कविता के लिए अविश्वसनीय उपहार जयप्रकाश सावंत अनुवाद : गोरख थोरात |
इस आलेख द्वारा मैं अमेरिका में छपने वाली और कविता को समर्पित ‘पोएट्री’ नामक पत्रिका की एक दिलचस्प कहानी पेश करना चाहता हूँ, जिसके बहाने एक तरह से कविता का अप्रत्याशित और महती सम्मान हुआ. इस काव्य पत्रिका का नाम है ‘पोएट्री’. कविता के लिए समर्पित इस पत्रिका की शुरुआत 1912 में हैरियट मनरो द्वारा हुई थी और तब से, सौ से अधिक वर्षों से यह पत्रिका अखंडित रूप से छप रही है.
शिकागो और कविता, यह संबंध थोड़ा अजीब लग सकता है. हमारे हिसाब से शिकागो सिर्फ़ एक उद्योग-नगर है. उसकी पेरिस-लंदन- न्यू यॉर्क जैसी साहित्यिक छवि नहीं है. लेकिन कई जगहों पर यह तथ्य दर्ज है कि शिकागो में एक दौर में बहुत अच्छा साहित्यिक माहौल था. अप्टन सिंक्लेयर, कार्ल सैंडबर्ग, शेरवुड एंडरसन, सॉल बेलो आदि सभी शिकागो के साहित्यिक हैं. ‘पोएट्री’ से पहले साहित्यिक आलोचना को समर्पित ‘डायल’ साप्ताहिक पत्रिका शिकागो से ही छपती थी, और प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘लिटिल रिव्यू’ का आरंभ भी ‘पोएट्री’ के दो साल बाद शिकागो में ही हुआ था. (बाद में जेम्स जॉयस के ‘यूलिसिस’ का कुछ अंश छापने के लिए ‘लिटिल रिव्यू’ पर मुकदमा दायर हुआ और उसे बंद करना पड़ा. बाद में कुछ समय के लिए उसे पेरिस से चलाया गया था.)
सॉल बेलो का जन्म कनाडा में हुआ था. उनके पिता ने रूस से पलायन किया था. कुछ समय वे कनाडा में रहने के बाद वे शिकागो आ गए. बेलो को शिकागो से बहुत प्यार था. उनके संग्रह ‘इट ऑल अड्स अप’ के कुछ लेखों में शिकागो विश्वविद्यालय में उनके अध्ययन के दौर की अद्भुत संस्मरणात्मक तस्वीरें मिलती हैं. 1935 के आसपास बेलो और उनके दोस्त शिकागो में मामूली किराये के कमरे में रहते थे. उनके जीवन में साहित्य का केंद्रीय स्थान, महत्वपूर्ण पुस्तकों और पत्रिकाओं का व्यापक अध्ययन, उनकी नवजागृत राजनीतिक चेतना (बाद में वामपंथी विचारधारा के विरोधी बने सॉल बेलो उस दौर में ‘लेनिनवादी-ट्रॉट्स्कीवादी’ थे), साहित्य-राजनीति पर उत्स्फूर्त से बहसें– आदि के संदर्भ में शिकागो का वर्णन कर बेलो ने कहा है कि कुछ समय के लिए अमेरिका का साहित्यिक केंद्र वास्तव में शिकागो ही था, फिर वह न्यू यॉर्क शिफ़्ट हो गया. इन सारी बातों के संदर्भ में समय को लेकर आया उनका एक बयान अत्यंत हृदयस्पर्शी है, और यह बयान साठ के दशक में मुंबई में कॉलेज की पढ़ाई कर चुके मुझ जैसे किसी भी व्यक्ति के लिए परिचित महसूस हो सकता है. वह लिखते है, “हमारी स्टेनोग़्राफ़र बहनें काम से कमाया हुआ पैसा अपनी शादी के लिए बचाने के बजाय हमारी पढ़ाई पर खर्च करती थीं, जबकि हम पढ़ाई पर ध्यान देने के बजाय अन्य बातों में लगे रहते थे.”
2.
‘पोएट्री’ 2002 में अपने 90 वर्ष पूरे कर रही थी और इस तत्वावधान में पत्रिका के लम्बे इतिहास का जायज़ा लेने वाली एक किताब प्रकाशित करने की योजना 1998 में ही क्रियान्वित की गयी थी. ‘पोएट्री’ के तत्कालीन प्रधान संपादक जोसेफ़ पारिझी ने अपने सहयोगी स्टीफ़न यंग के साथ शिकागो विश्वविद्यालय और इंडियाना विश्वविद्यालय में सुरक्षित रखे गए ‘पोएट्री’ के दस्तावेज़ों का अध्ययन करना शुरू किया. उन्होंने लगभग आठ लाख दस्तावेज़ों का मुआयना किया. इससे उनके इस कार्य का दायरा समझ में आता है. उन्होंने इन दस्तावेज़ों में कवि और संपादक के बीच पत्राचार के 7000 पत्र अलग निकाले. उनकी दोबारा जाँच की और उनमें से ग्यारह सौ पत्र इस पुस्तक में छापने के लिए चुने.
धीरे-धीरे इस काम का दायरा बढ़ता गया. बाद में यह महसूस हुआ कि इसके लिए एक खंड पर्याप्त नहीं होगा. 2002 में ‘डियर एडिटर’ शीर्षक से बड़े आकार में 472 पृष्ठों का पहला खंड प्रकाशित हुआ, जो 1913 से 1962 तक के पहले 50 वर्षों पर केंद्रित था. इस खंड के लिए चयनित पत्रों में से लगभग 600 का उपयोग किया गया था. इसके चार साल बाद, ‘बिटवीन द लाइन्स’ शीर्षक से 428 पृष्ठों का दूसरा खंड प्रकाशित हुआ, जिसमें अगले 40 वर्षों का जायज़ा लिया गया था.
किसी पत्रिका या संगठन के इतिहास को कैसे प्रस्तुत किया जाना चाहिए; ये दोनों पुस्तकें इस बात का आदर्श और सटीक उदाहरण हैं. ये खंड न केवल पत्राचार के संग्रह हैं, बल्कि इनमें इस लंबी यात्रा के छोटे-बड़े कालखंड से लेकर उस दौर की अमेरिका की सामाजिक और राजनीतिक घटनाएँ, ‘पोएट्री’ पर उनका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव, विभिन्न चरणों में ‘पोएट्री’ को प्राप्त हुए विभिन्न संपादक और कवि, उनमें से कुछ के शब्दचित्र और तस्वीरें, उस दौर की बहसें और पत्रिका के सामने आई वित्तीय कठिनाइयाँ आदि सारी बातों की जानकारी अत्यंत रोचक रूप में दी गई है. इसमें छपा पत्राचार भी इतना दिलचस्प है कि इसके लिए अलग से लेख लिखना पड़ेगा. इसमें किसी कविता के प्रकाशन के लिए धन्यवाद देने वाले पत्र हैं, और साथ ही, कविताएँ अस्वीकार किए जाने पर ग़ुस्सा व्यक्त करने वाले पत्र भी हैं. इससे भी आश्चर्य की बात, इसमें ऐसे लोगों के पत्र भी हैं जो स्वीकृत कविताओं के लिए अग्रिम भुगतान की माँग करते हैं!
3.
केवल कविता के लिए समर्पित पत्रिका शुरू करना, उसमें छपी कविता के लिए मानदेय देना और कभी-कभी कवियों को ‘एडवान्स’ भुगतान करना; इन सारी बातों के आधार पर कोई भी यह सोच सकता है कि पत्रिका चलाने वाली हैरियट मनरो बहुत अमीर रही होगी. लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं थीं. पारिझी ने उन्हें एक असफल नाटककार, एक उपेक्षित कवि और एक संघर्षशील लेखिका के रूप में चित्रित किया है. कुछ समय तक वे शिकागो में ‘ट्रिब्यून’ अख़बार में कला-समीक्षक रहीं. इसी तरह विभिन्न विषयों पर लेख लिखकर उनकी आजीविका चल रही थी. इसलिए आश्चर्य की बात है कि ऐसी स्थिति में भी उनके मन में कविता के लिए समर्पित पत्रिका चलाने का विचार आया. इसके अलावा, जैसा कि पारिझी ने कहा, उनकी उम्र भी ऐसी नहीं थी कि वे ऐसी नई ज़िम्मेदारी उठा सकें. वे पचास की उम्र पार कर चुकी थीं (जन्म : 1860). लेकिन शिकागो के कई धनी उद्यमियों से उनका अच्छा परिचय था. उनका विश्वास था कि अगर हमें पहले पाँच वर्षों के लिए प्रति वर्ष 50 डॉलर का भुगतान करने वाले 100 लोग भी मिल जाएँ, तो उनके बल पर हम यह पत्रिका चला सकते हैं. और यह विश्वास ग़लत भी नहीं था.
जून 1912 तक उन्हें ऐसे 108 दाता प्राप्त हो चुके थे. मनरो ने कवियों को कविताएँ भेजने के लिए पत्र भेजें, उन्हें भी अच्छा प्रतिसाद मिला. एज़रा पाउंड उस समय लंदन में रह रहे थे. उन्होंने तो इस विचार का बहुत उत्साह से स्वागत किया. उन्होंने न केवल अपनी कविताएँ भेजीं, बल्कि मनरो को यह भी लिखा, “मैं यहाँ के कवियों से अच्छी तरह परिचित हूँ, इसलिए मैं दूसरों की कविताएँ भी पत्रिका के लिए भिजवाऊँगा.” एक तरह से पाउंड ‘पोएट्री’ के ‘फॉरेन करस्पाँडेंट’ बन गए. कुल मिलाकर वित्तीय सहायता और कुशल लेखन संयोजन के बल पर हैरियट मनरो ने एक वर्ष के भीतर अपनी परिकल्पना को साकार किया. ‘पोएट्री’ का पहला अंक अक्टूबर 1912 में प्रकाशित हुआ. इस 40 पृष्ठ के अंक का मूल्य था 15 सेंट. इसमें सात कविताएँ छपीं, जिनमें से दो एज़रा पाउंड की थीं. दो सप्ताह के भीतर इस अंक की 1000 प्रतियाँ बिकीं, और अतिरिक्त 1000 प्रतियाँ छापनी पड़ीं.
4.
बहुत ही कम समय में ‘पोएट्री’ ने अपनी ख़ास जगह बना ली. बाद में विख्यात हुए टी. एस. एलियट, वालेस स्टीवन्स, कार्ल सैंडबर्ग, विलियम कार्लोस विलियम्स, रॉबर्ट फ्रॉस्ट, एज़रा पाउंड जैसे कई कवि अपने प्रारंभिक दौर में ‘पोएट्री’ में प्रकाशित हुए थे. इनमें से कुछ की शुरुआत ही ‘पोएट्री’ से हुई थी. एलियट की पहली प्रकाशित कविता ‘पोएट्री’ (1915) में ही छपी थी, जिसका शीर्षक था, ‘लव साँग ऑफ़ जे. अल्फ़्रेड प्रूफ़ॉक’. बाद के दौर में भी ‘पोएट्री’ लगातार संबद्ध दौर के कवियों और कविता की धारा का प्रतिनिधित्व करती रही. कवियों के बीच यह पत्रिका इतनी लोकप्रिय हुई कि जल्द ही ‘पोएट्री’ में प्रतिदिन पचास यानि साल में लगभग 18 हज़ार कविताएँ आने लगीं. (2002 में यह संख्या 90 हज़ार प्रति वर्ष हो गई थी.)
जैसे कि पहले उल्लेख किया गया है, एज़रा पाउंड ने कई कवियों को ‘पोएट्री’ से परिचित कराया. एलियट और फ़्रॉस्ट को वे ही लाए. हमारी दृष्टि से कौतुहल का विषय– ‘पोएट्री’ को रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएँ भी पाउंड से ही प्राप्त हुई थीं. रवीन्द्रनाथ को नोबेल पुरस्कार प्राप्त होने से एक साल पहले, दिसंबर 1912 के अंक में उनकी कविताएँ छपी थीं. इस संबंध में एक मज़ेदार टिप्पणी ‘डियर एडिटर’ में है. इसमें हैरियट मनरो द्वारा 9 नवंबर 1912 को एज़रा पाउंड को लिखा एक पत्र छपा है. मनरो ने लिखा है – “यीट्स और टैगोर के लिए इकट्ठा ड्राफ़्ट भेज रही हूँ. इनमें से 75 डॉलर यीट्स को और बाक़ी (30 डॉलर) हिंदू कवि को दिए जाएँ!” (बाद में, नवंबर, 1913 में नोबेल पुरस्कार का स्वीकार करने जाते समय टैगोर शिकागो उतरे थे और हैरियट मनरो से मिले थे.)
हालाँकि, ‘पोएट्री’ को जिस तरह अविश्वसनीय साहित्यिक सफलता मिली, वैसी सफलता आर्थिक स्तर पर नहीं मिली. शुरुआती कुछ वर्ष छोड़ दें, तो यह पत्रिका हमेशा कठिनाइयों से जूझती रही. मनरो कविता प्रकाशित करने के लिए भुगतान भी बहुत अधिक करती थी : प्रति पृष्ठ 10 डॉलर! एक अंक का मूल्य 15 सेंट और वार्षिक सदस्यता चंदा डेढ़ डॉलर (जो बाद में बढ़कर ढाई से तीन डॉलर हो गया.) की तुलना में, यह काफ़ी बड़ी राशि थी. जोसेफ़ पारिझी के अनुसार, यह राशि उस दौर में अच्छे उद्योग में दिए जाने वाले दैनिक वेतन से चार गुना ज़्यादा थी. लेकिन हैरियट मनरो इससे पहले कला के क्षेत्र में काम कर चुकी थीं और तुलना में कवियों को मिलने वाले अल्प (और अक़्सर नहीं भी) मानदेय पर उन्हें अफ़सोस था. पत्रिका शुरू करने से पहले ही उन्होंने इस कमी को दूर करने का दृढ़ संकल्प किया था. इसके अलावा, पहले ही अंक में उन्होंने सर्वश्रेष्ठ कविता के लिए हर साल 250 डॉलर का पुरस्कार देने की भी घोषणा की थी. लेकिन यह सब हासिल करने के लिए पत्रिका को जितने चंदादाताओं की ज़रूरत थी, उतने चंदादाता उसे कभी नहीं मिल पाए. परिणामतः उसे लगातार पैसों की तंगी का सामना करना पड़ा.
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, कई प्रतिस्पर्धी पत्रिकाएँ बंद हो रही थीं, लेकिन ‘पोएट्री’ बची रही. मगर 1930 के दशक की मंदी में इसे लगभग बंद करने की नौबत आ गई थी. लेकिन कुछ दानवीर संगठनों की मदद से जीवित रहने में वह सफल रही. इस दौरान अपने एक संपादकीय में मनरो ने अफ़सोस जताते हुए लिखा है, “बीस साल के संघर्ष के बाद भी ‘पोएट्री’ को दुनिया के सबसे अमीर देश के 12 करोड़ नागरिकों में से 5000 भी सदस्य नहीं मिल सकते?” (भारत में कितनी पत्रिकाओं के संपादकों ने अपने आप से ये शब्द कहे होंगे!)
इसके बाद हैरियट मनरो ज़्यादा देर तक संसार में रह नहीं पाईं. ब्यूनस आयर्स में 1936 की पीइएन सम्मेलन से वापस लौटते समय वे एँडीज़ पर्वत में माचू-पिच्चू देखने गईं. वहाँ जाते वक्त उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई. उन्हें पेरू में ही दफ़नाया गया. मृत्यु के समय वे 76 वर्ष की थीं और 24 वर्षों तक उन्होंने ‘पोएट्री’ का नेतृत्व किया था.
‘पोएट्री’ के न्यासी, संपादक मंडल, पत्रिका से निकटता से जुड़े कवि; सभी ने मिलकर ‘पोएट्री’ का प्रकाशन जारी रखना चाहा. आगामी दौर में पत्रिका अपनी साहित्यिक प्रतिष्ठा के साथ प्रकाशित होती रही. लेकिन हर दशक में वह वित्तीय स्थिति में आपातकाल के कग़ार पर आ जाती और किसी फाऊंडेशन की अस्थायी मदद से उबरती. आख़िरकार 90 साल की होते-होते उसके वित्तीय संकट का समापन किसी परिकथा की तरह अद्भुत ढंग से हुआ.
5.
15 नवंबर, 2002 : ‘पोएट्री’ की 90वीं वर्षगांठ पर 200 विशेष आमंत्रितों को दावत दी गई. एक दिन पहले आयोजित समारोह में ‘डियर एडिटर’ के पहले खंड के कुछ पत्र पढ़े गए. आज की दावत में उन लोगों को सार्वजनिक रूप से धन्यवाद दिया गया, जिन्होंने पिछले 90 वर्षों में ‘पोएट्री’ की मदद की थी. इनमें एक दानशूर महिला रूथ लिली का भी उल्लेख किया गया, जिन्होंने हाल ही के दिनों में ‘पोएट्री फ़ेलोशिप’ जैसी परियोजनाओं के लिए छोटे-बड़े दान दिए थे. जोसेफ़ पारिझी ने दूसरे खंड ‘बिटवीन द लाइन्स’ के पहले अध्याय में इस समारोह का दिलचस्प विवरण दिया है. उन्होंने लिखा है, रूथ लिली के बारे में बात करते समय कई लोगों के ध्यान में नहीं आया कि आमंत्रित लोगों के सामने टेबल पर कॉफ़ी मग के बगल में शैंपेन के गिलास रखे जा रहे हैं. और अचानक मंच से रूथ लिली द्वारा कविता के लिए एक नए अविश्वसनीय चंदे की घोषणा की गई. यह चंदा कितना होगा? सौ मिलियन डॉलर! चंदे का एक नया कीर्तिमान, जो किसी भी पत्रिका को अब तक नहीं मिला हो. पूरा आसमान तालियों की गड़गड़ाहट और शैंपेन की बोतलों के ढक्कन उड़ने की आवाजों से भर गया…
रूथ लिली एक प्रभावशाली दवा कंपनी ‘एली लिली’ के संस्थापक की एकमात्र उत्तराधिकारी थीं. इस समय वह 87 वर्ष की थीं. उन्होंने कई अन्य परियोजनाओं और संगठनों को भी चंदा दिया था. साहित्य के लिए दिए गए इस अभिनव चंदे की एक और अनन्यता ग़ौरतलब है. श्रीमती लिली ने पहले कभी ‘पोएट्री’ को अपनी कुछ कविताएँ भेजी थीं और ‘पोएट्री’ ने उन्हें ‘सधन्यवाद’ लौटा दिया था. लेकिन लौटाते समय संपादक का पत्र इतना सहृदयपूर्ण था कि लिली का पत्रिका के प्रति स्नेह और भी बढ़ गया. ‘शिकागो ट्रिब्युन’ ने इस अद्भुत कार्य की सराहना करते हुए, आठ चरणों की कविता के रूप में इसका संपादकीय लिखा था, जिसका शीर्षक था, “बिना दिल तोड़े अस्वीकार का फल मिलता ही है!”
इस अध्याय के शेष भाग में, साथ ही ‘बिटवीन द लाइन्स’ के अंतिम अध्याय में, जोसेफ़ पारिझी का इस चंदे के बारे में दिया विवरण पठनीय है. हमारे यहाँ जिस तरह किसी भी मुद्दे पर दो पक्ष बन जाते हैं और विशुद्ध वितंडावाद शुरू होता है, वहाँ भी यही हुआ. इस चंदे को लेकर कई अख़बारों और पत्रिकाओं की ओर से आलोचना भी हुई. पारिझी ने इसे भी विस्तार से बताया है. एक ने लिखा था, “एक ही पत्रिका को इतनी बड़ी राशि देने के बजाय, अगर उसे 500 कविता-पत्रिकाओं में वितरित की जाती तो?”, “अच्छी कविता का पैसे से क्या लेना-देना?”, “कुल आबादी के कितने प्रतिशत लोग कविता पढ़ते हैं?” आदि आदि.
लेकिन बधाई देने वालों की तुलना में ऐसी आपत्तियाँ दर्ज करने वालों की संख्या कम थी. ‘पोएट्री’ के दफ्तर को तो मीडिया वालों ने घेर ही रखा था. पत्रिका पर काम करने के लिए शांत माहौल की ज़रूरत होती है. इसके लिए पारिझी पांडुलिपियाँ लेकर सडक के कोने के एक कैफ़े में जा बैठते थे! एक क़िस्सा बेहद मज़ेदार है. चंदे की घोषणा के अगले दिन, शिकागो के एक स्थानीय चैनल से एक रिपोर्टर-कैमरामैन की जोड़ी पारिझी का इंटरव्यू करने आई. जाते समय कैमरामैन ने उसके हाथ में एक इस्टेट एजेंट का विजिटिंग कार्ड रखा. जैसे ही पारिझी ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा, उसने कहा, “मेरी ग़र्लफ़्रेंड इस्टेट एजेंट है. अब आपको एक बड़ी जगह की आवश्यकता होगी न?”
6.
लेख के अंत में मैं एक बार फिर ‘पोएट्री’ के शुरुआती दौर में प्रवेश करता हूँ. 10 मार्च, 1913 को हैरियट मनरो को लिखे एक पत्र में, एज़रा पाउंड ने कहा था,
“मैं चाहता हूँ कि इस पत्रिका की फ़ाइलें 1999 में भी मूल्यवान साबित हों और बेची जाएँ. कितना पागलपन भरा (Quixotic) विचार है न? और कितना स्वप्निल भी?”
कहने की इच्छा होती है कि ‘पोएट्री’ पत्रिका, जो अभी भी शान से छप रही है, हैरियट मनरो-एज़रा पाउंड के साकार हुए सपने जैसी ही है.
संदर्भ :
It All Adds Up: Saul Bellow, Viking, 1944.
Dear Editor: (Ed.) Joseph Parisi and Stephen Young, W.W. Norton and Co., 2002
Between the Lines: (Ed.) Joseph Parisi and Stephen Young, Ivan R. Dee, 2006
![]() जन्म १९४८, मुंबई.
अस्सी से ज़्यादा समकालीन हिंदी कहानियों के मराठी में अनुवाद। साथ में अनेक कविता ओं के और एक उपन्यास का भी। उदय प्रकाश और रघुनंदन त्रिवेदी के कहानियों के अनुवाद पुस्तक रूप से प्रकाशित. अलका सरावगी के उपन्यास ‘कलिकथा वाया बायपास’ के अनुवाद के लिए साहित्य अकादेमी का अनुवाद पुरस्कार। पुस्तकों और लेखकों के बारे में मराठी में स्वतंत्र आलेखों का एक संकलन ‘पुस्तकनाद’ शीर्षक से प्रकाशित, जिसका हिंदी अनुवाद भी प्रकाश्य है।
ई-मेल : jsawant48@gmail.com
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गोरख थोरात 1969 ![]() महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादमी मामा वरेरकर अनुवाद पुरस्कार, अमर उजाला ‘भाषा बंधु’ पुरस्कार, Valley of Words International Literature and Arts Festival, 2019 Dehradun का श्रेष्ठ अनुवाद पुरस्कार, बैंक ऑफ बड़ोदा का राष्ट्रभाषा सम्मान आदि से सम्मानित. gnthorat65@gmail.com |
वाह! यह पत्रिकाएँ मिशन स्तर की सनक से चलतीं हैं और पहले 24 साल और फिर 90 साल भी चल जातीं है। लोग प्यार से चलाते हैं। हमारे यहाँ भी व्यापक संभावनाएं हैं – इस तरह के संपादकीय पागलपन की भी और दान की भी। 90 साल का इंतजार – कितना लंबा!!
जरूरी आलेख। साहित्य के प्रति अनुराग जगाने वाला भी ।
हम अपढ़ और कुपढ़ समाज हैं ।सोशल मीडिया के दौर में तो कुपढ़ भी नहीं। ऐसे में साहित्य और खासकर कविता के संबंध में इस तरह से कुछ नवाचारी सोचना हमारे समाज के बूते में नहीं है।
हिंदी जगत को ‘पोएट्री’ के उद्भव और संघर्ष से परिचित कराने के लिए ‘समालोचन’ को और विशेष रूप से श्री अरुण देव जी को तथा लेखक श्री सावंत को एवं अनुवादकर्ता श्री गोरख थोरात को बहुत बधाई।
“समालोचन” को ‘पोएट्री ‘ की तरह बड़ा दान शायद न मिले पर यदि आप ऑनलाइन सदस्यता फॉर्म जारी करें तो कम से कम सालाना दस हज़ार रूपये दान देकर सदस्य बनने वाले कम से कम सौ -दो सौ उच्च मध्यवर्ग के शिक्षक और फेलोशिप पाने वाले अनेक शोध छात्र मिल जाएंगे. फेलोशिप पाने वाले छात्रों के लिए सदस्यता राशि आधी रखने पर भी हमलोग विचार कर सकते हैं. संभव है कुछ और लोग भी जुड़ें.
सदस्यता फार्म में साफ़ लिखा होना ज़रूरी है कि सदस्यता का पत्रिका में प्रकाशन से कोई संबंध नहीं है.
कुछ मित्रों से बातचीत करके एक ऑनलाइन बैठक करने के बारे में विचार कीजिए.
अंग्रेज़ी में कहावत है -‘There is no free lunch.’ आज जब न्यूयार्क टाइम्स या भारत में The Hindu जैसा बड़ा अख़बार भी बिना भुगतान किए पूरा पढ़ने को उपलब्ध नहीं है,ख़ासकर पुरानी फ़ाइल तो हरगिज़ नहीं,तो हम समालोचन क्यों मुफ़्त में पढ़ें.
ये एक शानदार लेख है। जिसमें कविता केंद्रित पत्रिका अपनी लगभग अविश्वसनीय यात्रा तय करती है।
पवन करण