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Home » प्रेमचंद: प्रदूषण एवं स्वास्थ्य का सवाल : शुभनीत कौशिक

प्रेमचंद: प्रदूषण एवं स्वास्थ्य का सवाल : शुभनीत कौशिक

जहाँ शिक्षा और आलोचनात्मक सोच को पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं मिलता, वहाँ पर्यावरणीय ही नहीं, बौद्धिक प्रदूषण भी समान गति से बढ़ता है. इसका लगातार बढ़ना यह बताता है कि भारत का सांस्कृतिक संकट कितना गहरा है. दोनों तरह के प्रदूषणों से संघर्ष स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों से ही आरम्भ हो चुका था, और उस समय के अग्रगामी लेखक तथा चिंतनशील राजनेता लगातार इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे थे. आज महान कथाकार प्रेमचंद की पुण्यतिथि पर, उनके लेखन में निहित प्रदूषण और स्वास्थ्य से जुड़े प्रश्नों को पुनः देखने की आवश्यकता है. इस संदर्भ में अध्येता और लेखक शुभनीत कौशिक का यह विचारोत्तेजक आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
October 8, 2025
in आलेख
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प्रेमचंद: प्रदूषण एवं स्वास्थ्य का सवाल : शुभनीत कौशिक
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प्रेमचंद
प्रदूषण एवं स्वास्थ्य का सवाल

शुभनीत कौशिक

आज समूची दुनिया प्रदूषण के संकट से जूझ रही है. एक सदी पहले तक प्रदूषण के संकट ने ऐसा विकराल रूप धारण नहीं किया था. लेकिन उस दौर में भी हवा और नदियों के प्रदूषित होते जल को लेकर चिंताएँ जाहिर होने लगी थीं. प्रेमचंद हिंदी के उन आरम्भिक लेखकों में से हैं, जिन्होंने प्रदूषण के सवाल को लेकर लेख लिखे. तीस के दशक में ‘जागरण’ में लिखी उनकी सम्पादकीय टिप्पणियाँ पर्यावरण प्रदूषण को लेकर प्रेमचंद की चिंता की गवाही देती हैं. महत्त्वपूर्ण यह भी है कि प्रदूषण के सवाल को उठाते हुए प्रेमचंद उसे स्थानीय और राष्ट्रीय संदर्भों से जोड़ते हैं.

मसलन, बनारस में प्रदूषित हवा और धूल के सवाल को लेकर उन्होंने फ़रवरी 1933 में ‘जागरण’ में एक टिप्पणी लिखी. जिसमें उन्होंने बनारस के बेनिया, गोदौलिया और काशीपुरा जैसे इलाक़ों में धूल भरी हवा की समस्या, उससे होने वाली फेफड़ों की बीमारियों और वाटर वर्क्स विभाग की लापरवाही को लेकर लिखा. प्रेमचंद लिखते हैं :

काशी के वाटर वर्क्स विभाग की शिकायत लिखे हमें सात दिन हो गये, पर जो मोटी तनख्वाह और सरकारी सम्मान पाकर मौज में बड़े-बड़े बंगलों में रहते हैं, उन्हें क्या पता कि सड़क पर पानी न छिड़कने की लापरवाही के कारण कितने अभागों के फेफड़ों को क्षय चाटे जा रहा है. एक बार जरा बेनिया गोदौलिया की सड़क पर जाइए- मुंह में धूल बैठ जाएगी, आँख तक लाल हो जावेगी. एक बार काशीपुरा की सड़क पर आइये, मारे गर्द के सर दुःखने लगेगा. शुद्ध वायु की जगह धूल फांक आइए और फिर भी कुछ पंडित काशी के वाटर वर्क्स की शिकायत को जांच के परे समझते हैं.[1] 

तब निश्चय ही आज की तरह ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ जैसे मानक नहीं थे, लेकिन आम लोगों को धूल और धुएँ से भरे वातावरण से समस्याएँ हो रही थीं. प्रेमचंद ने पत्रकारिता का उत्तरदायित्व निभाते हुए इस समस्या को ‘जागरण’ में उठाया था. आज पटाखों के अंधाधुंध इस्तेमाल पर रोक लगाने को लेकर अदालतें, नागरिक समाज और सरकार चिंतित रहती हैं. यह दिलचस्प है कि इस सवाल को ‘जागरण’ में प्रेमचंद ने ‘आतिशबाज़ियों का घातक परिणाम’ शीर्षक से लिखी सम्पादकीय टिप्पणी में उठाया था. होली, दीवाली और शबेबारात में होने वाली आतिशबाज़ी को लेकर प्रेमचंद ने दिसम्बर 1933 में लिखा :

शबरात गुजरे पांच दिन हो गए, पर अभी तक पटाखे छूट रहे हैं. होली में भी हफ्तों तक लोगों पर आतिशबाजियों का नशा सवार रहता है. हर साल कई लाख रुपये बारूद में उड़ जाते हैं. रुपये तक ही बात रहती तो गनीमत थी, कितनों ही की जान भी जाती है. अभी समाचार-पत्रों में कई जिलों से आतिशबाजी के घातक परिणाम की खबरें आई हैं. मगर समाज के नेताओं ने इस दूषित प्रथा को रोकने का प्रयत्न नहीं किया. कई साल हुए दिल्ली में मुसलिम नेताओं ने आतिशबाजियों के विरुद्ध बड़ा आंदोलन किया था, उसका नतीजा यह हुआ कि दो-तीन साल तक इसमें कुछ कमी हुई, लेकिन अब फिर वही हाल है.[2]

धूल और धुएँ की जिस समस्या की ओर प्रेमचंद इशारा कर रहे थे, उसे लेकर बम्बई और कलकत्ता जैसे औपनिवेशिक महानगरों में उन्नीसवीं सदी से ही चिंताएँ प्रकट होने लगी थीं. रेल के इंजन, सड़कों पर चलने वाले वाहनों और धुआँ उगलती कारख़ानों की चिमनियों से लेकर शवदाह के लिए नियत जगहों और घर की रसोई तक में धुएँ के सवाल को लेकर प्रश्न उठ रहे थे. विधानसभाओं में हुई बहसें, ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ सरीखे तत्कालीन समाचारपत्र, प्रदूषण के मुद्दे पर गठित विभिन्न औपनिवेशिक आयोगों की रिपोर्टें इसकी गवाही देती हैं.[3] यह भी स्पष्ट है कि औपनिवेशिक शासन इन समस्याओं का कोई दीर्घकालीन समाधान ढूँढने की बजाय सीमित संसाधनों का हवाला देकर कुछ अस्थायी उपाय कर अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहा था.

यही नहीं, वायु प्रदूषण के साथ-साथ नदियों के प्रदूषण के सवाल को भी प्रेमचंद ने ‘जागरण’ में ही लिखे एक सम्पादकीय में उठाया था. वर्ष 1933 में राष्ट्रवादी नेता सी. विजयराघवाचारियर (1852-1944) की पहल पर हरिद्वार में होने जा रहे ‘गंगा सम्मेलन’ की चर्चा करते हुए प्रेमचंद ने लिखा कि :

गंगा सम्मेलन हरिद्वार ऐसे पवित्र तीर्थ में नालियों का, परनालों का सबका एकत्रित मल गंगाजी में गिरता है. पुण्य-सलिला को इस प्रकार दूषित होने से बचाने के लिए बहुत दिनों से चेष्टा की जा रही है. श्री विजयराघवाचारियर ने इसकी एक बड़ी सुन्दर योजना बनाई है, जिस पर विचार करने के लिए हरिद्वार में गंगा-सम्मेलन हो रहा है, जिसमें सरकारी प्रतिनिधि भी सम्मिलित होंगे. हरद्वार के बाद काशी ही ऐसा सर्वोच्च पवित्र नगर है, जहां नगर भर का मल गंगा जी में गिरता है. यहां के बोर्ड ने कई बार चेष्टा कर गंगा जी को शुद्ध करना चाहा पर सरकार ने कोई सहायता न दी. क्या यह काशी की ओर भी ध्यान देने की कृपा करेगी?[4]

इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि उन्नीसवीं सदी में ही बनारस में नाले के गंदे पानी से नदी जल प्रदूषण के मसले को जे. रिचर्डसन (पश्चिमोत्तर प्रांत के सिविल अस्पतालों के तत्कालीन इंस्पेक्टर-जनरल) और बनारस नगरपालिका से सम्बद्ध डबल्यू. वेनिस सरीखे विशेषज्ञ उठा रहे थे. 1890 में डबल्यू. वेनिस ने बनारस नगरपालिका बोर्ड के चेयरमैन जे. व्हाइट को लिखे पत्र में कहा था कि नाले का गंदा पानी नदियों में मिलकर न केवल उनके जल को प्रदूषित करता है, बल्कि उन्हें संक्रामक बीमारियों का वाहक भी बना देता है.[5] वहीं वर्ष 1886 में स्थापित ‘काशी गंगा प्रसादिनी सभा’ जैसी संस्थाएँ भी बनारस में गंगा नदी में प्रदूषण के सवाल को प्रमुखता से उठा रही थीं. इन संदर्भों को ध्यान में रखें तो प्रेमचंद का हस्तक्षेप और भी महत्त्वपूर्ण हो उठता है.

नदियों के प्रदूषण की समस्या को लेकर तब का राष्ट्रीय नेतृत्व भी चिंतित था. मसलन, नवंबर 1929 में महात्मा गांधी ने इलाहाबाद नगरपालिका और जिला बोर्ड द्वारा दिए गए मानपत्रों का उत्तर देते हुए अपने भाषण में इलाहाबाद में गंगा-यमुना में नालों का पानी डालने पर चिंता जाहिर की थी. और कहा था कि ‘मुझे यह जानकर बड़ा धक्का लगा है कि हरिद्वार की तरह प्रयाग की पवित्र नदियाँ भी नगरपालिका के गंदे नालों के पानी से अपवित्र की जा रही हैं. इस ख़बर से मुझे अत्यंत दुख हुआ है. इस प्रकार बोर्ड पवित्र नदियों के पानी को गंदा ही नहीं करता बल्कि हजारों रुपया नदी में फेंकता है; नालियों के पानी को लाभप्रद ढंग से अन्यथा उपयोग किया जा सकता है. इस संबंध में कुछ कर सकने में बोर्ड की असमर्थता देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है.’[6]

 

 

स्वास्थ्य का प्रश्न

प्रदूषण के साथ-साथ स्वास्थ्य और चिकित्सा को लेकर भी प्रेमचंद ने अपने विचार समय-समय पर प्रकट किए थे, जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे. वर्ष 1934 में कानपुर के अंग्रेज़ ज़िलाधिकारी ने कानपुर ज़िला बोर्ड के प्रतिनिधियों को इसलिए फटकार लगाई कि उन लोगों ने रोग निवारक फंड का इस्तेमाल औषधालय और होमियोपैथिक दवाखाना खोलने में खर्च किया था. उसने यह आदेश जारी किया कि इसके दंड के रूप में वे अब इस फंड के लिए जनता से कर नहीं वसूलेंगे. तब प्रेमचंद ने ‘जागरण’ में लिखे सम्पादकीय लिखकर इसका विरोध किया. प्रेमचंद ने लिखा कि अचरज की बात है कि ‘आज भी ऐसे तंग ख़्याल अंग्रेज़ पड़े हुए हैं, जो इतना नहीं समझते कि भारत वालों के लिए भारत में पैदा होने वाली औषधियाँ जितनी फ़ायदेमंद हो सकती हैं, उतनी विदेशी एलोपैथिक दवाएं नहीं.’

यही नहीं उन्होंने आयुर्वेदिक, यूनानी या होमियोपैथिक दवाओं का पक्ष लेते हुए लिखा कि :

हम भी मानते हैं कि बहुत-सी बीमारियों में एलोपैथिक दवाएं तीर की तरह निशाने पर जा बैठती हैं, मगर यह किसी तरह नहीं मान सकते कि आयुर्वेदिक, यूनानी या होमियोपैथिक की दवाएं बिल्कुल बेकार हैं. आज भी कितने मरीज एलोपैथिक दवाओं से अपनी देह को विषाक्त करने के बाद निराश होकर आयुर्वेद या तिब की शरण में आते हैं और अच्छे हो जाते हैं. ऐसे अंग्रेज भी मौजूद हैं जो आयुर्वेदिक और तिब की दवाओं पर पूरा विश्वास रखते हैं और अक्सर डॉक्टर भी आयुर्वेदिक औषधियों का व्यवहार करते हैं और होमियोपैथिक तो मानो किसी देवता का आशीर्वाद है, जिसकी राई भर गोलियों में वह तासीर है जो एलोपैथिक की बोतलों में भी नहीं.[7]

जाहिर है कि प्रेमचंद एलोपैथिक दवाओं को ख़ारिज नहीं कर रहे थे, लेकिन वे उन लोगों से असहमत थे, जो आयुर्वेद और तिब्ब जैसी देशज चिकित्सा पद्धतियों को अंग्रेज़ी दवाओं के मुक़ाबले बिल्कुल ही बेअसर मान रहे थे.

 

 

खान-पान और पौष्टिक आहार

प्रेमचंद ने स्कूली शिक्षा में स्वास्थ्य जैसे अहम मुद्दे की सिरे-से अनदेखी के सवाल को भी उठाया. स्कूली पाठ्यचर्या में शारीरिक व्यायाम को जगह न मिलने की उन्होंने आलोचना की. ‘हंस’ में वर्ष 1935 में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने लिखा कि :

यों तो हमारा शिक्षा-क्रम दोषों से भरा हुआ है, लेकिन हमारे विचार में इसमें सबसे बड़ा दोष जो है, वह इसकी स्वास्थ्य की ओर से उदासीनता है… नतीजा यह हो रहा है कि हम अपने मस्तिष्क का कोष भर लेते हैं, लेकिन स्वास्थ्य की ओर से दीवालिए हो जाते हैं. हमारे अधिकतर शिक्षित लोग चलते-फिरते रोग हैं, किसी को अजीर्ण का रोग, किसी को धड़कन का. और डाएबिटीज तो इतना व्यापक हो गया है कि कुछ न पूछिए. इसका कारण यही है कि बचपन में हमको स्वास्थ्य का महत्व नहीं समझाया गया और हममें ऐसी आदतें डालने की चेष्टा नहीं की गयीं कि हम अपनी सेहत की रक्षा कर सकते. और जवान या अधेड़ होने पर जब सेहत और तंदुरुस्ती का महत्व समझ में आया, तो सूखे धान में पानी डालने से क्या हो सकता है. अब लाख ओकासा खाइए या पीजिए, लाख विटामिनों के पोछे दौड़िए, सेहत हाथ नहीं आती.[8]

खान-पान और पौष्टिक आहार को लेकर भी प्रेमचंद ने जैसे लेख उस समय लिखे, वे उनकी दूरदर्शिता का परिचय देते हैं. उन्होंने खाने में मोटे अनाज, हरी पत्तेदार सब्ज़ियों और फलों के सेवन पर ज़ोर देते हुए लेख लिखे. मसलन, वर्ष 1932 में ‘जागरण’ में छपे एक सम्पादकीय में उन्होंने फलाहार की महत्ता बताते हुए लिखा कि :

विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि फलों में जितने पोषक पदार्थ और रोगनाशक द्रव्य हैं, उतने भोजन की और किसी सामग्री में नहीं हैं. मन्दाग्नि की दशा में तो फलाहार आवश्यक हो ही जाता है, साधारण अवस्थाओं में भी हमारे स्वास्थ्य पर फलाहार का बहुत ही अच्छा असर होता है. हम ऐसे कई सज्जनों को जानते हैं, जो अन्न पचाने में असमर्थ हैं और केवल फलों के आहार पर रहकर कड़ी से कड़ी मानसिक और शारीरिक मेहनत कर सकते हैं. घी, मक्खन और मांस-मछली खाने वाले आदमियों में चीनी अधिक हो जाती है, जो वास्तव में रोग है. ऐस आदमी कोई कड़ा परिश्रम नहीं कर सकते. फलाहार से देह में फुरती, चुस्ती और मुस्तैदी बढ़ती है और विज्ञानवेत्ताओं के मतानुसार फलाहार से मनुष्य दीर्घजीवी भी हो जाता है.[9]

प्रेमचंद इन लेखों में स्वास्थ्य से जुड़ी अनेक भ्रांतियों का खंडन करते हैं. मसलन, यह भ्रामक विचार कि ‘शरीर और सेहत को बलवान बनाने के लिए घी, दूध, मक्खन और मेवे का होना लाजिमी है.’ इसकी वजह से कितने ही लोग यह सोचने लगते हैं कि कसरत से क्या फायदा, जब पुष्टिकारक भोजन नहीं मिलता? कसरत तो तब करें, जब प्रातःकाल बादाम का हलुआ और दूध मिले और मेवे मिलें, खाने में घी, मलाई और मांस भरपूर मिले. इस भ्रम का निवारण करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं कि :

अब दिन-दिन विज्ञान द्वारा यह साबित होता जा रहा है कि मामूली सादे खाने में और मामूली साग-भाजी में शरीर के पोषण करने की शक्ति किसी तरह भी घी, दूध या मेवों से कम नहीं है. हां, अगर हम उनका ठीक तौर से व्यवहार करना जानें. अगर हम अज्ञानवश इन पदार्थों का मुफीद हिस्सा फेंक दें, तो यह हमारा दोष है, उन चीजों का दोष नहीं.

आकर्षक विज्ञापन देकर बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा लोगों को स्वास्थ्य के सम्बन्ध में किस प्रकार छला जा रहा था, इसे भी प्रेमचंद बख़ूबी समझ रहे थे. उस समय की हिंदी पत्रिकाओं में क्वेकर ओट्स, ओवल्टीन आदि के विज्ञापन ख़ूब दिखाई पड़ते हैं. उल्लेखनीय है कि ओवल्टीन के स्विस निर्माताओं ने बीसवीं सदी के आरम्भ में ही इंग्लैंड और अमेरिका में निर्माण की इकाइयाँ बनाई थीं. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेशों में ओवल्टीन का ज़ोर-शोर से प्रचार कम्पनी द्वारा शुरू किया गया. इतिहासकार डगलस हेंस ने लिखा है कि तीस के दशक में ओवल्टीन ने भारत में अंग्रेज़ी और भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापन देने का बड़ा अभियान चलाया था.[10] वहीं उन्नीसवीं सदी में स्थापित अमेरिकी कम्पनी क्वेकर ओट्स भी अख़बारों में लुभावने विज्ञापनों के ज़रिए भारतीय उपभोक्ताओं को रिझाने में लगी हुई थी.

उसी समय क्वेकर ओट्स, ओवल्टीन जैसी कम्पनियों के विज्ञापनों को लक्ष्य करते हुए प्रेमचंद ने लिखा:

हमने नई शिक्षा पाकर गोरी जातियों की नकल में उन चीजों का व्यवहार करना छोड़ दिया, जो हमारी भोजन सामग्री को पुष्टिकर बनाती थीं और नई-नई सामग्रियों के फेर में पड़ गये थे, जिन्हें योरप के व्यापारी लंबे-चौड़े विज्ञापन दे-देकर हमारे सामने लाते थे, यह ओवल्टीन है, यह क्वेकर ओट, यह माल्टेड मिल्क है. बस, सारी दुनिया की पौष्टिक शक्ति इनमें भरी हुई है. जिस युवक को देखिए इन्हीं इश्तिहारी चीजों के फेर में पड़ा हुआ है, लेकिन अब सिद्ध हो रहा है कि हमारे मूली-गाजर और पालक-बथुए में जो पौष्टिक पदार्थ मौजूद हैं वह इन बहु प्रशंसित सामग्रियों में हो नहीं सकते.

चीनी की जगह गुड़, पालिश किए हुए पुराने चावल की जगह बिना पालिश किए नए चावल, मैदे की जगह चोकर युक्त आटे को तवज्जो देते हुए प्रेमचंद ने ‘हंस’ में मार्च 1935 में लिखा था :

कुछ अमीरी का अभिमान और अपनी रुचि की नफासत भी हमें पथभ्रष्ट करती है. हम गुड़ नहीं खा सकते, जिसमें पुष्टिकर तत्व भरे पड़े हैं. हमें तो शक्कर चाहिए जितनी साफ हो उतनी ही अच्छी. यह भ्रम फैला दिया गया है कि गुड़ या खांड खाने से फोड़े निकलते हैं. नया चावल भी हम नहीं खाते. हम उसे जितना ही पुराना करके खाएं, उतना ही हमारी कल्पना प्रसन्न होती है. वह ऐसा निखरा हुआ होना चाहिए जैसे बेले का फूल. यह हम भूल जाते हैं कि वह जितना ही पुराना होता जाता है और जितना ही उसका पालिश किया जाता है, उतना ही निस्सत्व होता जाता है. गेहूँ के विषय में भी हमें कुछ ऐसे ही भ्रम हैं. हम महीन-से महीन मैदा खाना अमीरी की शान समझते हैं, मोटा आटा खाना गंवारूपन है और उसका चोकर तो कोई पचा ही नहीं सकता. भला चोकर भी खाने की चीज है. लेकिन अब विज्ञान से सिद्ध हो रहा है कि गेहूँ का सबसे बहुमूल्य भाग उसका चोकर है, जो हम फेंक देते हैं.[11]

उल्लेखनीय है कि तीस के दशक के शुरुआत में महात्मा गांधी भी शक्कर की बजाय गुड़, चक्की के पिसे आटे और बिना पालिश किए हाथ से कूटे हुए चावल की वक़ालत करते हुए लेख लिख रहे थे. साथ ही, वे इसी विषय पर अन्य विद्वानों के लेख भी ‘हरिजन’ में प्रकाशित कर रहे थे.[12] गुड़ की महत्ता बताते हुए महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ में लिखा था कि ‘चीनी की अपेक्षा गुड़ अधिक पौष्टिक है…बाज़ारू मिठाई और शक्कर की अपेक्षा गुड़ अधिक अच्छी चीज़ है.’ फ़रवरी 1935 में हरिजन में गांधी जी ने इसी मसले पर लिखा :

यह तो सभी डॉक्टरों की राय है कि बिना चोकर का आटा उतना ही हानिकर है जितना कि पालिश किया हुआ चावल. बाजार में जो महीन आटा या मैदा बिकता है, उसके मुकाबले में घर की चक्की का पिसा हुआ बिना छना गेहूँ का आटा अच्छा भी होता है और सस्ता भी. सस्ता इसलिए होता है कि पिसाई का पैसा बच जाता है. गेहूँ का सबसे पौष्टिक अंश उसके चोकर में होता है. गेहूँ की यह भूसी छानकर निकाल देने से उसके पौष्टिक तत्व की बहुत बड़ी हानि होती है. ग्रामवासी या दूसरे लोग जो घर की चक्की का पिसा हुआ बिना छना आटा खाते हैं, वे पैसे के साथ-साथ अपने स्वास्थ्य की भी रक्षा कर लेते हैं.[13]

कहना न होगा कि बीसवीं सदी के चौथे दशक के आरम्भ में प्रदूषण और स्वास्थ्य के सवाल को प्रेमचंद ने जिस निरंतरता के साथ उठाया और जितनी गहरी दृष्टि से इन समस्याओं के बारे में लिखा, वह उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है. ये सवाल हमारे सामने आज भी खड़े हैं. इन सवालों पर प्रेमचंद का लेखन हमें आज भी राह दिखाने का काम कर रहा है.

 

सन्दर्भ 

[1] जागरण, 20 फरवरी, 1933.
[2] जागरण, 11 दिसम्बर 1933.
[3] देखें, अवधेंद्र शरण, डस्ट एंड स्मोक : एयर पॉल्यूशन एंड कॉलोनियल अर्बनिज़्म, इंडिया 1860-1940 (हैदराबाद : ओरियंट ब्लैकस्वान, 2020).
[4] जागरण, 17 अप्रैल, 1933.
[5] जैनिन विलेम, एनवायरमेंट एंड पॉल्यूशन इन कॉलोनियल इंडिया : सीवरेज टेक्नोलॉजीज़ एलांग द सेक्रेड गंगेज (न्यू यॉर्क : रुटलेज, 2016), पृ. 57 पर उद्धृत.
[6] लीडर, 20 नवंबर, 1929; सम्पूर्ण गांधी वांगमय, खंड 42 (प्रकाशन विभाग : नई दिल्ली, 1971), पृ. 189.
[7] जागरण, 7 मई 1934
[8] हंस, मार्च 1935
[9] जागरण, 12 दिसम्बर, 1932; बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हिंदी में पाककला को लेकर लिखी गई पुस्तकों और उनमें आहार-स्वास्थ्य सम्बन्धी चर्चा और उनके जेंडर, जाति सम्बन्धी पूर्वग्रहों के विश्लेषण हेतु देखें, चारु गुप्ता, “किचेन हिंदूइज़्म : फ़ूड पॉलिटिक्स एंड हिंदी कुकबुक्स इन कॉलोनियल नॉर्थ इंडिया”, मॉडर्न एशियन स्टडीज़, 58 (2024), पृ. 739-763.
[10] डगलस हेंस, द इमरजेंस ऑफ़ ब्रांड-नेम कैपिटलिज़्म इन लेट कॉलोनियल इंडिया (लंदन : ब्लूम्सबरी, 2022), पृ. 117-122.
[11] हंस, मार्च 1935
[12] हरिजन, 28 दिसम्बर 1934.
[13] हरिजन, 1 फरवरी 1935

 

युवा इतिहासकारों में उल्लेखनीय शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं. जवाहरलाल नेहरू और उनके अवदान पर केंद्रित पुस्तक ‘नेहरू का भारत: राज्य, संस्कृति और राष्ट्र-निर्माण’ (संवाद प्रकाशन, 2024) का सह-सम्पादन किया है. पत्र पत्रिकाओं में हिंदी-अंग्रेजी में लेख आदि प्रकाशित हैं.
ईमेल : kaushikshubhneet@gmail.com

Tags: 2025प्रदूषण एवं स्वास्थ्य का सवालप्रेमचंदशुभनीत कौशिक
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Comments 1

  1. मनोज कुमार गुप्ता says:
    2 months ago

    रोचक और महत्वपूर्ण लेख । प्रेमचंद के लेखन से इन सन्दर्भों को जुटाना और प्रस्तुत करना न सिर्फ उनकी प्रासंगिकता को नया आयाम देता है बल्कि उनकी दृष्टि को गांधी से संपृक्त कर देखना उनके विचारों को विस्तार देता है । यह पर्यावरण और स्वास्थ्य की समस्या पर चिंता के लंबे इतिहास की ओर संकेत है ।
    लेख के लिए साधुवाद ।

    Reply

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