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समालोचन

Home » लुइज़ ग्लुक की कविताएँ : अनुवाद : योजना रावत

लुइज़ ग्लुक की कविताएँ : अनुवाद : योजना रावत

2020 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लुइज़ ग्लुक (1943-2023) की इन कविताओं में समय, स्मृति और अस्तित्व की जटिलताओं की गहनता है. बर्फ़, नदी, पेड़, समुद्र जैसे प्रतीक जीवन और मृत्यु, भय और आशा को उद्घाटित करते हैं. वे साधारण घटनाओं से अस्तित्वगत प्रश्न उठाती हैं और मौन तथा शून्यता को भी अर्थपूर्ण बना देती हैं. उनकी काव्य-दृष्टि व्यक्तिगत अनुभवों को सार्वभौमिक संदर्भों में रूपांतरित करती है, जिससे उनकी कविताएँ आत्मस्वीकृति और दार्शनिक चिंतन दोनों का रूप ले लेती हैं. उनकी लैंडस्केप श्रृंखला की कविताओं का अनुवाद लेखिका योजना रावत ने मूल अंग्रेजी से किया है. अनुवाद भी एक पुनर्रचना है. मूल की भावना को बनाए रखते हुए उसे एक भिन्न भाषा और संस्कृति में उतारने में अनुवादक और लक्ष्य भाषा का भी बहुत कुछ उसमें शामिल हो जाता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
August 29, 2025
in अनुवाद
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लुइज़ ग्लुक की कविताएँ : अनुवाद : योजना रावत
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लुइज़ ग्लुक की कविताएँ
अनुवाद: योजना रावत

मं ज़ र ना मा

1.

पहाड़ों के पीछे डूब रहा है सूरज,
धरती ठंडी होती जा रही है.
एक अजनबी ने
पर्णविहीन शाहबलूत के पेड़ से
बाँध दिया है अपना घोड़ा.

घोड़ा शांत है
अचानक सिर घुमाता है,
दूर कहीं से आती है
समुद्र की आहट.

मैंने यहीं बिछा लिया है
इसी नम धरती पर
रात का बिस्तर
ओढ़ ली है अपनी सबसे भारी रज़ाई.

समुद्र की आवाज़
सुनती हूँ
जब घोड़ा घुमाता है सिर

शाहबलूत के पर्णविहीन पेड़ों की पगडंडी पर
एक छोटा-सा कुत्ता
अपने मालिक के पीछे-पीछे चल रहा है.

क्या वह पहले आगे नहीं दौड़ा करता था
पट्टा खींचता हुआ
अपने मालिक को दिखाना चाहता हो जैसे
कि वहाँ कुछ है
भविष्य रास्ता
या जो भी नाम दो उसे.

सूर्यास्त की बेला में
पेड़ों के पीछे ऐसा लगता है
जैसे दो पहाड़ों के बीच
आग धधक रही हो.
ऊँची चट्टान पर जमी बर्फ़ भी
क्षणभर के लिए जलती प्रतीत होती है.

सुनो
पगडंडी के अंत से
एक आदमी पुकार रहा है.
उसकी आवाज़ अब बहुत अजीब हो गई है
किसी ऐसी चीज़ को पुकारती हुई
जो उसकी आँखों से ओझल है.

अँधेरे भूरे रंग के शाहबलूत के पेड़ों के बीच बार-बार पुकारता है वह.
जब तक कि जानवर जवाब न दें
हल्के से बहुत दूर से
मानो यह चीज जिससे हम डरते हैं
कोई भयानक बात न हो.

गोधूलि का समय है.
अजनबी ने अपने घोड़े की रस्सी खोल दी है.

समुद्र की आवाज़
अब बस स्मृति भर है.

 

2.

समय बीत गया
हर चीज़ को बर्फ़ में बदलते हुए.
बर्फ़ के नीचे करवट ले रहा था भविष्य
यदि तुम उसमें गिर जाते
तो मर जाते.

वह समय था
प्रतीक्षा का, ठहरे हुए क्षणों का.

मैं वर्तमान में जीती थी
भविष्य का एक हिस्सा था जो
जिसे तुम देख सकते थे.

सिर के ऊपर तैरता हुआ अतीत
सूरज और चाँद की तरह दिखाई देता है
पर कभी पहुँच में नहीं रहा

वह समय था
विरोधाभासों का
मुझे कुछ महसूस नहीं हुआ और
डर गयी थी मैं

सर्दी ने वृक्षों को खाली किया
फिर उन्हें भर दिया बर्फ़ से.

कुछ महसूस न कर पाती थी मैं
बर्फ़ गिरी झील जम गई.

मैं भयभीत थी
मैं स्थिर रही.

मेरी सफ़ेद साँस
मौन का जैसे कोई एक विवरण हो

समय बीतता गया.
कुछ हिस्सा ठोस हुआ
कुछ हिस्सा वाष्प बनकर
तैर गया श्वेत वृक्षों के ऊपर
बर्फ़कणों में बदलता हुआ.

सारी उम्र तुम प्रतीक्षा करते हो
अनुकूल क्षण की.
फिर वही क्षण
किए गए कार्यों में
स्वयं को प्रकट करता है.

मैंने अतीत को बहते देखा
बादलों की रेखाएँ
बाएँ से दाएँ
दाएँ से बाएँ
हवा की दिशा में

कभी नहीं होती थी हवा
बादल स्थिर प्रतीत होते
समुद्र की एक तस्वीर-से
यथार्थ से अधिक स्थिर.

कभी झील काँच की चादर होती.
उसके नीचे भविष्य
धीमे, आमंत्रित करता.
तुम्हें खुद के लिए मशक्कत करनी पड़ती है
ताकि तुम सुन न सको.

समय बीत गया.
तुम्हें उसका एक हिस्सा दिखा.
वे वर्ष जो उसने साथ ले लिए
सर्दियों के वर्ष थे
वे याद नहीं आएंगे. कुछ दिन

बादल नहीं थे मानो
लुप्त हो गए थे अतीत के स्रोत.

दुनिया फीकी थी जैसे कोई नकारात्मक चित्र;
रौशनी सीधे इसके आर-पार गुजर गई.
फिर छवि धुंधली पड़ गई.

और तब
दुनिया के ऊपर
सिर्फ़ नीलिमा थी.
बस नीलिमा.

 

3.

शरद ऋतु के अंत में
एक लड़की ने आग लगा दी
गेहूँ के खेत को.

उस वर्ष शरद बहुत सूखा था
खेत भभक उठा
जैसे सूखी लकड़ियों का ढेर.

फिर वहाँ कुछ भी न रहा.
तुम उस खेत से गुज़रो
तो कुछ न दिखेगा.

न चुनने को कुछ,
न सूँघने को कोई गंध.
घोड़े समझ नहीं पाते
खेत कहाँ है?
वे पूछते से लगते हैं
जैसे तुम और हम पूछते हैं
घर कहाँ है?

कोई उत्तर नहीं.
कुछ नहीं शेष.
बस यही उम्मीद बचती है
किसान के लिए
बीमा कर दे कुछ भरपाई.

यह जीवन का एक वर्ष खो देने जैसा है.
तुम किसी के लिए
अपना एक वर्ष खो दोगे?

फिर जब लौटते हो
उस पुरानी जगह
तो बस शेष मिलता है
काला धुआँ राख
अन्धकार और खालीपन.

तुम सोचते हो
यहाँ कोई कैसे जी सकता है?

तब बात अलग थी
पिछली गर्मियों में ही
धरती सहज और भरोसेमंद थी
जैसे इसके साथ
कुछ बुरा घट ही नहीं सकता.

माचिस की एक तीली ही काफी थी
पर सही वक्त पर वक्त को बिल्कुल सही होना था.

खेत पहले से सूखा था
झुलसा हुआ

मृत्यु जैसी निस्तब्धता
पहले से फैली हुई थी.

 

louise glück

 

4.

मैं नदी में सो गई,
नदी में ही उठी.
मरने की अपने
उस रहस्यमय विफलता के बारे में
मैं कुछ नहीं कह सकती
किसने बचाया मुझे
किस कारण से.

चारों ओर गहरा सन्नाटा था
न हवा न कोई मानवीय आहट.
एक कटु सदी
समाप्त हो चुकी थी
गौरव चला गया था
स्थायित्व भी लुप्त हो गया.

सर्द सूरज
एक जिज्ञासा-सा
बस एक स्मृति-चिह्न-सा कायम था
और उसके पीछे बहता रहा
समय का अंतहीन प्रवाह.

आकाश निर्मल
जैसा जाड़ों में होता है.
धरती सूखी बंजर.

रोशनी शांति से
हवा की पतली दरार से गुजरती हुई
गरिमामयी संतुष्ट
आशा को घोलती हुई
भविष्य की छवियों को
केवल उसके बीतने के संकेतों में बदलती हुई.

मुझे लगता है मैं गिर पड़ी थी
जब उठने की कोशिश की, तो स्वयं को ज़बरन सँभालना पड़ा
शारीरिक पीड़ा का मुझे अभ्यास नहीं रहा

मैं भूल गई थी
कैसी विकट परिस्थितियाँ थीं.

धरती अभी पुरानी नहीं हुई
पर नदी अब भी ठंडी और उथली थी.

अपने उस निद्रा का
मुझे कुछ स्मरण नहीं.
जब मैं रोई
तो मेरी ही आवाज़ ने
अनायास मुझे सांत्वना दी.

चेतना के मौन में
मैंने स्वयं से पूछा
क्यों मैंने जीवन को ठुकराया?
और उत्तर आया
धरती मुझे पराजित करती है.

मैंने ये ब्योरे
यथासंभव सटीक रखने के प्रयास किए हैं
यदि कोई मेरा अनुसरण करे
तो जान सकेगा
सर्दियों में जब ढलता है सूर्य
तो वह अनुपम सुन्दर होता है
और उसकी स्मृति
बहुत देर तक बनी रहती है.

शायद इसका अर्थ यही है
वहाँ कोई रात न थी.
रात तो केवल
मेरे मस्तिष्क में थी.

 

5.

सूरज ढलने के बाद
हम तेज़ी से घोड़े दौड़ाते रहे इस आशा में
कि अँधेरा होने से पहले कोई आश्रय मिल जाए.

मैंने देखा सितारे झिलमिलाने लगे थे
सबसे पहले पूरब के आसमान में.

हमने तब मोड़ लिया अपना रास्ता
रोशनी से दूर
समुद्र की ओर क्योंकि
मैंने सुना था वहाँ एक गाँव है.

कुछ समय बाद बर्फ गिरने लगी.
पहले हल्की-हल्की फिर
लगातार जब तक ज़मीन
सफ़ेद परत से ढक नहीं गई.

हमारी यात्रा की लकीर
धरती पर खिंची एक गहरी रेखा-सी
कुछ देर तक साफ़ दिखाई देती रही
जब मैं पीछे मुड़कर देखती

फिर बर्फ घनी हो गई, रास्ता ग़ायब.
घोड़ा थक गया था, भूखा
उसे कहीं भी
पक्की ज़मीन नहीं मिल रही थी. मैंने खुद से कहा

मैं पहले भी खो चुकी हूँ; पहले भी ठिठुर चुकी हूँ.
रात मुझ पर
ठीक इसी तरह उतरी थी, एक पूर्वाभास बनकर.

मैंने सोचा: अगर मुझे
फिर यहाँ लौटने को कहा जाए, तो मैं लौटना चाहूँगी
इंसान बनकर, और मेरा घोड़ा

वैसा ही बना रहे जैसा वह है.
वरना मैं नहीं जान पाऊँगी
फिर से शुरुआत कैसे की जाए.

 

योजना रावत

‘नारी मुक्ति तथा उषा प्रियंवदा का कथा साहित्य’, ‘स्त्री विमर्शवादी उपन्यास: सृजन एवं संभावना ’ (आलोचना), ‘पहाड़ से उतरते हुए’, पूर्वराग (कहानी-संग्रह) थोड़ी सी जगह (कविता-संग्रह) आदि प्रकाशित. फ्रेंच से दो पुस्तकों ‘पेड़ लगाने वाला चरवाहा’, ‘ऐसा भी होता है’ उपन्यास के अलावा सौ फ्रेंच कविताओं का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित. 2005 में अनुवाद परियोजना के तहत वह फ्रेंच सरकार के निमन्त्रण पर तीन महीने फ्रांस में रहीं हैं.

ईमेल : yojnarawat@gmail.com

Tags: 2025योजना रावतलुइज़ ग्लुकलुइज़ ग्लुक की कविताएँ
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Comments 4

  1. Bhupinder Preet says:
    2 months ago

    बहूत ही गहरी अपनी ही तरह सहज से चलती हुई, कविताओं का चुनाव और अनुवाद भी बहूत अच्छा

    Reply
  2. Rohini Aggarwal says:
    2 months ago

    भावप्रवण कविताएँ. प्रवाहमय अनुवाद.
    कल्पना-सौंदर्य स्त्री के भीतर कुलांचे भरते सपनों को नदी के धीर-प्रशांत वेग में तब्दील कर कैसे स्त्री-अस्मिता को जीवंत कर देता है- ये कविताएँ इसकी साक्षी हैं।

    Reply
  3. Teji Grover says:
    2 months ago

    Teji Grover
    एकदम प्यास बुझा देने वाला अनुवाद। बहुत समय के बाद ऐसा सुन्दर अनुवाद नज़र आया है। कविताओं का चयन भी ग़ज़ब का है। बल्कि हिन्दी अनुवाद में अंग्रेज़ी से भी अधिक रसानुभूति …

    Reply
  4. सुमित त्रिपाठी says:
    1 month ago

    सहज अनुवाद। भला लगता है।

    Reply

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