हिन्द स्वराज: पाठ और पुनर्पाठ (अकील बिलग्रामी से संवाद करते हुए) _________________ रूबल |
बीसवीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण नायकों में से एक गाँधी की विराटता का पहला प्रमाण उनके द्वारा लिखित हिन्द स्वराज जैसी एक छोटी पुस्तिका से मिलता है. इसे गाँधी ने 1909 में 13 से 22 नवम्बर के बीच लन्दन से केप टाउन के अपने सफ़र में लिखा. पानी के जहाज पर नौ–दस दिनों में पूरी की जाने वाली लगभग सौ पृष्ठों की इस विचारोत्तेजक और सम्प्रेषणीय पुस्तिका को मूलतः गुजराती में लिखा गया.
इस पुस्तिका के लिखे जाने को लेकर बहुत-सी बातें प्रचलित हैं. माना जाता है कि पुस्तिका को लिखने के लिए कागज़ की आवश्यकता जहाज में मौजूद कागज़ से पूरी की गई. इसके लिखने की गति इतनी तेज थी कि गाँधी जब सीधे हाथ से लिखते हुए थक जाते, तब उल्टे हाथ से लिखने लगते थे. इस तरह पांडुलिपि के कुल 275 में से लगभग 40 पृष्ठ उन्होंने अपने उल्टे हाथ से पूरे किए.
इसमें गाँधी ने न सिर्फ़ लम्बे समय से अपने भीतर चल रहे विचारों की जद्दोजहद को शब्दों में पिरोने का प्रयास किया है, बल्कि उस समय से जुड़ी हुई समस्याओं और दुविधाओं को कागज़ पर उतारने की कोशिश भी की है. गाँधी की चिंता में अपने आस-पास के लोगों के विचलन और ताक़तें दोनों ही शामिल रहीं. गाँधी की मानें तो उस समय उनके भीतर इतना गहरा वैचारिक संघर्ष चल रहा था कि इस पुस्तिका को लिखना ही एकमात्र उपाय रह गया था.
इसे पढ़ते हुए इस बात का अनुभव भी होता है. जैसे-जैसे आप हिन्द स्वराज में उतरते जाते हैं, गाँधी की चिंताएँ और उनकी बेचैनी साफ़ रूप से दिखाई देने लगती हैं. गाँधी के मन की उथल-पुथल इस पुस्तिका में प्रश्नों और उत्तरों के निरंतर प्रवाह से महसूस होने लगती है, जहाँ गाँधी किसी भी दो प्रश्नों के बीच का अंतराल व्यर्थ नहीं जाने देते. यह गाँधी द्वारा रचित केवल उन नौ–दस दिनों के संताप व बेचैनी से निकला हुआ गद्य नहीं रह जाता, बल्कि इसके प्रत्येक शब्द में उनकी आत्मा बोलती है. यह उस गाँधी की कथा है जो शायद स्वयं भी उन प्रश्नों से पहली बार लिखने के क्रम में उलझ रहे थे, जिनसे वे न जाने कितनी बार अपने अंदर, मन–मस्तिष्क में टकरा चुके होंगे.
इस तरह इस प्रचलित धारणा का कोई आधार नहीं है, जो गाँधी के हिन्द स्वराज लिखने के पीछे किसी प्रकार की अद्वितीय शक्ति का संकेत देती है. यह मूलतः चालीस साल की उम्र के पड़ाव को छूते गाँधी के भीतर अफ्रीका, भारत और इंग्लैंड के संबंधों की एक जटिल और संयुक्त तस्वीर का रूपांतरण भर था. यह जितना किसी दूसरे के लिए उस समय की चिंताओं का नक्शा खींच पाने में सक्षम रहा, उतना ही गाँधी के लिए उनके वैचारिक संघर्षों को आकार देने का एक जरिया भी साबित हुआ.
1.
हर दौर में हिन्द स्वराज का विचारोत्तेजक पाठ विद्वानों के लिए चुनौतीभरा रहा है. इस बात से असहमति नहीं जताई जा सकती कि गाँधी को समझने की कोशिश करने वाले हर एक विद्वान के लिए हिन्द स्वराज गाँधी की एक महत्वपूर्ण और आधारभूत किताब की तरह रही है. लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि केवल इसे ही गाँधी के बीज-विचार मान इतनी (अतिरिक्त) सूक्ष्म दृष्टि से देखना–परखना पड़े कि उसके कथ्य पर गाँधी के लिखे हुए से ज़्यादा उनके सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ हमारा जुड़ाव आरोपित होता जाए.
कहने का आशय यह है कि आम तौर पर विद्वान इस पुस्तिका को उसके समय से काटकर गाँधी के सम्पूर्ण जीवन और कर्म के मूल्यांकन का दस्तावेज़ मान लेते हैं. परिणामस्वरूप, गाँधी की चिंताओं का समसामयिक रूप बेहद बिखरा हुआ और स्वयं पढ़ने–समझने वाले की व्याख्याओं व अर्थ तले दबकर रह जाता है. इस तरह का पाठ स्वयं गाँधी को उनके 1909 में लिखे पाठ से बेदखल कर एक नए पाठ का निर्माण कर देता है.
गाँधी के जीवन और कर्म में निश्चित तौर पर इस पुस्तिका का ऐतिहासिक महत्व है— इस बात से गाँधी के आलोचक भी इनकार नहीं करते. जाहिर तौर पर गाँधी ने एक बेहद समृद्ध और सक्रिय जीवन जिया, और हिन्द स्वराज उनके जीवन, विचार और दृष्टि का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है, लेकिन वह गाँधी का सम्पूर्ण जीवन–विचार और दृष्टि नहीं हो सकती. बावजूद इसके हम यह कह सकते हैं कि गाँधी के जीवन-दृष्टि और विचार को समझने के क्रम में उसकी दिशा और भूमिका तय करने में इस पुस्तिका का महत्वपूर्ण योगदान है.
हालाँकि गंभीर चिंतन में गाँधी की चिंताओं का समसामयिक रूप कभी ओझल नहीं किया जाता. उनके अनुसार हिन्द स्वराज की जितनी महत्ता है, उतनी ही उसकी समय और स्थान-संदर्भ सहित व्याख्या की भी. दोनों मिलकर लगभग सौ साल पहले की चिंताओं और उनके समाधानों को वर्तमान की चुनौतियों से टकराने का प्रयास करती हैं, या कम से कम उन पर प्रश्न तो खड़े कर ही देती हैं.
इसी क्रम में सीमित रूप में ही सही, कुछ विद्वानों ने समय-संदर्भ के साथ हिन्द स्वराज के पाठ (text) को परिभाषित करने का गंभीर प्रयास किया है. इन सभी ने इसे अपने अकादमिक अनुशासन और उसकी दृष्टि व वैधता से आँका है. इनमें से कई इस बात को लेकर सतर्क रहे कि इसे लिखते वक्त गाँधी किस तरह की दुविधाओं व आशंकाओं में लिप्त रहे होंगे और उनके समय की मूल चिंताएँ क्या रही होंगी.
इन सभी ने गाँधी को न सिर्फ उनके समय-सापेक्ष रखकर सोचा, साथ ही यह भी समझने की कोशिश की कि क्या गाँधी के लिखे और उसमें उल्लिखित 1909 की चिंताओं का सम्बन्ध इतिहास में किसी महत्वपूर्ण घटना या बिंदु से साम्य नहीं रखता. इस दिशा में की गई हिन्द स्वराज की वैचारिक पड़ताल का आधार गाँधी द्वारा इस पुस्तिका में दिए गए नामों का उल्लेख है, जिन्हें गाँधी अपनी वैचारिक प्रक्रिया में बड़ी भूमिका निभाते देखते हैं.
इस तरह की सोच इस ओर इंगित करती है कि गाँधी ने जिन विचारों और विचारकों को अपनी वैचारिक प्रक्रिया की बुनावट में महत्ता दी, वे कहीं न कहीं किसी परम्परा या सूत्र की ओर इशारा कर रहे हैं. यह माना गया कि हो न हो बीते समय व इतिहास में कोई सोच-समझकर भुला दी गई आवाज़ रही होगी जिसे गाँधी ने सुनने की कोशिश की और उसे अपने अंदर समेट उस पर चिंतन किया. इस दिशा का आधार, इतिहास की क्रमिकता को न मानते हुए भी, भविष्य में होने वाली ऐतिहासिक पुनरावृत्तियों की ओर ध्यान आकर्षित करना है.
2.
अकील बिलग्रामी, एक ऐसे ही विद्वान हैं जो गाँधी को समझने की गंभीर कोशिशें लम्बे समय से कर रहे हैं. उनका मानना है कि
“गाँधी के बारे में लिखना मोटे तौर पर मूर्खता से भरा हो सकता है. इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि आपको कभी यकीन नहीं होता कि आपने उन्हें सही लिखा है, बल्कि इसलिए है क्योंकि आप लगभग निश्चिंत रह सकते हैं कि आप उन्हें ग़लत ही लिखेंगे.”
कहने का अर्थ यह है कि अकील के मतानुसार गाँधी आपके हाथ कभी नहीं आने वाले हैं. उन्हें समझने के प्रयास में वे आपके हाथ से और दूर फिसलते ही चले जाते हैं. यह एक ऐसा वाक्य, ऐसा प्रतीकात्मक निषेध है जो किसी को भी गाँधी से सम्बंधित समझ बनाने के लिए, उन्हें समझने के प्रयत्न किए जाने से पहले ही मायूसी से भर सकता है.
ऐसे में जब सभी जानते ही हैं कि गाँधी को जितना भीतर से खंगालेंगे, उतना ही वे आपकी समझ से और दूर होते चले जाते हैं, तो फिर प्रश्न उठता है कि गाँधी को पढ़ने व समझने की ज़रूरत ही क्या है? कहीं ज़्यादा करीब जाने के चक्कर में एक सामान्य और अपने “बेसिक” गाँधी से भी हाथ न धोना पड़े. मुझे नहीं पता कि अकील से अगर इस तरह का सवाल पूछा जाता तो वे क्या जवाब देते. लेकिन मेरा जवाब इसी सवाल से अपने उत्तर खोजने का प्रयत्न करता.
गाँधी को पढ़ने के क्रम में भले ही गाँधी आपसे दूर होते जाते हों, उसके बदले में आप स्वयं के पास बढ़ते चले जाते हैं. शायद यही गाँधी की सबसे बड़ी ताकत भी है. गाँधी स्वयं को उनमें विलय कर देते हैं जो गाँधी की तरफ एक कदम भी उठाने का साहस करते हैं.
यही नहीं, आप भले ही उस गाँधी से दूर होते चले जाते हैं जो करीब सौ साल पहले कुछ लिख, पढ़ या कह रहा था, लेकिन आप उस गाँधी के करीब धीरे-धीरे सरकने लगते हैं जो कहते रहे हैं कि तुम अकेले ही अपना भला नहीं कर सकते. तुम्हें उस आखिरी इंसान को भी अपने मन में रखना है जो कहीं मीलों दूर कभी रोटी, तो कभी अपनी आत्मा को बचाए रखने के लिए प्रयास कर रहा है. तुम्हें उसके लिए भी सोचना है जो कहीं युद्ध में घिरा बैठा सिर्फ एक दिन खिले फूल देखने की चाहत रखता है. मुझे लगता है यहाँ गाँधी को विस्मृत किया जाना या उन्हें ग़लत समझ लिया जाना भी उनकी ओर से ख़ुशी से स्वीकृत ही होता.
वापस अकील बिलग्रामी पर आते हैं. उन्होंने गाँधी को निश्चित रूप से बारीकी से समझने का प्रयत्न किया है. अकील का चुनाव ही क्यों यहाँ हिन्द स्वराज के सन्दर्भ में किया गया? इसकी वजह अकील का गाँधी को दार्शनिक परंपरा में अवस्थित करके देखना है. गाँधी को समझने के जितने रास्ते हो सकते हैं, उसमें दर्शन के लेंस से देखने का विचार अकील की समझ को एक सार्थक आकार देता है. यह अलग बात है कि गाँधी की वैचारिक पद्धति किसी भी दार्शनिक परम्परा में पैठ नहीं सकती. कोई भी दर्शन गाँधी को “वाद” जैसे किसी “स्थिर” रूप में नहीं, बल्कि उनके विचारों की थाह खुले अर्थों में की गई कोशिश से ही पा सकता है.
3.
1909 में लिखे हिन्द स्वराज के पाठ को अकील ने एक दार्शनिक अर्थवत्ता देने की कोशिश की है. वे न केवल हिन्द स्वराज के होने के अर्थ खोजने का प्रयास करते हैं, बल्कि इस पाठ की अति-आधुनिक इस दुनिया में क्या महत्ता, क्या स्थिति है उसका भी संज्ञान लेते हैं.

यह आलेख उनकी हिन्द स्वराज से जुड़ी मान्यताओं और तार्किक संबंधों का ध्यान रखते हुए संवाद की स्थिति में अपनी बात रखने की कोशिश करेगा. यह कुछ हद तक गाँधी द्वारा लिखे हिन्द स्वराज की शैली अपनाने के प्रयास करने जैसा है, जहाँ एक व्यक्ति दूसरे के साथ लगातार संवाद में रहकर अपने प्रश्नों को खुलकर सामने रखता है.
हालाँकि गाँधी ने कभी भी इस बात का खुलासा करने की कोशिश नहीं की कि वे किस छोर से इस किताब में मुखातिब हैं. इसका कारण शायद यह रहा हो कि गाँधी के लिए दोनों छोर से रखी गई बात या दोनों बातों को मिलाकर ही हिन्द स्वराज का सम्पूर्ण अर्थ खुलता है.
मोटे तौर पर अकील भी गाँधी को और केन्द्रीय रूप से उनके लिखे हिन्द स्वराज को दो छोर से देखने की कोशिश करते हैं. इसमें एक इतिहास की निरन्तरता में स्थित प्रतीत होता है तो दूसरा उसी इतिहास में स्थित किसी भी टेलीऑलॉजी का विरोध करता हुआ उसके दूसरे छोर पर खड़ा है. इस तरह का दार्शनिक चिंतन एक प्रणाली है. इसमें एक तार्किक समावेश है. शायद इसीलिए अकील के लिखे पाठ को एक साँस में पढ़ना बेहद मुश्किल कार्य भी है.
यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि अकील के पास जिस तरह से गाँधी के लिखे पाठ को पढ़ने की गहराई है, और जिस तरह उसमें वे अपनी व्याख्याएँ शामिल करते हैं, वह सब मिलकर एक जटिल पाठ का निर्माण करते हैं. ऐसा कहना या मानना कि अकील के विचार गाँधी की इस किताब के लिए किसी भी विरोधाभास से मुक्त हैं, या उस पर प्रश्न करने का कोई औचित्य नहीं, सही नहीं होगा. (हालाँकि उसमें विरोधाभास होते हुए भी एक मजबूत नींव का एहसास बना रहता है.) यहाँ विरोधाभास जैसा शब्द एक सीमित अवस्था में ही प्रयोग किया जा रहा है. हो सकता है कि इस आलेख में जिसे विरोधाभास समझकर उठाया गया हो, वह अकील के लिखे गंभीर और बेहद मुश्किल पाठ्य का वह सिरा हो जो यहाँ छूट रहा हो.
यहाँ यह जोड़ देना भी आवश्यक है कि इस तरह के पाठ में सिर्फ यह ज़रूरी नहीं रह जाता कि अकील उस पर अपनी क्या राय रखते हैं, या वे उससे कैसे उलझते हैं. यहाँ ज़्यादा महत्वपूर्ण रहता है कि वे उसे पढ़ते कैसे हैं, उनके पाठ करने की क्या शैली है? यह दोनों क्रियाएँ मिलकर मुश्किल ही सही, लेकिन अकील की रचना प्रक्रिया की संरचना के विषय को विस्तार देती हैं.
इस प्रक्रिया में वे दर्शन और उसकी सैद्धान्तिक पद्धति तक गाँधी की लिखी अवधारणाओं को खींच लाकर एक बड़ा पाठ रचते हैं. हिन्द स्वराज के आधार पर उन्होंने गाँधी की समझ को ऐतिहासिक क्रमिकता में देखने का प्रयत्न किया है. हालाँकि बाहरी तौर पर यह किसी भी क्रमिकता के विरुद्ध दिखाई पड़ सकता है. उसके बावजूद भी इतिहास में किसी समय किसी बिंदु पर यह स्थित है. इस वाक्य के अपने अर्थ, अपने समीकरण हैं, जिनसे आलेख के आने वाले हिस्सों में टकराया जाएगा.
4.
अकील के अनुसार हिन्द स्वराज के पाठ का सबसे सरल और सबसे ज़्यादा प्रचलित तरीका गाँधी को एक प्रतिक्रियावादी व्यक्तित्व के तौर पर दिखाना है जो आधुनिकता के घोर विरोधी थे. वे कहते हैं कि इस तरह के ज़्यादातर पाठ में गाँधी के अपने इस रुख से धीरे-धीरे पीछे हटने की ओर इशारा किया जाता है, जिसमें समय के साथ विकसित हुए साम्राज्य-विरोध ने गाँधी की दृष्टि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस तरह के तर्क का स्रोत गाँधी को समय के साथ प्रतिक्रियावादी व्यक्तित्व से प्रगतिशीलता की ओर ले जाने वाले विचारों में निहित होता है.
अकील मानते हैं कि इस तरह से हिन्द स्वराज का किया जाने वाला पाठ बेहद आसान, साथ ही इस पाठ में व्याख्यायित आग्रहों को समझने में नाकाम रहता है. इसके विरोध के रूप में वे इस पूरे पाठ का एक वैकल्पिक पाठ देते हैं, जिसमें हिन्द स्वराज के गाँधी को आधुनिकता-विरोधी होने के साथ ही उसी समय प्रगतिशील भी कहा जा सकता है. यही इनकी सबसे मजबूत परिकल्पना (hypothesis) भी है, जिसके चारों ओर उनका गाँधी-पाठ और मुख्य रूप से हिन्द स्वराज का पाठ अपना सिरा तलाशता है.
अकील अपने इस तर्क को एक अंतरविरोध की तरह दर्शाते हैं. वे कहते हैं कि
“अगर किसी को भी गाँधी के हिन्द स्वराज का पाठ आधुनिकता-विरोधी या अप्रगतिशील लगता है, तो मैं इस अप्रगतिशील शब्द को ही नहीं मानता हूँ और इसकी जगह मैं गाँधी को ‘रेडिकल’ शब्द से समझने की कोशिश करूँगा.”
ऐसा नहीं है कि ‘रेडिकल’ शब्द का प्रयोग अकील के यहाँ गाँधी को लेकर उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के अर्थ खोजने के आग्रह में प्रयोग होता है. वे गाँधी के जाति के प्रति विचारों को अपने दिमाग में रखकर अपनी स्थापनाएँ विकसित करते हैं. इस तर्क से वे उन्हें सामाजिक रूढ़िवाद के ज़्यादा करीब पाते हैं. यहीं अकील के लिए एक स्वस्थ तर्क भी विकसित होता है, जहाँ वे केन्द्रीय पाठ के आलोक में ही गाँधी के हिन्द स्वराज को ध्यान में रखकर उस पर अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत करते हैं.
ध्यान से देखने पर हिन्द स्वराज को पढ़ने का यही सबसे मुख्य और केंद्रीय रास्ता अकील अपनाते हैं. अगर कहें, तो एक तरह से यही उनके गाँधी को लेकर किए गए शोध और अध्ययन का आधार भी है, तो गलत नहीं होगा. यहाँ अकील से उनके तर्कों पर बात की जा सकती है, उस पर अपनी प्रतिक्रिया दी जा सकती है.
इसी क्रम में सबसे पहले, कहा जा सकता है कि अकील इस तरह की परिकल्पना केवल उन सामान्य बयानों और उनकी व्याख्याओं के खिलाफ रखते हैं, जो गाँधी के हिन्द स्वराज के पाठ को सामान्य रूप से आधुनिकता के विरोध के रूप में स्थापित पाते हैं. उनके द्वारा किसी का नाम न लिया जाना—जो इस तरह के दृष्टिकोण से गाँधी को देखने–समझने का प्रयास करता है—अकील की इस परिकल्पना पर संदेह उत्पन्न कर सकता है.
यह ज़रूर है कि किसी दूसरी जगह अकील इस तरह के दृष्टिकोण को रखने वालों में इरफान हबीब का नाम लेते हैं, जिनके अनुसार हिन्द स्वराज के प्रतिक्रियावादी गाँधी समय के साथ धीरे-धीरे प्रगतिशील होते जाते हैं.
ऐसे में बिना संदर्भों के एक सरल वाक्य के विरोध को ध्यान में रखकर गाँधी के इस पाठ की अकील द्वारा की गई रीडिंग आपको आकर्षित ज़रूर कर सकती है. लेकिन जिन रीडिंग्स को ध्यान में रखकर या जिनके विरोध में उन्होंने अपनी परिकल्पना बनाई है, उनके अपने तर्क और वैचारिक आधार को समझे बिना अकील के तर्क अधूरे लग सकते हैं.
दूसरी बात यह कि अगर अकील की बात मानकर चलें, जिसमें वे अधिकांश विद्वानों द्वारा हिन्द स्वराज की रीडिंग आधुनिकता-विरोधी प्रतीत होती दिखाते हैं, और जो समय के साथ गाँधी को इसके प्रति संशय की दृष्टि से रखते हैं, तो यहाँ यह बात दोहराने की ज़रूरत है कि अपनी पूरी ज़िंदगी गाँधी ने इस किताब में लिखे हुए का कभी खंडन नहीं किया.
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भी गाँधी ने हिन्द स्वराज को लेकर न कोई खेद प्रकट किया, न ही इसमें कोई बड़े बदलाव की इच्छा जताई. वे हिन्द स्वराज के साथ ताउम्र खड़े रहे. इस तरह जिन व्यक्तियों को भी गाँधी को लेकर यह भ्रम रहता है कि वे 1909 के आधुनिकता-विरोध से उभरकर अपने अंतिम वर्षों तक आधुनिकता के पक्ष में आ गए, तो उनकी यह रीडिंग किसी भी कोण से हिन्द स्वराज द्वारा पुष्टि नहीं पाती. इस तरह के तर्क के पक्ष और इसके विरोध—दोनों की पाठ्य-सीमाएँ हिन्द स्वराज के पाठ्य को गाँधी की सम्पूर्ण छवि से ढकने की गलती करती हैं.
तीसरी बात, यहाँ यह कहा जा सकता है कि अपनी परिकल्पना को सही साबित करने के लिए अकील गाँधी के हिन्द स्वराज को आधुनिकता के विरोध में रचा गया पाठ पहले स्वयं ही स्थापित करते हैं और फिर उसके अनुसार अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत करते हैं.
हालाँकि इन सब के बाद भी अकील के सभी विचार और उनके आधार गाँधी के प्रति एक सपाट समझ वाले और मुख्य रूप से हिन्द स्वराज बिना पढ़े ‘चिंतकों’ के विरोध में एक बड़ा तर्क गढ़ते हैं. अकील के विचार और परिकल्पना को लेकर मतभेद प्रकट किया जा सकता है, उन पर प्रश्न पूछे जा सकते हैं, लेकिन इन्हें पूर्ण रूप से ख़ारिज नहीं किया जा सकता.
5.
अकील ने हिन्द स्वराज के आधार पर गाँधी को ऐतिहासिक निरंतरता में खोजने का प्रयास किया है. उनके अनुसार गाँधी की इस किताब में दिए गए विचार उन विचारों से बहुत साम्य रखते हैं, जिन्हें सत्रहवीं शताब्दी के पश्चिमी चिंतकों के एक ख़ास समूह ने प्रस्तुत किया था.
इन समूह में आने वाले वे dissenters हैं, जिन्होंने आधुनिक होती पश्चिमी सभ्यता की दिशा पहले ही भाँप ली थी. ये सभी गाँधी की तरह ही आधुनिकता के प्रति अपने संदेह को व्यक्त कर रहे थे. इनका आक्रोश और मानसिक असंतोष तेजी से आधुनिक होती पश्चिमी सभ्यता की मूलभूत समस्याओं के प्रति इनके चिंतन और बेचैनी को दर्शाता है.
अकील इन सभी के साथ गाँधी की आवाज़ को मिलाकर सुनते हैं. वे मानते हैं कि गाँधी को भी कुछ हद तक इन लोगों जैसा ही आभास हो चुका था. गाँधी ने भी भाँप लिया था कि असल में इस प्रगति-रूपक आधुनिकता के साथ क्या-क्या पैवस्त होता है. गाँधी को यह लगने लगा था कि भारत भी आज उसी चौराहे पर आ खड़ा हुआ है, जिस पर कभी पश्चिमी सभ्यता आ पहुँची थी.
अकील मानते हैं कि गाँधी को यह डर सता रहा था कि अगर भारतीयों को अब भी समझ नहीं आया कि उन्हें क्या करना है या वे किस मुहाने पर खड़े हैं, तो भारत का रूप और आकार भी वही हो जाएगा, जैसा आधुनिकता ने पश्चिम— विशेषकर इंग्लैंड—को उसके वर्तमान तक पहुँचा दिया. इस तरह अकील यूरोप और पश्चिम के एक विशिष्ट समूह के चिंतकों का गाँधी के साथ साम्य कर, उन्हें उनकी परम्परा में रखने की एक नई hypothesis गढ़ते हैं.
यहाँ अकील से प्रश्न पूछा जा सकता है कि सत्रहवीं शताब्दी के ये dissenters, जिनसे वे गाँधी को जोड़ने का साहसिक प्रयास करते हैं, क्या उन चिंतकों की सामाजिक अवस्थिति तात्कालिक आधुनिकता की शुरुआत से पहले वाले समाज में एक जैसी रही थी?
अगर इस प्रश्न को एक बार भूल भी जाएँ तो भी यह पूछा जा सकता है कि इन चिंतकों के लिए शताब्दी पूर्व सामाजिक संबंधों का मूलभूत आधार कैसा था, या वे इसे कैसे परिभाषित करते थे? सत्रहवीं सदी की आधुनिकता-पूर्व दुनिया में इस समूह ने व्यक्ति और समाज के संबंध को नई दुनिया के आगे अधिक संतुलित और व्यवस्थित पाया था क्या? ऐसा पूछना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि जब अकील गाँधी को इस परम्परा में रखने की बात उठाते हैं तो केवल सुविधा से चुनी गई कुछ अनुरूपताओं से बात पूरी नहीं की जा सकती.
हालाँकि, अकील इस जोखिम को कुछ कम करने के लिए क्रिस्टोफ़र हिल की किताब का लगभग हर जगह उल्लेख करते हैं, जिन्होंने सत्रहवीं शताब्दी के इन dissenters को गंभीरता से पढ़ा है. इसके बाद भी केवल कुछ विचारों की सामान्य समानता से गाँधी को इस क्रम में रखने की परियोजना अकील द्वारा पर्याप्त रूप से स्पष्ट नहीं हो पाती.
निश्चित ही गाँधी आधुनिकता की बेहिसाब गति और उसके मौजूदा रूप से परेशान थे. लेकिन यह कहना कि जिस तरह सत्रहवीं शताब्दी का कोई चिंतक आधुनिकता की दिशा भाँप रहा था, उसी तरह तीन शताब्दियों बाद गाँधी ने भी उसे महसूस कर लिखा— यह अधूरा है और केवल symbolical समानता से अधिक कुछ अर्थ प्रस्तुत नहीं करता.
यहाँ गाँधी को लेकर अकील की प्रतिबद्धता पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं किया जा रहा है. उन्होंने हिन्द स्वराज को एक गंभीर पाठ्य की तरह देखा और परखा है. फिर भी साम्य दिखाने के वास्ते वे जिस तरह दूर की कौड़ी लाए हैं, उसके आधार पर उनसे और अधिक विस्तार की अपेक्षा थी.
हालाँकि, यह कोई असंभव यौगिक नहीं कि गाँधी प्रतीकात्मक रूप से इस क्रम के चिंतकों जैसे प्रतीत न हों. दर्शन और राजनीतिक समीकरणों में परम्परा व ऐतिहासिक क्रम में अवस्थित करने की पद्धति हमेशा से ही रही है. अकील भी इसी पाठ्य परम्परा का हिस्सा हैं.
अकील के इस चिंतन ने गाँधी से संबंधित सोचने-समझने वाले लोगों पर गहरा असर छोड़ा है. आवश्यक रूप से इस तरह के तर्क से सोचने की नई खिड़कियाँ खुली हैं, जिसने हिन्द स्वराज और गाँधी को देखने की एक नई दृष्टि दी है. उसके बावजूद अपने इस विचार और hypothesis को विस्तार देने के लिए अकील से और अपेक्षा की जानी चाहिए. यहाँ विस्तार की माँग इसलिए है क्योंकि या तो लेखक ने उन तर्कों पर उतना ध्यान नहीं दिया, या वे उन्हें प्रतीकात्मक साम्य दिखाने के लिए गैर-जरूरी मानते रहे.
मोटे तौर पर इन dissenters के समूह को चिंतकों की एक जमात की तरह देखा जा सकता है, जिनकी सोचने की दिशा एक जैसी प्रतीत होती है. लेकिन बारीकी से देखने पर इनमें आपसी साम्य नहीं दिखाई पड़ता. जहाँ Levellers आधुनिकता के बीच सामाजिक सुधारों पर बल देते थे, वहीं Diggers सुधारों से आगे बढ़कर बदलाव के पक्ष में थे. तो अकील ने इन्हें एक समूह मानकर गाँधी से कैसे जोड़ा?
एक अन्य प्रश्न यह भी है कि जिन विचारकों के समान अकील गाँधी को बता रहे हैं, केवल पश्चिमी दुनिया से ही चयन क्यों? क्या पश्चिम से बाहर के हिस्सों में गाँधी की समानता खोजी जा सकती है? क्या दुनिया के अन्य इलाकों और समयों में भी नए के प्रति संदेह की व्याख्या हिन्द स्वराज से मेल खाती है?
अकील मुख्यतः पश्चिमी वैचारिक टूल्स से आधुनिकता की समस्याएँ संबोधित करते हैं. वे मानते हैं कि पश्चिम का विकल्प या तो पश्चिम की वह वैचारिकता है जो सामाजिक सहयोग पर आधारित है, या पूर्व का वह दृष्टिकोण, जो उदारवाद से उपजी तर्कसंगतता को खारिज करता है. यह उनकी ओरिएंटल दृष्टि और बाइनरी वर्गीकरण की प्रवृत्ति दिखाता है. हिन्द स्वराज की उनकी व्याख्या में कई बार यह अतिरेक तक चला जाता है.
परिणामस्वरूप, अकील के विचारों में कई बार यूटोपिया की झलक मिलती है. वे गाँधी को इस दृष्टि से देखते हैं कि उनके विचार अव्यावहारिक लगने लगते हैं. इसलिए वे लोकप्रिय धर्मों और लोक-आध्यात्मिक परम्पराओं में गाँधी को खोजते हैं. उनके लिए यह संसार वैसा ही है जैसा सत्रहवीं शताब्दी के वे चिंतक देखते थे.
स्पष्ट है कि जब अकील लोकप्रिय धर्मों की लोक और आध्यात्मिक परम्पराओं की बात करते हैं, तो वे सिर्फ यूरोप ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया और विशेषकर भारत के बौद्धिकों पर भी विचार कर रहे होते हैं. यह तर्कसंगत भी है, क्योंकि जब यूरोप में आधुनिकता की आंधी को भाँपने के लिए बौद्धिक प्रयासरत थे, तो दुनिया के अन्य हिस्सों में भी ऐसी प्रक्रियाएँ चल रही होंगी. दुनिया का कोई भी हिस्सा अलग-थलग रहकर अपना व्याकरण नहीं गढ़ता.
फिर भी अगर अकील पश्चिमी लेंस से ही इन प्रक्रियाओं को देखते हैं, तो यह माना जा सकता है कि वे पूर्व की ओर उम्मीद से देख रहे हैं. लेकिन अगर वे पश्चिमी लेंस उतार दें तो उनके तर्क और व्याख्याएँ बिलकुल भिन्न दिखेंगी. दोनों ही स्थितियों में उनके विचार एक विस्तृत अध्ययन की माँग करते हैं.
इसी तरह, जब वे भारतीय लोक और आध्यात्मिक परम्पराओं में गाँधी को देखते हैं, तो उनके दिमाग में भारतीय ज्ञान-परम्पराओं का सिरा होता है. यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या कबीर या रैदास उन्हें गाँधी के साम्य में प्रतीत होते हैं? क्योंकि इन दोनों के मूल्य भारतीय समाज की कट्टरपंथी सोच के विरोध में लोक और जन के रास्ते बने थे.
अब सवाल यह है कि जिस तरह अकील गाँधी को पश्चिम के dissenters से जोड़ते हैं, क्या वही अनुगूँज उन्हें भारत के dissenters में भी मिलती है? यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में कबीर और रैदास की आवाज़ उस हर केन्द्रीयता के विरोध में दर्ज है, जो जाति-धर्म आधारित भेदभाव और परम्परा के सहारे असमानता को स्थायी बनाने का प्रयास करती है.
इसके बावजूद गाँधी के केंद्र में तुलसी अधिक हैं, न कि कबीर या रैदास. गाँधी के लिए सर्वोदय की प्रक्रिया तुलसी के निकट है, क्योंकि वे सामाजिक बुनावट में मन और मस्तिष्क को आधार मानते हैं. कबीर और रैदास की तीक्ष्ण आलोचना गाँधी के “सार्वभौमिक उत्थान” जैसे विचारों में समाहित नहीं हो पाती. गाँधी व्यक्ति की आत्मा में प्रवेश कर उसे भीतर से भरना चाहते हैं, जबकि कबीर-रैदास भीतर के अंधकार की आलोचना करते हैं. गाँधी के लिए यह आलोचना व्यक्ति को व्यक्ति से दूर करती है.
इस प्रकार अकील का यह प्रयास कि गाँधी को लोक-चिंतन की सार्वभौमिकता में रखा जाए, पुनर्विचार की माँग करता है. यूरोपीय चिंतकों की भाँति भारतीय संतों के लिए भी समाज की संरचना समान नहीं थी. किसी भी वैचारिक सन्दर्भ का सही आयाम उसकी सामाजिक अवस्थिति में होता है.
हिन्द स्वराज अपने समय की उपज है. गाँधी का भारत से आकर दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष करना, ब्रिटेन जाकर स्थिति को समझना, उस पर चिंतन कर हिन्द स्वराज लिखना— इसे समय और स्थान से काटकर नहीं देखा जा सकता. हालाँकि, अकील की सतर्कता के बावजूद कई बार उनके यहाँ हिन्द स्वराज समय और स्थान से विस्मृत होकर सार्वभौमिक प्रतीत होता है. इसका कारण वही सार्वभौमिकता की वैचारिकता है, जो कभी-कभी वर्तमान से जोड़ने में असमर्थ रहती है.
6.
सार्वभौमिकता तय करने के लिए इस पाठ को इतिहास की निरंतरता में देखना ही सिर्फ़ अकील के साथ मतभेद पैदा नहीं करता. उनके इस तर्क को भी संशय की दृष्टि से देखने की ज़रूरत है कि जब वे कहते हैं कि उन लोगों ने dissenters की आवाज़ नहीं सुनी और आती आधुनिकता को प्रगति का सूचक मान लिया, तो इसके बाद कई दशकों तक आधुनिकता को इतिहास की एक निश्चित दिशा मानकर आगे बढ़ते देखा गया. वे यहाँ इतिहास की एक निश्चित दिशा की ओर इशारा करते हैं. हालाँकि उन्होंने यह इशारा आलोचनात्मक रूप में किया है, पर इसका अर्थ यह भी निकलता है कि dissenters के समूह को इतिहास की क्रमिकता में भुला दिया गया क्योंकि आधुनिकता को एक ऐसी आती हुई प्रगति माना गया जिसने पिछली सभी संरचनाओं और उनमें निहित शोषण से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया.
वे मानते हैं कि चूँकि गाँधी किसी भी teleology को आवश्यक नहीं मानते थे, गाँधी के लिए आगे बढ़ना और प्रगति करना दो अलग बातें थीं, तो अकील इस बात में चूक करते हैं कि जब गाँधी किसी भी teleology को स्वीकार ही नहीं करते थे, तब अकील यह कैसे सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि गाँधी ने पश्चिमी आधुनिकता की दिशा देखकर मान लिया था कि भारत में भी आधुनिकता उसी रूप लेगी. यहाँ अकील अपने ही तर्कों से अपने ही निष्कर्ष को चुनौती दे रहे हैं.
यहाँ उनसे पूछा जाना चाहिए कि यदि पश्चिमी आधुनिकता, जो सत्रहवीं सदी से यूरोप में विकसित हुई, साम्राज्यवाद की आड़ लेकर भारत में न आई होती, तब क्या गाँधी हिन्द स्वराज में वही निष्कर्ष और समान चिंताएँ व्यक्त करते? दूसरे शब्दों में, क्या गाँधी के लिए पश्चिमी आधुनिकता का कोई स्वरूप साम्राज्यवाद से अलग कल्पनीय था? मुझे लगता है कि गाँधी के लिए यह प्रश्न उतना प्रासंगिक नहीं था, क्योंकि उनके अनुसार जिस दिशा से पश्चिमी आधुनिकता ने अपना आकार लिया था, उसका साम्राज्यवाद में विलय लगभग अनिवार्य प्रतीत होता था.
अगर गाँधी पश्चिमी आधुनिकता की परिणति को साम्राज्यवाद में ही देखते थे, तो अकील की ऐतिहासिक क्रमिकता की थीसिस की सापेक्षता पर प्रश्न उठता है. ऐसी स्थिति में हिन्द स्वराज अपने समय के भीतर लिखा गया पाठ अधिक प्रमुखता से उभर कर आता है. इसमें गाँधी ने भारत की परतंत्र स्थिति को ध्यान में रखते हुए आधुनिकता और साम्राज्यवाद के गठजोड़ को लक्षित किया है. इसलिए यह समझ पाना कठिन है कि हिन्द स्वराज को अकादमिक खांचे में कहाँ रखा जाए— क्या यह मूलतः पश्चिमी आधुनिकता पर हमला है या उसकी साम्राज्यवादीय परिणति पर? यही प्रश्न अकील की गाँधी-विचारधारा पर भी संदेह खड़ा करते हैं.
7.
कुछ अन्य स्थानों पर अकील के गाँधी के अलगाव (alienation) को लेकर दिए गए तर्क उनकी गाँधी के प्रति भावुकता को भी दर्शाते हैं. गाँधी और मार्क्स दोनों को जोड़ते हुए वे अलगाव के रूपक को समझाते हैं और दोनों के अलग अलग स्रोत बताकर गाँधी को उसी स्थान पर लाकर खड़ा कर देते हैं जहाँ से उनकी hypothesis शुरू हुई थी— पूर्व-आधुनिक दुनिया के उन चिंतकों का समूह जो लोक और लोकप्रिय धर्मों के भीतर रहकर उदारवाद और उसकी तार्किकता से परे सामाजिक सहयोग की गुहार लगाते थे.
अकील के अनुसार गाँधी को यह चिंता कभी नहीं रही कि यदि वे सहयोग देने की बात सोचते हैं तो वे अकेले रह जाएंगे. इस दावे को पुष्ट करने के लिए अकील ने उदारवाद और व्यक्तिवाद के इतिहास को सावधानी से खंगाला है. वे अमर्त्य सेन की उस परिकल्पना पर भी सवाल उठाते हैं, जिसके अनुसार भारत की आधुनिकता इंग्लैण्ड के लंदन और मैनचेस्टर जैसी राह का दोहराव है. अकील हर उस प्रवृत्ति से सतर्क रहने की वकालत करते हैं जो उदारवाद की क्रमिकता को इतिहास और भविष्य की दिशा नापने का एकमात्र मानक मान लेती है.
सरल शब्दों में कहें तो अकील हिन्द स्वराज में व्यक्तिवाद और उदारवाद के प्रति गाँधी की उदासीनता और सामाजिक सहयोग के प्रति उनके आदर्शों को वैधानिक रूप से स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं. वे यह दिखाने का प्रयत्न करते हैं कि गाँधी के लिए पश्चिमी मूल्यों का कोई बड़ा अर्थ नहीं था. अपनी बात मजबूत करने के लिए वे गाँधी को हिन्द स्वराज से बाहर निकालकर उनके आश्रम के सैद्धान्तिक मैदान पर खड़ा करते हैं.
वे मानते हैं कि जिस अलगाव की थ्योरी की पुष्टि वे हिन्द स्वराज के माध्यम से कर रहे हैं, उसे गाँधी के आश्रम में व्यवहारिक रूप से देखा जा सकता है. उनके अनुसार गाँधी के लिए ‘अलगाव’ शब्द का कोई मायने ही नहीं था; इसका आधार वे आधुनिकता-जनित जीवनशैली और कार्यक्षेत्र को मानते हैं, जिसे गाँधी ने महत्व नहीं दिया. शायद इसलिए अकील गाँधी के साथ जो वैचारिक साम्य दिखाते हैं, वहाँ अलगाव कभी प्रश्न के रूप में नहीं उभरता.
यहाँ अकील से एक और सवाल पूछा जाना चाहिए: वे यह तर्क कैसे दे सकते हैं कि आधुनिकता के बाहर का अलगाव अलगाव नहीं होता? जब गाँधी वैचारिकताओं को व्यवहार में लाने के लिए भारत में आश्रम बनाते हैं, तब क्या उनके लिए अलगाव के प्रति नकारात्मकता या उसे अनदेखा करना सरल रहा होगा? जहाँ उनके रोजाना के संपर्क में समाज के शोषित और पदानुक्रम के तहत रहने वाले लोग आते होंगे, वहाँ कैसे गाँधी सामाजिक सहयोग को व्यक्तिवाद के अलगाव से मुक्त कर पाने में सफल रहे होंगे? क्या अकील के लिए गाँधी का अलगाव नैतिक व स्वाभाविक स्थितियों से उपजा नहीं था?
यह कहना उचित होगा कि भारत वापसी के बाद गाँधी के लिए भारतीय समाज और उसकी परम्पराओं से उत्पन्न अलगाव हर क्षण एक मुश्किल चुनौती था. मार्क्स से अलग, गाँधी के लिए इसका स्रोत केवल अनुभवजन्य न भी रहा हो, तब भी उन्होंने इसे समझा और मनोवैज्ञानिक व नैतिक स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न किया. गाँधी के अनुभवों और वैचारिक दुविधाओं को समय से काटकर अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए.
शायद इसलिए उनके अनुभवों और वैचारिक दुविधाओं का इतिहास की किसी विशिष्ट स्थिति से साम्य दिखाने का प्रयास कई बार अतिरेक में बदल जाता है. यह गाँधी और उनके वैचारिक गठन का reductionism कर देने की प्रवृत्ति की ओर जाता है.
सन्दर्भ
1 . Gandhi Hind Swaraj and other writings ed by Anthony Jarel, p. xiv 1997 Cambridge University Press, UK.
2. Gandhi, The Philosopher by Akeel Bilgrami, p,4159 EPW, Vol 38, बी 39 ,2003.
3. To put it in words, I am asking: Is there a left-wing or radical Gandhi in the anti-modern Gandhi?
![]() उत्तराखंड के देहरादून में जन्मी रूबल हिंदी और अंग्रेजी में समान रूप से लिखती हैं. उनके लेखन के केंद्र में गांधी और साम्राज्यवाद है. इन दिनों वे गांधी के चिंतन में स्त्री दृष्टि की पड़ताल कर रही है. फिलिस्तीन पर इजरायली उपनिवेशवाद की प्रक्रिया विषय पर उन्होंने जेएनयू से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है. फिलहाल केरल के एक कस्बे में रहते हुए वे स्वतंत्र लेखन कर रही हैं. |
रवायत सही लेकिन गांधी के कहे और लिखे को आज याद करने का अपना महत्व है, जिसके लिए रुबल जी और समालोचन दोनों का शुक्रिया। हिंद स्वराज जैसी बहुचर्चित और बहुआयामी पुस्तक पर किसी महत्वपूर्ण लेखक की व्याख्या की अपनी तरह से आजमाइश करने का यह प्रयास जहां चुनौती पूर्ण और प्रशंसनीय है, वहीं यह पाठक को एक अव्यक्त अधूरेपन में भी डालता सा लगता है। वह इसलिए क्योंकि एक को पढ़े हुए कुछ समय बीत गया है और दूसरे को पढ़ा नहीं है । लेकिन यह प्रयास मुझे बहुत सार्थक भी लगा हालांकि मैं सोचता हूं कि गांधी इतनी विराट सरलता के लेखक हैं कि उनसे हर बार भिडंत सीधे-सीधे ढंग से की जा सकती है या की जानी चाहिए- नए संदर्भों और चुनौतियों के बरक्स। इस संदर्भ में मैं शिक्षाविद कृष्ण कुमार द्वारा हाल ही में लिखी गई पुस्तक ‘ थैंक यू ,गांधी’ का जिक्र करूंगा जो इस पीड़ित पिघलते समय में तमाम तरह की चुनौतियां के बीच गांधी की प्रेरणाओ को बहुत मार्मिकता से प्रस्तुत करती है। वहां विचारगत उलझने नहीं है , नए सूत्रों और सिरों से प्रेरणा लेने की ईमानदार कोशिश और जरूरत महकती है।
अकील बिलग्रामी के विचार और चिंतन के आलोक में गांधीजी के हिन्द स्वराज को देखने और उसके खतरों को भाँपता हुआ रूबल का विस्तृत आलेख बहुत सुलझा हुआ है। रूबल के गाँधी चिंतन की सबसे बड़ी विशिष्टता यही है कि वे उनके मूल विचारों के आसँग में ही बाद के सभी परिवर्तनों को देखती हैं, जैसे गाँधी जी स्वयं उससे रत्ती भर भी विचलित होते नहीं दिखते। हिन्द स्वराज जीवन भर उनके लिए आधुनिक सभ्यता की मूलगामी आलोचना बनी रही और वे कभी उसमें कोई परिवर्तन स्वीकार न कर सके। रूबल बिलग्रामी के नज़रिये की कुहेलिका को साफ करती हुईं हिन्द स्वराज के निहितार्थ को गांधीजी के प्रयोगों तक ले जाकर उसे उनकी विचार पीठिका के रूप में ही समझती हैं, जैसा कि वह है। इस सुंदर आलेख के लिए रूबल और समालोचन, दोनों को बधाई।