| हम जो कहीं की नहीं और कोई नहीं
अनामिका |
हम जो कहीं की नहीं और कोई नहीं
(नयनतारा देवी की स्मृतियों को समर्पित)अनामिका
साझा स्मृतियों की गोद में पली
अब तो हम तीन बहनें हैं, प्रीति चौधरी
चेखव के नाटक की वे तीन बहनें
जिन्होंने
मास्को नहीं देखा था पर उसके बारे में सब जानती थीं,
जैसे कि हम जानते हैं माँ के बारे में
राई-रत्ती, पत्ती-पत्ती, बूटा-बूटा, सब
जानते हैं अपनी मांओं के ही तो बहाने
गांधी युग की सारी उन औरतों को
जिनसे सीखी थी’ सविनय अवज्ञा’ की तकनीक गांधी ने.
वे रोती- धोती नहीं थीं,
बस ठानती थीं और धीरे से हँस देती थीं.
‘यह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
देती थी सबको दाँव, बंधु’!
इनको समझा था निराला ने,
‘जुही की कली’ होंगी आरम्भ में ये भी,
पर धीरे-धीरे ये सीख गईं
तोड़ने हैं कैसे सधे हुए धीरज से
सब पत्थर, फिर तराशना है उन्हें.
पाटनी है उनसे एक सड़क
जो उनकी बेटियों को कहीं ले जाए,
उन्हें नहीं ठोकर लगे
और लगे भी तो वे अपनी माँओं की बेटियाँ
रुकें नहीं, हँसकर कहें अपने ज़ख़्मों से
जो कहता था उनसे रेडियो विज्ञापन
बाद के वर्षों में
‘आयोडेक्स मलिए, काम पे चलिए’.
इस चलने के भी कुछ ख़ास नियम थे
और तयशुदा रोडमैप्स.
सुन तो यही रखा था
जिस गांव नहीं जाना,
उसका पता
क्या पूछना
पर हम ऐसी सिरफिरी निकलीं,
हम मतलब सब बहनें
कि हमने भर दी अपनी डायरी
ऐसे ही सारे पतों से
जहाँ अब पहुँचना असंभव था
जैसे कि तिब्बत की उन कन्दराओं में
राहुल सांकृत्यायन लाए थे जहाँ से
खच्चरों पर लादकर दुर्लभ बौद्ध ग्रंथ!
या फिर उन द्वीपों में
सिन्दबाद जहाँ फँस गया था,
रिप वैन विंकल के गाँव का पता हमें
कंठस्थ है अब तक.
हमने गूगल मैप पर डालकर भी देखा था
गज़ापट्टी का पता और यूक्रेन का.
हम तुम्हारे दिल का भी जानती हैं
ख़ुफ़िया रास्ते, पुरुष मित्रों,
पर अभी हम यहीं ठीक हैं
दिल के बाहर,
साथ ही सड़क पर
यानी कि कहीं नहीं,
बस ट्रांजिट में.
घर की, न घाट की,
रहती हैं गुज़रे समय की बस पीठ ताकती,
साधती हुई अपनी भाषा में
तकनीक सविनय अवज्ञा की
क्योंकि अवज्ञा के लायक़
बहुत कुछ बचा है अभी
और हमें अतिरेकी होना नहीं है
अतिरेक की प्रतिक्रिया में भी.
लगातार ही सोचती रहती है माँ के ही बारे में हम
कि क्या करें, क्या करें कि हम उन-जैसे हो जाएँ-भरे नहीं क़ब्ज़े का जज़्बा कभी,
सबके स्वतंत्र फूलने- फलने का बस इंतज़ाम कर दें, फिर एक ओर हो लें
‘बिधि के बनाए जीव ज़ेते हैं जहाँ के तहाँ
खेलत-फिरत, उन्हें खेलत-फिरत देव’
सुन तो यही रखा था उन्होंने भी
ज़िन्दगी एक पाठशाला है,
हर चेहरा है किताब,
पर ठीक से पढ़ने का उनको
मौक़ा ही नहीं मिला.
जो भी गुज़रे उनकी
टूटती हुई साँसों की तंग गलियों से,
कुछ देर ही नीम के नीचे सुस्ताये और बढ़ गए आगे.
बार-बार लौटे बस
हाँ और ना
दो सनातन यात्री
जैसे कि ह्वेनसांग और फ़ाहियान
वे बुद्ध की तरह लौटे दबे पाँव
पूछा कि, ‘जाना है शायद के गाँव?
एक पहाड़ी गाँव है शायद.
बहुत दूर है वह ऊँचाई पर.
धुंध वहाँ गहरी है
धुंध की गोद में छुपी रहना.
तुम-जैसे लोगों का सही ठिकाना है वही
जो कि किसी के भी कोई नहीं, कोई नहीं.
कोई नहीं होना भी अभ्यास है, तप है
कहते थे महर्षि रमण यह इशारे से
करते हुए यह सवाल-
‘कौन हो तुम, सोचकर कहना,
और सोचना जब तक
उतर नहीं जाएँ सब लबादे
और बचे केवल वह
कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं’.
कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं
जैसे हम कोई नहीं,
अपनी माँ कोई नहीं,
माँ की माँ कोई नहीं .
होना बस एहसास है, सिलसिला है,
एक मशाल-यात्रा है ताकीदों की
‘ये करना, ये तुम नहीं करना, बेटी.’
मरने के दिन तक हमारी माँ हमको समझाती रही-
‘कोई नहीं’ वाली निरपेक्षता से ही-
सब कुछ समझाया और अंत में ये भी-
कैसे करनी है हमें उसकी
अंतिम विदा की तैयारी-
क्या-क्या जुटाना है,
कितना चावल, कितनी रोली,
छतरी, बिस्तर और चटाई,
बड़े का उड़द और मिठाई,
श्राद्ध की बुंदिया में बेसन कितना,
कितनी चीनी और
कितना हौसला,
कोहड़े की सब्ज़ी में
रंग-राग कितना,
कै चुटकी शाइस्तगी,
साड़ी-चंदन-एक बड़ी-सी मुसहरी
और एक रंगीन चदरी
जो ओट देगी
जब देह की चूनर उतरेगी,
हल्दी चढ़ेगी.
और किसको क्या दिया जाएगा,
इसका हिसाब है कहीं उपनिषद में
दत्त, दयाध्वाम, दम्यते
एक नहीं है मुक्ति का रास्ता सभी के लिए
दान और दया और निग्रह-
एक परात में सजा देना सारे विकल्प
अपने हिस्से का उठा लेंगे सब प्राणी,
तुम एक शब्द उठा लेना
चिड़िया के बच्चे-सा
जगह-जगह वह घायल मिलेगा तुम्हें,
मर्म के घोंसले से गिरकर घुटता हुआ
संसद में, संधि-वार्ताओं में, टीवी पर,
अखबार में और गपशप में.
कोई उसे देखता नहीं गौर से-
सुर्खाब के पर लगे शब्द में,
शब्द ही सुर्खाब है.
वह जो बदलता है
थोड़ा-सा तुमको भी,
थोड़ा-सा मुझको भी
एक उम्र की लंबी चुप्पी के बाद,
वही शब्द है.
शब्द: एक परिघटना!
सृष्टि की सुगंध!
बाक़ी तो कुछ भी नहीं अपना
हम लोगन का
जो कि हैं कोई नहीं, कोई नहीं, कुछ भी नहीं.
दौड़ती ही रह गईं
जो कि बाबा की घोड़ी के पीछे-
एक ही निहोरा लिए,
‘ए बाबा, हम हूँ पढ़ब’
तुम्हें उन्हीं मांओं का वास्ता
शब्द का मर्म तुम समझना, अँकवारना उन्हें
फिर उड़ा देना अर्थ के अनंत में कहीं
सब अनर्थों के पार.’

हम दे रही हैं समिधा
प्रीति चौधरी
अश्रु की बूँद पहले पाठ पर
दूसरे पाठ पर धार
कहाँ हो बांधवी
चूम लूँ हस्त तुम्हारे
पहुँचा ही कौन उस मर्म तक
जहाँ पहुँची हो तुम
धरती के गर्भ से निकले
गीली मिट्टी में औंधे पड़े शब्दों को उठा दिया तुमने
भाप और धुंध के पीछे से आते आलाप को
सुन सकी तुम
सदियों से स्त्रियों के शब्दों, क्रंदन, आर्तनादों को ढंक
बढ़ते ही जा रहे हैं नगर, महानगर
तुम रुकीं
पास सभ्यताओं के
उत्खनित किया अपने स्वेद और श्रम से
स्तूपों, अभिलेखों, कंदराओं,
उत्पत्कायों, वनों और कछारों से ढूँढ लायी खोये शब्द
उनके साबूत अर्थों के साथ,
मेरी माँ
तुम्हारी माँ
हमारी माँओं की माँ
झीनी झीनी बीनी चदरिया
का मर्म समझने वाले कबीर की माँ
एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति का
सूत्र स्थापित किया
शंकर ने ब्लैकमेल
कर अपनी माँ को
बनने दे मुझे संन्यासी माँ
वरना खाता है मुझे यह मगरमच्छ.
गौतमी प्रजापति महामाया
देखो तो कितनी ही माँ,
माँ सरीखियों की पंक्ति है.
आंदाल, अक्क महादेवी, ललद्य, मीरा, महादेवी
और मेरी प्रिय कवयित्री
अनामिका!
जिस अकुलाती रचनात्मक बेचैनी और
जिन अबूझ सूत्रों की तलाश में
रचीं तुमने कविताएँ
उनमें शब्द हैं मेरे भी
सहस्त्र भावों का समवेत अनुगूँजन हैं तुम्हारी कविताएँ
देखो न
कुमार गंधर्व के स्वर तैर रहे हैं
“हिरना समझ बूझ बन चरना”
देखती हूँ मैं कि कैसे एक चिप हर लेता है मानस,
अपहृत हो रही हैं
सामूहिक चेतनाएँ सिलिकॉन के एक छोटे अंश से
धरती की कोख से निकले
रेयर अर्थ मटिरियल
बन गये हैं साख,
राष्ट्रों के
अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखला के नियामकों के पाँव तले कुचली जा रही
पुकार नदी, मिट्टी और हवा की
एआई की ताक़त के परिरेषण में मुब्तिला हैं राष्ट्राध्यक्ष
हाईपर कनेक्टेड पर डीपली अलोन के परिदृश्य में
हम बहनें बचा लेना चाहती हैं
अपनी गोंद की ऊष्मा
बचाना चाहती हैं हम अपने स्तनों की दुग्धग्रथियों को पेस्टीसाइड से
हम हर तरह के प्रेम का अर्थ बचाना चाहती हैं
हम आत्मा के आर्तनाद को
रोबोट से बचाना चाहती हैं
हम संवेदनाओं के स्पर्श और गंध को महफ़ूज़ रखना चाहती हैं
रोना धोना तो हमारा काम है ही
यही कह कर नकारे जाते रहे हैं हम
पर देखो ना
अब सब सुन रहे हैं
तुमको,
उन चौहत्तर भिक्षुणियों को भी
जिनके लिए खोले थे द्वार तथागत ने
हम बुन रही हैं अपनी सलाइयों से
चहुंओर से मिले ऊन के गोलों को
मेरी बहन अनामिका !
बुनना है हमें वह वसन
जो पट्टी बन जाये हर ज़ख़्म पर
ओट दे जो हर लज्जा को
बन जाये ओहार
हर जरूरतमंद का,
मेरी प्रिय कवयित्री अनामिका!
इस सामूहिक यज्ञ में
हम दे रही हैं समिधा.
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ई-मेल : anamikapoetry@gmail.com |
प्रीति चौधरी ने उच्च शिक्षा जेएनयू से प्राप्त की है, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, राजनय, भारतीय विदेश नीति, लोक नीति और महिला अध्ययन के क्षेत्र में सक्रिय हैं. लोकसभा की फेलोशिप के तहत विदेश नीति पर काम कर चुकी हैं. साहित्य में गहरी रुचि और गति है. कविताएँ और कुछ आलोचनात्मक लेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.बुंदेलखंड में कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार की महिलाओं को राहत पहुँचाने के उनके कार्यों की प्रशंसा हुई है.बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में राजनीति विज्ञान पढ़ाती हैं.
preetychoudhari2009@gmail.com |

‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ से पुरस्कृत कवयित्री अनामिका का जन्म 17 अगस्त, 1961 को मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार में हुआ. वे दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर हैं. उनकी पुरस्कृत और देश-दुनिया की बहुतेरी भाषाओं में अनूदित प्रमुख कृतियाँ हैं—‘बीजाक्षर’, ‘अनुष्टुप’, ‘कविता में औरत’, ‘खुरदुरी हथेलियाँ’, ‘दूब-धान’, ‘टोकरी में दिगन्त’, ‘पानी को सब याद था’, ‘My Typewriter is My Piano’, ‘Vaishali Corridors’ (कविता-संकलन); ‘अवान्तर कथा’, ‘दस द्वारे का पींजरा’, ‘तिनका तिनके पास’, ‘आईनासाज़’ (उपन्यास); ‘स्त्रीत्व का मानचित्र’, ‘स्वाधीनता का स्त्री-पक्ष’, ‘त्रिया चरित्रं : उत्तरकांड’, ‘स्त्री मुक्ति : साझा चूल्हा’, ‘स्त्री-मुक्ति की सामाजिकी : मध्यकाल और नवजागरण’, ‘Feminist Poetics : Where Kingfishers Catch Fire’, ‘Donne Criticism Down the Ages’, ‘Treatment of Love and War in Post-War Women Poets’, ‘Proto-Feminist Hindi-Urdu World (1920-1964)’, ‘Translating Racial Memory’, ‘Hindi Literature Today’ (आलोचना).
सक्रिय हैं. लोकसभा की फेलोशिप के तहत विदेश नीति पर काम कर चुकी हैं. साहित्य में गहरी रुचि और गति है. कविताएँ और कुछ आलोचनात्मक लेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.बुंदेलखंड में कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार की महिलाओं को राहत पहुँचाने के उनके कार्यों की प्रशंसा हुई है.बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में राजनीति विज्ञान पढ़ाती हैं.


