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Home » व्यतीत घरों में : आशुतोष दुबे

व्यतीत घरों में : आशुतोष दुबे

घर, किसी पुराने घर की यादों की ईंटों से बनता है. घर भी हमारे भीतर रहते हैं. अंत से पहले हम अक्सर अपने व्यतीत घरों की ओर लौटते हैं, वहाँ एक बार फिर अपना होना देख लेना चाहते हैं. कवि आशुतोष दुबे का यह संस्मरणात्मक गद्य पाठ-सुख के लिए आपको आमंत्रित करता है. यहाँ घरों के होने, धुंधले पड़ जाने, मिट जाने और फिर से जीवित हो उठने के अनेक प्रसंग हैं. ‘स्त्री का स्पर्श न होने से घर में एक शिकायत-भरी मनहूसियत-सी थी’, जैसी पंक्तियाँ नक्षत्रों की तरह चमकती हैं. यह एक कवि का गद्य है. प्रस्तुत है.

by arun dev
October 13, 2025
in आत्म
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व्यतीत घरों में : आशुतोष दुबे
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व्यतीत घरों में
गली के मोड़ पे सूना सा कोई दरवाज़ा

आशुतोष दुबे

 

घर / एक

टूटे हुए शीशे की खिड़कियों से
झाँकता है कोई

सुनाई देती हैं
बीते हुए मौसमों की
आपस में गुँथी हुईं आवाज़ें

तुम गुज़र जाते हो
इस घर के सामने से
समय की तरह

मन के पाँव में
समय का काँटा गड़ कर टूट जाता है

 

बीते हुए घर एक अवसन्नता में ले जाते हैं.

हमारा बीता हुआ समय हमारे बीते हुए घरों में रहता है. हमारी आवाज़ें, हमारे स्वप्न, हमारी मायूसियाँ, हमारे डर, हमारे ख़ुफ़िया गुनाह, हमारी छोटी बड़ी खुशियाँ, हमारे हमसे भी अनजाने रहस्य सब उन घरों में रह जाते हैं, जिन्हें हमें छोड़ कर नए घर में जाना होता है. घर का पता बदल जाता है लेकिन व्यतीत का ठिकाना नहीं बदलता.

कहते हैं कि घर लौटने की जगह होता है. हम घर से निकलते हैं कि घर में लौट सकें. जो घर बीत जाते हैं, वे भी लौटते हैं- उन घर में रह चुके लोगों के किसी स्वप्न में, किसी याद में, किसी बात में, उनके होने में.

घरों की भी उम्र होती है. उनकी शक्लें भी बदलती हैं. कभी कभी इतनी कि वे पहचान में भी नहीं आते. उनकी घंटी बजाओ तो कोई अजनबी निकलता है. एक प्रश्नचिह्न छपा चेहरा लेकर. आप कौन? आप तो ख़ैर कह ही नहीं सकते कि यह घर आपका है. घर भी नहीं कह पाता कि ये मेरे हैं. मैं इन्हें अच्छी तरह जानता हूँ. ये कभी मेरे आँगन में खेलते थे. इनमें अब भी मेरी ख़ुशबू आती है.

ऐसे भी लोग होते होंगे जो कपड़ों की तरह घर बदलते होंगे. शहर बदल जाते हैं तो ठिकाने भी बदल जाते हैं. ऐसे भी जो घरों को लेकर उतने ही मोहमुक्त रहते हैं, जैसे सराय के कमरे को लेकर. ऐसे भी जिन्हें ख़ुद को भी मुड़ कर देखने की फ़ुरसत नहीं है तो घर को मुड़ कर देखना तो उन्हें और भी बेवक़ूफ़ाना लगता होगा.

मैं अपने बीते हुए घरों को बार बार देखता हूँ. वे बार बार मेरे सपनों में आते हैं.

 

 

घर/ दो

एक उम्र पूरी करके धीरे धीरे
घर में रहने वाले चले जाते हैं घर से

उनका पता बदल जाता है
थोड़ा बहुत वे भी

घर बूढ़े होते रहते हैं
लेकिन उन्हें मृत्यु का वरदान नहीं

वे उन्हीं पुराने घर वालों में रहते हैं
जहाँ सब वैसे ही रहते हैं जैसे थे
जहाँ चीज़ें कम थीं मगर जीवन लबालब था
वहाँ सब जीवित हैं वहाँ सब अपनी अपनी उम्र में रुके हुए हैं

सबको सहेजे वह घर ढह रहा है
जो याद का चीठा किरायेदार है
खाली नहीं करता

 

pinterest से आभार सहित

अक्सर पैदल चलते हुए ऐसे घर नज़र आते हैं जहाँ कोई नहीं रहता. उनकी निर्जनता दूर से दिखाई देती है. सूखे पत्ते और धूल उन पर काबिज हैं. उनके दरवाज़ों पर लटक रहे तालों में बरसों की थकान है. बंद खिड़कियों और दरवाज़ों में भीतर अरसे से कैद है. कभी कभी उनके अहाते में धूल जमी कारें भी खड़ी रहती हैं – मरती हुईं. इनके मालिक कहीं और चले गए हैं. अपनी सारी कमाई लगा कर, शौक से बनवाए गए घरों को छोड़ कर उन्हें किसी परदेस में बसे अपने बच्चों के घर में अतिथि की तरह रहना होता होगा या हो सकता है वे दुनिया से ही चले गए हों.

अभी बच्चों को इसे बेचने की फ़ुरसत नहीं मिली होगी. इस घर के भीतर बंद उनके बचपन की आवाज़ें अभी इतनी ताकतवर नहीं हैं कि उन्हें बुला सकें. कह सकें कि तुम चले गए हो, हमें भी अब जाने दो.

घर रहने के लिए होते हैं लेकिन वे घरवालों को रोक नहीं पाते. अकेले रह जाते हैं. उखड़ती टाइल्स और जंग लगे गेट के साथ , सूखे पत्तों और टूटती बाउंड्री वॉल के साथ. बारिश की मार खाती हुई खिड़कियों और रंग उड़ी दीवारों के साथ: अकेले, बूढ़े और उपेक्षित. अपने इंतज़ार में ढहते हुए, धसकते हुए, जर्जर होते हुए.

घर गिरते हैं तो घर बनते हैं. घर बिकते हैं तो घर बनते हैं. घर अपनी राख में से खड़े हो जाते हैं. नए जन्म में. अगले कुछ सालों तक, जब तक वे पुराने पड़ कर अखरने नहीं लगते. गृहप्रवेश के समारोह होते हैं. घर को छोड़ने के नहीं. एक ताला, जिसकी चाबी किसी और को सौंप कर हम चल देते हैं. एक घर छोड़ कर दूसरे घर में.

ईंट, सीमेंट, रेत, लोहे की बनी संरचनाओं को वह क्या चीज़ है जो घर बनाती है ? वह हँसी, सिसकी, किलकारी, किसी का ज़ोर ज़ोर से ग़ुस्से में बोलना, किसी का गुनगुनाना, चिढ़ना, समझाना, बहलाना, किसी का सफ़ाई देना, छुपना, निकलना और लौटना: निराशाएँ, उम्मीदें, बिखरना, सँभलना, गिरना, खड़े होना : घर हमारे अवचेतन में रिस जाता है. हम घर से निकलने के बाद भी उसकी स्मृतियों के घर में रहते हैं.

घरों के अपने व्यक्तित्व होते हैं. कह लीजिए- वाइब्स. कुछ घर आपके द्वार पर आते ही बाँहें फैला कर गले लगा लेते हैं. कुछ अपनी सजी-धजी अकड़ में ख़ौफ़-सा पैदा करते हैं. उनकी आतंकवादी भव्यता के सामने हम और सिमट जाते हैं. जबान और गले के बीच आवाज़ फँसने लगती है. कुछ घरों में इतना घरेलूपन होता है कि आप उनमें घुल जाते हैं. उनमें जो साधारणपन होता है वह आपसे तपाक से हाथ मिलाता है. आप जब उस घर से निकलते हैं तो वह घर आपके साथ चला आता है. वह घर कविता होता है.

 

 

दोस्त का घर

कोई ड्राइंग रूम जैसी जगह नहीं थी
जिसका ज़िक्र किताबों में हुआ करता था
सोफ़े ज़रुर थे लकड़ी के जिनमें बुनाई थी
और जिन पर से उनके कवर गिर गिर जाते थे

वहीं सब कुछ था
बच्चे थे दादा थे जीजी थीं चचेरे भाई बहन थे
आते जाते मेहमान थे
इंसुलिन लगाने वाले कामचलाऊ डाकसाब थे

कुछ बनने-पकने की ख़ुशबुएँ थीं
वहीं आ जाती थी थाली
दोस्त को वहीं परोस दी जाती थी दाल-बाटी
इतने बड़े परिवार में
लड़की वाले और लड़के वाले वहीं आते थे बात करने
पुरुष सूक्त का स्वर वहीं था
शिवपुराण और कल्याण के विशेषांक वहीं थे

कोई भीतर से बाहर निकलता रहता था
कोई भीतर आकर और भीतर चला जाता था

इतनी चहलपहल थी
कि जैसे पूरा गाँव था
जो शहर के एक बहुत पुराने मोहल्ले में रहता था

दोस्त का घर था
जिसमें अपने घर की सुगन्ध थी

 

 

दादा का घर
नयापुरा, उज्जैन

घर के सामने सड़क थी. एक छोटा सा ओटला जिस पर चढ़ कर एक नीम अंधेरी कोठरी या कमरे में दाख़िल होते थे. उस के सामने वाले दीवार के निचले हिस्से में भगवान का घर था. छोटा सा मन्दिर. उसके पीछे अंधेरे में डूबी सीढ़ियाँ थीं. उनके एक ओर पहली मंज़िल की बैठक थी. नीचे सीमेंट की सड़क पर ताँगे निकलते तो घोड़े की टापें गूँजतीं. दूसरी तरफ़ फिर एक नीम अंधेरा कमरा जिससे होकर रसोईघर में जाते. रसोईघर एक ऊँचा प्लेटफ़ॉर्म था. उसके बाहर आँगन जिसमें अमरूद का पेड़ लगा था. हम कच्चे अमरूद ही तोड़ लेते जिसके लिए बड़े लोग मना करते. कच्चे अमरूद खाना मुश्किल होता. उससे से ऐन लगा हुआ पड़ोसी ललिताशंकरजी का घर. वह भी ऐसा ही रहा होगा. बाहर की दीवार से लगा शौचालय. उसके बाहर एक बड़ा मैदान था. उसके दूसरी तरफ़ किसी मिट्टी के घरों वाली बस्ती का पिछवाड़ा. एक बार बचपन के आँखों से हमने उनमें से किसी घर की छोटी सी रोशनदान नुमा जगह से किसी असंभव चमत्कार की तरह एक कौपीनधारी व्यक्ति को भीतर घुसते हुए देखा था. दूर मस्जिद का गुंबद.

प्रवेश द्वार पर मुख्य सड़क. पहली मंज़िल पर पीछे की ओर मैदान. दोनों सिरों पर रोशनी. बीच में अंधेरे की अलग अलग तासीर और गहराई वाली परतें. यानी घर की दो सतहें थीं. प्रवेश द्वार सड़क पर. पहली मंजिल के पीछे मैदान. मुझे आज तक उसकी विचित्र भौगोलिकता ताज्जुब में डाले रखती है.

उसके ऊपर के कमरे प्रकाश से भरे हुए थे. ख़ास तौर पर सुबह. कोई बाक़ायदा छत नहीं थी. ढलान वाले पतरे पर एक जाली से बाउंड्री बनाई गई थी.

घर ऐसा था जिसमें अंधेरे उजाले का रहस्यमय खेल चलता रहता था. स्त्री का स्पर्श न होने से घर में एक शिकायत भरी मनहूसियत-सी थी. स्टोव के घासलेट और लकड़ी के कोयले और कंडों और सूखे पत्तों की गंध थी. यह गंध एक बूढे आदमी से निकलती थी जो इस घर के फ़र्श को कमरा दर कमरा बुहारता रहता. फिर स्नान करता. पूजा करता. और रसोईघर में दाल चावल राँधता. इसमें उसका और घर का दिन निकल जाता. शाम होते होते अंधेरा सीनाज़ोर होकर घर फ़तह कर लेता. चिमनी या लालटेन के उजास से दीवार पर बनती बिगड़ती छायाएँ अकेलेपन के ख़िलाफ़ अपनी बेनतीजा कोशिशों में लगी रहतीं. बहुत बाद में घर में बिजली आ जाने के बाद बल्ब की ज़र्द, कमज़ोर और उदास रोशनी खटकेदार स्विच की आवाज़ के साथ झरने लगती l

घर में एक बूढ़े आदमी के एकान्त के अनगिनत वर्ष थे. घर उसके तमाम पुरुषार्थ का सत्त्व था. घर उसके जीवन का सत्यापन था.

महानवमी के पूजन थे. विलंबित. प्रदीर्घ हवन. पूजा के विस्तारमय विन्यास में प्रतीक्षारत हम बच्चों की भूख और प्यास. कच्चे अमरूदों को तोड़ने पर पेड़ कसमसा के रह जाता होगा. दो दिन के लिए आए बालकों को क्या डांटना. छोटे दादाजी के देहान्त के बाद के कर्मकाण्ड और धीरे धीरे शोक का उत्सव से बेदख़ल होते जाना. गहमागहमी का एक मध्यान्तर. फिर वही सन्नाटा. वही अंधेरा. वही गंध.

घर भी आदमियों की तरह अकेला रहना सीख लेते हैं. चहलपहल से अचकचा जाते हैं. वे जल्दी से जल्दी अपने अकेलेपन, अपने निर्जनता में लौट जाना चाहते हैं. ख़ाली कमरों की दीवारों की उसाँसों में. शहतीर से फ़र्श पर धीरे धीरे तैरते हुए धूल के कणों में. किसी चूहे, किसी तिलचट्टे , किसी चींटे के चलने की महीनतम सरसर में. संदूक में किसी दीमक के जाग कर अपने नि:शब्द रोज़गार में लग जाने में.

वह ऐसा ही घर था. चुप्पा, अकेला, उदास, खुरदुरा, अनगढ़, दिखने से ज़्यादा छुपता हुआ, अप्रस्तुत, अनिश्चित. अपने अंधेरों में ले जाता हुआ, अपने उजालों में चौंधियाता हुआ. घर, जो घर की थावस से बाहर रह गया था. घर, जिसे किसी का इंतज़ार नहीं था. ऐसे घर जिनमें उम्मीद या नाउम्मीदी दोनों से एक बेरुख़ी सी ताले की तरह लटकी होती है. उसमें कोई सरस सम्मोहन नहीं था. अगर उसमें कोई स्त्री रही होती तो उस घर की भाषा कुछ और होती. उसकी सुगंध अलग तरह की होती. वह अनुपस्थिति का स्थापत्य था. वह जितना था, उससे ज़्यादा हमेशा अपने हो सकने और न होने को व्यक्त करता सा लगता था.

 

 

नाना का घर
मगरमुहा, उज्जैन

उस तिकोने से रास्ते पर जिससे फूलभैरव की गली निकलती है और सारी गली पत्तल-दोनों की गंध से महमहाती है, दाँई तरफ़ यह घर है. घुसते ही एक तखत. उसके सामने एक बैंच. दीवारों पर भगवानों की तस्वीरें. पंचांग. धार्मिक किताबें.

इसके आगे एक आँगन. बीच में सूखा षट्कोणीय हौद, उसके सामने गणेश जी का मंदिर. एक तरफ़ घर के भीतर जाने का रास्ता. दूसरी तरफ़ किरायेदार के घर को जाने वाली सीढ़ियाँ. उस गलियारे के बाँई तरफ़ एक हमेशा बंद रहने वाले भंडार नुमा कोठरी. सीढ़ियाँ जो एक सार्वजनिक कमरे में ले जाती हैं. कमरा जो एक सीढी और एक रसोईघर में खुलता है. दूसरी तरफ़ दूसरा किरायेदार. ऊपर दोनों तरफ़ कमरे. और गर्मियों में सोने के लिए रसोईघर के ऊपर की टीन की छत, बिना मुँडेर के.

यह उपन्यास जैसा घर है. इसके वे निचले नीम अंधेरे, और ऊपर के रोशन कमरे जैसे इसके अध्याय हैं. इसमें प्रसंग आते जाते हैं, किरदार भी. इसकी कथा एक बूढ़े के विस्थापन में विसर्जित होती है, जिसकी उखड़ी हुईं जड़ें यहीं छूट गईं. जिसने अपने भाई के बच्चों की व्यावहारिकता के आगे कभी कुछ नहीं कहा और आज्ञाकारी बुजुर्ग की तरह हमेशा उनके फ़ैसले माने.

यह घर गुलज़ार है. इसमें स्त्रियों की हँसी है. बच्चों की धमाचौकड़ी है. चहलपहल, गहमागहमी है. उत्सव हैं. व्रत हैं. शादियाँ हैं. शादियों के गीत हैं. श्लोक हैं. पूजा है. चतुर्थी के अनुष्ठान हैं. इसमें कल्याण के विशेषांकों की ख़ुशबू है. इसमें गमछे हैं. छोटे बड़े कलश हैं. बादाम,पंजीरी, हलवे, नारियल का प्रसाद है. यह घर निर्मल आनंद है.

इसमें गर्मी की दुपहरी में आराम करते हुए बड़े लोग हैं. वे ऐसा कर सकें इसलिए ऊपर के ख़ाली बड़े कमरे में, जिसमें अनाज की कोठियाँ रखी हैं, कोंड दिए गए बच्चे हैं. धीमी आवाज़ में बजता रेडियो है. बड़ों में होतीं दुनिया जहान की बातें हैं.

सुबह सुबह पीतल की बड़ी भगोनी में खौलने वाली चाय है. तपते टीन के नीचे खाना बनाती गर्दन से पसीना पोंछती मौसी है. कभी-कभार के सिनेमा और पिकनिक है. उनकी ढेरों बातें हैं. मौसेरे भाइयों के खिलौने हैं, कपड़े हैं, क़िस्से हैं.

और वहाँ आने जाने वाले लोग हैं. पारिवारिक मित्र. रिश्तेदार. सगे-मुंहबोले संबंधी. किरायेदार सगों से बढ़ कर. हम जितने अपने नाना के मेहमान उससे बढ़कर किरायेदार के. वे हम बच्चों को शाम को घुमाने रानी ख़ाँ के बाग में ले जा रहे हैं. वहाँ गाना सुना रहे हैं :

वृंदावन का कृष्ण कन्हैया
सबकी आँखों का तारा
मन ही मन क्यों जले राधिका
मोहन तो है सबका प्यारा

एक अलग ही दुनिया. अलग ही लोग. अलग ही मौसम. अलग ही सुगंध.

घर,रहने वालों की ऊष्मा और ऊर्जा से आविष्ट होते हैं. इस ऊष्मा और ऊर्जा के संतुलन में परिवार में जुड़ने वाले हर सदस्य का अपना निवेश और हस्तक्षेप होता है. कोई कैलाइडोस्कोप को हल्के से घुमा भर देता है और काँच की पट्टियों के भीतर चूड़ियों के टुकड़े एक नए विन्यास में दिखाई देने लगते हैं. आँख का भ्रम : पहले वाला भी और बदला हुआ भी.

हर मौसम बदलता है. लोग भी. दुनिया भी. बहुत सुंदर सपने भी पत्तों की तरह पीले पड़ कर गिर कर सूख जाते हैं और काल के चमरौधे के नीचे उनके कुचले जाने, टूटने की आवाज़ आती है.

धीरे धीरे लोग उसमें से निकल कर दूसरे घरों में रहने चले गए. जो रह गए वे भी वैसे नहीं रह पाए, जैसे वे सबके साथ थे. कहीं कोई नए ढंग का घर ख़रीदा गया जिसकी आबोहवा बिल्कुल अलग थी. यह घर बूढ़ा होता गया. एक दिन इसका सौदा हो गया. अजनबी लोगों ने इसे अपने ढंग से नया किया. पता नहीं उस नएपन में यह कितना बचा.

कोई हाथ है जो जादुई स्लेट पर बने घरों को, घरों में रहने वालों को और उनमें सांस लेते समय को पोंछता जाता है. हम बस देखते रहते हैं; अभी अभी तो था, कहाँ गया? कहाँ गए वो सब लोग? कहाँ गया वह समय ?

 

 

गणेश भवन

सब कुछ बदल देने के बावजूद
उसने अब तक नाम वही रहने दिया है गणेश भवन का
और इसके लिए मैं इसके नए मालिक का शुक्रगुज़ार हूँ

ये घर था मेरे नाना का
जो अब नहीं हैं और ये घर भी नहीं है उनका
फिर भी मैं हिमाक़त कर बजा देता हूँ
घर की घंटी जो तब एक सांकल हुआ करती थी
और अलग तरह से बजती थी

दरवाज़ा मेरे नाना खोलते हैं
जैसे इंतज़ार ही कर रहे थे मेरा
वही गंध भर जाती है आस-पास
जो पुरानी क़िताबों और बिस्तर
और देवी-देवताओं की फ्रेम में मढी तस्वीरों से आती है

चौक के उस तरफ गणेश की प्रतिमा मंदिर में नहीं है
पूछने पर नाना बताते हैं
उसे कहीं रख दिया है किसी चौराहे पर
फिर अब किसकी पूजा करते हैं आप देर-दोपहर तक
इस पर वे ज़रा मुस्कुराते हैं
दुपट्टे की कोर से निकालते हैं जैसे
आँख में पड़ा कुछ

फिर वे लेट जाते हैं तखत पर
जैसे थक गए हों
और देखते-न-देखते घुल जाते हैं समय में

नए मकान-मालिक पूछते हैं- आप चाय लेंगे या ठंडा चलेगा
उनसे इजाज़त लेकर बाहर निकलता हूँ
मेरे पीछे दरवाज़ा बन्द हो जाता है गणेश भवन का

पर नाना बाहर तक आते हैं मुझे छोड़ने के लिए
कुछ क़दम आगे चलने के बाद
मुड़ कर देखना चाहता हूँ पर नहीं मुड़ता

मेरी पीठ देख रही है
एक अस्त होती हुई मुस्कान
दुपट्टे में सोख लिया गया आँख का ज़रा सा पानी

 

pinterest से आभार सहित

घर / तीन
29/1 छीपाबाखल, इन्दौर

पता नहीं, इस मुहल्ले का नाम छीपाबाखल क्यों पड़ा. छीपे तो एकाध ही थे. इसी में वह बाड़ा था. उसी में दो कमरों का घर था. इसी में जन्म से लगा कर पहली नौकरी लगने तक रहे. जीवन के पहले बाईस साल.

दो कमरों का कच्चा घर था. धूल का साम्राज्य था. बारिश में बाड़े में कीचड़. आँख खोलने पर यही घर देखा. आज भी आँखें बन्द करने पर यही दिखता है. इसी में जो, जैसे बन सके, बने.

सामने एक सरकारी स्कूल था. शाम को हम दीवार के उस तरफ़ उसके मैदान में कूद जाते. वही हमारे खेल का मैदान था. उसमें एक बड़ा घनेरा इमली का पेड़ था. रात को उस पर कहानियों के भूतों का बसेरा होता. दिन में बच्चों का.

यहाँ सामुदायिक जीवन था. निजता एक बेगानी चीज़ थी. सब, सबको, सबके बारे में लगभग सब कुछ जानते थे. एक कोलाहल, एक शोर, तरह तरह की आवाज़ें. फेरी वाले, दूध वाले, कोयले वाले, सब्जी वाले, ; हींग बेचने साल में एक बार आने वाले अफ़ग़ानी, वेणी- गजरे बेचने वाले, किसी बच्चे के जन्म पर प्रगट होने वाले किन्नर, तरह तरह के भेस बना कर आने वाले भिखारी, बंदर, भालू और सांप के साथ आने वाले मदारी, कलई करने वाले : यह बस्ती एक विशाल रंगमंच थी. यहाँ हर समय जीवन में स्पंदन था. हलचल थी. घटनाएँ और किस्से थे.

यहाँ सब थे : माली, कुम्हार, दर्जी, तेली, सुतार, नाई, दूध वाले, सराफ़ा में मिठाई की दुकान लगाने वाले, ठेले पर सामान बेचने वाले, शादी ब्याह में रसोई बनाने वाले हलवाई , उनके साथ पूड़ियाँ बेलने, सब्जियां काटने छीलने की मजदूरी करने वाली स्त्रियाँ, आटो रिक्शा चलाने वाले, मास्टर, कंपाउण्डर, नर्स, इलेक्ट्रिशियन, पनवाड़ी, हम्माल, नगरनिगम के सफ़ाई दारोगा, मिल में नौकरी करने वाले, चौकीदार, पापुलर नाम का यथा नाम तथा गुण एक कुत्ता- जिसका असली प्यार कोयला बेचने आने वाले काले से आदमी के साथ था, बेरोजगार आवारा लड़के, ब्याह का इंतज़ार करती हुई अगरबत्ती या पापड़ जैसे कुटीर उद्योगों में ‘वर्क फ्रॉम होम’ करती लड़कियाँ जो मनबहलाव के लिए कुछ टाइमपास मोहब्बत भी कर लेती थीं; जिनकी बदनामी का उनकी शादियों पर कोई असर नहीं होता था.

और धूल थी. छतों में दौड़ते चूहे थे. बिल्लियाँ और आवारा कुत्ते थे जो पालतू हो जाते थे. बारिश में घर के किसी भी रहस्यमय छेद से निकलने वाले पंखों वाले कीड़े थे जो रोशनी के आशिक़ होते थे. पेड़ों से बदन पर गिर जाने वाले लाल बड़े चींटे थे. कभी- कभार आ जाने वाले बंदर थे. इन सबकी सोहबत में सब लोग थे.

पीपल था जिसकी जड़ में शिवजी का मंदिर था. नीम था जिसमें झूला डलता था. बड़ा झूला. यहाँ से वहाँ तक की पींगें. और शादियां थीं. उनके गीत. उनके नाच. माचे पर बैठे दूल्हे के सामने ढोल और थाली की ताल पर नाचती हुईं रंगबिरंगा लुगड़ा पहने मारवाड़ की औरतें. एक अलग ताल पर गति और त्वरा की जुगलबंदी दिखाते हुए आदमी.

और पूर्णिमा की रात के सामूहिक भजन. बीच में एक थाली में गुड़ और सबमें घूमती हुई चिलम. और स्वरों का समवेत. हरताली तीज के जागरण. चौपड़ के खेल. अपार फुरसत में पोल के सामने बैठे हुए चौपड़ खेलते हुए आदमी. धूप का पीछा करतीं, दुख-सुख बतियातीं, भाजी तोड़तीं, गेहूँ बीनतीं, घट्टी पीसतीं औरतें.

मृत्यु भी एक उत्सव ही थी. शोक के हाहाकार के बाद थिरता हुआ जीवन. नए सिरे से जागती चहलपहल. बड़ी से बड़ी त्रासदियों का मनुष्य की अदम्यता के सामने निस्तेज हो जाना वहीं देखा. मजदूर स्त्रियों के काम पर जाने के बाद उनके बच्चों को सँभालता हुआ आसपास.

एक दूसरे के यहाँ आते जाते मेहमान थे और उनसे उनके मेजबानों के पड़ोसियों के घरोपे.

आपसी प्यार, सहयोग और झगड़े. बोल-कुबोल. फिर उनका पता नहीं कब बिसर जाना.

ये सारा कोलाहल एक बड़े विवर में समा जाना था. बरसों बाद, जब उस घर को ढहा दिया गया, चौंक कर देखा था : इतनी हलचलों से भरे ऐसे घोर सामुदायिक जीवन का इतना संक्षिप्त मलबा ! इनमें कौन सी ईंटें किसके घर की हैं? दरवाज़े? खिड़कियाँ ? पेड़ ? उन पर बसेरा करने वाले पंछी और चींटे ? उनमें से छनकर आती हुई धूप ? ज़मीन पर पड़ते धूप और छाँह के रेशों से बने वे चकत्ते ?

एक पूरी दुनिया लापता हो गई जिसके ग़ायब होने की रपट कहीं दर्ज नहीं होगी.

 

एक समय बहुत से घर थे मेरे

एक समय बहुत से घर थे मेरे
हर जगह पीढ़ा था हर जगह बिछौना
कहीं भी खा लेता कहीं भी सो जाता
घट्टी पीसती औरतों की बातचीत के बीच
किसी की गोद में सिर रखे-रखे ऊँघ जाता
माँ भेजती बहन को मुझे ढूँढने के लिए
जो मुझे जगाए बगैर उठा कर ले
वे तमाम औरतें जो जाड़े में धूप ढूँढती रहतीं
जिसमें बैठ उन्हें भाजी तोड़नी होती थी
वे जो आपस में लड़तीं एक-दूजे के लिए अशुभ उचारतीं
और एक-दूसरे के दुख में रोती थीं
जो गाय और कुत्ते के लिए रोटी निकालती थीं
और नहा कर शंकर जी पर जल चढ़ाती थीं
औरतें जो बेझिझक एक कटोरी शक्कर एक-दूसरे से माँग लेती थीं
जो मिल बन्द हो जाने से बेकार हो गए
अपने पतियों को समेट कर आदमी बनाए रखती थीं
जिनके पल्लू में गुड़ीमुड़ी छोटे नोट और खुल्ले पैसे बँधे होते थे
जो सब्जी वाले की नाक में दम कर देती थीं
जो पढी-लिखी नहीं थीं मगर जिन्हें कोई ठग नहीं सकता था
जो अपनी सीधे पल्ले की साड़ी का आँचल सिर से खिसकने नहीं देती थीं
और जाड़े में उसी से नाक-मुँह ढँक लेने की जुगत करती थीं
जो मजदूरी करने जाती थीं
जो घर पर ही पापड़-अगरबत्ती बना कर अपना श्रम बेचती थीं
जो लीलावती और कलावती के सुख-दुख में डूबती-उतराती थीं
जिनको राजनीति के बारे में सिवा इसके कुछ पता नहीं था
कि देश में इन्द्रा गांधी का राज है
जो संतोषी माता का व्रत रखतीं थीं
खटाई से डरतीं और उद्यापन में चने की सब्जी बनाती थीं
जो शादियों में लम्बा घूँघट करके नाचतीं तो ढोली को थका देती थीं
जिनके पास अनंत कथाएँ थीं गीत थे और उतने ही दुख
लेकिन जिन्हें कभी पस्त देखा नहीं गया

नींद टूट गई है और जागने पर दिखता है
अब कहीं और जागा हूँ

वे घर अब कहीं नहीं हैं जिनमें पनाह थी
वे औरतें समय में घुल गई हैं
जो किसी शौर्य चक्र के बगैर भी जूझती रहीं लगातार
घट्टी के पाटों की रगड़ से रचती रहीं अपना जीवन संगीत

जिसे उनकी बातों के साथ सुनते सुनते
उन्हीं में से किसी की गोद में
न जाने कब आँख लगती रही उस छोटे से लड़के की

 

 

रात के घर में रहने वाले

कुछ घर ऐसे होते हैं, जिनमें हमेशा रात रहती है. जब
सारा आसपास दिन के उजाले में चमकने लगता है,
तब भी एक विवर्ण, कृशकाय रात उन घरों के कोनों में
अपने घुटनों में सिर गड़ाए बैठी रहती है.

ऐसे घरों में रहने वाले लोग रात के रंग के होते हैं.
उनके बच्चे तिलचट्टों से खेलते हैं. झिंगुर की आवाज़
उन्हें अपने दिल की धड़कन की तरह लगती है. रात
को और रात में देखने की अभ्यस्त होने की वजह से
उनकी आँखें अलग से चमकती हैं. रंग और आँखों की
वजह से लोग उन्हें अलग से पहचान लेते हैं.

रात के घर में रहने वाले अपनी धूसर उँगलियों से चाँद को
टटोलते हैं. तारों को उलट-पुलट कर देखते हैं. उनकी
खुरदुरी छुअन से चाँद सिमटता जाता है. तारे सिहरते रहते हैं.

 

रात के घर में रहने वाले रात की गोद में सिर रखकर सोना सीख लेते हैं. उन्हें थपकियाँ देते हुए रात चुपचाप सूरज के पीछे चलती रहती है. रात की गोद में सोने वाले सपने में रोशनी की एक लकीर देखते हैं जो उनके हाथ बढ़ाते ही उसकी ज़द से दूर चली जाती है.

उनकी नींद खुल जाती है, जैसे सपना कोई चाबी हो.

 

pinterest से आभार सहित

अ समाप्त

बारिश में सब तरफ कीचड़ थाल कीचड़ खेल थाल मज़ा और डर खेल में हाथ पकड़ कर दौड़ते थे. सार्वजनिक उद्यानों में पुराने समलैंगिक, छोकरों को अपने साथ सिनेमा देखने के लिए फुसलाते थे. बीचोबीच की सड़क पर चलते चले जाओ तो शहर ख़त्म हो जाता था. स्कूलों की इमारतें बच्चों को धीरे-धीरे कुतरती रहती रहती थीं. पोस्टर को आँखों से निचोड़ कर पूरा सिनेमा खींचा जा सकता था. जबान पर गाने भिनकते थे.

औरतें दुःख की उस धातु से बनी थीं जिसके बारे में विज्ञान चुप है. आदमियों की तामीर में कोई नामालूम बुरादा था जो शाम होते ही बिखरने लगता था. बच्चे सब कन्हैया बनना चाहते थे पर शहर में कोई यमुना नहीं थी और कदम्ब के पेड़ तो बहुत बाद में दिखाई पड़े.

सारे चिट्ठे कच्चे थे जिनके पुर्जे हवा में उड़ते थे. कथाओं की नायिकाएँ उपन्यासों के से भरेपूरेपन के साथ लौटती थीं और वापसी पर सबके गले लग कर रोती थीं.

सुख से सब आदतन सहमते थे. ठंडा करके खाने की फ़िक्र में सुख उड़ जाता था. दरवाज़ों में दरारें थीं. शोक एक प्रस्तुति था. खपरैल पर बिल्लियाँ लड़ती थीं. अपने बड़े से बड़े पाप लोग दिलचस्प किस्सों की तरह सुनाते थे. देवी के रतजगों में दीमक लगी थी.

यह सब इस तरह था कि असमाप्त है.

 

 

प्राचार्य आवास
मल्हाराश्रम

सपने के कैनवास पर घर की तस्वीर जैसा घर था. अंग्रेजों की वास्तुकला के इस सुविस्तृत नमूने में अनेक छोटे बड़े कमरे थे. एक आतिशदान वाला कमरा भी था. उसके ऊपर हमने रेडियो रखा था. हॉल जैसी डॉरमेट्री. घुमावदार कास्ट आइरन की सीढ़ियाँ जिन पर नीला पेंट था. छोटे बड़े – कुछ लम्बे और कुछ आयताकार कमरे. अपने को ढूँढने के, अपने से मिलने के, अपने को बहलाने के दिन. हल्की, पुलक भरी, पोर पोर खोलने वाली हवा. धूप के रंग. बादलों के रूपाकार. आसपास खेत. निजता से पहली मुलाक़ात. खूब बड़ा परिसर. घर के सामने दो बड़े लॉन. उनके बीच से घर में आता हुआ रास्ता. बगीचों में अनेक पेड़, क्यारियाँ, बैंचेज़. खूब एकान्त. ऊपर छत का एक छोटा, मनोरम टुकड़ा. उस पर हवा के पंखों पर सवार दूर और पास होती हुईं गानों की आवाज़ें.

छत पर अपना घूम घूम कर बग़ैर समझे कोर्स के अध्याय याद करना याद आता है. छतें मुझे हमेशा से बहुत अच्छी लगती हैं. एक बार मैंने यह बात किसी को कही थी. उसने कहा था- तुम्हारे यहाँ खुली छत नहीं रही होगी. यह सच था. हम तो कवेलू वाली छत के नीचे रहते आए थे. आसमान का खुलापन, धूप के रंग, हवा की सरसराहट, सूरज का उगना,डूबना और आकाश का रंग बदलना, उमड़ते हुए मेघ, गर्मियों में रात को खुले आसमान के नीचे सोना और सर्दियों में धूप की गुनगुनी ऊष्मा में बैठना: ये सब हमारे रोज़मर्रा के अनुभव के बाहर रहा आया था. इस वाली छत की गुलमोहर के एक पेड़ से दोस्ती थी और मेरी इन दोनों से. वह पेड़ छत पर अपनी एक लम्बी बाँह फैलाए हुए था. जैसे हम दोस्त के कंधे पर हाथ रख देते हैं. गुलमोहर के लाल फूल और पत्तियाँ छत पर गिरते रहते थे. वहाँ पलंग लगा कर तारों भरे आसमान के नीचे बतियाते हुए सोना याद है. टूटते हुए, छुपते हुए, अपनी रोशनी अचानक कम या ज़्यादा कर लेने वाले तारे. और वे स्थिर से सरल रेखा में तीन तारे. वे हर जगह दिख जाते हैं. नाना जी और दादाजी की भी स्मृतियाँ उस छत से जुड़ी हैं. उस समय उनमें से कोई ख़ुद तारा नहीं बना था. उसी छत से हमने पूर्ण सूर्यग्रहण को फ़ोटो नेगेटिव में से देखा था. सूरज का अँगूठी के हीरे जैसा बन जाना.

उन्हीं दिनों कैसेट वाले टेप रिकॉर्डर आए थे. गुलाम अली की ग़ज़लों से महकते हुए दिन. चुपके चुपके रात दिन, हंगामा है क्यों बरपा. जगजीत सिंह के शुरुआती एलबम. रेडियो पर अमित कुमार का स्वर- याद आ रही है, तेरी याद आ रही है. बाहर बोगनवेलिया के लाल सफ़ेद काग़ज़ी से सुंदर लेकिन निर्गंध फूल. लाल और पीले फूलों वाले गुलमोहर के पेड़. ऊँचे पाम , एक घना सुन्दर सा नीम, कुछ नीलगिरि के पेड़. नर्म गीली घास का स्पर्श. क्यारियों में पानी देना. फूलों पर मंडराते भँवरे. हवा में एक मंद मदिरता. लॉन में सीमेंट की बैंचे. बीच में बजरी वाला रास्ता जो गेट तक जाता था.

सुख था तो इसे अल्पायु होना ही था. पलक झपकने जितना. इसके पार्श्व में शहनाइयों के सुर थे. इसके लॉन में बड़े भाई और बहन के विवाह थे. इसमें बहुत से लोगों के आने जाने, मिलने जुलने, बतियाने की चहल पहल थी. इसमें मैंने न जाने कितने उपन्यास पढ़े. देवी अहिल्या लाइब्रेरी को खंगाल सा डाला. भारतीय भाषाओं के एन बी टी से छपे हिन्दी अनुवाद भी पढ़ डाले. यहीं लिखने की बिल्कुल शुरुआती चीज़ें आईं जिन्होंने अपने भीतर की अजानी दुनिया से मिलवाया. यहीं सिनेमा देखने की आज़ादी मिली या हमें बड़ा होता समझ कर दे दी गई, जिसने इस अल्पवय वसन्त को और नशीला बना दिया. इसके गर्मी,सर्दी,बरसात: उनमें वनस्पतियों, पेड़ पौधों,घास के रंग. यह सब और मधुर होता अगर हायर सेकेंडरी में गणित जैसे दुश्मन विषय का इस सुखद समय पर ग्रहण ना लगा होता. कॉलेज के पहले पहले कुछ सहमे हुए, कुछ खुलते हुए से दिन. नए दोस्त. इसमें मनाई गई वह अविस्मरणीय शरद पूर्णिमा. वह खेलकूद, वह चढ़ता हुआ शरद पूनम का चाँद, खीर और उस सारे अनुभव की वह अनिर्वच पुलक.

यह पर्व समाप्त हो जाने के बाद इसे देखने जाता रहा हूँ. सरकारी घरों से मोहमाया की व्यर्थता जान कर भी. एक सुन्दर, भले ही संक्षिप्त समय की स्मृति के उत्सव में.

इसे देखने पर सन्नाटा सा उतरने लगता है. वीरानी भी संक्रामक होती है. अब यह लगभग ढह चुका है. जैसे अपना ही स्मारक प्रेत हो. निर्जन. खंडहर. वीरान. बगीचे उजड़े और सूखे हुए. अब वे पेड़ भी नहीं. कहाँ गए वे पाम , वे गुलमोहर, छोटे बड़े अनेक पेड़ पौधे. बाहर से ही भीतर का पता मिल जाता है. वह भीतर, जिसमें हमने एक छोटा, सुखद,स्मरणीय समय बिताया. इसके बाहर गोलाकार झाड़ी से घिरा हुआ एक बादाम का पेड़ था. हम उसकी कच्ची बादाम तोड़ते थे. वह एकदम लापता है. इस क़द लापता कि जैसे कभी था ही नहीं. उसकी गुमशुदगी के लिए कहाँ इश्तहार दिया जा सकता है ?

लेकिन कोई दीर्घायु नीम तो होगा उस समय का भी. वनस्पतियों की स्मृति भी होती है क्या? उसे याद होंगे हम? हमारे बाद के लोग ? उनके बाद की आती हुई निर्जनता. रहवास की छीजती हुई ऊष्मा, संभाल और देखभाल से बेदख़ली. एक घर का धीरे धीरे कोमा में जाना. धीरे धीरे मरते रहना. खिरते रहना. अपने प्रेत की तरह होते रहना.

वे घर फिर भी ख़ुशक़िस्मत होते हैं जिनकी जगह दूसरे घर खड़े हो जाते हैं. पुराने घरों का कोई बीज उनकी नींव में कहीं रह जाता होगा. लेकिन सरकारी घर ढहाए नहीं जाते. खंडहर किए जाते हैं और छोड़ दिए जाते हैं. उन्हें नया निजाम, नए लोग और नया वक्त इतना मार देते हैं कि इससे ज़्यादा वे उनका कुछ और नहीं कर पाते.

अनिद्रा का सबसे बड़ा रोगी समय है. करवटें बदलता रहता है. हर नयी करवट के साथ पात्र ही नहीं, मंच भी बदल जाता है. दर्शक भी. नए दर्शकों से पुराने दृश्यों का कोई सम्बन्ध नहीं रहता, लेकिन करवटें जारी रहती हैं और हर नया पुराना होता रहता है. अपने हिस्से की साँसें लेकर लोग भी चले जाते हैं और घर भी.

याद भी उतनी ही बचती है जितने याद करने वाले बचते हैं. उसके बाद कुछ नहीं.

__________________________

आशुतोष दुबे का जन्म 23 सितम्बर 1963 को इंदौर, मध्य प्रदेश में हुआ. उन्होंने पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है तथा अंग्रेज़ी साहित्य में पी-एच. डी. की है. वे अंग्रेज़ी का अध्यापन करते हैं. उनके प्रकाशित कविता-संग्रह हैं— ‘चोर दरवाज़े से’, ‘असम्भव सारांश’, ‘यक़ीन की आयतें’, ‘विदा लेना बाक़ी रहे’ ‘सिर्फ वसंत नहीं’ और ‘संयोगवश’. उनकी कुछ कविताएँ प्रमुख चयनित संकलनों में भी सम्मिलित हैं, तथा उनके अनुवाद भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेज़ी और जर्मन में भी हुए हैं. अनुवाद और आलोचना में भी उनकी गहरी रुचि है. उन्हें ‘रज़ा पुरस्कार’, ‘केदार सम्मान’, ‘अखिल भारतीय माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ और ‘स्पंदन कृति सम्मान’ से सम्मानित किया गया है.
ई-मेल: ashudubey63@gmail. com

Tags: 2025आशुतोष दुबेघरव्यतीत घरों मेंस्मृति
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Comments 2

  1. रामप्रसाद says:
    6 hours ago

    अशोक वाजपेई ने कभी-कभार स्तम्भ में एक बार लिखा था कि,’हम एक शहर से दूसरे शहर में जाते हैं तो पिछला शहर भी हमारे साथ-साथ रहता है।ठीक वैसे ही घर भी।’
    शानदार

    Reply
  2. M P Haridev says:
    5 hours ago

    आशुतोष दुबे सर का लेख पढ़ लिया । व्यापक है । मुझ सहित कइयों को अपनी कहानी लगेगी । समालोचन का हर अंक संग्रहणीय । हर हाथ की सीमा होती है ।
    “उन दरवाज़ों पर लगे तालों की उदासी पसरी थी ।” मकान मालिक बदल जाते हैं लेकिन मकान वही रहता है । “एक पूरी दुनिया ग़ायब हो गई थी जिसकी रपट दर्ज नहीं होगी । जहाँ कभी साँकल थी वहाँ डोर बेल लगी है । कुछ ऐसा भी कि ‘यादों के पत्ते गिर कर पीले पड़ गए हैं । हम सभी का यही हश्र होगा । आभार सहित लिए घरों के फोटो सुंदर हैं ।
    कुछ वर्षों तक कल्याण सब्सक्राइब किया था । दुबे जी की कथा में अतिशयोक्ति नहीं है । जिन व्यक्तियों को करि’अर के ऊँचे मकाम पर पहुँचना होता है उन्हें गुणसूत्रों में मिलते हैं । पत्रकारिता और संचार की डिग्री हासिल करने के बाद यात्रा आगे बढ़ी । अंग्रेज़ी साहित्य में पीएचडी की । पढ़ाते हैं । पढ़ाने के वास्ते पढ़ना पड़ता है । मगर प्रोफ़ेसर आशुतोष जी की साहित्य पढ़ने की इच्छा नहीं रुकी ।
    लेख पढ़ाने का आभार ।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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