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समालोचन

Home » महाकवि अश्वघोष का बुद्धचरित : चंद्रभूषण से महेश मिश्र की बातचीत

महाकवि अश्वघोष का बुद्धचरित : चंद्रभूषण से महेश मिश्र की बातचीत

अश्वघोष का ‘बुद्धचरित’ धार्मिक ही नहीं, साहित्यिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है. यह एक ऐसा महाकाव्य है, जो भारत में सदियों तक गुमनामी में रहा. चंद्रभूषण की पुस्तक ‘बुद्धचरित और अश्वघोष’ इस विस्मृत धरोहर को सामने लाती है. तलाश, शोध और प्रकाशन की इस कठिन सांस्कृतिक यात्रा को समझ रहे हैं महेश मिश्र. प्रस्तुत है यह संवाद.

by arun dev
August 17, 2025
in बातचीत
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महाकवि अश्वघोष का बुद्धचरित : चंद्रभूषण से महेश मिश्र की बातचीत
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महाकवि अश्वघोष का बुद्धचरित
चंद्रभूषण से महेश मिश्र की बातचीत

‘जिस तरह धर्मचक्र सतत चलता रहता है, उसी तरह संस्कृति और साहित्य की धाराएं भी अपने स्रोतों से जुड़कर ही जीवंत रह पाती हैं. महाकवि अश्वघोष का ‘बुद्धचरित’ एक ऐसा दुर्लभ ग्रंथ है, जो न केवल बुद्ध के जीवन का काव्यमय और महाकाव्यात्मक चित्रण करता है, बल्कि बौद्ध दर्शन की करुणा, समता और जागृति को सुंदर छंदों में संजोता है. आज, जबकि इस रचना का संपूर्ण रूप किसी भी भारतीय भाषा में उपलब्ध नहीं है, चंद्रभूषण जी ने दूसरे देशों में मौजूद इसके विभिन्न संस्करणों की खोज और पुनर्पाठ के माध्यम से एक सांस्कृतिक ऋण चुकाने का विरल साहस किया है. इस संवाद में हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि यह यात्रा कैसे शुरू हुई, किन कठिनाइयों से गुजरी, और ‘बुद्धचरित’ को प्रकाश में लाना उन्हें आज इतना ज़रूरी क्यों लगा.’

1.

महेश मिश्र

बुद्ध पर आपकी पिछली पुस्तक बहुत सराही जा रही है. उस पुस्तक में आपने सांस्कृतिक इतिहास की गतिकी पर बहुत गंभीर काम किया है. वह थकान शायद उतरी भी नहीं होगी और आप नई यात्रा पर निकल पड़े. बुद्धचरित पर आपकी यह खोज-यात्रा किस क्षण से शुरू हुई? पुस्तक के इतने विविध संस्करणों की तलाश का संकल्प आपके मन में कैसे जागा?

चंद्रभूषण

महेश जी, आप मेरी पिछली किताब, ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ की रचना प्रक्रिया के ही नहीं, उसकी धारणा बनाने के क्रम में जारी कशमकश के भी साक्षी रहे हैं. थोड़ा ही समय हुआ था जब ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ किताब बाजार में आई थी और साहित्य अकादेमी के लॉन में बैठे हम दोनों बौद्ध धर्म से जुड़े कुछ बुनियादी सवालों पर बातचीत कर रहे थे. यह धर्म भारत में पैदा होकर सत्रह सौ साल यहाँ  किसी न किसी रूप में मौजूद रहा. फिर पता नहीं कौन से घटनाक्रम में सदियों-सदियों के लिए यहाँ  से लुप्त हो गया, जबकि दूसरे देशों में फलता-फूलता रहा. ऐसा कैसे हो सकता है?

धुंध से बचने के लिए मैंने सबसे पहले यह जानने की कोशिश की कि बुद्ध का धर्म अपनी निरंतरता में दिखता कैसा होगा. यह सवाल ही मुझे खींचकर नेपाल ले गया, क्योंकि वहाँ  इसकी एक शाखा उसी प्रक्रिया में बची रह गई है, जिसमें यह तिब्बत पहुंचकर वहाँ का लगभग अकेला धर्म बना हुआ है. लगभग डायनोसोर जैसी कालातीत परिघटना लगने वाली नेपाल की इस बौद्ध शाखा, नेवार बुधिज्म पर काम करते हुए, इससे जुड़े लोगों से बातचीत करते हुए ही मुझे पता चला कि इस धर्म की भाषा संस्कृत है!

यह मेरे लिए चकित करने वाली बात थी, क्योंकि संस्कृत से तो मैं बुधिज्म का जन्मजात बैर मानता आया था. भारत में हम बौद्ध धर्म की भाषा पालि ही सुनते आए हैं, जबकि महासिद्धों के जरिए तिब्बत से इसका संपर्क मुख्यतः अपभ्रंश भाषा में हुआ था. आदि से अंत तक के इस पूरे किस्से में संस्कृत कहाँ  से कूद पड़ी? बहरहाल, अश्वघोषकृत बुद्धचरित का नाम इसी क्रम में पहली बार मेरे कान में पड़ा.

कोई भी समझदार इंसान यह बात सुनकर हंसेगा. लिखने-पढ़ने की दुनिया में हैं और अश्वघोष का नाम सुनने में इतना वक्त लगा दिया? लेकिन मेरी खाल खासी मोटी है. सूचनाओं के मामले में पत्रकार किसी के हंसने की परवाह नहीं करता. हर सूचना किसी न किसी तक कभी न कभी पहली बार ही पहुंच रही होती है. किसी दिन इस किताब की जड़ तक जाऊंगा, यह जिद भी एक नेपाली साथी से बतियाते हुए ही पैदा हुई. मेरा यह मित्र थेरवादी है, पालि बुधिज्म वाला. वह कतई यह मानने को राजी ही न हो कि अश्वघोष ने संस्कृत में बुद्ध का जीवनचरित लिख रखा है.

बुद्धचरित के संस्करण खोजने की धुन सवार हुई किसी मित्र द्वारा वॉट्सऐप पर भेजी हुई इसकी एक फाइल पढ़कर. ‘बुद्धचरितम्’ शीर्षक से भिक्खु आनंदजोति की यह प्रस्तुति पूरी तरह संस्कृत में थी और जर्मन विशेषज्ञों द्वारा खोजी गई, विवादित पाठों को शुद्ध संस्कृत में लाने की सॉफ्टवेयर आधारित एक लंबी प्रक्रिया से निकल कर आई थी. मेरी संस्कृत कुछ खास अच्छी नहीं है और इस भाषा को पढ़ने का अभ्यास भी नहीं है. लेकिन दिलचस्पी इतनी ज्यादा थी कि टो-टाकर और पत्नी की गालियां सुनते हुए लगातार बारह घंटे की महज एक बैठकी में चौदह सर्गों का वह पूरा टेक्स्ट मैं बांच गया. खैर, यह काम तो जैसे-तैसे हो गया, लेकिन तृष्णा नहीं गई. यह किस्सा पूरा जानना है. सिद्धार्थ अभी कहानी में पूरी तरह बुद्ध भी नहीं बन पाए हैं. मुझे तो दुनिया में उनके आखिरी पल तक के, और हो सके तो उसके बाद के भी वाकये देखने हैं. आगे हाथ-पैर मारने की शुरुआत कुछ इसी तरह हुई.

 

2.

महेश मिश्र

एक वाज़िब-सा सवाल मन में आता है कि बुद्धचरित जैसा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ आज भी किसी भारतीय भाषा में संपूर्ण रूप में क्यों उपलब्ध नहीं है? इसके पीछे आपको क्या ऐतिहासिक या सांस्कृतिक कारण दिखाई देते हैं?

चंद्रभूषण 

बुद्धचरित लगभग दो हजार साल पुराना ग्रंथ है. यह कोई अटकलों वाली बात नहीं है, क्योंकि सन 421 ई. में इसका चीनी भाषा में अनुवाद हो चुका था और इसके थोड़े ही बाद इसके लेखक अश्वघोष की जीवनी भी चीनी समाज में रुचि से पढ़ी जाने लगी थी. चीन में इस ग्रंथ के अस्तित्व पर कभी कोई खतरा नहीं रहा, लेकिन भारत में यह विलुप्त कैसे हो गया, यह एक सवाल ही है. बताना जरूरी है कि नेवारी और देवनागरी लिपियों में ‘बुद्धचरित’ की अधूरी, क्षतिग्रस्त प्रतियां काठमांडू घाटी के ललितपुर पाटन शहर में सन 1830 से थोड़ा पहले, ब्रिटिश रेजिडेंट ब्रायन हॉजसन की पहल पर आचार्य अमृतानंद शाक्य वंद्य द्वारा संरक्षित की गई थीं. ये चौदहवें सर्ग के 30वें श्लोक तक पहुंचती हैं, जबकि चीनी और तिब्बती भाषाओं में यह ग्रंथ 28 सर्गों में मिलता है. इनकी भाषा संस्कृत है, लिहाजा इन्हें हम अश्वघोष विरचित मूल ग्रंथ के सबसे ज्यादा करीब मानते हैं.

बाद में भारत में भी बुद्धचरित की खोजबीन शुरू हुई तो इसके छिटपुट हिस्से जहाँ-तहाँ , मुख्यतः जैन साधकों के यहाँ  मिले. सबसे दूर तक, बारहवें सर्ग के कुछ हस्तलिखित संस्कृत ताड़पत्रों की ही प्राप्ति कोंकण में हो सकी. भारत में यह ग्रंथ क्यों नष्ट हो गया, और कालक्रम के किस आखिरी बिंदु तक इसकी संपूर्ण प्रतियां भारत में मौजूद रहीं, इस बारे में अटकलें ही लगाई जा सकती हैं. तिब्बती भाषा में हुए इस ग्रंथ के अनुवाद में जिस राजा के लिए स्वस्तिवाचन किया गया है, उसका समय वही है जो समूचे चीन पर चंगेज खां के पोते कुबलाई खां के शासन का है. मोटे तौर पर 1260 से 1280 ई. के बीच का. इससे दो अनुमान निकलते हैं. एक तो यह कि बुद्धचरित देर से तिब्बत पहुंचा और अनुवाद के थोड़ा समय पहले तक अपने संपूर्ण रूप में यह भारत में मौजूद रहा होगा. दूसरा यह कि इसकी कुछ गिनी-चुनी प्रतियां ही यहाँ  होंगी, लिहाजा तिब्बत पहुंचे एक अकेले अपवाद को छोड़कर नालंदा, उदंतपुरी और विक्रमशिला महाविहारों के पुस्तकालयों समेत नष्ट होने के साथ ही यह ग्रंथ भी नष्ट हो गया होगा.

छापाखानों की गैरमौजूदगी वाले उस दौर में ग्रंथों की निरंतरता या तो उन्हें याद रखकर सुनिश्चित की जा सकती थी, या हाथ से उनकी ज्यादा से ज्यादा प्रतियां तैयार करके. मेरे लिए उलझन की बात यह है कि भारत में एक हजार साल से ज्यादा जीवनकाल के बावजूद बुद्धचरित की प्रतियां इतनी कम क्यों तैयार की जा सकीं कि पुस्तकालयों की बर्बादी के साथ इसका विलोप हो गया. या क्या पता, घटनाक्रम कुछ और ही हो. बौद्ध संस्कृति की तबाही का कुचक्र बाहरी हमलावरों तक सीमित न रहा हो. बौद्ध केंद्रों की बर्बादी के बाद बौद्धों को भी खोज-खोजकर मारा और उजाड़ा गया हो. भारत में विलुप्त पंथों और ग्रंथों की सूची लंबी हो सकती है, लेकिन इनमें संस्कृत के ग्रंथ भी शामिल थे, यह बात हमें अटपटी लगती है. बहरहाल, बुद्धचरित इनमें शीर्ष पर है और महायानी संस्कृत ग्रंथों की संख्या इस भाषा की गायब हो चुकी कृतियों की सूची में सबसे बड़ी है.

 

3.

महेश मिश्र

यह सर्वथा उचित ही है कि ऐतिहासिक तथ्यों पर बेज़ा अटकलें न लगाई जाएँ. बुद्धचरित के इस हिन्दी संस्करण के लिए आपने तिब्बती और चीनी स्रोतों से उसकी कथा के सूत्र जोड़े, जैसे टूटी हुई माला के मोतियों को ढूँढ़ना और उन्हें फिर से पिरोना. इन अनूदित अंशों को आपने किस तरह इस रूप में गढ़ा कि पाठक को एक समग्रता का अनुभव मिल पाए?

चंद्रभूषण

जो चौदह (या साढ़े तेरह) सर्ग संस्कृत में मौजूद हैं, उनसे अश्वघोष की भाषा-शैली और उनकी टोन का कुछ अंदाजा मिल जाता है. तिब्बती भाषा में क्रियाएं तो वहाँ  की अपनी हैं, लेकिन उनमें रूपों का व्यवहार पाणिनीय संस्कृत की तरह ही किया गया है. अध्यवसायी यूरोपीय विद्वानों ने चौदहवें और पंद्रहवें सर्ग के कुछ श्लोकों को तिब्बती से संस्कृत में पुनर्प्राप्त कर लिया है और पढ़ने में उनका वजन अश्वघोष के श्लोकों की ही तरह ही नपा-तुला लगता है. ये हिस्से मुझे तिब्बती से अंग्रेजी में (और छिटपुट संस्कृत में भी) गए हुए मिल गए तो उनके लिए ट्रैक नहीं बदलना पड़ा. लेकिन जब मामला ठेठ चीनी दायरे में पहुंचा तो चीनी पाठ का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध होने के बावजूद उसे पकड़ना खासा मुश्किल साबित हुआ. कई बार त्रिपिटक में आए बुद्ध के जीवन प्रसंग खोजने पड़े.

ऐसी बहुत सी वनस्पतियां हैं, ऋषियों और अप्सराओं के नाम हैं, जगहें हैं, जिनके नामों का रूपांतरण चीनी भाषा में कर दिया गया है. विद्वानों ने उनका सिर-पैर समझने की कोशिश की है और मैंने भी उनसे पूरी सहायता ली है, लेकिन जहाँ -तहाँ  पाठकों से माफी भी मांगनी पड़ी है. वैशाली की ‘तोत्सेऊ टॉवर’, जहाँ  बुद्ध की मुलाकात पहली बार महाकाश्यप से होती है, मेरे लिए एक अज्ञात स्थान ही बनी रही. बुद्धचरित में जामुन के चिकने पत्तों का जिक्र कई जगह आया है लेकिन चीनी ग्रंथ में जामुन की जगह हर बार शहतूत आता है. ग़नीमत है कि ये हिस्से संस्कृत में उपलब्ध हैं. चीनी भाषा पर नितांत निर्भरता वाले हिस्सों में ऐसे ठोस जमीनी ब्यौरे अपेक्षाकृत कम आते हैं, फिर भी जहाँ -तहाँ  अक्ल लड़ानी पड़ती है और गुंजाइश भी निकल आती है. मसलन, ड्रैगन का जिक्र वहाँ  कई मौकों पर आता है, जो एक बनाई हुई बात लगती है. बुद्धचरित में ड्रैगन कहाँ  से आ जाएगा? लेकिन डटे रहने पर पता चलता है कि दरअसल वे नाग हैं. चीन में ड्रैगन की जो छवियां हैं उनमें उनका क्रुद्ध होना स्वाभाविक है, लेकिन उनका रोना एक अटपटी बात है. बुद्ध के निर्वाण के समय आकाशचारी ड्रैगनों की आंखें क्रोध से लाल दिखती हैं. लेकिन तिब्बती संस्करण में महानागों की आंखें आंसुओं से लाल देखकर समस्या हल हो जाती है. काम टेढ़ा था लेकिन एक समग्र प्रवाह और लय पाने की कोशिश तो मैंने की है.

 

4.

महेश मिश्र

आपने अभी महाकवि अश्वघोष के भाषायी टोन की विशिष्टता की बात की है. उनकी भाषा-शैली में ऐसा क्या है, जो संस्कृत साहित्य और बौद्ध काव्यधारा में उन्हें एक विशिष्ट स्थान देता है?

चंद्रभूषण

बनारस के संस्कृति मर्मज्ञ प्रो. अवधेश प्रधान ने ‘बुद्धचरित और महाकवि अश्वघोष’ के लिए लिखे गए ब्लर्ब में अश्वघोष की शैली के लिए ‘प्रसन्न-गंभीर’ विशेषण आजमाया है, जो मेरे ख्याल से, बहुत अच्छा शब्द चयन है. भावना के अतिरेक वाले प्रसंगों में भी आप अश्वघोष को भाव-विगलित होता हुआ नहीं देखते. इस मामले में वे खुद से

पीछे के वाल्मीकि और खुद से आगे के कालिदास, दोनों से बहुत अलग हैं.

सीता को कोई भनक भी हुए बगैर अंतिम रूप से उन्हें वन में छोड़ते हुए लक्ष्मण कहते हैं- ‘आपके पति, राजा राम ने मेरे हृदय में एक खूंटा ठोंक दिया है.’ वाल्मीकि का यह वाक्य हमें बहुत देर तक याद रहता है, लेकिन अश्वघोष के यहाँ  ऐसा कुछ पाने की उम्मीद हमें नहीं करनी चाहिए. इसका मतलब यह कतई नहीं कि उनकी काव्य रचना सपाटबयानी के करीब जाती है. पाठक का हृदय विदीर्ण कर देने वाले अनेक प्रसंग उनके यहाँ  उभरते हैं. लेकिन वे एक भिक्षु कवि हैं और उनकी रचना का उद्देश्य पाठक को मोहाविष्ट करने के बजाय उसे मोह से विरत करना है. यह कवि-कौशल हम उन्हीं के यहाँ  पा सकते हैं.

 

5.

महेश मिश्र

आपने बौद्ध धर्म के तीन रूपों का विस्तार से ज़िक्र किया है. इस पुस्तक से पाठक को थेरवाद, महायान और वज्रयान की परस्पर जुड़ी कड़ियों के संदर्भ में कौन-सा नया बोध मिलेगा?

चंद्रभूषण 

थेरवाद और बाद के दोनों पंथों की अपनी-अपनी शक्ति और सीमाएं हैं. थेरवाद की शक्ति उसके वैराग्य और व्यक्तिगत साधना में है जबकि महायान-वज्रयान का स्वरूप अधिक सामाजिक है, निजी मुक्ति को वे ज्यादा वजन नहीं देते. बुद्धचरित में आप बुद्ध को पूरी तरह मनुष्य रूप में पाते हैं, जैसा थेरवादी उन्हें मानते आए हैं. लेकिन हर बिंदु पर समाज में अपने बुद्धत्व का हस्तक्षेप सुनिश्चित करने के लिए वे किसी महायानी बोधिसत्व की तरह ही कटिबद्ध हैं. ऐसा कहा जाता है कि अश्वघोष की मान्यता हर बौद्ध पंथ में थी और बुद्धचरित को किसी पंथ से जुड़ा ग्रंथ कभी नहीं माना गया.

हर्षवर्धन के बाद के समय में, जब बौद्ध धर्म की पहचान जमीनी और आकाशीय बोधिसत्वों से होने लगी तब शाक्यमुनि बुद्ध पहले की तरह धर्म की एकमात्र धुरी नहीं रह गए. एक संभावना है कि इसके चलते एक ग्रंथ के रूप में बुद्धचरित का मुकाम भी बौद्ध दायरे में पहले जैसा न रह गया हो. दूसरी तरफ थेरवाद में भी इसकी प्रतिक्रिया देखने को मिली और श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड जैसे थेरवादी देशों में इसका जिक्र मिलना बंद हो गया. जो भी हो, बुद्ध और उनके धर्म को समग्रता में देखने का रास्ता आगे बुद्धचरित से ही खुलेगा.

 

 

6.

महेश मिश्र

संस्कृत बुधिज्म के बारे में आपने कहा कि यह हमारे ज्ञान में सबसे अ-पहचाना कोना है, आम पाठक के लिए इसकी ज़रूरत को आप कैसे स्पष्ट करेंगे?

चंद्रभूषण

मेरे ख्याल से, इस बारे में थोड़ी बात ऊपर आ गई है. महायान दर्शन, चांद्र व्याकरण, ध्यान-धारणा और उपासना से जुड़े सौ से ज्यादा संस्कृत में लिखे हुए ग्रंथ अभी केवल चीनी भाषा में उपलब्ध हैं. तिब्बती में ऐसे अनूठे ग्रंथों की तादाद कितनी है, ठीक से इसका आकलन भी अब तक नहीं हो पाया है. अभी तिब्बत का जो हाल है, आधुनिक संपादन के क्रम में पुनर्प्राप्ति से पहले ही वे शायद अपनी अंतिम घड़ियां भी पूरी कर लेंगे. इनकी तुलना में बाद के, यानी तांत्रिक मिजाज के वज्रयानी संस्कृत ग्रंथ और अपभ्रंश ग्रंथों के वज्रयानी पाठ अधिक सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि तिब्बती बौद्धपंथों के लिए वे कर्मकांड का हिस्सा बन चुके हैं.

महायानी संस्कृत ग्रंथ अपने मूल रूप में अभी सबसे ज्यादा नेपाल में हैं, बशर्ते समय से उनका संरक्षण हो पाया हो. आचार्य हरप्रसाद शास्त्री ने एक समय उनकी खोज-खबर ली थी, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारतीय विद्वानों ने उनमें कोई विशेष रुचि दिखाई हो तो इसकी जानकारी मेरे पास नहीं है. ध्यान रहे, संस्कृत दायरे में महायान बुधिज्म को खलनायक के रूप में चिह्नित करने का एक संभावित कारण यह था कि वह लगातार इस भाषा की कथित मुख्यधारा के साथ बहस में रहा. उसके विलोप से संस्कृत में भिन्न जीवन मूल्यों वाली एक बड़ी संवादी धारा गायब हो गई और यह पूरी तरह एक जाति के वर्चस्व वाली जड़सूत्री, कर्मकांडी, पांथिक भाषा बनकर रह गई, इस विडंबना की ओर आज भी कम ही लोगों का ध्यान जाता है.

 

7.

महेश मिश्र

एक सवाल थोड़ा हटकर करना चाहूंगा. स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले तक कई बुद्धिजीवी बौद्ध धर्म की तरफ बड़े उत्साह से आकर्षित हुए थे. राहुल सांकृत्यायन अपनी जान जोखिम में डालकर तिब्बत से कई महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथ भारत ले आए थे. आचार्य नरेंद्र देव के महायान संबंधी महत्वपूर्ण काम का उल्लेख जहाँ -तहाँ  मिलता है. जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा की भी दिलचस्पी बौद्ध धर्म में बताई जाती है. कारण क्या है कि स्वतंत्र भारत में यह परंपरा टूट सी गई और बौद्ध धर्म से जुड़ी सारी बातचीत डॉ. भीमराव आंबेडकर और उनके अनुयायियों तक सिमटती गई? इसी से जुड़ा एक सवाल यह भी कि आप स्वयं विज्ञान और दूसरी रुचियों को किनारे करके पिछले कुछ वर्षों से इसी तरफ क्यों जुट गए हैं? क्या आपको लगता है कि इस बंद गली से कोई नई राह फूटने वाली है?

चंद्रभूषण 

अपनी तरफ उन्मुख सवाल से बात शुरू करूं तो यह बात से बात निकलते जाने जैसा ही है. मोटे तौर पर पत्रकारीय रुचि से पैदा हुई चीज है, मिशनरी उत्साह जैसा कोई मामला यहाँ  नहीं है. मिजाज से मैं नास्तिक हूं. किसी भी धर्म को लेकर कोई विशेष उत्साह मन में नहीं पैदा होता. अलबत्ता पिछली तीन किताबों पर काम करते हुए यह लगने लगा है कि भारत में बौद्ध धर्म को पूरी तरह गायब कर देने वाले आखिरी चार-पांच सौ सालों की गुत्थी नहीं सुलझाई गई तो भक्तिकाल और कथित नवजागरण को लेकर हमारी राष्ट्रीय समझ भी अधूरी ही रह जाएगी. यह इतना बड़ा काम है कि इसमें हाथ डालते भी डर लगता है, लेकिन इससे जूझते हुए एक और किताब मैं पूरी करके रहूंगा. उससे कोई प्रक्रिया शुरू हो गई तो और लोग उसे आगे बढ़ाएंगे. नहीं हुई तो कोई बात नहीं. बौद्ध धर्म में रुचि का मामला अलग है. समाज में उसकी भी एक प्रक्रिया चल रही है. बंद गली कहना शायद उचित न हो. उग्र हिंदुत्व के उभार से समाज में सतह के नीचे समता के तत्व खोजने की एक सुनगुन उठ पड़ी है. मेरे लिखे-पढ़े की कुछ भूमिका इसमें हो या न हो, लेकिन नई राह फूट ही पड़े तो किसी को अचंभा नहीं होना चाहिए.

खैर, आपके सवाल का शुरुआती हिस्सा कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. पढ़े-लिखे लोगों में इसपर कभी कोई गंभीर बातचीत क्यों नहीं हुई, यह सोचकर मैं हैरान रह जाता हूं. कई वजहें सोची जा सकती हैं. एक तो वह औसतपना ध्यान में आता है, जिसने स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही इस देश की बौद्धिकता को पूरी तरह ग्रस लिया. मामला किसी तरह कॉलेजों की प्रोफेसरी पाने का रहता था लेकिन आवरण गंभीर से गंभीर विचारधाराओं का रखा जाता था.

दूसरा पहलू दमित औपनिवेशिक पहचान से निकलकर उभरती हुई शासकवर्गीय पहचान का हिस्सा बनने का था, जिससे बौद्धिक बौनेपन को सुनहरा रंग मिल गया. तीसरी बात धर्म को पिछड़ी विचारधारा का पर्याय मान लेने की थी, जिसका शिकार बौद्ध धर्म में नई-नई पैदा हुई अभिरुचि भी हुई. इस प्रक्रिया के प्रतीक स्वयं राहुल सांकृत्यायन बने, जो सोवियत संघ में कुछ समय बिता लेने के बाद यह भूल ही गए वहाँ  तक वे एक बौद्ध भिक्षु के रूप में पहुंचे थे. चौथी और ज्यादा खतरनाक बात यह कि डॉ. भीमराव आंबेडकर के बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने के बाद इस धर्म की पहचान समाज के दलित वर्ग से जुड़ गई और बुद्धिजीवी तबका स्वभावतः इससे कतराकर निकलने लगा. इसके अलावा दस और बातें हो सकती हैं, लेकिन यह प्रक्रिया भारत से बौद्ध धर्म के विलोप जितनी ही चौंकाने वाली है.

 

8.

महेश मिश्र

बुद्धचरित को आप इतिहास-दर्शन की तरह देखते हैं, या भारत के एक सांस्कृतिक अध्याय की तरह? इसके माध्यम से आप भारत की सांस्कृतिक विरासत के किस रूप को पुनः जीवित करना चाहते हैं?

चंद्रभूषण

एक किताब सिर्फ एक किताब होती है. उसमें बड़े अर्थ भरना समाज का काम है. लगभग डेढ़ हजार साल तक जीवन के कई क्षेत्रों में बड़े-बड़े काम करने वाली और कुछ बुनियादी मामलों में हटकर सोचने वाली एक धारा विलुप्त हो गई लेकिन एशिया के बड़े दायरे में उसकी गति बनी रही. यह खुद में अटपटी बात है. भारतीय समाज में संस्कृति के स्तर पर कई चीजें बहुत खलने वाली हैं. जन्म के स्तर पर इंसान-इंसान में फर्क करने वाली सोच को यहाँ  ईश्वरीय दायरे तक फैला दिया गया है और एक झीने से आवरण के नीचे आज यह सड़कर बजबजा रही है. भारत वापस एक बौद्ध समाज बन जाए, बुद्ध की वाणी यहाँ  दो हजार साल पहले की तरह फिर से गूंजने लगे, यह तो इतिहास के चक्के को पीछे घुमाने जैसा होगा. लेकिन बुद्ध की कोशिशों से ‘धर्म’ शब्द का जो नया अर्थ निखरा था, उसका भारतीय समाज में वापस लौटना इसके मिजाज में कुछ सकारात्मक बदलाव तो ला ही सकता है.

 

9.

महेश मिश्र

जी. क्या आप यह कहना चाहते हैं कि अविद्या से उपजा भेदभाव भी प्रतीत्य-समुत्पाद से ही मिट सकता है? आपने जन्म-आधारित ऊंच-नीच को खारिज करने वाली बुद्ध की दृष्टि पर बल दिया — क्या आज के सामाजिक वातावरण में यह उपदेश और भी ज़रूरी हो गया है?

चंद्रभूषण

निश्चित रूप से. उपदेश क्या, एक साफ दृष्टि कहें. प्रतीत्य-समुत्पाद, यानी शाश्वत या स्थायी कुछ भी नहीं. हर चीज, चाहे भाषा हो या जाति, या धर्म या कुल-खानदान, या ईश्वरीय समझी जाने वाली कोई सत्ता, अपने से पीछे की चीजों से पैदा हुई है और एक क्रम में बदलते-बदलते इतनी बदल जाएगी कि लोग उसे किसी और ढंग से पहचानने लगेंगे. कहेंगे, वह तो मर गई, उसका किस्सा खत्म हुआ, उसकी जगह कुछ और आ गया. ऐसी समझ के रहते ऊंच-नीच या किसी भी किस्म के स्थायी विभेद के लिए जगह कहाँ  बचेगी?

 

10.

महेश मिश्र

अंत में, जो पाठक धार्मिक या दार्शनिक ग्रंथों में उतनी रुचि नहीं रखते, उन्हें ‘बुद्धचरित’ से जुड़ने के लिए आप संक्षेप में क्या कहेंगे?

चंद्रभूषण

बुद्धचरित कोई धर्मग्रंथ नहीं है. उसी तरह, जैसे रामायण, महाभारत, मेघदूत या कादंबरी धर्मग्रंथ नहीं हैं. ये हमारे समाज की महान रचनाएं हैं, जिन्हें दुनिया पढ़ती है और इनसे अपने-अपने नतीजे निकालती है. पहली बार इस ग्रंथ के संपूर्ण रूप में हिंदी में आने के दो फायदे हैं. एक तो इसके जरिये बुद्ध के जीवन को उसकी समग्रता में देखा जा सकेगा. दूसरे, रामायण और महाभारत के बाद एक तीसरे तरह की महाकाव्यात्मकता से हमारा परिचय होगा. बुद्धचरित एक महाकाव्य है लेकिन रामायण और महाभारत से अलग तरह का महाकाव्य. इसमें महाभारत जैसी बहुलता नहीं है और रामायण की तरह नियति के हाथों में खेलने की दारुण उठापटक नहीं है. लेकिन इसमें दुनिया में रहते हुए दुनिया से पार जाने का एक अद्भुत तत्व है, जिसे बयान करने की प्रतिभा अश्वघोष जैसे महाकवि में ही मौजूद थी. उनके बारे में कुछ कहना मेरे लिए सूरज को दीया दिखाने जैसा ही है. उनका व्यक्तित्व बनने का एक खाका राहुल सांकृत्यायन ने ‘वोल्गा से गंगा’ में मौजूद अपनी कहानी ‘प्रभा’ में अपनी उर्वर कल्पना से खींचा था. कुछ प्राचीन चीनी स्रोत भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि अपने दौर का ग्लोबल दिमाग उनके पास था.

 

चंद्रभूषण
(
जन्म: 18 मई 1964)

‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियाँ’, पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’, भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ आदि  पुस्तकें प्रकाशित.

patrakarcb@gmail.com

 

महेश मिश्र
भारतीय तथा वैश्विक सांस्कृतिक मामलों के जानकार हैं.
साहित्य में रुचि और गति.

 

सम्प्रति:  भारतीय सूचना सेवा में कार्यरत 
maheshmishra321@gmail.com
 

Tags: 2025कवि अश्वघोष का बुद्धचरितचंद्रभूषणमहेश मिश्र
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इंडस ब्लूज़ : नरेश गोस्वामी

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Comments 2

  1. श्रमण प्रकाश says:
    4 hours ago

    चंद्रभूषण जी यह महान बौद्धिक कार्य अत्यंत प्रशंसनीय है चंद्रभूषण जी ने बेहद कठिन और दुष्कर कार्य को फलीभूत किया है “भारत से कैसे गया बुद्ध धर्म ” पुस्तक बहुत भारी श्रम और पुरुषार्थ के साथ लिखा गया इसे पढ़ना भी अपने आप में एक पुरूषार्थ है

    Reply
  2. बजरंग बिहारी says:
    1 hour ago

    कहने की ज़रूरत नहीं कि चंद्रभूषण का यह ग्रंथ बहुप्रतीक्षित था।
    अश्वघोष का बुद्धचरित पढ़ा जाए, उस पर चर्चा हो। इस अध्ययन की सार्थकता के पट धीरे-धीरे खुलते जाएँगे।
    चंद्रभूषण जी से इतनी अच्छी बात करने के लिए महेश मिश्र का बहुत धन्यवाद।

    Reply

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