चेरी
दाजाया ओसामू
अनुवाद : निर्मल वर्मा
मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि बच्चों की अपेक्षा उनके माँ-बाप का महत्व अधिक है. जो नीतिज्ञ यह कहते हैं कि सब कुछ बच्चों के लिए ही है, कभी-कभी मैं अपने मन में उनकी सराहना करता हूँ. किन्तु फिर मैं अपने से पूछता हूँ— आखिर ऐसा क्यों ? क्या माँ-बाप उनसे ज़्यादा कमज़ोर नहीं हैं? कम से कम मेरे घर में तो ऐसा ही है. मैं इतना दम्भी नहीं हूँ कि यह कहूँ कि जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ तो मेरे बच्चे मेरी देखभाल करें. किन्तु जो कुछ भी मैं करूँ, मुझे पहले यह देखना चाहिए कि क्या वे उसका अनुमोदन करते हैं. वे बहुत छोटे हैं, बड़ी लड़की सात वर्ष, छोटी लड़की एक वर्ष. एक लड़का है चार वर्ष का. किन्तु अभी से वे आततायी हैं. उनके सामने हम भीगी बिल्ली से बने रहते हैं, मानो हम उनके चाकर हों.
गर्मी के दिन हैं. हम सब इस छोटे से तंग कमरे में बैठे हैं. अभी-अभी खूब शोर-शराबे के बीच भोजन किया है. मेरे मुँह पर पसीना आ रहा है और मैं वहशियाना ढंग से इसे पोंछ देता हूँ.
“खाते समय पसीना बहाना शोभा नहीं देता” किसी ने कहा. “क्या शोभा देता है, इसकी परवाह कौन करता है” मैंने बुड़बुड़ाते हुए अपने से ही कहा. “जब तक ये बच्चे यहाँ रहेंगे, पसीना आता रहेगा.”
उनकी माँ छोटे-बच्चे को दूध पिलाती है, मुझे और अन्य दोनों बच्चों को भोजन परसती है, उनके मुँह साफ़ करती है, नाक पोंछती है यह सब उसकी सुघड़ता का भयानक प्रदर्शन है.
“तुम्हारे पिता की नाक के पास सबसे ज़्यादा पसीना आता है— वह हमेशा अपनी नाक पोंछते रहते हैं.” उसने अपने बच्चों से कहा .
मैं रूखी-मुद्रा में मुस्कराता हूँ. “और तुम्हें— शायद जाँघों के बीच.”
“तुम्हारे पिता की हर बात से उनकी सुरुचि का परिचय मिलता है.”
“यह एक तार्किक बहस है. सुरुचि का इससे कोई संबंध नहीं.”
“मैं…” एक क्षण के लिए वह बहुत गम्भीर-सी हो जाती हैं. “यहाँ… मेरी छाती के भीतर. आँसुओं की घाटी .”
आँसुओं की घाटी.
मैं चुपचाप खाना खा रहा हूँ.
मैं अक्सर घर में एक हल्का-फुल्का-सा अंदाज़ बनाये रखता हूँ, और मन इसके विपरीत है. केवल परिवार में ही नहीं— जब मेहमान आते हैं, मैं अपने को खुश पाता हूँ. चाहे उस समय में कितना ही दुखी क्यों न हूँ, कितना ही अस्वस्थ क्यों न महसूस करूँ, अपने को खुश रखने के लिए उतारू हो जाता हूँ. जब मेहमान चले जाते हैं, मेरा सिर चकराता है. मैं सोचता हूँ धन के बारे में, नैतिकता के बारे में, आत्महत्या के बारे में. मेरे लिखने का भी यही हाल है. जब मैं अपने को बहुत अधिक गया-बीता पाता हूँ, बहुत अधिक क्लान्त पाता हूँ, तो मैं बैठ जाता हूँ और एक हल्की-फुल्की-सी अर्थहीन चीज़ लिखने लगता हूँ. दूसरों की ख़ातिर मुझे यह श्रम करना पड़ता है. किन्तु वे मेरी रचना को इस दृष्टि से नहीं देखते. निरा सतही है, वे कहते हैं, हमें चमत्कृत करना चाहता है, वे कहते हैं.
मैं उन चीज़ों से बिल्कुल आजिज आ गया हूँ, जो गम्भीर और भारी हैं. घर में हँसी-खिलवाड़ करने की मुद्रा में रहता हूँ, किन्तु हरदम लगता है मानो मेरे पाँव बर्फ़ की एक बहुत पतली परत पर चल रहे हों. मैंने अपने आलोचकों और पाठकों को अपने से निराश-सा कर दिया है, क्योंकि मेरे कमरे का फ़र्श साफ़ है, मेरी मेज़ करीने से लगी है, मैं और मेरी पत्नी मज़े से रहते हैं, मैंने उस पर कभी हाथ नहीं उठाया, मैंने कभी उसे घर से बाहर नहीं निकाला और उसने कभी घर छोड़ने की धमकी नहीं दी, हमारा बच्चों से व्यवहार अच्छा है और वे भी हमारे सम्मुख उन्मुक्त और प्रसन्न दिखायी देते हैं.
यह सतह है. उसकी अपनी आँसुओं की घाटी है. मुझे सोते हुए पसीना आता है. हम दोनों ही दिन पर दिन बदतर होते जाते हैं. हम दोनों ही एक दूसरे के घावों को पहचानते हैं और कोशिश करते हैं कि उन्हें छूएँ नहीं, उनसे बचकर चलें. मैं मज़ाक करता हूँ और वह हँसती है.
किन्तु जब वह अपनी आँसुओं की घाटी की चर्चा करने लगती है तो मुझे कुछ भी नहीं सूझता कि मैं क्या कहूँ. मैं मज़ाक करना चाहता हूँ, किन्तु कोई मज़ाक नहीं सूझता. मैं चुपचाप खाता रहता हूँ. दबाव बहुत अधिक बढ़ जाता है और मैं जो इतना चुस्त और हँसोड़ हूँ, मुस्करा भी नहीं पाता.
“तुम्हें एक नौकरानी रख लेनी चाहिए, जो तुम्हारा हाथ बँटा सके.” मैं धीरे से डरते-डरते कहता हूँ ताकि वह मेरी बात से खीझ न उठे.
ये तीन बच्चे भी हैं. घर में मेरी कोई ज़रूरत नहीं है. मैं बिस्तर भी नहीं बिछा सकता. मैं केवल बेहूदा मज़ाक़ कर सकता हूँ. मैं राशन और रजिस्ट्रेशन के बारे में कुछ भी नहीं जानता . मुझे लगता है जैसे मैं होटल में रह रहा हूँ. मेहमान, भोज. मैं खाना खाता हूँ और फिर अपना काम पूरा करने के लिए घर से बाहर निकल जाता हूँ. कभी-कभी मैं अपने घर से एक सप्ताह तक बाहर रहता हूँ और जब वापिस लौटता हूँ, तो अपनी अनुपस्थिति के सम्बन्ध में किसी से एक शब्द भी नहीं कहता. मेरी ज़िद है कि मुझे बहुत-सा काम करना है, किन्तु मैं कम, बहुत कम चीज़ें पूरी कर पाता हूँ. दिन में सिर्फ एक या दो पन्ने लिखता हूँ— बाकी समय पीने में गुज़रता है. मैं ज़रूरत से ज़्यादा पी लेता हूँ मेरा वजन दिन पर दिन कम हो रहा है और ज़्यादा पी लेने के बाद मैं अक्सर बिस्तर पकड़ लेता हूँ.
“और कुछ जवान लड़कियाँ इसकी मित्र हैं” वे मेरे बारे में यह भी कहते सुने गये हैं.
बच्चे… लड़कियों को बहुत जल्दी सर्दी चढ़ जाती है, किन्तु ज़्यादातर वे ठीक ही रहती हैं. किन्तु लड़का…वह सींक-सा पतला है और चार वर्ष की आयु में भी खड़ा नहीं हो पाता.
“आह” और “दा” के अलावा वह कुछ नहीं बोलता और यदि हम उससे कुछ बोलें तो वह कुछ भी नहीं समझता. वह घर में रेंगता रहता है, खुद हाथ-मुँह भी नहीं धो सकता. खाता बहुत है लेकिन सींक-सा पतला है. इसके बाल नहीं के बराबर आये हैं. लगता है, वह पनप नहीं रहा.
हम जान-बूझकर उसके बारे में बात करने से कतराते हैं. पोंगा, गूँगा…इन शब्दों को उसके लिए प्रयुक्त करने में कतराते हैं. इन शब्दों की संगति उस लड़के के संग बैठ सकती है, इसे स्वीकार करना असम्भव-सा लगता है. कभी-कभी वह उसे उठाकर बाँहों में भींच लेती हैं, और कभी-कभी मेरी इच्छा होती है कि मैं उसे उठाकर शहर की नदी तक ले जाऊँ और उसे लेकर उसमें कूद पड़ूँ.
“गूँगे-बहरे पुत्र की हत्या. ‘क’ (53) ने दुपहर के समय अपने घर में अपने गूँगे-बहरे पुत्र ‘ख’ (18) को कुल्हाड़े से मार डाला. उसके बाद उसने अपने गले में कैंची घोंपकर आत्महत्या करने की चेष्टा की. उसे फौरन अस्पताल ले जाया गया, जहाँ वह अत्यन्त नाजुक स्थिति में पड़ा है. उसकी एक लड़की (22) का अभी-अभी विवाह हुआ है और वह इस समय उनके घर में रह रही है. ‘क’ ने अपने बयान में कहा है कि इस घर में उसकी लड़की की स्थिति असहनीय हो उठी थी, इसीलिए उसे यह काम करना पड़ा. ‘ख’ का दिमाग़ ठीक नहीं था और वह गूँगा था.”
मैं यह पढ़ता हूँ और सहसा मुझे पीने की ज़रूरत महसूस होती है.
हो सकता है, उसके पनपने की गति बहुत धीमी है. हो सकता है कि एक दिन वह अचानक बड़ा हो जाएगा और हमारी भीरुता पर हँसेगा. हम इस दिन की आशा लगाये बैठे हैं. हमने अपने मित्रों और सम्बन्धियों से उसकी व्याधि के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा है. हम उसके संग खेलते हैं और उस पर हँसते हैं और हमें लगता है कि सब ठीक है.
उसकी माँ पीठ तोड़कर काम करती है, यह मैं जानता हूँ. कोशिश मैं भी करता हूँ, हालाँकि मैं जानता हूँ कि मैं डटकर तेज़ी से नहीं लिख सकता. मैं संकोची जीव हूँ और लिखने का मतलब है, अपनी चीज़ को बाहर लाना, जिसे सब देखेंगे. मुझे अजीब-सी झिझक लगती है और मैं आगे नहीं लिख पाता. और तब मैं पीता हूँ. मैं पीता हूँ क्योंकि मैं अपनी माँगो को आगे नहीं धकेल पाता. जो लोग माँगना जानते हैं, वे नहीं पीते. (और इसलिए स्त्रियाँ बहुत कम पीती हैं.)
बाद-विवाद में आज तक मैं कभी नहीं जीता. दूसरे व्यक्ति का आत्मविश्वास, जिस दृढ़ता और शक्ति से वह अपनी बात कहता है, मुझे हमेशा पस्त कर देता है. मेरा मुँह बन्द हो जाता है. मैं धीरे-धीरे उसकी धूर्तता भाँपने लगता हूँ और मुझे महसूस होने लगता है कि मैं बिल्कुल ही ग़लत नहीं हूँ. किन्तु एक बार हार जाने के बाद बहस को नए सिरे से छेड़ना मुझे अनुचित लगता है. मेरे लिए बहस करना उतना ही कष्टदायक है, जितना घूंसेबाजी. गुस्से में काँपता हुआ मैं हँसने लगता हूँ. मैं चुप हो जाता हूँ. मैं बहुत-सी बातों के बारे में सोचने लगता हूँ और फिर सब बातों का अन्त पीने में होता है.
किन्तु मुझे सीधे-साफ़ ढंग से अपनी बात कहनी चाहिए. मैं रास्ते से भटक गया हूँ और यह एक घरेलू झगड़े की कहानी है.
यह शुरुआत है. हम दोनों— मैं और मेरी पत्नी शान्ति से रहना पसन्द करते हैं. हम आज तक एक दूसरे पर नहीं चिल्लाये, हमने आज तक एक दूसरे के लिए कभी कोई अपशब्द कहा हो, याद नहीं पड़ता. किन्तु लगता है जैसे हम दोनों के बीच जो शान्ति है, उसके नीचे कहीं एक प्रकार का विस्फोट छिपा है. यह असम्भव नहीं है कि हम इस दौरान में चुपचाप अपने-अपने सबूत इकट्ठा करते रहे हों और किसी दिन अचानक हममें से कोई ताश का एक पत्ता उठाकर नीचे रख देगा, दूसरा पत्ता उठाकर नीचे रख देगा और उन्हें फैलाकर कहेगा— देखो, मेरा हाथ बन गया. उसका स्वभाव जो है, सो है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेरी अपनी कमज़ोरियाँ हैं उतनी ही, जितनी वह उन्हें देखने का प्रयत्न करती है.
इस बात को लेकर मैं अपने में घुलता हूँ. इसे विकृत करके देखता हूँ. फिर भी मैं कलह नहीं करना चाहता. मैं चुप रहता हूँ. तुम मुझे दोष देती हो, मैं अपने से कहता हूँ. मुझे जिम्मेवार ठहराती हो. किन्तु तुम्हारे आँसू सिर्फ तुम्हारे थोड़े ही हैं. में भी तो हूँ, जो तुम्हारे संग हूँ. बच्चों की चिन्ता तुम्हारी तरह मैं भी करता हूँ, और जब रात को उनमें से कोई खाँसता है, तो मेरी नींद उचट जाती है. मैं आँखें खोलकर चुपचाप सुनता रहता हूँ. मैं भी चाहता हूँ कि हम इससे ज़्यादा अच्छे घर में रहें. किन्तु इसके लिए मैं समर्थ नहीं हूँ. इसी घर को रख सकें, यही बहुत है. तुम समझती हो, मैं राक्षस हूँ, मुझे इसमें कोई तुक नज़र नहीं आता. मुझमें इतना साहस नहीं है कि प्रकृतिस्थ होकर बैठा रहूँ और तुम्हें तिल-तिल करके मरता हुआ देखता रहूँ. मुझे खुशी होगी, अगर मैं भी राशन और रजिस्ट्रेशन के बारे में कुछ जान सकूँ, किन्तु मेरे पास समय नहीं है. मैं इन बातों को कहना चाहता हूँ किन्तु हिम्मत नहीं बटोर पाता.
जो कहता हूँ, वह सिर्फ़ इतना ही—”तुम्हें कोई नौकर रख लेना चाहिए, जो तुम्हारा हाथ बँटा सके.” मेरे स्वर में अनिश्चय है, मानो मैं अपने से ही कह रहा हूँ.
वह अक्सर चुप रहती है, किन्तु जब बोलती है तो जड़ित विश्वास के संग (सिर्फ वही नहीं… अधिकांश औरतें).
“मुझे कोई ऐसा आदमी नहीं मिला, जो यहाँ काम कर सके.”
“कोशिश करो, तो ज़रूर मिल जाएगा. तुम्हारा मतलब शायद यह है कि तुम्हें कोई ऐसा आदमी नहीं मिला, जो इस घर में टिककर रह सके.”
“यानी दूसरे शब्दों में मैं नौकर को रखना नहीं जानती…यही मतलब है न तुम्हारा?”
“क्या मैंने यह कहा था?” मैं फिर चुप हो जाता हूँ. वास्तव में उसने अपनी अंगुलि सही-सही इस बात पर रख दी थी, जो मैं सोच रहा था.
यदि हमें कोई नौकर मिल जाता तो अच्छा रहता. जब कभी उसे घर से बाहर जाना पड़ता है, तो वह छोटे बच्चे को अपने संग ले जाती है, बाक़ी दो बच्चों की देख-भाल मुझे करनी पड़ती है. और कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब बारह-तेरह मेहमान हमारे घर न आते हों.
“मैं अपना कुछ काम करने बाहर जा रहा हूँ.”
“अभी?”
“अभी. मुझे शाम तक उसे पूरा कर देना है. निहायत ज़रूरी है.”
जो मैं कह रहा हूँ, वह सत्य है. किन्तु इससे बड़ा सत्य यह है कि मैं घर से बाहर जाना चाहता हूँ.
“आज शाम मुझे अपनी बहिन के घर जाना था.”
मैं जानता हूँ. उसकी बहिन बहुत बीमार है. किन्तु यदि वह जाएगी, तो मुझे घर में रहकर बच्चों की देख-भाल करनी पड़ेगी.
“इसीलिए तो कहता हूँ कि तुम्हें कोई नौकर…”
मैं चुप हो जाता हूँ. उसके मायके के बारे में कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा. यह विषय ऐसा है, जिसे छूते ही एक नया तनाव उत्पन्न होने लगता है.
लगता है, यह ज़िन्दगी जंजीरों की ग्रन्थि है. हर दिशा में जंजीरें फैली हैं और हर दफ़ा जब हम ज़रा-सा हिलते हैं- ख़ून बहने लगता है.
मैं अपने डेस्क के पास जाता हूँ. मेरी एक कहानी के कुछ रुपये आये हैं, जिन्हें दराज से निकाल कर अपनी जेब में सब ठूँस लेता हूँ. मैं एक काले रुमाल में डिक्शनरी और कहानी लिखने के लिए काग़ज़ रख लेता हूँ. इतने सहज भाव से मैं बाहर चला आता हूँ मानो मेरे बाहर जाने पर किसी को कोई टीका-टिप्पणी करने की ज़रूरत महसूस नहीं होनी चाहिए.
किन्तु मैं अपने काम के बारे में नहीं सोच रहा. मैं आत्महत्या के बारे में सोच रहा हूँ. मैं सीधा ‘बार’ की ओर चलने लगता हूँ.
“गुड ईवनिग”
“पीने के लिए कुछ लाओ. आज रात फिर वही ‘स्ट्राईप’ पहने हैं… इनमें तुम काफ़ी सुन्दर लगते हो.”
“हाँ— ये बुरे नहीं लगते. मैंने सोचा था, तुम्हें ये ज़रूर पसन्द आएँगे.”
“आज पत्नी से झगड़ा हो गया. घर में ज़्यादा देर रुकना मुमकिन नहीं हो सका. काफ़ी शराब है न? मैं आज रात भर यहीं रहूँगा. यह पक्की बात है. बिल्कुल पक्की!
मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि बच्चों की अपेक्षा उनके माँ-बाप का महत्व अधिक है. माँ-बाप बच्चों के मुक़ाबिले में बहुत ज़्यादा कमज़ोर हैं.
कोई चेरी लाया है.
हम अपने घर में बच्चों को भोग-विलास की चीज़ें नहीं देते. हो सकता है, उन्होंने आजतक कभी चेरी नहीं देखी. शायद वे चेरी खाना पसंद करेंगे. अगर मैं बाहर से उनके लिए चेरी लाऊँ, तो शायद उन्हें काफ़ी खुशी होगी. वे उन्हें एक धागे में बाँध देंगे और वे मूँगे के कंठहार की तरह दिखायी देंगी.
मैं तश्तरी से चेरी इस तरह उठाता हूँ, मानो मैं उनसे ऊब गया हूँ. मैं एक चेरी खाता हूँ और गुठली थूक देता हूँ— एक और चेरी खाता हूँ और गुठली थूक देता हूँ. मेरे मन में यह विचार अत्यन्त प्रबल हो उठा है : माँ-बाप का महत्व बच्चों से ज़्यादा है.
(साभार : कृति: नवम्बर 1958)
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आभार इस कहानी को साझा करने के लिए हमारा कथा संसार समृद्ध हुआ है
कहानी पढ़ ली । यद्यपि भूमंडलीकरण हो रहा है । फिर भी मुझ रूढ़िवादी को कुछ वाक्य ज़रूरत से ज़्यादा खुले लगे । परंतु मन में उपजे विचारों को व्यक्त कर ही समझाया जा सकता है ।
लेकिन परिवार के मुखिया कई युवतियों से प्रेम करते हैं । शराब पीने की आदत पुरुषों में होती है । उन्हें बहाना चाहिए । घर की ज़िम्मेदारियों से बचकर बाहर जाकर शराब पीना किस आदर्श परिवार का हिस्सा नहीं हो सकता ।
महिला बच्चों को सँभालती है । पितृसत्ता पुरानी है लेकिन मुझे बीमार मन का द्योतक लगती है ।
दूसरे देशों के समाज-जीवन से वाक़िफ़ कराया । शुक्रिया । कई शब्दों में नुक़्ते हैं । बाक़ियों में जोड़ना चाहिए । सही शब्द बिलकुल है । टाइप करने पर बिल्कुल लिखा आ जाता है । स्पेस देकर नया शब्द लिखने से बिलकुल बनता है । पुराने क़िस्म का अ वर्णमाला ने त्याग दिया । समालोचन र और व साथ रखकर ख लिखता है । यदि दूसरा स्वर आ लगा दें तब रवा बन जाएगा । र वा मतलब मोटी सूजी ।
बेशक यह अनुवाद हो, किंतु इसमें निर्मल जी की लेखन शैली की छाया स्पष्ट दिखाई पड़ती है, भले ही यह अनुवाद उन्होंने अपने लेखन काल के शुरुआती दिनों में किया हो।
मेरी अपनी कोई हैसियत नहीं है कि मैं निर्मल जी के लेखन के बारे में अपने कोई विचार सार्वजनिक कर सकूं, (किंतु फिर भी यह लिखने की हिम्मत कर रहा हूं ) – यदि मैं निर्मल जी के लिखे को एक पेंटिंग मानूं तो वह कुछ धूसर से दो-तीन रंगों की खूबसूरत हार्मोनिकल सन्नाटे की ध्वनि को उच्चारित करती सी लगती है। यदि एक कविता मानूं तो वह किसी उजड़े हुए पार्क के सुनसान कोने में लकड़ी की किसी पुरानी सी जर्जर बेंच पर बैठकर फुसफुसाते हुए पढ़ी गई कविता सी लगती है। उनके लिखे हुए कथात्मक गद्य में, एकांत हर दृश्य, हर बिंब में मुख्य पात्र की तरह मौजूद होता है, अन्य पात्रों को उकसाता हुआ सा। इस कहानी को पढ़कर भी ऐसा ही कुछ महसूस हुआ। श्री मनोज मोहन जी और ‘समालोचन’ को हृदय से धन्यवाद निर्मल जी के लेखन के एक (लगभग) गुमशुदा हिस्से को खोज कर कर हम सबके लिए प्रस्तुत करने के लिए।
धन्यवाद।