मीना बुद्दिराजा
कुछ पुस्तकें सच में पाठकों के लिए बहुत जरूरी होती हैं जो उनकी दृष्टि का विस्तार करती हैं, सोच के नज़रिये को बदलती हैं, किसी रचनाकार और व्यक्ति विशेष के बारे में पूर्वाग्रहों और पूर्व निर्मित बनी-बनाई अवधारणाओं से मुक्त करती हैं. किसी व्यक्ति विशेष और रचनाकार के जीवन को उस समय में होने वाले सभी परिवर्तनों की जटिलता को अपने भीतर समेटकर उसके अंतर्बाह्य जीवन का निष्पक्ष रूप प्रस्तुत करती है. इस दृष्टि से जीवनी और संस्मरण ऐसी विधा है जो आज के साहित्यिक परिदृश्य में लगभग हाशिये पर है. हिंदीं में कलम का सिपाही, निराला की साहित्य साधना तथा आवारा मसीहा जैसी और भी उत्कृष्ट जीवनी परक साहित्यिक रचनाओं का होना अनिवार्य है. हमारा दायित्व है कि जिन युग प्रवर्तक रचनाकारों ने हमारी साहित्यिक चेतना को गढ़ा, उसे एक विचारधारा, एक मूल्य दृष्टि दी और व्यापक संवेदना एवं चिंतन का आधार देकर इतिहास और संस्कृति में नाम अमिट किया. जिन्होने आने वाली पीढ़ियों के लिए सार्वकालिक और कालजयी रचनाएँ दीं. उनके जीवन-संघर्ष, आदर्श और अनेक अनछुए पहलुओं को जानने और कृतज्ञता बोध के लिए उनसे परिचित होना जीवनी विधा के रूप में एक सशक्त माध्यम है.
जीवन वृतांत से जुड़ी होने के कारण हम सतही तौर पर कह सकते हैं कि किसी दूसरे के जीवन को तटस्थ और वस्तुपरक भाव से देखना आसान होता है लेकिन तथ्यों को पूरी तरह से निरपेक्ष और राग-बंध से मुक्त होकर देखने, जीवन के सभी पहलुओं को ठीक-ठीक समझने और उनका महत्व और मूल्यांकन करने में जीवनी लेखक की भूमिका बहुत दायित्वपूर्ण और ऐतिहासिक महत्व रखती है. इसमें दृष्टि की विशदता, उदारता और घटनाओं को आंतरिक रूप से देखना यह सभी कठिन अध्यवसाय ही जीवनी को लिखने के संकल्प में कार्यान्वित होते हैं. यह उस रचनाकार की रचना प्रक्रिया को भी जीवन के साथ जानने समझने का ही तरीका है. हिंदी में अच्छी यहाँ तक कि प्रसिद्ध साहित्यकारों की जीवनियाँ बहुत कम हैं जो श्रेष्ठ हों. रचनात्मक पक्ष की दृष्टि से इसके लिए गहरी उदासीनता का भाव है. इस संवेदनहीन स्थिति में जो लेखक निष्ठा और दृढ़ संकल्प से शोध-परिश्रम से और तथ्यों की खोज करके जीवनी लिख रहे हैं वह नि:संदेह एक दस्तावेज़ की तरह संग्रहणीय होती हैं. जो राष्ट्र की अस्मिता को रूपायित करती हैं साथ ही जीवनीकार का आत्म-बिम्ब और जीवन-चरित भी प्रवादों और किवदंतियों से मुक्त होकर वास्तविक पहचान के साथ सामने आता है.
समकालीन गद्य के परिदृश्य में इस अभाव की पूर्तिकरते हुए हिंदी के कालजयी मूर्धन्य कथाकार ‘जैनेन्द्र कुमार’ की जीवनी के रूप में प्रख्यात आलोचक-लेखक ज्योतिष जोशी की नयी पुस्तक “अनासक्त आस्तिक” शीर्षक से हाल ही में प्रतिष्ठित ‘राजकमल प्रकाशन’ से प्रकाशित होकर आना कई संदर्भों में बहुत सार्थक और अनिवार्य है. साहित्य, कला-संस्कृति और रंगमंच के गहन अध्येता-आलोचक ज्योतिष जोशी जिन्होनें इस क्षेत्र में आलोचना को कई स्तरों पर अपनी मौलिक दृष्टि से समृद्ध किया हैं. अनेक पुस्तकों के लेखक-संपादक और साहित्य-कला-आलोचना में उत्कृष्ट योगदान के लिए विशिष्ट पुरस्कारों से सम्मानित ‘ज्योतिष जोशी’ जी की यह नवीन पुस्तक ‘अनासक्त आस्तिक’ हिंदीं कथा- साहित्य के इतिहास में प्रेमचंदोत्तर काल के युग प्रवर्तक रचनाकार जैनेंद्र कुमार के जीवन, साहित्य-यात्रा और युगीन परिवेश में उनके विराट व्यक्तित्व को विहंगम और सुव्यवस्थित रूप से पाठकों के सामने लाती है.
इस पुस्तक में उनके जीवन के महत्वपूर्ण तथ्यों और घटनाओं को कथा के सूत्र में विविध सर्गों(अध्यायों) के अंतर्गत पिरोकर रोचक और प्रवाहमयी शैली में प्रस्तुत किया गया है जिसमें गंभीरता और गरिमा के साथ अद्भुत पठनीयता का गुण भी विद्यमान है.
रज़ा फाउंडेशन फेलोशिप योजना के अंतर्गत लिखी गई इस जीवनी के आमुख में प्रख्यात कवि- आलोचक अशोक वाजपेयी ने इसे हिंदी साहित्य में एक बड़े अभाव की पूर्ति का उद्देश्य पूर्ण होने पर संतोष व्यक्त किया है. इस महत्वपूर्ण जीवनी में विलक्षण रचनाकार जैनेंद्र कुमार के साहित्य, विचार और सार्वजनिक-राष्ट्रीय जीवन में भी निरंतर उनकी जो उपस्थिति-सक्रियता रही उसका क्रमिक विकास और तथात्मक चित्रण है. एक अनूठे साहित्यकार के रूप में उनके बहुरंगी जीवन, समय,परिवेश और परिस्थितियों का 25 वर्षों तक शोध करने के बाद अनवरत छह महीनों तक ‘ज्योतिष जोशी’ के लगातार लेखन के बाद यह जीवनी अत्यंत प्रामाणिक और तथ्यात्मक-निष्पक्ष रूप से पाठकों के सामने आती है. इस पुस्तक में आद्यंत जैनेंद्र जी का बहुआयामी जीवन और संघर्ष समसामयिक प्रभावों से क्रमश: विकसित होता हुआ एक परिपूर्ण आकार लेता है. कथा की स्वत:स्फूर्त शैली में बुनी गई यह जीवनी अपने स्वाभाविक प्रवाह में आगे बढ़ती जाती है जिसमें कहीं-कहीं आवश्यक संवादो को भी जोड़ा गया है जो पुस्तक को जीवंत और रोचक बनाते हैं. सभी संदर्भों और तथ्यों के अध्ययन-मनन और गहन दीर्घ शोध के साथ इतने बड़े रचनाकार-विचारक की जीवनी लिखना विशद और कठिन काम है जिसमें अपेक्षित धैर्य निष्ठा, तन्मयता,तटस्थता और ईमानदारी का निर्वाह किया गया है.
अपने युग के बड़े कथाकार जैनेंद्र कुमार के जीवन और रचनात्मक अवदान को परखने का यह प्रयास निश्चय ही उन्हें नये सिरे से रेखांकित करने-समझने में सहायक होगा. प्रेमचंद के बाद जैनेंद्र ने कथा-साहित्य को वृहद और समृद्ध किया और उसे नई भाव भूमि दी. इसके साथ ही जैनेंद्र कुमार आजीवन प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक-अन्यतम दार्शनिक भी रहे और भारत सहित वैश्विक राजनीति पर अपनी गहरी दृष्टि रखने वाले प्रबुद्ध, स्वाधीनता आंदोलन के तपोनिष्ठ सत्याग्रही भी रहे. उन्होने अपना सारा जीवन देश और लेखन को समर्पित किया. उन्होनें अनासक्त रहते हुए संयम, उदारता और मानवता के आधार पर जो लिखा वह हमेशा एक नयी राह की खोज का कारण बना.
हिंदी कहानी-उपन्यास को एक नयी भाषा, शिल्प और आधुनिकतम प्रविधियों में ढालकर जैनेंद्र नें परंपरागत लीक से हटकर नये विषयों पर विचार करने का प्रथमत: साहस किया. स्त्री के अस्तित्व को सदियों के उत्पीड़न और रूढियों से मुक्त कर अपनी स्वंतत्र पहचान और आकांक्षाओं के साथ उभारा जो स्त्री-मुक्ति के लिए एक नया कदम था. ये सभी बिंदु इस औपन्यासिक जीवनी में सात पर्वों के अंतर्गत- जीवनारंभ, सत्याग्रह, स्वाधीनता, स्वधर्म, स्वत्व–बोध, असार संसार और अंतिम अध्याय महाप्रयाण तक जैनेंद्र कुमार के जीवन की सहजता, गरिमा और साहित्य-यात्रा को सिलसिलेवार तरीके से पाठकों के सामने बेहद पठनीय तथा आत्मीय शैली में प्रस्तुत करते हैं.
पुस्तक के मध्य में ‘छवि-वीथि’ के अंतर्गत उनकी पुस्तक ‘अकाल पुरुष गाँधी’ के जैनेंद्र जी के हस्तलिखितपृष्ठ के साथ ही कुछ दुर्लभ छाया-चित्रों-फोटोकेसंग्रह को भी संजोया गया है जिनमें पारिवारिक-चित्रों और समकालीन साहित्यकारों जैसे प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त, महादेवी वर्मा, निर्मल वर्मा, अज्ञेय के साथ जुड़ी स्मृतियाँ और भारत-भारती सम्मान के गौरवपूर्ण क्षणपाठकों के लिए भी बहुमूल्य हैं.
2 जनवरी 1905 को अलीगढ़ के कौड़ियागंज कस्बे में अलीगढ़ के कौडीयागंज कस्बे में रामदेवी बाई ने सकट चतुर्थी के दिन एक सुंदर बालक को जन्म दिया. जिसे सकटुआ नाम कहकर पुकारा गया लेकिन पिता ने बालक के तेजोदीप्त मुखमंडल को देखकर नाम दिया- आनंदीलाल. दो वर्ष की उम्र में ही पिता को खो देने पर उनकी माँ के जीवन संघर्ष और कठोर परिस्थितियों के कारण मामा भगवान दीन के साथ रहना पड़ा. शिक्षा-दीक्षा के लिए उन्हें ‘हस्तिनापुर ऋषभ ब्रह्यचर्याश्रम’ में नामांकन के लिए उनका नाम बदलकर जैनेंद्र रखा गया. उनकी प्रखर और कुशाग्र बुद्धि के कारण आगे की शिक्षा के लिए बनारस के हिन्दू कॉलेज में भेजा गया. लेकिन मामा के देशप्रेम , राष्ट्रीय जागरण के अभियान से जुड़कर और गाँधी जी के प्रभाव से कांग्रेस के असहयोग आँदोलन में भाग लेने के कारण जैनेंद्र नें पढाई छोड़ दी. इसी बीच आजीविका के लिए संघर्ष और देश हित के लिए आंदोलनो में हिस्सा लेते हुए दिल्ली लौटकर लिखने का संकल्प करते हुए 1927 में उन्होनें लिखने का संकल्प करते हुए पहली कहानी लिखी-‘खेल.यह कहानी ‘विशाल भारत’ में छपी लोकप्रिय हुई और यह वर्ष उनके लिए उर्वर सिद्ध हुआ.
1921 में उनका कहानी-संग्रह ‘फाँसी’ प्रकाशित हुआ और इसकी सफलता के बाद इसी वर्ष प्रसिद्ध उपन्यास ‘परख’ भी छपा और हिंदी को एक सम्पूर्ण कथाकार मिल गया. इस उपन्यास में पांरपरिक ढाचे को तोड़ते हुए बाल-वैधव्य के पाखंड पर प्रहार करते हुए स्त्री की नियति पर बड़े प्रश्न उठाए गए. प्रेमचंद की मानवीय लेखनी से प्रभावित जैनेंद्र कुमार मानते थे कि ‘जो काल के दुर्धर्ष थपेड़ों से अचल रहेगा, वही किसी की सच्ची वेदना, सच्चे त्याग पर एकाएक गलकर किसी भी दिशामें बह सकता है.‘
जैनेंद्र के मन में गाँधी के सत्याग्रह, प्रेम और स्वराज का एक स्वप्निल आदर्श था जिसे उग्र और हिंसक संगठनों में शामिल होकर युवक अपने आचरण से तहस-नहस कर रहे थे. सत्ता और स्वार्थ के इस द्वैत का प्रतिकार करते हुए उन्होनें 1934 में ‘सुनीता’ उपन्यास लिखा जिसने हिंदी साहित्य जगत में जैसे भूचाल ला दिया. भाषा, शिल्प और कथ्य के साथ मनोविज्ञान के धरातल पर नायिका के रूप में सामाजिक मान्यताओं को ठुकराकर स्त्री की जो नई स्वतंत्र छवि उन्होनें रखी उस पर बहुत विवाद और आपतियाँ भी हुईं. 1935 में ‘एक रात’ कहानी संग्रह, 1937 में ‘नयी कहानियाँ’ शीर्षक से वैवाहिक-और संकीर्ण सामाजिक समस्याओं पर आया कहानी- संग्रह और 1937 में ‘त्यागपत्र’ उपन्यास के प्रकाशन के साथ ही हिंदी साहित्य में सनसनी फैल गई. इसे उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास कहा गया जिसमें ‘मृणाल’ के माध्यम से जैनेंद्र ने भारतीय समाज की पारंपरिक नैतिकता और मर्यादाओं को ध्वस्त कर भारतीय सामाजिक जीवन में स्त्री के लिए नयी नैतिकता की नींव रखी.
यह उपन्यास स्त्री शक्ति के अभ्युदय का विराट आख्यान था. हिंदी उपन्यास के इतिहास में आधुनिक नारी का यह पहला प्रवेश था जो अपने स्वरूप में क्रांतिकारी थी और जिसने सामजिक रूढ़ियों के ढांचे, व्यवस्था और पारंपरिक मूल्यों पर चोट करते हुए नये मानवीय संबंधों की खोज की. मृणाल कहती है कि उसका विद्रोह समाज को तोड़ना-फोड़ना, विवाह संस्था का तिरस्कार और अनैकितता की यातना भोग रहे व्यक्ति का विद्रोह है और उसका चरित्र पारंपरिक स्त्री-नायिकाओं के समक्ष चुनौती बनकर खड़ा होता है.
इसी वर्ष ‘जैनेंद्र के विचार’ शीर्षक पुस्तक आई जिसमें जैनेंद्र के साहित्य, कला, दर्शन, आलोचना, धर्म, संस्कृति पर उनके प्रबुद्ध विचारों को संकलित किया गया है. इसी वर्ष 1937 में ही उनका चौथा उपन्यास कल्याणी प्रकाशित हुआ जो स्त्री-पुरुष संबंधों के बीच प्रेम और दांपत्य के नये प्रश्नों के साथ आया. 1938 में ‘नीलम देश की राजकन्या’ सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विषयों पर कहानी -संग्रह भी प्रकाशित हुआ जिसे पाठकों का अपार प्रेम मिला लेकिन आलोचको ने फिर इसे यथार्थ विरोधी कहते हुए प्रतिक्रियाएँ दी. इसके बाद ‘पाजेब और जयसंधि 1948 में प्रकाशित होकर आये लेकिन गाँधी जी की हत्या और विभाजन की त्रासदी के बाद मिली आज़ादी का दुख अभी भी जैनेंद्र जी के मन को व्यथित कर रहा था.
1948 से 1951 तक उन्होने लम्बी खामोशी अख्तियार कर ली. इस वर्ष वे फिर से संकल्पबद्ध हुए और ‘पूर्वोदय’ पुस्तक का प्रकाशन हुआ जिसमें राजनीति-संस्कृति , सर्वोदय, गांधी नीति, लोकतंत्र पर उनका गंभीर चिंतन है. इसके बाद सुखदा और विवर्त उपन्यास 1953 में प्रकाशित हुए जिनमें वे पारंपरिक स्त्री के मिथक को तोड़कर उसकी मुक्ति का नया पाठ तैयार करते हैं.और इसी वर्ष ‘स्पर्धा’ नामक उनका कहानी-संग्रह भी शिल्प, भाषा और विषय की नवीनता के कारण चर्चित हुआ. इसके बाद व्यतीत, जयवर्द्धन उपन्यास आये जिसमें भारतीय राष्ट्र- राज्य का चिंतन, आदर्श और आहिंसा को प्रतिष्ठित किया गया है. इसी वर्ष1956 में उन्हें चीन के राष्ट्रीय साहित्यिक महोत्सव में शामिल होने का आमंत्रण मिला जिसमें जैनेंद्र जी की सादगी और उनकी वक्तृता को बहुत सम्मान मिला. 1960 में मास्को की साहित्यिक यात्रा और गोष्ठियों के दौरान जैनेंद्र टाल्सटाय के प्रसिद्ध स्मारक पर भी गये जिनके मानवतावाद और करुणा में उनकी गहरी आस्था थी और जिनके नाटक का अनुवाद उन्होने ’पाप और प्रकाश’ शीर्षक से किया था. इसके बाद जो भी पुस्तकें उन्होने लिखीं उसमें विश्वदृष्टि के व्यापक बोध के साथ एक सत्याग्रही राष्ट्र-चिंतक के रूप में स्थिरता, विवेक और दायित्व के साथ वे सभी ज्वलंत प्रश्नों के संदर्भ में विभाजन और स्वराज की सच्चाई का मूल्यांकन करते रहे.
1970 में वे पत्नी भगवती देवी के साथ जापान की यात्रा पर गए. 1971 में पद्मभूषण अलंकरण और बहुत से सम्मानों के बाद भी जैनेंद्र जी जीवन-व्यवहार में आदर्श और अनासक्त बने रहे। परंतु वे देश की राजनीतिक परिस्थितियों के प्रति सजग और ज़िम्मेदार बौद्धिक-चिंतक के रूप में हमेशा सक्रिय रूप से उपस्थित रहते थे. 1985 में पत्नी की मृत्यु के पश्चात उनका ह्रदय जैसे विचलित हो गया. इसी वर्ष उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत भारती’ मिला जिस अवसर पर प्रधानमंत्री के वक्तव्य में उन्हें ’आत्मा का शिल्पी’ कहा गया. उनका जीवन किसी साधना से कम नहीं थाऔर सभी परिचितों को वे असाधारण और गृहस्थ सन्यासी का आदर्श दिखते थे.
जैनेंद्र जी का अंतिम उपन्यास ‘दशार्क’ उनके जीवन काल में ही 1985 में प्रकाशित हुआ जो उन्होनें पुत्र दिलीप के कहने पर बोलकर लिखवाया था. इसके प्रकाशन के बाद भी हिंदी जगत में खलबली सी मची. जीवन के यथार्थ के संदर्भ में विवाह, प्रेम, परिवार और समाज में विवाहेतर स्त्री-पुरुष संबंधों और उपभोक्तावाद के प्रभाव से बिखरते मूल्यों-संस्कार और विचारों के विस्फोट के रूप में यह उपन्यास समाज की अनेक विसंगतियों व असुविधाजनक प्रश्नों से टकराता है. 1986 में भारत भवन भोपाल में ‘जैनेंद्र प्रसंग ’नाम से भव्य आयोजन हुआ जिसमें जैनेंद्र स्वयं उपस्थित रहे और अपने कृतित्व पर आलोचना-प्रशंसा के भावों को मुक्त मन से अंगीकार करते रहे. अशोक वाजपेयी, निर्मल वर्मा, पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रभात त्रिपाठी , विजय मोहन सिंह जैसे आलोचकों ने बेबाक राय रखी. ‘आलजाल’ पुस्तक को न लिख पाने का अफसोस भावुक होकर जैनेंद्र जी नें यहाँ भी व्यक्त किया.
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(ज्योतिष जोशी) |
22 नवम्बर 1986 को राष्ट्र्कवि मैथिलिशरण गुप्त के जन्म-शताब्दी समारोह में गुड़गाँव पहुंचकर अपना लंबा वक्तव्य दिया जिसमे गुप्त जी की राष्ट्र-राज्य-दृष्टि और जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा को साहित्य में बुनियादी और गहरा कार्य बताया. इस व्याख्यान के बाद ही उनकी तबीयत बहुत बिगड़ गई और आयुर्विज्ञान संस्थान में वे भर्ती रहे. निष्क्रिय शरीर और वाणी से असमर्थ जैनेंद्र अश्रुओं और पीड़ा को शांत मन से झेलते रहे. इसी बीच 4 अप्रैल1987 में उनके स्नेही मित्र ‘अज्ञेय’का भी देहांत हो गया जिसके बाद वे अधिक व्याकुल हो गये और उनका धैर्य जैसे टूटने लगा. सभी साहित्यिक मित्रऔर परिवार उनके स्वस्थ होने की कामना करते.
11 सितंबर 1987 को महादेवी वर्मा का भी निधन हो गया जिनसे जैनेंद्र जी की गहरी आत्मीयता और लगाव था. इस शोक से वे दुखी होकर मौन जैसे शून्य में अटक गये. जिन जैनेंद्र पर सबसे अधिक विवाद हुए, सबसे ज्यादा आक्षेप पर वे तटस्थ रह्ते और सबको निरुत्तर करते हुए वे एक निरीह जीवन जी रहे थे. सभी लेखक-राजनीतिज्ञ उनकी मूर्धन्य उपस्थिति और विलक्षणविचारों की नवीनता के कायल थे जिसके आलोक में आगामी पीढ़ी को राह दिखाई देती है. अंतिम दिनों में मौन भाव और संयम से वेदना को सहते हुए जैनेंद्र जो आजीवन सतत कर्मशील साधक रहे, जीवन की सार्थकता और व्यर्थता पर विचार करते रहे और अंतर्मन की आवाज़ सुनते. उनके पुत्र प्रदीप कुमार पिता के इन आँसुओं की भाषा समझते थे.
24 दिसम्बर 1988 शनिवार की सुबह मृत्यु के सत्य को प्रणाम करते हुए जैनेंद्र कुमार जी ने अंतिम साँस ली.
जैनेंद्र का जाना, एक अप्रतिहत, अनासक्त, मानवता प्रेम के साधक का जाना था जिसमें एक पूरा युग समाया था. उनके निधन से हिंदी भाषाका जगत जैसे दरिद्र हो गया. जीवन के सार्थक मूल्यों के प्रवक्ता के जाने से जो शून्य उभरा वह भयावह था. उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए विष्णु खरे ने अपने संपादकीय में लिखा-
“भारतीय महालेखन में वे व्यास के ज्यादा समीप हैं, वाल्मिकि से कम कबीर ज्यादा हैं, सूर-तुलसी कम, गालिब-मीर ज्यादा हैं, इकबाल-फैज़ कम. उन्हीं की शैली में जिसकी संक्रामकता घातक है, वे जैनेंद्र ज्यादा हैं, प्रेमचंद कम. प्रेमचंद की तरह जैनेंद्र भी बहुत सादा इंसान थे. जैनेंद्र मौन का इस्तेमाल हथियार के रूप में नहीं करते थे. हिंदी साहित्य में वे अमर तो 1950 में ही हो गये थे, पर इस अमरत्व को वे ओढ़ते-बिछाते नहीं थे. मानवता के प्रति उनमें असंदिग्ध प्रतिबद्धता थी और साथ में अदम्य नैतिक साहस तथा एक हमेशा जिज्ञासु, उत्सुक,पैना मस्तिष्क. उनके पाठक और लेखक जाने कि उनकी विरासत का अब क्या किया जाए लेकिन उनके जाने के बाद एक धन्यता और भय हमे है- धन्यभाव इसलिए कि हम जैनेंद्र के ज़माने में रह पाए और भय इसलिए कि अब दूसरा जैनेंद्र कोई नहीं है.”
ज्योतिष जोशी ने इस जीवनी को नाम दिया- ‘अनासक्त आस्तिक’ जो अपने अनूरूप ही जैनेंद्र कुमार के रूप में एक राष्ट्रचिंतक, लेखक, विचारक और समग्र सत्याग्रही के साथ परिपूर्ण अपरिग्रही की वास्तविक छवि को प्रस्तुत करती है. 1936 में प्रेमचंद के निधन के बाद जैनेंद्र ने उन पर एक अविस्मरणीय संस्मरण लिखा था- ‘नास्तिक संत’. प्रेमचंद नास्तिक तो थे पर संत भी थे क्योकि मानव-मात्र के प्रति करुणा से उनका समूचा जीवन और लेखन आप्लावित रहा. इसी तरह जैनेंद्र स्वंय आस्तिक तो थे परन्तु यश, अहंकारसे निर्लिप्त और किसी भी प्राप्ति के लोभ से मुक्त रहे.
यह बहुमूल्य पुस्तक अपने विराट कलेवर में जैनेंद्र जी के साथ समकालीन स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को भी जैसे साथ-साथ लेकर चलती है. जैनेंद्र कुमार जी का सीधा संपर्क और संवाद महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरु, डॉ राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गाँधी के साथ भी था जिसके अनेक प्रसंग इस जीवनी में बिखरे हुए हैं. परंतु यह संवाद राष्ट्रीय – मानवीय हितों के लिये था, निजी स्वार्थों के लिए कभी नहीं और जिसमें सत्ता से असहमति का विवेक भी और आक्रोश भी था. कांग्रेस द्वारा देश के विभाजन कोस्वीकार कर लेने के दंश और गांधी जी की पीड़ा को जैनेंद्र जी समझते थे और स्वतंत्रता के बाद सत्य और आहिंसा के आदर्श महात्मा गाँधी हत्या के बाद वे बहुत उद्विग्न हो उठे और जैसे सत्ता की आकांक्षा से उनका मोहभंग हो गया. इन सभी राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों, अंतर्विरोधों और संघर्षों के बीच जैनेंद्र जी की रचना-प्रक्रिया भी इस पुस्तक में पाठकों के सामने खुलती है और उनकी रचनाओं के उत्स भी प्रकट होते हैं. उनके जीवन की बहुस्तरीय-बहुआयामी यात्रा में आगे बढ़ते हुए यह पुस्तक अपनी विषयगत ‘रेंज़’ और वैचारिक गहराई में उनके काल-खंडके इतिहास और साहित्य से गुज़रते हुए पाठकों को उस समय का आईना उपलब्ध कराती है.
जैनेन्द्र कुमार पहले ऐसे बडे कथाकार रहे जिन्होनें कहानी-उपन्यास को घटना के स्तर से उपर उठाकर चरित्र और व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक और सूक्ष्म धरातल पर लाने का सार्थक प्रयास किया. साहित्य में वे अपने अनूठे पथ के अन्वेषक थे जिन्होनें स्थूल सामाजिक यथार्थ का मार्ग न अपनाकर मनोविश्लेषण और व्यक्ति की चेतना को महत्व दिया और यह रचना और आलोचना का आगे चलकर नया आधार बना. ‘नयी कहानियाँ’ शब्द भी सबसे पहले जैनेन्द्र जी ने ही दिया जिसके लिए वे नये, तार्किक, प्रखर विचारों के कारण पुरानी व नई पीढ़ी के लिए विवाद का केंद्र बने रहे. सामाजिक ढ़ांचे में बदलाव के साथ उनका यह मानना था कि समाज में स्त्री पक्ष को समुचित स्वतंत्रता मिले.
तमाम विपरीत हालातों के बीच अनुभवों से तपे उनके लेखन के लिए भी प्रेमचंद ने कभी जैनेंद्र को ‘भारत का गोर्की’ कहा था. बहुत से आलोचक उन्हे प्रेमचंद का विलोम और विरोधी मानकर कुपाठ करते रहे लेकिन वास्तव वे उनके पूरक थे. जैनेंद्र जी की प्रखर प्रतिभा को सबसे पहले प्रेमचंद ने ही पहचाना और अपनी अलग राह बनाने की सलाह दी. दोनों में प्रगाढ़ निकटता थी जिसके प्रमाण कई संस्मरण और वार्ताओं के रूप में इस जीवनी में मिलते हैं. अंतिम समय में प्रेमचंद के साथ जैनेंद्र ही रहे जिसके अनेक भावुक प्रसंगों का मार्मिक वर्णन पाठकों को भी द्रवित कर देता है. उनके निधन के बाद जैनेंद्र ने जैसे एक सच्चा प्रेरक मित्र खो दिया था. अत: उन्हें साथ-साथ रखकर ही जीवन, राष्ट्र और साहित्य के इतिहास में उनकी भूमिका को समग्रता से समझा जा सकता है. हिंदी साहित्य जगत में दोनों को प्रतिपक्ष में रख कर देखने की जो कुचेष्टा चलती रही उन मिथ्या अवधारणाओं को भी यह पुस्तक निरस्त-स्पष्ट करती है.
जैनेंद्र ने हिंदी कथा-साहित्य को नयी पारदर्शी भाषा, शिल्प और कथ्य की नयी प्रवृतियाँ प्रदान की और लीक से हटकर कहानी और उपन्यास ने प्रयोगशीलता का पहला पाठ उन्हीं से सीखा. उन्होने हिंदी गद्य को भाषा का नया तेवर और सूक्ष्म भंगिमा देकर उसे तराशा जिसका ‘अज्ञेय’ के साहित्य पर भी स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है. जैनेन्द्र जी की दृष्टि उदार और संवेदना के सूत्र बहुत सजीव और स्पंदनशील थे. मानवता और देश के लिए भी उनके आदर्श उतने ही प्रासंगिक थे जितना उनका लेखन जो विचारों के विस्फोट की अभिव्यक्ति बनकर आता. अनूठे कथाकार होने के साथ जैनेंद्र प्रखर चिंतक, विचारक और दार्शनिक तथा सक्रिय आंदोलनकारी भी रहे. एक अपरिग्रही के रूप में वे एक महान व्यक्तित्व भी थे जिनका समुचित मूल्यांकन अनिवार्य भी है.
एक प्रामाणिक जीवनी के रूप में जैनेंद्र साहित्य के मर्मज्ञ अध्येता-आलोचक ज्योतिष जोशी की यह पुस्तक समकालीन गद्य में जीवनी विधा को समृद्ध करने के साथ एक बड़े शून्य को भी भरती है और पाठकों के लिए दस्तावेज़ के रूप में महत्व रखती है.
जैनेन्द्र के व्यक्तित्व–विकास, जीवन-वैशिष्टय, तथा रचनात्मक अवदान को रेखांकित करने में लेखक ज्योतिष जी ने उनकी कृति ’मेरे भटकाव’ के संकेतों को इस जीवनी का आधार बनाया. उनकी शेष रचनाएं-स्मृति पर्व, अकाल पुरुष गाँधी और विष्णु प्रभाकर द्वारा संपादित वृहद पुस्तक ‘जैनेंद्र: साक्षी हैं पीढ़ियाँ’ के संस्मरणों से भी घटनाओं के संयोजन में सहायता मिली जिसका उल्लेख इस पुस्तक की भूमिका में किया गया है. यह पुस्तक न सिर्फ कथाकार जैनेन्द्र के व्यक्तिव की नयी खोज करती है बल्कि इसके माध्यम से पाठक जैसे एक विराट युग में भी विचरण करता है.
ज्योतिष जी की आत्मीय, भावप्रवण भाषा जहाँ मन में एक राग बोध को उत्पन्न करती है, पुस्तक को प्रवाह्पूर्ण और मोहक बनाती है सचेत-सजग करती है साथ ही सोचने के लिए भी विवश करती है. सभी उपलब्ध सामग्री, तथ्यों, संवादो, वार्ताओं, व्याख्यानों और संस्मरणों और स्मृतियों पर गहन शोध के पश्चात मौलिक और नयी दृष्टि से लिखी गई बेहद पठनीय, प्रवाहपूर्ण, आकर्षक और उपयोगी यह उत्कृष्ट जीवनी हिंदी साहित्य के कालजयी कथाकार ‘जैनेन्द्र कुमार’ को केंद्र में पुनर्स्थापित करने के लिए समग्र और सार्थक पुस्तक मानी जा सकती है.
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मीना बुद्धिराजा
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली -विश्वविद्यालय
संपर्क- 9873806557