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Home » अनुवाद के सिद्धांत : मैथिली पी राव

अनुवाद के सिद्धांत : मैथिली पी राव

श्रीनारायण समीर ने अनुवाद के सिद्धांत और सृजन को केंद्र में रखते हुए अपना शोधकार्य बेंगलुरु विश्वविद्यालय से पूर्ण किया है. अनुवाद विषयक उनके कई ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं. उनकी नवीनतम पुस्तक ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धांत’ का प्रकाशन लोकभारती ने किया है. इसकी चर्चा कर रही हैं, मैथिली पी राव.

by arun dev
July 9, 2025
in समीक्षा
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अनुवाद के सिद्धांत : मैथिली पी राव
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अनुवाद  में नये सिद्धांत की उद्भावना
मैथिली पी राव 


ह
मारी बहुभाषिकता भारत को एक दिलचस्प ‘भाषाक्षेत्र’ बनाती है. स्वभावतः भारत एक दिलचस्प ‘अनुवाद क्षेत्र’ भी है. हम भारत के लोग सहज रूप से दो-तीन-चार भाषाएँ जानते हैं और अपने दैनिक कामकाज में बिना किसी तामझाम और शोर-शराबे के अनुवाद करते हुए अनुवाद की प्रक्रिया से गुजरते रहते हैं. किसी भाव, अनुभाव या लोकाचार के जीवनाचार बनने पर यही होता है. तब उस भाव, अनुभाव पर अलग से सोचने, सूत्र गढ़ने या सिद्धांत-निरूपण करने जैसा कोई खयाल मन में नहीं आता. यही कारण है कि हमारे यहाँ, बहुभाषिकता होने के बावजूद, अनुवाद को लेकर व्यवस्थित अध्ययन की परंपरा नहीं मिलती. ऐसे में आधुनिक अनुवाद चिंतन और अनुवाद व्यवहार से संबंधित व्यापक और विषय वैविध्य साहित्य का हमारी भाषा में अभाव होना स्वाभाविक है.

विकसित समाज में व्यवस्थित अध्ययन की व्यवस्था होती है, जबकि भारत जैसे विकासशील समाज में भाषा में विचारों एवं भावनाओं की अभिव्यक्ति तथा सम्प्रेषण का प्रयोजन और प्रकार्य निरंतर गतिशील एवं बहुमुखी रहे हैं. फलस्वरूप भाषा संरचना के साथ-साथ उसके अर्थगत अभिलक्षण भी बदलते रहे हैं.

‘अनुवाद क्षेत्र’ में इस बदलाव को पकड़ने की चुनौती बड़ी होती है. ऐसे चुनौतीपूर्ण क्षेत्र में अनुवाद सिद्धांतों का निरंतर परीक्षण आवश्यक हो जाता है. अनुवादवेत्ता, आलोचक श्रीनारायण समीर की हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त’ इसी आवश्यकता को पूरा करती एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है.

आधुनिक अनुवादशास्त्र अब अनुवाद के कला अथवा विज्ञान होने की पारंपरिक बहस को निरर्थक मानता है. उसके अनुसार अनुवाद की प्रक्रिया हमेशा वैज्ञानिक होती है, भले ही उसका पाठ साहित्यिक हो अथवा साहित्येतर. पिछले लगभग सौ वर्षों में अनूदित पाठों की अधिकांश सामग्री साहित्यिक न होकर तकनीकी, औषधि, विधि, प्रशासन, जनसंचार जैसे विषयों की रही है.

‘अनुवाद क्षेत्र’ के इस विस्तार ने अनुवादकों को भी पेशेवर बनाया है. इस क्षेत्र विस्तार ने अनुवाद सिद्धांत में भाषा विज्ञान और संरचना की भूमिका को अनिवार्य रूप से लोकोन्मुख तथा सर्जनात्मक  बना दिया है. यही कारण है कि अनुवाद के प्रचलित सिद्धांत आधुनिक अपेक्षाओं के आलोक में अपर्याप्त लगते हैं.

श्रीनारायण समीर द्वारा परिकल्पित ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त’ अनुवाद विमर्श को व्यापक और बहुआयामी बनाने के साथ-साथ इस अपेक्षा को भी पूरा करता है.

जैसा कि आलोच्य पुस्तक के नाम से आभास होता है, ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त’ अनुवाद की सैद्धांतिक पुस्तक है. इसमें अनुवाद के प्रचलित-अप्रचलित सभी सिद्धांतों की विवेचना है और इसी पृष्ठभूमि में नये सिद्धांत का निरूपण किया गया है. अनुवाद की प्रक्रिया में मूल पाठ के विखंडन और उसी भाव-भूमि में दूसरी भाषा पाठ के अंकुरण के तर्क से ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त’ की उद्भावना इस पुस्तक की विशेषता है. अनुवाद सिद्धांत की यह उद्भावना लेखक की मौलिक परिकल्पना है, जो निरा अनुमान अथवा कोरी कल्पना पर आधारित नहीं; बल्कि भाषांतरण की प्रक्रिया, परिणाम तथा भाषा की वैज्ञानिक प्रतिपत्ति एवं तर्क पर आधारित है.

श्रीनारायण समीर ने इस पुस्तक में अपनी सैद्धांतिक परिकल्पना प्रस्तुत करने के पहले  अनुवाद की अवधारणा और अभिप्राय पर व्यापकता एवं गहराई से तथा उत्तर सत्य के नजरिये से विचार किया है. इसीलिए पुस्तक के पहले अध्याय का नाम है – ‘अनुवाद का उत्तर अध्ययन’. उत्तर सत्य की तर्ज पर अनुवाद का उत्तर अध्ययन बेशक बहसतलब और ज्ञानवर्द्धक है. इसमें सिद्धांतकार ने अनुवाद को लेकर कुछ गंभीर, तर्कसंगत एवं नई बातें कही हैं. इन बातों में अनुवाद को लेकर प्रश्नाकुलता है, ‘अनुवाद्य और अनुवाद्यता’ को समझने का प्रयास है, ‘सृजन का सृजन बनाम अभिप्राय का उद्घाटन’ है तथा अनुवाद के सरोकार के बहाने राजनीति और अनुवाद के अन्तःसंबंध को खोलने का विचारोत्तेजक आग्रह है.

पुस्तक ‘अनुवाद सिद्धांत’ तथा ‘अनुवाद व्यवहार’ नाम से दो खंडों में संयोजित है. पहले खंड के तीसरे अध्याय में अनुवाद के नये सिद्धांत की परिकल्पना और विवेचना है, तो दूसरे खंड में विसर्जन एवं सर्जन के समर्थन में 10 भारतीय भाषाओं के एक-एक श्रेष्ठ गद्यांश एवं एक-एक कविता तथा उनके हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किये गये हैं. इस तरह से तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित तथा व्यावहारिक विमर्श से अनुप्राणित नये अनुवाद सिद्धांत का निरूपण करती यह पुस्तक मौलिक एवं अनुपेक्षणीय है.

अकादमिक होने के बावजूद, ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त’ पुस्तक अपनी नवाचारी परिकल्पना, तर्कपूर्ण विवेचना, प्रवाहपूर्ण भाषा और विश्लेषणात्मक शैली के चलते रोचक, पठनीय एवं ज्ञानवर्द्धक है. लेखक ने इसमें सैद्धांतिक खंडन-मंडन में और अपनी परिकल्पना के प्रतिपादन के सिलसिले में खूब सवाल खड़े किये हैं. मसलन,

“क्या अनुवाद आजकल रचना की वैचारिकी, उसकी प्रासंगिकता और राजनीति से प्रेरित होकर नहीं हो रहे हैं?”
(पृ. 35),

“क्या अनुवाद भाषांतरण की प्रक्रिया में दो भाषाओं की संरचना और वक्ता समाज के सामाजिक संबंधों एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों का आपसी मिलान तथा युगलबंदी है” (पृ. 79),

“क्या कोई रचना अनूदित होने पर यानी दूसरी भाषा की संरचना में ढलते ही अपनी असलियत…मूल छवि, ध्वनि, प्रभाव आदि से अलग, नये कलेवर में नई रचना बन जाती है?” (पृ. 94)

ऐसे सवालों से पाठक की जिज्ञासा जगाने के उपरांत लेखक ने अनुवाद को नये युगबोध के अनुरूप परिभाषित और विवेचित करने तथा तरह-तरह के उदाहरणों से तर्क-रचना करते हुए अपने सिद्धांत का प्रतिपादन करने में जिस गहन वैचारिकता, उच्च बौद्धिकता एवं अपार धैर्य से काम लिया है, वह प्रशंसनीय है. इस तरह से पुस्तक भूमंडलीकरण के दौर में अनुवाद के वैश्विक प्रभाव और महत्त्वांकन की विवेचना के साथ नये अनुवाद सिद्धांत की परिकल्पना, तर्क रचना और उसके सम्यक् प्रतिपादन के लिए मूल्यवान एवं उल्लेखनीय  है.

सन् 1913 में जब रवींद्रनाथ ठाकुर को गीतांजलि (अंग्रेजी अनुवाद : सॉन्ग ऑफरिंग्स, 1912) के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, तब से एशियाई समाज में अनुवाद की शक्ति का बोध जागा. यह भारत सहित पूरे विश्व के लिए एक अनोखा अनुभव था. तब नोबेल पुरस्कार समिति ने अपनी संस्तुति में जो कहा, उसमें अन्य बातों के साथ-साथ ज्ञान के प्रसार एवं मानवता के उत्कर्ष में अनुवाद की सर्जना तथा महत्ता पर प्रकाश था. अनुवाद के इसी प्रकाश में पिछले कुछ वर्षों से भारतीय साहित्य का अँकन फिर से शुरू हुआ है और 2022 तथा 2025 का विश्व प्रसिद्ध बुकर अनुवाद पुरस्कार भारतीय लेखकों को मिला है.

पहला गीतांजलि श्री को उनके हिंदी उपन्यास ’रेत समाधि’ के डेजी रॉकवेल कृत अंग्रेजी अनुवाद ‘टॉम्ब ऑफ सैण्ड’ के लिए तथा दूसरा कन्नड़ कथाकार बानू मुश्ताक को उनके कथा संग्रह के दीपा भस्थी कृत अंग्रेजी अनुवाद ’हार्ट लैंप’ के लिए.

इस क्रम में अनुवाद के महत्त्व को लक्षित करनेवाले वाणी फाउंडेशन अनुवादक पुरस्कार, न्यू इंडिया फाउंडेशन ट्रांस्लेशन फ़ेलोशिप, भारतीय अनुवाद परिषद के ‘नातालि’ और ‘द्विवागीश’ पुरस्कार, पैन अमेरिका ट्रांसलेशन अवार्ड आदि का स्मरण आना यहाँ स्वाभाविक है.

अनुवाद की बढ़ती मांग और धूम के वर्तमान समय में श्रीनारायण समीर की आलोच्य पुस्तक ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त’ के प्रकाशन से आशा की जाती है कि हिंदी में अनुवाद विमर्श को व्यापकता और गहराई मिलेगी.

पुस्तक की भूमिका में लेखक ने उचित ही आज के दौर में अनुवाद की अनिवार्यता और सरोकार को लेकर कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं. इनमें भूमण्डलीकरण के बाद की परिघटनाओं और दुनिया में संवाद की जरूरतों तथा संप्रेषण की जटिलताओं में ‘रामबाण’ अनुवाद की कला और सरोकार की बातें हैं. अनुवाद की प्रासंगिकता और तरफदारी की बातें हैं और अनुवाद की सभ्यता-संवादी भूमिका की बातें हैं. पुस्तक तीन भागों में संयोजित है –

  1. आभार एवं भूमिका
  2. अनुवाद सिद्धान्त और
  3. अनुवाद व्यवहार. अनुवाद सिद्धान्त के अंतर्गत ‘अनुवाद का उत्तर अध्ययन’, ‘अनुवाद के विविध सिद्धान्त’ और ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त’ नामक अध्याय गवेषणापूर्ण एवं विचारोत्तेजक हैं.

अनुवाद व्यवहार खंड में तुलनात्मक अध्ययन एवं अनुशीलन के लिए भारतीय भाषाओं के कतिपय प्रमुख कवियों एवं लेखकों की चुनिंदा रचनाएँ तथा उनके अनुवाद प्रस्तुत किये गये हैं. इस उपक्रम का हेतु लेखक की सैद्धांतिक परिकल्पना के समर्थन में अनुवाद में कथन के विसर्जन की भाव-भूमि पर पुनर्कथन में सर्जन का विविध उदाहरणों के द्वारा उद्घाटन तथा सत्यापन करना है. कहना न होगा कि लेखक इस उपक्रम में सफल तो हुआ ही है, अपने पाठकों को भारतीय साहित्य की  अमूल्य  रचनाओं के बोध और बानगी से संपन्न करने में भी कामयाब हुआ है.

पुस्तक के पहले अध्याय ‘अनुवाद का उत्तर अध्ययन’ में दुनिया के विश्वग्राम बनने और उसकी बदली हुई अपेक्षाओं के अनुरूप अनुवाद सिद्धांत के पुनरावलोकन की जरूरत को अनिवार्य बताया गया है. श्रीनारायण समीर के अनुसार,

“अनुवाद का मतलब है दो भाषाओं की ऊपरी भिन्नताओं की तह में जाकर मानवीय अभिव्यक्ति के समान तत्त्वों की तलाश करना तथा उनकी आवाजाही को सतह पर लाना.”
(पृ. 19)

ऐसे ही अनुवाद के ‘अभिप्राय का उद्घाटन’ उपशीर्षक में उन्होंने एक और नई बात कही है कि

“अनुवाद किसी सृजन का उसकी मूल भाषा से मुक्ति का हलफ़नामा है. यह हलफ़नामा पाठक की अदालत में अनुवादक के द्वारा दर्ज किया जाता है.”
(पृ. 27)

आगे उन्होंने अनुवाद को ‘स्वभाव से ज्ञानोन्मुख, ज्ञानग्राही और ज्ञान-प्रसारक’ माना है और इसलिए उसकी ‘प्रकृति और अन्तश्चेतना को परिवर्तनकारी’ कहा है. (पृ. 37) इसी पृष्ठभूमि में लेखक द्वारा अनुवाद को ‘भाषा-संवाद’ की सामान्य एवं प्रचलित धारणा से ऊपर उठाकर ’सभ्यता संवाद’ कहना, उसे एकदम नई दृष्टि से देखना है. ध्यान रहे, लेखक का अनुवाद को इस तरह से देखना और परिभाषित करना पाठक को प्रभावित करने की मंशा से जुमला उछालना नहीं है. बकौल लेखक इसके पीछे उसकी व्यापक दृष्टि, तलस्पर्शी सोच एवं ज्ञान के प्रसार के माध्यम से पिछड़े समाजों के विकास की आकांक्षा क्रियाशील है. तभी तो वह कहता है,

“अनुवाद आज दो भाषाओं, राष्ट्रीयताओं और देशों के बीच न केवल विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है; बल्कि हमारे सामाजिक विश्वासों, सामूहिक तर्कों तथा सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के भाषांतरण के द्वारा हमारे साझा चिंतन और साभ्यतिक आचरण को व्यापक, पारदर्शी और मानवीय बनाने एवं आपस में संवाद स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान भी दे रहा है. यह अनुवाद की सर्वथा नई और विशिष्ट भू-राजनीतिक भूमिका है, जो उसकी अबतक की भाषाई तथा सामाजिक भूमिका से बिलकुल अलग है.”
(पृ. 38-39)

पुस्तक में अनुवाद को लेकर ऐसे कथनों और उदाहरणों की भरमार है. इस तरह से आलोच्य पुस्तक नये अनुवाद सिद्धांत की परिकल्पना के लिए ही नहीं, विमर्श की दृष्टि से भी विचारोत्तेजक एवं पठनीय  है.

‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त’ की स्थापना और विवेचना से पहले पुस्तक में अनुवाद की चुनौतियों पर पर्याप्त विचार किया गया है. इसमें स्रोत एवं लक्ष्य भाषाओं के “शब्द, वाक्य, रूप और शैली” (पृ.24), “प्रकृति’, संरचना, व्याकरणिक नियम” (पृ. 25) आदि की चर्चा है. इस चर्चा में लेखक जब ‘भाषिक व्यवस्था’ एवं ‘जीवन व्यवस्था’ (पृ. 24) जैसे पदों का प्रयोग करता है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह इस प्रक्रिया के तत्त्वदर्शन की भी व्याख्या कर रहा है.

‘सृजन का अनुसृजन बनाम अभिप्राय का उद्घाटन’, ‘संरचना और सरोकार’ तथा ‘अनुवाद और राजनीति’ पर लेखक का विमर्श नवाचारी है. ‘अनुवाद और राजनीति’ दस पृष्ठों का एक मुकम्मल विमर्श है. इसमें उन सभी परिप्रेक्ष्यों का उद्घाटन है, जिनसे अनुवाद जैसी एक कलात्मक विधा का अन्यथा राजनीतीकरण हुआ है. अनुवाद की क्रिया में प्रेरणा के महत्त्व को चिह्नित करते हुए लेखक ने स्पष्ट किया है कि “साहित्य की सामाजिकता” से परिचित होने के लिए भारतीय साहित्य ही नहीं, विश्व साहित्य का अध्ययन भी अनिवार्य है, जो मात्र अनुवाद के माध्यम से ही संभव है. (पृ.35)

“अनजाने लोगों तथा सभ्यताओं के बीच पारस्परिक हित लाभ के लिए भाषाई दीवार का भंजक”
(पृ 37)

अनुवाद “स्वभाव से ज्ञाननोन्मुख, ज्ञानग्राही और ज्ञान-प्रसारक होता है. अनुवाद अगर नहीं होता तो इस बहुभाषी दुनिया में मनुष्य संवाद और सम्पर्क के अभाव में बेतरह बिखरा-बिखरा, अलग-थलग और परस्पर बँटा हुआ होता.”(पृ 36)

विमर्श के इसी हिस्से में लेखक ने मशीन अनुवाद के विषय में कई बुनियादी और जरूरी बातें  कही हैं.

पुस्तक के दूसरे अध्याय ‘अनुवाद के विविध सिद्धान्त’ में सभी महत्वपूर्ण सिद्धान्तों की विवेचना एवं सिद्धान्तकारों की चर्चा है. इसके अंतर्गत अनुवाद के ‘अर्थ-सम्प्रेषण सिद्धान्त’, ‘प्रभाव-समता सिद्धान्त’, ‘व्याख्या सिद्धान्त’, ‘सांस्कृतिक संदर्भों का एकीकरण सिद्धान्त’, ‘समतुल्यता सिद्धान्त’ और ‘पुनर्कोडीकरण सिद्धान्त’ की शक्ति एवं सीमा की विवेचना शोधपरक एवं ज्ञानवर्धक है. यहाँ श्रीनारायण समीर ने विश्व के तमाम अनुवाद सिद्धांतकारों, जैसे– सैमुअल जॉनसन, ए एच स्मिथ, पीटर न्यूमार्क, रोमन जैकब्सन, जेम्स होम्स, मैलिनोव्स्की, जे आर फिर्थ, आर एच रॉबिन्स, एमएके हैलिडे, विलियम फ्रॉले तथा यूजीन ए नाइडा और जे सी कैटफोर्ड की अनुवाद-स्थापनाओं की विस्तृत विवेचना की है. साथ ही उनकी सीमाओं का सम्यक उद्घाटन भी किया है.

सैद्धांतिक विवेचना और खंडन-मंडन का यह उपक्रम अनुवाद के अध्येताओं के लिए तत्काल परिकलक (रेडी रेकनर) जैसा उपयोगी है. पुस्तक में अनुवाद के तमाम सिद्धांतों और आयामों की विवेचना के उपरांत विसर्जन और सर्जन के सिद्धान्त का तैयारीपूर्ण प्रतिपादन प्रभावित करता है.  सिद्धांतकार की स्थापना है कि “जब किसी भाषा-पाठ का दूसरी भाषा में अन्तरण किया जाता है तो उसका (मूल पाठ का) कुछ-न-कुछ अन्तरित होने से रह जाता है….यह अनुवाद में मूल पाठ की क्षति या लोप अथवा विसर्जन (lost in translation) होता है.”(पृ.69-70)

“ऐसे में अनुवाद को लक्ष्य-भाषा की सहज, सुसंगत और स्वाभाविक अनुरचना बनाने के लिए उसमें किंचित कुछ नया जोड़ना अथवा सृजन करना पड़ता है. यह…मूल रचना के अर्थ और अभिप्राय को अनुरचना में ढालने और उसे मूलवत बनाने के निमित्त होता है. यह अनुवाद में वर्द्धन अथवा सर्जन (found in translation) होता है.”
(पृ.70)

इस स्थापना की पुष्टि के लिए सिद्धांतकार ने शाब्दिक, सांस्कृतिक, व्याकरणिक, वाक्यादि उदाहरणों की एक तरह से झड़ी लगा दी है. पूरे 30 पृष्ठों के इस बृहत अध्याय में अनुवाद में विसर्जन और सर्जन की प्रक्रिया की विशद विवेचना है और सैद्धांतिक परिकल्पना को सिद्ध करने के निमित्त प्रशासनिक साहित्य तथा सर्जनात्मक साहित्य से ढेर सारे उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं. लेखक ने अपनी स्थापना के समर्थन में ड्राइडन, मैथ्यु आर्नल्ड, देरिदा, अरविंद, टैगोर, मार्खेज, बेंजमिन, यू.आर. अनंतमूर्ति, रोमन जैकब्सन, मैद्निकोवा, युजीन ए नाइडा, दूधनाथ सिंह आदि के अनुवाद संबंधी मंतव्यों को यथा संदर्भ और यथा स्थान उधृत करते हुए अपने अनुवाद सिद्धांत को हर दृष्टि से परिपुष्ट करने का कार्य किया है, जो निश्चय ही प्रशंसनीय है.

अनुवाद में विसर्जन के गर्भ से सर्जन किस तरह और कैसे रूपाकार लेता है, इसे दिखाने और समझाने के लिए श्रीनारायण समीर ने पुस्तक में एक बहुत ही दिलचस्प उदाहरण प्रस्तुत किया है. वह है रवींद्र नाथ टैगोर की प्रसिद्ध ‘मानस प्रतिमा’ कविता और उसके कई भाषाओं में हुए अनुवाद का ‘केस-स्टडी’ के रूप में विश्लेषण . यहाँ यह जानना रोचक है कि टैगोर ने अपनी इस कविता का स्वयं एक संगीतबद्ध पाठ भी रचा था, जिसमें उन्होंने मूल कविता के कई शब्द बदल दिये थे. फिर उन्होंने उस कविता का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया. कविता के उस अंग्रेजी पाठ का नेरुदा ने स्पैनिश में अनुवाद किया. आगे चलकर अंग्रेज अनुवादक मेर्विन ने उसका स्पैनिश से अंग्रेजी में अपनी तरह से अनुवाद किया और फिर उस अंग्रेजी पाठ का प्रख्यात बांग्ला कवि शक्ति चट्टोपाध्याय ने बांग्ला में भाषांतरण किया. इस तरह से एक ही रचना की इतनी भाषाओं में जो यात्रा हुई, उसमें मूल का कहाँ और कितना विसर्जन हुआ और कितना अर्जन एवं सर्जन – इसका अध्ययन रोचक हो जाता है. इस अध्याय में सिद्धांतकार ने अपनी परिकल्पना के प्रतिपादन तथा विवेचना के क्रम में अनेक दृष्टांतों को उद्धृत किया है. यथा – हार्मोनियम में बजे गीत को सारंगी में फिर से बजाना, (पृ. 73), किसान का मिट्टी में बीज बोना, फसल उगाना और फिर उस फसल से बीज प्राप्त करना. (पृ. 77) ‘चाइनीज व्हिस्पर’ (पृ. 83) का उदाहरण भी अभिव्यक्ति में विसर्जन और सर्जन की प्रक्रिया का उद्घाटन और समर्थन के निमित्त है. इस अध्याय की विशेषता यह भी है कि एक नये सिद्धान्त की विवेचना से गुजरते हुए पाठकों एवं अनुवादकों को कई ऐसे विचार, तर्क एवं दिशा-निर्देश हासिल होते हैं, जिनसे ज्ञान में अभिवृद्धि होती है तथा अनुवाद-कौशल को संवर्द्धन मिलता है.

पुस्तक में ‘अनुवाद व्यवहार’ खंड के अंतर्गत लेखक ने ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का निदर्शन’ प्रस्तुत करते हुए ओडिया, गुजराती, पंजाबी, बांग्ला, मराठी, कन्नड, तमिल, तेलुगु, मलयाळम एवं हिन्दी के एक-एक गद्यांश एवं एक-एक कविता का उदाहरण उपस्थापित किया है. इस उपस्थापना में पुस्तक के बाएँ पृष्ठ पर रचना अपने मूल स्वरूप में, किंतु देवनागरी लिप्यंतरण में है; जबकि सामने के पृष्ठ पर उसका हिंदी अनुवाद है. इस पूरी प्रस्तुति को यदि पाठक एकाग्र होकर पढ़ ले, तो इनसे अलादीन के चिराग की भाँति, बहुत कुछ हासिल कर सकता है. अनुवाद में मूल पाठ के विघटन और पुनर्सृजन का परिदर्शन कराते ये विविध भाषाई उदाहरण अपनी तरह का मूल्यवान खजाना हैं. यहाँ अनायास ही कबीर का एक दोहा याद आता है :–

सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार I
लोचन  अनंत  उघाड़ियां  अनंत  दिखावण  हार ॥

संरचना की दृष्टि से आलोच्य पुस्तक का प्रत्येक अध्याय सुविचारित, सुगठित तथा शोध का उत्तम उदाहरण है. पुस्तक की भाषा प्रांजल एवं प्रवाहपूर्ण है. इसमें अनुवाद की अवधारणा एवं सैद्धांतिकी की विवेचना में विश्व-विख्यात अनुवाद-चिंतकों और ख्यात भारतीय अनुवादवेत्ताओं के विचार उद्धृत हैं. इन उद्धरणों से अनुवाद के संबंध में एक विश्व-दृष्टि बनती है. साथ ही पुस्तक लेखक के ज्ञान की गहराई एवं श्रम का परिचय मिलता है. अनुवाद की प्रक्रिया, प्रविधि, स्वरूप आदि को लेकर आरम्भ से अब तक के अनुवाद चिंतन में गुणात्मक परिवर्तन हुए हैं. परंतु अनुवाद सैद्धांतिकी के क्षेत्र में पिछले लगभग सौ वर्षों का इतिहास यथास्थिति का इतिहास रहा है. अनुवादवेत्ता श्रीनारायण समीर द्वारा परिकल्पित ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त’ इस दिशा में एक सार्थक, मौलिक तथा समयानुकूल हस्तक्षेप है. उम्मीद है कि अनुवाद चिंतन के क्षेत्र में यह परिकल्पना मील का पत्थर साबित होगी.

_______

पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें. 

मैथिली पी राव हिंदी और कन्नड़ में समान गति से सृजन और अनुसृजन करती हैं.
‘बी एससी फेल, आई पी एस पास’ और ‘सपना जो न हुआ अपना’ उनकी प्रसिद्ध अनूदित पुस्तकें हैं.

संपर्क:
A-308, Sterling Park Apartments, Kodigehalli main road, Sanjeevani Nagar
Bengaluru – 560092.
maithili.rao@jainuniversity.ac.in

Tags: 20252025 समीक्षाअनुवाद के सिद्धांतअनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्तमैथिली पी रावश्रीनारायण समीर
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Comments 1

  1. Anonymous says:
    3 days ago

    भाषा बहता नीर है । इसे व्यावहारिक बनाने का कार्य वैयाकरणों ने किया है। प्रत्येक ध्वनि /समूह समूह सार्थक है। अंनुवाद संवादियों की सुविधा के लिए है। आज संपूर्ण वश्व व्यवस्था ‘अतिशय’ अतिशयता के बोझ से दबी है। अनुवाद भी भाषा को बोझिल बनाकर बोलने _सुनने वालों के बीच समस्याएँ खड़ी कररहा है। सादर प्रोफेसर आर एस ठाकुर मोतिहारी पूर्वी चम्पारण बिहार

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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