सदाशिव श्रोत्रिय
जयप्रकाश मानस की जिस कविता ने सबसे पहले मेरा ध्यान आकर्षित किया वह पहल –113 में प्रकाशित उनकी “थप्प से बैठे किसी डाल पर” शीर्षक कविता थी. कविता के प्रारम्भ में एक नीम का पेड़ किसी के उस पर आकर आकर बैठने की प्रतीक्षा कर रहा है और यह प्रतीक्षित मेहमान अंतत: उस पर आकर बैठ जाता है :
बूढ़ा नीम ताके रस्ता
उड़ते उड़ते कोई आये
थप्प से बैठे किसी डाल पर
डैनों से धूल झर्राये
“थप्प से बैठे किसी डाल पर” और “डैनों से धूल झर्राये” पढ़ते हुए हमें इस इस कवि की ध्वन्यात्मक कल्पनाशक्ति का बोध होता है जो इस पक्षी की हरकतों से उत्पन्न विभिन्न ध्वनियों को इस कविता में भी उतार देती है.
इसके आगे इस कविता में यह नीम का पेड़ ही इसका ‘पर्सोना’ हो जाता है और तब वह उस पर बैठने वाले इस पक्षी का वर्णन इस तरह करता है :
ठूनके एक-दो, चार-आठ बार
मेरी कड़वी काया को
देखे-पेखे आजू-बाजू
पलकें झपके आश्वस्ति में
पेड़ से परिचय बढ़ने के बाद कवि इस पक्षी के उसके साथ रोमांस का अनूठा वर्णन करता है :
डाल बदल कर जा बैठे, फिर
ऊपर ताके,झांके नीचे
क्षण भर आंखें मीचे
कुछ गाये, चाहे समझ न आये
पक्षी का गाना उसकी एक सहज ,स्वत:-स्फूर्त प्रक्रिया है जिसे वह शायद स्वयं भी ठीक से नहीं समझ पाता. पर यह स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया से समूचा वातावरण संगीतमय हो जाता है.
पेड़-पर्सोना कविता के अंतिम पद में जो कहता है उससे यह पूरी तरह साबित हो जाता है कि उसकी गदराई निबौरियों की मादक गंध ने इस पक्षी के मन में उसके साथ ही गृहस्थी बसाने की इच्छा जागृत कर दी है और इस आशय से वह उसके साथ गुप्त प्रेमालाप भी करने लगा है :
बोले चुपके से मेरे कान में
दोस्त कड़वे – तुम्हीं मीठे
मन है कि ठहर जाऊं
घर-बार यहीं रचाऊं ?
|
(जयप्रकाश मानस) |
इस कवि के पास न केवल एक पक्षी और पेड़ के बीच के बल्कि चींटियों और स्त्रियों के बीच के भावनात्मक सम्बन्धों को भी देख सकने वाली आंख है. तभी तो वह “कोई तो थी ” (सपनों के क़रीब हों आंखें, पृष्ठ 58 ) में कह पाता है :
कोई तो थी
धान काटते समय छोड़ी जाती कुछ बालियां
कि अपने बिलों तक ले जाएं समेटकर चींटियां
और अगली फ़सल तक बचीं रहें भूख से
स्त्रियों द्वारा चींटियों की जान बचाने की यह चेष्टा केवल खेत तक ही महदूद नहीं है:
कोई तो थी
चूल्हे से खींच- खींच लाती रही लकड़ियां
देख एकाएक उस पर मचलती चींटियां
जैसे बचना उनका दुनिया का बच जाना हो
मनुष्य और पशु-पक्षियों के बीच घटती सहानुभूति और संवेदनशीलता के आज के समय में जयप्रकाश मानस की ये कविताएं विशेष रूप से अधिक प्रासंगिक नज़र आती हैं. वे मनुष्य और अन्य प्राणियों के बीच एक पारिवारिक रिश्तेदारी का अन्वेषण करती हुई लगती हैं. इसी कविता की अगली पंक्तियां देखिए :
कोई तो है
चाहती है जो – वैसी हों हमारी दादियां
मां के क़रीब रहें और – और बेटियां
बन कर सखी –सहेलियां
जैसे सदियों से चींटियां
कवि का मंतव्य स्पष्ट है : यदि हम संवेदनशील हों तो अन्य प्राणी आज भी हमारे जीवन को भावनात्मक रूप से अधिक समृद्ध बना सकते हैं.
इस कवि की संवेदनशील दृष्टि न केवल चींटियों और स्त्रियों को, बल्कि एक बेजान समझे जाने वाले घर को भी परिवार जैसे जीवंत तरीके से देखने में समर्थ है. उनके काव्य-संग्रह अबोले के विरुद्ध के पृष्ठ 39 पर छपी कविता “ एक अदद घर ” में हम इसका उदाहरण देख सकते हैं :
जब
मां
नींव की तरह बिछ जाती है
पिता
तने रहते हैं हरदम छत बन कर
भाई सभी
उठा लेते हैं स्तम्भों की मानिन्द
बहन
हवा और अंजोर बटोर लेती है जैसे झरोखा
बहुएं
मौसमी आघात से बचाने तब्दील हो जाती हैं दीवाल में
तब
नई पीढ़ी के बच्चे
खिलखिला उठते हैं आंगन – सा
आंगन में खिले किसी बारहमासी फूल – सा
तभी गमक- गमक उठता है
एक अदद घर
समूचे पड़ोस में
सारी गलियों में
सारे गांव में
पूरी पृथ्वी में
जयप्रकाश जी से जब मैंने पूछा कि उन्होंने इस कविता में हिन्दी व्याकरण की दृष्टि से अधिक सही लगने वाले “आंगन – से” और “ फूल- से” की बजाय “आंगन-सा” और “फूल-सा” का प्रयोग क्या किसी खास मकसद से किया है तब उन्होंने बताया कि वे मूलत: एक ओड़िया-भाषी किसान परिवार से आए हैं और कविता लिखते समय वे भाषा की शुद्धता के सम्बन्ध में बहुत सचेत नहीं रह पाते. तब मुझे लगा कि उनके ओड़िया-भाषी होने ने कैसे सहज ही इस कविता की हिन्दी में भी भाषा का एक नया जायका जोड़ दिया था.
मानस की कविता पढ़ते हुए मुझे लगा कि इस कवि के पास तथाकथित छोटे आदमी में निहित महानता को देख सकने वाली वह विशिष्ट आंख भी है जो शायद गांधी, निराला या नागार्जुन जैसे संवेदनशील लोगों के पास रही होगी. जिस निहायत छोटे आदमी का वर्णन यह कवि उसकी कविता “निहायत छोटा आदमी” (सपनों के क़रीब, पृष्ठ 87) में करता है उसे हम बेपढ़ा,गंवार और निरा मूर्ख समझते हैं. हम मानते हैं कि उसे इतिहास –भूगोल की कोई जानकारी नहीं है. पर कवि इस छोटे आदमी के जिन गुणों को रेखांकित करता है वे उसका सहज प्रेम , प्रकृति से उसका गहरा लगाव, अपनी धरती से उसका निकट का रिश्ता और अपने लोगों के साथ आत्मीय सम्बन्ध हैं:
उतना दुखी नहीं होता
निहायत छोटा आदमी
जितना दिखता है
निहायत छोटा आदमी
छोटी-छोटी चीज़ों से संभाल लेता है ज़िन्दगी
नाक फटने पर मिल भर जाए गोबर
बुखार में तुलसी डली चाय
मधुमक्खी काटने पर हल्दी
…… ……….. ………
निहायत छोटा आदमी
नयी सब्ज़ी का स्वाद पड़ोस में बांट आता है
उठ खड़ा होता है मामूली हांक पर
औरों के बोल पर जी भर के नाचता
…….. …….. …….
उसके साहस , धैर्य, संघर्ष और उसकी जिजीविषा को पुन: रेखांकित करते हुए वह कहता है :
निहायत छोटा आदमी
लहुलूहान पांवों से भी नाप लेता है अपना रास्ता
निहायत छोटा आदमी के निहायत छोटे होते हैं पांव
पर डग भरता है बड़े-बड़े.
आम आदमी की महानता का अनुमान हमें इस कवि की “ आम आदमी का सामान्य ज्ञान ” (सपनों के क़रीब हों आंखें, पृष्ठ 85) शीर्षक कविता में भी होता है :
आम आदमी नहीं जानता
झूठ को सच या सच को झूठ की तरह दिखाने की कला
चरित्र सत्यापन की राजनीति
धोखा ,लूट और षडयंत्र का समाज -विज्ञान
ज्ञान इतना पक्का
पहचान लेता है स्वर्ग-नरक की सरहदें
किसी साधारण ग्रामवासी की खुशियां आज भी महंगी भौतिक वस्तुओं के बजाय जिन छोटी-छोटी और अनमोल स्थितियों और दृश्यों पर निर्भर करती हैं उनका हृदयग्राही वर्णन हम उनकी पहल में प्रकाशित कविता “तब तो मैं खुश होऊं ” में पाते हैं :
गाभिन गाय घर लौटे
आंगन फुटके गौरेया कोदो चुगे
कल से थकीमांदी चंदैनी गेंदा फिर महके
बहुएं ले आयें कुएं से पानी के साबूत मटके
छुटकी नये शब्दों के संग चौखट में फटके
तब तो मैं खुश होऊं !
कवि की खुशी जहां एक ओर घर के आंगन में दिखने वाले पशु-पक्षी और फूलों से जुड़ी है वहीं दूसरी ओर बहुओं द्वारा घर के लिए सृजित जल- समृद्धि और एक बोलना सीख रही बालिका द्वारा अर्जित शब्द-समृद्धि से पोषण पाती है. उसकी खुशी का एक अन्य स्रोत परिवार के सदस्यों बीच प्रेम की प्रगाढ़ता भी है – जहां वह ननद-भौजाई में झगड़ा नहीं देखता और जहां उसकी विधवा काकी के मन में आज भी उसके मृत काका की याद बसी है :
खुश होऊं कि पत्नी के संग ननद हंसे
खुश होऊं कि विधवा काकी के मन अब भी काका बसे
कहना न होगा कि प्रेम और सहानुभूति पर आधारित उन पुराने परिवारिक मूल्यों के प्रति इस कवि का अब भी गहरा लगाव है जिन्हें आज के स्वार्थ से परिचालित सम्बन्धों के बरक्स कोई आधुनिकतावादी गए-गुजरे और अप्रासंगिक भी कह सकता है. कवि अब भी कामना करता है कि उसके द्वारा वर्णित काकी आजकल की स्त्रियों की तरह काका की मृत्यु के तुरंत बाद ही टीवी,सिनेमा और व्हाट्स एप में खोकर उसे पूरी तरह भूल न जाए.
कवि को खुश कर सकने वाली अन्य चीज़ें भी इसी तरह की हैं. यदि बड़ी बेटी की मंगनी बग़ैर सोने-चांदी के हो जाए और उसकी शादी से पहले ही कोई अधिक पैसे वाला दुष्ट प्रतिद्वन्द्वी उसकी मां की प्रसन्नता में ग्रहण न लगा जाए तो यह भी उसकी खुशी का एक बड़ा स्रोत साबित हो सकता है :
खुश होऊं कि बड़की की मंगनी बिन सोन-चांदी
खुश होऊं कि माई के चंदा को न राहू ग्रसे
सरकारी मुलाजिमों से डरे हुए और हर समय अपने आपको असुरक्षित पाते ग्रामीण कृषकों के प्रति मानस के मन में गहरी सहानुभूति है. इसीलिए इस कविता में आगे वह कहता है :
खुश होऊं कि दादी-दादा की आंखें धंसी-धंसी न दिखें
पिताजी को पटवारी ना यूं धौंस दिखाये
कभी भी छीन लेगी सरकार ज़मीन , कहके गुर्राये
तब तो मैं खुश होऊं
तब तो खुश होऊं कि फ़सल सिर्फ़ मेरी अपनी है
तब तो खुश होऊं कि खेत न गिरवी रहनी है
विभिन्न जीवन स्थितियों में इस कवि की गहरी पैठ का अनुमान हमें इसकी सपनों के क़रीब हों आंखें संग्रह के पृष्ठ 31 की “ चिट्ठी:दो कविताएं ” शीर्षक कविता की दूसरी कविता से होता है. हमारे पारम्परिक मूल्यों से बंधे हुए परिवारों जब एक युवा होती लड़की किसी युवक के प्रेम में पड़ जाती है तब कैसे उसके आसपास का स्नेहपूर्ण पारिवारिक वातावरण उसके लिए हिंसक और खतरनाक बन जाता है इसे यह कविता अनूठे तरीके से व्यक्त करती है. यह स्पष्ट है कि कवि का उद्देश्य यहां केवल इस घटना से सम्बन्धित सामाजिक –पारिवारिक यथार्थ को चित्रित करना है , किसी प्रगतिवादी मूल्य की प्रतिष्ठा करना नहीं.
कविता में वर्णित लड़की ने किसी को एक प्रेम-पत्र लिखा है ( या इस लड़की ने किसी को कोई प्रेम-पत्र लिखा है ) और यह प्रेम-पत्र घर में किसी ने इस लड़की की किताब में देख लिया है. इस देख लिए जाने का प्रभाव ही इस कविता का विषय है :
देखते ही देखते
ख़तरा मंडराने लगा
देखते ही देखते
अहिंसक
एक-एक कर
तब्दील हो गए जानवरों में
लगा जैसे समय
आग का पर्वत हो
इस परिवर्तन का कोई राजनीतिक , विचारधारात्मक या आर्थिक विश्लेषण करने के बजाय कवि कहता है कि यह सब इसलिए हुआ कि ईश्वर ने इस लड़की को एक भोलाभाला मन दिया था जो उसके वय:सन्धिकाल में सहज रूप से एक युवक की ओर आकर्षित हुआ. प्रकृति के इस विडम्बनात्मक खेल पर प्रश्नचिह्न लगाती इस कविता की अगली पंक्तियां कहती हैं :
लगा जैसे
भोला-भाला मन देकर
ईश्वर ने किया हो सबसे बड़ा पाप
क्यों दीख पड़ी
सुनहरे शब्दों की चिट्ठी
लड़की की नयी किताब में
लगता है यह कविता अधिक प्रभावी रूप से उस अमानवीयता के विरुद्ध खड़े होने की क्षमता रखती है जिससे प्रेरित होकर बहुत सी सम्मान हत्याएं (honour killings) होती हैं. यदि अधिक संख्या में लोग इसके प्रति संवेदनशील हो सकें तो इस तरह की क्रूरता के ख़िलाफ़ यह कविता भी अपने आप में एक अधिक कारगर हथियार साबित हो सकती है.
आज लोगों की बढ़ती हुई आत्मकेन्द्रितता के प्रति इस कवि के मन में गहरा धिक्कार भाव है. इसे उनकी अबोले के विरुद्ध के पृष्ठ 60 पर छपी कविता में भलीभांति देखा जा सकता है :
कुछ देर तो साथ चलो
कि वह बिल्कुल अकेला न समझे
कुछ तो बतियाओ
कि वह निहायत अबोला न रह जाए
कुछ तो भीतर की सुनो
कि वह बाहर-ही-बाहर न मर जाए
……………….
कुछ भी नहीं कर सकते तो
इस पृथ्वी में होने का मतलब क्या है
आत्मकेन्द्रितता के विरुद्ध लगभग ऐसा ही विचार इस कवि की “गाना ही गाते रहेंगे (सपनों के क़रीब हों आंखें , पृष्ठ30 ) शीर्षक रचना में भी दिखाई देता है :
नदी किनारे गाती-गुनगुनाती
चिड़िया एक हों आप
दिखे एकाएक चींटी एक आकुल-व्याकुल
धार हो इतनी बेमुरव्वत कि
चींटी हो जाए बार -बार असहाय
ऐसे में गाना ही गाते रहेंगे
या छोटी -सी डाल तोड़ कर गिराएंगे ?
उन अवसरवादियों के प्रति भी इस कवि के मन में गहरा क्षोभ है जो हर निज़ाम में अपनी चमड़ी बचा लेते हैं किंतु जिनका वस्तुत: किसी से कोई लगाव नहीं होता – न अपने लोगों से , न अपनी ज़मीन से और न ही किसी विचारधारा से . “छांव निवासी” (सपनों के क़रीब हों आंखें, पृष्ठ 32 ) में वह कहता है :
धूप की मंशाएं भांप कर
इधर-उधर, आगे-पीछे , दाएं-बाएं
जगह बदलते रहते
दरअसल
पेड़ से उन्हें कोई लगाव नहीं होता
कुछ इसी तरह की बात यह कवि “ठंडे लोग” ( सपनों के क़रीब हों आंखें , पृष्ठ 42) में भी कहता है :
जो नहीं उठाते जोख़िम
जो खड़े नहीं होते तन कर
जो कह नहीं पाते बेलाग बात
जो नहीं बचा पाते धूप-छांह्
यदि तटस्थता यही है
तो सर्वाधिक खतरा
तटस्थ लोगों से है
यह कवि अपेक्षा करता है कि जिस तरह प्रकृति में सभी प्राणी अपने अपने काम में लगे रह कर कोई न कोई रचनात्मक सहयोग देते रहते हैं उसी तरह हर इंसान भी निठल्ला न रह कर कुछ तो करता रहे. “ कोई नहीं हैं बैठे ठाले “ (अबोले के विरुद्ध ,पृष्ठ 65 ) में अभिव्यक्त शारीरिक श्रम के प्रति इस प्रकार का दृष्टिकोण अपने आप में पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध किसी छोटे-मोटे बयान का काम कर सकता है :
कोई नहीं हैं बैठे –ठाले
कीड़े भी सड़े-गले पत्तों को चर रहे हैं
कुछ कोसा बुन रहे हैं
केंचुए आषाढ़ आने से पहले
उलट-पलट देना चाहते हैं ज़मीन
वनपांखी भी कूड़ा-करकट को बदल रहा है घोंसले में
भौंरा फूलों से बटोर रहा है मकरंद
…………………….
पृथ्वी की सुन्दरता में उनका भी कोई योगदान है
……………..
और इधर
सुन्दर पृथ्वी के सपने पर कोरा विमर्श
“बस्तर, कुछ कविताएं“ (अबोले के विरुद्ध ,पृष्ठ 44) में यह कवि शांति के निर्वासन और हिंसा के वातावरण से विचलित होकर कहता है :
ज़रा कान लगा कर सुनिए
सुबक-सुबक कर रो रहे हैं
नदिया,जंगल,पहाड़, चिड़िया
और पेड़ की आड़ में आदिवासी
कोई पाठक यह अवश्य कह सकता है कि इस कवि की बहुत अधिक सहानुभूति अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ रहे उस क्रांतिकारी के प्रति नहीं है जो कई बार इस हिंसा और ख़ून –ख़राबे के पीछे होता है :
इन सबके बीच
झूम-झूम कर गा रहा है क्रांतिकारी
वह तो यूं ही सुनाई दे रहा है
कवि की “तालिबान” (अबोले के विरुद्ध ,पृष्ठ 69) शीर्षक कविता निहायत सादगी से धर्मान्धता के ख़िलाफ़ अपनी सशक्त आवाज़ उठाती है :
कोई दलील नहीं
कोई अपील नहीं
कोई गवाह नहीं
कोई वकील नहीं
वहां सिर्फ़ मौत है
कोई इंसान नहीं
कोई ईमान नहीं
कोई पहचान नहीं
कोई विहान नहीं
वहां सिर्फ़ मौत है
वहां सिर्फ़ मौत है
वहां सिर्फ़ धर्म है
धर्म को मानिए
या फ़िर
बैमौत मरिए
“यह तो बूझें” (अबोले के विरुद्ध ,पृष्ठ 68) में कवि पूछता है कि इस धार्मिक उन्माद- जनित हिंसा को दैवी शक्तियां भी क्यों नहीं रोक पातीं :
तुमने हमारे मन्दिर ढहाए
हमने तुम्हारे मस्जिद
शायद तुम अन्धे हो गए थे
और हम भी
चलो ग़ल्तियां दोनों से हुईं
इंसान थे ……
पर यह तो बूझें
आखिर क्यों
न तुम्हें रोका पैगम्बर ने
न हमें राम ने समझाया ?
भारतीय समाज में निरंतर बढ़ता जाता असुरक्षा भाव कवि के मन में भी वह भय जगाता है जिसे शायद आज हर नागरिक महसूस करने लगा है. इसी भय को प्रकट करते हुए वह कहता है :
जिन्हें अभी डराया नहीं गया है
जिन्हें अभी धमकाया नहीं गया है
जिन्हें अभी सताया नहीं गया है
…………
क्या वे सारे के सारे निरापद हैं ?
कभी भी घेरा जा सकता है
उन्हें
हो सकता है उनकी हत्या ही कर दी जाए
किंतु इस कविता को कविता इसकी निम्नलिखित अंतिम पंक्ति बनाती है जो पूछती है
कि
तब तक क्या बहुत देरी नहीं हो चुकी होगी ?
जयप्रकाश मानस कहीं कहीं बहुत ही कम शब्दों के प्रयोग से (इसे मैं “अंडरस्टेटमेंट” कहूंगा) कोई गहरा प्रभाव उत्पन्न करते हैं.. सपनों के क़रीब हों आंखें के पृष्ठ 80 पर मुद्रित कविता “ कहीं कुछ हो गया है “ में हम इसका एक अच्छा उदाहरण देख सकते हैं. कविता के प्रारम्भिक भाग को पढ़ कर लगता है कि इसमें वर्णित गांव की दुनिया यथावत चल रही है :
चिड़ियों के झुरमुट से बोल उठना
……………
छानी-छानी मुस्कराहट सूरुजनारायण की
आंगन बुहारती बेटियों का उल्लास
बछिया को बीच-बीच पिलाकर गोरस निथारना
दिशाओं में उस पार तक
उपस्थित होती घंटे-घड़ियाल की गूंज
………………
पर तभी यह कवि हमें लगभग चौंकाते हुए कहता है :
लोग फफक- फफक कर बताते हैं
पूछने पर
एक भलामानुस
माटी के लिए दिन-रात खटता था जो
माटी में खो गया यक-ब-यक
ऊपर से सामान्य लगते हुए भी ग्रामवासी भीतर से कितने विचलित हो सकते हैं इसे यह कवि इस कविता के माध्यम से बड़ी कुशलता और सूक्ष्मता से चित्रित करता है.
जब अच्छी चीज़ें बहुत तेज़ी से नष्ट हो रही हों तब कवि के मन में यह प्रश्न आना स्वभाविक है कि इस बदलाव के चलते क्या कुछ भी अच्छा बच नहीं पाएगा ? पर कवि का दृष्टिकोण इस सम्बन्ध में पूरी तरह आशावादी है. “ बचे रहेंगे “ (पहल – 13 , पृष्ठ 245 ) में वह कहता है :
नहीं चले जाएंगे समूचे
बचे रहेंगे कहीं न कहीं
बची रहतीं हैं दो-चार बालियां
पूरी फ़सल कट जाने के बावजूद
भारी-भरकम चट्टान के नीचे
बची होती हैं चींटियां
इस आशावादिता के फलस्वरूप कवि के मन में बचे रहने के और भी एक से एक सशक्त बिम्ब आते हैं :
लकड़ी की ऐंठन कोयले में
टूटी हुई पत्तियों में पेड़ का पता
पंखों पर घायल चिड़ियों की कशमकश
मार डाले प्रेमियों के सपने खत में
बचा ही रह जाता है
आज के इस स्वार्थपूर्ण समय में ,जबकि यह आवश्यक नहीं कि किसी को अच्छाई के बदले में अच्छाई ही मिले , पर्यावरणीय बुराई के बावजूद अच्छाई के प्रति एक प्रकार की प्रतिबद्धता ही किसी को अच्छा बना रहने के लिए प्रेरित कर सकती है. जयप्रकाश जी की “ जब कभी होगा ज़िक्र मेरा “ (पहल – 13 , पृष्ठ 246 ) सम्भवत: इसी तरह के अच्छाई के लिए प्रतिबद्ध किसी पात्र को चित्रित करती है :
याद आएगा
पीठ पर छुरा घोंपने वाले मित्रों के लिए
बटोरता रहा प्रार्थनाओं के फूल कोई
मन में ताउम्र
…………
जब कभी होगा ज़िक्र मेरा
याद आएगा
छटपटाता हुआ वह स्वप्न बरबस
आंखों की बेसुध पुतलियों में
प्रेम को यह कवि कविता के एक आवश्यक तत्व के रूप में देखता है. “ जिन्होंने नहीं लिखा कोई प्रेम पत्र”( सपनों के क़रीब हों आंखें , पृष्ठ 98) में वह कहता है :
जिन्होंने नहीं लिखा कभी कोई प्रेम पत्र
वे नहीं लिख सकते कोई कविता
प्रेम के सम्बन्ध में कवि के इस विचार की पुष्टि तब भी होती है जब हम उसकी “वज़न” ( सपनों के क़रीब हों आंखें , पृष्ठ 95), “अभिसार” (सपनों के क़रीब हों आंखें,पृष्ठ 96) या “प्यार में (सपनों के क़रीब हों आंखें , पृष्ठ 97) जैसी कविताएं पढ़ते हैं.
जब मैंने अपने आप से यह प्रश्न किया कि कवि रूप में जयप्रकाश मानस के किस गुण ने मुझे उनकी कविता की ओर आकर्षित किया तब मुझे लगा कि यह इस कवि का धरती और मानवीय सरोकारों से लगाव , प्रकृति के सभी रूपों से प्रेम और उसकी अतिरिक्त सम्वेदनशीलता ही रही होगी जिसने मुझे उसका मुरीद बनाया. _____________
सदाशिव श्रोत्रिय
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