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समालोचन

Home » आख्यान-प्रतिआख्यान (१):अग्निलीक(हृषीकेश सुलभ):राकेश बिहारी

आख्यान-प्रतिआख्यान (१):अग्निलीक(हृषीकेश सुलभ):राकेश बिहारी

यूरोप में राष्ट्र राज्य-और उपन्यासों का उदय साथ-साथ हुआ, लोकतंत्रात्मक समाज की ही तरह उपन्यासों में भी तरह-तरह के पात्र आपस में भिन्न विचारों के साथ संवादरत रहते हैं. भारत जैसे देशों में उपन्यास उपनिवेश का प्रतिपक्ष बना. लाला श्रीनिवास दास रचित ‘परीक्षा गुरु’ १८८२ में प्रकाशित हुआ था, ‘हिंदी में अंग्रेजी ढंग के इस […]

by arun dev
January 29, 2020
in आलोचना
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यूरोप में राष्ट्र राज्य-और उपन्यासों का उदय साथ-साथ हुआ, लोकतंत्रात्मक समाज की ही तरह उपन्यासों में भी तरह-तरह के पात्र आपस में भिन्न विचारों के साथ संवादरत रहते हैं. भारत जैसे देशों में उपन्यास उपनिवेश का प्रतिपक्ष बना.
लाला श्रीनिवास दास रचित ‘परीक्षा गुरु’ १८८२ में प्रकाशित हुआ था, ‘हिंदी में अंग्रेजी ढंग के इस पहले उपन्यास’ से आख्यान की जो यात्रा प्रारम्भ हुई थी वह अब नई सदी में प्रवेश कर चुकी है. भारतीय और हिंदी उपन्यासों ने इस बीच बनते हुये भारत की आंतरिक विसंगतियों, सुप्त और लुप्त अस्मिताओं, अनुपस्थित स्त्री की उपस्थिति और भारतीयता की खोज़ में अपने को विन्यस्त किया.
नयी सदी के हिंदी उपन्यास उत्तर-आधुनिकता, जादुई यथार्थवाद, उत्तर-सत्य, उत्तर-लोकतंत्र, नुकीली होती अस्मिताओं, बर्बर साम्प्रदायिकता, स्मृतिहीनता और डर के बीच अपना आकार ले रहें हैं, उन्हें रच रहें हैं और अब सत्ता के प्रतिपक्ष के रूप में सामने खड़े हैं.

आलोचक राकेश बिहारी का नई सदी की हिंदी कहानियों का स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ आधार प्रकाशन से छप कर आ गया है. इसके प्रकाशक देश निर्मोही के अनुसार इसे किसी उपन्यास की तरह लोकप्रियता मिल रही है.
राकेश बिहारी का नया स्तम्भ ‘आख्यान-प्रतिआख्यान’ हृषीकेश सुलभ के  उपन्यास ‘अग्निलीक से आरम्भ हो रहा है. इस स्तम्भ में वह नई सदी के महत्वपूर्ण उपन्यासों पर अपना आकलन प्रस्तुत करेंगे.
आज बसंत पंचमी है, इस अवसर पर इससे बेहतर और क्या किया जा सकता है.
                                                                                      ( Painting: Vincent van Gogh – The Novel Reader 1888)





आख्यान-प्रतिआख्यान (१)
अग्निलीक पर चलने की मुश्किलें                                    
(संदर्भ: हृषीकेश सुलभ का उपन्यास ‘अग्निलीक’)

राकेश बिहारी






‘मैला आँचल’ के प्रथम संस्करण की भूमिका में पूर्णिया को उपन्यास का कथानक बताते हुये रेणु कहते हैं- “इसमें फूल भी हैं, शूल भी, धूल भी हैं, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया. कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ; पता नहीं अच्छा किया या बुरा, जो भी हो, अपनी निष्ठा में कमी महसूस नहीं करता.” 

‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के ठीक 65 वर्षों बाद प्रकाशित समर्थ और वरिष्ठ कथाकार हृषीकेश सुलभ के पहले उपन्यास ‘अग्निलीक’ पर बात करते हुये ‘मैला आँचल’ की भूमिका के उपर्युक्त अंश की याद आने का कारण सिर्फ इतना नहीं है कि इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण के आवरण पर प्रकाशित प्रकाशकीय प्रस्तावना में यह कहा गया है कि

“यह कथा फणीश्वरनाथ रेणु की कथा-भूमि की याद दिलाती है. रेणु ने कोसी तट के आसपास बसे गावों को अपना कथा-विषय चुना था, सुलभ जी ने अपने इस पहले उपन्यास में घाघरा नदी के किनारे बसे गावों की कथा कही है.”
‘मैला आँचल’ का  प्रकाशन महज एक उपन्यास का छपना नहीं था बल्कि हिन्दी उपन्यास के इतिहास में यह एक ऐसी परिघटना थी, जिसने‘देहाती दुनिया’ (शिवपूजन सहाय) से शुरू हुई आंचलिक उपन्यासों की परंपरा को एक ऐसी ठोस रचनात्मक दिशा दी  जिसमें आज ‘आधा गाँव’ (राही मासूम रज़ा), ‘डूब’(वीरेंद्र जैन), ‘इदन्नमम’ और ‘चाक’ (मैत्रेयी पुष्पा) जैसे उपन्यासों की मजबूत कड़ियाँ मौजूद हैं. उपन्यास को आधुनिक जीवन का महाकाव्य कहा गया है, पर गौर किया जाना चाहिए कि इन उपन्यासों में महाकाव्यों की तरह किसी चरित्र विशेष को नायकत्व नहीं प्राप्त है, बल्कि ‘कथा–भूमि’ और ‘कथा-समय’ खुद ही यहाँ नायक की तरह कथा के केंद्र में विन्यस्त हैं. पात्र के बजाय स्थान और समय को नायकत्व प्रदान करने की इसी विशेषता के कारण ‘अग्निलीक’ को हिन्दी उपन्यास की इस समृद्ध परंपरा की अद्यतन कड़ी के रूप में शामिल होने का हक और हुकूक स्वतः ही हासिल हो जाता है. यहाँ यह भी ध्यान दिये जाने की जरूरत है कि किसी अंचल विशेष की भाषा, लोक-व्यवहार, आचार-संस्कार, रीति-रिवाज आदि की मुखर अभिव्यक्ति के कारण इन्हें आंचलिक उपन्यास भले कहा जाता है, पर इन उपन्यासों में व्यक्त चिंताएँ संदर्भित अंचल के कूल-कछारों का अतिक्रमण कर मनुष्य और मनुष्यता की वृहत्तर सीमाओं में घुलमिल जाती हैं.
कहने की जरूरत नहीं कि संज्ञा (मनुष्य) से विशेषण (मनुष्यता) बनने की इस प्रक्रिया में व्याकरण के नियमों से ज्यादा जल, जंगल और जमीन जैसी अन्यान्य मनुष्येतर संज्ञाओं से जुड़े प्रश्नों और चिंताओं की बड़ी भूमिका होती है है. यहाँ जिन उपन्यासों का संदर्भ आया है, उनमें भले किसी पात्र या चरित्र को उक्त उपन्यासों का नायकत्व हासिल नहीं हो, पर उपन्यास के कथानक का अतिक्रमण करते हुये अपनी स्वतंत्र पहचान अर्जित करने का उनका सामर्थ्य और संदर्भित कथा-भूमि तथा कथा-समय के सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों से टकराने का दृष्टिपूर्ण साहस ही इनके आंचलिक संदर्भों को ‘ग्लोबल’ महत्व और स्वीकृति प्रदान करता है. इस आलेख की शुरुआत में उद्धृत ‘मैला आँचल’ की भूमिका में ‘मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया’ वाले हिस्से को इस संदर्भ में इसलिए भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि ‘अग्निलीक’ की सामर्थ्य और सीमा को परखने के लिए यह एक जरूरी उपकरण साबित हो सकता है. 
‘अग्निलीक’, जिसे मैंने यहाँ आंचलिक उपन्यासों की परंपरा की अद्यतन कड़ी कहा है, का कथानक एक ऐसे यथार्थवादी धरातल पर विकसित होता है, जिसमें समकालीन राजनैतिक संदर्भों के आलोचनात्मक विश्लेषण की अपार संभावनाएं सन्निहित हैं. चार पीढ़ियों के विस्तृत कालखंड को समेटने का दुष्कर कार्य करने वाले इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण और जरूरी हिस्सा जिस कालखंड में घटित होता है, वह न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे भारत की राजनीति की दशा-दिशा बदलने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक और  आर्थिक बदलावों का गवाह है, जिसे ‘मण्डल’, ‘मंदिर’ और ‘उदारीकरण’ के तीन सुविधाजनक पदों की पृष्ठभूमि में चीन्हा–समझा जा सकता है. इसी समयावधि में जातिवादी बर्चस्व की ऐंठ से भरे सामंतवाद को दलितों–पिछड़ों की राजनैतिक चेतना और अस्मिताबोध ने न सिर्फ चुनौती दी बल्कि उनके समानान्तर अपनी एक नई दुनिया का निर्माण भी किया. यहाँ इस बात का उल्लेख भी जरूरी है कि इन सामाजिक-राजनैतिक बदलावों की दिशा सर्वथा सकारात्मक ही नहीं रही और ना ही सामंतवाद पूरी तरह से ध्वस्त हो गया. बल्कि इसी कालखंड में दलितों-पिछड़ों के कंधे पर सवारी कर अपना बर्चस्व कायम करने वाला एक नवसामंती तबका भी आ खड़ा हुआ और पुराने सामंतों ने अपनी खोई हुई सत्ता को वापस हासिल करने के लिए चालाकियों के नए परिधान भी धारण किए. यह सुखद है कि सामाजिक-राजनैतिक नवोन्मेष के अंतर्विरोधों और पुराने सामंतों के खुरचनी अवशेषों की नई धूर्तताओं को रोशनी में लाने का काम यह उपन्यास बखूबी करता है.
हाशिये पर बसर कर रहे समाज की नवचेतना और नवसामंतों के उदय की अभिसंधि पर उगने वाले अंतर्विरोधों की पहचान हृषीकेश सुलभ की बहुचर्चित कहानी ‘पांडे का पयान’ में भी बहुत बारीकी से हुई है. पर यहाँ इस बात को भी समझा जाना चाहिए कि राजनैतिक चेतना और अस्मिताबोध की अंतर्दृष्टि से सम्पन्न जातीय संघर्षों-विमर्शों के महत्व को बिना रेखांकित किए सिर्फ उनके अंतर्विरोधों की चर्चा से इस विमर्श के परिप्रेक्ष्य को उसकी संपूर्णता में नहीं परखा जा सकता. कहानी के सीमित कलेवर में तो एक बार यह न भी खटके, पर इतने बड़े समयान्तराल की कथा कहने वाले उपन्यास से यह मांग जरूरी और जायज है. गौरतलब है कि ‘अग्निलीक’ जिस मुखरता से सामाजिक राजनैतिक नवोन्मेष के अंतर्विरोधों को रेखांकित करता है, उतनी ही आसानी और सहजता से उसकी पृष्ठभूमि में अनिवार्यतः उपस्थित जातीय अस्मिताबोध से उत्पन्न टकराहटों और उसकी आड़ में जड़ जमाने वाले नवसामंतों की कारगुजारियों दोनों ही की लगभग अनदेखी कर जाता है या उससे बच निकलता है. जबकि उपन्यास की कथा-भूमि सीवान के आसपास का इलाका न सिर्फ इन नई सामाजिक-राजनैतिक परिघटनाओं का बड़ा गवाह रहा है, बल्कि सत्ता के शह पर राजनीति और अपराध का भयानक गठजोड़ जिस दबंगई से यहाँ फलता-फूलता रहा है वह किसी से छिपा हुआ नहीं है. इस पूरे प्रकरण पर उपन्यास की नज़र किस तरह पड़ती है उसे सीधे उपन्यास की जुबानी ही सुना जाना चाहिए- 

“सीवान एक छोटा-सा कस्बाई शहर था, सत्ता पोषित एक दुर्दांत अपराधी के आतंक की छाया में यह शहर लंबे समय तक जैसे-तैसे सांस लेकर जीता रहा था.” 


‘लंबे समय’ का यह त्रासद प्रकरण, जिसने इस पूरे इलाके के वजूद को सिहराए रखा हो, को उसके सामाजिक प्रभावों की गहराइयों में बिना उतरे महज इन दो वाक्यों में समेट कर यह उपन्यास जिस तरह आगे बढ़ जाता है, वह इसके सुदीर्घ कालखंड और कथानक के स्वाभाविक राजनैतिक गुण-सूत्रों के मद्देनजर इस उपन्यास की एक बड़ी दिक्कत के रूप में पेश आता है. हालांकि पटना और सीवान के दो राजनैतिक परिवारों के बीच की नातेदारी और देवली गांव के पंचायत चुनावों में मुस्लिम और यादव समुदाय के राजनीतिक समीकरणों की तरफ एक हल्का-सा इशारा उपन्यास जरूर करता है, पर वह इतना हल्का है जिसमें ‘बच निकलने’ की अनुगूंजें बहुत आसानी से सुनी-समझी जा सकती हैं. समकालीन राजनीति के उस बीहड़ में बिना धँसे संदर्भित जनपद के राजनैतिक-सामाजिक बदलावों को रेखांकित करने की रूमानी रचना-प्रविधि ने उपन्यास को कथानक की उन गहराइयों तक नहीं पहुँचने दिया है जिसकी जड़ें 1857 के सिपाही विद्रोह से लेकर बिहार में 2016 में लागू हुई शराबबंदी तक फैली हुई हैं. 
    

‘अग्निलीक’ के आरंभ और अंत दोनों छोरों पर दो हत्याएं घटित होती हैं- शुरुआत में शमशेर साँई नामक एक राजनैतिक कार्यकर्ता की हत्या और आखिर में मनोहर रजक नामक एक दलित छात्र की हत्या जो रसूखदार मुखिया लीलाधार यादव की पोती रेवती से प्रेम करता था. इन दोनों हत्याओं के बीच उपन्यास में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कई और हत्याएं भी होती हैं, जिनके पीछे प्रेम और राजनीति ही हैं. राजनीति और संस्कृति के बीच एक अनोन्याश्रयी संबंध भी होता है. कभी सांस्कृतिक बदलाव राजनैतिक बदलावों के कारण बनते हैं तो कभी राजनैतिक चेतना सांस्कृतिक परिवर्तनों की वाहिका बनती है. प्रेम, जो सामान्यतया ऊपर से एक नैसर्गिक अभिक्रिया या स्वतःस्फूर्त रूहानी संयोग की तरह घटित होता दिखाई पड़ता है, अपने समय की राजनैतिक-सामाजिक हलचलों से निरपेक्ष नहीं हो सकता बल्कि उससे गहरे प्रभावित होता है. गौरतलब है कि यथार्थ के सख्त धरातल पर खड़े राजनैतिक गुण-धर्म वाले कथानक से निर्मित यह उपन्यास लगभग आद्योपांत अलग-अलग पीढ़ी के उत्कट प्रेम-प्रसंगों से सिंचित है. उपन्यासकार के शब्दों में ही कहें तो इस पूरे उपन्यास में ‘प्रेम की लरज़ती-काँपती छायाएं’ मौजूद हैं. हत्या और प्रेम की बहुतायत को देखते हुये हो सकता है कुछ लोग‘अग्निलीक’ को हत्या और प्रेम का उपन्यास ही कह-समझ बैठें, पर मूल्य निर्णय की ऐसी जल्दबाजियां इस उपन्यास के साथ न्याय नहीं कर सकती हैं. 


प्रेम के प्राकृतिक पक्ष, उसकी दैहिक स्वाभाविकताओं और प्रेम-प्रसंगों में अमूमन घटित होने वाली वंचनाओं को यह उपन्यास जिस चाक्षुस और स्पर्शी प्रभावोत्पादकता के साथ दर्ज करता है, वह इसके महत्वपूर्ण हासिलों में से एक है. उपन्यास में वर्णित प्रेम–प्रसंग और उनकी नियतियाँ कई जगह पाठकों को नम करते हुये उनके भीतर करुणा उत्पन्न करने का सामर्थ्य रखती हैं. प्रेम की स्वाभाविक अनुभूतियों को पूरे कलात्मक वैभव के साथ पाठकमन पर उकेरने के लिए निश्चय ही हृषीकेश सुलभ बधाई के पात्र हैं. बहुत संभव है मुझ सहित कुछ लोगों (पढ़ें, लेखकों) के लिए उनकी यह उपलब्धि एक खास तरह की ईर्ष्या और स्पर्धा का कारण भी हो. पर इस संदर्भ में मेरी चिंताएँ यहाँ दूसरी हैं, दुहरी भी.  भारतीय समाज की अंतःसंरचना में अनिवार्यतः उपस्थित जाति, वर्ग और संस्कृति की आचार संहिताओं  से पोषित टकराहटों का तनाव प्रेम की नैसर्गिकता को जिस तरह नियंत्रित और संचालित करता है, क्या उसका मुकम्मल चेहरा इस उपन्यास में मौजूद है? यदि नहीं, तो क्यों और यदि हाँ, तो यह उपन्यास उन आचार संहिताओं की सुविधाजनक चौहद्दियों का कितना और किस तरह अतिक्रमण करता है? प्रेम की सामाजिक नाकेबंदी और उसके अतिक्रमण को लेकर मेरे भीतर उठ रहे ये प्रश्न सिर्फ मेरे नहीं हैं. 

इसे बहुत पहले ‘अलग–अलग वैतरणी’ (शिव प्रसाद सिंह) के सरूप भगत ज्यादा स्पष्ट और मुखर भाषा में पूछ चुके हैं- “’परेम’ कोई बुरी चीज नहीं. मगर ई कैसा परेम भाई! आज तक किसी राजपूत-बामन लड़की के साथ चमार दुसाध का परेम काहे नहीं हुआ?” तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद आज जब इस प्रश्न के सकारात्मक उत्तर सहज ही हमारे समाज में दिखने लगे हैं, ‘अग्निलीक’ से गुजरते हुये सरूप भगत का यह प्रश्न यदि लगभग अनुत्तरित ही रह जाता है तो इसके कारणों को भी कहीं न कहीं उस‘बच निकलने’ की लेखकीय नियति में तलाशा जा सकता है. 

इस बात पर भी गौर किए जाने की जरूरत है कि नन्हें मियां और नबीहा के सफल किन्तु अति संक्षिप्त प्रेम-प्रसंग के अपवाद को छोड़ दें तो उपन्यास में आए लगभग सभी प्रेम चाहे वह यशोदा और लीला साह का हो या रामझरी और अकलू यादव का, कुंती और मास्टर मुचकुंद शर्मा का हो या फिर रेवती और मनोहर रजक का, सबके सब असफल हैं. इनमें से एकाधिक स्थितियों में प्रेमी की हत्या भी हो जाती है. प्रेम में असफलता या हत्या कोई नई या अकल्पनीय स्थितियाँ नहीं हैं, पर चार पीढ़ियों के अंतराल में फैले हुये ये विविध प्रेम-प्रसंग जिस तरह बिना किसी उल्लेखनीय संघर्ष के असफल हो जाते हैं और समाज में घटित हो रहे तमाम बदलावों के बावजूद यदि इनमें से एक भी प्रसंग ‘अलग–अलग वैतरणी’ के सरूप भगत के उस असुविधाजनक प्रश्न का कोई माकूल उत्तर नहीं दे पाता है तो यह चिंता और निराशा की बात है. 

उपन्यास में होने वाली कई-कई हत्याओं को लेकर कथाकार प्रभात रंजन द्वारा पूछे गए एक प्रश्न का जवाब देते हुये, जो यूट्यूब पर उपलब्ध है, हृषीकेश सुलभ इसे आज के हत्यारे समय का प्रतीक कहते हैं. बेशक यह एक हत्यारा समय है, लेकिन सिर्फ इतना भर कहकर इस समय के साथ न्याय नहीं किया जा सकता. कारण कि यह समय सिर्फ हत्या का ही नहीं, अस्मिताबोध से उत्पन्न वंचितों-पीड़ितों के संघर्ष का भी है. समय के इस दूसरे पक्ष की अनुपस्थिति के कारण ही अपने वर्तमान स्वरूप में उपन्यास में घटित कई हत्याएं, खासकर मनोहर रजक की हत्या अस्वाभाविक, गैरज़रूरी और आरोपित लगती है. 
हृषीकेश सुलभ एक शब्द-समृद्ध और भाषा-सजग कथाकार हैं. नाटक की दुनिया में भी समान रूप से सक्रिय होने के कारण इनकी कथा-भाषा और दृश्य-विधान पर नाटक की स्वाभाविक तकनीकों का सहज प्रभाव देखने को मिलता है. संवाद और दृश्यों में व्याप्त नाटकीयता इनकी कहानियों में निहित बहुपरतीय  अर्थ-छवियों को लगातार समृद्ध करती रही है. कलकल करती नदी की तरह बहने वाली इनकी तरल भाषा अपनी इंद्रधनुषी भावप्रवणता से पाठकों को एक चुम्बकीय सम्मोहन में बांध कर रखने का जो  सामर्थ्य रखती है, उसे इस उपन्यास में सहज ही महसूस किया जा सकता है. तत्सम और लोक के सहमेल से बनी इस भाषा का यह मुहावरा हृषीकेश सुलभ ने अपनी मिट्टी और परिवेश के साथ एक सघन आत्मीय जुड़ाव से अर्जित और पोषित किया है. निर्मल वर्मा से लेकर प्रियंवद तक भाषा का निजी मुहावरा विकसित करने वाले लेखकों की एक विशिष्ट पांत हिन्दी में मौजूद है. लेकिन इस भाषा की दिक्कतें तब शुरू होती हैं जब कथाकार कथा में वर्णित यथार्थ और कथा-पात्रों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से बेखबर होकर सबकुछ एक ही तरह की भाषा में कहना शुरू कर देता है. ‘अग्निलीक’ में भाषा की यह दिक्कत तीन स्तरों पर पेश आती है. 

पहली दिक्कत यह कि एक राजनैतिक गुण-धर्म वाले कथानक के यथार्थ का वहन करने के लिए जिस भाषा का उपयोग यहां हुआ है वह अपने स्वभाव और संरचना में बेहद रूमानी है. कथानक के यथार्थ और कथा-भाषा के बीच स्थित इस दूरी का ही परिणाम है कि प्रेम के नैसर्गिक सौन्दर्य, देह के प्राकृतिक आकर्षण और त्याग-समर्पण की अश्रुविगलित कारुणिकताओं के उत्सवीकरण की कई-कई छवियों से सुसज्जित इस उपन्यास में खुद को बचाए रखने के संघर्ष से दीप्त प्रेम का कोई मजबूत चेहरा मौजूद नहीं है. अपनी भाषा के नाजुक सौन्दर्य के प्रति अटूट लेखकीय मोह यहाँ जिस तरल सहजता से परिवेश और प्रकृति के खूबसूरत लैंडस्केप की रचना करता है, उसी प्रभावोत्पादकता के साथ यथार्थ की विभीषिकाओं के भीतरी तहों में नहीं उतर पाता. या यूं कहें कि भाषा का लालित्यपूर्ण सौन्दर्य पाठकों को इस कदर सम्मोहित कर लेता है कि कथानाक में निहित त्रासदी उस तक संप्रेषित ही नहीं हो पाती. उदाहरण के लिए उपन्यास के उत्तरार्ध में वर्णित अनावृष्टि के दृश्य को देखा जा सकता है– “सावन भादों में भी धरती की प्यास नहीं मिटी, आषाढ़ की छिटपुट वर्षा धरती की कोख तक नहीं पहुँच सकी. धरती की कोख अगर नम नहीं होती खरीफ की फसल तो जाती ही है, रबी की आस भी टूट जाती है. देवली, मनरौली, पुरैना, मानिकपुर आदि गांवों के चँवर में धान की रोपनी तक नहीं हो सकी. आषाढ़ के पानी में लगे बीचड़े रोपनी के इंतज़ार में खड़े-खड़े झुलस गए. सावन-भादो में बाँकी अदा से लहराने वाली संपही के पेट में धूल उड़ती रही. दुधही के विशाल उदर में फटी दरारें जल की बूंदों की आस में मुंहबाये  आसमान की ओर ताकती-तरसती रह गईं.” 

इसमें कोई संदेह नहीं कि गद्य की यह खूबसूरती विरल है. पर इसकी दिक्कतें दूसरी हैं. यहाँ भाषा प्रकृति के विजुअल्स रचने में इस कदर डूबी हुई है कि संदर्भित यथार्थ की विभीषिका झेलने वाला व्यक्ति समूह इस तस्वीर में आने से रह जाता है. अपनी तमाम खूबसूरती के बावजूद उपन्यास की भाषा की दूसरी दिक्कत है– नैरेटर और पात्रों की भाषा का लगभग एक जैसा होना. हालांकि कुछ शब्दों के आंचलिकीकरण (यथा- जिंदगी के लिए  जिनगी, ब्लाउज के लिए बेलाउज, उम्र के लिए उमिर आदि का प्रयोग) के माध्यम से लेखक ने पात्रों की भाषा को नैरेटर की भाषा से अलग करने की कोशिश जरूर की है पर अपने भाषाई मुहावरे और अनुशासित वाक्य संरचना से वह उन्हें नहीं बचा पाया है. परिणामतः पूरा उपन्यास और उसके पात्र जैसे लगभग एक ही भाषा में बोलते प्रतीत होते हैं. इस क्रम में कई बार नैरेटर कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग भी कर जाता है, जो उपन्यास और उपन्यासकार की असावधानी के रूप में सामने आता है. इसे समझने के लिए उपन्यास के प्रथम पृष्ठ के तीसरे वाक्य को देखा जाना चाहिए- “यह कच्ची सड़क गाँव के दक्खिनी छोर पर बसे हरिजनों के टोला टोटहा से आती थी…” उल्लेखनीय है कि हरिजन शब्द का प्रयोग 1982 से ही गैरकानूनी है. किसी पात्र द्वारा कहे गए संवाद में इस शब्द के प्रयोग को तो एक स्तर पर समझा जा सकता है, पर नैरेटर की भाषा में यह असावधानी खटकनेवाली है. दरअसल कानूनी–गैरकानूनी की खांचेबंदी से अलग यह हमारे अवचेतन में स्थित जातिबोध और उससे संबन्धित ग्रंथियों से जुड़ा प्रश्न है. यहाँ एक बार फिर ‘मैला आँचल’ के ही एक संदर्भ पर ध्यान दिया जाना चाहिए- “खेलावन सिंह यादव को लोग नया मातबर कहते हैं लेकिन क्षत्रिय टोली को अब‘गुअर टोली’ कहने की हिम्मत कोई नहीं रखता.” 

इस तरह ‘अग्निलीक’ में प्रयुक्त ‘हरिजनों का टोला’ और‘मैला आँचल’ में प्रयुक्त ‘गुअर-टोली’ को समानान्तर रखकर मध्यम और अनुसूचित जातियों के बदलते अस्मिताबोध के प्रति दोनों उपन्यासों के दरम्यान पसरे फासले को समझा जा सकता है. दृश्य, परिवेश और पात्रों के बदलने के बावजूद ‘चाँदनी का बरसना’, ‘खल्वट माथा’ ‘नेह–छोह’, ‘लोप होना’, ‘कज्जल जल’ जैसे शब्दों–पदो की बारंबार आवृति उपन्यास की भाषा की तीसरी दिक्कत है, जिससे कई बार इसके एकरस होने का अहसास भी होता है. ‘अग्निलीक’ की इन भाषाई दिक्कतों पर बात करते हुये यह भी कहा जाना जरूरी है कि यह अकेले इस उपन्यास की दिक्कत नहीं है. भाषा का निजी मुहावरा और ‘सिग्नेचर’ विकसित करनेवाले लगभग सभी लेखकों के साहित्य में ऐसे उदाहरण देखे जा सकते हैं. मजबूत स्त्री चरित्रों की रचना हृषीकेश सुलभ की कथा-यात्रा की एक ऐसी विशेषता है जो इन्हें अपने पूर्ववर्ती और समकालीन कथाकारों से अलग करती है. वर्ग, वर्ण और स्थान की हदबंदियों से अलग दुनिया की तमाम स्त्रियों के दुखों और स्वप्नों में एक खास तरह की साझेदारी होती है. आधुनिक समय में देश और दुनिया के  तमाम स्त्री आंदोलन स्त्रियों के उस साझेपन को न सिर्फ पहचानते हैं बल्कि दुख और सपनों की वह साझेदारी ही उन्हें परस्पर आबद्ध भी रखती है, जिसे स्त्रीवाद और समाजशास्त्र की शब्दावली में ‘ग्लोबल सिस्टरहुड’ या ‘सार्वभौम भगिनीवाद’ के नाम से जाना जाता है. हृषीकेश सुलभ की कहानियाँ स्त्री स्वर की मजबूत अभियक्ति के कारण मुझे हमेशा से प्रिय रही हैं. इनकी कहानी `अगिन जो लागी नीर में’ की माधुरी देवी और सुवन्ती स्नेहा जैसी स्त्रियाँ जिस तरह बदलावों की नई इबारत लिखती हैं वह हमें कई तरह की आश्वस्तियों से भर देता है. 


मजबूत स्त्री चरित्रों के सृजन का वह सिलसिला ‘अग्निलीक’ में कुछ और आगे बढ़ता है. रेशमा, जसोदा, कुंती, रेवती, रामझरी, नबीहा, नाज बेगम, गुल बानो, मुन्नी बी जैसी स्त्रियों के चरित्र और व्यक्तित्व में व्याप्त इस्पाती दृढ़ता इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है. जिस तरह यह उपन्यास एक स्त्री के अपूरित स्वप्न को दूसरी स्त्री के स्वप्न में विस्तारित करता है, वह स्त्री मन और जीवन में हो रहे बड़े बदलावों की मुनादियाँ हैं जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. शमशेर साईं, जिसकी हत्या के साथ उपन्यास का आरंभ होता है, की पत्नी गुल बानो और बचपन से ही जीवन के झंझावातों से जूझकर खुदमुख्तार बनी रेशमा, जो अपनी प्रेम कहानियों और दबंगई के लिये कुख्यात है, का बहनापा इस उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है. ध्यान देने योग्य  है कि रेशमा का प्रेमी अकरम अंसारी जो सरपंच है, शमशेर साँई की हत्या का अभियुक्त है. 

(हृषीकेश सुलभ)


ऊपर से देखें तो रेशमा और गुल बानो के निजी हितों की टकराहटें दोनों को एक दूसरे का दुश्मन भी बना सकती थीं, पर यह उपन्यासकार की उस सूक्ष्म दृष्टि की ताकत है कि वह इस लघु यथार्थ का अतिक्रमण कर उन दोनों के दुखों के साझेपन को पहचानते हुये उनके बीच बहनापे का एक बृहत्तर संसार रचने में कामयाब होता है. लेकिन कई-कई मजबूत स्त्री किरदारों के हासिल के बीच जो एक बात खटकनेवाली है, वह है स्त्री देह के प्रति लगभग पूरे उपन्यास में फैली हुई लोलुपता. स्त्री पात्रों को देखते ही जैसे नैरेटर की निगाहें उसकी ‘गदराई जवानी’, ‘गठीली देह’ और ‘छाती की गोलाइयों’ को टटोलने लगती है. यहाँ थानाध्यक्ष गरभू पांड़े द्वारा रौंदी जाने के बाद शारीरिक-मानसिक तकलीफ से घिरी रेशमा की मनःस्थितियों का वर्णन करते हुये नैरेटर की भाषा को देखा जाना चाहिए- 

“रेशमा की अधनंगी देह बिछावन पर कुहुक रही थी और पतिया मलिया में सरसों का तेल लिए उसे मालिश कर रही थी. संभोग-प्रिया रेशमा को अपनी देह से घिन आने लगी थी. गरभू पांड़े ने उसकी देह को रौरव नरक में बदल दिया था.” 


अपने साथ दुष्कर्म होने के बाद एक स्त्री अपनी देह को लेकर किस हद तक विक्षोभ से भर सकती है, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इसे समझने की कोशिश कर सकता है, पर ऐसी स्त्री की उस दारुण मनोदशा का वर्णन करते हुये उसके लिए ‘संभोग-प्रिया’ और ‘अधनंगी’जैसे विशेषणों का प्रयोग करना उस मर्दवादी लोलुपता को ही दर्शाता है जो दुख-तकलीफ के क्षणों में भी पर्वर्टेड सुख के संधान का अवसर खोज ही निकालता है. यदि यह हरकत गरभू पांड़े जैसे किसी चरित्र की होती तो उसे इस विचलन के प्रकटीकरण की तरह देखा जा सकता था पर नैरेटर या सूत्रधार, जो कथा में लेखक का प्रतिनिधि होता है, की भाषा में यह फिसलन पात्रों की निर्मिति और सर्जक की सजगनिगाही के बीच स्थित दरारों की तरफ ही इशारा करता है.  

‘मैला आँचल’ की ही तरह अग्निलीक भी एक पात्रबहुल उपन्यास है. ऊपर उल्लिखित स्त्री पात्रों के समानान्तर इस उपन्यास में ढेर सारे पुरुष पात्र भी हैं जिनमें मुखिया लीलाधार यादव, सरपंच अकरम अंसारी, लीला साह, पिंटू सिंह, अकलू यादव, मुंशी दामोदर लाल, बिलट महतो, नौषर साईं, बैगा सुनार, मंसूर मिया, सुजीत, मुचकुंद शर्मा, मनोहर रजक, अनिल मांझी आदि के नाम उनकी प्रसंगानुसरूप उपस्थिति के कारण याद रह जाते हैं. हालांकि उपन्यास में पात्रों का आना-जाना इस त्वरित गति से होता है कि उनके चारित्रिक विकास या पराभव का कोई उल्लेखनीय ग्राफ नहीं बन पाता है, जिसका कारण कभी तो पात्रों की द्रुत आवाजाही होती है तो कभी उनके गुण-धर्म के विपरीत उन पर आरोपित कर दी गईं लेखकीय निर्मितियाँ. उदाहरण के लिए लीलाधार यादव, मनोहर रजक, जसोदा और रेवती को देखा जा सकता है, जिनके चरित्र का स्वाभाविक विकास उयपन्यास में नहीं हो पाया है. कई बार चरित्रों को कथानक में जिस तरह प्रवेश होता है उसका निर्वाह उसके अनुरूप नहीं हो पाता. इस सिलसिले में लीलाधार यादव के चरित्र को देखा जाना चाहिए. 

जिस अवतारी तरीके से उनके जन्म की कथा उपन्यास में लिखी गई है, उसे देख कर लगता है कि उपन्यास के पटल पर उनका कोई भव्य-दिव्य चरित्र खड़ा होने वाला है, पर ऐसा नहीं हो पाता. वैसे ही जशोदा जिस तरह रातों रात अपने घर वालों की मर्जी के आगे समर्पण कर देती है या रेवती अपनी चारित्रिक दृढ़ताओं के बावजूद बिना किसी उल्लेखनीय हील हुज्जत के अपने सपनों की तिलांजलि देकर अपने दादा के कहने पर पंचायत का चुनाव लड़ने को तैयार हो जाती है, उसके व्यक्तित्व की निर्मिति से बहुत मेल नहीं खाता है. यहाँ यह भी गौर किया जाना चाहिए कि लीलाधार यादव के कहने पर ही, रेशमा ने भी चुनाव लड़ने के लिए अपनी सहमति दी है. हालांकि उपन्यास की कथा जिस तरह लिखी गई है उससे ऐसा लगता है कि उपन्यासकार इन स्त्रियों को पितृसत्ता के मोहरे की तरह दिखाना चाहता है. स्त्रियों के लिए सुरक्षित सीटों की आड़ में पितृसत्ता जो खेल खेलती है, उससे इंकार नहीं किया जा सकता. पर उसके लिए वह जिन स्त्रियों का चुनाव करती है, वह रेशमा और रेवती जैसी मजबूत स्त्रियाँ नहीं होती हैं. इसलिए रेशमा और रेवती को पितृसत्ता के हाथों का मोहरा बना दिया जाना भी उनके चरित्र की स्वाभाविक दिशा नहीं है. 
बहुत सारे पात्रों की आवाजाही के बीच शमशेर साँई की हत्या की वह गुत्थी, जिसकी चिंता से उपन्यास का आरंभ हुआ था, का अंत तक नहीं सुलझना भी उपन्यास की एक बड़ी दिक्कत है. न्यायिक प्रक्रिया के चलने के बावजूद यदि ऐसा होता तो यही स्थिति शिथिल और विलंबित न्यायिक प्रक्रिया का रूपक हो सकती थी. लेकिन, शमशेर साँई की हत्या के प्रकरण को चार्जशीट दाखिल करने, आरोपितों के जेल जाने और बेल पर उनके बाहर आने की बहुत ही शुरुआती और संक्षिप्त कवायदों के बाद लगभग विस्मृत कर दिया गया है. नतीजतन, अपने आरंभिक कौतूहल का समाधान नहीं हासिल होने के कारण पाठक खुद को रिक्तहस्त तो महसूस करता ही है, शमशेर साँई की कथा को विस्मृत कर देने के कारण उपन्यास के हाथ से वह सूत्र भी फिसल जाता है, जो उपन्यास की सभी उपकथाओं और अनुषंगों को परस्पर आबद्ध रख सकती था.     
‘अग्निलीक’ की सामर्थ्य और सीमा पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि उपन्यास के पूर्वार्द्ध में घटित कई प्रसंगों की सघनता और विडंबनाओं के उद्घाटन के लिए प्रयुक्त भोजपुरी लोकगीतों पर बात न की जाये. एकाध अपवाद को छोड़ दें तो इन सारे गीतों को उनके मूल रूपों में नहीं देकर लेखक ने अपनी भाषा में पुनर्सृजित किया है. उपन्यास के प्रसंगों के बीच अपनी भाषा में लोकगीतों के पुनःसृजन के दो कारण हो सकते हैं- एक प्रभावी अर्थ-सम्प्रेषण की कोशिश और दूसरा मूल लोकगीतों के उद्धरण के कारण उपन्यास को आंचलिक करार दिये जाने का भय. जो लोग हृषीकेश सुलभ के रचना संसार से परिचित हैं उन्हें यह बखूबी पता है कि उन्होंने कहानी के शिल्प में भोजपुरी लोकगीतों की प्रभावी पुनर्रचना भी की है. कुछ वर्ष पूर्व संभवतः पाखी में प्रकाशित उनकी कहानी ‘सीता राम और रावण’, जिसके केंद्र में सीता निर्वासन की कथा है, इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है. घोषित तौर पर एक मुकम्मल कहानी के रूप में किसी लोकगीत की पुनर्रचना अपने उद्देश्य और प्रभाव दोनों ही में नितांत अलग होती है. पर, उपन्यास के विविध प्रसंगों में किया गया यह प्रयोग उस तरह का प्रभाव तो नहीं ही पैदा करता, स्वाभाविक नैरेशन के बीच अपनी अलग भाषावाली के कारण कुछ ज्यादा नाटकीय भी प्रतीत होता है. मूल लोकगीत का कोई संदर्भ नहीं दिये जाने के कारण, बहुत से पाठक जो मूल रचना से परिचित नहीं हैं, शायद यह भी नहीं समझ पाएँ कि यह किसी लोकगीत की पुनर्रचना है. 

कहानी के केंद्र में अमूमन जीवन का कोई एक टुकड़ा होता है, वहीं उपन्यास समूची मनुष्य जाति का आख्यान है, जो मनुष्य और उसके जीवन-जगत को समग्रता में संप्रेषित करता है. उपन्यास की सफलता इसी में निहित है कि वह असंभाव्य को भी अपने रचना फ़लक पर एक विश्वसनीय संभाव्य बनाकर पेश करे. विश्व और भारतीय कथा साहित्य में उपन्यास का यह इतिहास रोमांस से यथार्थ तक की लम्बी यात्रा के रूप में दर्ज है. ‘अग्निलीक’ की दिक्कत यह है कि इसमें यथार्थ और रोमांस का अपेक्षित संतुलन नहीं बन सका है. दूसरे शब्दों में यथार्थ की ठोस धरातल पर खड़े कथानक को यहाँ रोमांटिक भाषा और ट्रीटमेंट से परखने की कोशिश की गई है. यही कारण है कि पठनीयता और रोचकता की अप्रतिम मौजूदगी के बावजूद यह एक बड़ा उपन्यास होने से रह जाता है और हृषीकेश सुलभ की रचना यात्रा में वैसी उल्लेखनीय अभिवृद्धि नहीं करता जो उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से अर्जित किया है. मुझ जैसे उनके अनगिनत प्रशंसकों को उनके उस ‘बड़े’ उपन्यास का इंतज़ार है जिसकी रचना के सामर्थ्य के लक्षण उनके कथा-संसार में बखूबी मौजूद हैं. ‘अग्निलीक’ को ‘उस’ उपन्यास के पूर्वाभ्यास की तरह देखा जाना चाहिए. 

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राकेश बिहारी
(11 अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)
कहानी तथा कथालोचना विधाओं में समान रूप से सक्रिय
प्रकाशन : वह सपने बेचता था, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह)केंद्र में कहानी, भूमंडलोत्तर कहानी  (कथालोचना)
सम्पादन :  स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन), ‘खिला है ज्यों बिजली का फूल’ (एनटीपीसी के जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित कहानियों का संचयन), ‘पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ’ (‘निकट’ पत्रिका का विशेषांक) ‘समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी’ (‘संवेद’ पत्रिका का विशेषांक)’, बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित \’अर्य संदेश\’ का विशेषांक, ‘अकार- 41’ (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर केन्द्रित), ‘रचना समय’ का  कहानी विशेषांक.
वर्ष 2015 के लिए ‘स्पंदन’ आलोचना सम्मान से सम्मानित.
संपर्क: D 4 / 6, केबीयूएनएल कॉलोनी, काँटी बिजली उत्पादन निगम लिमिटेड,
पोस्ट– काँटी थर्मल, जिला- मुजफ्फरपुर– 843130 (बिहार)

मोबाईल – 9425823033; ईमेल – brakesh1110@gmail.com

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