प्रलय में नाव
तरुण भटनागर
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वह न तो नूह था और न ही मनु, पर वह नाव बना रहा था.
प्रलय होने में अभी देर थी.
यह ठीक-ठीक पता न था कि किस दिन प्रलय आयेगी. पर दुनिया का खत्म होना तय था. ईश्वर का आदेश था कि वह नाव बनाये, सो वह नाव बना रहा था. दुनिया में जीव जंतुओं की कई प्रजातियाँ खत्म हो चुकी थीं. कहते हैं हिंद महासागर के द्वीपों में पाये जाने वाले डोडो नाम के पक्षियों को खत्म हुए तीन सौ साल बीत गय थे. ये पक्षी इतने उत्सुक थे कि जब भी कोई आदमी इन द्वीपों पर आता वे उसके गिर्द इकठ्ठा हो जाते. इनका माँस स्वादिष्ट था और इनका शिकार करना आसान. इनकी उत्सुकता इनकी समूची प्रजाति के खत्म होने का बायस बनी थी.
जंगल के खौफनाक दीखने वाले जीवों को न तो शिकारी की नीयत का पता था और न ही यह बात कि धोखे से उन्हें मारे जाने को सभ्य समाज में बहादुरी कहा जाता है, इस तरह उनकी प्रजातियाँ भी विलुप्त हो गई थीं. बहुत से कीडे मकौडों की पूरी कौम खत्म थी. वे थे ही कीडे मकौडे, उनकी जरुरत ही कहाँ थी. पौधों और पेडों की बहुत सी जातियाँ गायब हो चुकी थीं. आधुनिक विकास के लिए उनका समूल नाश जरुरी था.
पर जो कुछ भी बच गया था उसे बचाना उसकी जिम्मेदारी थी. जो कुछ बच गया है वह भी बचा रहे. प्रलय के बाद भी कम से कम वह नष्ट न हो. ईश्वर का आदेश है. सबको बचाना ही है.
दुनिया मगन थी. वह अपने गुरुर में थी. प्रलय की बात पर उसे हँसी आती थी. कुछ वैज्ञानिक आकाश की ओर दूरबीन लगाये नये-नये ब्रम्हाण्ड खोज रहे थे. उनके मुताबिक धरती को खत्म होने में अभी पूरे चैंसठ हजार साल बचे थे. आसपास खत्म होती दुनिया से उनका कोई खास रिश्ता न था. जमीन सूख गई थी और जंगल खत्म हो रहे थे. समंदर के पानी को पीने योग्य बनाने की नई तकनीक इजाद कर ली गई थी. अब पीने के पानी के लिए नदियों, जमीन के नीचे के पानी या बारिश की जरुरत नहीं ही रह गई थी. वातावरण में नकली हवा थी. इस हवा को इजाद किया गया था और इसे असली हवा से ज्यादा स्वास्थ्यवर्द्धक बताया जा रहा था. वैज्ञानिकों को न तो प्रलय की बात का पता था और न ही उस आदमी के बारे में जो कि नाव बना रहा था. वे वैज्ञानिक थे. प्रलय की बात पर उन्हें हँसी आती थी. नाव बनाने का ख़याल एक रोमैण्टिक खयाल तो था, पर आज के अत्याधुनिक युग में लकडी की बडी नाव बनाने की बात कोई बेख़याल या सनकी ही कर सकता था- ऐसा वे सब मानते थे.
पहाडों की तलहटियों में एक मैदान था. उस मैदान के चारों ओर चीड और देवदार के पेडों का विशाल समुद्र था, उँचे पहाडों तक फैला हुआ. नीचे से देखने पर आसमान तक पेड ही पेड दीखते थे. अपने ऊँचे तनों और फुनगियों के साथ आकाश तक फैले. मैदान के ऊपर छोटा सा आकाश था. बाकी बचा आकाश पहाडों और जंगलों में दफन था. दुनिया में कुछ गिनती के ही जंगल बच गये थे. उनमें से एक यह भी था और वह उसी जगह नाव बना रहा था. कोई नहीं जानता कि वह कब से नाव बना रहा था. बहुत कम लोग उसके बारे में जानते थे. कुछ लोग कहते कि वह सैंकडों बरसों से नाव बना रहा है. मीडिया में उसके बारे में खबर भी आई थी. खबर थी कि वह एक बेहद जीवट और सादगी पसंद आदमी है. न जाने क्यों वह नाव बना रहा है? पता नहीं क्यों? खबरिया चैनल ने उसे एक दैवीय पुरुष भी बताया.
अधेड उम्र के दीखते उस आदमी के तार-तार होते कपडों को खबरिया चैनल बार-बार दिखा रहा था. झुर्रियों से भरे नीली आँखों वाले उसके बेहद शांत चेहरे को बार-बार ज़ूम कर दिखाया जा रहा था. हवा में लहराती दाढी और हवा में पछाड खाती बिखरी उलझी लटों के साथ हाथ में एक बडी सी कुल्हाडी पकडे वह आदमी सचमुच में ऐसा लगता मानो किसी दूसरी दुनिया से आया हो. मानो यह बात सच हो कि वह बरसों से ऐसे ही, इसी तरह से नाव बनाता चला आ रहा है. कोई नहीं जानता कब से ?
उस खबरिया चैनल में उस आदमी पर यह खबर लगभग आधे घण्टे तक दिखाई गई थी. कौन है यह महामानुष, यह नाव बनाने वाला आदमी क्या सचमुच में ऐसा कोई आदमी है जिसने मौत को मात दे दी है और सैंकडों बरसों से जिंदा है, क्या है इसका रहस्य, क्या यह सच है कि यह आदमी बिना कुछ खाये पीये बरसों तक जिंदा रह सकता है- तमाम बातें चैनल बता रहा था. और जैसा कि होता है यह खबर दुबारा से एक बार और दिखाई गई. वही पूरी खबर शब्द-दर-शब्द एक दम वही. और फिर वह खबर खबरों की तरह ही खत्म हो गई.
उस खबर को सुनकर एक स्थानीय पत्रकार उस आदमी तक पहुँच गया था. पहाडों और जंगलों को पार कर वह पूरे तीन दिन बाद उस आदमी तक पहुँच पाया था. उसने उससे बात करने की कोशिश की थी. परवह आदमी बस चुपचाप उसे देखता रहा था. उस आदमी ने उस पत्रकार को पानी पिलाया था. इस दुनिया को बचाना है- उसे पानी पिलाते हुए उस आदमी ने कहा था और पानी पीते-पीते उस पत्रकार ने पल भर को उसे देखा था- तुम एक शानदार इंसान हो- पत्रकार ने उससे कहा और फिर उस आदमी की एक फोटो उतारी. आदमी को अच्छा लगा कि कोई आया और उसने उसके काम में रुचि ली. कोई जो जंगल पहाड पार कर तीन दिन की दुरुह यात्रा के बाद उसके पास तक आया. उसकी नाव को देखा. उसके काम की तारीफ की. उसे अच्छा लगा. पर उसे ईश्वर का आदेश भी याद था –
‘किसी से मतलब न रखना. यह काम तुम्हें निर्लिप्त भाव से करना होगा.’
पर मन तो मन होता है. उसे अगर कोई बात अच्छी लग जाये तो क्या किया जाये. दुनिया बचेगी…..जरुर- अपने कंधे पर कुल्हाडी को रखते हुए उस आदमी ने पत्रकार से साफ आवाज में कहा. पत्रकार ने चारों ओर नज़र दौडाई घने जंगल, बर्फ से ढंके ऊँचे पहाड, साफ नीला आसमान और चिडियों की चहचहाहट…..आदमी की कही बात उसके जेहन में गूँजी -दुनिया बचेगी…..जरुर.
खबरिया चैनल पर जो खबर चल रही थी उसमें गाँव का एक बुजुर्ग बता रहा था कि उसके पिता के पिता याने उसके पितामह ने भी इस आदमी को देखा था. इसी जगह पर. इसी तरह से नाव बनाते हुए. एक बार वे जंगल में रास्ता भटक गये थे और सात दिन बाद भटक कर जिस जगह पहुँचे उस जगह यही आदमी था. अपनी नाव के साथ. उसे बनाता हुआ. दरअसल हुआ यूँ था कि नाव बनाने वाले इस आदमी की तमाम पीढियाँ सैंकडों सालों से नाव बनाने का यह काम करती आ रही थीं. जब आदमी बूढा होता तो उसका बेटा या बेटी नाव बनाने का यह काम अपने जिम्मे ले लेते. उसके बाद उसका बेटा या बेटी यह काम करने लगते. इस तरह बरसों से यह काम चलता-चला आ रहा था. वे जंगल के इस इलाके को छोडकर कभी कहीं और नहीं गये. क्योंकि यहाँ उनकी बनाई नाव थी. वे नाव के पास ही रहते आये थे. दुनिया से कोई खास वास्ता उनका न था. जंगलों में बसी उनकी दुनिया बाहर की दुनिया से इतनी कटी थी कि उनके बीच बहुत कम आना जाना होता था. कहीं कोई संपर्क भी न रह जाता. फिर आज की मगरुर और मसरुफ दुनिया से संपर्क की कोई खास वजह भी न रह गई थी. आदमी के उन तमाम पुरखों के तमाम किस्से हैं जिन्होंने नाव बनाने का बीडा उठाया, इस काम की शुरुआत की और इसे बनाते रहे.
कहते हैं जब बुद्ध थे तब भी, उस दौर में भी इस आदमी का एक पुरखा नाव बना रहा था. बुद्ध कह रहे थे, बार-बार कह रहे थे –
संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जो दुःख से भरा न हो, एक कतरा भी नहीं….टटोलकर देखो हर जगह दुःख के शूल….डूबोकर देखो अपनी उंगलियाँ…हर जगह बस अविरल बहता दुःख…दुःख एक विशाल नदी है, जो हर शरीर से होकर बहती है….फूटती है आँसू, पसीना और रक्त होकर…हर खयाल में बहती है दुःख की एक पथरीली नदी….हर बस्ती, कस्बे और गाँव में दिखते हैं शैवालों और काइयों से भरी दुःख की नदी के निशान…हर छाती में दुःख का गहरा मंथर प्रवाह…..
उस वक्त इस आदमी का वह पुरखा जंगल के पेड काट रहा था लगातार, एक के बाद एक, बदन पर उसने कुल्हाडियाँ बाँध रखी थीं, पैर के घाव पर पट्टी और उसके ऊपर उसने टाट लपेटा हुआ था, पानी गिर रहा था, हवा बह रही थी, बिजली कडक रही थी, अंधेरा घिर आया था… लंगडाता, लडखडाता और पीडा से कराहता वह आदमी पेड काटता जा रहा था. उसको बुद्ध का और बुद्ध को उस आदमी के उस पुरखे का पता न था. पेड का एक मोटा तना उसके पैरों पर गिरा था. वह बिलबिला कर चीख पडा था. उसके चोट खाये पैर से रक्त बहता था. उसकी चीख, उसकी सिसकियाँ उन वीरान जंगलों में गूँजती थीं. प्रलय की बात पर लोग हँसते थे और रात की निपट भुतही निस्तब्धता में वह चोट खाये घायल पैर को पकडे रोता था.
उन दिनों से कुछ सौ सालों बाद उस इलाके के प्रमुख शासक जो कि उस राज्य का एक राजकुमार भी था और कुमारामात्य कहलाता था उसे राज्य के एक बडे मुलाजिम जिसे अकाराध्यक्ष कहा जाता था उसके साथ काम करने वाले एक कुलिकयाने क्लर्क ने यह जानकारी दी थी कि एक आदमी बर्फ से ढंके पहाडों के जंगलों में नाव बना रहा है. बहुत पहले उस रास्ते से गुजरते वक्त कुछ ग्रामीणों ने यह बात उस कुलिक को बताई थी. और फिर उस कुलिक ने अकाराध्यक्ष को और अकाराध्यक्ष ने कुमारामात्य को. हुआ यूँ था कि वह कुलिक और कुछ और लोग अकाराध्यक्ष के साथ स्वर्ण और कीमती रत्नों की खोज के लिए इस इलाके में गये थे. अकाराध्यक्ष खनिज वाले महकमे का सबसे बडा मुलाजिम था. अकाराध्यक्ष उसके पद का नाम था. जंगलों के इस इलाके में नाव एक बेहद अचरज की बात थी. नाव तो किसी नदी या जलाशय के किनारे बनाई जाती है. भला कोई पहाडों पर और जंगलों में भी नाव बनाता है ? –
अपने आसन पर बैठे कुमारामात्य ने अपने पेट को खुजलाते हुए शंका जाहिर की थी- जरुर यह शत्रुओं का कोई गुप्तचर होगा- उसने आगे कहा था. जंगल में या तो आदिम लोग रहते हैं या अपराधी या गुप्तचर. हुलिये से यह कोई गुप्तचर लगता है. ऐसा उस कुमारामात्य का मानना था. उसने अपने महामात्यपर्सप याने गुप्तचरी के महकमे के बडे मुलाजिम को यह संदेश भिजवाया कि वह राजा को बताये कि इस इलाके में एक संदिग्द्ध आदमी देखा गया है. यह आदमी अचरज से लोगों को देखता है. विक्षिप्तों जैसी इसकी वेशभूषा है. कुछ पूछो तो कहता है कि ईश्वर के आदेश से वह इस जगह पर है. लगता है कोई बात है जिसे छिपाता है. कुछ दिनों बाद महामात्यपर्सप ने एक काबिल पतिवेदक याने गुप्तचरी कर जानकारी लाने वाला जासूस जिसका नाम जीवक था उसे सैनिकों के साथ इस मामले के भेद को पता करने और कार्यवाही करने के लिए भेजा था.
कहते हैं पूरे सात माह की यात्रा के बाद जीवक और उसके लोग जंगलों और बर्फीले पहाडों से घिरी उस जगह पर पहुँच पाये थे. रात को ही वे उस आदमी के पास पहुँचे थे. आगे-आगे घोडे पर जीवक और उसके पीछे उसके चार सैनिक. पीछे के दो सैनिकों के हाथों में मशालें थीं और आगे के दो के हाथों में तलवारें. जीवक अचरज से उस विशाल नाव को देखता रहा था जो जंगल के बीच पसरे विशाल मैदान में खडी थी. रात के अंधेरे में वह न दीखती थी. मशाल की रौशनी में भी वह पूरी न दीखती थी. पर उसके सामने के हिस्से को देखकर उसकी विशालता का अंदाज लगाया जा सकता था. अपने एक सैनिक के साथ जीवक ने उस नाव का मुआयना किया. आगे-आगे जीवक और पीछे-पीछे हाथ में मशाल थामे सैनिक और उसके पीछे बाकी तीन सैनिक. नाव को चारों ओर से देखने में उन्हें समय लगा. वे अचरज के साथ नाव को देखते जा रहे थे. लौटने के बाद उस आदमी के सामने खडा जीवक मुँह खोले हतप्रभ सा उसे देख रहा था. कभी वह नाव की तरफ देखता तो कभी नाव को बनाने वाले उस आदमी की तरफ. वह एक दो बार नावाध्यक्ष के साथ राज्य के सबसे बडे बंदरगाह तक गया है. तमाम नावें उसने देखी हैं. उन दिनों राज्य का जो पण्याध्यक्ष था उसका नाम अभिजात था. पण्याध्यक्ष याने व्यापार-वाणिज्य के महकमे का एक खास मुलाजिम. अभिजात और उसके लोगों के साथ वह सबसे बडे बंदरगाह तक भी जा चुका है. तमाम तरह की नावें उसने देखी हैं. पर इतनी बडी नाव ? इतनी विशाल ? वह भी इस वीरान जंगल में ?
‘बताओ तुम्हारा लक्ष्य क्या है? महान राजा के राज्य में तुम यह काम क्यों कर रहे हो? अगर सही जवाब नहीं दोगे तो इसका परिणाम मृत्युदण्ड भी हो सकता है ?’- जीवक ने उस आदमी से साफ-साफ कहा.
‘ ईश्वर का आदेश है कि मैं यह काम करुँ.’
उस आदमी का पुत्र भी वहाँ आ गया था. उसकी पत्नी झोंपडी में दरवाजे से लगी सब कुछ सुन रही थी. आदमी का जवाब सुनकर जीवक हक्का-बक्का सा इधर-उधर देखने लगा. फिर कडक आवाज में कहा- सही बताओ. झूठ न कहना. आदमी ने भी बेख़ौफ होकर कहा- ईश्वर का आदेश है- जीवक अपने सैनिकों की तरफ देखने लगा, सैनिकों में से दो सैनिक अब भी नाव को देखे जा रहे थे, एक सैनिक अचरज से उस आदमी को देख रहा था जो पूरे साहस से कह रहा था कि ईश्वर का आदेश है और जो सैनिक मशाल पकडे आगे खडा था उस सैनिक का हाथ काँप रहा था, वह एकटक नाव को देख रहा था और उसके हाथ में थमी मशाल काँप रही थी. काँपती मशाल से जलता तेल सूखी जमीन पर गिर रहा था. कभी बूँद-बूँद तो कभी आग की भभकती लकीर के साथ. किसी ने भी इस बात पर गौर न किया था कि भभकता, लपट भरा जलता तेल सूखी जमीन पर गिर रहा है. हर कोई भय और अचरज में था. अपने में मगन. हर कोई नाव और उसे बनाने वाले को देख रहा था.
जलते तेल से सूखी घास पर लपटें उठने लगी थीं. देखते-देखते लपटें तेजी से फैलने लगीं. घास, पैरा और सूखी लकडी के टुकडों पर आग साँप की तरह डोलने लगी. वह आदमी आग-आग चिल्लाता अपनी नाव की तरफ भागा. पर आग फैलती जा रही थी. जीवक और उसके सैनिक अपने-अपने घोडों पर चढकर पीछे को हट गये थे. आग नाव तक पहुँच रही थी. आग ने सूखी लकडियों के साथ-साथ उस आदमी की झोंपडी को भी अपनी चपेट में ले लिया था. मिट्टी के पात्रों में रखा सारा पानी उन्होंने आग पर डाल दिया था, पर पानी इतना कम था कि उसका आग पर कोई असर न हुआ था. वह आदमी जीवक की ओर इशारा करके चीख रहा था- चले जाओ, जालिमों चले जाओ…..तुम्हारा नाश होगा अवश्य ही. जलती आग से खुद को बचाने वह आदमी, उसकी पत्नी और बच्चा भी भाग खडे हुए थे. उसकी बद्दुआयें जीवक और उसके लोगों तक पहुँच रही थीं- चले जाओ, जालिमों चले जाओ…..तुम्हारा नाश होगा अवश्य ही. उसकी चीख में दर्द था और दुःख की तडप थी, उसमें बद्दुआओं के भयावह कांपते शब्द थे, उनमें कोई गाली न थी पर आसमान तक चीखती आवाज थी….. जीवक और उसके सैनिक लौटने लगे. लौटते हुए वे पलट-पलट कर जलती हुई नाव को देखते. जलती हुई विशाल नाव की लपटें आकाश तक उठ रही थीं.
यह निश्चय ही कोई गुप्तचर नहीं है- जीवक ने अपने एक सैनिक से कहा- सही कहा आपने- सैनिक ने उसकी बात को तस्दीक करते हुए कहा. यह बुरा हुआ, नाव का जलना ठीक नहीं- मशाल वाले एक सैनिक ने कहा. कहते हैं जीवक फिर कभी वापस न आया. न ही उसके सैनिकों को किसी ने देखा. कोई कहता है कि उस भयावह जंगल से लौटते वक्त रास्ते में लुटेरों से उनकी भिडंत हुई और वे सब मारे गये. तो कोई कहता है कि उन्हें इस बात का दुःख था कि उनकी वजह से एक बहुत बडी नाव जल गई. वह नाव जो सारे संसार को बचाने के लिए ईश्वर के आदेश पर बनाई जा रही थी.
कोई नहीं जानता किवह नाव कब और कहाँ उन्होंने देखी थी. पर किसी ने यह कहानी बताई थी. शायद उन सैनिकों में से किसी ने और इस तरह उनका यह किस्सा जाना गया. कुछ लोग कहते हैं कि वे इतने आत्मग्लान हुए कि उन सबने प्रायश्चित करने के लिए सारे संसार को छोडकर सन्यास ग्रहण कर लिया. एक कहानी ऐसी भी है कि वे लौटे नहीं थे, वे उसी जंगल में फंस गये थे और फिर कभी उससे बाहर न निकल पाये. एक किस्सा यह भी है कि जंगल से लौटते समय जीवक ने कहा था- हमने इस आदमी को जिसने सारी जिंदगी एक नाव बनाने में लगा दी उसे गुप्तचर समझा. हमने उसे देश का दुश्मन समझा जो वीरान पहाडों और तन्हा जंगलों में एक विशाल नाव बना रहा था. हमने उस पर शक किया जो धुनी था और दीवाना था…और इस तरह हम गलत साबित हुए.
‘अगर नष्ट हो जाये, टूट जाये, खराब हो जाये तो इस नाव को तोडकर फिर से बनाना. याद रहे यह सारी दुनिया को बचायेगी. इसका मजबूत और सही सलामत रहना सबसे जरुरी है.’
जलकर राख हो चुकी नाव के किनारे बैठे उस आदमी को ईश्वर का आदेश याद आ रहा था. उसकी पत्नी उसके पीछे खडी रो रही थी. पहाडों पर बर्फ पडनी शुरु हुई थी. बर्फ के गिरने की कोई आवाज नहीं होती. दुनिया को कभी जंगल में बनाई जा रही नाव की आवाज सुनाई नहीं देती. उसकी कोई आवाज उस तक नहीं पहुँचती.
एक किस्सा तब का है जब हिंदोस्तान की सल्तनत का मरकज़ देहली में बसाई गई एक जगह देहली-ए-कुहना थी. उन दिनों देहली-ए-कुहना का जो सुल्तान था उसका नाम नासिरुद्दीन महमूद था. यह इतना सादगीपसंद, रहमदिल और इंसाफपसंद था कि लोग इस सुल्तान को औसाफ-इ-औलिया-वा-अखलाक-इ-अनबिया कहते थे. सुल्तान होकर भी ऐसी ग़ुरबत में बसर करता कि उसकी बीबी उसके लिए खुद खाना बनाती थी. एक रोज सुल्तान के लिए रोटी बनाते वक्त जब उसका हाथ जल गया तो उसने सुल्तान से कहा कि ठीक है, वह सबकुछ कर ले, सुल्तान की हर बंदिश, हर सादगी, हर वफादारी को सर माथे से लगा ले पर सुल्तान इतना तो कर ही सकता है कि रोटियाँ पकाने के लिए उसे एक नौकरानी दिला दे.
कहते हैं हिंदोस्तान के उस सुल्तान ने अपनी बीबी के आग से जले हाथों को देखते हुए कहा था, कि दुनिया उसे सुल्तान मानती है पर जो सुल्तान होता है वह हुकूमत का अमीन भर होता है, सल्तनत का एक ईमानदार रखवाला और यह उसका पुख़्ता ख़याल है, एक पुर-आज़म इरादा कि अपनी रोज की जरुरतों के लिए वह सल्तनत पर नाहक बोझ न डालेगा. आगे उसने अपनी बीबी से कहा कि वह इस बात का मुतासिर है कि वह अपनी रोज की जरुरतों और ज़िंदगी के तमाम फर्ज पूरे इत्मिनान के साथ पूरा करे. क्या ही अच्छा हो जो उसके इस इरादे को उसकी बीबी जान पाये. उसकी बातों पर यकीन कर पाये. उसे अपना पाये. सुल्तान का यकीन था कि ऐसा करने पर अंततः ख़ुदा उसे इनामो इकराम से जरुर नवाजेंगे.
उसकी बीबी एक गुलाम की बेटी थी. उस गुलाम ने देहली-ए-कुहना में उसके दौर में एक इमारत बनवाई थी. उस इमारत को लोग हिफाज़त का घर कहते थे. उस दौर में आये एक सौदागर इब्न बतूता ने हिफाज़त के घर का ज़िक्र किया है. लगता है वह वहाँ गया था. वह बताता है कि इस हिफाज़त के घर में हर उस उधार का फैसला हो जाता था जिसे किसी ने गलत तरीके से लिया होता, हर कातिल को यहाँ सजा मिल जाती, हर ख़ौफज़दा को सरमाया…..वह बताता है कि कोई ऐसा न हुआ जो सुल्तान के दौर में उसके गुलाम के बनाये इस हिफाज़त के घर से गुजरे और उसकी तकलीफ का इलाज न हो पाये, उसे इंसाफ न मिले. कहते हैं सुल्तान नासिरुद्दिीन महमूद ने देहली-ए-कुहनामें लगभग बीस साल हुकूमत की पर बहुत कम लोग ही उसे जान पाये.
इस सुल्तान को कुछ चीजें नापसंद थीं. धीरे-धीरे उसने यह बात सल्तनत के तमाम लोगों को बताई थीं. उसे शराब-इ-असीर से नफरत थी. भले यह अंगूर की बनती थी पर यह एक गलत चीज़ थी. उसे गन्ने के रस से बनी शराब-इ-नैशकार भी उतनी ही बुरी लगती थी. वह जौ और अंगूर से बनने वाले फुक्का से भी खासी नफरत करता था. किसी की हिम्मत न थी कि इनमें से कोई चीज़ पीकर सुल्तान के सामने हाजिर हो जाये. उसे तस्वीरें नापसंद थी. उसके दौर में देहली-ए-कुहना में गीत-संगीत सुनाई न देता था. उसकी नापसंदगी में मौसुकी भी शामिल थी. इसी सुल्तान के दौर में एक रंग साज हुआ. वह बहुत खूबसरत तस्वीरें बनाता था. उसका नाम अबू हसन था.
कहते हैं बर्फ से ढंके ऊँचे पहाडों के पास से कभी गुजरते हुए जंगलों में अबू हसन को एक विशाल नाव दिखाई दी थी. यह इतनी विशाल थी कि बहुत दूर से ही वह दीख पडती थी. उसके पाल आसमान की ओर उठे हुए थे. तीन विशाल चौकोर पाल जंगल के पेडों से बहुत ऊपर नाव की कुदास पर सीधे ऊपर उठे हुए आसमान के बीच तक फैले थे. मुख्य पालों से लगी हुईं छोटी पालें भी दूर से दीखती थीं. ये तिकोनी पालें किसी ऊँची इमारत सी मुख्य पाल के साथ-साथ सीधे ऊपर को खडी थीं. अपने विशाल मस्तूलों पर सभी पालें खुली हुईं थीं और हवा में लहरा रही थीं. उन्हें मस्तूल से बाँधने के रस्से छोड दिये गये थे और दानव की तरह दीखती ये विशाल पालें हवा में फरफरा रही थीं. ये इतनी विशाल थीं कि इन्हें देख अबू हसन एक बारगी डर गया था.
नाव की विशाल दुंबास किसी विशाल दानव की तरह से जंगलों के भीतर से बाहर को मुँह उठाये खडी थी. हवा में फरफराती विशाल सफेद पालों और नाव की विशाल उठी हुई दुंबास को देखकर अबू हसन ने बहुत दूर ही अपना घोडा रोक दिया था. उसका अंदाज़ था कि नाव बहुत दूर है. उससे कोई चार दिन की दूरी पर. वह अचरज में था और थोडा डरा हुआ भी. फिर थोडा हिम्मत कर उसने उस विशाल नाव की तस्वीर बनाई. तस्वीर में बर्फ से ढंके विशाल पहाडों के नीचे छोटे-छोटे दीखते पेड थे. पेडों के बीच से आसमान तक उठी विशाल नाव थी.
देहली-ए-कुहना से लौटकर उसने वह तस्वीर सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद को दिखानी चाही. वह उसे उस विशाल नाव के बारे में बताना चाहता था. उसे लगा था कि यह एक ऐसा मामला है जिसे सुल्तान को जरुर बताया जाना चाहिए. तस्वीर देखकर सुल्तान को अंदाज लग ही जायेगा कि वह नाव कितनी बडी है. पर सुल्तान के नायबों और सरवरों ने उसे सुल्तान के कौशुक से बहुत पहले ही रोक दिया था. हर कोई जानता था कि सुल्तान तस्वीरों से कितनी नफरत करता है. रंग साज अबू हसन सुल्तान के नायब को बता रहा था कि उसने क्या-क्या देखा? वह उस नाव की विशालता के बारे में उन्हें बताता रहा पर न तो नायब ने और न ही सरवर ने उसकी बातों को तवज्जो दी.
उसी वक्त उस रास्ते से काजी-ए-लश्कर गुजरा. काजी-ए-लश्कर फौज का सबसे बडा मुंसिफ था. नायब और सरवर से हुज्जत करते रंग साजअबू हसन को देखकर वह रुक गया. काजी-ए-लश्कर के साथ-साथ उसके जल्लाद भी रुक गये. काजी-ए-लश्कर ने अबू हसन को हिकारत भरी नज़र से देखा और फिर सरवर को हुक्म दिया कि उसकी बनाई इस तस्वीर को जला दिया जाये. अबू हसन ने उससे रहम माँगी और तस्वीर वापस दे देने की गुजारिश भी की पर वह न माना.
‘तस्वीर गैरकानूनी है, उसे बनाना एकदम गलत. अगर रंगसाज अबू हसन न माने तो उसे फौरन देहली-ए-कुहना की सरहदों के पार भेज दिया जाये. अगर वह ऐसा न करे तो उसे कैदखाने में डाल दिया जाये. सुल्तान की इस अजीमोशान सल्तनत में किसी रंग साज या रंग साजी की कोई जगह नहीं.’ –
उसने सरवर को फिर से हुक्म दिया. रंग साजअबू हसन वहाँ से चुपचाप चला गया.
सुल्तान की लश्कर के एक अदने से लडाके ने सरवर की नजरों के सामने उस तस्वीर को जलाया था. जलाने से पहले उसने एक बार उस तस्वीर को देखा था. पहाडों और जंगलों में खडी विशाल नाव को देखकर उसे जोर की हँसी आ गई. भला ऐसा भी कहीं होता है. ये रंग साज जाने क्या-क्या बनाते रहते हैं. जंगलों में खडी विशाल नाव. हुँह. ऐसी तस्वीरें जो होती ही नहीं. हाथ में तलवार थामे उस तस्वीर को उसने बडी हिकारत से देखा. फिर ठठा कर हँस दिया. उसे हँसता देख सरवर मुस्कुरा दिया.
बाद में अबू हसन ने इस वाकये से उबरने के लिए खुद को तसल्ली देने के लिए कई बातें सोचीं. एक बात उसे ठीक लगी. उस रोज लौटते हुए उसे पहाडों और जंगलों के बीच बसे एक अनजान से गाँव के एक बुजुर्ग की बात याद आई जो उस आदमी को जानने का दावा करता था जिसने वह विशाल नाव बनाई थी. वह कहता था कि वह आदमी कहता है कि वह न तो नूह है और न ही मनु, वह कोई किस्सा नहीं है, वह हकीकत है, दुनिया उसे देख सकती है, उसे जान सकती है, वह सच है और इस तरह वह नाव बना रहा है…..रंग साज अबू हसन को देहली-ए-कुहना की अजीमोशान कुतुब मीनार और उसके पास बनी ऊँची मेहराबें याद हो आईं जिनमें से किसी पर नूह वाली इबारत लिखी है जो उसके एक दोस्त ने उसे हिज्जे कर-कर के पढकर सुनाई थी.
पत्थरों पर उकेरे गये अल्फ़ाजों को वह बहुत ध्यान से पढता था. अधूरे हर्फों की नोकें, उनके ख़म, पत्थरों पर तराशे गये लटकते से खूबसूरत अल्फाजों की लकीरों के नीचे नुक्ते की दिलकश तरतीब और हर्फों के नाज़ुक मोड, घेरे और गोल-गोल लकीरों को वह करीने से देखता और उनके मायने उसे बताता. उस मेहराब पर नूह की नाव वाली पूरी इबारत लिखी थी. जो उस रोज उसने उसे बडे इत्मिनान से पढकर सुनाई थी. उसे एक पण्डित का पता है जो तमाम धर्मपसंद लोगों को मनु की कथा सुनाता है. मनु की नाव वाली कथा. भगवान के मत्स्य अवतार की कथा. अबू हसन को लगता है कि शायद यह ठीक ही हुआ जो उसकी बनाई तस्वीर को काजी-ए-लश्कर के हुक्म से जला दिया गया. पता नहीं ऐसे मसले में पडने का और क्या अंजाम हो ?
इस तरह उस आदमी के पूर्वजों के तमाम किस्से हैं. तमाम बातें. वह सब जो इस दौरान उसके साथ होता रहा. उसके बाप दादाओं के साथ. उसके बाप दादाओं की औलादों के साथ.
नाव बनाना आसान न था. जब कोई न हो और अकेले में यह काम करना हो तो यह बेहद दुरुह, उबाऊ और उदास कर देने वाला काम है. जब कोई हाथ नहीं बंटाता. जब कोई नहीं होता और खुद को ही करना होता है तब यह उदासी और सघन हो जाती है. आदमी की बात पर कोई यकीन नहीं करता. जो भी लोग मिले. बहुत कम लोग. यदा कदा. वे सब यही मानते कि यह कोई सनकी और संदिग्ध आदमी है. पहाडों और जंगलों में नाव बनाने वाला, जो न तो मछुआरा है और न ही समंदर के पार तिजारत करने जाने वाला कोई सौदागर, न ही नावाध्यक्ष या सुल्तान के पानी के जहाजों के महकमे का कोई मुलाजिम, न ही वे जिन्होंने देहली-ए-कुहना तक पहुँचने के लिए यमुना पर बनाया नावों का पुल, न ही वह मल्लाह जो मुसाफिरों को पार करवाते हैं कोई नदी…..यह आदमी इनमें से कोई भी नहीं. फिर यह नाव क्यों बनाता है? वह भी नदी या समंदर के किनारे नहीं बल्कि एक बहुत ऊँचे पहाड पर जंगलों के बीच ? जब-जब इससे पूछो कि इस जगह नाव बनाने की क्या जरुरत तो कहता है कि यह जगह इतनी ऊँची है कि जब प्रलय आयेगी तो इस जगह पानी सबसे बाद में आयेगा इसलिए वह इस जगह नाव बना रहा है. लोग अकेले में उसकी इस बात पर हँसते हैं.
वह आदमी अक्सर रात को रौशनी न करता था. तारों भरे आसमान को देखते हुए उसका वक्त गुजरता. अपनी औलाद के साथ बातें करना उसे अच्छा लगता. अपनी नाव को वह इस तरह निहारता जैसे कोई माँ अपने बच्चे को निहारती है. वह नाव की मरिया और दुंबाल को पास जाकर गौर से देखता. लकडी के फट्टों को एक के ऊपर एक कस कर तैयार की गई दुंबाल पर वह हाथ फेरता. कील से ठोंककर मजबूत किये गये हर जोड को वह कुल्हाडी के बट से ठोंक कर जाँचता. वह अकेला था और यह बात उसे उदास करती थी. पर नाव बनाने और उसकी जाँच करने का ख़याल उसे चहकाता था, खुश करता था. उसे किसी की जरुरत न थी. वह खुद में मगन था. उसके सपनों में प्रलय के हहराते पानी में बेख़ौफ चलती नाव के दृश्य थे. ऊँची और खौफनाक लहरों के बीच सारी कायनात को अपने साथ महफूज रखने वाली विशाल नाव उसके ख़्वाबों में रोज आती थी.
तेज बहती हवा से टकराती पालों का खयाल जब उसके मन में आता तो वह अपनी कुल्हाडी और हथौडा उठा लेता. फिर इत्मिनान से नाव के काम में भिड जाता. एक बार जंगल के उस बेहद वीरान इलाके से गुजरने वाले एक मुसाफिर ने उससे कहा था कि उसकी नाव बेहद शानदार है. उसे लगा कि वह उस मुसाफिर को गले लगा ले. पर वह चुपचाप मुस्कुराता हुआ उसे देखता रहा. जंगल की बारिश में भीगती नाव को देखना उसे बेहद प्रीतिकर लगता. ऐसे में अपने बेटे के साथ वह दुंबाल के रास्ते सीढियों से नाव के ऊपर तक आ जाता. नाव की भीत पर चलते-चलते वे सबसे बीच वाली विशाल पाल के नीचे आ जाते. तेज हवा और पानी की बौछारों के बीच फडफडाती पाल के नीचे वे दोनों खडे रहते. वहाँ से सारा जंगल दीखता था और बर्फ से ढंके पहाड ऐसे लगते मानो पास ही हों.
वक्त बीतता गया. प्रलय के दिन का ठीक-ठीक पता न था. इसलिए नाव को हमेशा तैय्यार रखना जरुरी था. नाव पुरानी हो जाती तो वह आदमी उसकी फिर से मरम्मत करता. सैंकडों बरस पहले जल जाने के बाद उसने उसे फिर से बनाया था. वक्त के साथ तार-तार होते उसके पाल के कपडों को बदल दिया जाता. दीमक खाये पठान, मरिया और कुंबाल की लकडी बदल दी जाती. नये पटरे और बत्ते ठोंककर नाव की भीत और खोल को मजबूूत किया जाता. पतवारें बदल दी जातीं. पतवारों के लोहे के जंग खाये फाल बदल दिये जाते. नाव की धरन उसकी सबसे महत्वपूर्ण जगह थी. विशाल धरन में विशाल कोठरीनुमा जगहें थीं. उन्हें बंद करने के लिए मजबूत दरवाजे थे. इन धरनों में राशन रखा जाना था. ताकि प्रलय के बाद भी लंबे समय तक नाव में जीव जंतुओं के लिए भोजन उपलब्ध रहे. दुनिया में फिर से जीवन की शुरुआत करने के लिए यह बेहद जरुरी था. हर जीव के लिए उसकी जरुरत के हिसाब से राशन उपलब्ध हो. भोजन की शक्ल में यह राशन धरन की इन कोठियों में सुरक्षित रहे यह सबसे जरुरी था.
(पांच)
पाल के मुख्य खंभे को कई-कई बार बदला गया था. एक बार की बात है. उन दिनों ब्रिटेन में रानी एलीजाबेथ का राज था. रानी एलीजाबेथ ने थियेटर में ‘रोमियो और जूलियट’ नाटक को देखने के बाद शैक्सपियर को कोई काॅमेडी लिखने को कहा था. उसने शैक्सपियर को काॅमेडी लिखने की बात ठीक उसी तरह से की थी जिस तरह से कोई राजा हुक्म देता है. उसके हुक्म को सुनने के बाद शैक्सपियर ने अपनी टोपी उतारकररानी एलीजाबेथ का अभिवादन करते हुए अबकी बार एक कामेडी लिखने का वादा किया था.
शैक्सपियर ने रानी से वादा किया था कि अब जो वह लिखेगा वह एक कामेडी ही होगा. शैक्सिपियर के दिमाग में कई-कई खयाल एक साथ आते थे, भीतर कुछ धडकता था लगातार, बेचैन होकर वह लंदन की गलियों में निरुद्देश्य भटकता और उसे नींद न आती. गोधुली में धूसर धुँआ उगलती चिमनियों वाली ढालू छतों, उसकेे पीछे सूखे विलो और ओक के पेडों से अटे पडे जंगलों और कतारबद्ध घरों के सामने से गुजरती ईंट की रोड के दृश्य पर पिछले दो दिनों से गिर रहे हिम को वह खिडकी के किनारे बैठा अपलक घूरता. उसने अब तक कोई कामेडी न लिखी थी. पर ब्रिटेन की रानी का हुक्म था. एलीजाबेथ महान का हुक्म. उस हुक्म की तामीर करना शैक्सपियर का काम था. वह लेखक था. पर इससे क्या होता था. उसे भी महान रानी के हुक्म की तामीर करनी ही थी. इस तरह उसे काॅमेडी लिखनी ही थी.
एक बेहद दुःख भरे नाटक ‘रोमियो और जूलियट’के बाद यह काम उसे करना ही था. नये नाटक की कथा अभी शैक्सपियर के मन में पूरी तरह से जज्ब नहीं हुई थी. अभी भी वह खदबदाती बह निकलती या उसके भीतर किसी गहरे खड्ड में झरती रहती. शैक्सपियर चौंककर नींद से जाग जाग जाता. वह बेचैन था. वह कामेडी लिखे तो कैसे ? पर उसे लिखना ही था. कोई और उपाय न था. ठीक उसी वक्त धरती के दूसरे छोर पर वह आदमी नाव की मुख्य मस्तूल को संभालने के लिए जंगलों में ऊँचे विशाल पेडों की तलाश में था. पुरानी मस्तूल खराब हो चुकी थी. उसे बदलना ही था. लगभग डेढ माह जंगल-जंगल भटकने के बाद वह खाली हाथ लौटा था. अब उसे दूसरी तरफ के जंगल जाना था.
उस रात शैक्सपियर को सपने में नाटक के पात्र दिखाई दिये. उन पात्रों में उसकी प्रेमिका भी थी. धीरे-धीरे सारे पात्र नैपथ्य में चले गये सिर्फ प्रेमिका रह गई. उसकी नीली आँखों में आँसू थे और उसने अपनी बाहें फैला रखी थीं. बाहर जोर की गडगडाहट के साथ बारिश हो रही थी. शैक्सपियर उठ गया. वह नये नाटक को लिखने लगा. लिखने लगा कि एक विशाल समुद्र है और उसमें एक जहाज तूफान में फँसा है. जहाज में सवार लोग चीख रहे हैं, मदद को पुकार रहे हैं. जहाज टूट-टूट कर बिखर रहा है. धीरे-धीरे सारा जहाज टूट जाता है. ज्यादातर लोग डूब जाते हैं. बस कुछ लोग ही बच पाते हैं. उधर धरती के दूसरे छोर पर भोर होने लगी थी और विशाल तने को पहाड से लुढकाता वह आदमी दूर खडी नाव को देख रहा था. वह खुश था कि वह एक ऐसी नाव बना रहा था जो प्रचंडतम तूफान को भी सह लेगी. हर कोई बचेगा, कोई भी डूबेगा नहीं, यहाँ तक की हर जीव, हर वनस्पति भी बचेगी. कोई डूबेगा नहीं. कोई मरेगा नहीं…..
रानी एलीजाबेथ के हुक्म पर शैक्सिपीयर को लिखनी थी काॅमेडी और ईश्वर के हुक्म पर वह आदमी बना रहा था नाव. दोनों के इरादे नेक थे. पर दोनों के बीच खासा फासला था. आधी धरती का फासला. शैक्सपीयर के नाटक में डूबते जहाज में एक स्त्री है. यह स्त्री उसकी प्रेमिका है. वह अपनी प्रेमिका को बचाना चाहता है. साथ ही कुछ ऐसे पात्रों को भी बचाना चाहता है जिनके बिना नाटक लिखा नहीं जा सकता है. उसने बडी चतुराई से सोच लिया है कि इस डूबते जहाज के साथ किसको डूबो देना है और किसे बचाना है.
पहाडों पर से लकडी के विशाल लठ्ठे को लुढकाता वह आदमी सोचता है कि उसकी नाव ऐसी होगी कि कोई भी न डूबेगा. हर कोई बच जायेगा. भले वह कीडा मकौडा ही क्यों न हो, क्यों न हो गधा या कुत्ता, क्यों न हो बीमार या बूढा, हो चाहे बेवजह ही, उसकी नाव उन सबको बचायेगी ही. उसे चुनकर किसी को डुबोने का कोई खयाल न आता था. वह दुःख के बाद किसी हुक्म पर काॅमेडी की रचना न कर सकता था. उसके जेहन में किसी कथा की नीयत पर भी कुछ को बचाने और मारने का खयाल न था. उसे उसके काम के लिए चुने हुए पात्रों की जरुरत न थी. इस तरह वह नाव बना रहा था. इस तरह वे दोनों धरती के दो अलग-अलग हिस्सों में थे. दोनों के बीच लगभग आधी धरती थी. एक तरफ दिन था तो दूसरी तरफ शाम और रात.
(छह)
वक्त बीतता गया. दुनिया बदलती गई. बदलती दुनिया में सब कुछ नया था. ऊँची-ऊँची इमारतें थीं और भागती दौडती गाडियाँ. चारों ओर धुँआ था और नाक-मुँह पर मास्क लगाये लोग. घरों में साफ हवा की सप्लाई करने वाले यंत्र लगे थे. खुले बाजार खत्म थे. उनकी जगह चारों ओर से बंद बाजार थे. बंद बाजारों में साफ हवा फेंकते यंत्र लगे थे. लोग बहुत कम दीखते. यूँ भी लोगों को दुनिया की बहुत जरुरत न रह गई थी. सब कुछ एक पैनल को टच करते ही मिल जाता था. पैनल को छूकर हर चीज खरीदी जा सकती थी. हर चीज बेची जा सकती थी.
गरीबी कहीं नहीं थी. सारे गरीब मर-खप गये थे. सिर्फ पैसे वाले ही बचे थे. इस तरह हर तरफ शांति थी. कोई किसी से बात तक नहीं करता था. हर तरफ खुशियाँ थीं. लोगों के घर सामानों से भरे पडे थे. हर जगह आराम था. लोग सारा काम घर में रहे-रहे ही कर लेते थे. आसमान में रात को नकली चाँद निकल आता था. नकली चाँद के सामने असली चाँद की कोई बिसात न थी. जब जरुरत होती मौसम विभाग आसमान में बादलों का जमघट लगवा देता था और बारिश हो जाती थी. दुनिया की कुछ जगहें और भी ज्यादा बदल चुकी थीं. यहाँ घरों से बाहर निकलने पर कुछ खास ऐहतियातों का पालन करना पडता था. सूरज की किरणों से फैलने वाले रेडिएशन से बचने के लिए जो खास कपडे होते वह ही पहने जाते थे और मुँह पर ऐसा मास्क पहनना होता जो बाहर की खराब हवा को खींचकर उसे साँस लेने के लिए माकूल हवा में बदल देता था और इस तरह उस हवा से साँस ली जाती.
इंसान की उम्र और बढ गई थी. वह बेहद अकेला था और उसकी लंबी उम्र उसे खलती रहती थी. तापमान बहुत बढ गया था. ठण्ड का मौसम खत्म सा था. हरियाली बहुत कम रह गई थी. शहर में एक म्यूजियम था जहाँ तमाम किस्म के पेड-पौधे लगे थे. अतीत में दुनिया में पाये जाने वाले पेड-पौधे, जो अब बदल चुके मौसम में उग न पाते थे. म्यूजियम के बाहर एक बोर्ड लगा था- आइये जानें धरती का इतिहास. लोग इन पेड पौधों को देखने आते. इसे देखने उन्हें खासे पैसे खर्च करने पडते. पर फिर भी अभी प्रलय न आई थी. प्रलय एकदम से न आती थी. उसके किस्सों में वह अपने तरीके से आती रही. ईश्वर ने उस आदमी को बताया था कि प्रलय अपने तय वक्त पर आयेगी. वह अचानक न आयेगी.
जिस जंगल में उस आदमी की बनाई नाव थी वे जंगल अब भी आबाद थे. कुछ जगहें अब भी महफूज थीं. वे धीरे-धीरे खत्म हो रहे थे. खबरिया चैनलों में उस आदमी की खबर सुनकर जंगल का एक ठेकेदार सतर्क हो गया था. एक रोज जब वह आदमी नाव की खराब हो चुकी धरनों को ठीक कर रहा था तभी वह आया था. उसने उसे चेताया था कि वह इस तरह से जंगल की लकडी नहीं ले सकता है. भले वह कहता रहे कि दुनिया को बचाने के लिए उसे इन लकडियों की जरुरत है. वह चाहे तो लकडियाँ खरीद सकता है. वह याने ठेकेदार और उसके लोग लकडियाँ बेचते हैं. यही कायदा भी है. पर वह हरे भरे पेडों को काट नहीं सकता. यह दुनिया के उसूलों के खिलाफ है.
नाव बनाने वाले आदमी के पास खासे पैसे थे और वह लकडी खरीद सकता था. पर वह ऐसा करने से बचता था. उसे जो हिदायत ईश्वर ने दी थी उसमें एक हिदायत यह भी थी कि नाव बनाने का सारा काम उसे खुद करना है. वह किसी की मदद न ले. खुद ही जंगल में पेड छाँटे, खुद ही उनको काटे, उन्हें छीले, उनसे फट्टे और बत्ते तैय्यार करे और खुद ही उन्हें कीलों से ठोंके. अभी बहुत वक्त है और अगर वह भिडा रहा तो नाव बनाने और उसकी मरम्मत का सरा काम हो ही जायेगा. वह ईश्वर की इस हिदायत को सभी दूसरी हिदायतों की तरह से मानता रहा था. पर इधर कुछ दिनों से कई मुश्किलें आन पडी हैं. एक तो लकडी का मिलना बेहद मुश्किल हो गया है और दूसरा इसमें अलग तरह के खतरे भी हैं. सरकार ने पेडों को राष्ट्रीय संपदा घोषित कर दिया है. एक-एक पेड की कीमत लाखों रुपये में आँकी गई है. इन पहाडों पर ये जो जंगल हैं ये संसार के आखरी जंगलों में से एक हैं. इनकी कीमत बहुत है.
फिर एक और दिक्कत है. यह जगह अब पुराने दिनों की तरह से दुनिया की नजरों से दूर न रह गई है. इस तरफ सैलानियों की आवाजाही बढ गई है. तमाम तरह के लोग इन जंगलों में आते रहते हैं. संसार के खत्म होते जंगलों में से इस आखरी जंगल को देखने तमाम लोग इस तरफ आते ही हैं. इस विशाल नाव को देखकर वे कौतुहलवश खुश होते हैं. इसकी तस्वीरें लेते हैं. पाल वाली नाव बहुत पुराने दिनों की चीज है. किसी फिल्म या तस्वीर में देखी किसी चीज की तरह. अनजान समुद्रों और अचरज से भरे द्वीपों के किस्सों में ये पाल वाली नावें ही होती हैं. समुद्री लुटेरों और वाईकिंग लोगों की फिल्मों में पाल वाली नावें ही दीखती हैं. सौदागरों के किस्सों में और पुराने दिनों की समुद्र की लडाइयों में ये नावें ही नजर आती हैं. लोग बडे कौतुहल से इस नाव को देखते हैं. पर बहुत से लोग इस नाव को प्राकृतिक साधनों का दुरुपयोग भी मानते हैं. वे दुःखी होते हैं कि किस तरह एक नाव बनाने में जंगल के इतने सारे पेड काट डाले गये. ऐसे में उस आदमी को भी अब लगता है कि अब बहुत ज्यादा ईश्वर के बनाये कायदों के अनुसार नहीं चला जा सकता है.
जिन लोगों को बचाने के लिए वह नाव बनाता आया है और जिसके लिए उसके पुरखे सैंकडों बरसों तक नाव बनाने में लगे रहे अगर वे सब ही नाव की बुराईयाँ करने लगें, बरसों से ईश्वर के आदेश पर चले आ रहे इस काम में कमियाँ निकालने लगें तो फिर क्या रह जाता है? यह ठीक है कि उसे दुनिया से कोई खास वास्ता नहीं. वह अकेले रह सकता है. पर वह जो काम कर रहा है वह तो दुनिया को बचाने के लिए ही है. ऐसे में संसार के इन तमाम लोगों को दुःखी कर कोई काम करना कहाँ तक ठीक है. वह भी अगर दुनिया के नियमों से ही चले और पेड न काटे और ठेकेदार से खरीदी गई लकडी से ही नाव की मरम्मत करे तो इससे क्या फर्क पड जायेगा. बस इतना ही न कि यह ईश्वर की एक हिदायत के अनुसार नहीं है. जब कोई भी पेड न कटेगा तब जरुर ही उसके ऐसे निर्णय पर सब लोग उसकी तारीफ करेंगे तो कितना अच्छा लगेगा. ऐसा सोचते उस आदमी को तनिक भी नहीं लगा कि ऐसा करके वह ईश्वर की हिदायत के ख़िलाफ जा रहा है. उसे लगता कि इससे कोई खास फर्क नहीं पडता. न नाव का काम रुकता है और न दुनिया को इससे कोई तकलीफ़ होती है और न दुनिया का कोई कायदा टूटता है. यह सबके लिए ठीक भी है ही.
आदमी के पास काफी पैसे थे. उसने ठेकेदार से लकडी खरीदने की बात सोच ही ली थी. ठेकेदार एक लालची ठेकेदार था. उसने यह भाँप लिया था कि इस आदमी के पास खासा पैसा है. उसने यह भी अंदाज लगा लिया था कि अधेड उम्र से बुढापे की ओर जाता यह आदमी काम करते-करते थक जाता है. इतनी बडी नाव को संभालना और उसकी मरम्मत करते रहना एक बेहद उबाऊ और थका देने वाला काम है. यह आदमी काम करते-करते थककर पसीना-पसीना हो जाता है. ऐसे लोगों को मदद की जरुरत तो होती ही है.
ठेकेदार यह भी जान ही गया था कि यह आदमी थोडा सनकी, गुस्सैल और धुनी है. ऐसे लोगों को बेवकूफ बनाना भी आसान होता है. इस तरह उस ठेकेदार ने उस आदमी को एक आफर दिया. आफर यह था कि वह उसे लकडी से कहीं ज्यादा मजबूत बत्ते और फट्टे दे सकता है. ये एक किस्म के खास मटेरियल के बने होते हैं. कील से ठुक भी जाते हैं और खराब भी नहीं होते. आदमी उसे मना करते-करते रुक गया. उसने सोचा एक बार आजमा के देखने में क्या बुराई है. हो सकता है यह आदमी सही बात कर रहा हो. नाव बनाने वाले उस आदमी के अब तक के किस्से में, उसके पुरखों के किस्सों में कहीं भी ऐसी कोई बात न आई थी कि कभी किसी ने उन्हें धोखा दिया हो. विश्वास न करने की कोई दूसरी वजह भी न थी. ठेकेदार यह जानता है कि यह जो नाव है यह दुनिया को प्रलय से बचाने के लिए है. वह उन बहुत कम लोगों में से एक है जो उस आदमी की कहानी पर यकीन रखते हैं. जो मानते हैं कि प्रलय आयेगी और ऐसे में यह नाव इस सारे संसार को बचायेगी. उस आदमी को वह ठेकेदार उन बहुत कमतर लोगों में से एक लगता है जो उसकी बात पर यकीन रखते हैं. ऐसे में भला वह उसे धोखा क्यों देगा.
हुआ यूँ था कि ठेकेदार ने उस आदमी से एक ऐसा रिश्ता बना लिया था कि उस रिश्ते में अविश्वास की कोई गुँजाइश न थी. दुनिया में रिश्तों के मतलब बदल चुके थे. सबसे विश्वसनीय रिश्ते पैसों के रिश्ते लगते थे. व्यापार और बाजार के रिश्तों से प्यार की खुशबू आती थी. सामान खरीदने और बेचने के विज्ञापनों में चाहतों का संसार था. पैसों के लिए सामान बेचता इंसान बहुत प्यार से पेश आता था. पर नाव बनाने वाले आदमी को यह सब बातें पता न थीं. वह एक अलहदा आदमी था. भले बाहर की दुनिया के लोगों से उसका कोई वास्ता न था, पर फिर भी वह उन पर ऐतबार करना चाहता था. वह विश्वास करने में विश्वास रखता था. यह उसके पुरखों के समय से चली आ रही परंपरा थी. यह विश्वास ही था कि वे आज तक इस नाव को बनाने का काम करते चले आये थे. विश्वास ही था कि निपट अकेलेपन में भी मन न घबराता था. वह क्यों अविश्वास करे? अविश्वास उसकी फितरत नहीं.
ठेकेदार लालची था और उसने उसे जो फट्टे और बत्ते लाकर दिये थे वे लकडी के फट्टों और बत्तों से कहीं ज्यादा मजबूत लगते थे. दिक्कत बस एक थी कि उनके भीतर भूसे जैसा कुछ भरा था और ज्यादा दबाव में वे टूट जाते थे. पर उनमें एक शानदार चमक थी. एक बारगी उन्हें देख ऐसा लगता था कि वे लकडी से कहीं ज्यादा मजबूत हों. ठेकेदार यह जानता था कि कहीं कोई प्रलय नहीं आने वाली. नाहक ही यह आदमी ऐसी नाव बना रहा है. यह नाव इसी जंगल में पडी रहनी है. ऐसे में अगर ये फट्टे और बत्ते इसमें लग भी जायें तो इससे किसी को कोई नुकसान नहीं.
उसने इनकी खासी कीमत भी उस आदमी से वसूल की थी. आदमी को भी उसे इतने पैसे देते कोई दिक्कत न हुई थी. इन फट्टों और बत्तों की खासियत यह थी कि इनमें दीमक न लगती थी. यह बात सच थी और नाव में एक बार लग जाने पर यह बरसों तक खराब न होते. दिक्कत बस यह थी कि इसके बाहर की मोटी परत ज्यादा दबाव में टूट जाती थी और उसके भीतर का बुरादा बाहर गिर जाता था. फट्टों और बत्तों को ठोंकने पर उनकी बाहरी परत के टूटने और भीतर का बुरादा बाहर गिरने की पूरी संभावना थी. पर ठेकेदार के पास इसका भी एक तोड था. उसने उस आदमी को सलाह दी कि उसका बढई इन फट्टों और बत्तों को नाव की धरन के भीतर बाहर लगा देगा और इससे नाव की पूरी धरन मजबूत हो जायेगी. आदमी उसकी बात पर राजी हो गया. ठेकेदार ने बढई का मेहनताना भी कम माँगा था और उस आदमी से कहा था कि यह तो एक सबाब का काम है, सारी दुनिया को बचाने का काम. ऐसे काम में मेहनताने से ज्यादा एक भी पैसा लेना ठीक नहीं. आदमी को यह न पता था कि ठेकेदार उसकी नाव देखने आने वाले सैलानियों से टिकिट के नाम पर खासा पैसा वसूलता था.
दुनिया में इन जंगलों की जो शोहरत थी उसमें इन जंगलों में रखी इस नाव का खासा जिक्र होता था. रंग साज अबू हसन ने सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद के वक्त इस नाव की जो तस्वीर बनाई थी इस नाव की उससे कहीं ज्यादा शानदार और चमकती दमकती तस्वीरें सारी दुनिया में थीं. कुछ लोग तो इन जंगलों में सिर्फ नाव देखने ही आते थे. इस सारे खेल के बारे में कुछ भी उस आदमी को पता न था.
बढई ड्रिल मशीन से फट्टों और बत्तों में छेद करता और फिर करीने से उन्हें नाव की धरन में लगाता जाता. धरन की सारी कोठरियाँ कुछ ही दिनों में दुरुस्त हो गई थीं. आदमी खुश था. उसने एक दिन बढई को गले से लगा लिया. दोनों को गले लगता देख ठेकेदार भी खुश हो गया.
प्रलय की जब शुरुआत हुई तब दुनिया में जंग छिडी हुई थी. हर जगह जंग की बातें थीं. खबरें जंग के किस्सों से भरी पडी थीं. लोगों की बातों में घृणा और नफरतों के लफ्ज बजबजा रहे थे. तभी उत्तर ध्रुव के हिमखण्ड तेजी से पिघलने शुरु हुए थे. ऊँची-ऊँची हिमशिलायें टूट-टूट कर गिर रही थीं. हजारों-लाखों साल पुरानी हल्की नीली बर्फ की मोटी-मोटी चट्टानें टूट-टूट कर समुद्र में गिर रही थीं. किसी सैटेलाइट के कैमरे ने इस नजारे को कैद किया था. पर किसी को फुरसत न थी.
अभी जंग थी, नफरतें थीं, गालियाँ और कमीनपना था और इन सब चीजों की खबरें थीं. खून और लाशों के नजारे खबरों का मुख्य आईना थे. खण्डहरों में तब्दील होती बस्तियों के चित्र और वीडियो रोज के आम नजारों की तरह से दीखते थे. समुद्र में तैरती विशाल बर्फ की चट्टानें बढती जा रही थीं. रोज हजारों की संख्या में बडी-बडी बर्फ की शिलायें समुद्र में गिरती, तैरती, पिघलती जा रही थीं. खण्डहर होते शहरों को देखकर दुनिया खुश होती थी. लाशों के ढेर और रोते बिखलते लोगों को देखकर लोग खुश होते. राख में तब्दील होते शहरों को गिनकर हार जीत तय हो रही थी. लाशों के ढेर देखकर घृणा और नफरतों से भरी तमाम दीवानगियाँ बढती जाती थीं.
धरती का तापमान बढता जा रहा था. समुद्र का पानी चढता जा रहा था. रासायनिक बमों और आणविक हथियारों के हमलों से बढता तापमान लगातार बढता ही जा रहा था. समुद्र का पानी अपनी सीमा पार कर शहरों और कस्बों में दाखिल हो रहा था. आसमान में काले बादलों के झुण्ड के झुण्ड तैर रहे थे. आसमान में छाये काले बादलों को देखकर यह चेतावनी जारी की गई थी कि आणविक हमले के बाद उत्पन्न यह रेडियेशन से भरे बादल हैं. इन बादलों से होने वाली बारिश कई दिनों तक चलेगी.
सिर्फ वह आदमी, नाव बनाने वाला आदमी ही यह जान पाया था कि यह बारिश पूरे दो सालों तक चलनी थी. उस समय तक जब तक कि सारी धरती जलमग्न न हो जाये. राख़ और गर्द में विलीन होते संसार पर बेतहाशा बारिश हो रही थी. अधजली लाशों और राख में दबी हड्डियों पर मूसलाधार पानी गिर रहा था और सिर्फ वह आदमी ही था जो जानता था कि यह प्रलय है….कि यह सिर्फ प्रलय है…. यह कोई रेडियेशन नहीं, यह कोई रासायनिक हथियारों का हमला नहीं, यह रेडियेशन से असीमित बढ गया तापमान नहीं, यह ओजोन की परत को निगल चुका हजारों परमाणु बमों का हमला नहीं, नहीं…नहीं…. नहीं है यह प्रचंण्ड विस्फोटों की आग में वायुमण्डल की आक्सीजन का जलकर खत्म होते जाना, नहीं है यह उच्च तापमान और रेडियेशन से जलकर भस्म हो गई लाशों का ढेर, नहीं है यह बढते तापमान से पिघलकर खत्म हो जाना धु्रवों की बर्फ का, न ही बढते जाना समंदर के पानी का, न ही है ये अपना संतुलन बनाते नये समंदर में उढती प्रचण्ड लहरें और न ही भयावह विस्फोटों से पानी से भरे परात की तरह काँपते समुद्र में उठती सैंकडों सुनामी लहरें, न ही है यह राख़ में बदल गये शहर और मिट्टी में तब्दील हो गई हजारों बरस पुरानी सभ्यता…… यह इनमें से कुछ भी नहीं यह सिर्फ और सिर्फ प्रलय है और इस बात को सिर्फ वह आदमी ही जानता था.
(सात)
चारों ओर बस पानी ही पानी दीखता था जिनमें तैर रहे थे खत्म हो चुकी सभ्यता के निशान. ऊँची लहरों में पछाड खाता एक विशाल हहराता समुद्र था बस. सारे पहाड, सारी घाटियाँ….जमीन का हर कतरा दफ्न था इस हहराते समंदर के नीचे.
आदमी ने नाव की धरन की कोठरियों को राशन के तमाम सामानों से भर लिया था. पेडों की तमाम किस्मों को उसने नाव के एक कोने में तरतीब से जमाया था. बहुत सी किस्में अब इस दुनिया में नहीं थीं. उनके इस नाव पर न होने का उसे अफसोस था. बर्फ के ऊँचे पहाडों से घिरी जंगलों की इस दुनिया में जंग का कोई खास असर न पडा था. यह जगह दुनिया से इतनी दूर थी कि इस जगह पर बम बरसाने या इसे खत्म कर डालने का खयाल किसी को न आया था. यह एक ऐसी जगह थी जिसकी किसी को जरुरत न थी. इस तरह कोई इस जगह को नष्ट न करना चाहता था. न जाने उस आदमी का वह कौन सा पुरखा था जिसने सैंकडों सालों पहले इस जगह का चुनाव किया था. दुनिया में होकर भी दुनिया से कटी और बेहद महफूज जगह.
वह कहता था कि दुनिया को बचाने के लिए बनाई जाने वाली नाव दुनिया से सबसे दूर, सबसे ख़ामोश और अनजान जगह पर न बनाई जाये तो कहाँ बनाई जाये- वह कहता – जिन जगहों को कोई नहीं जानता, जिनकी किसी को जरुरत नहीं उन्हीं जगहों पर वह नाव बनाई जा सकती है जो किसी दिन सारी इंसानियत को बचायेगी ….
बहुत से जानवरों को भी उस आदमी ने अपनी नाव में बैठा लिया था. पहाड के ऊपर तक पानी आने में अभी देर थी. जिस रोज पानी आया उस दिन उस आदमी ने प्रार्थना की-
मैं कोई नूह नहीं, न ही कोई मनु, मैं एक इंसान हूँ और ईश्वर के हुक्म पर यह नाव बनाता रहा हूँ…..ओ हवाओं, ओ समुद्र, ओ आसमान तुम सब मेरी मदद करना…..
चढते पानी को देखता ठेकेदार जब तक आया तब तक नाव पानी पर तैरती दूर जा चुकी थी. जोर का पानी गिर रहा था और तेज तूफानी हवा चल रही थी. ठेकेदार का घर पानी में बह चुका था. उसकी सारी दौलत पानी-पानी हो चुकी थी. बस वह आख़री बार उस आदमी से मिलना चाहता था. उससे कुछ कहना चाहता था. पर अब बहुत देर हो चुकी थी.
लहरों पर थपेडे खाती वह नाव चली जा रही थी. न जाने कहाँ तो? उसमें सारी सृष्टि को फिर से बसाने का जतन था. तमाम प्रकार के बीज थे और तमाम प्रकार के जीव जन्तु. इन सबसे दुनिया की फिर से शुरुआत की जानी थी. उस नाव में एक बदहवास सा आदमी था. जो कभी लहरों पर डोलती अपनी नाव को तो कभी गरजते बरसते आसमान को देखता था. वह अकेला था. निपट अकेला. बिजली के कडकने और लहरों के गर्जन के साथ-साथ तमाम प्रकार के जानवरों की तरह-तरह की आवाजें उसकी नाव में गूँज रही थीं. जानवरों का चिल्लाना और आकाश का चीखना एक साथ गूँजता था. सूरज को निकले कई दिन बीत गये थे. काले आकाश ने सूरज को अपने भीतर दफन कर लिया था. दूर तक अंधेरे में हहराता और गरजता समंदर था. कहीं कुछ न दीखता था. नाव में रौशनी न हो पाती थी. तेज चलती हवायें रौशनी को बुझा देती थीं. अंधेरे में जानवरों की आँखें चमकती थीं. आसमान में बिजली चमकती थी.
ऐसी ही एक रात तेज लहरों के गर्जन के बीच धरन की किसी कोठी की दीवार के चटकने की जोर की आवाज आई थी. जैसे लकडी के फट्टे एक दूसरे से टूट कर अलग होते हैं, जैसे चडचडाता हुआ कोई पेड गिरता है ठीक वैसी ही. वह आदमी चौककर सीढियों से नीचे उतरता धरन की कोठियों की तरफ भागा था. नाव की लकडी की भीत पर भागते हुए किसी आशंका से उसका दिल घबरा उठा था. फडफडाते पालों की आवाज के बीच वह बदहवास सा नीचे की तरफ भागा था. सीढियों से नीचे उतरते ही उसका पैर घुटनों तक पानी में डूब गया. उसने एक मशाल जला ली थी. सामने धरन की कोठियाँ थीं. कोठियों का दरवाजा बंद था और दरवाजों की संद से पानी की धार नाव के पेंदे में भर रही थी. धरन की कोठियों के दरवाजे चरमरा रहे थे. उनके भीतर भरे पानी के छपाके और चिडचिडाती लकडियों की आवाज के साथ पानी की मोटी-मोटी धार पेंदे की जमीन पर गिर रही थी. धरन की कोठियों में राशन था. पर उन्हें खोलना अब मुनासिब न था. उसने मशाल को दीवार पर बने एक आले में लटकाया. अपने कपडे उतारे और जहाँ-जहाँ से पानी गिर रहा था उस पूरे में लकडी के बत्ते ठोंकने लगा.
ऊपर भीत पर बैठे जानवर ऊँघ रहे थे. कोई आदमखोर गुर्रा रहा था. प्रचण्ड लहरों में नाव न जाने कहाँ तो बही जा रही थी. लहरों पर उछलती कूदती उस विशाल नाव के पेंदे में वह आदमी लडखडाता, गिरता-पडता, बदहवास सा धरन के दरवाजों की संद पर लकडी के बत्ते ठोंक रहा था. जिन कोठियों में राशन भरा था वे पानी में डूब चुकी थीं. उन्हें खोलने का कोई उपाय न था अब. ठेकेदार ने जो फट्टे और बत्ते उसे दिये थे वे कमजोर थे. पानी के दबाव से पहले तो वे मुड गये और या तो कील सहित उखड गये और जो न उखडे तो वे टूट गये. धरन में इतना पानी भर गया था कि नाव धरन की दिशा में थोडा झुक गई थी. आदमी ने धरन की कोठियों में पूरे साल भर का राशन रखा था. सभी प्रकार के जानवरों के लिए और खुद के लिए भी पर अब सब पानी में डूब गया था.
दो रोज बाद बादल छंटे थे और हल्का प्रकाश फैला था. दूर-दूर तक पानी ही पानी दीखता था. आकाश और समंदर मिल गये लगते थे. समंदर में बडी-बडी लहरें उठ रही थीं. किसी दानव की तरह गरजती वे लहरें नाव से टकरातीं, एक के बाद एक. उनके प्रहार से नाव तेज हिचकोले खाती और जब तक नाव लहर पर ऊपर उठकर नीचे आती तब तक दूसरी विशाल लहर उससे आ टकराती. आदमी को बार-बार उल्टियाँ हो रही थी. लहरों पर हिचकोले खाती उठती-गिरती नाव में जानवरों के रेंकने, गुर्राने, भौंकने की आवाज सारी रात आती रही थी. दूर तक दीखते लहरों में पछाड मारते समंदर में जगह-जगह बर्फ के बडे-बडे हिमखण्ड तैर रहे थे. दुनिया की तबाही का मलबा एक चौड़ी लंबी लकीर की शक्ल में इन लहरों पर नाच रहा था. उनके साथ ही समंदर में तैरती लाशों का एक हुजूम भी लहरों के साथ ऊपर नीचे हो रहा था. आकाश के काले बादलों से आती रौशनी में समंदर का यह मंजर किसी नर्क सा दीखता.
आदमी ने मांसाहारी जानवरों को बडे-बडे पिंजरों में बंद कर रखा था. वे उन पिंजरों में गुर्राते, अपने दाँत दिखाते बेचैन इधर से उधर हो रहे थे. पिंजरे को तोडने के लिए पूरी रात वे उन पर अपने नाखून मारते रहे थे. पेडों और शाकाहारी जानवरों के बीच एक बागड थी. बागड नाव के हिलने डुलने से कमजोर हो गई थी. जानवरों को पिछले एक सप्ताह से खाना न मिला था. सारा राशन पानी में डूबकर खत्म हो गया था और उन्हें खिलाने को कुछ भी न था. भूख अपने चरम पर थी. वह खुद भूख से निढाल नाव की भीत के एक कोने में पडा था. लहरों पर डोलती नाव का कोई मुकाम न था. हर तरफ पानी था. लहरें थीं. जमीन का हर कतरा पानी में दफ्न हो चुका था.
भीत पर पडे-पडे ही उसने देखा था कि किस तरह से तमाम जानवरों ने अपने सींग से पेड-पौधों और उनके बीच की बागड को गिरा दिया था. भूख से बदहवास जानवर उन पेड-पौधों पर टूट पडे थे. आदमी के भीतर जैसे कुछ दरक गया था. वह उन्हें रोकने की कोशिश में उनकी ओर लपका था, पर वे सैंकडों थे और वह अकेला. जानवरों को यह समझाना नामुमकिन था कि हो सकता है कुछ दिनों के बाद जमीन मिल जाये और जीवन की फिर से शुरुआत हो. इस तरह एक दूसरे को खाकर हम नई दुनिया नहीं बसा सकते. वे जानवर इतने भूखे थे कि उन्होंने तमाम वनस्पतियों पर हमला कर दिया था. कई पौधे उनके खुरों के नीचे कुचल गये थे. कई झाडियों को उन्होंने रौंद डाला था. इसी तरह की वह भी एक रात थी जब जानवरों की आवाज से वह आदमी जाग गया था. पर भूख और कमजोरी से निढाल वह वहीं नाव की भीत पर पडा रहा था. कुछ आदमखोर अपने पिंजरे से बाहर निकल आये थे और उन्होंने जानवरों पर हमला कर दिया था. नाव की भीत जानवरों के खून से रंग गई थी. कहीं किसी का सींग वाला सिर पडा था तो कहीं किसी का पैर. कुछ जानवर नाव से बाहर कूद गये थे और हहराते समंदर में समा गये थे.
वह एक दिन था. बादल छंट चुके थे. नाव की भीत मरे हुए जानवरों की लाशों और कटे फटे अंगों से भरी हुई थी. चारों ओर बदबू थी. खून और कटे फटे अंगों पर कीडे-मकौडे रेंग रहे थे. भूख से निढाल आदमी नाव के सबसे सामने के कोने में पडा था. तीन आदमखोर उसके ऊपर गुर्राते खडे थे. एक आदमखोर का खून से सना विशाल रदनक उसके सर के ऊपर था. एक ने उसकी छाती को अपने नाखूनों से खरोंच दिया था. आदमी के शरीर में ताकत न थी. वह पूरे दस दिनों से भूखा था. पर अब वह इन भूखे आदमखोरों के निवाले से ज्यादा कुछ न था. उसने डूबती आँखों से आसमान की ओर देखा था. बादलों के पीछे ईश्वर था. ईश्वर उससे नाराज था. ईश्वर उससे इस बात पर नाराज था कि उसने जमीन के एक इंसान पर भरोसा किया था. उसने ईश्वर की हिदायत का उल्लंघन किया था.
उसने न सिर्फ उस इंसान पर भरोसा किया बल्कि उसी इंसान के दिये फट्टों और बत्तों से नाव की धरन बनाई थी. उसने उसके लाये बढई से, नाव पर कीलों से उन फट्टों और बत्तों को ठुकवाया था. इंसान पर भरोसा करके उसने ईश्वर के कायदे को तोडा था और इस तरह दुनिया को फिर से बसाने के काम को मटियामेट कर दिया था. वह अब सिर्फ आदमखोरों का निवाला था और ईश्वर उससे बेतरह नाराज़ था.
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‘गुलमेहंदी की झाड़ियाँ’, ‘भूगोल के दरवाजे पर’, ‘जंगल में दर्पण’ (कहानी संग्रह), लौटती नहीं जो हंसी राजा, जंगल और काला चाँद (उपन्यास) आदि प्रकाशित
- tarun.bhatnagar.71@facebook.com
तरुण भटनागर की कहानी प्रलय में नाव जब मैं पहली बार पढ़ा था तब से उसका प्रशंसक बन गया हूं। अद्भुत कहानी है और बहुत ही अद्भुत ढंग से और अद्भुत शिल्प में तरुण ने उसे लिखा है ।इसे पढ़कर मैंने इसकी तारीफ विनोद कुमार शुक्ल जी से की तो उन्होंने भी इसे पढ़कर तरुण भटनागर को बधाई दी। बहुत-बहुत बधाई इस अच्छी कहानी के लिए तरुण भटनागर को और इस कहानी को यहां समालोचन में देने के लिए समालोचन को साधुवाद।
धन्यवाद प्रोफ़ेसर अरुण जी कि मेरे लिए लिंक पर टिप्पणी करने का स्थान उपलब्ध करा दिया । “आँखों में सारी रात जायेगी” की तरह आज का इंडियन एक्सप्रेस बिना पढ़े रह जायेगा । कुछ पाने के लिए ज़्यादा खोना पड़ता है । मुझे आपके व्यक्तित्व और कृतित्व से मोहब्बत है । मेरी आज की पोस्ट पढ़ना । तरुण जी भटनागर ने आरंभिक पंक्तियों में मन को मोह लिया है । इन्होंने माँ और प्रकृति के गुणों को एक समान माना है । माँ और प्रकृति करुणामय होती हैं । हम न समझ सकें यह हमारी भूल है । प्रकृति न्यायमूर्ति है । वह मुनाफ़ाख़ोर व्यापारियों को दण्ड देगी । मैं पुनर्जन्म में विश्वास करता हूँ । इस जीवन में जितने भी हमें कष्ट झेलने पड़ते हैं वे इस जन्म और पिछले जन्मों के कारण मिलते हैं । हम समझ नहीं पाते कि हमें ये तकलीफ़ें क्यों हुईं । हम ही ने अपने जीवन मूल्यों का विघटन किया है । विघटन विध्वंसक होते हैं । हिरोशिमा और नागासाकी मानवीय भूल के परिणाम हैं । ये शताब्दियों तक नहीं भुलाये जा सकेंगे । जैसे हिटलर के । बहरहाल, वापस लिंक को पढ़कर लिखूँगा । ‘परिस्थितियों की रक्षा का दायित्व मनुष्य पर है’ । मनु स्मृति में एक श्लोक है
‘धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्
तरुण जी के पहले कहानी लेख की व्याख्या से मैं सहमत हूँ । हिन्द महासागर में पाये जाने वाले जीव “डोडो’ को अपना किया हुए दुराचरण का दण्ड मिला और यह प्रजाति पिछले तीन सौ वर्षों से विलुप्त हो गयी । मेरी समझ में हमारी बोलियाँ भी लुप्त हो जाएँगी । बोलियाँ स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रमों में नहीं होतीं । हम अपने बच्चों को अपनी अपनी बोली सिखायें । बच्चों में क्षमता और योग्यता होगी तब वे दुनिया की कितनी भी भाषाएँ सीख सकेंगे । थोड़ी देर बाद कुछ और लिखूँगा ।
नूह शब्द समझ में नहीं आया । हरियाणा के मेवात इलाक़े में नूह ज़िला है । यह मुस्लिम बहुल इलाक़ा है । यों तो पृथ्वी को अस्तित्व में आये 3.5 अरब वर्ष हो चुके हैं और संभव है कि पृथ्वी पर होने वाले ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण जीवन 25 करोड़ सालों में ख़त्म हो जाये । तरुण जी ने कहानी में सांकेतिक वर्ष लिखे हैं । उनके कहने का तात्पर्य यह है सभी व्यक्तियों के शरीर, पृथ्वी और अन्य ग्रहों के भी जीवन होते हैं । वर्षाकाल में कीट-पतंग एक दिन के जीवन काल में समाप्त हो जाते हैं । सोवियत यूनियन के दिनों में 20 वर्षों के कार्यकाल के आरंभिक दिनों में स्टैलिन के कहने पर 2.5 करोड़ व्यक्तियों का क़त्ल करा दिया था । इन व्यक्तियों का क़ुसूर इतना था कि वे परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास रखते थे । तरुण जी की लिखी दो बातें फंतासी की तरह लगती हैं कि समुद्र के पानी को वैज्ञानिकों ने पीने के योग्य बना दिया था तथा नक़ली हवा का ईजाद किया जो असली मगर प्रदूषित हवा के मुक़ाबले स्वास्थ्यवर्धक थी । आधुनिक युग में नाव बनाना अटपटा लगता है । भटनागर साहब ने लिखा है कि पानी की ज़रूरत के लिए अब नदियों की ज़रूरत नहीं रह गयी थी । सही शब्द मग्रूर और मस्रूफ़ हैं तथा उर्दू के शब्द लिखकर तरुण जी ने कहानी को रसीली बना दिया है । जिस वाक्य में दफन का इस्तेमाल किया गया है वहाँ दफ़्न आना चाहिए ।
2. इस कविता पर दो बार टिप्पणी कर चुका हूँ । फिर भी पोस्ट नहीं हुई । मैं इसकी कॉपी कर लेता तो आपको भेज देता । दवाइयाँ खाने से दोपहर के समय नींद आती है । इस डेढ़ घंटे में तीन बार चाय पी चुका हूँ । टाँगों पर कंबल ओढ़कर बैठा हूँ । दो घंटे पहले नेटवर्क नहीं था । इस कारण टिप्पणियाँ पोस्ट नहीं पोस्ट हुईं । फिर से टिप्पणी करूँगा । दूसरी कहानी भूतहा है, लेकिन दिलचस्प और डरावनी भी ।
2. अरुण जी और तरुण जी, आप जानते होंगे कि जैन पंथ के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर जाति स्मरण की विद्या जानते थे । अर्थात् जो व्यक्ति महावीर के शरण आता था तो वे उस व्यक्ति के पिछले जन्मों का लेखा-जोखा जानते थे । बुद्ध का जन्म महावीर से पहले हुआ था । समकालीन कह सकते हैं । बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त हो गया था । तरुण जी भटनागर इस कथा में कह सके हैं कि नाव बनाने वाले के पुरखे भी नाव बनाते थे । बुद्ध कहते हैं कि संसार में हमारी यात्रा रूपी नदी दुखों से भरी हुई है । दुनिया दुखों से समाप्त हो जायेगी । “किस से दिल बहलाओगे तुम, जिस दम मेरी ज़ात न होगी” यहाँ ज़ात common noun का प्रतीक है । पग पग पर काँटे चुभते हैं । शरीर की पीड़ा का घनत्व आत्मा तक पहुँचता है । कोई प्राणी इन दुखों से बच नहीं सका । इस कविता में जगह जगह नावों का ज़िक्र है । कहानीकार obsessed हैं । आज की पीढ़ी सोशल मीडिया से एकरूप हो गयी है । उन्हें इस भूतहा कथा से डर नहीं लगेगा । चौथी बार दूसरी कविता को पढ़ रहा हूँ । इसलिए मेरा डर कम हो सका है । इस कहानी में राजकुमार और उसका मुलाज़िम संयुक्त रूप से एक पात्र हैं । इनके पद नाम क्रमशः कुमारामात्य और अकाराध्यक्ष हैं । इन्हें ख़बर है कि एक व्यक्ति बर्फ़ीले पहाड़ के जंगल (पारस्परिक विरोधाभास) में नावें बनाता है । मुझे अचरज होता है कि घनी बर्फ़ के पहाड़ पर नावें बनाने के लिए लकड़ी कहाँ से उपलब्ध होती होगी । राजकुमार और उसके मुलाज़िम को नाव बनाने वाला व्यक्ति उन्हें अपना शत्रु या गुप्लतच लगता है । राजकुमार और उसके मुलाज़िम को मालूम होता है कि “जीवक” नाम का बहादुर व्यक्ति है । उसे काम सौंपा जाता है । नावें बनाने वाले गुप्तचर व्यक्ति के पास जीवक चार सैनिकों के साथ सात महीने की यात्रा करके पहुँचता है । उसके दो सैनिक मशालें लेकर वहाँ पहुँचते हैं । दो मशालों से भी वे पूरी नाव को एक साथ नहीं देख सकते । नाव की विशालता का पता चलता है । जीवक के मशालवाहक नाव की झोपड़ी को जला देते हैं । वह अपने बच्चों को लेकर भाग जाता है । वह सैनिकों को बद्दुआएँ देता है । राजकुमार, मुलाज़िम, जीवक और उसके सैनिकों को पाप लगेगा ।