| मदर मेरी कम्स टू मी एक अनूठे रिश्ते की अनूठी दास्तान . अमिता शीरीं |
बहुत पहले एक रूसी उपन्यास में पढ़ा था कि प्रत्येक व्यक्ति की ज़िन्दगी एक उपन्यास होती है, बशर्ते उसे लिखना आये. बेशक अरुंधती रॉय को लिखना आता है. इसलिए उसने अपनी ज़िन्दगी को उपन्यास की तरह दर्ज कर दिया. तूफ़ान बरपती यह किताब सचमुच इस लायक है कि पढ़ने वाले का कलेजा थम जाए. अपने बारे में संस्मरण दर्ज करते हुए अरुन्धति बेहद ईमानदार नज़र आती हैं. आमतौर पर भारत में आत्मकथाओं की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वे बहुधा अपने प्रति ईमानदार नहीं लगती हैं. अक्सर या तो वे आत्मप्रशंसा से भरी होती हैं. या रिश्ते के तानेबाने में उलझा रहती है. लेकिन यहां विद्रोही अरुन्धति रॉय आत्मकथा के जॉनर को ही तोड़ देती हैं. और अपने जीवन के विवरणों को विस्तारित करते हुए उसे व्यापक कर देती हैं. उनकी यह आत्मकथा उपन्यास की हद तक रोचक हो जाती है. बेहद ईमानदारी से लिखी यह आत्मकथा एकदम से बाँध लेती है.
अरुन्धति के जीवन की हलचल से भरी किताब ‘मदर मेरी कम्स टू मी’ शुरू होती है अरुन्धति की माँ मेरी रॉय की मौत से और ख़त्म होती है मेरी रॉय की मौत से ही. बीच के पन्नों में पंक्ति दर पंक्ति आगे बढ़ता है अरुन्धति का संघर्षशील जीवन. मुक्त होने की उनकी ज़द्दोज़हद. क़दम दर क़दम आज़ादी की कीमत चुकाई अरुन्धति ने.
अपनी माँ के साथ अरुन्धति का रिश्ता अनूठा था. जीवन भर अपनी शर्तों पर जीने वाली माँ मेरी रॉय ने अपनी दुनिया बनाने के लिए साढ़े चार साल के बेटे और तीन साल की बेटी (अरुन्धति) के साथ अपने शराबी पति को छोड़ दिया. और अपनी ज़िन्दगी की सांस-सांस पर अपना दावा ठोंकने वाली मेरी ने पूरी ज़िन्दगी अपनी मर्ज़ी से जी.
मेरी की प्रसिद्धि अरुन्धति से पहले बहुत ही हो गई थी. जब उन्होंने एक ऐसा नवाचारी स्कूल खोला जो बाकी स्कूलों से अलग था. अपने स्कूल में उन्होंने एक ऐसा हॉस्टल भी खोला जहां लड़के लड़कियां दोनों साथ रहते थे. एक रोज़ किशोर होते किसी लड़के ने एक लड़की को उसके ब्रा और सीने के बारे में कुछ कमेन्ट कर दिया. मिसेज़ रॉय को जब पता चला तो उन्होंने असेम्बली में उस लड़के से अपनी कबर्ड से उनकी ब्रा निकाल कर लाने को कहा और सार्वजानिक रूप से उन्होंने लड़के लड़कियों के सामने ब्रा पर लेक्चर दिया. की ये एक ऐसा वस्त्र है जिसे मैं पहनती हूँ, तुम्हारी माँ और तुम्हारी बहन सभी पहनती हैं. इसके बाद उस रोज़ उस क्लास में मौजूद कोई भी लड़का क्या भविष्य में कभी इस तरह से कमेन्ट करने का साहस कर पायेगा.? यह ऐसी शिक्षा थी जिसे शिक्षिका मेरी रॉय अपने बच्चों को देती थीं. जो किताबों से परे थी.
शिक्षाविद मेरी रॉय लड़ाकू नारीवादी भी थी. देश भर में उनकी प्रसिद्धि तब भी हुई जब उन्होंने सीरियन क्रिश्चियन उत्तराधिकार नियम को कोर्ट में चुनौती दी और सुप्रीम कोर्ट से उस केस को जीता. पहले सीरियन क्रिश्चियन चर्च के नियमानुसार बेटी को परंपरागत संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता था. मेरी रॉय इसके ख़िलाफ़ कोर्ट में गई और मुकदमा जीता. जिसके कारण चर्च को अपनी नियमावली में बदलाव करना पड़ा. ज़ाहिर है चर्च उनके बेहद ख़िलाफ़ हो गया. लेकिन लड़कियों को उनका हिस्सा मिला. और वे उसके लिए उनका आदर करती हैं.
अपने आपको जीवन की पथरीली ज़मीन पर टिकाने के क्रम में वह अपने दोनो बच्चों के प्रति बेहद कठोर हो गई. अपने साथ-साथ बच्चों की ज़िन्दगी पर भी उनका का नियंत्रण इस कदर था कि उनका जीना मरना उसी के हिसाब से तय होता. इतनी पत्थर दिल कि अपने मन का न होने पर अपनी 14 साल की बेटी को हाईवे पर चलती कार से उतार दिया – ‘गेट आउट’. पर आंतरिक लचीलापन इतना कि अँधेरा होने पर अपनी बेटी को लेने के लिए वापस उसी जगह पर आती है. उसी मील के पत्थर पर जहाँ वह जीवन भर बैठी रह सकती थी.
‘I had no plans other than to sit on that milestone for the rest of my life’ p. 68
अरुन्धति के यहाँ भाषा की कारीगरी अद्भुत है. पहली किताब ‘गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ पढ़ने के बाद से ही उनकी भाषा की क़ायल हूँ मैं. बाद में उनके पोलिटिकल लेखों में भी भाषा का कमाल दिखता है. आगे ‘मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ और ‘मदर मेरी कम्स तो मी’ में भी वही सिलसिला क़ायम है.
भाषा पर इसी किताब में अरुन्धति ने एक शानदार पैराग्राफ़ लिखा है. कि किसी भी लेखक की कोई एक भाषा हो ही नहीं सकती. वह अपनी अभिव्यक्ति जितने भाषाओं में कल्पित करती है वह एक भाषा में वर्णन करना मुश्किल है. इस किताब में ही मूलतः अंग्रेज़ी का सौन्दर्य होते हुए भी इसमें मलयालम, हिंदी और अन्य यूरोपीय भाषाओं की अंतरधारा साथ-साथ बहती रहती है. भाषा की इतनी खूबसूरती दूसरी जगहों में बहुत ढूँढने से मिलती है.
अरुन्धति रॉय की माँ को अस्थमा था, जिसका हमला बिन बुलाये हो जाता था. आसन्न मौत के ख़तरे को देखते हुए उनकी माँ उनसे कहती-
‘What will you do now, little girl? My reply was always I’ll breathe for you Mama. I tried to breathe for her. I became her lungs. Her body. I attached myself to her in ways she was not aware of. I became one of her valiant organs, a secret operative, breathing my life into her.’ (p-34)
इस किताब में भाषा इतनी सरल, सुन्दर और प्रवाहपूर्ण है कि इसमें रूप और अंतरवस्तु (form and content) का अंतर मिट जाता है. एक बार शुरू करने के बाद इस किताब रखना बहुत मुश्किल होता है.
माँ मेरी, अपनी ज़िन्दगी को तपाते हुए, एक स्कूल खोलती हैं. यह एक नवाचारी स्कूल है, जिस पर मदर मेरी की छाप है. अरुन्धति की आरंभिक शिक्षा भी इसी स्कूल में होती है. उसके लिए इस स्कूल में वह माँ नहीं मिसेज़ रॉय है. जो अंत तक मिसेज़ रॉय ही रहती है. मिसेज़ रॉय के अत्याचारों ने किशोरी अरुन्धति को भी पर्याप्त तापरोधी बना दिया. इतना कि 17 साल की उम्र में वह मिसेज़ रॉय की छत्रछाया से बाहर निकल जाती है. दिल्ली में आर्किटेक्ट की पढ़ाई करते हुए वह अपनी ‘बैंकर’ मिसेस रॉय से संपर्क तोड़ लेती है. यहाँ से शुरू होती है अंधड़ में अपनी ज़िन्दगी को तराशने की जद्दोजहद. ‘आज़ाद’ अरुन्धति फिर अपनी ‘आज़ादी’ से कभी समझौता नहीं करती और, जहाँ उसे लगता है कि उसके पर कुतरने लगे हैं, वह फड़फड़ा कर अपने आपको उसकी जकड़न से मुक्त कर लेती है. फिर चाहे वह उसका प्यार ही क्यों न हो. ‘घर’ तो उसे कभी अपना लगा नहीं.
बेशक उसने मिसेज़ रॉय से अपना संपर्क तोड़ लिया लेकिन मिसेज़ रॉय एक पल के लिए भी उसकी ज़िन्दगी से ग़ायब नहीं होती. पूरी किताब में वह अरुन्धति के साथ छाया की तरह मौजूद है. जीवन भर कोसने के बाद एकदम अंत में अंततः, एक रोज़ वह अपनी बेटी को कह ही देती हैं कि वह दुनिया में सबसे ज्यादा उसी से प्यार करती है. संभवतः वही रिश्ता वह पाठकों के साथ क़ायम करती हैं कि जब 1 सितम्बर 2022 को मेरी रॉय का निधन होता है तो मेरे जैसे पाठक का गला ऊपर तक भरा हुआ होता है और आँख से टप-टप आंसू बहने लगते हैं.
लेखक बनने से पहले अरुन्धति रॉय फिल्म मेसी साहब में एक्टिंग करती हैं. फिर चैनेल 4 के लिए स्क्रिप्ट लिखती हैं. उनकी एक फ़िल्म ‘एनी’ को बेस्ट स्क्रीन प्ले का नेशनल अवार्ड मिलता है. इसके बाद एक दो और स्क्रिप्ट लिखने के बाद उनके भीतर का लेखक कुलाचे भरता है और ‘गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ सतह पर आती है. बूकर पुरस्कार मिलने के बाद अरुन्धति सितारा लेखक बन जाती हैं. मदर मेरी को पढ़ते हुए मैं उस उपन्यास के चरित्रों को पहचानने की कोशिश करते हुए पढ़ती चल रही थी. वह खुद भी असल ज़िन्दगी पात्रों का परिचय उपन्यास से कराती चलती हैं.
जो बात अरुन्धति को अन्य लेखकों से अलग करती है, वह है अपने पैसे के प्रति उनका नजरिया. वह कहती हैं कि वह कोई संत नहीं है जिसे पैसों की ज़रूरत नहीं है. लेकिन अपनी ज़रूरत से ज्यादा क्यों इकठ्ठा करना. इसे साझा करो. दुनिया जानती है बूकर पुरस्कार से मिले पैसों को उन्होंने अपनी माँ, बाप, भाई, मामा, दोस्तों, आंदोलनों, और लघु पत्रिकाओं को बाँट दिया था. बहुत सी लघु पत्रिकाएं आज भी उनके दिए पैसों से अपने अस्तित्व को बचाए हुए हैं. भारत के कितने और लेखकों ने ऐसा किया है, मुझे नहीं पता.
फिर आये उनके राजनीतिक लेख. वह बहुत ख़ुलूस और प्यार से अपने सारे लेखों की रचना प्रक्रिया पर बात करती हैं. पोखरण विस्फोट के बाद आया उनका पहला राजनीतिक लेख ‘एंड ऑफ़ इमेजिनेशन’. फिर बड़े बांधों की राजनीति की तलाश उन्हें नर्मदा बचाओ आन्दोलन से जोड़ती हैं और फिर तो वह ऐक्टिविस्ट बन जाती हैं. जो मुझे लगता है कि किसी भी लेखक की यात्रा होनी चाहिए. कुछ शुद्धतावादी लेखकों को ऐक्टिविस्ट अरुन्धति से आपत्ति है. वे उसे लेखक नहीं मानती. हालांकि अरुन्धति लेखक होने और ऐक्टिविस्ट होने में कोई अंतरविरोध नहीं देखती. वह इस टर्म ‘ऐक्टिविस्ट लेखक’ से ही ऐतराज करती हैं. निश्चित रूप से लेखक ऐक्टिविस्ट ही होता है. कोई भी लेखक अगर अपने समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता तो वह झूठा है. अन्याय का प्रतिकार लेखक का पहला सरोकार होना चाहिए.
वह अपना दूसरा लेख लिखती हैं – ‘The Greater Common Good’. यह नर्मदा पर उनके लिखे लेख की श्रृंखला का पहला लेख था.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन में एक ऐक्टिविस्ट के रूप में हिस्सेदारी करने के लिए इस देश के सुप्रीम न्यायालय ने उन्हें एक दिन जेल की सज़ा सुनाई. उन पर आरोप था कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट और एक ‘resonable man’ की तरह व्यवहार न करने का. एक दिन की जेल यात्रा में वह कश्मीरी महिला बंदी अफ़सां से मिली. और इसके बाद उनकी कश्मीर यात्रा की शुरुआत हुई. फिर उसकी समाप्ति होती है कश्मीर पर उनके विचार व्यक्त करते हुए लेखों की श्रृंखला. ‘My Seditious Heart’. वह कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार के साथ खड़ी थीं. ज़ाहिर है उन्हें तमगे मिलने लगे ‘अरुन्धति रॉय ग़द्दार है, पाकिस्तान की यार है.’ कश्मीर पर उनके विचार के चलते उन पर UAPA लगाया गया. जिस पर अभी हाल में ही लेफ्टिनेंट गवर्नर ने अपनी सहमति की मुहर लगा दी है.
फिर उनके दोस्त जॉन बर्जर ने उनसे उनके उपन्यास ‘मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ पूरा करने का वादा लिया. उन्होंने उस वादे पर अमल करना शुरू कर दिया. इस बीच वह अपने पति का बड़ा घर छोड़ कर अपने ‘घर’ में रहने लगी थी. जहाँ से कोई उन्हें ‘गेट आउट’ नहीं बोल सकता था. वह दिन रात लिखने में लगी थीं कि एक रोज़ उनके दरवाज़े के नीचे से एक लिफ़ाफ़ा आया और वह कामरेड्स के बुलावे पर बस्तर के दंडकारण्य में कामरेड्स के साथ पैदल चलने लगीं. इस तरह आया उनका बहु प्रसिद्द लेख ‘वाकिंग विद द कामरेड्स’. वह पूरे आन्दोलन को बहुत सम्मान से वर्णित करती हैं.
अपने दोस्त प्रोफेसर साईं बाबा की गिरफ्तारी की पहली बरसी पर वह लेख लिखती हैं ‘Professor POW’. इस लेख पर कोर्ट की अवमानना का केस अभी भी अरुंधति पर चल रहा है.
एक लेखक के रूप में अरुन्धति कितनी अपडेट रहती हैं वह इसी से पता चलता है जब वह अपनी किताब में लिखती हैं कि साईं बाबा की मौत के एक हफ्ते बाद वह एक रिपोर्ट में कॉमरेड नीति की हत्या के बारे में पढ़ती हैं. वही नीति जो बस्तर के जंगल में उनके साथ-साथ थी. रिपोर्ट का हवाला देते हुए वह लिखती हैं कि जंगल में पैरा मिलिट्री द्वारा मारे गए 30 लोगों में वह भी थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि उनमें से एक औरत का बाल पकड़ तब तक खींचा गया जब तक उनका मस्तिष्क उनकी खोपड़ी से बाहर नहीं आ गया. अरुन्धति बेहद सरोकार से कहती हैं कि ‘मुझे नहीं पता कि वही कामरेड नीति थी या नहीं, लेकिन कॉमरेड नीति के लम्बे खूबसूरत बाल थे.’
पूरी किताब पढ़ कर एक लेखक का निर्मित होना और विकसित होने का ग्राफ़ दिखाई देता है. अरुन्धति रॉय निरंतर विकसित होने वाली लेखिका हैं. वह किसी एक जगह ठहर कर लेखन नहीं करती. वह नदी की तरह बहती हैं, और चिड़िया की तरह उड़ती हैं. जीवन में भी और लेखन में भी.
आंबेडकर और गाँधी के रिश्तों पर वह एक बेहद विचारोत्तेजक लेख लिखती हैं ‘The Doctor and the Saint’.
एक औरत को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले लेखक बुद्धिजीवी उस वक्त बिलकुल खामोश रहते हैं जब फूलन देवी जैसी बगावती औरत को केवल एक ‘रेप विक्टिम’ में रिड्यूस कर दिया जाता है. फूलन देवी के रेप पर बनी शेखर कपूर की पिक्चर ‘बैंडिट क्वीन’ की स्क्रीनिंग में अरुन्धति रॉय को आमंत्रित किया जाता है. उस वक्त फूलन देवी जेल से आकर दिल्ली में ही रह रही थीं. उन्हें निमंत्रण नहीं दिया गया था. जब अरुन्धति ने इसके लिए उनसे पूछा तो उन्हें गोपनीय जवाब मिला कि वह बहुत ‘दिक्कततलब’ महिला है. इसलिए नहीं बुलाया गया. फूलन देवी इस फिल्म के खिलाफ कोर्ट गईं. अरुन्धति ने लेख लिखा लिखा ‘The Great Indian Rapes Tricks’ Part-1, Part -2. एक तरफ़ जहाँ बुद्धिजीवियों ने फूलन देवी को ‘रेप मटेरियल’ मान लिया. उनके लिए इस बात का कोई मतलब नहीं था कि दलित महिला फूलन देवी जिसका 21 ठाकुरों ने बलात्कार किया था, और बदले में फूलन देवी ने उनकी हत्या कर दी और बाग़ी हो गई. वहीं अरुन्धति ने फूलन के पक्ष में आवाज़ उठाई और अपने लेख में बखूबी इसे दर्ज किया. ‘फिल्म बैंडिट क्वीन ने फूलन देवी के जीवन को नष्ट कर दिया.’ सांसद बनने के 5 साल बाद फूलन की एक ठाकुर ने हत्या कर दी.
अंत में, यह किताब ‘Mother Mary Comes to Me.’ आती है. एक बार फिर प्याली में तूफ़ान बरप जाता है. किताब के कवर पर बीड़ी पीती हुई अरुंधति रॉय की तस्वीर है. इस देश की पाखंडी नैतिकता को चोट पहुँच जाती है. औरतों को क़दम-क़दम पर नैतिकता के सांचे पर कसने वाला यह समाज (ख़ासतौर पर हिंदी भाषी समाज) कसमसाने लगा. अधिकाँश हिंदी के लेखक जो संभवतः अरुन्धति की ‘खालीपीली’ शोहरत से चिढ़े रहते हैं, उन्होंने फेसबुक के वाल को अपनी राय से भर दिया.
हाल ही में द हिन्दू में छपे नेहा दीक्षित को दिए अपने अपने साक्षात्कार में अरुन्धति ने कहा कि अच्छा ही है जो वह इन सब पर रियेक्ट नहीं करती. आरोपों पर बिलावजह रियेक्ट न करने का यह अंदाज़ भी उन्होंने अपने माँ मिसेज़ रॉय के साथ अपने संबंधों को निर्मित करने की कड़ी में विकसित किया था.
कोई बात नहीं अरुन्धति आप लिखती रहो…हमें आपकी अगली किताब का इंतज़ार है…
अमिता शीरींलेखक, अनुवादक, शिक्षक, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता.शिक्षा- पीएच.डी. (इतिहास इलाहाबाद विश्वविद्यालय) जेल डायरी ‘सलाखों के पार’ और अनुवाद की तीन किताबें प्रकाशित. amitasheereen@gmail.com |

अमिता शीरीं


वाह, बहुत अच्छा लिखा है।
समालोचन ने अरुंधति की हालिया पुस्तक पर आलेख छापकर सराहनीय काम किया है। हिंदी के ठस बुद्धिजीवियों को सबक सिखाना भी जरूरी है।
अरुंधति रॉय मैडम के उपन्यास पर आलेख में उनकी उद्धृत पंक्तियों को लिखा है । क्रांतिकारी लेखिका ।
एक पूरी रूपरेखा स्पष्ट करता हुआ आलेख। पिछले लिखे का संदर्भ भी इसे गति देता है।
अरुधंती की लिखत और उनकी सक्रियता हम सबके लिए महत्वपूर्ण है।
यह टिप्पणी उसे रेखांकित करती है।
महत्वपूर्ण लेख : तारीफ़ ……
स्पस्ट सहज प्रभाव भरा विस्तृत लेख। अरुंधती की लेखकीय दृढ़ता और सक्रियता को विश्वसनीयता से उभारता।
उल्लेखनीय और प्रसंशनीय।
शुभकामनाएं
प्रिय साथी अमिता जी, पहले तो बहुत शुक्रिया अरुंधति की नई किताब पर प्रकाश डालने के लिए। आपके इस आलेख में सबसे ख़ास बात यह लगी कि आपने अरुंधति रॉय की सभी किताबों का संक्षिप्त उल्लेख और विवेचन किया, साथ ही उनके विचारोत्तेजक आलेखों का भी ज़िक्र किया। इससे अरुंधति के समग्र व्यक्तित्व – कृतित्व को समझने की दिशा मिली। हर व्यक्ति का जीवन एक या अनेक उपन्यास होता है, बशर्ते उसे लिखना आता हो, बिल्कुल सही बात लगी। अरुंधति का स्वातंत्र्य बोध उन्हें अलग अलग जगहों पर ले जाता है। विभिन्न समस्याओं – त्रासदियों से जोड़ता है। वे टेबिल पर बैठकर लिखने वाली लेखक नहीं हैं। वे जीवन के चक्रव्यूह के भीतर जाती हैं, मुठभेड़ करती हैं, लडाइयाँ लड़ती हैं।। आश्चर्य होता है एक लेखक के सरोकार इतने व्यापक या गहरे हो सकते हैं कि वह अन्याय – शोषण का प्रतिरोध करनेवाला, भुक्तभोगी व्यक्ति दिखाई दे केवल। इतना साहस, इतनी ईमानदारी लेखकों में मिलना मुश्किल है। क्योंकि यह उक्ति लेखक समुदाय में बलवती है कि हम केवल आईना दिखाएंगे, जगायेंगे, प्रेरित करेंगे, बस।
अरुंधति का पराक्रमी व्यक्तित्व हर लेखक कलाकार के लिए प्रेरणा बने, आशा है। अमिता जी आपने नई किताब के बारे में रोचक ढंग से आकर्षण प्रस्तुत किया है। सच में उनकी भाषा सरल सरस तो है ही बहुत धारवाली भी है। लेखिका को संघर्ष और सृजन दोनों के लिए शुभ कामनाएं। अमिता जी को प्यार आदर भरा धन्यवाद कि अरुंधति की नई किताब के बहाने उनके जीवन और लेखन से साक्षात्कार कराया। समालोचन को आभार
सहज और सघन। मुझे लगता है इस किताब का हिन्दी अनुवाद शीघ्र आने वाला है। हिन्दी में कुछ संकीर्ण और भक्त किस्म के पाठक हैं। उनके लिए अरुंधति के पास कुछ भी नहीं है। सिर्फ़ साफ़गोई है, विकास के मॉडल पर तीखे प्रश्न हैं, और अथक जुझारूपन और जोखिम भरी ईमानदारी।
उनसे जलने वाले हिन्दी के मूर्धन्य लेखक भी रहे हैं। जलते न भी हों अरुंधति के रेडिकल राजनीतिक विचार उनके हलक़ कभी नही उतरे।
Amita Sheereen, आपका आभार। आपने एक बेहद महत्वपूर्ण काम कर दिखाया है। अरुंधति अपनी हर तहरीर में पोलिटिकल हैं। आपने अच्छे से उनके सरोकार हाईलाइट किये हैं।
अमिता जी ने किताब का सुंदर विवेचन किया है । न जाने क्यों हिंदी जगत में इसे लेकर इतना शोर मचाया गया ।लेखिका की ईमानदारी और साहस को ताक पर रखकर कवर और विषय की उग्र आलोचना तो कूपमंडूकता का ही परिचय है ।
अमित शीरीन के इस संक्षिप्त आलेख की खूबी यही है कि यह पाठक को समीक्ष्य रचना और रॉय की दूसरी रचनाओं को पढ़ने समझने के लिए प्रेरित करता है । बाकी लेखक को एक्टिविस्ट होना चाहिए, नहीं होना चाहिए, यह एक विवादास्पद्य मसला है जो हर लेखक अपनी तरह आजमाने को स्वतंत्र होता ही है। एक्टिविज्म के अपने जोखिम और सीमाएं हैं।
वाह! पढ़कर अच्छा लगा, कितनी नयी जानकारियां मिली. लिखने के शुक्रिया!
यह बहुत ही अच्छा आलेख लिखा गया है मैंने इसे दो बार पढ़ा और मैं महसूस करता हूं कि लेखन में जब ईमानदारी आती है तब कुछ ऐसा ही लिखा जाता है आपको और अरुंधती राय को बहुत-बहुत बधाई