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Home » इंडस ब्लूज़ : नरेश गोस्वामी

इंडस ब्लूज़ : नरेश गोस्वामी

अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित पाकिस्तानी फ़िल्ममेकर जवाद शरीफ़ की निर्देशित एवं निर्मित डॉक्यूमेंट्री ‘इंडस ब्लूज़’ (2018) संकटग्रस्त लोक-संगीत और विलुप्ति की कगार पर खड़े उसके वाद्ययंत्रों की ऐसी तान छेड़ती है, जिसमें उपमहाद्वीप का साझा दुःख बहने लगता है. किसी को मज़हबी राजनीति ने तोड़ा है, कोई बंटवारे में बिखर गया. अधिकांश की आवाज़ें आधुनिकता के शोर में दम तोड़ रही हैं, और उन पर जहालत व कट्टरता का काला साया मंडरा रहा है. कुछ वाद्य और स्वरों के अंतिम संरक्षक आख़िरी दिन गिन रहे हैं. नरेश गोस्वामी अपनी सधी और विचारोत्तेजक लेखनी के लिए जाने जाते हैं, आलेख फ़िल्म देखने के लिए विवश करेगा, और इसे आप पा भी लेंगे. आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
August 16, 2025
in फ़िल्म
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इंडस ब्लूज़ : नरेश गोस्वामी
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इंडस ब्लूज़
सुरों की टूटी हुई डगर
नरेश गोस्वामी

दक्षिण एशिया की सांस्कृतिक धरोहर के साझे स्रोतों और साझी त्रासदी पर विहंगम दृष्टि डालती जवाद शरीफ़ की डॉक्यमेंट्री फिल्म इंडस ब्लूज़ (2018) के विषय पर जिस तरह का गहन विचार-विमर्श होना चाहिए था वह इसे मिलने वाले अंतराष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मतियों की चमक में ओझल हो गया. गुआम और रेजिना जैसे अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में सम्मानित इस फिल्म को जयपुर के फ़िल्म समारोह (2019) में भी निर्देशन और दृश्यांकन के सर्वोच्च पुरस्कार से नवाज़ा गया था.

हालांकि अपनी प्रकट संरचना में यह फिल्म पाकिस्तान में लोक-संगीत की संकटग्रस्त परम्पराओं पर केंद्रित है, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इसके इसी आख्यान में भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक विरासत के एक साझा अतीत भी साथ-साथ गूंजता है. यानी यह फिल्म असल में इस भूखंड के उस सांस्कृतिक दौर की बात करती है जब इस पर आधुनिक राष्ट्रों की सरहदें नहीं खिंची थी. राष्ट्रीय सीमाओं के स्थिरीकरण से पहले यह भूभाग सिंधु घाटी की सभ्यता, वैदिक, बौद्ध, जैन, फ़ारसी, मध्य एशियाई, इस्लामी तथा सिक्ख संस्कृति के मिश्रित प्रभावों और विभिन्न जनसमुदायों के आवागमन की प्रक्रिया में गढ़ा गया था. तब यह क्षेत्र अपनी वाचिक और गाथा-गझिन परम्पराओं के लिए जाना जाता था. लेकिन आज वह परिदृश्य बदल गया है.

पाकिस्तान के उमरकोट (थार), सुई (बलूचिस्तान), मुबारक गांव (सिंध), रहीमयार खान (चोलिस्तान), करीमाबाद (हुंज़ा घाटी), पेशावर (ख़ैबर पख़्तूनवा), लाहौर (पंजाब) से गुज़रती यह डॉक्यूमेंट्री एक तरह से उन सुबूतों को इकट्ठा करने का काम करती है जिन्हें एकमुश्त देखने पर एक ऐसा सांस्कृतिक इतिहास उभरता है जिसे राष्ट्रीय सीमाओं और उपभोक्तावादी आधुनिकता के नाम पर एक सार्वभौम मध्यवर्गीय एकरूपता ने विस्मृत कर दिया है.

यह फिल्म लोक-संगीत के उन वाद्ययंत्रों, उनके आखि़री वादकों व शिल्पकारों की एक व्यतीत होती संस्कृति का एक जीवंत अभिलेखागार है. जीवंत इसलिए कि यहाँ हम इन कलाकारों की जीवन-स्थितियों, उनके संघर्ष और मौन प्रतिरोध, उनके जीवट, कला के प्रति उनकी अप्रतिहत आस्था तथा मुख्यधारा के समाज और राज्य की निर्मम अनदेखी को एक-साथ घटित होते देखते हैं.

इंडस ब्लूज़ से एक दृश्य

एक)

मसलन, फ़कीर जुल्फि़कार बोरिंडो के आखि़री वादक हैं. इस गोलाकार बाजे को मिट्टी की बांसुरी भी कहा जा सकता है. जुल्फि़कार के मुताबिक इस वाद्य की आनुवंशिकी सिंधु घाटी की सभ्यता तक जाती है. अपने वादक की तरह अल्लाहजुरियो कंभार (कुम्हार) बोरिंडो का आखि़री शिल्पी है. जुल्फि़कार के लिए अल्लाह जुरियो पिछले बीस पच्चीस सालों से बोरिंडो बनाते आ रहे हैं. जुरियो बताते हैं कि चूंकि बोरिंडो का आकार छोटा होता है, इसलिए मिट्टी के बड़े बर्तन बनाने की अपेक्षा यह एक मुश्किल काम होता है. इसमें छेद की गहराई और अनुपात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है.

लेकिन, मिट्टी के बर्तन बनाने का पूरा काम ही जिस तरह संकटग्रस्‍त हो चुका है उसमें जीविका चलाना मुश्किल हो गया है. जुरियो के मुताबिक इस काम में मज़दूरी इतनी कम है कि घर का गुज़ारा नहीं चलता. फ़कीर ज़ुल्फ़िकार अपनी कला की सामाजिक हैसियत को बड़ी साफ़ नज़र से देखते हैं. उनका कहना है कि उनके इर्द-गिर्द जिस तरह की सामंती संस्कृति व्याप्त है उसमें संगीत की कोई इज़्ज़त नहीं है. संपन्न और ताक़तवर लोग खाने-पीने में लगे रहते हैं और कलाकार एक कोने में बैठे अपना कार्यक्रम पेश करते रहते हैं. यह एक ऐसा ढांचा है जिसमें नीची हैसियत का आदमी कभी ऊपर नहीं उठ पाता.

इसी तरह, सिंध क्षेत्र का पारम्परिक वाद्य अलगोजे को एक समय स्वागत-सत्कार की संस्कृति का प्रतीक माना जाता था. वादक खमिसू खान उसे सिंधी संगीत की जान कहते है. लेकिन, अब यह वाद्य अपने ही समाज में एक अवशेष बनता जा रहा है. इसके शिल्पी इब्राहिम हजानो बताते हैं कि अलगोजे की नाल बनाने में लकड़ी की लंबाई और चौड़ाई का ख़ास ध्यान रखना होता है. हजानो यह भी कहते हैं कि अलगोजा बनाना और बजाना ही उनका इश्क है, लेकिन उनके सामने भी वही संकट है कि अब इसमें रोज़गार नहीं रहा. फ़सलों की कटाई दौरान भी काम नहीं मिलता.

उमरकोट (थार) के जोगी सत्तार की स्थिति भी इससे अलग नहीं है. सत्तार मुरली बीन के कुछ आखि़री वादकों में बचे हैं. उनके अनुसार मुरली जोगियों का वाद्य रहा है जिसे उनके अलावा कोई अन्य समुदाय नहीं बनाता. सत्तार को मुरली पर महारत हासिल करने में पच्चीस सालों का समय लगा. मुरली के क्लासिकल वादकों की पीढ़ी तो पहले ही ख़त्म हो चुकी थी, अब उसकी रही-सही परम्परा छीजती जा रही है क्योंकि समुदाय की नई पीढ़ी दूसरे कामों में लग गई है.

मुबारक गांव (कराची): के मुमताज़ अली सबज़ल बलोची बैंजो के वादक भी हैं और शिल्पी भी. सबज़ल को बोलते, साज़ का निर्माण करते और उसे बजाते देखना एक कलाकार की प्रतिबद्धता का दर्शन करना है. यह इस लिहाज़ से भी एक विरल अनुभव है कि यहाँ कलाकार और शिल्पकार दो विच्छिन्न संज्ञाएं नहीं रह जातीं. सबज़ल बताते हैं कि साज़ तैयार करना एक श्रम-साध्य काम है जिसमें एक से डेढ़ महीना लग जाता है. सबज़ल ने बैंजो के निर्माण में कई प्रकार के प्रयोग किए हैं जिसमें bow के साथ बजाया जाने वाला बैंजो कई दूसरे वाद्यों की ध्वनियों का एक मिश्रित वाद्य बन जाता है. मौजूदा दौर की तमाम चुनौतियों के बावजूद सबज़ल इस परम्परा का निर्वाह करना चाहते हैं.

लेकिन, सुई (बलूचिस्तान) के सुरोज़ वादक सच्चू खान जो पिछले पचास बरसों से इस पारम्परिक लोकवाद्य के सिरमौर वादक रहे हैं, अब थके हुए नज़र आते हैं. सच्चू खान यह बाजा अपने मामू थंगो खान से सीखा था. इसकी दीवानगी में उन्होंने अपनी पढ़ाई तक छोड़ दी. अपने कला-जीवन पर नज़र डालते हुए सच्चू खान कहते हैं कि उनका तो ‘जैसे तैसे गुज़ारा हो गया’ लेकिन अब इस वाद्य के लिए माहौल और जगह नहीं बची है. उनका कहना है कि बलूचिस्तानी समाज में शांति नहीं है. ऐसे माहौल में संगीत नहीं पनप सकता. यहाँ उस तरह की आज़ादी नहीं है. यह एक तरह से यह उनकी आसपास के जन-जीवन में बढ़ती हिंसा और कट्टरता पर भी एक टिप्पणी है.

एक समय सच्चू खान के लिए सुरोज़ बनाने वाला शिल्पी मुहम्मद जान अब नाउम्मीद हो गया है. वह कहता है कि ‘भूखों मर जाऊंगा, कोई दूसरा काम कर लूंगा, लेकिन सुरोज़ नहीं बनाऊंगा’. ज़ाहिर है कि यह निराशा अभाव और तंगी से पैदा हुई है, लेकिन मुहम्मद जान का रोष उस व्यवस्था को लेकर ज़्यादा है जिसमें सच्चू खान जैसे कलाकार अपना ईलाज तक नहीं करवा पाते. यह दुख हम सच्चू के संगी लोकगायक नबी बख़्श की आवाज़ में भी सुनते है जब यह बूढ़ा गायक कहता है कि ‘इससे गुज़ारा नहीं होता… कहीं से कोई मदद या वज़ीफ़े जैसी कोई चीज़ नहीं मिलती.
फिलहाल इस वाद्य के केवल दो शिल्पी बचे हैं.

रहीमयार खान (चोलिस्तान) के लोक कलाकार कृष्ण लाल भील ‘नारेली’ बजाते हैं. उनके मुताबिक एक हज़ार साल पुराना यह वाद्य इस इलाक़े के अलावा और कहीं नहीं बनाया जाता. इसी श्रेणी का एक अन्य वाद्य है जिसे ‘रांति’ कहा जाता है. इन वाद्यों की खरज और घर्षण से भरी आवाज़ उत्तर भारत के देहात और कस्बों में सत्तर के दशक में पैदा हुई पीढ़ी के लिए अपरिचित न होगी. इस पीढ़ी ने अपने बचपन में स्थानीय और घूमंतु समुदाय के लोगों को ऐसे वाद्ययंत्रों के साथ अपने गली-मुहल्लों में देखा और सुना होगा. लेकिन, बाद में लोकआस्था का यह आदिम रूप धीरे-धीरे शास्त्रोक्त धर्म की वर्चस्ववादी उपस्थिति में ग़ायब होता चला गया.

आज, अजमल लाल भील (रांति के वादक और शिल्पी) और कृष्ण लाल भील का मानना है कि उनकी पीढ़ी के बाद इन वाद्यों का शायद ही कोई भविष्य बचे.

पुराने लोक-वाद्यों की इस श्रेणी में करीमाबाद (हुंज़ा घाटी) में प्रचलित ‘छरदा’ या फ़ारसी में ‘चहारदा’ कहा जाने वाला यह वाद्य भी एक हज़ार साल पुराना माना जाता है. इसके शिल्पी शफ़क़त करीम का कहना है कि इस बाजे में शहतूत की मिठास होती है. मुख्यत: मध्य एशिया के मध्यकालीन पीर नासिर ख़ुसरो के अनुयाइयों के साथ नत्थी कर दिए गए इस वाद्य के साथ भी वही हुआ है जो धर्म के किसी एक स्वरूप को राष्ट्रीय बनाने की परियोजना में लोक-परम्पराओं के साथ होता है. ऐसे वाद्यों को एक ख़ास समुदाय और स्थानीयता तक सीमित कर दिया जाता है.

सुरोज़ की तरह सरिंडा भी एक ऐसा लोकवाद्य है जो अब अपनी दृश्यता के हाशिए पर पहुंच गया है.

पेशावर (ख़ैबर पख़्तूनवा) के ऐजाज़ सरहदी उसके आखि़री वादकों में बचे हैं. उनका अपना बेटा अब सरिंडा के बजाए सैक्सोफोन सीख रहा है. सरहदी बताते हैं कि इस वाद्य को सीखने में उन्हें आठ-नौ साल लेकिन अब लोगबाग सब कुछ जल्दी जल्दी सीख जाना चाहते हैं. सरहदी अपने बयान में उन दिनों को याद करते हैं जब कलाकारों के बीच संगीत पर चर्चा होती थी. सब लोग स्टुडियो में आते जाते थे. लेकिन, फिर एक बार एक मुल्ला ने आकर संगीत के ख़िलाफ़ तकरीर की और धीरे-धीरे सब ख़त्म हो गया. सरहदी का यह बयान इसलिए भी ग़ौरतलब है कि यह इस फिल्म का एकदम शुरुआती दृश्य है जिसमें वह पेशावर युनिवर्सिटी के बरामदे में अपने बेटे के साथ बैठा है. बेटे के हाथ में सैक्सोफोन है और सरहदी सरिंडा पर आलाप लेकर उसे सुर के बारे में समझा रहे हैं कि तभी युनिवर्सिटी के छात्रों का एक समूह वहाँ आ धमकता है. उनमें बीस-पच्चीस साल का एक नौजवान फिल्म की शूटिंग में खलल डालते हुए कहता है कि यह हमारी ‘सकाफ़त’ (संस्कृति) नहीं है. कहना न होगा कि फिल्म का यह क्षण विरासत और वर्चस्व का ऐसा क्षण है जो अब समूचे दक्षिण एशिया की विडम्बना बन चुका है. अपने धर्म और संस्कृति की पहरेदारी करने वाले युवाओं का ऐसा समूह आजकल कहीं भी पहुंच कर किसी भी बौद्धिक-सांस्कृतिक आयोजन रुकवा देता है.

फिल्म में कत्थक की नृत्यांगना निग़त चौधरी और सारंगी के शिल्पकार उस्ताद जियाउद्दीन अपनी टिप्पणियों में उस वृहत्तर सांस्कृतिक व्यतिक्रम की ओर संकेत करते हैं जिसने भारतीय उपमहाद्वीप की साझी लोक-संस्कृति को छिन्न-भिन्न कर दिया है. ज़ाहिर है कि दोनों इन कारणों को कोई पारिभाषिक नाम नहीं दे सकते, लेकिन उनका इशारा राष्ट्र और धर्म की एकाश्मिक व्याख्या की ओर है. निग़त कहती हैं कि हम नृत्य और संगीत जैसी कलाओं को अपने और पराए के खानों में नहीं बांट सकते. लेकिन, उनके अनुसार अब यह खानाबंदी एक सच्चाई बन चुकी है. उनका कहना है कि अपना कोई कार्यक्रम पेश करने के लिए उन्हें कार्यक्रम के तौर पर कत्थक की जगह ‘माइम ऐंड मूवमेंट’ लिखना पड़ता है. निग़त यह भी कहती हैं कि मौजूदा दौर में लोक की हरेक कलात्मक अभिव्यक्ति— संगीत, गायन और नृत्य एक धीमी मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं.

उस्ताद ज़ियाउद्दीन बताते हैं कि उनका परिवार पिछले दो सौ बरसों से सारंगी बनाने का काम करता आ रहा है. लेकिन, अब यह वाद्य ख़ात्मे की ओर जा रहा है. ज़ियाउद्दीन इसके लिए अपने समाज में बढ़ती धार्मिक कट्टरता को जिम्मेदार मानते हैं. यह कहते हुए उनका स्वर रोष से भर जाता है कि संगीत का विरोध करने वाले कथित धार्मिक लोग ख़ुद ही सादगी व नैतिकता को छोड़कर पैसे और ताक़त के पीछे पड़े हैं.

इंडस ब्लूज़ से एक दृश्य

दो)

जैसा कि एक अच्छी कृति अपने चुने हुए विषय पर एकाग्र होते हुए भी यथार्थ की व्यापक प्रक्रियाओं और प्रतिध्वनियों को दर्ज करना नहीं भूलती, ‘इंडस ब्लूज़’ भी केवल सतह पर दिख रही घटनाओं, लक्षणों और गतिविधियों का कोलाज बनकर नहीं रह जाती— वह अपने समय की वर्चस्वी व्याख्याओं से परे जाकर संस्कृति की उन आदि-धाराओं का उत्खनन करती है जिन्हें सार्वजनिकता से बेदख़ल करके अवशेष की श्रेणी में डाल दिया गया है. व्यापक अर्थों में कहें तो यह फिल्म अपने समय की विजेता और प्रचलित व्याख्याओं पर प्रश्न उठाती है. दृश्य से बाहर कर दी गई चीज़ों के पते-ठिकाने ढूंढ़ती है. और अपने सजग दृश्यांकन से उन कारणों और परिस्थितियों की ओर इशारा कर जाती है जिनके चलते संस्कृति और कलाओं का यह साझा उर्वर प्रदेश धार्मिक एकरूपता और अन्य के बहिष्करण का रण-क्षेत्र बन गया है.

इसे जवाद शरीफ़ की निर्देशकीय परिकल्पना का सौंदर्य ही कहा जाएगा कि फिल्म में इंडस शब्द केवल सिंधु के भौगोलिक क्षेत्र की प्रतिनिधि न रहकर पूरे उपमहाद्वीप की सभ्यता का संदर्भ बन जाता है. इसके अंतर्तम अर्थ में देखें तो इंडस ब्लूज़ हमारे समकालीन समय में उपमहाद्वीप की परस्पर-व्यापी परम्पराओं के उस नक़ली विभाजन की ओर इशारा करती है जिसकी ओट लेकर अंधराष्ट्रवादी, पूंजीपति-वर्गों और उनके साझीदार राजनीतिक नेतृत्व ने इस भू-भाग की साझी लोक-संस्कृतियों को नष्ट या विद्रूप करने का उपक्रम किया है.

इसे देखते हुए संस्कृति-चिंतक आशिष नंदी की कई बातें याद आती हैं. मसलन, नंदी ग़ैर आधुनिक, देशीय और लोक परम्पराओं को उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद और कट्टर धार्मिकता जैसी वर्चस्ववादी विचारधाराओं के बरक्स नैतिक विकल्पों का स्रोत मानते हैं. उनका कहना है कि आधुनिकता में वास करने वाली ग़ैर आधुनिकता हमेशा पिछड़ी या अतीतवादी सोच का अवशेष नहीं होती बल्कि कई बार वह जीवन के नैतिक रूपों का प्रतिनिधित्व भी करती है. उनका यह भी कहना है कि दुनिया में उत्तर-औपनिवेशिक राज्य ने लोक और मिली-जुली परम्पराओं को कांट-छांटकर हर कहीं एकरूप अस्मिताओं में बदल दिया है.

इस संदर्भ में रखकर देखें तो इंडस ब्लूज़ के ये संगीत साधक एक ऐसे मिश्रित और नैतिक विश्व के संरक्षक बनकर उभरते हैं जिनकी राज्य की आधिकारिक कल्पना में अब कोई वैधता और वक़’अत नहीं रह गई है. इस तरह, उनकी यह नियति संस्कृति के साथ एक नैतिकता का भी अवसान है. सार्वजनिक दृश्य से ग़ायब होते ये कलाकार किसी बीते समय के वाहक नहीं बल्कि एक ऐसे समय के बचे-खुचे लोग हैं जिन्होंने तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अपने फ़न से मुंह नहीं मोड़ा. निश्चय ही, इसे एक तरह का मौन प्रतिरोध भी कहा जा सकता है.

यहाँ सांस्कृतिक इतिहासकार इयान आसमैन की यह अंतदृष्टि भी याद आती है कि सांस्कृतिक स्मृति प्रतीकों और सामूहिक व्यवहार के माध्यम से ज़िंदा रहती हैं. यानी अगर एक बार उसके साथ जुड़ी इन सामूहिक गतिविधियों की शृंखला टूट जाए तो बाहर की कहानियां और वस्तुएं बेशक बनी रहें लेकिन सांस्कृतिक स्मृति धुंधलाने लगती है.

जैसा कि इन कलाकारों की चिंताओं से महसूस होता है, अगर लोक-संगीत के इन वाहकों की यह शृंखला भंग हो जाती है यानी उनकी अगली पीढ़ी इस कला को छोड़ देती है तो यह सांस्कृतिक स्मृति हमेशा के लिए खो जाएगी. ज़ाहिर है कि अगर सरिण्डा के वादक ऐजाज़ सरहदी का बेटा सैक्सोफ़ोन बजाने लगेगा तो इसके साथ सिर्फ़ सरिण्डा की आवाज़ ही ख़त्म नहीं होगी बल्कि उसके साथ जुड़ी स्मृतियां और उसके सुरों का संसार भी ख़त्म हो जाएगा. इसी तरह, मुरली बीन का भी कोई वादक नहीं रह जाएगा. इसलिए, जब नरेली का वादक सत्तार जोगी यह कहता है कि हमारे बाद यह ‘लड़ी’ टूट जाएगी तो वह इस सांस्कृतिक स्मृति के क्षरण का डर व्यक्त कर रहा होता है. इस तरह देखें तो इंडस ब्लूज़ केवल कुछ लोक वाद्ययंत्रों के चलन से बाहर हो जाने की व्यथा को दर्ज नहीं करती बल्कि एक समूची संस्कृति की स्मृति में घटित हो रहे उजाड़ को भी दर्ज करती है.

इंडस ब्लूज़ के फिल्मांकन का दृश्य

 

तीन)

इस फिल्म में दूर तक पसरे रेत के बियाबान, और कच्ची मिट्टी से बने निर्जन और अब टूट-फूट चुके घरों, निराशा में अपनी बात कहते-कहते चुप हो जाने या बेबसी में अपनी बात अधूरी छोड़ देने वाले कलाकारों के ऐसे अनेकानेक बिम्ब बिखरे हैं जिन्हें देखकर गहरी कचोट होती है. आमतौर पर समाज के श्रमिक और वंचित समूहों से आने वाले इन कलाकारों के साथ राष्ट्र और आधुनिकता दोनों ने अन्याय किया है.

कहना न होगा कि लोक-संस्कृति के मुहावरे में यह फिल्म प्राक्-इस्लामी आस्थाओं और पूजा-पद्धतियों, प्रकृति की उपासना, सूफी परम्परा, भक्ति तथा आध्यात्मिक बहुलतावाद जैसी अंतर्ग्रथित धाराओं का एक ऐसा समवाय प्रस्तुत करती है जिसे धर्म के एकरूपतावादी दबावों, एकल अस्मिताओं के आग्रहों और बाजार की शर्तों ने ढक लिया है.

बहरहाल, फिल्म की यह चर्चा इसके दृश्यांकन की ख़ूबियों का जिक्र किए बग़ैर अधूरी रह जाएगी. इस फिल्म में निर्देशक ने टॉप-ऐंगल या ऑवरहेड दृश्यों का बेहद सूझ-बूझ से इस्तेमाल किया है. यह केवल फिल्म के भूगोल— रेगिस्तान, नदी का कछार और मरूभूमि आदि को दर्शाने की युक्ति भर नहीं है, बल्कि यह पृष्ठभूमि कलाकारों की सिमटती जगह, घटती हैसियत और एक विस्तृत भूभाग में उनकी अनश्चितता का रूपक बनकर उभरती है. मसलन, रेगिस्तान के अपार विस्तार में कहीं किसी घर के आंगन में बैठी कलाकारों की मंडली और उनके श्रोताओं का समूह या निर्जन पहाडि़यों के बीच बने किसी घर में वाद्य का ढांचा बनाते किसी शिल्पी का बिम्ब उस वैषम्य को प्रकट करता है जिसमें ये कलाकार अकेले दम पर अपनी कला-परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं. फिल्म के इन टॉप-ऐंगल दृश्यों में वह समूचा भू-दृश्य अजनबी, रिक्त और सिकुड़ता हुआ प्रतीत होता है— जैसे लोकवाद्यों के इन कलाकारों को राज्य, समाज और प्रकृति तीनों ने ही तज दिया है.

टॉप-ऐंगल दृश्यों में कोई भी आकृति अक्सर विरुपित, अपनी परिचित जगह से हिली हुई या असंपृक्त दिखाई देती है. कलाकारों के इस डांवाडोल वर्तमान में जहाँ उनके पास अपनी कोई धार्मिक, सांस्कृतिक ज़मीन नहीं बची है, ऐसे दृश्य सघन रूपक बन जाते हैं.

एक दूसरे स्तर पर, ऊंचाई से लिए गए ऐसे दृश्यों को देखते हुए कई बार यह एहसास होता है कि जैसे हम एक लुप्त हो चुकी दुनिया के पुरातात्विक अवशेषों को देख रहे हैं. इन दृश्यों में सारी आदमकद छवियां एक पारिस्थितिकीय और ऐतिहासिक परिवेश का अंग बन जाती हैं और दर्शक को अपने भीतर एक कौंध-सी महसूस होती है कि संगीत की यह विरासत असल में समूची ज़मीन, हवा और नदियों की थाती है. कि वह कला-विद्यालयों तथा राषट्रीय संस्थानों में पैदा नहीं होती. जवाद शरीफ़ का कैमरा ऊंचाई पर शायद इसलिए जाता है ताकि ज़मीन के दृश्य को उसके समूचे परिवेश में देखा सके. इन दृश्यों में ये कलाकार अक्सर ए‍क विस्तृत पृष्ठभूमि के आखि़री छोर पर खड़े दिखते हैं.

 

 

नरेश गोस्वामी
समाज विज्ञानी और हिंदी के कथाकार‘स्मृति-शेष: स्मरण का समाज विज्ञान’ पुस्तक और अनुवाद आदि प्रकाशित. वर्षों तक प्रतिमान का संपादन.

 naresh.goswami@gmail.com

 

Tags: 20252025 फ़िल्मIndus Bluesइंडस ब्लूज़नरेश गोस्वामीपाकिस्तान में लोक संगीतलोक कलाएंलोक कलाकार
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Comments 10

  1. Ashok Agarwal says:
    1 day ago

    लोक वाद्यों के विलुप्त होने की शोकांतिका है नरेश गोस्वामी का यह विचारोत्तेजक आलेख, जिसे उन्होंने एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म के माध्यम से लिखा है। हमारे देखते- देखते न जाने कितनी लोककलाएं विलुप्त हो चुकी हैं। कहां रह गए अब कठपुतलियों से सम्मोहित करने वाले तमाशा दिखाने वाले। मदारियों और नौटंकियों ने कभी की अपनी अंतिम सांस पूरी कर ली है।
    नरेश गोस्वामी को ऐसी दुर्लभ फ़िल्मों पर और भी लिखना चाहिए।

    Reply
  2. Amar says:
    23 hours ago

    जिस कला से सदियों प्रेम किया अब उसी नफ़रत करने लगे हैं। ऐसा इसलिए है कि लोकगायकों का जीवन निर्वाह करना मुश्किल हो चुका है । लेख में ठीक लिखा है लोग खाते- पीते रहते हैं और लोककलाकार कोने में बैठे हुए अपनी प्रस्तुति देते हैं । धीरे – धीरे यह कोना भी ग़ायब हो जायेगा ।
    फ़िल्म अभी देखूँगा । एक ऐसी ही फ़िल्म मीनराग, उसके दृश्य बेहद खूबसूरत है लेकिन जीवन की त्रासदी को छूती है लेकिन पर्दे पर ठीक से उभार नहीं पाती । शुक्रिया समालोचन

    Reply
  3. Manoj Mohan says:
    23 hours ago

    नरेश जी वहाँ देख पाते हैं जहाँ पॉपुलिज्म के दबाव में लोग देखना नहीं चाहते. हमारे यहाँ भी बहुत से वाद्य विलुप्ति के कगार पर हैं, उधर बहुत ही कम लोगों का ध्यान है…यह एक महत्त्वपूर्ण आलेख है

    Reply
  4. कुमार अम्बुज says:
    23 hours ago

    अरुण देव जी के सुझाव पर कल रात ही इस डाॅक्युमेंट्री/फ़िल्म को देखा, जिसकी एक अघोषित स्क्रिप्ट सिनेमेटोग्राफी भी लिखती चली जाती है। इस तकलीफ़देह कथा को नरेश जी ने उस मार्मिकता के साथ लिखा है जो संस्कृति के किसी अध्याय के उजड़ने और नष्ट होने से प्रसूत होती है। यह फ़िल्म और यह आलेख दारुण शोकगीत है। इस सभ्यता में रुलाई। यक्ष प्रश्न : बेसुरों के साम्राज्य में इसे कौन सुनेगा?

    प्रसंगवश प्रिय मनोज रूपड़ा की तीन दशक पुरानी, अविस्मरणीय कहानी ‘साज़-नासाज़’ भी याद आती है। नरेश गोस्वामी को इस लेख के लिए बधाई।

    Reply
  5. ज्ञानचन्द बागड़ी says:
    21 hours ago

    नरेश जी का यह आलेख पढ़ते हुए मैं गहराई से भावुक हो उठा। पाकिस्तान बरसों से मेरा प्रिय विषय रहा है, और प्रतिदिन इंटरनेट पर उससे जुड़ी चीज़ें देखने-सुनने की आदत है। कितनी ही बार बंटवारे के कारण हुए हमारे साझा सांस्कृतिक नुकसान को सोचकर आँखें भर आई हैं।

    थार के मरुस्थल की वाचिक परंपरा, वहाँ के संगीत वाद्य और लोकधुनें इस लेख को पढ़ते-पढ़ते आँखों के सामने तैरने लगीं। इस विषय पर कोमल कोठारी जी का काम भी स्मरण हो आया।

    दुर्भाग्य से उधर की गलियों से निकली हर धुन को मुंबईवालों ने अक्सर चुराकर एक कृत्रिम रूप में परोसा है। काश, प्रेरणा लेकर वे मौलिक सृजन की ओर बढ़ते। यह एक पुराना ज़ख़्म है, जिसे कभी विस्तार से लिखा जाएगा।

    ‘समालोचन’ पर ऐसी विविधता और गंभीरता की उम्मीद रहती है। नरेश जी की भावनाओं से स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस कर रहा हूँ। इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए नरेश जी और ‘समालोचन’ दोनों को साधुवाद।

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  6. कुमार अम्बुज says:
    21 hours ago

    पुनश्च
    इसमें ‘भैंस के आगे बीन बजाना’ की तर्ज पर क्रोध से भरा लेकिन दुख और संताप से भीगा हुआ एक संवाद है: ‘एक सूफी भिट्टाई के अनुसार – भेड़िये और सूअर संगीत नहीं समझ सकते।’ यह नाना प्रकार की कलाओं के संदर्भ में भी इस ‘इंडस क्षेत्र’ की परिधियों को लाँघकर विशाल आर्यावर्त भूखंड की विडंबनाओं को भी काली स्याही से रेखांकित कर देता है। अब सारे साज़ जैसे रुदालियाँ हैं।

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  7. संजय व्यास says:
    18 hours ago

    वृत्तचित्र के शीर्षक से ही एक उदास परिदृश्य कल्पना में आता है।
    इस डॉक्यूमेंट्री के बारे में नरेश जी के आलेख से वही परिचित कचोट महसूस होती है जो पश्चिमी राजस्थान के लोक संगीत की क्रमशः मृत्यु को जानते, याद आते होती है।
    कई लोगों का यहां भी मानना रहा है कि कमायचा साकर खां की मौत के साथ ही विदा हो गया। बहुत थोड़े जो लोग अब उसे बजाते हैं उनमें वो बात नहीं। लंबी और मोटी बाँसुरी ‘नड़’ में अपनी सांस फूंकने वाले अब केवल धोधे ख़ान है। खड़ताल का शीशम सद्दीक़ की हथेलियों में जिस तरह खनकता था वैसा अब कहाँ। अब तो खड़ताल केवल एक खिलौने की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
    सिन्धी सारंगी, सुरंदा, अलगोजा, मुरला जैसे वाद्य सरहद के दोनों और पसरी अपनी मूल भूमि से कमोबेश अपनी अंतिम प्रस्तुतियां दे चुके हैं। अब ये वाद्य चुप हैं। कहीं दिखाई भी नहीं देते। समारोहों और उत्सवों में लंगा माँगणीयार अब हारमोनियम और ढोलक के अतिरिक्त लोकवाद्य के नाम पर केवल खड़ताल को संगत में रखते हैं। वो भी इसलिए कि उसे हाथ में लेकर बजाने वाले की देह भंगिमाएं को चित्ताकर्षक लगती हैं, दर्शकों को पसंद आतीं हैं।
    जैसे वाद्य और वादक के लुप्त होते जाने को उपमहाद्वीप की साझी क्षति मान सकते हैं, वैसे ही लोकगायक के कंठ में वर्षों से सुरक्षित रहे लोकगीत भी समाप्त हो रहे हैं। प्रस्तुतियों में केवल फ़रमाइश पर आने वाले बनावटी और भद्दे, लोकगीतों जैसे लगने वाले छद्म गीतों को ही गाया जा रहा है। दुनिया के कगार पर किसी रेगिस्तानी गाँव में हिचकियों में याद आने वाले कुछ मीठे गीत जैसे डोरो, माणीगर, राणो काछबो, झेडर आदि स्मृति में अंतिम दीप्ति की तरह झिलमलाते हों तो हों।
    आलेख में जिन दबावों का विवेचन किया गया है वे ठीक इसी तरह अन्य जगहों पर भी काम करते हैं। जैसे पूर्व प्रचलित परंपराओं और आस्थाओं का समावेशी और उदार रूप जो का वैविध्य और बहुलता को नैसर्गिक मानता रहा है, धीरे धीरे मोनोलिथिक स्वरूप की आग्रहशीलताओं में जकड़ा जाकर समाप्त सा होता जा रहा है। लोकदेवताओं, नाथों, जोगियों, सूफियों के प्रति धर्म के शास्त्रीय स्वरूप से परे जाकर जताई गईं आस्थाएं अब धार्मिक मर्यादाओं के कड़े पहरे में हैं। धर्म की सीमाएं आवाजाही को स्वीकारतीं कुछ कुछ पोरस थीं, संवाद के लिए लचीली होकर प्रस्तुत हो सकती थीं, अब कठोर और अलंघ्य हो गई हैं और इस कारण उस साझे वातावरण में अब तक रह रहे शरणार्थी हिन्दू सिन्धी या उस तरफ़ रह रहे मुसलमान जोगी, कलाकार या कामगार के लिए अपनी आस्थाओं और परंपराओं को धर्म के कठोर अनुशासन में नए सिरे से परिभाषित करना पड़ रहा है।

    ये प्रश्न शायद हमें बार बार पूछना पड़े कि लोक कलाएं जिनके प्रवाह का कुछ भाग पहले ही शास्त्रीयताओं में विलीन हो चुका है, और निरंतर जिनका पाट संकीर्ण होता गया है और संपदा विरल, इन दबावों के बाद क्या अवश्यंभावी अंत की ओर तो नहीं बढ़ रहीं? क्या दस्तावेज़ीकरण ही एकमात्र उपलब्ध रास्ता है कुछ बचाने का? पर इससे क्या अंततः हम कलाओं के केवल संग्रहालय भर ही नहीं बना पाएंगे?
    ओवरहैड शॉट पर भी आलेख में जो लिखा गया है वो हमें डाक्यूमेंट्री को बहुत ध्यान और सजगता के साथ, अनेक कोण से देखने के लिए कहता है। विस्मरण की हद तक जा चुके ये वाद्य और कलाकार-शिल्पकार अपने समूचे परिवेश में एक असंपृक्त पैबंद की तरह हैं पर साथ ही वे हैं हमारी साझी विरासत।
    वृत्तचित्रों में अंतिम दृश्य बहुधा इसी रूप में बहुत ऊपर से दिखाया जाता रहा है। संभवतः निर्देशकों के लिए ये कोई उनकी निर्माण नियमावली का हिस्सा रहा हो, जो उन्हे कहता को कि ऐसा करना दर्शकों में कोई लैस्टिंग इम्पैक्ट पैदा करने के लिए ज़रूरी हो, कि इससे दर्शक को वृत्तचित्र के प्रति कुछ रूमानी जगाने में मदद मिलती हो, आखिर दृश्य कलाएं पसंद किये जाने की तकनीक भी अपनाती ही हैं। कुल मिलाकर आलेख की ये ख़ूबी है कि हम कितनी ही और दृष्टियों से विचार कर पाते हैं।
    साधुवाद, आभार, समालोचन।

    Reply
    • Anonymous says:
      8 hours ago

      संजय जी, आपने बहुत अच्छा लिखा है। आपने अपनी टिप्पणी में जिन विलुप्त हो चुके/हो रहे वाद्ययंत्रों के बारे में लिखा है, उन पर कृपया एक स्वतंत्र लेख लिखिए।
      सादर,

      Reply
  8. Rajaram Bhadu says:
    14 hours ago

    वृत्त- चित्र की पृष्ठभूमि पर उद्वेलित करने वाला लेख। हमारे समय की यह एक बड़ी सांस्कृतिक त्रासदी है। दक्षिण एशिया के पारंपरिक कलाकार समुदायों का यह क्षेत्र राजस्थान और गुजरात से लगा है और समान स्थितियों से गुजर रहा है। लोककला मर्मज्ञ कोमल कोठारी ने विभिन्न वाद्य- यंत्रों का संकलन किया और उनके बनने व उन्हें बजाने की विधि व विशेषताओं का लेखन किया। यह संग्रह उनके द्वारा जोधपुर के निकट स्थापित मरु- संग्रहालय अरना- झरना में मौजूद है। वहाँ इन्हें देखकर यही मर्मांतक खयाल आता है कि कैसे ये जीवंत वाद्य अपने ही अवशेषों में बदल गये हैं। मैं ने वृत्तचित्र नहीं देखा, इसे पढते हुए मेरे सामने कोमल दा द्वारा संगृहीत वही वाद्य- यंत्र कौंधते रहे

    Reply
  9. Sheela Rohekar says:
    12 hours ago

    पुरानी लोककलाएं , उनको पोषित कर जीवन देने वाले लोग व उनकी एकनिष्टता प्राय:मृतप्राय हैं।आज यदि जीवित है तो आलिशान उद्घाटन, ओटीटी फलक की फिल्मोमें बजबजाती गालियां और अपशब्दों की भरमार,और एक बेहया ,ठस दिमागी बेशर्मी दिनचर्या ।
    इतिहास, संस्कृति और लोकजीवन से बेदखल यह युवा वर्ग कैसा तो भ्रमित दिखता है। वे इंडस ब्लू को कभी समझ या जान पाएंगे?

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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