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\”गिरधर राठी उन कवियों में से हैं जिन्होंने असाधारण रूप से इस निहायत ऊलजलूल मगर बेहद दिलकश दुनिया में अपनी व्यर्थता का थोड़ा-बहुत अर्थ अपनी कविता से ही पाने की कोशिश की है. उनकी कविता अगर एक ओर आत्मान्वेषण की है तो दूसरी ओर वह दुनिया की भयावहता और क्रूरता को दर्ज भी करती रही है. उसका अधिकांशतः शान्त स्वर उसकी अचूक नैतिक हिस्सेदारी के भाव के साथ हमारे बेहद बड़बोले समय में थोड़ा अलग रहा है. उन्होंने ‘जितना दिखा है/समझना उतना ही’ पर इसरार किया है क्योंकि कई गहरे अर्थों में वे एक निराकांक्षी कवि हैं. रज़ा पुस्तक माला में उनकी सम्पूर्ण कविताओं को एकत्र प्रकाशित करने में हमें प्रसन्नता है.\”
अपनी कविताओं के बारे में कुछ शब्द
ख़ुद अपनी कविता के बारे में कुछ कहना, कुछ बहुत अच्छा नहीं लगता. अब तक इस से बचता भी रहा हूँ. पर अब जब, अब तक प्रकाशित चारों संग्रह, एक साथ आ रहे हैं- ये सभी यों तो अनुपलब्ध ही थे- सबसे पहले तो यही संकोच है कि इतने सारे बरसों में फ़क़त ये चार संग्रह, सो भी बहुत मोटे नहीं…
अभ्यास हो जाने पर अधिकांश चीजें लिखना सहज-सरल हो जा सकता है. फिर भी, अगर आमादा न हों कि हर रोज़ या हफ़्तावार या हर माह लिखना ही है, और पसीने के भीतर से अन्तःप्रेरणा स्फुरित करने का संकल्प न हो, तो मेरे तईं ऐसा कभी-कभी ही होता है कि लिखे बिना नहीं रहा जाता. अकसर एक ही झटके में– अकसर छोटी, लेकिन कभी-कभी ‘रामदास का शेष जीवन’ जैसी लम्बी कविता तक, लिख जाती है. कभी-कभी कई महीनों में, टुकड़ा-टुकड़ा काफ़ी अन्दरूनी तकलीफ़ से गुज़रते हुए कोई कविता बन पाती है– असम पर जो कविता है- ‘मीडिया कोलाज’- वह ऐसी ही एक है. कभी-कभी बरसों तक टीप की तरह कविता पड़ी रह जाती है; बरसों बाद लगता है कि अरे, यह कोई इतनी बुरी तो न थी कि इसे न छपवाते!
मुझे हज़ारों बार उस आदि कवि के बारे में सोच कर हैरत होती है– वाल्मीकि या कि न जाने कौन!– जिसने पहले-पहल कविता लिखी होगी. आग के या पहिये के या गुरुत्वाकर्षण के आविष्कार से भी शायद ज़्यादा रोमांच उसे– और उसके समकालीनों को– महसूस हुआ होगा न! हम से पहले अब तक करोड़ों या शायद अरबों कवि हो चुके हैं– उनमें पचासों अपने-अपने ढंग से अद्वितीय और महान्! उस विराट नक्षत्रा-मण्डल में मैं शायद जुगनू तक नहीं.
लेकिन उन सब का प्रदाय ही हमें कविता कहने, सुनने, लिखने, पढ़ने का सम्बल देता है. याद नहीं पड़ता कि पहली कविता मैंने समस्यापूर्ति के लिए लिखी थी– विपिन जोशी, इटारसी की दी हुई पंक्ति: ‘‘पखेरू उड़ो तुम भले व्योम पर, धरा पर तुम्हें लौट आना पड़ेगा!’’- या आठवीं कक्षा में हस्तलिखित पत्रिका में उस कथित वैज्ञानिक पर, स्वतःस्फूर्त हो कर, जो किसी ‘टानिक’ से अमृत बनाने चला था…
बचपन में कोई बालक कोई विशेष रुझान क्यों दिखाता है? एक ही परिवार में, अलग-अलग बच्चे, भिन्न-भिन्न रुझान! मैं इस रास्ते आगे बढ़ा, तो शायद इसलिये भी कि औपचारिक खेलकूद (हाकी, फुटबाल वगै़रह) में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी, और कविता वगै़रह के लिए बुज़ुर्गों की थपथपी पीठ पर आसानी से मिल जाया करती थी. यशःकामना शायद आज भी शेष है, लेकिन क्रमशः हुआ यही कि जब तक ‘भीतर’ से अपरिहार्य न हो जाय, तब तक कविता नाम की चीज़ नहीं लिखी गयी. सन्नाटे या ऊसरपन के बरसों-लम्बे वक़्फे़ ही इतना कम लिखने के दोषी हैं!
बेशक, अभिव्यक्ति या आत्म-अभिव्यक्ति की अन्दरूनी छटपटाहट हममें से हरेक से कुछ न कुछ करा ले जाती है- लिखना, नाचना, शृंगार करना…. दूसरी तरफ़ ये भी सच है कि जीवन-जगत् को समझने के जो भी उपाय हैं, कविता भी उनमें से एक है. यों, ‘‘निज कबित्त केहि लाग न नीका. सरस होय अथवा अति फीका.’’ लेकिन अपने लिखे पर मोह तथा आसक्ति घटती-बढ़ती रहती है. और अन्ततः यही समझ में आता है कि इस निहायत ऊलजलूल मगर बेहद दिलकश दुनिया में अपनी व्यर्थता का थोड़ा-बहुत अर्थ मैंने कविता से ही पाया है. ‘‘स्वांतः सुखाय’’ का एक अर्थ शायद यह भी हो!
(ग्रेटर नोएडा
३ मई २0१९)
कविताएँ
उस मोड़ पर
जहाँ
कविता
छुड़ा लेती है हाथ
प्यार
याद भर रह जाता है
युद्ध हो जाता है समय
उसी मोड़ पर
जहाँ से मुड़ना—पीछे—
असम्भव है
सिर झुकाये
चला जा रहा है समय
आकाश
ठठाकर हँसता है
वह अतीत जो सब का हुआ
यह वर्तमान जो कुछ का है
वह भविष्य जो बस अपना होगा
अतीत हो जाने तक
अकेला और तिरस्कृत
मैं
आता हूँ तुम्हारी गोद में:
मिल जाती है पूरी एक दुनिया
भूली हुई.
डायरी को कोई ग्लानि नहीं
वह जो थी काग़ज़ थी
उस में जो था उन का था
उस का कुछ नहीं था
उस से जो होगा उन को होगा
उसे कुछ नहीं होगा
वह होगी तो काग़ज़ होगी
ऊपर-नीचे कड़ा या चिकना या पतला गत्ता होगा
उस पर हुई तो आँखें होंगी, उन की
उसे कहीं नहीं जाना
आँखें ही जायेंगी आर-पार
शायद न ही जायें
स्याही कभी न कभी
कभी न कभी
उड़ ही जायेगी
डायरी आत्मा नहीं न उस के आत्मा है
फड़फड़ाती रहेगी
भूल कर उतना सुख मिला
इतना और भूल गया होता तो
होता सुख केवल सुख.
शुरुआत के लिए एक थाली. एक लँगोट.
बल्कि सिर्फ़ लँगोट
या वह भी नहीं
शुरुआत के लिए केवल तुम सदेह
देह प्यारी है जब तक है
आओ गायें
देह की गाथा
शुरुआत के लिए… भारहीन, मुक्त
आओ इसे बजायें
शुरुआत के लिए… बेंत से
लो, खोदो यह
पहाड़, वह घाटी
उठो, चलो, दौड़ो उठाओ यह पालकी
उठो और सुनो
बार बार उठो सुनो सिर्फ़ सुनो
बोलो मत
दौड़ो
और गाओ भी
कितनी अधम योनियों के बाद
मिली है नर (या मादा) देह
‘धन्यवाद. जो भी ले काम
जब तक यह रहे…’
दौड़ते-दौड़ते इसी तरह एक दिन
पहुँच जाओगे स्वर्ग ख़ाली थाली बजाते हुए
शुरुआत के लिए
काफ़ी है यही.
इतना-इतना जीवन…
बेमुरव्वत हाहाकार
गिरना चट्टान का
मगर आँसू नहीं
सपने
ख़ूँरेज़
गिरी हुई चट्टान को तोड़ते
सीने पर
इतना-इतना विरहा, कजली, फाग
इतना सब
जब
सामथ्र्य नहीं
करवट बदलने का
इतना उदास और अन्तहीन
आकाऽश…
किसने कहा—
‘मैं जानता नहीं’?
यह देखो, यह, हाथ
यहाँ जूझ रहा है.
हथेलियाँ
अपने ही स्वेद में.
अनगिन
कोशिकायें निर्जन.
किसने कहा—
‘ये सब निष्प्राण हैं’?— (मेरी तरह!)
शब्द नहीं केवल
(गो अब शब्द भी नहीं)
बल्कि वह सब
जो दो दृष्टियों / होंठों / देहों से
एक होता है
फिर तैरता रहता है लगातार
वह सब
जो एक होकर बिखर जाता है: तरंगऽऽऽ
वह
जो दे-पाकर लुप्त हो जाता है
लौट-लौट आने तक…
किसने कहा—
‘यह जीवन / वह नहीं रहा’?…
किसने… किसने…
मुझे याद हैं उन सबके पते जो
मेरे यहाँ आये थे. पर उनमें से एक भी अपने पते पर
नहीं मिलेगा. वे सब बहुत अच्छे वकील हैं.
वे फिसलने और खिसकने में माहिर हैं.
वे छुपने-छुपाने में भी कुशल हैं.
वे अनेक गुणों से भरे-पूरे-लदे हैं.
केले या प्याज़ से बहुत मोटी है उनकी खाल.
खाल की परतें अनेक हैं. किसी मुक़द्दमे में वे
फँस नहीं सकते. (उन पर किसी जादू का भी
असर नहीं होता.)
वे इसी तरह फिर कभी आ जायेंगे
मेरे यहाँ. तब फिर मुझे
अस्त-व्यस्त कर देंगे और हो-हो करते चले जायेंगे.
मैं खुले आकाश के नीचे हूँ निरस्त्रा. वे मुझे
धमकाते भी हैं. मेरी चोटी है गोया उनके हाथ में
या फिर कुछ बहुत ही मर्मघाती. दूर से आती
उनकी पदचाप ही मुझे कँपा देती है.
आप जा सकते हैं. आप मेरी कोई मदद
नहीं कर सकते.
आप भी फँस सकते हैं. या आपसे मैं
किसी और बड़े जाल में
फँस सकता हूँ. वे मुझे निहत्था ही घेरेंगे और
मैं चीख़-चीख़कर, और बाद में
चुपचाप सिसकते हुए
और उसके बाद बेहोश उनसे यन्त्राणाएँ सीखूँगा.
आप विश्वास करें, मैं मरूँगा नहीं. फिर कल
मिलूँगा यहीं. इसी तरह
इसी खुले आकाश के नीचे, निरस्त्रा. शुक्रिया
आपकी हमदर्दी का, बहुत-बहुत
शुक्रिया!
क्या तुम ने देखे धू-धू करते मकान?
हाँ मैं ने देखे.
और शहर पर मँडराता धुआँ?
हाँ.
क्या तुम ने सुना शोर?
हाँ मैं ने सुना.
भागते हुए हुजूम?
हाँ.
और वे जो भाग नहीं सके?
नहीं. कुछ दिनों बाद
देखे मैं ने ढेर राख के
जिन में शायद दबी थीं कुछ हड्डियाँ
कुछ नर कंकाल.
फिर कुछ आँकड़े देखे
कुछ ब्यौरे सुने
चश्मदीद.
उन दिनों मैं पिता की शरण में था
उस पिता की, जो सब का था
और उन की वसीयत में
खोज रहा था अपना हिस्सा.
चाहे जो नाम धरो, कलियुग में
ईश्वर को बचाना असम्भव है.
तथ्य, आँकड़े, प्रमाण… सभी तो साक्षी हैं:
अगर आप अख़बार पढ़ते हों,
पढ़ा होगा…
एक नामछाती पर धरा है त्रिशूल
दूसरे नामगले पर है कटार
तीसरा छिपा-छिपा फिरता इधर-उधर
एके-४७ या सब-मशीनगन से!
इन तीन नामों के अलावा कुछ तीस-बीस
नामों पर निकले पड़े हुक्मनामे हैं.
और जो अनाम हो जा छिपा किताबों में
कब तक बचेगा बिना नाम के?
क्योंकि वह अब तक बचता चला आया है
सिर्फ़ इस बिना पर ये कहना कि ईश्वर
सर्वज्ञ है शक्तिशाली है…
थोड़ा अतिरंजित है.
बचा रहा, ठीक है, लेकिन हर बार
वार हुए उस पर बारी-बारी से:
दुश्मन अब
(यानी कि बहुविध बहुनाम-धाम भक्तगण)
चैकन्ना है
और है एकजुट:
अब जब चलेंगे त्रिशूल, तब
बाक़ी असलाह भी
घेरेंगे प्रभु को
चारों तरफ़…
बल्कि दसों दिशाओं से
इस तरह
जो घेरा जायेगा
कैसे वह बचेगा?
शमशेर ने ठेले पहाड़
अपनी दो कुहनियों से.
रुको, ज़रा थमो ऐ शमशेर !
लहू से लुहान उन कुहनियों को
दो कुछ विराम.
देखो ये एक और जोड़ा कुहनियाँ
शायद तुम्हारी जैसी ही कमज़ोर
आज़मा रहीं अपना ज़ोर
शहज़ोर पर्वत पर !.
हाथों हाथ
टपक रहा हो लहू या इतर गमकता हो
चूम लो हाथ अगर आये हुक्मरान का हाथ.
अगरचे हाथ उठाये गये मेहर के लिए
क्या ग़ज़ब थामने उठ आये मेहरबान का हाथ.
न सही गर नज़र उठा न सको महफ़िल में
उठे नज़र तो न उठ जाय निगहबान का हाथ.
कुफ्ऱ-ओ-ईमान फ़र्ज़-ओ-वादाकशी
जो कहो सो ही सिखा दे ये क़द्रदान का हाथ.
अगरचे मौत रची है तमाम हाथों में
होगे मुम्ताज़ जो सर पे हो शहजहान का हाथ.
ब-हर्फ़-ए-ख़ुद रहे गवाह ख़ुदा
बेशक़ीमत है ये इन्आम-ओ-इक्राम का हाथ.
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गिरधर राठी
(१३ अगस्त १९४६, पिपरिया मध्यप्रदेश)
girdharrathi@gmail.com
प्रकाशक
संभावना प्रकाशन
रेवती कुंज, हापुड़- 245101 (उत्तर प्रदेश)