साबिर सुल्तानगंज पहुँचा.
अमीना ने बहुत समझा-बुझाकर उसे भेजा था. वह सैकड़ों बार इस मोहल्ले में आया होगा. बकरों की खाल ख़रीदने के लिए वह पटना की सड़कों और गलियों में कई सालों से भटकता रहा है, पर उसके मन में कभी यह ख़्याल नहीं आया कि वह अपनी ननिहाल जाए या अपने बचपन के दोस्तों को खोजे. इन सबसे ग़ाफ़िल ही वह जीता रहा….वह सुल्तानगंज थाना के सामने खड़ा था. इसी के सामने था नोमान का घर. उसके घर के बगल से ही वह गली निकली हुई थी, जिसमें कहीं उसका घर था. सब कुछ कितना बदल गया है! नोमान का घर तो पहचान में ही नहीं आ रहा है हालाँकि इस घर की यादें साबिर के पास बची हुई थीं. अपना घर तो वह ढूँढ़ ही नहीं सकता. गली के भीतर एक भी खपरैल मकान नहीं बचा है. साबिर ने सोचा कि वह उस घर को ढूँढ़ कर भी क्या करेगा! किराए का मकान था. अपना होता तो…! अपना तो सपना ही है.
साबिर ने जब पूछताछ की तो उसे पता चला कि नोमान का परिवार मकान बेच कर अरज़ानी कॉलोनी जा चुका है. उसके अब्बू-अम्मी तो यहीं गुज़र चुके थे. फिर दोनों भाई मकान बेच कर यहाँ से निकल गए. पड़ोस के शर्मा जी ने मकान ख़रीद लिया है. बड़ी-बड़ी मूँछों वाले शर्मा जी की हल्की-सी याद है उसे क्योंकि उनकी मूँछों के चलते वह उनसे बहुत डरता था….लोगों ने बताया कि नोमान अब बहुत बड़े आदमी हो गए हैं. बहुत पैसे कमाते हैं. अमरीका में रहते हैं….साबिर पहले तो बहुत ख़ुश हुआ कि उसके बचपन का दोस्त बड़ा आदमी बन गया,… बहुत अमीर हो गया, पर फिर उदास भी हो गया कि अब वह नोमान से मिल नहीं पाएगा. कहाँ अमरीका और कहाँ पीरमुहानी की चौथी गली!
उसने नूर मंज़िल का पता पूछा. उसे नूर मंज़िल की बिलकुल याद नहीं थी. एक ही मोहल्ले में रहते हुए नूर मंज़िल से वह अनजान था. सुल्तानगंज थाना के पास से कुछ दूर आगे बढ़ने के बाद दायीं ओर एक गली मुड़ती थी. इस गली के मुहाने पर दोनों तरफ़ और सामने भी होटलों का क़तारें थीं. रमज़ान के दिनों में इधर से गुज़रते हुए वह कई बार इन होटलों से कीमा के पराँठे और कबाब पैक करवा कर ले जा चुका है. इसी गली में नूर मंज़िल थी.
यह गली आगे जाकर दो हिस्सों में बँट गई थी. दो सँकरी गलियाँ इससे निकलतीं थीं. एक दायीं ओर मुड़ती और दूसरी बायीं ओर. ठीक इसी जगह नूर मंज़िल की दोतल्ला इमारत खड़ी थी. पुराने ढब की इमारत. बड़ा-सा फाटक. नीचे लम्बा बरामदा. दोनों ओर गोल कमरे. ऊपर भी छत वाला बारजा. फाटक बन्द था.
साबिर बन्द फाटक के सामने खड़ा टोह ले रहा था कि कैसे भीतर जाए! किसको आवाज़ दे या किससे पूछे! अचानक उसकी नज़र फाटक के बगल में लगे बिजली के स्विच पर पड़ी और उसे कोफ़्त हुई. उसने अपने-आप को मन ही मन कोसा कि कैसा बागड़-बौरहा है वह कि तबसे उजबक की तरह खड़ा किसी के आने या दिखने की बाट जोह रहा है! साबिर ने संकोच के साथ घंटी का स्विच दबा दिया. भीतर एक अजाना भय था और उसके पैरों में कँपकँपी हो रही थी….एक बार उसके मन में आया कि लौट जाए वह! लौटने के लिए सोचना शुरू ही किया था कि फाटक खुला और एक अधेड़ औरत निकली. पूछा, “का बात है?”
“शहनाई वाले फहीम साहेब का यही घर है?” जवाब में सवाल किया साबिर ने.
“हूँ….यही है. मिलना है का?”
“हाँ. मिलना है.” साबिर का मन अब भी थिर नहीं था. भीतर-ही-भीतर कोई तूफ़ान गुज़र रहा था.
“नाम?”
“साबिर. पहिले से जान-पहचान नहीं है….पीरमुहानी से आए हैं.” वह अब फाटक के भीतर था.
उस औरत ने बैठने के लिए इशारा किया और भीतर चली गई. बरामदे में बेंत की पुरानी कुर्सियाँ थीं. बीच में बेंत की ही एक छोटी-सी मेज़ थी, जिस पर शीशा लगा हुआ था. शीशा घिस-घिस कर बदरंग हो चुका था. दोनों तरफ़ के गोल कमरों के दरवाज़े बन्द थे. भीतर जाने के लिए बरामदे के बीच में एक बड़ा दरवाज़ा था. दरवाज़ों के पल्लों का रंग-रोग़न भी पुराना पड़ चुका था. दीवारों के रंग भी धूमिल हो चुके थे. कहीं-कहीं तो रंग झड़ कर चकत्ते उभर आए थे. फाटक और बरामदे के बीच की ख़ाली ज़मीन पर बेतरतीब ढंग से दूब उग आई थी. बरामदे से फाटक तक जाने-आने के चलते एक पतली लकीर-सी पगडंडी बन गई थी. साबिर ने सिर ऊपर उठा कर छत की ओर देखा. लकड़ी की कड़ियों और शहतीरों पर छत टिकी हुई थी. वह सोचने लगा कि जब बच्ची रही होंगी उसकी अम्मा मदीहा बानो तो इसी सहन में खेलती होंगी. इसी बरामदे में उनकी गुड़ियों की बारात आती होगी. यहीं….
“भीतर बुला रहे हैं.” बरामदे का उठँगा हुआ पल्ला खोले वही औरत खड़ी थी और साबिर को भीतर बुला रही थी.
सबिर उठा. पाँव अभी भी साथ नहीं दे रहे थे. तेज़ धड़कता हुआ कलेजा बार-बार उसके वश से बाहर चला जा रहा था. वह भीतर घुसा. बरामदे जितना ही लम्बा-चौड़ा बैठकख़ाना था. इसके पहले साबिर कभी ऐसे किसी कमरे में नहीं घुसा था. उसे बैठते हुए सिहरन हो रही थी. इस बड़े से बैठकख़ाने में बेंत का सोफ़ा था. कुछ और कुर्सियाँ थीं. सोफे और कुर्सियों पर रंग-बिरंगी कढ़ाई वाले कुशन थे. नीचे गलीचा बिछा हुआ था. कमरे में चारों ओर तस्वीरें टँगी थीं. अधिकतर तस्वीरें पुराने ज़माने की लग रही थीं.
साबिर तस्वीरों के पास जाकर निहारना चाहता था. चाहता था कि उसमें अपने अब्बू को पहचान ले. शहनाई बजाते लोगों की इन तस्वीरों में उसके अब्बू तो होंगे ही. यह साबिर के सपनों का दुर्लभ ख़ज़ाना था, जिसमें शामिल होने की उसकी चाहत मटियामेट हो चुकी थी. एक तस्वीर पर उसकी नज़र टिकी ही थी और वह अपने अब्बू को पहचानने की कोशिश में था कि भीतर से किसी के आने की आहट हुई. सफ़ेद कुर्ता और तहमद में भारी-भरकम देह वाले फ़हीमबख़्श ने कमरे में प्रवेश किया. उनके आने के साथ-साथ इत्र की ख़ुशबू का एक झोंका लहराया और पूरे कमरे में फैल गया. साबिर ने अदब के साथ सलाम किया. फ़हीमबख़्श ने उसे जवाब दिया और एक नज़र देखा. सोफा पर बैठते हुए उन्होंने साबिर को बैठने लिए इशारा किया और पूछा, “क्या नाम है आपका?”
“जी…, साबिर. पीरमुहानी से आए हैं.” साबिर ने कहा. वह खड़ा रहा.
“बैठिए तो…. कहिए? कैसे आना हुआ?”
“जी, हम मदीहा बानो के बेटा हैं.” बिना लाग-लपेट के साबिर ने अपना परिचय दिया.
फ़हीमबख़्श को पहले तो अपने कानों पर भरोसा ही नहीं हुआ. वह ज़माने बाद यह नाम सुन रहे थे. कभी जो नाम इस घर के भीतर ख़शबू की तरह महमह करते रहता था, वह सालों पहले ग़ायब हो चुका था. अचानक यह नाम सुन कर वह अपने सामने खड़े नौजवान को निहारते रहे. उसे सरापा घूरते रहे. वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या बोलें और करें क्या! उनकी आँखों के सामने एक ही सूरत की कई छवियाँ लहरा उठीं. उनके कानों में आवाज़ें भरने लगीं. इस घर की दीवारों से टकराती और उनके भीतर उतरती इन आवाज़ों ने उनके वजूद को पलक झपकते हिला कर रख दिया. फ़हीमबख़्श ने धीमी,…लगभग थरथराती हुई आवाज़ में कहा, “बैठो.”
साबिर थोड़ी दूर रखी एक कुर्सी की ओर बैठने के लिए बढ़ा. इसके पहले कि वह वहाँ पहुँचे और बैठे, फ़हीमबख़्श बोले, “उधर नहीं….इधर आओ. मेरे पास बैठो.”
उनके पास आकर सोफे पर बैठा साबिर.
“कहाँ रहते हो?”
“पीरमुहानी में.”
“करते क्या हो?”
“कुछ खास नहीं…. खाल…” बोलते-बोलते रुक गया साबिर.
“कुछ तो करते होगे?”
“एक जगह काम में लगे थे. बकरे की खाल का धंधा था उनका….पर वहाँ काम छोड़ दिया. अब अपना धंधा शुरू करना है. जल्दी ही शुरू करेंगे.” साबिर ने अपनी हिचकिचाहट तोड़ दी और साफ़गोई से बात कही.
“बिलकीस कहाँ है?”
“पता नहीं. कुछ साल हुए अचानक घर छोड़ कर चली गईं….आप उन्हें जानते हैं?”
“इसी घर में उसकी भी परवरिश हुई. हमारे ख़वास मोहम्मद जान की बेटी थी.”
कुछ देर के लिए चुप्पी तन गई. फ़हीमबख़्श कुछ सोचते-विचारते रहे. उनके चेहरे पर स्मृतियों के विवर उभर आए थे, जिनसे तरह-तरह के भाव निकल रहे थे. साबिर की समझ से सब कुछ बाहर था. उसके लिए यह क़यास लगाना कठिन था कि उनके भीतर क्या चल रहा है! साबिर अब लगभग सहज हो चुका. अपना सच बता कर उसे बहुत इत्मीनान हुआ था. वह सोच रहा था कि अम्मा की तस्वीर माँग कर रुख़सत हो ले कि फ़हीमबख़्श ने आवज़ दी, “रुक्न बी!”
वही औरत बाहर निकली. उसने अपनी आँखें मिचमिचाते हुए दोनों को देखा. बोली, “जी.”
“नाश्ता-शरबत तो लाओ. इतनी देर लगाती हो….और सबको भेजो यहाँ.” फ़हीमबख़्श की आवाज़ में थकन थी.
“किनको-किनको भेजें?”
“कहा तो कि सबको भेजो. कहो कि एक पुराने रिश्तेदार आए हैं.”
“छोटे भाईजान तो हैं नहीं. कहीं बाहर निकले हैं.”
“जो हैं, उनको तो भेजो.” रुक्न बी को समझाते हुए फ़हीमबख़्श खीझ उठे थे.
रुक्न बी भीतर गई. साबिर और फ़हीमबख़्श चुप बैठे रहे. पहले नाश्ता आया. चने की घुघनी, सेव-दालमोठ और शाही टुकड़े के साथ शरबत का गिलास. पीछे- पीछे फ़हीमबख़्श की बीवी आईं और आकर उनके पास बैठ गईं. उनके बैठते ही दो औरतें कमरे में दाख़िल हुईं. एक फ़हीमबख़्श के छोटे भाई की बीवी थीं, जो दरवाज़े के पल्लों से लग कर खड़ी रहीं. दूसरी मदीहा बानो की बड़ी बहन थीं फ़रहत बानो. फ़रहत बानो बगल वाले सोफे पर बैठीं. उजड़ा हुआ अजीब-सा चेहरा था उनका. उदासी और ख़फ़गी दोनों का मिला-जुला बदरंग चेहरे पर छाया हुआ था. साबिर ने तीनों को बारी-बारी से सलाम किया. घर की तीनों औरतें और रुक्न बी अचानक नमूदार हुए इस मेहमान के बारे में जानने के लिए उत्सुक थीं. फ़हीमबख़्श ने कहा, “ये मदीहा के बेटे हैं. क्या नाम बताया बाबू तुमने?”
“साबिर!”
तीनों औरतें चौंक उठीं. तीनों ने एक-दूसरे को देखा. रुक्न बी मदीहा बानो के इस घर से रुख़सत होने के बाद आई थीं, पर उन्हें भी सारा किस्सा मालूम था. वह नौकरानी थीं, सो किसी के आने-जाने से उनकी ज़िन्दगी पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला था. असल हैरानी घर की तीनों औरतों के लिए थी. इतने सालों बाद, जबकि इस घर के लोग मदीहा बानो को लगभग भूल चुके थे, साबिर का यूँ अचानक प्रकट होना उन्हें चकित और चिन्तित कर रहा था. फ़हीमबख़्श ने साबिर से तीनों का परिचय करवाया. फिर अपनी बीवी से पूछा, “मुन्ने कहाँ गए हैं?”
पीछे से उनके छोटे भाई की बीवी ने कहा, “आसपास ही निकले होंगे. कोई काम तो था नहीं. लगता है बस ऐसे ही कहीं निकल गए हैं घूमने-फिरने.”
मुन्ने उनके छोटे भाई ग़ुलामबख़्श का पुकारू नाम था.
“कुछ खाया नहीं तुमने? लो,…खाओ कुछ.” फ़हीमबख़्श ने कहा.
“जी हम घर से नाश्ता करके चले हैं.”
“फिर भी, लो कुछ.”
सबिर ने बहुत सकुचाते हुए घुघनी वाली तश्तरी की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि उसकी बड़ी ममानी ने पूछा, “अचानक,…इतने सालों बाद ननिहाल की याद कैसे आ गई?…कोई ख़ास बात?”
“नहीं. कोई ख़ास बात नहीं. बहुत पहले से ही सोच रहे थे कि एक दिन जाएंगे सबसे मिलने….पर….” ठिठका साबिर.
“पर?” फिर पूछा बड़ी ममानी ने.
“पर डर लगता था कि कोई पहचानेगा भी या नहीं!” साबिर बिना किसी प्रपंच के बतिया रहा था जबकि उससे पूछे जा रहे सवालों के पेट में ढेरों आशंकाएँ थीं. साबिर ने सोचा, अब यहाँ से निकलना चाहिए. अम्मा का घर देख लिया. मामू और ममानियों से मिल लिया….पर एक चीज़ चाहिए उसे, पर माँगना ठीक रहेगा या नहीं! वह दुविधा में था, पर भीतर से उस चीज़ के लिए ऐसी बेचैनी थी कि वह अपने को रोक नहीं सका और बोल उठा, “कुछ माँगने आए थे.”
संकोच से भरे सबिर का यह कथन नूर मंज़िल की दीवारों से टकराया और किसी विशाल घंटे की तरह टन्न से बजा. सीलन भरी दीवारें अचानक किसी कठोर घातु में बदल गईं. फ़हीमबख़्श को झटका ज़रूर लगा, पर वह स्थिर थे. साबिर की दोनों ममानियाँ और ख़ाला को इस आवाज़ ने हिला कर रख दिया. उनके भीतर जो शको-शुबहा रेंग रहा था, वह फन निकाल कर खड़ा हो गया. बड़ी ममानी ने पूछा, “क्या माँगने आए हो?”
इसके पहले कि जवाब दे साबिर उसकी खाला ने, जो अब तक मौन थीं, सवाल दाग दिया, “अपनी अम्मा का हिस्सा चाहिए?”
“नहीं!” साबिर के नकार में घन की चोट थी.
“तो फिर क्या चाहिए?” इस बार छोटी ममानी ने पूछा था.
“एक तस्वीर चाहिए अम्मा की….हमने उनको देखा तक नहीं है.” साबिर ने अपनी माँग रख कर चारों ओर देखा.
आग की एक लपट जो थोड़ी देर पहले कमरे में नाच रही थी, उसकी आँच सिरा चुकी थी. संशय के जो प्रेत नाच रहे थे उनके पाँव ठिठक गए. साबिर की पवित्र लालसा का नूर जादू की तरह कमरे में छा गया. उसके निर्भय, निस्संग, अनावृत्त आत्मा की धवलता के रसायन ने कमरे में उपस्थित लोगों की आत्माओं के रंग उजागर कर दिए थे. सबसे पहले रुक्न बी की आँखों में जल भरा और कंठ 146 दाता पीर से हिचकियाँ फूटने को आतुर हुईं. वह मुंह में आँचल ठूसती हुई कमरे से भाग गईं. फ़रहत बानो का उजाड़ चेहरा कुछ और कँटीला,…कुछ और वीरान हो गया. वह उठीं और बिना किसी की ओर देखे कमरे से बाहर हुईं. दरवाज़े के पल्लेसे लगी छोटी ममानी सामने आईं. मेज़ पर रखे नाश्ते के सामान में से शाही टुकड़ा वाली तश्तरी उठा कर साबिर के आगे करते हुए बोलीं, “पहली बार नाना-मामा के घर आने पर बिना मीठा खाए नहीं लौटते….लो खाओ.”
साबिर ने तश्तरी ले ली. खाने लगा. बड़ी ममानी उठीं और छोटी को अपने साथ आने के लिए इशारा किया. फ़हीमबख़्श चुपचाप सब देख रहे थे. उनकी आँखों के सामने मदीहा और अलीबख़्श के चेहरों की झलक उभरती और मिटती. साबिर ने शाही टुकड़ा ख़त्म किया. फ़हीमबख़्श उठे. भीतर जाते हुए बोले, “बैठो तस्वीर लेकर आते हैं.”
कमरे में अकेले बैठा साबिर चारों ओर टँगी तस्वीरों को निहार रहा था. सोच रहा था कि वापस जाकर जब अमीना को बताएगा यहाँ के बारे में तो वह क्या कहेगी! फजलू को बताने से कोई फ़ायदा नहीं. उसकी ज़िन्दगी सिर्फ़ मैयत, क़ब्र, दारू और चिलम की बातों में उलझ कर रह गई है. रसीदन ख़ाला को अच्छा लगेगा यह जान कर कि वह अपने ननिहाल हो आया. बिलकीस ख़ाला से वह अक्सर कहा करती थी कि मुझे साथ लेकर एक बार मेरे ननिहाल हो आए, पर ख़ाला कभी लेकर नहीं गईं. वह डरती रहीं मेरे मामुओं और मेरी अपनी फ़रहत ख़ाला से.
फ़हीमबख़्श अन्दर आए. उनके हाथ में एक लिफ़ाफ़ा था. उनके पीछे-पीछे दोनों ममानियाँ थीं. साबिर को लिफ़ाफ़ा देते हुए उन्होंने कहा, “इसमें दो तस्वीरें हैं. एक तुम्हारी अम्मा की और दूसरी में तुम्हारे अब्बू शहनाई बजा रहे हैं….पर तस्वीरें घर ले जाकर देखना.”
बड़ी ममानी के हाथ में एक पॉलिथिन बैग था. उसके बिलकुल पास आकर पूछा उन्होंने, “ब्याह हुआ है तुम्हारा?”
साबिर इस सवाल के लिए बिलकुल तैयार नहीं था. अचकचा गया वह, पर सँभलते हुए कहा, “जी…नहीं.”
“ये एक सौग़ात है तुम्हारे लिए. बीवी होती तुम्हारी तो उसके लिए भी देते, सो पूछा.”
ममानी के चेहरे संयमित मुस्कान थी. संकोच के चलते साबिर के हाथ आगे नहीं बढ़े लेने के लिए. ममानी फिर बोलीं, “ले लो बाबू. ननिहाल से ख़ाली हाथ नहीं लौटते.”
“आते रहना.” छोटी ममानी ने कहा.
“जब जी करे आ जाना…. अपना मोबाइल नम्बर दे दो.” कहते हुए बड़ी ममानी ने छोटी ममानी की तरफ़ इशारा किया कि वे नम्बर लिख लें.
सबिर ने नम्बर लिखवाया और सबको आदाब करते हुए बाहर निकला. बड़े मामू फाटक तक छोड़ने आए थे.
ननिहाल से मिली सौग़ात और अपनी अम्मा-अब्बू की तस्वीरें जैसी नायाब दौलत लिये साबिर लौटा.
गली से बाहर निकल कर ऑटो रिक्शा लिया. अम्मा-अब्बू की तस्वीरें सीने से सटाए ऑटो रिक्शा पर बैठे साबिर को अब भी भरोसा नहीं हो रहा था कि वह अपने ननिहाल से लौट रहा है. उसे यह सपने की तरह लग रहा था कि उसके पास उसके अम्मा-अब्बू की तस्वीरें हैं. उसका जी किया कि खोल कर रास्ते में ही देख ले तस्वीरों को, पर उसने अपने मन को समझाया. न जाने मामू ने वहाँ देखने से क्यों मना किया, पर वह भी चाहता था अकेले में देखे इन तस्वीरों को. भरी भीड़ में इन तस्वीरों को देखने से, देखने का सुख खो न जाए इसका डर उसके भीतर समा गया था. अब तक उसने खोया ही खोया है. अम्मा, अब्बू, बिलकीस ख़ाला और शहनाई बजाने का हुनर सीखने की चाहत—सब तो खो ही चुका है वह. इतनी उम्र बीत गई तब यह ख़ुशी मिली है. साबिर ने सोचा, जी भर के अकेले में निहार लेने के बाद वह केवल अमीना को दिखाएगा इन्हें. फिर सोचा उसने कि बाद में क्यों! अमीना के सामने तो देख ही सकता है वह! अमीना भला अब पराई कहाँ रही! उसके बिना अब किसी सुख का क्या मतलब!
(दो)
साबिर गाँधी मैदान के मुहाने पर ऑटो रिक्शा से उतरा और उसने दलदली गली की राह पकड़ ली. वह दलदली गली में पिसते मसालों की तीखी गंध से बेपरवाह एक हाथ में पॉलिथिन बैग लटकाए और दूसरे हाथ से तस्वीरों वाला लिफ़ाफ़ा अपने सीने से सटाए ख़रगोश की तरह फुदकते हुए चला जा रहा था. गली पार कर वह पीरमुहानी वाली मुख्य सड़क पर पहुँचा और भोज साह की मिठाई वाली दुकान से चन्द्रकला पैक करवाया.
साबिर सीधे क़ब्रिस्तान पहुँचा. उसने अमीना को आवाज़ दी. वह निकली. उसे साथ आने का इशारा किया और दाता पीर मनिहारी के मज़ार के पास मस्जिद की पीछे वाली दीवार से सट कर बैठ गया. उसके पीछे-पीछे अमीना थी. साबिर ने कहा, “बैठो.”
“बात क्या है? बोलो तो! सुल्तानगंज गए थे तुम?”
“हाँ!…तुम हमारे पास बैठो तो पहले, सब बताते हैं.” साबिर के चेहरे से ख़ुशी और सब कुछ बता देने की बेकली छलक रही थी.
अमीना उसके पास बैठ गई.
साबिर ने लिफ़ाफ़ा खोला. दो तस्वीरें थीं. एक उसकी अम्मा की और दूसरी उसके अब्बू की. अब्बू शहनाई बजा रहे थे. दोपलिया टोपी पहने हुए थे. अब्बू की हल्की याद थी उसे. जो चेहरा यादों में धूमिल दिखता था, अब वह उसकी आँखों के सामने चमक रहा था. अम्मा को वह पहली बार देख रहा था. तस्वीर से नज़रें हटने को तैयार नहीं थीं. सफ़ेद-काली तस्वीर में वह अपनी नज़रों से रंग भर रहा था. सलवार-सूट में थीं अम्मा. रिबन बँधी दो चोटियाँ आगे झूल रही थीं. भोला-भाला चेहरा. होंठों पर हँसी. काजल की रेखा वाली बड़ी-बड़ी आँखों में ढेर सारा प्यार. साबिर की छाती में एक आँधी उठी और भँवर बन कर भीतर ही भीतर उमड़ती रही. उसकी आँखें पहले नमनाक हुईं, फिर बरसने लगीं धारासार. हिचकियाँ बँध गईं. उसका काँधा झुक कर अमीना के काँधे से जा लगा. अमीना ने हौले से उसके काँधे को नीचे सरकाया और उसका सिर अपनी गोद में रख लिया. दुपट्टे के छोर से उसकी आँखें पोंछती रही. उसके बालों में अपनी उँगलियाँ फिराती रही. थोड़ा-सा नीचे झुकी अमीना और उसने अपने होंठों से साबिर के ललाट को छू लिया….क़ब्रिस्तान के दक्खिनी-पच्छिमी छोर पर खड़े शिहोर के पेड़ों पर कोई कोयल कूकी. यह इस साल के वसन्त में किसी कोयल की पहली कूक थी.
वसन्त आ चुका था.
वसन्त साबिर के दरवाज़े पर खड़ा था और पुकार रहा था. अमीना के सघन केश वसन्त के स्वागत में खुल कर लहरा रहे थे. दोनों की आँखें मुँद गई थीं. साबिर की हिचकियाँ टूट कर धीमी हो चुकी थीं. देखते-देखते क़ब्रिस्तान का नज़ारा बदल गया था. सारी क़ब्रें वृक्षों में बदल गई थीं. क़ब्रिस्तान एक हरा-भरा जंगल बन गया था. वह कोयल लगातार कूक रही थी. पुंकेसर बन गया था उसका कंठ और उसकी कूक से पराग झर रहे थे. क़ब्रिस्तान की भूमि पर पसरी दूब और जंगली लताओं पर बहुरंगी फूल खिल उठे थे. इन फूलों के कुक्षिनाल आकाश की ओर मुँह उठाए झूम रहे थे.
सूरज बीच आकाश में था और धूप खिली हुई थी. दाता पीर मनिहारी की रहमतों की छाँह में इस समय पृथ्वी पर हवा, प्रकाश, वसन्त, मेघ, जल, अग्नि; सब के सब अपने यौवन के उठान पर थे. अमीना की गोद में नन्हेशिशु-सा दुबका हुआ था साबिर.
मस्जिद की मीनार पर बँधे लाउडस्पीकर से अज़ान की आवाज़ गूँजी—‘अल्लाह हो अकबर-अल्लाह हो अकबर…अशहदोल्लाह…’. ज़ुह्र1 की नमाज़ का वक़्त हो चला था. अमीना ने हौले से साबिर को अपनी गोद से निकाला. साबिर ने उसे देखा. निहारता रहा कुछ देर. दोनों उठे. दाता पीर मनिहारी के मज़ार की ओर देखा और पल भर के लिए आँखें बन्द कर उनका शुक्रिया अदा किया. वहाँ से चले दोनों. अमीना की नज़र पॉलिथिन बैग पर गई. पूछा उसने, “बैग में का लाए हो?”
“पता नहीं ममानी ने दिया है. देखो और अपने पास ही रखना.”
“इसमें तो कपड़े हैं तुम्हारे लिए.”
“बहुत अच्छे लोग हैं. सारा क़िस्सा बाद में सुनावेंगे….और ये पकड़ो. इसमें चन्द्रकला है.” सब कुछ अमीना को देकर, तस्वीरें अपने साथ लिये निकल गया साबिर.
“हाय अल्लाह! चाय के लिए चूल्हे पर पानी…” बोलती हुई तेज़ पाँवों से आँगन की ओर भागी अमीना. प्रवासी पंछियों के जाने के बाद घरेलू पंछियों की वापसी से क़ब्रिस्तान के पेड़ों पर इन दिनों हलचल मची हुई थी. ज़ुह्र की नमाज़ के लिए नमाज़ियों का आना शुरू हो चुका था.
(तीन)
नूर मंज़िल में हलचल मची हुई थी.
मुन्ने उर्फ़ ग़ुलामबख़्श जब बाहर से लौटे और साबिर के आने का क़िस्सा सुना, तो हैरत में पड़ गए. वह समझ नहीं पा रहे थे कि अचानक इतने सालों बाद मदीहा के बेटे को क्या पड़ी थी कि वह आ पहुँचा! तस्वीर के बहाने उनके परिवार के साथ यह किसी धोखाधड़ी की शुरुआत तो नहीं! कहीं ख़वास की बेटी बिलकीस बानो तो कोई चाल नहीं चल रही! अपनी बीवी सहित अपने भाई-भौजाई की कमअक़्ली पर पहले तो उन्हें कोफ़्त हुई, पर बाद में उन्होंने सोचा कि हो सकता है अल्लाह ताला ने उन दोनों भाइयों पर रहम किया हो. अपनी बहन को जिस तरह दर-बदर भटकने के लिए उन लोगों ने छोड़ दिया और ग़ुरबत में जीने के लिए मजबूर किया, वह कहीं से इंसानियत नहीं थी. पाक परवरदिगार की नज़रों से कुछ भी छिपा नहीं होता. इसी नाइंसाफ़ी के चलते वे लोग आज एक ऐसी सियाहबख़्ती को बतौरे-सज़ा भुगत रहे हैं, जिससे आज़ाद हो पाना उनकी क़िस्मत में नहीं…. बड़ी बहन का ब्याह ही नहीं हुआ. ऐसी नकचढ़ी रहीं कि अब्बा के ज़माने में जब-जब रिश्ता आया नकारती गईं. अब्बा के जाने के बाद भी रवैया नहीं बदला और देखते-देखते उम्र हाथ से फिसल गई. दोनों भाई एक औलाद के लिए तरसते हुए अब बूढ़े हो चले. बड़े भाई ने तो दूसरा ब्याह भी किया, पर औरत ऐसी बला साथ लिये आई कि सारे घर की फ़िज़ा ही बदल गई. एक देह में हज़ार मरज़. दिन-रात डॉक्टर-हकीम के चक्कर लगाते गुज़रते. वह भला औलाद क्या जनती, उसको तो ख़ुद ही जान के लाले पड़े हुए थे. तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी दूसरी भाभी एक दिन चल दीं. फ़हीमबख़्श ने इसके बाद ब्याह रचाने से तौबा कर ली. आज भी कोई ऐसा दिन नहीं गुज़रता कि इस ब्याह के लिए उनके भाई को भाभी के तंज़ न सुनने पड़ते हों. ग़ुलामबख़्श को एक बेटी दी अल्लाह ने, पर वह जच्चाख़ाने में ही चल बसी. फिर कभी नसीब के दरवाज़े नहीं खुले. बेटी देने के बाद शायद सोचा हो परवरदिगार ने कि इस क़साई को बेटी देकर क्या होगा! बहन की तरह उसकी ज़िन्दगी भी नेस्तनाबूद कर देगा. लाख कहा ज़माने ने पर उन्होंने दूसरा ब्याह नहीं किया. वे अपनी बेगम से बेइन्तहा मुहब्बत करते हैं. लोग जब ज़्यादा तंग करते, वे कहते—“पहले से ही दो-दो शादियाँ हैं….एक शहनाई से और दूसरी औरत से. तीसरी मुझसे पार नहीं लगने वाली. अल्लाह करें कि शहनाई में फूँक मारते दम निकले.”…और हँस देते.
रात में दस्तरख़ान से उठने के बाद दोनों भाई राय-मशवरा के लिए बैठे. दोनों की बीवियाँ भी थीं. दोनों भाई साठ पार कर चुके थे. बड़े फ़हीमबख़्श अपनी भारी देह के चलते लाचार होते जा रहे थे. शुगर और ब्लड प्रेशर की बीमारी के साथ-साथ घुटनों के दर्दसे बेहाल रहते. अब शहनाई में फूँक मारते हुए साँस की लय कभी-कभी टूटने लगती. उनका नाम था, सो उनके बिना मंच पर बैठे काम नहीं चलता था, हालाँकि इन दिनों अकेले अपने बूते डेढ़-दो घंटे का कार्यक्रम कर पाना मुश्किल हो चला था. साथ बैठे ग़ुलामबख़्श की फूँक के सहारे ही सब कुछ चल रहा था. वह अब केवल महीन काम करते और बाक़ी ग़ुलामबख़्श सँभालते. उनके अब्बा हुज़ूर मरहूम नूरबख़्श की दुआओं का असर और अल्लाह का रहमो- करम था कि मौसीक़ी की दुनिया में अब भी साख और पूछ दोनों बरक़रार थी. इस शहर में तो उनकी बराबरी का कोई नहीं था. आमदनी में कोई कमी नहीं आई थी. बिना माँगे इतना मिल जाता कि ठाठ से ज़िन्दगी चल रही थी….बस अल्लाह ने एक ही फ़िक्र दे रखी थी कि धीरे-धीरे जब और उम्र बढ़ेगी और देह लाचार होगी, कौन देखभाल करेगा! रुक्न बी या किसी दीगर नौकर-चाकर के भरोसे तो ज़िन्दगी कटने से रही. कौन सँभालेगा इस ढलती हुई उम्र में? यह सवाल परेशान किए रहता था. रिश्तेदारियों में दूर-दूर तक कोई ऐसा नहीं था, जिस पर भरोसा किया जा सके….साबिर का आना किसी चिराग़ के लौ की तरह उम्मीद के रूप में उनके सामने रोशन हो रहा था. हालाँकि चारों को शुबहा था कि अगर ऐसा हो तो बड़ी बहन फ़रहत बानो इसे आसानी से पचा पाएँगी?
साबिर के जाते ही उन्होंने अपना रंग-ढंग दिखाना शुरू कर दिया था. न जाने मदीहा से कौन-सा वैर-भाव था इन्हें कि आज तक नहीं भूल सकीं. उस समय भी यही थीं सारे फ़साने के बीच. सारा फ़साद इनकी देखरेख में ही हुआ. इन्होंने ही दोनों भाइयों के दिलो-दिमाग़ में नफ़रत भर दी थी. हालाँकि बच्चे नहीं थे दोनों, पर कान का ज़हर बहुत ख़तरनाक़ होता है. दोनों भाइयों और उनकी बीवियों को लग रहा था कि यही वक़्त है जब पिछली ग़लती को सुधार कर नई शुरुआत की जाए.
फ़हीमबख़्श ने कहा, “मुन्ने, तुम एक दिन पीरमुहानी जाओ. पता करो कि बिलकीस कहाँ रहती थी? क्या इसी लड़के को ही यहाँ से साथ लेकर गई थी? लड़के के बारे में पता करो. इसके चाल-चलन के बारे में पता करो….आँख मूँद कर तो भरोसा नहीं किया जा सकता….सब्ज़ीबाग़ में एक बुज़ुर्ग मिर्ज़ा तौफ़ीक़ रहते हैं. रहमानिया होटल के सामने उनकी किताबों और रिसालों की दुकान है. मेरे मिलने-जुलने वाले रहे हैं. पहले वे पीरमुहानी में ही रहते थे. उनसे मिल लो. हो सकता है वे कुछ जानते हों!”
इसके पहले कि ग़ुलामबख़्श कुछ बोलें, उनकी बीवी ने कहा, “मोबाइल नम्बर दे गया है. जब सब कुछ ठीक-ठाक लगे तो उसे फ़ोन करके मिल भी लेंगे एक बार. आप मिले भी नहीं हैं. कई बार देखने से भी बहुत कुछ अन्दाज़ा लग जाता है….कहाँ रहता है? कैसे रहता है?”
“ठीक है….पता करते हैं. कुछ मेरे जानने वाले लोग भी हैं उस मोहल्ले में…. पर अभी यह बात कम से कम लोगों को मालूम हो, तो ज़्यादा बेहतर होगा.” ग़ुलामबख़्श बोले.
“अगर सबका मन चाह पीने को हो, तो हम भी पी लेंगे.” अपने ख़ास अन्दाज़ के साथ रुक्न बी थीं. इस घर के बाबर्चीख़ाने पर उनकी हुकूमत चलती थी.
“रुक्न बी, तुमको वो लड़का कैसा लगा, जो दिन में आया था?” ग़ुलामबख़्श ने पूछा.
“अल्लाह कसम, बड़ा प्यारा था. एकदम सच्चा-सुच्चा लग रहा था.” रुक्न बी बोलीं. सबको देखा. पूछा, “चाह?”
“बनाओ. तुम्हारे चलते हम लोग भी पी लेंगे.” ग़ुलामबख़्श ने मुसकुराते हुए कहा.
रुक्न बी रुख़सत हुईं.
(चार)
ग़ुलामबख़्श ने सबसे पहले अपने बड़े भाई के दोस्त सब्ज़ीबाग़ में मिर्ज़ा तौफ़ीक़ से सम्पर्क किया. साबिर के बारे में उनकी राय ठीक-ठाक थी. उन्होंने कहा, “बहुत दिन 153 दाता पीर हो गए पीरमुहानी छोड़े, पर मैं उस लड़के को जानता हूँ. वह अपनी ख़ाला के साथ रहता था….एक औरत थी, उसका नाम याद नहीं मुझे,…पर वही उसे साथ लेकर किसी दूसरे मोहल्ले से आई थी. ग़ुरबत की ज़िन्दगी रही है. वहाँ एक सत्तार मियाँ रहते हैं. बकरे की खाल का धंधा करते हैं. क़ब्रिस्तान में ही एक कोने में गोदाम बना रखा है. उन्हीं के साथ काम करता था….अब पता नहीं क्या करता है. सत्तार मियाँ तो अक्सर सब्ज़ीबाग़ में दिख जाते हैं. दुआ-सलाम होता है. अब मुलाक़ात हुई तो पूछूँगा उनसे….पर बात क्या है? क्या हुआ कि तहक़ीक़ात कर रहे हो?”
“भाई जान ने कहा था आपसे पता करने के लिए. मामला क्या है, वही जानते हैं. मुझे कुछ बताया नहीं.” ग़ुलामबख़्श कन्नी काट गए.
अपने जानने वाले दीगर लोगों से भी जानकारियाँ लेने के दो-चार दिनों बाद वह पीरमुहानी पहुँचे. पहुँचने से पहले उन्होंने साबिर के मोबाइल पर फ़ोन किया. साबिर ने बहुत अदब के साथ बात की. ग़ुलामबख़्श पीरमुहानी पहुँचे. पता चला, साबिर क़ब्रिस्तान के आसपास ही मिलेगा.
साबिर राधे की चाय दुकान पर बैठा चाय पी रहा था कि रसीदन ने उसे आवाज़ दी और कहा कि तुमको कोई खोज रहे हैं. वह हाथ में चाय का गिलास लिये क़ब्रिस्तान के फाटक पर पहुँचा. ग़ुलामबख़्श वहीं खड़े थे. वह बिना बताए पहचान गया कि उसके छोटे मामू ही हैं. बड़े मामू से मिलता-जुलता चेहरा था. देह ज़रूर उनकी तरह भारी नहीं थी. उसने आदाब किया और चाय के लिए पूछा. ग़ुलामबख़्श को अटपटा लग रहा था, पर उन्होंने चाय पीने के लिए हामी भरी और उसके साथ जाकर राधे की दुकान पर चाय पी. पूछा, “रहते कहाँ हो?”
“यहीं. पास ही में….चौथी गली में एक कमरा किराए का है. ख़ाला के टाइम से ही है.” साबिर ने कहा.
“चलो, चलते हैं तुम्हारे कमरे में.”
“जी….” सकुचाते हुए साबिर ने कहा, “चलिए.”
दोनों उठे. राधे अपने काम में लगा था, पर उसके कान साबिर और मिलने आए इस मेहमान की बातों को टेर रहे थे. उसने कहा, “साबिर भाई, और चाह की जरूरत हो तो मोबाइल से मिस कॉल मार देना. डेरा में भेज देंगे.”
साबिर ने राधे की ओर देखा और मुसकुराने की कोशिश की. राधे की इसी अदा पर वह फ़िदा रहता था. वह संकोच में डूबा जा रहा था कि कोठरी में तो बैठने के लिए एक कुर्सी तक नहीं. चारों तरफ़ बेतरतीबी से सब कुछ पड़ा होगा. सही वक़्त पर राधे काम आता है. उसने मामू से नज़र बचा कर राधे को इशारा किया कि वह एक कुर्सी या बेंच भिजवा दे.
अपने मामू को साथ लिये साबिर सीढ़ियाँ चढ़ रहा था कि मकान मालकिन बुढ़िया दादी ने आवाज़ दी, “कौन है रे?”
“हम हैं दादी, साबिर.” “किसको लेकर आया है?” साबिर की एक-एक हरकत पर निगाह रखती थी बुढ़िया.
“मामू हैं दादी.”
“तेरे मामू कहँवा से पैदा हो गए रे?” बुढ़िया दादी आज पीछे ही पड़ गई थी.
“मेरे अपने मामू. सुल्तानगंज से आए हैं.” साबिर ने जवाब दिया.
बुढ़िया दादी को भरोसा नहीं हो रहा था. वह पीछे लग गई. हुचकती हुई सीढ़ियाँ चढ़ती वह पीछे-पीछे पहुँची. बोली, “कौन मामू रे? वही, जिसने तेरी महतारी को घर से निकाल दिया था?”
किसी तीर की तरह बुढ़िया की कर्कश आवाज़ ग़ुलामबख़्श के कलेजे में घुसी और उन्हें घायल कर गई. वह लहूलुहान साबिर की कोठरी में खड़े थे.
“दादी, तुम भी न…कौन जमाने की बात ले बैठी! हम बाद में बतियावेंगे तुमसे.” परेशानहाल साबिर और परेशान हो उठा था. चाहता था दादी किसी तरह टले.
“तुम का बतियावोगे बाबू? हमको सब मालूम है. बिलकीस ने सब किस्सा सुनाया है हमको….चाह बनवाते हैं तेरे मामू के लिए.” बुढ़िया पीछे मुड़ कर जाने लगी.
“छोड़ दे दादी. राधे भाई को बोल दिए हैं. भेजेगा.” साबिर ने मना किया और बड़बड़ करती बुड़िया दादी नीचे उतरी.
इस बीच राधे का आदमी लोहे की एक फोल्डिंग कुर्सी और काठ का एक स्टूल रख गया.
ग़ुलामबख़्श कुर्सी पर बैठे और उनके सामने साबिर स्टूल पर बैठा. बुढ़िया मकान मालकिन ने कोठरी में घुसते ही जो तीर मारा था, उसकी पीड़ा से तिलमिला उठे थे वह….पर यह सोच कर कि बिना पता किए ही साबिर की सचाई की बुढ़िया ने तसदीक़ कर दी, उनकी पीड़ा कुछ कम हुई.
साबिर की कोठरी में बहुत देर तक बैठे रहे ग़ुलामबख़्श. साबिर से बतियाते रहे. बचपन से लेकर अब तक की कहानी सुनाता रहा साबिर और वह सुनते रहे. बीच-बीच में कभी-कभार कुछ पूछते और साबिर अपने बारे में बताता. साबिर ने कुछ भी नहीं छिपाया सिवा इसके कि वह अमीना से मुहब्बत करता है. बीच में राधे ख़ुद चाय लेकर आया. साथ में बिस्किट भी थे. वह इस बहाने देखने आया था कि सब ठीक तो है. इशारों में उसने जानना चाहा कि कुछ और चाहिए, पर साबिर ने इशारों में ही मना किया.
साबिर की ज़िन्दगी की आधी-अधूरी दास्तान सुनते हुए ग़ुलामबख़्श नोनी लगे दीवार की तरह भसकते रहे. कभी कलेजा मुँह को आता, तो कभी आँखें नमनाक होतीं. भीतर ही भीतर कोई चीख़ उमड़ती और उनकी नाभि से जा टकराती. उनका दम घुटने लगता. मदीहा की लपलपाती हुई छाया यादों की काई लगी ज़मीन पर बिछलती हुई दिखती. कभी उनकी आँखों के सामने सियाही छा जाती, तो कभी किसी सियाह गुफा के भीतर औचक नूर भरता और मदीहा के बचपन की सूरतें उभर कर उनकी आँखों को चौंधिया देतीं.
साबिर ने पेटी खोल कर अपने अब्बू की शहनाई निकाली और ग़ुलामबख़्श की गोद में रख दिया. उनका पूरा वजूद काँप उठा. अपनी थरथराती उँगलियों से उन्होंने शहनाई को छुआ. सहलाते रहे कुछ देर तक. फिर उसे उठा कर माथे से लगाया. चूमा और फूटफूट कर रोने लगे, जैसे बरसात की कोई पागल नदी अपनी लहरों से किनारों को तोड़ कर बह चली हो. अकथ पश्चात्ताप की पीड़ा में लिथड़ रहे थे ग़ुलामबख़्श. अलीबख़्श की शहनाई के वे सुर जो अब तक उनका पीछा कर रहे थे, उनसे लिपट कर उन्हें कसते जा रहे थे. उनके यार थे अलीबख़्श. वे वाचाल और अलीबख़्श चुप्पा. उस्ताद नूरबख़्श की अलीबख़्श पर ख़ास नज़र थी. बड़े फ़हीमबख़्श इन दोनों से आगे थे, पर उनमें और उनके दोस्त अलीबख़्श में काँटे का मुक़बला चलता. रागदारी के मामले में अलीबख़्श उन्हें हमेशा पीछे छोड़ देते. मंच पर भी दोनों पर उस्ताद की कड़ी नज़र रहती. कभी-कभी उस्ताद दोनों को खुला छोड़ देते और मज़े भी लेते. अजब समाँ बँधता. मौसीक़ी का ऐसा असर कि कुछ देर के लिए सुनने-देखने वालों की दुनिया ही बदल जाती.
अपने काँपते हाथों से शहनाई उठा कर एक फूँक मारी ग़ुलामबख़्श ने और साबिर की कोठरी में नूर भर गया, मानो सारी दुनिया की फ़िक्र छोड़ कर सूरज आ बैठा हो. हालाँकि, शहनाई बेढब ही बोली थी, पर साबिर इस नियामत को पाकर चकित था. उसकी इस बदहाल में कोठरी में उसके अब्बू की शहनाई बोली थी, उसके लिए यही बहुत था. उसने सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी दिन आएगा. उसने दीवार में बने रैक पर रखी अपने अब्बू की तस्वीर की ओर मुड़ कर देखा. उसके अब्बू मुस्कुरा रहे थे.
(पांच)
“तुम शहनाई बजाना चाहते हो?” सीढ़ियाँ उतरते हुए पूछा ग़ुलामबख़्श ने.
“चाहने से क्या होता है! ऐसा मेरा नसीब कहाँ!” साबिर ने कहा.
“सीखने की कोई उम्र नहीं होती….आदमी के भीतर जुनून हो तो जब चाहे सीख सकता है….तुम्हारे लिए तो यह और भी आसान है. ख़ून में शहनाई है. तालीम देने वाले भी हैं.” सँभल-सँभल के सीढ़ियाँ उतरते हुए उन्होंने पीछे आ रहे साबिर की ओर देखा.
“जी. सीखना चाहते हैं.” साबिर के स्वर में उत्फुल्लता थी.
“चाह पिलाया रे साबिर?” बुढ़िया दादी को उतरते पाँवों की आहट मिल गई थी.
“हाँ दादी. पिला दिया है.” साबिर ने जल्दी से जवाब दिया.
दोनों अब नीचे थे.
ग़ुलामबख़्श ने कहा, “मकान तो हिन्दू का लग रहा है.”
“जी, अब पीरमुहानी में मुसलमानों के मकान नहीं बचे हैं. सारे लोग बहुत पहले निकल चुके यहाँ से….जो इक्का-दुक्का बचे थे, वे लोग भी कब के जा चुके हैं.”
“मकान मिलने में दिक़्क़त होती होगी?”
“इसमें तो खाला के टाइम से ही हैं हम….हमको तो याद भी नहीं कि कब और कैसे इस मकान में आए थे…. दादी बहुत मानती है. बकबक करती है, पर दिल की बहुत अच्छी है….आते ही आपको भी दादी….” साबिर दादी की टिप्पणी से संकोच में था.
“कब आ रहे हो सुल्तानगंज?” ग़ुलामबख़्श ने पूछा.
“आप जब कहें.”
“जुमा के दिन आओ. दोपहर का खाना वहीं खाना.” ग़ुलामबख़्श ने साबिर को देखा. उसकी नज़रें झुकी हुई थीं.
“जी.”
“फोन करना…. नम्बर है?”
“आपने किया था, सो नम्बर तो आ ही गया है फोन में.” दोनों चलते-चलते मुख्य सड़क तक आ चुके थे.
साबिर ने रिक्शा रोक कर अपने छोटे मामू को बिठाया और दुआ-सलाम के बाद विदा किया.
साइकिल रिक्शा पर बैठे ग़ुलामबख़्श गाँधी मैदान की ओर चले जा रहे थे, जहाँ से उन्हें सुल्तानगंज के लिए ऑटो रिक्शा पकड़ना था. रिक्शा गाँधी मैदान के वलय के किनारे-किनारे चल रहा था. उन्हें एक पुरानी बन्दिश याद आई, जिसे पहले उनके मरहूम दादा ज़हूरबख़्श गाया करते थे और फिर बाद में उनके मरहूम अब्बा नूरबख़्श अपनी शहनाई पर बजाया करते थे. उन्होंने गुनगुनाना शुरू किया,
गाँठ री मैं कौन जतन कर खोलूँ,
मोरे पिया के जिया में पड़ी रे.
ऐ गुइयाँ मोरे पिया के जिया में
दैया रे मोरे पिया के जिया में पड़ी रे.
मपनि ध ममपनि ध रे नि धप…
सबके तो सैयाँ सबके संग हैं
मैं बैठी बिस घोल.
गाँठ री मैं कौन जतन कर खोलूँ.
इसी गाँधी मैदान में दशहरा के दिनों के प्रोग्राम में उनकी और अलीबख़्श की कई बार जुगलबन्दी हुई है. तब दोनों की तैयारियों के मस्ती भरे दिन थे. स्टेज पर लड़ने-भिड़ने का मज़ा ही कुछ और था. हुनरआश्ना लोगों के सामने अपने हुनर का जादू दिखाने की होड़ मची रहती थी, पर मन में ज़रा-सी भी जलन नहीं,… आपसदारी पर कोई असर नहीं. अब्बा हुज़ूर और भाईजान, दोनों को खुली छूट दे देते और मुसकुराते हुए निहारते. प्रोग्राम के बाद हरेक तान और मुरकी पर बातें होतीं…. एक बार स्टेज पर जाने से पहले ही अब्बा हुज़ूर की तबीयत बिगड़ गई. फ़हीम भाई परेशान हाल कि कैसे पार लगेगा. उस्ताद के बिना लोग सुनेंगे या नहीं, पर अलीबख़्श और उन्होंने साथ मिल कर ऐसी धूम मचाई कि लोग वाह-वाह कर उठे.
ग़ुलामबख़्श सोच रहे थे कि मदीहा और अलीबख़्श को लेकर जो गाँठ पड़ गई थी, उसे खोलने का वक़्त आ चुका है. पहले ही बहुत देर हो चुकी है, अब और नहीं…. जब तक यह गाँठ नहीं खुलेगी ज़िन्दगी सहल नहीं होगी. अल्लाह ने साबिर की सूरत में यह मौक़ा दिया है. इसे गँवाना, एक बार फिर अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा.
कभी मदीहा, कभी अलीबख़्श तो कभी साबिर की बातें और सूरतें याद करते ग़ुलामबख़्श पीरमुहानी से गाँधी मैदान और वहाँ से सुल्तानगंज पहुँचे. उन्हें लग रहा था, वह गंगा-तट से सूरज का उगना देख कर लौट रहे हों….पछतावे की आँच को सिरा आए हों गंगा के जल में और भर लाए हों अपनी अँजुरी में गंगा-जल. वह बार-बार अपनी हथेलियाँ निहारते. उनकी हथेलियाँ हरे पत्तों में बदल गई थीं और जल की बूँदों को सहेजे हुई थीं.
हृषीकेश सुलभ जन्म और आरम्भिक शिक्षा : 15 फ़रवरी 1955, सीवान जनपद के लहेजी नामक गाँव में. प्रकाशित रचनाएँ रचनाए : अग्निलीक (उपन्यास), हलंत, वसंत के हत्यारे, तूती की आवाज़, प्रतिनिधि कहानियाँ और संकलित कहानियाँ (कथा-संग्रह) , अमली, बटोही, धरती आबा (नाटक), माटीगाड़ी (संस्कृत नाटक मृच्छकटिक की पुनर्रचना), मैला आँचल(रेणु के उपन्यास का नाट्यान्तर), दालिया (रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित नाटक.),रंगमंच का जनतंत्र, रंग-अरंग (नाट्य-चिन्तन) 09973494477 |
अद्भुत भावनात्मक अनुभव से गुज़रा इसको पढ़ते हुए. मैं बयान नहीं कर सकता कि पटना और वहाँ के मुस्लिम परिवेश की ऐसी अक्कासी पढ़ कर/देख कर किस तरह नास्टैल्जिया के अहसास में डूबा रहा. इस उपन्यास को तो ज़रूर पढ़ा जाएगा. यह हमारे शहर की संवेदनाओं का दस्तावेज़ बनने वाला है.
सुलभ जी बेहतरीन किस्सागो हैं। समय की नब्ज भी खूब पकड़ते हैं। उपन्यास पढ़ना ही है।
मुस्लिम समाज के जीवन और उससे जुड़ी तमाम तरह की जटिलताओं, गाँठों,विषमताओ और उसमें स्त्रियों की सामाजिक आर्थिक हैसियत को कथा की केन्द्रीय विषयवस्तु बनाकर किसी कृति को रचना एक ऐसे लेखक के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण रचनात्मक दायित्व का काम है जो उस समाज का नहीं है पर उसे बहुत करीब से देखा और महसूस किया है। आज जबकि समाज का हर तबका आर्थिक दुश्वारियों में जी रहा है और उसका दुष्परिणाम एक घोर अमानवीय दृश्य के रूप में हमारे चारों ओर उपस्थित है-इस तरह की औपन्यासिक कृति का एक अपना मूल्य है। ऋषिकेश सुलभ जी को बधाई एवं शुभकामनाएँ !
दास्ताँ में ख़ुशी है, रुलायी है, मामाओं और भाँजे साबिर का मिलन होता है । ग़लतफ़हमियों और ख़ुशफ़हमियों के साथ कथा आगे चलती है । ज़िंदगी में भी सुख और दुख दो किनारे हैं । साबिर भारत ही क्यों दुनिया की ग़रीबी का प्रतिनिधित्व करता है । मामू को नि:संतान रहने की फ़िक्र है ।
बहुत रोचक लगा यह अंश पढ़कर। हृषीकेश जी की लेखनी का मुरीद हूं तभी से जब पहली बार जनसत्ता सबरंग में उनकी कहानी हवि पढ़ी थी। बधाई।
परिवेश का जीवंत चित्रण और मानवीय संवेदना का मार्मिक एहसास
कमाल रवानी है उपन्यास की कथा में। गजब की दृश्यात्मकता। क्या तो भाषा है। वाह। एक बार पढ़ना शुरू करो, तो फिर खत्म कर ही चैन पड़ता है। बहुत बधाई भाई। काफी पहले सुलभ जी की कहानी ‘वसंत के हत्यारे’ पढ़ी थी, तभी से उनकी लेखनी का मुरीद हो गया था।
बेहद खूबसूरत उपन्यास।ऐसा कि बहते चले जाएं।इस वर्ष की श्रेष्ठ किताबों में से एक। बधाई लेखक और समालोचन को।
बस पढता ही गया ,बीच में कोई विश्राम नहीं.
एक बार शुरू किया तो उसी में डूबता चला गया। निस्तब्ध छूटा रहा एक किनारे बहुत देर तक, आंखों में ढेरों दृश्य और जेहन में आवाजें लिए। पूरा उपन्यास पढ़ना तय है। हृषिकेश जी को उपन्यास के लिए बधाई।