विटामिन ज़िन्दगी रवि रंजन |
आत्मकथा का लेखक प्रदत्त सामाजिक परिवेश में अपने स्वतंत्र अस्तित्व एवं अपनी छवि को एक प्रकार की जीवन्तता प्रदान करते हुए लेखन-क्रम में वह स्वयं को देखते हुए ख़ुद को अपने लिए साक्षी के रूप में प्रस्तुत करता है. वस्तुत: आत्मकथा, जीवनी, स्मारक, शिलालेख, प्रतिमा आदि मनुष्य की इच्छा का एक प्रकटीकरण है कि वह लोगों की स्मृति में बना रहे. साहित्य, कला, विज्ञान आदि क्षेत्रों में किसी मुक़ाम पर पहुँचे हुए लोग अपनी ज़िन्दगी के रचनात्मक वर्णन-चित्रण के माध्यम से एक प्रकार की अमरता प्राप्त करते हैं. अगर उनके चित्रण में जीवन्तता होती है तो उनकी आत्मकथा को युग-युगांतर तक याद किया जाता है.
ईमानदार आत्मकथा-लेखन उस सांस्कृतिक परिदृश्य में संभव नहीं होता जहाँ मनुष्य आत्मचेतस न हो. इतना ही नहीं,आत्मकथा केवल कुछ दार्शनिक पूर्व शर्तों के तहत ही संभव हो पाती है. वह व्यक्ति जो स्वयं के बारे में बताने का प्रयास करता है, वह जानता है कि वर्तमान अतीत से भिन्न है और यह भविष्य में दोहराया नहीं जाएगा. वह समानताओं की बनिस्बत भिन्नता के प्रति अधिक जागरूक होता है. जीवनस्थितियों में होने वाले निरंतर परिवर्तनों, घटनाओं और अनिश्चितताओं को देखते हुए वह अपनी छवि को स्थिर करना मूल्यवान मानता है, ताकि वह इस दुनिया की सभी चीजों की तरह ग़ायब न हो जाए. इतिहास मानवता की विकास-यात्रा में पैदा हुई स्मृति का एक अनिवार्य तत्त्व है और जाहिर है कि वह विकसनशील होता है. मनुष्य में आत्मकथा लिखने की प्रेरणा इस बात का प्रमाण है कि प्रत्येक व्यक्ति दुनिया के लिए मायने रखता है और हरेक के बारे में स्वयं की गवाही सामान्य सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध करती है.
व्यक्ति के जीवन की एकरूपता के बरअक्स आत्मकथाकार की सचेत जागरूकता सभ्यता के विकास के दौरान बहुत बाद में संभव हुई है. इतिहास साक्षी है कि व्यक्ति स्वयं को प्राय: अन्य के विरोध में नहीं देखता. वह स्वयं को दूसरों से अलग या उनके खिलाफ़ नहीं, बल्कि दूसरों के साथ एक परस्पर निर्भर अस्तित्व में महसूस करने का आकांक्षी होता है. इससे वह उस सामूहिक जीवन की लय में घुलामिला अनुभव करता है जिसकी दरकार हमसब को होती है. जाहिर है कि हममें से किसी का जीवन या मृत्यु अपने हाथ में नहीं है. जीवन के विभिन्न संदर्भ इतने गहरे रूप से उलझे हुए हैं कि प्रत्येक का केंद्र हर जगह है और उसकी परिधि कहीं नहीं है. हमारा सामुदायिक जीवन एक महान नाटक की तरह सामने आता है, जिसके चरम क्षण मूल रूप से प्रकृति द्वारा निर्धारित किए गए हैं और युग-युग तक दोहराए जाते हैं. इस प्रकार, प्रत्येक व्यक्ति एक भूमिका अदा करता हुआ प्रतीत होता है, जो भूमिका पहले से ही पूर्वजों द्वारा निभाई जा चुकी है और वंशजों द्वारा फिर से निभाई जाएगी. इस तरह मनुष्य – समुदाय रोज-ब-रोज लोगों के मरने और पैदा होने के बावजूद एक सतत आत्म-पहचान बनाए रखता है. लेकिन इसी समुदाय में कभी-कभार कुछ ऐसे लोग जन्म लेते हैं जो विपरीत स्थितियों में भी अपनी संघर्षशीलता और अपने जीवट के बल पर पहले से चले आ रहे ढर्रे को बदलने की कोशिश करते हैं जिससे उनके समुदाय के अन्य सदस्यों में भी संघर्ष-चेतना पैदा होती है.
ललित कुमार की ‘विटामिन ज़िन्दगी’ शीर्षक से प्रकाशित आत्मकथा कुछ इसी तरह की कृति है जिससे गुज़रते हुए शिद्दत से महसूस होता है कि वे प्राकृतिक या बीमारी आदि की वजह से शरीर से अक्षम हो गए लोगों के बारे में समाज में प्रचलित उस लोकप्रिय धारणा का प्रत्याख्यान करने का माद्दा रखते हैं जिससे भविष्य में कोई विकलांग मनुष्य हीनता ग्रंथि का शिकार होने से बचते हुए समाज में सम्मानपूर्वक ज़िन्दगी जी सके.
कहना न होगा कि हमारे आसपास ऐसे अनेक लोग, वर्ग और समुदाय हैं जिनको अपनी तंग-नज़री की वजह से हम देखकर भी पूरी तरह से नहीं देख पाते. जबकि ज़रूरत एक ऐसे इंसानी नज़रिए के विकास की है जिसमें सबकी प्रतिष्ठा सुनिश्चित हो सके:
है हक़ीक़त-बीं निगाहों की कमी इस दौर में
तंग-नज़री से मुबर्रा क्या कोई महफ़िल नहीं
महरौली,दिल्ली के अतिसामान्य बढ़ई परिवार में जन्मे और दुर्भाग्यवश बचपन में पोलियो का शिकार हो जाने के कारण दोनों पैरों से चलने की क्षमता गँवा बैठेने के बावजूद ज़िन्दगी के हर मोर्चे पर अनेकानेक दुश्वारियों का बहादुरी से सामना करते हुए पलेबढ़े ‘असामान्य से असाधारण तक’ की अपनी जीवन-यात्रा का अनोखा चित्रण प्रस्तुत करने के दौरान ललित कुमार जी ने परम्परा से भारतीय समाज में प्रचलित उन दुराग्रहों का कच्चा चिट्ठा खोलकर पाठकों के सामने रख दिया है जिनसे आम लोगों के साथ ही जाने-अनजाने प्रबुद्ध वर्ग भी ग्रस्त रहा है. उनकी यह आत्मकथा विकलांग जनों के प्रति भेदभाव का आक्रोशपूर्ण या सपाट चित्रण करने के बजाय उसके पीछे के मनोविज्ञान के रग-रेशे की पड़ताल करती है.
क्या यह बात आज ढँकी-छुपी है कि अतीत से लेकर हाल हाल तक भारतीय समाज के वर्चस्वशाली तबके में तथाकथित निम्न जातियों, स्त्रियों और बदकिस्मती से जन्मना या किसी और वजह से विकलांग हो गए लोगों को लेकर कैसे-कैसे पूर्वग्रह प्रचलित रहे हैं. अगर सिर्फ़ एक उदाहरण देकर अपनी बात कहनी हो तो गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘रामचरितमानस’ में मंथरा के बारे के दिए गए वक्तव्य को देखा जा सकता है जो विकलांगों के साथ-साथ ग़रीब कामगारों और ख़ासकर स्त्रियों को लेकर सामन्ती समाज में प्रचलित अमानवीय धारणा को खोलकर रख देता है :
काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि .
तिय बिसेषि पुनिचेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥
(कानों, लंगड़ों और कूबड़े को कुटिल तथा कुचाली समझना चाहिए. उनमें भी स्त्री और ख़ासकर दासी! इतना कहकर भरत की माता कैकेयी मुस्कुरा पड़ीं. )
कहना न होगा कि हिंदू पौराणिक कथाओं में विकलांग लोगों का चित्रण बेहद स्टीरियोटाइप है. इसमें विकलांग पुरुषों और स्त्रियों की कथित क्षमताओं के संदर्भ में जबरदस्त लैंगिक पूर्वाग्रह भी दिखाई देता है. हिंदू मिथकों में कुछ मामलों में विकलांग पुरुष शक्तिशाली और सक्षम लोग होते हैं. हालांकि, महाभारत युद्ध में नेत्रहीन राजा धृतराष्ट्र और शारीरिक रूप से अक्षम शकुनी बुरी ताक़तों के साथ खड़े होते हैं. इस तरह के शक्तिशाली लेकिन दुष्ट और क्रूर विकलांग पुरुषों की छवियां तैमूर लंग सरीखे ऐतिहासिक चरित्रों द्वारा और पुष्ट हुई हैं. इसके विपरीत, हिंदू पौराणिक कथाओं में विकलांग स्त्रियाँ पूरी तरह अप्रासंगिक हैं. मंथरा के साथ-साथ एक और उदाहरण कार्तिक पूर्णिमा की कथा में आता है, जहां भगवान विष्णु ने लक्ष्मी की बड़ी बहन जो विकलांग हैं उनसे यह कहते हुए विवाह करने से इनकार कर दिया था कि स्वर्ग में विकलांग लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है. नतीज़तन उनका विवाह एक पीपल के पेड़ से कर दिया गया.
भारत में विकलांगता को लेकर धार्मिक साहित्य में कर्म-सिद्धांत को रेखांकित किया गया है, जिसमें विकलांगता को या तो पिछले जन्मों में किए गए कुकर्मों की सजा या उनके माता-पिता के गलत कार्यों के नतीज़े के रूप में देखा जाता रहा है. प्राचीन भारतीय वांग्मय में कहा गया है कि एक गहरे गंभीर और आध्यात्मिक स्तर पर विकलांगता दैवीय न्याय का प्रतिनिधित्व करती है. अमूमन लौकिक जीवन–व्यवहार में भी विकलांग लोगों को परंपरागत रूप से अशुभ माना जाता रहा है. गुणात्मक रूप से उत्कृष्ट माने गए अनेक शोधों में भारत में विकलांग लोगों के काफी हद तक सामाजिक हाशिए पर होने की बात कही गयी है. हालांकि अधिकांश विद्वान यह भी स्वीकार करते हैं कि विकलांग व्यक्ति के परिवार की सामाजिक स्थिति का उनकी सामाजिक स्वीकृति पर प्रभाव पड़ता है. ललित कुमार की आत्मकथा में भी ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं जिनमें लेखक के सगे-सम्बन्धियों और पिता के इष्टमित्रों से लेकर स्कूल के अध्यापकों द्वारा उसकी बाल्यावस्था और किशोरावस्था में यह कहते हुए पाया जा सकता है कि उसकी विकलांगता बीमारी के बजाए पिछले जन्म के उसके किसी गुनाह या पाप की सज़ा है.
यह कड़वा सच है कि प्राय: समाज, परिवार और स्वयं विकलांग व्यक्तियों (PWD) के दृष्टिकोण उनकी अक्षमताओं को विकलांगता में बदलने में योगदान देते हैं. भारत में हुए शोध से लगातार विकलांग लोगों के सामाजिक हाशिए पर होने की बात को उजागर हुई है. विशिष्ट समाजों के दृष्टिकोण विकलांगता की तीव्रता (अर्थात, किसी विशेष प्रकार या स्तर की अक्षमता कितनी अक्षम करने वाली हो जाती है) और उन क्षेत्रों का आकलन करने में महत्वपूर्ण हैं, जहाँ सामूहिक कार्रवाई विकलांग समुदाय के लिए विफल हो सकती है और इसलिए सार्वजनिक कार्रवाई वांछनीय हो सकती है. सामान्य समाज के दृष्टिकोण के अलावा कुछ मामलों में विकलांग व्यक्तियों और उनके परिवारों के दृष्टिकोण भी और अधिक महत्वपूर्ण हैं. सच तो यह है कि विभिन्न दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से एक-दूसरे के साथ परस्पर अंत:क्रिया करते हैं, जिससे दुष्परिणामस्वरूप व्यापक समुदाय में विकलांग लोगों के बारे में नकारात्मक विचार अक्सर विकलांग व्यक्तियों और उनके परिवार के सदस्यों द्वारा जाने-अनजाने आत्मसात कर लिए जाते हैं.
इस विमर्श के आलोक में ललित कुमार की आत्मकथा ‘विटामिन ज़िन्दगी’ पर नज़र दौड़ाने पर उसमें ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं जिनसे पुष्ट है कि कैसे हमारा समाज पूर्वग्रहग्रस्त कि यदि किसी विकलांग व्यक्ति ने जीवन में कुछ पाया है तो वह उसकी योग्यता के बजाय विकलांगता की वजह से संभव हुआ है.
जब ‘सर्वश्रेष्ठ छात्र’ के रूप में पुरस्कार प्रदान किए जाने की उद्घोषणा में अपना नाम सुनकर ललित कुमार प्रसन्न मुद्रा में मंच पर जाने के लिए अपनी बैसाखी पर खड़े होने की कोशिश कर रहे थे तो उन्हें पीछे से अपने एक सहपाठी की आवाज़ सुनाई दी : “अबे . . . इसे तो ये इनाम इसलिए मिला है क्योंकि यह लंगड़ा है. ’ उस क्षण की अपनी मनोदशा का वर्णन करते हुए आत्मकथाकार ने लिखा है :
“पुरस्कार मिलने की ख़ुशी में धड़कता मेरा दिल जैसे अचानक रुक गया. . . अचानक मैंने अपने चारों ओर उसी सन्नाटे और ख़ालीपन को महसूस किया जो इस तरह की बातें सुनाई देने पर मुझे अपने आग़ोश में ले लेता है. मुझे लग रहा था जैसे मेरा दिमाग़ सुन्न हो गया हो. . . मानो किसी ने मेरे पूरे वजूद को एक झटके में मिटा दिया हो. . . कोई विकलांग व्यक्ति भी किसी ऊँचाई को छू सकता है – ऐसी कल्पना मेरा समाज कर ही नहीं सकता था. ” (पृ. 19)
गौरतलब है कि विकलांगता एक ऐसी स्थिति है जो किसी व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक या संवेदी क्षमताओं को प्रभावित करती है, लेकिन यह उनकी क्षमता, योग्यता या मानवीय मूल्य को कम नहीं करती. फिर भी, समाज में अज्ञानतावश विकलांगजनों के प्रति अक्सर नकारात्मक धारणाएँ और रूढ़ियाँ प्रचलित हैं. ये धारणाएँ न केवल उनके आत्मविश्वास को प्रभावित करती हैं, बल्कि उनके सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक अवसरों को भी सीमित करती हैं. इसलिए, समाज की इस सोच में बदलाव की आवश्यकता है, ताकि विकलांग-जन समानता और सम्मान के साथ जीवन जी सकें. इसके लिए पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम है समाज में जागरूकता फैलाना. अक्सर लोग विकलांगता को कमजोरी या असमर्थता के रूप में देखते हैं, जो ग़लत है. विकलांग व्यक्ति अपनी विशेष क्षमताओं के साथ समाज में योगदान दे सकते हैं. उदाहरण के लिए, मोटर न्यूरॉन बीमारी से ग्रस्त विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने अपनी बौद्धिक क्षमता से विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति ला दी. जागरूकता अभियानों, स्कूलों में शिक्षण और मीडिया के माध्यम से यह संदेश देना जरूरी है कि विकलांगता एक सीमा नहीं, बल्कि विविधता का हिस्सा है.
इसके साथ ही शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में समावेशी नीतियों को लागू करना आवश्यक है. ‘विटामिन ज़िंदगी’ में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनसे पता चलता है कि विकलांग व्यक्तियों को स्कूलों या कार्यस्थलों पर प्राय: उचित अवसर नहीं मिलते. इससे निबटने के लिए समावेशी शिक्षा प्रणाली के तहत विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों के लिए उपयुक्त संसाधन और प्रशिक्षित शिक्षक उपलब्ध कराए जाने चाहिए. साथ ही, कार्यस्थलों पर रैंप, ब्रेल सामग्री,लिपिक और सुलभ तकनीकों जैसी सुविधाएँ सुनिश्चित की जानी चाहिए. इससे न केवल उनकी आत्मनिर्भरता बढ़ेगी, बल्कि समाज में उनकी भागीदारी भी मजबूत होगी. अपने स्कूल में एक विकलांग छात्र के रूप में पैदा हुई चुनौतियों का ज़िक्र करते हुए ललित कुमार ने लिखा है:
“तीसरी कक्षा तक आते–आते मैंने बैसाखियों का प्रयोग करके चलना सीख लिया था. . . तीसरी कक्षा के पहले दिन स्कूल पहुँचते ही,अन्य छात्रों के विपरीत, मैंने एक अनपेक्षित और बड़ी चुनौती का सामना किया. तीसरी कक्षा का कमरा स्कूल की इमारत में पहली मंजिल पर था. . . . इस स्कूल की इमारत कभी यह सोचकर नहीं बनाई गयी थी कि. . . उस स्कूल में एक छोटा बच्चा बैसाखियों पर चलता हुआ भी आ सकता है. यह एक बहुत पुरानी दो मंजिला इमारत थी. उपरी मंजिलों तक जाने के लिए एकदम खड़ी और बहुत संकीर्ण सीढ़ियाँ बनाई गयीं थीं. ” (पृ. 57)
जब ललित कुमार ने कॉलेज में दाख़िला करवाया, तो वहाँ भी विकलांगों के लिए मुश्किलें कम न थीं. कॉलेज की तीन मंजिला इमारत में कई कक्षाएँ तीसरी मंजिल पर लगती थीं.
”एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने के लिए क़रीब 20-25 सीढ़ियाँ थीं और इन सीढ़ियों पर हमेशा छात्र-छात्राएँ बैठे और आते-जाते रहते थे. ऐसी स्थिति में सीढ़ियाँ चढ़ना –उतरना टेढ़ी खीर थी. . . एक बार ऐसा हुआ कि सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मेरे हाथों से बैसाखियाँ छूटकर गिर पड़ीं. . . . मेरे मन में हमेशा डर रहता था कि मैं अब गिरा कि तब गिरा. ”(पृ. 160).
गौरतलब है कि समाज में विकलांगजनों को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए उन्हें भौतिक सुविधाएँ मुहैया कराने के साथ ही प्रचलित सामाजिक और सांस्कृतिक रूढ़ियों को तोड़ना जरूरी है. कई बार लोग विकलांग व्यक्तियों के प्रति दया या सहानुभूति दिखाते हैं, जो उनकी गरिमा को ठेस पहुँचाती है. इसके बजाय, हमें उनकी स्वतंत्रता, निर्णय लेने की क्षमता और व्यक्तिगत उपलब्धियों को महत्व देना चाहिए. सिनेमा, साहित्य और अन्य कला माध्यमों में विकलांग व्यक्तियों को सकारात्मक और सशक्त किरदारों के रूप में चित्रित करना इस दिशा में एक प्रभावी कदम हो सकता है. विकलांगजनों के प्रति समाज की धारणा में बदलाव लाने के लिए शिक्षा, जागरूकता, समावेशी नीतियाँ और सकारात्मक प्रतिनिधित्व जरूरी हैं. जब समाज उनकी क्षमताओं को स्वीकार करेगा और उन्हें समान अवसर प्रदान करेगा, तभी हम एक सच्चे समावेशी समाज की ओर बढ़ सकेंगे. यह बदलाव न केवल विकलांग व्यक्तियों के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए एक समृद्ध और मानवीय भविष्य का निर्माण करेगा.
भारत में ‘विकलांग व्यक्ति के अधिकार अधिनियम 2016’ में समानता और गैर-भेदभाव की बात पर जोर देते हुए कहा गया है कि सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि विकलांग व्यक्तियों को समानता, सम्मान के साथ जीवन और दूसरों के समान ही अपनी ईमानदारी के लिए सम्मान का अधिकार प्राप्त हो. इसमें स्पष्ट निर्देश है कि विकलांग व्यक्तियों को उचित वातावरण प्रदान करके उनकी क्षमता का उपयोग करने के लिए सरकार हर कदम उठाएगी. इतना ही नहीं, किसी भी विकलांग व्यक्ति के साथ विकलांगता के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा और किसी भी व्यक्ति को केवल विकलांगता के आधार पर उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा. इसमें विकलांगता के आधार पर किए भेदभाव को दंडनीय अपराध माना गया है. लेकिन अपने देश में इसके प्रभावी कार्यान्वयन की आवश्यकता है. सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि विकलांग व्यक्तियों को उनके अधिकार, जैसे सुलभ परिवहन, स्वास्थ्य सेवाएँ और सामाजिक सुरक्षा आदि आसानी से प्राप्त हों.
इस आत्मकथा में ऐसे अनेक पारिवारिक एवं सामाजिक प्रसंग अनुस्यूत हैं जिनसे गुज़रते हुए शिद्दत के साथ अहसास होता है कि अमूमन विकलांगों का या तो मजाक उड़ाया जाता है या उन्हें दया का पात्र समझा जाता है. चूँकि ललित कुमार के लिए बहुत देर खड़ा रहना संभव न था, इसलिए उन्हें स्कूल में सुबह होने वाली प्रार्थना सभा में गैरहाज़िर रहने की छूट मिली हुई थी. उनके सहपाठी ताना मारते हुए कहते थे:
“’तेरे तो बड़े मजे हैं, प्रार्थना में नहीं जाना पड़ता’. . . . अन्य छात्रों को प्रार्थना सभा एक सज़ा की तरह लगती थी और इसलिए वे अक्सर मुझसे कहते थे कि मेरा लंगड़ापन वास्तव में मेरे लिए ‘वरदान’ था जिससे मुझे वो ‘मज़े’ मिलते थे जो उन्हें नहीं मिलते. इस तरह की छींटाकशी रोज़ की बात थी और इससे मेरे मन को चोट लगती थी. मेरे आत्मविश्वास और आत्मसम्मान पर पड़नेवाली इन चोटों को मुझे रोज़ सहना पड़ता था, इसके अलावा मेरे पास कोई रास्ता भी तो नहीं था. . . मेरी बैसाखी छीन लेना मुझे तंग करने का सबसे पसंदीदा तरीक़ा था. फिर वे बैसाखी को एक राइफ़ल की तरह पकड़कर एक-दूसरे से कहते कि हम सब को ‘लंगड़े ललित’ से डरना चाहिए, क्योंकि उसके पास बन्दूक है. यहाँ तक कि स्कूल के अध्यापकों को भी मेरी बैसाखियाँ मनोरंजक लगती थीं. . . मैं यह भी नहीं समझ सका कि छात्रों ने इस मज़ाक को अध्यापकों से सीखा था या अध्यापकों ने छात्रों से सुनकर इसे अपनाया था. ” (पृ. 61-63)
छात्रों के साथ-साथ ख़ासतौर पर अध्यापकों के शर्मनाक रवैये की ओर इंगित करते हुए आत्मकथाकार ने लिखा है :
“जब सभा चल रही होती थी तो एक–दो अध्यापक स्कूल के सभी कमरों का निरीक्षण करने आते थे ताकि छुपे हुए छात्रों को प्रार्थना सभा की ओर धकेल सकें. ये अध्यापक मुझे रोज़ खिड़की के पास बैठा देखते थे. वे जानते थे कि प्रिंसिपल महोदय की ओर से मुझे प्रार्थना-सभा में न जाने की अनुमति मिली हुई है, इसके बावजूद वे अध्यापक भी मेरी विकलांगता और प्रार्थना-सभा के सन्दर्भ में कभी-कभी ऐसी बातें कह देते थे जिनसे मेरा बालमन बहुत अधिक दुखता था. ”(पृ. 61)
एक अन्य सन्दर्भ में ज़िक्र है कि कैसे स्कूल में किसी सहपाठी द्वारा बैसाखी छीन लेने की बात पता चलने पर अध्यापक ने शरारती छात्र को सीधे डांटने के बजाए कहा कि उसने परेशान करने के लिए ग़लत आदमी का चुनाव किया है. लेखक का एक वक्तव्य दिल दहलाने वाला है कि
“यदि संयोगवश कोई एक दिन ऐसा बीत जाता था जिस दिन मेरा मज़ाक न उड़ाया जाए तो उस दिन मैं बहुत अधिक चैन का अनुभव करता था. ”
यह कृति रचनाकार की सहज-स्वाभाविक वर्ग -चेतना की भी पहचान करती है. अगर ऐसा न होता तो वह अपने सहपाठियों के जाति-बिरादरी, परिवार की कमाई, परिवार के सामाजिक रुतबे आदि के आधार पर बंटे होने की चर्चा न करता. आत्मकथा में विस्तार से बतलाया गया है कि बचपन में जिस स्कूल में लेखक जाता था उसमें दुकानदारों के बच्चे भी अपने को ‘ऊँचा’ मानते थे, क्योंकि क्लास में बहुत से छात्रों के पिता रिक्शाचालक, चपरासी, मैकेनिक जैसे कम आय वाले काम करते थे. इतना ही नहीं, स्कूल में बच्चे अक्सर जाति और आर्थिक स्थिति को आधार बनाकर एक-दूसरे का मज़ाक उड़ाते थे. यह आकस्मिक नहीं कि उनमें से ज़्यादातर छात्रों का एकमात्र उद्देश्य आठवीं कक्षा में उत्तीर्ण होने का प्रमाण-पत्र हासिल करना था. उनके अभिभावकों को लगता था कि इसके बाद उनकी कोई न कोई सरकारी नौकरी ज़रूर लग जाएगी. यह अलग बात है कि उनमें से ज़्यादातर ने बीस-पच्चीस साल की उम्र तक गलियों में आवारा घूमते रहने के बाद मेहनत-मजदूरी का काम पकड़ा.
लेखक ने अपनी निम्नवर्गीय पारिवारिक पृष्ठभूमि का भी विस्तार से वर्णन करते हुए बताया है कि रोज़-ब-रोज़ कमाने-खाने वाले परिवार की कमजोर माली हालत की वजह से परिवार में शिक्षा पर कोई ख़ास ध्यान नहीं था. बावजूद इसके ग्यारहवीं तक की शिक्षा प्राप्त करने और आई. टी. आई में प्रशिक्षण लेने के बाद दिल्ली परिवहन निगम में क्लर्क का काम करनेवाले उसके पिता को बच्चों पढ़ाई का बहुत ध्यान था. आत्मकथा में पोलियो से ग्रस्त होने के पहले के उल्लास से परिपूर्ण प्रसंगों के बाद लगभग पाँच वर्ष की आयु में पोलियोग्रस्त हो जाने के बाद लेखक और उसके माता-पिता की वेदना के साथ ही उनके अपार धैर्य और अपनी संतान के प्रति अगाध ममता से परिचालित रात-दिन अनथक सेवा-सुश्रुषा का जैसा विस्तृत वर्णन किया गया है उसे मूल पुस्तक से गुज़रे बगैर अनुभव करना कठिन है. इस क्रम में पोलियो और 1955 में पोलियो का टीका ईजाद करने वाले डॉ. जोनाक सौक नामक अमरीकी वैज्ञानिक की इंसानियत के प्रति निष्ठा की चर्चा करते हुए लेखक ने बतलाया है कि कैसे डॉ. सौक ने कई हज़ार करोड़ का लोभ त्याग कर पोलियो के टीके का पेटेंट कराने से इनकार करते हुए कहा था कि क्या सूरज का भी पेटेंट कराया जा सकता है. उन्होंने अपनी टीम के सहयोग से अठारह लाख बच्चों का पोलियो टीकाकरण सम्पन्न किया था. अंतत: बारह अप्रैल 1955 को जब टीके के असरदार होने की घोषणा हुई तो पूरे अमरीका में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी. छुट्टी एवं जश्न के माहौल में लोगों ने गिरजाघरों में प्रार्थना की डॉ. सौक को मसीहा कहा गया.
भारत में पोलियो टीकाकरण का आरम्भ 1978 में हो गया था और लेखक ख़ुद 1980 में पोलियो ग्रस्त हुआ. ऐसे में सवाल उठना लाज़िमी है कि राजधानी दिल्ली के महरौली में पैदा होने और वहाँ लालन-पालन के बावजूद वह टीकाकरण से क्यों वंचित रह गया. इस सवाल का कोई जवाब आत्मकथा नहीं देती, पर मेरे ख़याल से इसकी वजह भारत की बड़ी आबादी में पोलियो को लेकर जागरूकता की कमी के साथ ही सरकार द्वारा पोलियो टीकाकरण को युद्ध स्तर पर कार्यान्वित न कर पाना और लेखक के परिवार की निम्नवर्गीय शैक्षिक एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि हो सकती है. लेखक के शब्दों में
“. . जो लोग पोलियो वायरस की चपेट में आ गए, पोलियो ने उन्हें विकृत शरीर और सारी उम्र चलनेवाला घोर संघर्ष दिया. मनुष्यता अनुभव करने के लिए ज़रूरी आत्मसम्मान पाना और जीवन जीने का संघर्ष पोलियो के शिकार को मिलने वाली सबसे बड़ी चुनौती होती है. ”(पृ. 33)
विदित है कि भारत में ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज अधिनियम, 1954 मुख्य रूप से उन दवाओं और उपचारों के विज्ञापन को दृष्टिपथ में रखकर बनाया गया है जो जादुई गुणों का दावा करते हैं. यह अधिनियम ऐसे दावों वाले विज्ञापनों को प्रतिबंधित करता है और इसे संज्ञेय अपराध मानता है. इसके अतिरिक्त, कुछ राज्यों ने अंधविश्वास और काला जादू विरोधी कानून भी बनाए हैं , ताकि बीमारियों के लिए जादुई उपचार और अन्य अंधविश्वासपूर्ण प्रथाओं का मुकाबला किया जा सके. ये कानून लोगों को शोषण और कुरीतियों से बचाने के उद्देश्य से बनाए गए हैं. 1954 का यह अधिनियम मुख्य रूप से उन उपचारों के बजाय उपचारों के विज्ञापन को लक्षित करता है जो जादुई इलाज का दावा करते हैं. विज्ञापनों में जादुई इलाज के बारे में झूठे दावे करना एक ऐसा संज्ञेय अपराध है जिसकी जांच बिना वारंट के की जा सकती है. राज्यों द्वारा काला जादू, मानव बलि, और बीमारियों को ठीक करने के लिए जादुई उपचार के उपयोग को विशेष रूप से प्रतिबंधित करने के लिए बनाए क़ानूनों का मक़सद भी अंधविश्वास के आधार पर शोषण से लोगों की रक्षा करने और तर्कसंगत व वैज्ञानिक साक्ष्य-आधारित स्वास्थ्य सुविधा को बढ़ावा देना है.
यह आत्मकथा देश की राजधानी में उपर्युक्त क़ानून की धज्जियाँ उड़ाकर आम जनता को दु:साध्य बीमारियों के शर्तिया इलाज के नाम पर बेवकूफ़ बनाने वालों की कलई खोलती है. आत्मकथाकार ने लिखा है :
“हमें बताया गया था कि. . . एक ऐसा व्यक्ति है जो हर बीमारी को लगभग जादुई तरीके से ठीक कर देता है. किसी शुभचिंतक ने बताया था कि वह व्यक्ति बीमार के अंग पर एक फूल का स्पर्श कराता है और बीमारी तुरंत ठीक हो जाती है. . . . वह व्यक्ति . . . एक लम्बे-चौड़े फ़ार्म हाउस में में रहता था. . . हफ़्ते के कुछ चुने हुए दिनों पर बीमारों का मुफ़्त इलाज करता था. . . . ख़ूब इंतज़ार के बाद हमारी बारी आई. . . . कमरे में मौजूद व्यक्ति ने चाचा से कहा कि इस बच्चे को टेबल पर लिटा दो. कई मिनट बाद एक अन्य व्यक्ति ने कमरे में प्रवेश किया. क़रीब पैंतालिस वर्ष की उम्र और बड़े डील –डौल वाले उस व्यक्ति ने रेशम का बना सफ़ेद कुर्ता –पायजामा फना हाथा और उसके गले में रूद्राक्ष की माला थी. हल्के पीले रंग का दुपट्टा उसने गर्दन पर लटका रखा था. . . . ‘बच्चे की पैंट उतारो’, मेरे पास आते ही उस व्यक्ति ने चाचा से कहा. पैंट उतार दी जाने के बाद उस व्यक्ति ने पास रखी प्लेट में से गेंदे का एक फूल उठाया और उस फूल को मेरे पैरों पर दो-तीन बार फिराया. ‘चलो इलाज हो गया, बच्चे को पैंट पहनाओ, ठीक हो जाएगा. ’. उस व्यक्ति ने कहा. हम घर वापस आ गए. . . . यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि उस इलाज से कुछ नहीं हुआ. ”(पृ. 42)
इस प्रसंग में विस्तार से टिप्पणी करते हुए लेखक ने बतलाया है कि जादुई इलाज की लोकप्रियता के कारण झूठे लोगों के नाम पर कैसे बड़ी भीड़ जमा होती है जो प्रकारांतर से भारत की लचर स्वास्थ्य-सेवा के साथ ही जनता में अशिक्षा वजह से पैदा हुए अंधविश्वास के स्वाभाविक दुष्परिणाम का ही परिचायक है. ललित कुमार के शब्दों में “अशिक्षित,बीमार और हताश लोगों की बड़ी संख्या उपजाऊ ज़मीन की तरह साबित होती है जिसमें ये नीम-हक़ीम कुकुरमुत्तों की तरह उगते और पनपते रहते हैं. ”
यह बतलाने की ज़रूरत नहीं है कि इक्कीसवीं सदी के हिन्दुस्तान में आज भी छिंदवाड़ा के जुन्नारदेव के तालखमरा गांव में भूतों का प्रसिद्ध मेला लगता है जिसके बारे में अंधविश्वास है कि यहाँ प्रेत -बाधा से परेशान और मानसिक रुप से विक्षिप्त रोगियों का उपचार संभव है. इस मेले में कथित प्रेतबाधा से ग्रस्त व्यक्ति को तालाब में डुबकी लगवाने के बाद दईयत बाबा के नाम से विख्यात वटवृक्ष के नजदीक उस स्त्री या पुरुष को कच्चे धागे से बांधकर तांत्रिक पूजा की जाती है जिसके बाद पास में बने मालनमाई के मंदिर में ले जाकर फिर पूजा-अर्चना की जाती है. इसी प्रकार काला जादू के लिए कुख्यात असम के मयोंग गाँव में भी तरह-तरह के तंत्र-मंत्र और जादू-टोने से बीमारों के उपचार को लेकर अशिक्षित जनता में विभ्रम है.
केवल उन्नीस माह की उम्र में ‘स्कारलेट फीवर’ अथवा ‘मेनिनजाइटिस’ से पीड़ित होने की वजह से दृष्टिबाधित हो जाने के साथ ही बहरापन और बहुत हद तक अपनी आवाज़ खो देने के लिए अभिशप्त हेलेन केलर ने अपनी आत्मकथा “द स्टोरी ऑफ़ माय लाइफ’(1903) में लिखा है: “जब ख़ुशी का एक दरवाजा बंद होता है, तो दूसरा खुलता है; लेकिन अक्सर हम बंद दरवाजे की ओर इतनी देर तक देखते रहते हैं कि हमें वह दरवाजा दिखाई नहीं देता जो हमारे लिए खोला गया है. ” नसीहत यह है कि मनुष्य को पीछे के बजाए हमेशा आगे देखना चाहिए. अतीत से सबक लेकर वर्तमान में जो लोग अपना भविष्य संवारने के लिए जद्दोजहद करते हैं उनका जीवन किसी न किसी मोड़ पर अवश्य सार्थक हो उठता है. ललित कुमार की आत्मकथा पढ़ते हुए किसी भी संवेदनशील पाठक को शिद्दत के साथ यह अहसास होगा कि उनमें आत्मदया की प्रवृत्ति नहीं है. पोलियो ग्रस्त पैरों के लम्बे उपचार और ख़ासकर एक के बाद दूसरी लगातार होने वाली शल्य चिकित्सा का विचलित कर देने वाला पर चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से ज्ञानवर्धक विवरण पेश करने के दौरान उन्होंने अल्लामा इक़बाल का जो शे’र उद्धृत किया है ,उससे उनकी जीवट का पता चलता है:
मिटा दे अपनी हस्ती को अगर कुछ मर्तबा चाहे
कि दाना ख़ाक में मिलकर गुल-ए-गुलज़ार होता है.
सेंट स्टीफेंस अस्पताल में मुफ़्त ‘पोलियो करेक्टिव सर्जरी’ की सुविधा के अंतर्गत पांचवें ऑपरेशन के बाद लेखक ने अस्पताल के निदेशक डॉ. मैथ्यू वर्गीज़ को जब यह कहते सुना कि अब और कोई ऑपरेशन की ज़रूरत नहीं है तो उसकी जान में जान आई. अपने जीवन में डॉ. वर्गीज़ की अहमियत को क़बूल करते हुए लेखक ने उनके हँसमुख और मृदुभाषी व्यक्तित्व के बारे में लिखा है कि
“डॉ. वर्गीज़ अपने पास आनेवाले पोलियो के हर मरीज़ को तुरंत स्वीकार कर लेते हैं,चाहे उसकी आर्थिक स्थिति कैसी भी हो. . . जब सैंट स्टीफेंस में मेरे ऑपरेशन हो रहे थे. . . वह रोज़ाना पोलियो वार्ड में आते थे और सभी मरीज़ों की बातों का मुस्कुराकर जवाब देते थे. . . . डॉ. वर्गीज़ का सपना है कि सेंट स्टीफेंस में चल रहे पोलियो वार्ड एक दिन ख़ाली हो जाएँ और भारत में कोई पोलियो से पीड़ित न हो. जब कभी भारत में पोलियो के मिटने का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें डॉ. वर्गीज़ का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाना चाहिए. ”(पृ. 200)
आलोच्य आत्मकथा में पोलियो से निजात पाने के बाद दुर्भाग्यवश टी. बी. से ग्रसित हो जाने और उसके इलाज के दौरान अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान एवं सफ़दरजंग अस्पताल में आई मुश्किलों के विवरण के साथ ही माँ के निधन से लेखक के मन पर पड़े गहरे असर का मार्मिक चित्रण है. तत्पश्चात कंप्यूटर कोर्स पूरा करने और सौफ्टवेयर इन्जीनियर के रूप में नौकरी के दौरान कम्पनी के चार्टर्ड बस के चालक के दुर्व्यवहार का ह्रदय विदारक उल्लेख है. इसी बीच संयुक्त राष्ट्र द्वारा विज्ञापित स्वयंसेवक कार्यक्रम में सूचना तकनीक विशेषज्ञ के पद पर नियुक्ति के बाद लेखक के मन के क्षितिज को विस्तार मिला,जहाँ चार वर्षों के बाद उसे स्थायी कर दिया गया. पुस्तक में पहली विदेश यात्रा के तहत शांघाई जाने और वहाँ से लौटने के बाद संयुक्त राष्ट्र की नौकरी से त्यागपत्र देकर एडिनबर्ग स्थित विश्वविद्यालय में पूर्ण स्कालरशिप के साथ एम्. एससी बायोइनफॉरमेटिक्स में नामांकन का युवकोचित उल्लास के साथ वर्णन है. लेखक के शब्दों में
“इस स्कालरशिप का मिलना मेरे जीवन के उन पलों में शामिल है, जहाँ से मेरा जीवन एक बिलकुल नयी दिशा में मुड़ गया. . . लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर अपनी अगली फ्लाईट का इंतज़ार करते समय मैं सोच रहा था कि इंसान अगर मेहनत करे और हौसला रखे तो उसके लिए कोई लक्ष्य दूर नहीं होता ”(पृ. 225-228)
विदेश में अपनी शिक्षा के दौरान वहाँ के मौसम, जन-जीवन, विकलांगों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार आदि के साथ ही लेखक ने उन तकनीकी सुविधाओं की भूरि-भूरी प्रशंसा की है जिनसे विकलांग जनों का जीवन आसान हो जाता है. पढ़ाई पूरी करने के बाद ललित कुमार ने यूरोपीय संघ के लिए काम करने के दौरान सहकर्मियों के सद्व्यवहार के साथ ही उनकी योग्यता एवं कार्यक्षमता की दिल खोलकर तारीफ़ की है. भारत के विभिन्न राज्यों के साथ ही उन्होंने चीन, थाईलैंड ,स्पेन, जर्मनी, यूके, मॉरिशस, कनाडा आदि देशों की यात्रा की है ,पर उनमें पूरी दुनिया देखने और विकलांगों के लिए जीवनपर्यन्त काम करने की चाहत है. अपनी इस तमन्ना को उन्होंने इकबाल साज़िद के शे’र के माध्यम से व्यक्त किया है:
सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा
मैं डूब भी गया तो शफ़क़ छोड़ जाऊँगा
विदित है कि ललित कुमार को हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में सूचना तकनीक का सकारात्मक इस्तेमाल करते हुए ‘कविता कोश’ और ‘गद्य कोश’ सरीखे विश्वकोश की नींव डालने तथा उसके संस्थापक-निदेशक के रूप में उन्हें कुशलतापूर्वक संचालित करने का श्रेय प्राप्त है. अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले ललित कुमार की कविताओं में गहरी दिलचस्पी के साथ ही इंटरनेट के तकनीकी ज्ञान के सुखद संयोग से 5 जुलाई 2006 को एक सार्वजनिक परियोजना के रूप में ‘कविता कोश’ का आरम्भ हुआ. उनके अनुसार इस परियोजना को उन्नत करने में उनका इतना समय और श्रम लगा कि व्यक्तिगत जीवन के कई काम रह गए. उन्होंने लिखा है :
“आज ‘कविता कोश’ को बहुत-से स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं की एक अंतर्रराष्ट्रीय टीम परिवर्धित करती है. इस समय कविता कोश में प्रति माह पाँच लाख से अधिक लोग क़रीब तीस लाख काव्य-रचनाएँ पढ़ते हैं. यह भारतीय काव्य की सबसे बड़ी ऑनलाइन लाइब्रेरी है. . . यदि ‘कविता कोश’ की जगह मैं अपने करियर पर फ़ोकस करता तो . . . बहुत आगे बढ़ चुका होता. यह परियोजना केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इसमें भारतीय साहित्य का एक विशाल ख़ज़ाना संकलित है. . . यह स्वयंसेवा के ज़रिए आगे बढ़ने वाली परियोजना है. . . . बाद में मैंने साहित्य-प्रेमियों की माँग पर गद्य साहित्य के लिए ‘गद्यकोश’ की भी स्थापना की . . . दोनों ही परियोजनाएँ पूरे समाज के सहयोग से भारतीय साहित्य को संरक्षित करने का कार्य कर रही है.” (पृ. 227)
सन 2016 से ललित कुमार विकलांगता के क्षेत्र में काम करते हुए www. WeCapable. com नाम से वेबसाईट के ज़रिए विकलांगजनों के लिए तमाम मानीखेज़ जानकारी मुहैया करा रहे हैं. चूँकि भारत में बहुत से लोगों को अंग्रेज़ी में दी गयी जानकारी को समझने में कठिनाई होती है, इसलिए उन्होंने ‘दशमलव’ नामक एक यूट्यूब चैनल शुरू किया जिससे youtube. com/dashamlav पर ‘लॉग इन’ करके जुड़ा जा सकता है. यह सुखद है कि भारत सरकार के ‘समाज कल्याण एवं सशक्तिकरण मंत्रालय’ ने उनके जीवन को रोल मॉडल का राष्ट्रीय दर्जा देकर उन्हें 2018 में राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया, जिसमें प्राप्त धनराशि को उन्होंने ज़रुरतमंदों के बीच बाँट दिया.
हिन्दी में प्रकाशित स्त्री-पुरुष रचनाकारों की कुछ श्रेष्ठ आत्मकथाओं की व्यापक पठनीयता के मद्देनज़र क्या यह कहना सही नहीं होगा कि आम पाठक के लिए आत्मकथा, साहित्य का सबसे आकर्षक रूप है. सच तो यह है कि आत्मकथा साहित्य की वह विधा है जो सबसे पहले और सबसे गहराई से पाठकीय रुचि को न केवल आकर्षित करती है,बल्कि उसे बनाए रखती है और अंत में वह हमारे लिए सबसे अधिक मायने रखती है. कारण यह कि आत्मकथात्मक कृतियाँ भिन्न-भिन्न देश काल में अपने से इतर लोगों के जीवन की समझ के माध्यम से हमारे स्वयं के स्वभाव और गतिविधियों के बारे में हमें जागरूक करती हैं. उदाहरण के लिए माना जा सकता है कि हेलेन केलर, स्टीफेन हौकिंग या ललित कुमार की आत्मकथा का पाठक किसी विकलांग के साथ बुरा बर्ताव करने में हिचकेगा. शायद उसकी अंतरात्मा उसे ऐसा करने से रोक देगी. कई बार ऐसा लगता है कि लोकप्रियता की दृष्टि से उपन्यास, कहानी, कविता आदि विधाएँ जीवनी और आत्मकथा की तुलना में शायद बहुत पीछे होंगी. आत्मकथाएँ केवल उन पाठकों के बीच लोकप्रिय नहीं होती हैं जो रिकॉर्ड की गई गपशप के रोमांच से ख़ाली समय भरना चाहते हैं, बल्कि उन पाठकों के बीच भी जो ख़ासकर जीवन में एक व्यवस्था और अर्थ की तलाश कर रहे होते हैं, जिसे केवल अपने सीमित अनुभव-संसार से नहीं पाया जा सकता.
आलोच्य आत्मकथात्मक कृति का शिल्प बेहद सधा हुआ है. इसमें लेखक ने बचपन से लेकर परिपक्व होकर सम्मानजनक जीवन यापन करने तक की अपनी जीवन-यात्रा का ब्यौरेवार चित्रण किया है जिसमें क्रमबद्धता है. बड़े साहित्यकारों की रचनाओं में प्राय: मौजूद अतिरिक्त साहित्यिकता,लक्षणा–व्यंजना, भाषिक बनावट, बुनावट और कभी-कभार पाई जाने वाली उबाऊ सजावट से मुक्त ‘विटामिन ज़िन्दगी’ सहज-स्वाभाविक हिन्दी या हिन्दुस्तानी में रचित है. इसमें हमें हिन्दी क्षेत्र की बड़ी आबादी द्वारा रोज़मर्रा की बोलचाल की भाषा का निखरा हुआ रूप मिलता है, जिसमें जगह-जगह हिन्दी के अपने मुहावरे के इस्तेमाल से चित्रण जीवंत बन पड़ा है. निराला ने ‘गद्य’ को ‘जीवन संग्राम की भाषा’ कहा है. विवेच्य आत्मकथा का गद्य भी एक संघर्षशील एवं जुझारू रचनाकार का गद्य है. इसलिए यह अनावश्यक आलंकारिकता से मुक्त है. इस कृति की रचना-भाषा की सहजता और जीवन्तता एक जमाने में ‘पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस’ से छपी स्वामी सहजानंद सरस्वती की आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ की याद दिलाती है. मेरा विनम्र मत है कि इस आत्मकथात्मक कृति का शीर्षक ‘ज़िन्दगी’ होना चाहिए था; जैसे कि ज्याँ पाल सार्त्र की आत्मकथा का शीर्षक ‘शब्द’(The Words) है. जीवन में कई तरह के झंझावातों से अपार धैर्य के साथ जूझते हुए ललित कुमार की ताउम्र ज़द्दोजहद और अंतत: उन्हें मिले ऊँचे मुक़ाम को देखते हुए इस कृति का शीर्षक ‘असामान्य से असाधारण तक’ भी मौजूँ हो सकता था, पर यह लेखक-प्रकाशक के विवेक के दायरे में आता है.
बहरहाल, ललित कुमार की इस कृति से गुज़रते हुए ‘पोस्ट पोलियो सिंड्रोम’ को झेलने के बावजूद ‘जीवन चलने का नाम’ को अपना आदर्श वाक्य या ‘मोटो’ मानकर उनकी सतत सक्रियताओं के मद्देनज़र मुझे स्टीफेन हाकिंग की ‘माय ब्रीफ़ हिस्ट्री’ शीर्षक से प्रकाशित आत्मकथा में आया एक कथन याद आता है कि
“काम करना कभी मत छोड़ो. काम आपको अर्थ और उद्देश्य देता है और इसके बिना जीवन अधूरा है. ”
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प्रोफ़ेसर रवि रंजन
प्रतिनियुक्ति : 2005 से 2008 तक सेंटर फॉर इंडिया स्टडीज़, पेकिंग विश्वविद्यालय,बीजिंग एवं नवम्बर 2015 से सितम्बर 2018 तक वारसा विश्वविद्यालय,पोलैंड में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् द्वारा विज़िटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में प्रतिनियुक्त. सम्प्रति: प्रोफ़ेसर एवं पूर्व-अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, मानविकी संकाय, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद – 500 046 |
दुष्कर जीवन के बीच जिजीविषा और जीवन की अर्थवत्ता खोजने की प्रेरक कृति और ललित जी का जीवन। उल्लेखनीय। शुक्रिया इसे पढ़वाने के लिए।
प्रो रविरंजन आत्मकथा समीक्षा में लेखक के यथार्थ जीवन को उत्स से पकड़कर गहरे आलोचनात्मक विवेक का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं…यह गुण विरल है…
बेहद रोचक, खोजपूर्ण, आह्लादक और विस्मयकारी इस आलेख को पढ़ना, अब तक न जाने ललित कुमार को जानने की सार्थक यात्रा सरीखा रहा।
अरसा हुआ कविता कोश का हिस्सा बने, पर उन्हें इतना क्या, कुछ भी नहीं जानती थी।
लेखक के प्रति आभार, ललित जी को अनेकानेक शुभकामनाएं !
ललित जी की आत्मकथा समाज के हाशिए पर छोड़ दिए गए दिव्यांग जन के बारे में वह बताती है जिसे हम उपेक्षित कर आगे बढ़ जाते हैं.विटामिन ज़िन्दगी को बार बार पढ़ा जाना चाहिए ताकि सत्ता संरचना की वास्तविकता को जाना जा सके.एक संघर्ष शील व्यक्ति कितने स्तरों पर मेहनत करता है , ऊँचाई तक पहुँचता है.पर स्मृतियाँ हमेशा हाँट करती ही रहती हैं.यह पुस्तक स्मृतियों की भूमिका को समझने में भी मदद करती है.रविरंजन जी को साधुवाद कि उन्होंने इस आत्मकथा को चर्चा में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है.
कविता कोश और गद्यकोश से दक्षिण भारत के छात्रों और प्राध्यायकों को बड़ा लाभ मिलता है. इसके संस्थापक और संचालक आदरणीय ललित कुमार की आत्मकथा में उनकी की ज़िन्दगी का विवरण पढ़ने पर सभ्य कहा जाने वाला समाज सभ्य मालूम नहीं पड़ता. उन्हें शुभकामनाएँ.
रवि रंजन जी ने इस आत्मकथा से हमारा परिचय कराया.इसके लिए उन्हें और साथ साथ समालोचना पत्रिका को धन्यवाद.
वेंकटराम रेड्डी, रिटायर्ड प्रोफ़ेसर, श्री वेंकटेश्वर कॉलेज, तिरुपति.
प्रोफेसर ललित कुमार के कविता कोश से परिचित था। उनकी जीवनी की सारगर्भित समालोचना पढ़ कर उनके जीवट व हौसले का भान हुआ। रविरंजन जी द्वारा प्रस्तुत इस जिज्ञासापूर्ण पठनीय समीक्षा हेतु साधुवाद।