से प्रसादजी ने उसे इतना बदल दिया है कि सिवाय प्रसंग के और कोई साम्य नजर नहीं आता.
चंद्रगुप्त नाटक के पाठ
इस समय प्रसाद के नाटक चंद्रगुप्त के दो पाठ मौजूद हैं. पहला प्रसाद जन्मशती पर उनके पुत्र रत्नशंकर प्रसाद के संपादन में पाँच खंड़ों में प्रसाद न्यास के तत्वावधान में वाराणसी से प्रकाशित प्रसाद वाङ्मय के दूसरे खंड में. इस पाठ में कुल सैंतालीस दृश्य हैं.
दूसरा पाठ भारती भंडार, वाराणसी द्वारा प्रकाशित चंद्रगुप्त मौर्य्य में देखा जा सकता गया है. उसमें केवल चवालीस दृश्य हैं. कापीराइट मुक्त होने के बाद इस नाटक को अन्य प्रकाशकों ने भी छापा है. लेकिन ओमप्रकाश सिंह द्वारा सम्पादित जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, सत्यप्रकाश मिश्र द्वारा सम्पादित प्रसाद के संपूर्ण नाटक एवं एकांकी सहित बाकी सभी संस्करणों में चवालीस दृश्यों वाला पाठ ही मिलता है. वही विभिन्न शैक्षिक संस्थानों के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा रहा है.
हटाए गए तीन दृश्य वे हैं जिनमें आजीवक नामक पात्र आता है. आजीवक प्राक्वैदिक भारत की श्रमण परंपरा के उत्तराधिकारी थे तथा अपनी घोर अपरिग्रही वृत्ति एवं कठिन व्रतों के लिए जाने जाते थे. जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में उनका बार-बार उल्लेख हुआ है. नाटक में आजीवक की उपस्थिति युगीन परिदृश्य को दर्शाने के साथ-साथ हास्य के सृजन हेतु की गई है. बीच-बीच में आजीवक दर्शन भी संकेतरूप में चला आता है. प्रश्न यह उठता है कि आजीवक प्रसंग वाले तीन दृश्यों को कब, क्यों और किसने हटाया था. क्या उसके लिए नाटककार की सहमति थी? नाटक के लिए प्रसादजी की अलग से भूमिका नहीं लिखी थी, इसकी पुष्टि रत्नाकर प्रसाद ने भी की है. संभवतः 1908 में चंद्रगुप्त मौर्य शीर्षक लेख को ही उसकी भूमिका मान लिया गया था.
आजीवक दर्शन
आजीवक दर्शन भारत का प्राचीनतम भौतिकवादी दर्शन है. जैन और बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि महावीर और बुद्ध के समय, आजीवक दर्शन के कम से कम पाँच प्रमुख तीर्थंकर मौजूद थे. दीघनिकाय में बुद्ध ने उनकी खूब प्रशंसा की है. जैन ग्रंथों में उनका उल्लेख विरोधी मतावलंबी के रूप में किया गया है. दर्शन के अलावा वे गणित, ज्योतिष तथा आयुर्वेद के पंडित थे. उनके गणित संबंधी ज्ञान की पुष्टि भास्कर प्रथम द्वारा आर्यभटीय की टीका से भी होती है. गणितविदौ मस्करीपूरण कहकर उसमें आजीवक दर्शन के दो प्रमुख तीर्थंकरों, मस्करी (मक्खलि गोसाल) तथा पूरण कस्सप की प्रशंसा की गई है. भास्कर प्रथम के अनुसार भूमिति अर्थात चतुर्भुजाकार आकृतियों के क्षेत्रफल की गणना के लिए सूत्रों की खोज उन्होंने ही की थी.
चरक संहिता का लेखक अग्निवेशायन को बताया गया है. आर्थर एल. बॉशम ने अग्निवेशायन को मक्खलि गोसालक का पूर्ववर्ती आजीवक बताया है. इंडिका तथा अन्य ग्रीक स्रोतों में जिन अचेलक (नग्न) श्रमणों का उल्लेख है, उनकी विशेषताएँ आजीवकों से मेल खाती हैं. जैन ग्रंथों में ऐसे कई संदर्भ हैं जो आजीवकों के आयुर्वेद तथा ज्योतिष संबंधी ज्ञान की पुष्टि करते हैं. हैरानी की बात है कि औपनिषदिक युग का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली दर्शन होने के बावजूद संस्कृत वाङ्मय में आजीवकों का उल्लेख अपवाद-स्वरूप ही मिलता है. महाभारत में आजीवकों को वर्णसंकर तथा चोरों के समकक्ष रख उनके लिए मृत्युदंड की अनुशंसा की गई है.[2]
आजीवकों की पैठ मुख्यतः शिल्पकारों, किसानों तथा श्रमिक वर्ग के बीच थी. वायुपुराण में आजीवक दर्शन को अपने श्रम-कौशल के बल पर आजीविकोपार्जन करने वालों का धर्म-दर्शन कहा गया है.
जैनग्रंथों के अनुसार मगध का वैभवशाली सम्राट महानंद आजीवक मतावलंबी था. उसके राज्य में आजीवकों का काफी सम्मान था. उनमें यह भी आया है कि नंद के दरबार से अपमानित होकर निकलते समय चाणक्य ने आजीवक वेश का ही सहारा लिया था. इसके बावजूद उसके मन में अचेलक श्रमणों के प्रति ईर्ष्या बनी रही.
अर्थशास्त्र में आजीवक, जैन आदि भिक्षुओं को घर पर आमंत्रित कर भोज कराने वाले गृहस्थ पर 100 पण का जुर्माना लगाने का निर्देश दिया गया है. आधुनिक तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश आदि से चौथी-पाँचवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक के ऐसे अनेक अभिलेख मिले हैं जो आजीवकों पर कर लगाए जाने की पुष्टि करते हैं. बुद्ध के समय आजीवक तर्क के लिए जाने जाते थे. चातुर्मास को छोड़कर वे हमेशा चलते रहते थे. उनके भिक्षाटन संबंधी नियम अत्यंत कठोर थे. कोशल नरेश प्रसेनजित ने उनके लिए कूटागारशालाओं का निर्माण कराया था. जहाँ वे दार्शनिक विषयों पर संवाद किया करते थे.
आजीवक यज्ञ और कर्मकांडों के मुखर आलोचक थे. इस कारण ब्राह्मण ग्रंथों में उन्हें पाषंड, नास्तिक, मूर्ख आदि कहा गया है. ब्राह्मणों ने आजीवकों को लोकस्मृति से गायब करने के लिए पहले उनके दर्शन को लोकायत (लोक का दर्शन) कहा, फिर चार्वाक कहना शुरू किया. पुराणों में कहीं उसे वेन का दर्शन कहा गया, कहीं मायामोह का. कहीं बृहस्पति को उसका श्रेय दिया गया, तो कहीं इंद्र का उसका अनुगामी बताया गया.
चंद्रगुप्त और आजीवक
चंद्रगुप्त को यद्यपि जैन बताया जाता है, उसके बचपन के बारे में अधिक सूचना नहीं है. उस समय अधिकांश शिल्पकार और पेशेवर जातियाँ आजीवक दर्शन में विश्वास करती थीं, इसलिए हम उसे अशोक का पैत्रिक दर्शन कह सकते हैं. चंद्रगुप्त का पुत्र तथा अशोक का पिता बिंदुसार पुनः अपने पैत्रिक धर्म (आजीवक) में लौट जाता है. चंद्रगुप्त के जैन होने का दावा भी किया जाता है. लेकिन सिवाय इसके कि जैन दर्शन की प्रथम संगीति पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के अंतिम वर्षों में हुई थी, वे उसके जैन होने का बड़ा दावा पेश नहीं कर पाते. वैसे भी बड़े राज्य का गठन तथा उसे आजीवन संभाले रखना आसान काम नहीं था. अपनी धार्मिक-दार्शनिक अभिरुचियों को परिष्कृत कर सके, इतना समय शायद ही उसके पास रहा होगा. इतना तय है कि उसके शासनकाल में आजीवक धर्म मगध सहित उत्तर, उत्तर-पश्चिम तथा दक्षिण भारत का सबसे बड़ा धर्म था. यह स्तर अशोक के शासनकाल तक बना रहता है. अशोक आजीवक मतावलंबी भले न रहा हो, लेकिन उसकी आजीवक दर्शन से सहानुभूति थी, इसके कई प्रमाण हैं.
चूंकि चंद्रगुप्त ऐतिहासिक नाटक है, इसलिए प्रसाद जैसा नाटककार युगीन सत्य के रूप में आजीवकों का उल्लेख न करें, अथवा संबंधित अंकों को पूरी तरह हटाने की सहमति दे दें, यह किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है. यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि नाटक का प्रमुख घटनाक्रम नंद के शासनकाल का है, जब आजीवक दर्शन राज्य का धर्म था. चंद्रगुप्त की विजय के साथ ही नाटक का समापन हो जाता है. फिर तीन अंकों को कब और किसने हटाया, क्यों हटाया?
चंद्रगुप्त को अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है. तो क्या विद्यार्थियों के सभी ‘अवांछित’ तत्वों को हटाकर सभी दृष्टि से निरापद बनाने के लिए ऐसा किया गया था. अथवा यह आजादी से पहले उन दिनों किया गया, जब हिंदी-हिंदू का पुरुत्थानवादी दौर चल रहा था. अपने समय का सबसे महत्त्वपूर्ण दर्शन होने के बावजूद आजीवकों तथा उनके दर्शन को विरोधियों की निंदा का सामना करना पड़ा. सच तो यह है कि बिना आजीवक दर्शन की चुनौती से निपटे वे भारतीय जनमानस में पैठ बना ही नहीं सकते थे. ब्राह्मण ग्रंथों में उसे हमेशा ही अवांछित दर्शन माना गया है.
हम इसपर आगे भी विचार करेंगे. पहले नाटक के वे दृश्य जो पहले संस्करण (1931) में शामिल थे, जिन्हें बाद के संस्करणों में लेखक की अनुमति या बिना अनुमति के ही हटाया जा चुका है.
चंद्रगुप्त नाटक के आजीवक प्रसंग
नाटक में आजीवक श्रमण का प्रवेश प्रथम अंक के पाँचवें दृश्य से होता है. उसका परिचय ‘बड़ी-बड़ी जटाओं वाला, लंबा-सा बांस लिए चादर ओढे आजीवक’ शब्दों से दिया है. आजीवक हाथ में बांस (मस्कर) रखते थे, इसलिए पाणिनी ने उन्हें मस्करिन्[3] कहा था. जैन और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार आजीवक प्रायः अचेलक रहते थे. पाँच आजीवक शास्ताओं में से एक अजित केशकंबलि शरीर पर बालों से बुना कंबल डाले रखते थे. आजीवक प्रकृतिवादी थे.
जैन ग्रंथों में उन्हें नियतिवादी कहा गया है. (आजीवक किसी भी किस्म की परासत्ता के अस्तित्व से इन्कार करते थे, उनके संदर्भ में सही शब्द नियतवाद या नियतवादी है). नाटक का एक पात्र सार्थवाह धनदत्त भी नियतवादी है. सहसा लंबा-सा बांस लिए, चादर ओढ़े एक आजीवक श्रमण उसके सम्मुख आकर जोर से छींक देता है. धनदत्त घबरा जाता है. आजीवक हँसने लगता है –
धनदत्त : (सक्रोध) तुम हँस रहे हो!
आजीवक : तो क्या रोऊं?
धनदत्त : अरे नहीं- नहीं तुमने छींक तो दिया ही अब यात्रा के समय रोने भी लगोगे.
आजीवक : फिर क्या होगा?
धनदत्त : कहीं राह में कुंवे सूख जाएँ, घोड़े-बैल मर जाएँ, डाकू घेर लें. आंधी चलने लगे. पानी बरसने लगे. रात को प्रेतों का आक्रमण हो, गाड़ियाँ उलट जाएँ?’
आजीवक : फिर
धनदत्त : ‘तुम्हारा सिर! मैं जा रहा हूँ. इतनी दूर, शकुन देखकर घर से निकला था. तुम पूरे व्यतिपात की तरह मेरी यात्रा में व्याघात बन रहे हो.’[4]
जैन ग्रंथों के अनुसार आजीवक शकुन-विचार द्वारा आजीविका चलाते थे. इससे पता चलता है कि प्रसादजी ने आजीवकों के बारे में अध्ययन किया था तथा उनके बारे में जो सामान्य बातें प्रचलित थीं, उनका अपने नाटक में ध्यान रखा था. शकुन विचारकर निकलना, निरा तंत्र-मंत्र या ज्योतिषीय कर्म नहीं था. इसे उन दिनों की मौसम आधारित यात्राओं की मजबूरी भी कहा जा सकता है. लोग आने-जाने के लिए किसी अनुभवसिद्ध व्यक्ति से मौसम, मार्ग आदि की जानकारी लेकर निकलते थे.
चातुर्मास को छोड़कर सदैव प्रव्रजन में रहने वाले आजीवक श्रमण इस काम में उनकी निर्लोभ मदद करते थे. आगे चलकर इस क्षेत्र में स्वार्थी लोगों का प्रवेश होने लगा. लोगों के पैसा ऐंठने के लिए उन्होंने शकुन विचार को कर्मकांडीय आयोजन बना दिया. नाटक का एक अन्य पात्र चंदन संवाद को आगे बढ़ाता है-
चंदन : पर जो अपशकुन हो गया. अब हम लोग न पीछे लौट सकते हैं.’
आजीवक : यही तो पुरुष कुछ नहीं कर सकता है.
चंदन : (आश्चर्य से) क्यों?
आजीवक : क्योंकि उसमें न कर्तव्य है, न कर्म.
धनदत्त : है है… यह तुम क्या कहते हो?
आजीवक : यही तो क्योंकि उसमें वीर्य नहीं है.
धनदत्त : अरे चंदन! कोई उपाय बता क्या करूं? मुहूर्त तो निकल ही गया. अब चैत्य-वृक्ष के नीचे विश्राम करूं या घर ही लौट चलूं? फिर कोई दूसरा शकुन देखकर यात्रा होगी.
आजीवक : तुम नियति के क्रीड़ा कंदुक— कुछ न कर सकोगे?
आजीवक : नियति जो करती है वही मनुष्य के लिए पथ्य है. मूर्ख मनुष्य! व्यर्थ अपनी टांग अड़ाता है.
राजपुरुष : अकर्मण्य भिक्षु! यह क्या पाठ पढ़ा रहे हो.’
चंदन : नियति यदि तुम्हारी टांग तोड़ दे? भिक्षुजी!
आजीवक : तो तुम मुझे अपनी पीठ पर लादकर मुझे जहाँ जाना है, पहुँचा दोगे.
चंदन : और तुम्हारा बोझ ढोना मैं स्वीकार न करूं?
आजीवक : तो कदाचित नियति तुम्हारी टांग भी तोड़ चुकी होगी.’[5]
नाटक के दूसरे अंक के दसवें दृश्य में एक बार फिर धनद्त्त, चंदन, माधवी आदि आजीवक से मिलते हैं. इस अंक प्रसादजी आजीवक दर्शन के एक और सिद्धांत को व्यक्त करते हैं—
धनदत्त : नियति क्या चाहती है? तुम बतलाओगे?
आजीवक : यह तो वही जाने! लाखों योनियों में भ्रमण करते-करते वह पहुंचने वाले स्थान पर पहुंचा देगी.[6]
आजीवक मानवीय प्रयास की निस्सारता पर विश्वास करते थे. बुद्ध के समय ‘मुक्ति’ का प्रश्न बहुत बड़ा था. उस समय उसके चार प्रमुख समाधान या रास्ते बताए जा रहे थे.
जैनों का मानना था कि कर्म से सांसारिक लिप्तता बढ़ती है. मुक्ति के लिए उन्होंने कर्म-निर्जरा का सुझाव दिया था, जिसे निरंतर तपश्चर्य से संभव बनाया जा सकता है.
बुद्ध संसार को दुखमय मानते थे. उनका कहना था चित्त-वृत्ति निरोध से इसी जीवन में निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है.
ब्राह्मण वायवी देवताओं के अस्तित्व पर भरोसा करते थे. उसके लिए हजारों पशुओं की बलि देना उनका नैमत्तिक कर्म था.
आजीवकों का कहना था कि प्रकृति अपने नियमों से आबद्ध रहती है. कोई कुछ करे, न करे, उसकी चाल नहीं बदलती. कोई ऐसी बाहरी सत्ता नहीं जो उसे अपनी चाल बदलने को मजबूर कर सके.
गोसाल के अनुसार जैसे आसमान में फैंकी गई सूत की गेंद अपने आप धीरे-धीरे अपने आप खुलती हुई गायब हो जाती है— वैसा ही जीवन के साथ भी होता है.[7]
नाटक में आजीवक के कथन, ‘लाखों योनियों में भ्रमण करते-करते वह पहुंचने वाले स्थान पर पहुंचा देगी’ में इस दर्शन की आधार-मान्यता अंतर्निहित है.
नाटक में आजीवक की तीसरी उपस्थिति तीसरे अंक के दसवें दृश्य में होती है. चंदन, धनदत्त, आदि परस्पर मिलता हैं. आजीवक धनदत्त से कहता है—
‘सार्थवाह! अब मुझे नियति का आदेश है कि तू यहाँ से चल दे.’[8]
यहाँ नियति का आदेश नंद का शासन समाप्त होने का पूर्वाभास है.
अनसुलझी पहेली
नाटक का प्रथम प्रकाशन जिसमें सभी 47 दृश्य शामिल थे, 1931 में हुआ था. 95 वर्ष बाद भी बृहद हिंदी समाज नहीं जानता कि आजीवक की उपस्थिति वाले तीन दृश्यों को कब और किसके कहने पर हटाया गया था. इस पहेली के समाधान की दिशा में प्रो. कमलेश वर्मा की सराहना करनी होगी. नाटक से तीन अंक हटाए जाने का कारण जानने के लिए उन्होंने काफी पड़ताल की है. यह अलग बात है उनके अथक प्रयास के बावजूद समस्या ज्यों की त्यों रह जाती है. वर्माजी के लेख को शब्दबिरादरी पोर्टल पर पढ़ा जा सकता है.[9]
वर्मा जी ने जगन्नाथ प्रसाद शर्मा की पुस्तक, प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन (1949) का जिक्र किया है. इस पुस्तक के अनुसार 1931 में चन्द्रगुप्त का जब पहला संस्करण आया, इसमें 47 दृश्य थे. दूसरे संस्करण में प्रसाद ने कुछ दृश्यों को मिलाकर कुछ संख्या घटायी थी. मगर शर्मा जी की इस किताब में भी ‘आजीवक’ वाले प्रकरण की कोई चर्चा नहीं मिली. विकीस्रोत पर भारती भंडार, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित चंद्रगुप्त मौर्य्य (दूसरा संस्करण) का प्रकाशन वर्ष 1932 दिया गया है. उसमें केवल 44 दृश्य हैं. दृश्यों की कटौती के अलावा नाटक का शीर्षक भी बदला गया था.
प्रसादजी ने नाटक का शीर्षक चंद्रगुप्त रखा था. इस शीर्षक का उन्होंने स्वयं रेखांकन भी किया था, जिसे सरस्वती प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक के आरंभ में देखा जा सकता है. भारती भंडार से प्रकाशित पुस्तक में शीर्षक को बदलकर चंद्रगुप्त मौर्य्य कर दिया गया था. ऐसा क्यों किया गया? क्या इसके लिए प्रसादजी की अनुमति ली गई थी? इसका स्पष्टीकरण अपेक्षित था. जो नहीं मिलता. पुनश्चः भारती भंडार के संस्करण से तीन अंक हटाए जाने की पुष्टि तो होती है, मिलाए जाने की नहीं. दोनों की शेष सामग्री में भी प्रथम दृष्टया कोई बदलाव नहीं है.
डॉ वर्मा ने सिद्धनाथ कुमार की पुस्तक ‘प्रसाद के नाटक’ का जिक्र भी किया है. बताया है कि इस पुस्तक के दूसरे संस्करण (1990) के पृष्ठ 37-38 पर इन अतिरिक्त दृश्यों की चर्चा मिलती है. उन्हीं के शब्दों में—
‘1933 में ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक का प्रथम मंचन काशी रत्नाकर-रसिक-मंडल द्वारा 14-15 दिसम्बर को काशी के न्यू सिनेमा हॉल में हुआ था. मंचन की तैयारी और योजना का विवरण बताने के क्रम में राजेन्द्र नारायण शर्मा का एक लंबा कथन उद्धृत किया गया है. शर्मा जी का सन्दर्भ इस प्रकार दिया गया है –
‘लेखक : प्रसाद का अन्तेवासी’, नाट्य प्रशिक्षण शिविर– 1972, वाराणसी की स्मारिका, 1972.
राजेन्द्र नारायण शर्मा के उस लंबे कथन का एक अंश इन अतिरिक्त तीन दृश्यों के बारे में बताता है,
“…एक ब्रह्म संकल्प के साथ सबने प्रसादजी के ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक को अभिनीत करने का निश्चय किया. नाटककार से प्रार्थना की गयी कि वे स्वयं नाटक के कलेवर को, उसके आयतन को इस भाँति छोटा कर दें जिससे उसकी रमणीयता और रस सृष्टि रंच मात्र भी कम न हो और उसका अभिनय चार-पाँच घंटों के भीतर सफलता के साथ किया जा सके. प्रसादजी ने संकोच के साथ इसे स्वीकार किया. उनसे यह भी प्रार्थना की गयी कि काल की परंपरा के अनुसार विदूषक के अतिरिक्त उसमें एक प्रहसन की भी रचना आप करने की कृपा करें जो मूल नाटक की कथा के समानांतर एक हास्योत्पादक लघु कहानी के रूप में चले. पारसी रंगमंच की प्रभुता के युग की इस माँग को इच्छा न रहते हुए भी उन्होंने अपनी स्वीकृति दी. स्वयं न लिख कर उन्होंने तटस्थ भाव से बोल कर प्रहसन लिखा दिया. यद्यपि उक्त प्रहसन केवल नाटक के मंचीकरण के हेतु लिखवाया परन्तु उन्होंने इस बात का इतना ध्यान रखा कि प्रहसन के पात्र और उनकी कथा दोनों उसी युग के हों जिस युग का यह नाटक है. प्रहसन का पहला दृश्य इन पंक्तियों के लेखक ने तथा दूसरा और तीसरा दृश्य श्री लक्ष्मीकांत झा ने लिखा है.”
(प्रसाद के नाटक – सिद्धनाथ कुमार, अनुपम प्रकाशन, पटना, 1990, पृष्ठ संख्या – 38)
राजेन्द्र नारायण शर्मा की टिप्पणी हमारी समस्या का समाधान नहीं कर पाती. उन्होंने नाटक का मंचन वर्ष 1933 बताया है, जबकि भारती भंडार के 1932 के संस्करण से पता चलता है कि चारों दृश्यों को पहले ही हटाया जा चुका था. दूसरे जैसा कि पहले भी कहा गया है, तीन अंकों को छोड़कर दोनों संस्करणों की सामग्री में कोई अंतर नहीं है. यदि उपर्युक्त टिप्पणी सच है तो बस इतना कहा जा सकता है कि प्रसादजी ने मंचन की आवश्यकता के देखते हुए, नाटक के पाठ में तात्कालिक बदलाव किया हो, लेकिन वह अस्थायी और अवसर विशेष के लिए था. उसके आधार पर प्रकाशित सामग्री को संशोधित नहीं किया गया था. दूसरे नाटक में आजीवक की उपस्थिति केवल प्रहसन के लिए नहीं, बल्कि तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को प्रभावशाली बनाने के लिए है.
प्रो. कमलेश वर्मा, राजेन्द्र नारायण शर्मा की उपर्युक्त टिप्पणी से आश्वस्त दिखते हुए लिखते कि संदर्भित, ‘तीन दृश्यों को ‘प्रसाद वाङ्मय’ के खंड- दो में शामिल किया गया है. चूँकि इन दृश्यों को केवल उस समय के मंचन के लिए बोलकर लिखवाया गया था, इसलिए इसे मूल पाठ में शामिल नहीं किया गया. यह उचित भी है. प्रसाद ने मंचन से जुड़े शुभचिंतकों के प्रेमपूर्ण दबाव के कारण इन तीन दृश्यों को बोलकर लिखवाना स्वीकार किया था इसलिए इन्हें नाटक के पाठ का हिस्सा नहीं माना गया. इन तीनों दृश्यों की भाषा भी अन्य दृश्यों की भाषा से थोड़ी हल्की है. ऐसा इसलिए भी हुआ है क्योंकि इनमें प्रहसन की झलक देनी थी.’
इस संबंध में मैं पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूं कि ‘प्रसाद वाङ्मय’ के खंड- दो चंद्रगुप्त नाटक का जो पाठ है उसमें संवत 1988(1931 ईस्वी) दर्ज है. उसमें 47 दृश्य थे, इसकी पुष्टि जगन्नाथ प्रसाद की पुस्तक से भी हो जाती है. वह नाटक का प्रथम संस्करण था. उससे पहले मंचन की बात संभव ही नहीं थी. तीनों दृश्यों को हटाने तथा शीर्षक बदलने कार्य भारती भंडार से छपे दूसरे संस्करण में हुआ था. रही भाषा के हल्के होने का सवाल सो सार्थवाह धनदत्त, उसकी पत्नी, चंदन और आजीवक श्रमण तत्कालीन गैर-अभिजन समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं. उनकी भाषा मागधी या स्थानीय रही होगी. प्रसादजी ने पात्रों के अनकूल भाषा का प्रयोग किया है. दूसरे हास्य किसी भी नाटक का प्रमुख हिस्सा होता है. वह जितना सरल और सहज संप्रेषणीय होगा— जनसाधारण उसका उतना ही आनंद ले सकेगा. हम कह सकते हैं कि नाटककार ने प्रसंगानुकूल भाषा का चयन किया था.
एक और बात जो सिद्धनाथ कुमार, राजेन्द्र नारायण शर्मा आदि के कथन को संद्धिग्ध बनाती है, वह यह कि वे नाटक में बदलाव की बात तो करते हैं, मगर आजीवक का उल्लेख नहीं करते. बुद्ध के समय आजीवक भारत का प्रमुखतम दर्शन था. उत्तर भारत में इसका शीर्षत्व अशोक के आरंभिक शासनकाल तक बना रहा. उसके बाद यह दक्षिण में फला-फूला, जहाँ तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी तक इसके बने रहने के प्रमाण हैं. उत्तर भारत, अकबर के दरबार में पहुंचा आजीवक (नास्तिक) जिस राजनीतिक दर्शन की गवेष्णा करता है, उसकी तुलना अरस्तु से लेकर रूसो, बैंथम सहित आधुनिकतम दार्शनिक के राजनीतिक दर्शन से की जा सकती है. इसके बावजूद इक्का-दुक्का अपवाद को छोड़कर किसी भी संस्कृत या हिंदू धर्मग्रंथ में आजीवकों अथवा उनके दर्शन का उल्लेख नहीं है. उलटे उनकी याद को मिटाने के लिए उसे लोकायत, चार्वाक, नास्तिक जैसे नाम दिए जाते रहे हैं.
अधूरे उपन्यात ‘इरावती’ के आजीवक प्रसंग जिनकी कभी चर्चा नहीं होती
प्रसादजी को पुरुत्थानवादी लेखक माना गया है. उन्होंने कालखंड विशेष से संबंधित अजातशत्रु, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त आदि अनेक नाटक लिखे, लेकिन अशोक को छोड़ दिया था. साफ है कि अशोक उनकी हिंदु पुरुत्थानवादी नीति का हिस्सा नहीं था. ऐसे में उनसे यह अपेक्षा करना वृथा है कि उन्होंने शताब्दियों पहले विस्मृति-गर्त में समा चुके आजीवक दर्शन को चर्चा में लाने के लिए तत्संबंधी प्रसंग को ‘चंद्रगुप्त’ का हिस्सा बनाया होगा.
अमृतोदय, वेणीसंहार, प्रबोधचंद्रोदय आदि अनेक नाटकों में आजीवकों (नास्तिकों) की सीधी या प्रतीकात्मक उपस्थिति है. सभी में नाटककारों की दृष्टि उसे वैदिक धर्मों की तुलना में हेय सिद्ध करने की रही है. युगीन परंपरा के अनुरूप प्रसादजी की रचनाओं में भी आजीवकों के साथ वैसा ही सुलूक हुआ है. लेकिन संस्कृत नाटककारों/लेखकों ने सीधे नाम लेने के बजाय जहाँ मायामोह, महामोह, पाषंड, चार्वाक, नास्तिक, ब्रार्हस्पत्य आदि प्रतीकों का प्रहसननुमा उपयोग किया था— प्रसादजी उसके प्रतिनिधित्व के लिए सीधे आजीवक भिक्षुओं को कथानक का हिस्सा बना लेते हैं; और बीसवीं शताब्दी में हिंदी पाठकों को याद दिला देते हैं कि भारत में एक समय आजीवक नाम की भी श्रमण परंपरा थी.
कदाचित उन्हें लगा था कि ऐसा करना नाटक की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को वास्तविकता के करीब ले जाएगा. वे गलत भी नहीं थे. नाटक का बड़ा हिस्सा नंद के शासन में घटता है, जब आजीवक राज्य का प्रमुख धर्म था, इस कारण इसे अन्यथा भी नहीं कहा जा सकता. ऐसे में नाटक से इन दृश्यों का हटाया जाना कई प्रश्न छोड़ जाता है. खासतौर पर यह देखते हुए कि पहले तथा दूसरे संस्करण के बीच मात्र एक वर्ष का अंतर है.[10]
जहाँ तक प्रसादजी का सवाल है उन्हें इन तीन दृश्यों में आए पात्रों ‘आजीवक’, ‘धनदत्त’, ‘मणिमाला’ तथा ‘चंदन’ से बहुत अनुराग रहा होगा. ये चारों पात्र अपने उसी विशिष्ट चरित्र के साथ उनके अधूरे उपन्यास ‘इरावती’ के कथानक का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनते हैं. अधूरा होने के कारण यह दावा तो नहीं किया जा सकता कि उपन्यास यदि लेखक के जीवनकाल में पूरा हो गया होता तो उसकी वर्तमान सामग्री ठीक उसी रूप में रहती, जिस रूप में वह फिलहाल प्राप्त है, लेकिन इससे उनके द्वारा, आजीवक दर्शन के बारे में जानने के लिए जैन एवं बौद्ध ग्रंथों के गहन अध्ययन की पुष्टि हो जाती है.
‘इरावती’ की विषयवस्तु उस दौर की है जब मौर्य शासन कमजोर हाथों में था. उसका पुराना वैभव समाप्त हो रहा था. जिस कलिंग को जीतने के लिए अशोक ने लंबा युद्ध लड़ा था वहाँ का शासक खारवेल सिर उठा रहा था, और कमजोर शासक के चलते मगध की जनता के मन में यवन आक्रमण का भय समाया हुआ था. वास्तविक सत्ता सेनापति पुष्यमित्र शुंग के हाथों में थी. ब्राह्मण आश्रमों को छोड़कर सत्ता के इर्द-गिर्द संगठित होकर शक्ति बढ़ाने में लगे थे. आजीवक, जैन, बौद्ध जैसे श्रमण परंपरा के प्रमुख दर्शनों को तीखी आलोचना से गुरजना पड़ रहा था. उपन्यास में आए ‘कुकुरवृत्ति’, पाखंड (पाषंड), ‘नियतिवादी’ जैसे शब्द तत्कालीन समाज में श्रमण दर्शनों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण का एहसास कराते हैं.
उपन्यास की कथानायिका इरावती देवदासी है. देव-मंदिर की नृत्याँ गना. एक बार उसका संपर्क बौद्ध भिक्षु से होता है. उसके प्रभाव में वह मंदिर छोड़; भिक्षु संघ में बिना दीक्षा-उपसंपदा के रहने लगती है. वहाँ वह ज्यादा दिन टिक नहीं पाती. एक बार एक शैव साधु वहाँ आता है. इरावती उससे संवाद करने लगती है. वह शैव-साधक के आनंदवाद के दर्शन से असहमत थी, फिर भी भिक्षु संघ की ओर से उसपर, ‘अपरिचित पाखंड की पापमति से प्रभावित’ होने के आरोप लगाकर प्रायश्चित को कहा जाता है. इरावती प्रायश्चित करने के बजाय संघ से प्रस्थान कर जाती है.[11]
यहाँ भिक्षु के मुँह से, दूसरे भिक्षु के लिए ‘पाखंड’ संबोधन से चौंकने की आवश्यकता नहीं है. जैसे आज विभिन्न धर्मों में स्पर्धा चलती है, उन दिनों भी चलती थी. बुद्ध ने बाकी सभी धर्मों को ‘मिथ्यादृष्टि’ कहा है. यही उनके धर्म के बारे में दूसरे मतावलंबियों का विचार था.
कथ्य की समानता
‘इरावती’ का धनदत्त ‘चंद्रगुप्त’ के धनदत्त जितना ही धनाढ्य था. उसके तीन भूगर्भ सोने से भरे थे, ‘इरावती’ के धनदत्त के पास भी ठीक उतनी ही संपदा है. ‘आजीवक भिक्षु उसका विश्वासी मित्र’ था, ‘इरावती’ के धनदत्त की भी आजीवक से मैत्री थी. ‘चंद्रगुप्त’ में धनदत्त की पत्नी मणिमाला कुछ समय के लिए गायब होकर आजीवक की मदद से लौट आती है. ‘इरावती’ में भी ठीक यही घटनाक्रम है. ‘चंद्रगुप्त’ का आजीवक बात-बात पर नियतवाद का हवाला देता था, ‘इरावती’ का आजीवक भी नियतवाद की रट लगाए रहता है— ‘मनुष्य कुछ कर नही सकता’, ‘मैं तो नियतिवादी हूँ, जब सोना होगा सो जाऊंगा’, ‘आगे जाने नियति. लाखों योनियों में भ्रमण कराते-कराते जैसे यहाँ तक ले आई है वैसे और भी जहाँ जाना होगा… ’, जैसे कथन ईसापूर्व पहली-दूसरी शताब्दी में, मक्खलि गोसाल के प्रभाव की याद दिला देते हैं. यह स्वाभाविक था, क्योंकि श्रावस्ती से उजड़ने के बाद आजीवकों ने पाटलिपुत्र के दक्षिण में लगभग 70 किलोमीटर दूर स्थित बरावर पहाड़ी समूह को अपना ठिकाना बनाया था. जहाँ अशोक तथा उसके पौत्र दशरथ मौर्य ने उनके लिए संगमरमर की छह गुफाएँ बनवाकर दी थीं.
लगता है प्रसादजी ने ‘चंद्रगुप्त’ के तीन दृश्यों में जो उपकथा सृजित की थी, उनके हटाए जाने का उन्हें मलाल था. इसलिए इरावती में उसे नए सिरे से विस्तार देने की कोशिश की गई है. उपन्यास पूरा नहीं हो पाता. कहा जाता है कि ‘इरावती’ का लेखन कामायनी (1936) के बाद शुरू किया था. अगले ही वर्ष उनका देहाँत हो जाता है. साफ है कि धनदत्त की उपकथा को वे लंबे समय तक मानस में सुरक्षित रखे हुए थे. ‘इरावती’ में वे भारत की श्रमण परंपरा के विभिन्न अपररूपों को सामने लाने की कोशिश करते हैं.
तरह-तरह के श्रमण
‘हर्षचरित’ में राज्यश्री की खोज में निकला हर्ष विभिन्न मतावलंबी श्रमणों तथा साधुओं से मिलता है. ऐसे ही इरावती की खोज में निकला अग्निमित्र बौद्धों, शैव-साधुओं, पुनर्जन्मवादियों, जटिलकों, निर्ग्रंथों तथा आजीवकों के संपर्क में आता है. इनमें ज्यादा स्पेस आजीवक को मिला है. ‘तपस्वी! तीर्थक! बड़ी-बड़ी जटा! त्यागी!’ जैसे शब्दों से प्रसादजी आजीवक श्रमण-तीर्थंकर का मानो पूरा बिंब खड़ा कर देते हैं.[12] हालांकि यह सब वे उपन्यास के कथानक की ऐतिहासिकता को प्रामाणिक बनाने के लिए करते हैं, न कि आजीवक दर्शन से किसी भी प्रकार की सहानुभूति के चलते—
इतने में एक आजीवक उसी स्थान पर आकर चन्दन से पूछने लगा— ‘धर्मशाला कितनी दूर है, उपासक?’
धनदत्त कुढ़ रहा था. उसने कहा— ‘धर्मशाला पूछते हैं आप? समूचा मगध धर्मशाला ही तो है. जहाँ चाहिए रहिए. पूछना क्या है, यही सुन कर तो सुदूर यवन-देश से बहुत-से अतिथि आ गये हैं.’
‘मैं आपकी बात समझ नहीं सका.’
‘आश्चर्य. इतनी छोटी-सी बात और इस दार्शनिक मस्तिष्क में नहीं आई.’
‘नहीं भी आ सकती है. होगी वैसी बात ही, मुझे तो धर्मशाला चाहिए, न होगा तो इसी सामने वाले चैत्य-वृक्ष के नीचे पड़ रहूँगा.’
‘पड़ रहिए. मैं पूछता हूं कि मगध ही ऐसा अभागा देश है क्या, जहाँ दरिद्र दार्शनिक उत्पन्न होते हैं? जिसे कपड़ा नहीं मिला उसने सोच लिया कि माता के गर्भ से क्या कपडे़ पहन कर आये थे. बस एक सिद्धान्त बन गया, नंगे घूमने लगे. कभी धोखे से कोई मच्छर भी उन्हीं की श्वांसों से खिंचकर चला गया, बस प्राणि-हिंसा हो गई. मुँहपर कपड़े बांधकर चलने लगे. गड़ गया कांटा. ढोंग बनाया कि चींटियाँ दबती हैं. फिर तो हाथ में झाड़ू वाले दार्शनिक! शिर नहीं घुटा— जटाधारी अस्वस्थ हुए, पानी गरम करके पीने लगे; और ये सब सिद्धांत बन गये! वाह रे मगध!’[13]
उपर्युक्त कथन में श्रमण परंपरा के प्रति कटाक्ष देखा जा सकता है. आजीवक श्रमणों को जटिलक (जटाधारी) भी कहा गया है. जीव-हत्या न हो इस कारण वे गर्म जल का सेवन करते थे. मुँहपर पट्टी बांधकर चलने वाले श्रमणों से लेखक का आशय जैन-मुनियों से है. उनके लिए निर्ग्रंथ शब्द भी उपन्यास में आया है. नंगे घूमने वाले दार्शनिक आजीवक और जैन थे. धनदत्त का आक्रोश अपनी पत्नी से बिछुड़ जाने की परिणति था. उसे बताया गया था कि उसकी पत्नी मणिमाला किसी आजीवक के साथ चली गई है. कुछ अंतराल के बाद मणिमाला आजीवक के साथ ही लौट आती है—
‘मैंने सुना था कि तू एक आजीवक के साथ कहीं चली गई!’
‘चली गई नहीं, चली आई कहिए. वह आजीवक भी साथ है, उन्हीं की रक्षा में तो मैं जीवित रह सकी.’ उसने गाड़ी की ओर देख कर पुकारा, ‘आइए आर्य.’ गाड़ी से उतर कर एक आजीवक साधु आया. उसे देखते ही पहले आजीवक ने चिल्ला कर कहा—
‘अरे मैं यह क्या देखता हूं? मेरे गुरुदेव.’
‘धनदत्त मैंने तुम्हारा कुछ लिया नहीं, यह सब लो. मैं अपनी नियति का भोग भोगने आगे बढ़ता हूँ. आओ वत्स!’[14]
मणिमाला के आजीवक के साथ लौटने के प्रसंग का उल्लेख चंद्रगुप्त नाटक में भी है. वहाँ आजीवक नंद के सिपाहियों द्वारा मणिमाला और धनदत्त की संपत्ति लूटे जाने से बचाता है.[15]
आजीवक विरोधी माहौल
आजीवकों को जो स्वतंत्रता नंद के समय में थी, पुष्यमित्र के समय नहीं थी. बौद्ध मतावलंबियों तथा आजीवकों के लिए वह प्रतिकूल समय था. कौटिल्य पूरी श्रमण परंपरा का आलोचक था. यह कहकर कि आमजन के बीच पैठ रखने वाले आजीवकादि श्रमण, दुश्मन देश के जासूस हो सकते हैं, उसने आजीवक, बौद्ध आदि श्रमणों को घर पर आमंत्रित कर भोज कराने पर, 100 पण का जुर्माना लगाए जाने की अनुशंसा ‘अर्थशास्त्र’ में की थी.[16]
यह पूरी तरह आजीवक, जैन, बौद्ध आदि श्रमण परंपरा के दर्शनों को कमजोर करने की नीति का हिस्सा था. जो गुप्तचर आजीवक, जैन आदि श्रमणों के वेश में जासूसी कर सकते थे, वे ब्राह्मण वेश में भी जासूसी करने जा सकते थे. अजातशत्रु का मंत्री वस्सकार ब्राह्मण वेश में ही वैशाली में जासूसी करने गया था. जुर्माने की गंभीरता का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि ‘अर्थशास्त्र’ के अनुसार उस समय शिल्पकार वर्ग को, जिनके बीच आजीवकों का बड़ा समर्थक वर्ग था— राज्य की सेवा के लिए मात्र 48 पण वार्षिक वेतन मिलता था.
मगध में उस समय आजीवकों को लेकर वही विधान लागू था. ब्राह्मण पुष्यमित्र को आजीवकों के सफाये के लिए लगातार उकसा रहे थे. उन्हें रास्ते का कांटा बताया जा रहा था— ‘सेनापति! पाखंड छद्यमवेशियों से तुम्हारी राजपुरी भर गई है… यदि तुम इन कंटकों का उपाय न करोगे तो विनाश में संदेह नहीं.’[17]
उसके बाद महानायक अग्निमित्र आदेश पर आजीवकों को गिरफ्तार कर लिया जाता है. उसका पिता सेनापति पुष्यमित्र आजीवकादि श्रमणों को भिक्षा देने पर पाबंदी लगा देता है. राज्य के दबाव में धनदत्त जैसा आजीवकोपासक भी उससे किनारा करने लगता है—
‘वह कुकुरव्रती दार्शनिक तो हटता ही नहीं. उसी तरह गेंडुरी मारे दोनों केहुनियों के बल कुत्ते की तरह पड़ा है.’
‘पड़ा रहने दो.’ अन्यमनस्क भाव से धनदत्त ने कहा.
‘किंतु सेनापति की आज्ञा क्या भूल गए? ऐसे बेकार पाखंडियों को अन्न देने के लिए उन्होंने वर्जित किया है.’ चंदन ने कहा.
‘हाँ, उनका उद्देश्य है कि भोजन न पाने से ये सब स्वयं नगर के बाहर हो जाएँगे…’[18]
जैन ग्रंथों में आजीवकों की विचित्र साधनाशैलियों की चर्चा की है. उन्हीं में से एक था भिक्षान्न को हथेली पर लेकर, बिना हाथ लगाए बिना सीधे मुँहसे खाना. उनमें कुछ ऐसे थे जो भिक्षान्न को जमीन पर रखवा लेते, फिर सीधे मुँहसे उठाकर खाते थे. पहले वालों को हाथ-चट्टा या हथेली चट्टा तथा दूसरी श्रेणी के श्रमण कुकुरव्रती कहे जाते थे. उपन्यास में बौद्धविहार को कुक्कुटाराम नाम दिया गया है. जबकि कुक्कुटाराम, कुक्कुटनगर आदि का संबंध बौद्ध धर्म से ज्यादा आजीवकों से था.
जिस दौर में प्रसाद ने इन कृतियों की रचना की, वह भी सांस्कृतिक-राजनीतिक उथल-पुथल का था. आजादी की लड़ाई अपने अंतिम दौर में प्रवेश कर चुकी थी. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आड़ में जातिवादी ताकतें सत्ता शिखरों को कब्ज़ा लेना चाहती थीं. तत्कालीन लेखकों और बुद्धिजीवियों के बड़े वर्ग का उन्हें समर्थन था. उनकी सारी कोशिश ब्राह्मणधर्म की पुनर्वापसी थी. ब्राह्मणवाद तथा उससे उपकृत शक्तियाँ , बुद्धि और छल-बल द्वारा विदेशी शासकों के दौर में हुए नुकसान की भरपाई में लगी थीं. ऐसे में जाति-वाद विरोधी, युद्ध विरोधी, वेद तथा याज्ञिक कर्मकांडों के विरोधी, पाप-पुण्य-तीरथ-दान के धुर-विरोधी आजीवक दर्शन को, जिसे शताब्दियों पहले यत्नपूर्वक, तरह-तरह के लांछनों के साथ विमर्श से गायब कर दिया गया था— दुबारा विमर्श के केंद्र में लाना, वर्षों की मेहनत पर पानी फेर देने जैसा था.
शायद इसीलिए ‘चंद्रगुप्त’ के लेखक की इच्छा/अनिच्छा से उसे, नाटक के प्रकाशित हो जाने के बावजूद उससे हटाया/हटवाया गया. यह लेखक का उस उपकथा तथा उसके पात्रों से मोह था, जिसने उसे अप्रकाशित उपन्यास के हिस्से के रूप सुरक्षित रखा.
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संदर्भ
[1] रत्नशंकर प्रसाद, प्रसाद वाङ्मय खंड दो [1989 : xi], प्रसाद प्रकाशन, प्रसाद मंदिर, वाराणसी
[2] राज्ञो वधं चिकीर्षेद्यस्तस्य चित्रो वधो भवेत्, आजीवकस्य स्तेनस्य वर्णसंकरकस्य च। महाभारत, शांतिपर्व, 86।21, पेंगुइन क्लासिक्स, अनुवाद जॉन डी स्मिथ
[3] मस्करमस्करिणौ वेणुपरिव्राजकयोः। पाणिनी 6.1.154
[4] चंद्रगुप्त, प्रथम अंक, दृश्य पाँच, प्रसाद वाङ्मय, पृष्ठ 540-541, shorturl।at/hYusN
[5] चंद्रगुप्त, प्रथम अंक, दृश्य पाँच, प्रसाद वाङ्मय, पृष्ठ 542-543
[6] चंद्रगुप्त, दूसरा अंक, दृश्य दस, प्रसाद वाङ्मय, पृष्ठ 588
[7] मक्खलि गोसाल, सामञ्ञफलसुत्त दीघनिकाय
[8] चंद्रगुप्त, तृतीय अंक, दृश्य छह, प्रसाद वाङ्मय, पृष्ठ 608
[9] शब्दबिरादरी shorturl।at/aFza3
[10] चंद्रगुप्त मौर्य्य, shorturl।at/3E8Ma
[11] जयशंकर प्रसाद, इरावती [1967 : 57-59], भारती भंडार, इलाहाबाद, https://www.hindwi।org/ebooks/irawati-ebooks
[12] जयशंकर प्रसाद, इरावती [1967 : 57-59]
[13] जयशंकर प्रसाद, इरावती [1967 : 70]
[14] जयशंकर प्रसाद, इरावती [1967 : 74]
[15] चंद्रगुप्त, तृतीय अंक, दृश्य छह, प्रसाद वाङ्मय, पृष्ठ 608
[16] शाक्याजीवकानदीन्वृषलप्रव्रजितान्देवपितृकार्येषु भोजयतः शत्यो दण्डः— अर्थशास्त्र 3।20।20
[17] जयशंकर प्रसाद, इरावती [1967 : 75]
[18] जयशंकर प्रसाद, इरावती [1967 : 85]
ओमप्रकाश कश्यप![]() जी-571, अभिधा, गोविंदपुरम |
जैन आचार्यों की पहली संगीति चंद्रगुप्त के शासन काल में पाटलिपुत्र में हुई थी यह अकेला प्रसंग नहीं है जो चंद्रगुप्त को जैन मतावलम्बी सिद्ध करता है। चंद्रगुप्त अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपने गुरु जैन आचार्य भद्रबाहु के साथ कर्णाटक प्रांत के श्रवण बेल गोला चला गया था और वहीं उसका साधना करते हुए देहांत हुआ था। इसका उल्लेख श्रवण बेल गोला की शिलाओं में उत्कीर्ण है। आज भी वहाँ दो पहाड़ियाँ हैं जिनके नाम चंद्रगिरि और विंध्यगिरि हैं। परंतु इस तथ्य को जानबूझकर उपेक्षित किया जाता है।
इस विषय पर समालोचन ने ओमप्रकाश कश्यप को छापकर महत्वपूर्ण काम किया है क्योंकि प्रसाद की आजीवक से सम्बन्धित धारणा को लेकर हिंदी वृत्त में एक अरसे से वाद विवाद हो रहे हैं।