शान्ती हीरानन्द से यतीन्द्र मिश्र का संवाद
यतीन्द्र मिश्र : आपने बेगम साहिबा पर क़िताब लिखी है- ‘बेगम अख़्तर : द स्टोरी ऑफ़ माई अम्मी!’ जिनसे लगभग दो दशकों तक आपने सीखा भी है. क्या आपको ऐसा लगता है कि बेगम अख़्तर ने बहुत सारी बातें आपसे छिपायी भी होंगी, जिनका ज़िक्र किताब में नहीं है. या इस तरह कह सकते हैं कि आपने जानकर भी उन प्रसंगों को दुनिया के सामने लाना ज़रूरी नहीं समझा?
शान्ती हीरानन्द
हाँ, बिल्कुल. मेरे लिए वही सच था, जो उन्होंने बताया. अब वो छिपाना चाहती थीं, तो किसी वजह से कोई बात ज़रूर रही होगी. जो वो बताना चाहती थीं, उन्होंने वह सब मुझे बताया और अपनी ज़िन्दगी के बारे में भी खुलकर बातें साझा की हैं.
जो उन्होंने मुझे नहीं बताया है, कमोबेश यह हुआ है कि फिर मुझे थोड़ा बहुत, बाद में भी कुछ पता लगा, जो उनकी ज़िन्दगी और संगीत के लिए बड़े ज़रूरी अर्थ नहीं रखता. इसलिए मैंने बहुत सारी कहानियों और सुनी-सुनायी बातों में दिलचस्पी ही नहीं ली है. जब बेगम साहिबा ख़ुद ही सामने मौजूद थीं, तो जितना उन्होंने मुझे अपनी खुशी से बता दिया है, उतना ही मैं उनके बारे में जानने का हक़ रखती हूँ.
यतीन्द्र मिश्र : एक सुन्दर प्रसंग आपने अपनी क़िताब में यह छेड़ा है कि इश्तियाक अहमद अब्बासी साहब को संगीत से बहुत प्रेम नहीं था. वे जब कोर्ट चले जाते थे, तभी बाजा वगैरह निकलता था और संगीत का रियाज़ शुरु होता था.
शान्ती हीरानन्द
जी हाँ! जब अब्बासी साहब कचेहरी चले जाते थे, तब हमारा बाजा निकलता था. मगर एक बात यह भी है कि अम्मी (बेगम अख़्तर) हम लोगों को बाजा नहीं बजाने देती थीं. रियाज़ के समय बाजा वे खुद पकड़ती थीं और तानपूरा, मैं लेकर बैठती थी. कभी-कभी तो चार-चार घण्टे रियाज़ होता था और जब उनका मन नहीं होता था, तो कहती थीं ‘बिट्टन (शान्ती हीरानन्द को बेगम अख़्तर प्यार से यही नाम लेकर बुलाती थीं) आज जी नहीं है. आज रियाज़ न करो. कुछ खाओ-पियो.’
आपने जो यह पूछा है कि अब्बासी साहब को संगीत पसन्द नहीं था, तो ऐसा नहीं है. वे संगीत को पसन्द करते थे, मगर पुराने किस्म के आदमी थे. बैरिस्टर थे, तो चाहते थे कि उनकी लखनऊ में इज्ज़त बनी रहे. उन्होंने अम्मी से वादा भी लिया था कि लखनऊ में कभी नहीं गायेंगी, सिवाय रेडियो के. सिर्फ़ एक दफ़ा, जब चीन से लड़ाई हुई थी तब उन्होंने एक फोरम के लिए गाया था. मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि उस आयोजन में सिर्फ़ महिलाएँ थीं और लखनऊ का एक भी आदमी उसके अन्दर शामिल नहीं था. सिर्फ़ साजिन्दे ही मर्द थे. एक ग़ज़ल मुझे आज भी याद है-‘वतन पर जीना, वतन पर मर जाना’. शादी के बाद उन्होंने लखनऊ में कभी नहीं गाया है, जहाँ तक मुझे मालूम है. इसके अलावा कहीं गाया हो, तो मुझे इल्म नहीं है.
यतीन्द्र मिश्र : आप जब सीखती थीं, तो रियाज़ का क्या पैटर्न था? कितने घण्टे सिखाती थीं वे? हर दिन की तालीम कैसी होती थी?
शान्ती हीरानन्द
शुरु-शुरु में तो बस यही होता था कि वे कभी भी कहीं बैठकर बाजा निकालती थीं और मुझसे सरगम कहलवाती थीं- सा रे गा मा पा धा नी सा. वे पूरब की थीं और पटियाले का अन्दाज़ था उनका, जो उनके सिखाने में मेरी कला में उतरा हुआ है. बेगम साहिबा फ़ैज़ाबाद से थीं, तो फ़ैज़ाबाद का रंग भी उनमें मौजूद था. एक तरफ पंजाब अंग के खटके-मुरकियों से समृद्ध थीं, तो दूसरी ओर ठेठ देसी ढंग से ठुमरी गाती थीं, जिनमें कभी-कभी बनारस के लोक-गीतों की शैली का प्रभाव भी दिखता है. उर्दू में पारंगत थीं, तो वह अदब भी गायिकी में झलकता था. मुझे लगता है कि अम्मी ने पंजाब और अवध की गायिकी के साथ-साथ पूरबपन भी खुद की तालीम में उतारा हुआ था. इन सब चीज़ों का प्रभाव उनकी शिष्याओं में आया है.
उन्होंने मेरी तालीम राग तिलंग से शुरु की थी. थोड़ा सा तिलंग सिखाया और उसके साथ गुनकली का ख्याल शुरु किया. उनका यही तरीका था. सब चीज़ इकट्ठा शुरु कर देती थीं. जब उनका जी लगता था, तो शाम के तीन-चार बजे तक गवाती रहती थीं. और नहीं, तो कहती थीं- ‘बिट्टन! आज नहीं, कल आना.’ उस समय बिल्कुल भी रियाज़ नहीं होता था. हालाँकि मुझे तो कुछ पता ही नहीं था कि संगीत क्या होता है? गाने-बजाने का खास काम किस तरह करते हैं. मैं बिल्कुल कोरी थी, जिसकी तालीम में अम्मी ने प्यार से रंग भरा है. उनकी सोहबत में रहते हुए और उनकी खिदमत करते-करते न जाने क्या कुछ सीख गयी मैं. इसी के साथ मैंने देश भर में न जाने कितनी यात्राएँ उनके साथ की हैं. उनका फरमान आता था कि बिट्टन कल फलाँ शहर जाना है और मैं घर से सामान लेकर उनके साथ हो लेती थी.
यतीन्द्र मिश्र : आपने गुनकली की बात कही है, उसका रियाज़ किस तरह होता था?
शान्ती हीरानन्द
सबसे पहले राग तिलंग की ठुमरी ‘न जा बलम परदेस’ मैंने उनसे सीखा. वे तिलंग के पलटे और गुनकली का ख्याल ‘आनन्द आज भयो’ मुझे सिखा रही थीं. वो सिखाती थीं और बहुत छूट भी देती थीं कि जो जी में आए वैसे गाओ. कैसे भी गाओ, चाहे मेरे (बेगम अख़्तर) पीछे-पीछे गाओ.
मेरी समझ में कुछ नहीं आता था, कहाँ जाऊँ, कैसे करूँ? लगता था, हर तरफ से दरवाजे बन्द हैं. ऐसा लगता था कि उनसे मिलने से पहले क्यों नहीं यह सब सीखा मैंने. क्योंकि मैंने सीखा नहीं था इतना, तो इन्हीं के साथ गा-गा कर मुझे अब पता चल पाया है कि दरअसल वो क्या गाती थीं? ….और हमने उनसे तालीम में क्या सुन्दर चीजें़ सीख ली हैं. उनके जाने के बाद मैंने यह सोचना शुरु किया कि आवाज़ तो है आपके पास, मगर उसे सुन्दर और वजनदार कैसे बनाते हैं. मुझे याद आता है कि अम्मी अगर किसी राग को ध्यान में रखकर एक सोच पर कोई चीज़ ख़त्म करती थीं, तो दूसरे ही पल उसी से नयी चीज़ भी शुरु कर देती थीं. उनकी एक ख़ासियत यह भी थी कि वो जिस राग में चाहती थीं, ठुमरी बना लेती थीं. अगर उन्होंने कौशिक ध्वनि में चाहा, तो उसमें बना ली. अगर हेमन्त उन्हें भा गया, तो हेमन्त में ठुमरी गा लेती थीं. मुझे तो यहाँ तक याद है कि वे इस तरह भी गाती थीं कि अगर एक ठुमरी उन्हें पसन्द आ गयी, मसलन उसके बोल भा गये, तो वही ठुमरी वो खमाज में, भैरवी में, कल्याण में, पीलू में और न जाने किन रागों में गाने लगती थीं. उनका मिजाज ही ऐसा था. एक चीज़ जो बेगम अख़्तर को पसन्द आयी, तो दुनिया भर के रागों और तालों में उस बन्दिश को गाने-बजाने का सिलसिला फिर शुरु हो जाता था.
यतीन्द्र मिश्र : ठुमरी और ख्याल के अलावा उन्होंने और क्या सिखाया?
शान्ती हीरानन्द
मुझे आश्चर्य होता है यह सोचकर कि अम्मी ने हम लोगों को ख्याल और ठुमरी के अलावा ज़्यादा चीज़ें क्यों नहीं सिखाईं. जहाँ तक मुझे याद है उन्होंने कजरी बहुत ज़्यादा सिखायी है और कुछ ठुमरी व दादरे. ग़ज़ल वे ज़रूर बहुत मन से सिखाती थीं, जिसकी हम लोगों को भी लत लगी हुई थी कि अम्मी के पीछे बैठकर गाना है, तो ठीक से सीख लें और अपनी आवाज़ दुरुस्त कर लें. उन्होंने चैती, बारामासा, ब्याह के गीत, सेहरा और मुबारकबादी नहीं सिखायी. जब भी मैं कुछ कहती थी, तो हमेशा ठुमरी या कजरी सिखाने पर आ जाती थीं. होरी भी जो मैंने उनसे सीखी है, वह ठुमरी के चलन में है.
यतीन्द्र मिश्र : आपने उनके साथ ढेरों यात्राओं का ज़िक्र किया है. उनके साथ कौन-कौन से शहरों की यादें आपकी स्मृति में आज भी सुरक्षित हैं?
शान्ती हीरानन्द
कितने किस्से आपको सुनाऊँ? (हँसते हुए) यह तो यादों का पिटारा है, जितना खोलते जायेंगे, खुलता जायेगा. उनके साथ मैं इतनी जगहें गयी हूँ कि आज ठीक से याद करने पर मुझे याद भी न आयेगा. फिर भी जिन शहरों की स्मृतियाँ बची हुई हैं उनमें- अमृतसर, जालन्धर, श्रीनगर, जम्मू, बॉम्बे, कलकत्ता, पटना अच्छी तरह याद हैं. मध्य प्रदेश में इन्दौर, भोपाल से लेकर वे मुझे कर्नाटक के धारवाड़ और हुगली तक ले गयी थीं. उस ज़माने में हर दिन एक रेडियो स्टेशन खुल रहे थे और हर जगह से ही उनका बुलावा आता था प्रोग्राम करने के लिए. मैं उनके साथ हर जगह गयी हूँ. वे ऐसी शानदार महिला थीं कि अगर आप संगीत, तालीम और मंच या रेडियो पर न भी हों, तो भी उनके सम्मोहन से बच पाना मुश्किल होता था. वे जहाँ कहती थीं, वैसे ही मैं चली जाती थी. मेरी मजाल नहीं थी कि मैं एक शब्द कह जाऊँ. जो अम्मी ने कहा, वो मैंने किया. जहाँ वे ले गयीं, भले ही वह बहुत छोटा शहर क्यों न हो, तीरथ मानकर उनके साथ पीछे-पीछे चली गयी.
यतीन्द्र मिश्र : बेगम अख़्तर पहली महिला उस्ताद थीं, जिन्होंने बाक़ायदा गण्डा बाँधकर सिखाना शुरु किया.
शान्ती हीरानन्द
जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने मेरा गण्डा बाँधा सन् 1957 या 58 में. एक बार मुम्बई की एक मशहूर गाने वाली बाई नीलमबाई आईं और उन्होंने अम्मी से कहा कि- ‘तुम बिना गण्डा बँधवाए सिखा रही हो.’ तब अम्मी को लगा होगा कि गण्डा बाँधते हैं. मेरा गण्डा बँधा, जिसे उनके तबलिए मुन्ने ख़ाँ साहब ने बाँधा. मुझे गुड़ और चना खिलाया गया और मुझसे यह कहा गया कि आज से तुम बेगम अख़्तर की शिष्या हो. आज मैं इन सब बातों का मतलब समझ पाती हूँ और मन गर्व से भर उठता है कि वाकई मैं कितनी खुशनसीब थी कि बेगम अख़्तर साहिबा की शिष्या होने का मुकाम हासिल हुआ. मैं उनकी शागिर्द हुई, यह गायिका होने से बड़ी बात लगती है, आज भी मुझे.
यतीन्द्र मिश्र : जहाँ तक मेरी जानकारी है, आपके साथ अंजलि बैनर्जी का भी गण्डा बन्धन हुआ था?
शान्ती हीरानन्द
बिल्कुल सही फरमा रहे हैं. मेरे साथ अंजलि ही नहीं, बल्कि दीप्ति का भी गण्डा बन्धन हुआ था. अंजलि बहुत अच्छा गाती थीं पर न जाने क्यों उसने बहुत पहले गाना छोड़ दिया. अम्मी जब उसको गवाती थीं, तो मुझे जलन होती थीं कि हाय कितना अच्छा गा रही है. (हँसती हैं) बाद में मैं ख़ुद रियाज़ करती थी, तो वो सब धीरे-धीरे मेरी आवाज़ से भी निकलने लगा, अम्मी जैसा चाहती थीं. बाद में जाकर मुझे यह इल्म हुआ कि अम्मी बहुत जतन करती थीं कि मैं कुछ बेहतर गा सकूँ.
यतीन्द्र मिश्र : आप कितने सालों तक उनकी शिष्या रहीं? मतलब मैं यह जानना चाहता हूँ कि उनके साथ कितने वर्ष आपने बिताए हैं?
शान्ती हीरानन्द
लगभग बाईस बरस. 1952 से लेकर सन् 1974 तक. 1962 में मेरी शादी हुई थी. फिर भी मैं लगातार अम्मी के सम्पर्क में थीं और लखनऊ आना-जाना, उनसे मिलना और सीखना होता रहता था.
यतीन्द्र मिश्र : जिगर मुरादाबादी से उनकी दोस्ती के बारे में कोई ऐसी कहानी या आपके सामने का कोई संस्मरण हो, जो आप यहाँ बताना चाहें?
शान्ती हीरानन्द
जिगर मुरादाबादी की वो बहुत शौकीन थीं. जिगर उनको बहुत अच्छे लगते थे और उनकी शायरी भी बेगम साहिबा को कमाल की ख़ूबसूरत लगती थी. वे उनको लेकर थोड़े रुमान में भी चली जाती थीं. उन्होंने तो कभी कुछ नहीं बताया, पर ऐसा मैंने सुना है कि एक बार जिगर साहब कहीं मुशायरा पढ़ रहे थे और वहाँ बेगम अख़्तर भी पहुँच गयीं. उन्होंने सन्देशा भिजवाया कि ‘जिगर साहब हम आपसे मिलना चाहते हैं’. इस पर जिगर साहब ने यह लिखकर पर्ची लौटाई कि ‘ज़रूर मिलिए, मगर आप अगर मेरी सूरत देखेंगी, तो शायद मिलने से ही मना कर देगीं.’ इस बात का बेगम साहिबा ने कोई जवाब नहीं दिया, मगर उन्होंने जिगर से दोस्ताना-नाता जोड़ लिया. वे जब कभी भी लखनऊ आते, तो बेगम साहिबा से मिलने जाते और उनकी बेगम भी साथ में होतीं.
एक बार का वाकया है कि जिगर साहब ने एक ग़ज़ल लिखी, जिसके बोल हैं-
‘किसका ख्याल कौन सी मंजिल नज़र में है
सदियाँ गुज़र गयीं कि ज़माना सफ़र में है
इक रोशनी सी आज हर इक दस्त-ओ-दर में है
क्या मेरे साथ खुद मेरी मंज़िल सफ़र में है.’
उन्होंने बेगम साहब से इसे गाने की गुज़ारिश की. बाद में अम्मी ने जिस बेहतरी से राग दरबारी में बाँधकर इसको गाया कि जिगर साहब भी इसे सुनकर उनकी ग़ज़ल गायिकी पर अपना दिल हार बैठे. अम्मी ने ही उनकी ग़ज़ल की बड़ी नायाब धुन बाँधी थी और गाया था-
‘कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन’.
और खाली जिगर साहब ही नहीं, दरअसल अम्मी की कमजोरी बेहतरीन शायरी थी. हर वो शायर, जो कुछ शानदार अपने शेर से कह देता था, उन्हें पसन्द आ जाता था. वे नये से नये शायरों के कलाम को तवज्जो देती थीं और पढ़कर मुस्कुराती थीं. उनका शमीम जयपुरी साहब से भी बहुत सुन्दर रिश्ता था और वे लखनऊ के उनके घर में अकसर आते थे. इसी तरह उनकी कैफ़ी साहब से बहुत बैठती थी. दोनों ही एक-दूसरे का बेहद सम्मान करते थे. कैफ़ी साहब इनका काम पसन्द करते थे और अम्मी तो उनकी ग़ज़लों पर पूरी तरह फिदा थीं. उन्होंने कैफ़ी साहब को बहुत गाया है. एक ग़ज़ल तो ग़ज़ब की बन पड़ी है-‘इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े’.
यतीन्द्र मिश्र : मदन मोहन और बेगम अख़्तर का दोस्ताना कला की दुनिया में कुछ मशहूर दोस्तियों की तरह रहा है. एक-दूसरे के हुनर के प्रति सम्मान और अपनेपन के भाव से भरा हुआ. आप इस रिश्ते को किस तरह देखती हैं? आपका कोई व्यक्तिगत अनुभव, जो मदन मोहन और बेगम अख़्तर प्रसंग को समझने के लिए नयी रोशनी देता हो?
शान्ती हीरानन्द
मदन मोहन का उनसे बहुत दोस्ताना था. वो पहले लखनऊ रेडियो में थे, तो अम्मी के यहाँ आते-जाते थे. दोनों का एक-दूसरे के प्रति बहुत प्यार था. एक बात जो मुझे बेहद पसन्द है, वो ये कि मदन मोहन साहब अम्मी की बड़ी इज्ज़त करते थे. कभी-कभी ऐसा होता था कि लखनऊ फ़ोन आता था कि ‘अख़्तर मैं आ रहा हूँ दिल्ली से’, तो कहती थीं कि ‘मैं भी आ जाती हूँ’. इस तरह होटल के कमरे में जहाँ वे ठहरते थे, गाने-बजाने की महफ़िल सजती थी. मैं, अम्मी और मदन मोहन साहब अकसर ही मिलते थे. मेरा काम बस इतना था कि मैं खाने का बन्दोबस्त करूँ, मदन मोहन के लिए बीयर लेकर आऊँ. उनकी बीयर और अम्मी की सिगरेट चलती रहती थी और संगीत पर बहुत सुन्दर बातें वे दोनों करते थे. मुझे अच्छी तरह याद है कि जब वे मस्त होकर अम्मी को कोई धुन सुनाते थे, तो वे अकसर थोड़े लाड़ और नाराजगी से कहती थीं- ‘मदन तुमने मेरी बहुत सी ग़ज़लें चोरी करके अपनी फ़िल्मों में डाल दी हैं.’ इस तरह दोनों एक-दूसरे से बतियाते थे. इस शिकवा-शिकायत में मैंने सिर्फ़ प्रेम ही देखा है. मुझे वो दिन भी याद है कि जब अम्मी का इन्तकाल हुआ, तो वे उनकी क़ब्र पे जाकर जिस तरह फूटकर रोए थे, उससे मेरा दिल दहल गया था.
मदन मोहन सीधे सहज आदमी थे और अम्मी की कलाकारी के कायल. ठीक इसी तरह अम्मी भी उनके काम से इश्क़ करती थीं. मेरे देखे मदन मोहन और बेगम अख़्तर की दोस्ती जैसा रिश्ता कम ही मिलता है. ऐसे रिश्ते को पालने के लिए भीतर से एक कलाकार मन चाहिए और दूसरे के लिए इज्ज़त और ईमानदारी. दोनों में ये ख़ूब थी, तो दोनों में पटती भी थी.
हालाँकि मदन मोहन के अलावा मैंने अम्मी की इज्ज़त करते हुए लता मंगेशकर और नरगिस को भी देखा है. नरगिस जी तो उन्हें खाला ही कहती थीं और बहुत तमीज़ से पेश आती थीं. चूँकि अम्मी ने जद्दनबाई के पीछे बैठकर भी गाया है, इसलिए वे उन्हें बहुत ज़्यादा इज्ज़त देती थीं.
यतीन्द्र मिश्र : कोई ऐसा संस्मरण आपको याद है, जब मदन मोहन जी ने कोई फ़िल्म की धुन बनायी हो आप लोगों के सामने?
शान्ती हीरानन्द
इतना तो याद नहीं है. मगर अम्मी को ‘भाई-भाई’ फ़िल्म का लता जी का गाया हुआ गीत ‘कदर जाने न मोरा बालम बेदर्दी’ और उसकी धुन बेहद पसन्द थी. जब भी मदन मोहन से मिलती थीं, तो इस गीत की चर्चा ज़रूर छिड़ती थी और अकसर वे इसरार करके मदन मोहन से उनकी आवाज़ में ये गीत सुनती थीं.
यतीन्द्र मिश्र : शकील बदायूँनी की मशहूर ग़ज़ल के बनने का वह कौन सा किस्सा है, जिसके लिए कहा जाता है कि उसे उन्होंने अपने सफर के दौरान ही चन्द मिनटों में बना दिया था?
शान्ती हीरानन्द
शकील बदायूँनी साहब एक बाक़माल शायर के रूप में विख्यात हो गये थे. हालाँकि उस समय तक फ़िल्मों के लिए उन्होंने लिखना शुरु नहीं किया था. उनकी शायरी बहुत अच्छी थी और उस ज़माने में सुनी-पढ़ी जाती थी. मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि बम्बई से हम दोनों ही लखनऊ लौट रहे थे. जब ट्रेन आगे बढ़ने लगी, तो शकील साहब आए और उन्होंने अम्मी से खिड़की से ही हाल-चाल लिया और अपनी ग़ज़ल को उन्हें पकड़ा दिया. अम्मी ने यह ग़ज़ल मुझे सम्हाल कर रखने के लिए दे दी. सुबह जब भोपाल स्टेशन आया और गाड़ी रुकी, तो अम्मी की नींद खुली और उन्होंने चाय मँगवायी. चाय पीते हुए उन्होंने मुझसे कहा कि ‘बिट्टन वो ग़ज़ल, जो शकील ने मुझे दी थी, निकालो.’ मेरे ग़ज़ल देने पर उन्होंने एक बार उसे पढ़ा और अपना बाजा निकलवाया और थोड़ी ही देर में उसकी धुन बनायी-‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’.
यतीन्द्र मिश्र : अपने गुरु को लेकर उनके आदर का कौन सा ऐसा वाकया है, जिसे याद करके आपको तसल्ली होती है और जिसे आप यहाँ बताना पसन्द करेंगी?
शान्ती हीरानन्द
कितनी बातें बताऊँ आपको. अब मेरी उम्र हो चली है और ऐसे समय में आप ये सब पूछने आए हैं, जब यादें बहुत धुँधली सी पड़ गयी हैं. मैं बस इतना जानती हूँ कि मैं जो भी हूँ, वो सब बेगम अख़्तर के कारण है. उन्हीं के साथ रही, उन्हीं की तरह पहना-ओढ़ा और उन्हीं की तबीयत से गाया-बजाया.
मेरे पति डा. जगन्नाथ चावला से शादी से पहले मैंने सिर्फ़ यही इतना भर पूछा था कि ‘आप मुझसे मेरी अम्मी को तो नहीं छुड़ा देंगे, क्योंकि मैं उनके बग़ैर जी नहीं सकती और गाए बग़ैर रह नहीं सकती.’ वे खुशी-खुशी मान गये थे, तभी मैंने शादी की और वाकई डाक्टर साहब ने अपना वचन जीवन-भर निभाया. एक बात जो मुझे याद आती है और अपने बचपने पर हँसी आती है, वह यह कि अम्मी ने एक बार पूछा कि ‘क्या मैं मांसाहारी हूँ?’ और मेरे मना करने पर उन्होंने मेरे मुँह में जबरन चिकन का एक टुकड़ा डाल दिया. आप विश्वास नहीं करेंगे, लेकिन खाते वक़्त उसे मैंने अम्मी के प्रसाद के रूप में लिया और बिना किसी तर्क-वितर्क के उनके साथ मांसाहारी हो गयी. जिस दिन अम्मी इस दुनिया से गयीं, उस दिन से लेकर आज तक फिर मैंने कभी मांस या अण्डे का एक टुकड़ा भी अपने मुँह में नहीं डाला.
यही दीवानगी है अपने गुरु की जो शायद आपको बचकानी लगे, मगर मैंने पूरे समर्पण के साथ हर वो चीज़ स्वीकारी, जो मेरे गुरु की मंशा थी.
यतीन्द्र मिश्र : यह जो आपका संस्मरण है, वह गुरु-शिष्य परम्परा के रिश्ते की बड़ी ख़ूबसूरत नुमाइन्दगी करता है. यह बचकाना नहीं है, बल्कि बहुत कुछ सीख देने वाला भी है. इसी लिहाज़ से मैं उनके मुहर्रम के प्रसंगों को भी जानना चाहता हूँ कि कैसे उनकी हिन्दू शिष्याओं ने मुहर्रम के सोज़ को बाँटने में अपने उस्ताद की मदद की है?
शान्ती हीरानन्द
मुहर्रम तो बेगम अख़्तर के यहाँ पूरे एहतराम के साथ मनाया जाता था. वे मुहर्रम को लेकर बहुत संजीदा थीं. ज़री जब सजाई जाती थी, तो बस एक आदमी को ही इजाज़त थी, जो उनके लिए काम करता था. उसका नाम श्याम सुन्दर था और वो बिजली का काम करता था. उसे ही ज़री सजाने का काम दिया जाता था. चाँदी के सामान निकलते थे, सभी को साफ करके ज़री सजती थी. मुहर्रम की सातवीं तारीख से उनके यहाँ खाना बनना शुरु होता था. नानवाई आते थे, जो नान और गोश्त वगैरह बनाते थे. ज़र्दा, मीठा चावल, गोश्त पुलाव और दाल-रोटी बनती थी. आप जानकर अचरज करेंगे कि ऐसी भीड़ जमा होती थी कि क्या कहने! सारा खाना ग़रीबों को बाँट दिया जाता था. सातवीं, आठवीं, नौवीं और दसवीं तारीख़ उनके लिए बड़े महत्त्व की थी. दसवीं तारीख़ को सुबह के समय उठकर जब ताजिया जाता था, तो मर्सिया पढ़कर रो-रोकर उसे विदा करती थीं. मर्सिया की शुरुआती लाईनें मुझे आज भी याद हैं, वे गाती थीं-‘सफ़र है कर्बला से अब हुसैन का….’
मैं यह भी कहना चाहूँगी कि अम्मी ने कभी भी फ़र्क नहीं किया हिन्दू-मुसलमान में. हम सब उनकी शिष्याएँ या उनकी ज़री सजाने वाला श्याम सुन्दर सभी से उन्होंने प्यार किया. अपना धर्म निभाते हुए भी हमें यह एहसास नहीं होने दिया कि हम उनके मजहब से नहीं आते. इसी तरह ईद में जिस तरह का प्यार लुटाना उन्होंने किया, वो आज दुर्लभ है. घर भर के गरारे-शरारे सिलने वाले दर्जियों से मेरे लिए भी पोशाक बनवाना, उन्होंने बहुत शौक से किया था. जितनी साड़ियाँ वे खरीदती थीं, वह खानदान के लोगों, दोस्तों और हम लोगों में बँट जाती थीं. मुझे कहती थीं कि ‘बिट्टन तुम्हें जो साड़ी पसन्द हो, ले लो’. ईद पर ईदी देना, सिवईंया घर भिजवाना और बहुत प्यार देना अम्मी की आदत में शुमार था. हमारे लिए दीवाली की तरह ही ईद होती थी, जिसका साल भर इन्तज़ार रहता था.
यतीन्द्र मिश्र : खाली समय में जब बेगम अख़्तर का गाने का मन नहीं होता था, तब क्या करती थीं?
शान्ती हीरानन्द
देखिए, उस समय तो सिर्फ़ चाय पीती थीं और घर के कामों में हाथ बँटाती थीं. (हँसते हुए) अम्मी की एक ख़ास आदत थी कि जल्दी ही वे जिस काम में पड़ी हों, उससे ऊब जाती थीं. अब जैसे जब खाली बैठी कुछ सोच रही हों, तो हम लोगों को दुलाई वगैरह सिलने को कहती थीं. मुझसे कहतीं कि- ‘लाओ बेटा मैं तुम्हे सिखाती हूँ कि दुलाई में गोटा कैसे लगाया जाता है.’ फिर कहतीं कि ‘दुलाई को खूशबूदार किस तरह करते हैं.’ बड़े मँहगे इत्रों को दुलाई में लगाते हुए उसे किस तरह गमकाते हैं, इसे करने में उन्हें मज़ा आता था. हालाँकि थोड़ी देर के लिए ही घर का काम किया, तो फिर उससे ऊब जाती थीं.
कई दफ़ा सोती थीं, तो देर तक सोती रहती थीं और फिर उठकर अचानक चाय की प्याली माँगने के साथ हम लोगों से गाना गवाती थीं. जिस दिन उनको कुछ पकाने का शौक लगे, तो फिर अल्लाह ही मालिक है, क्योंकि अम्मी इतने मन से समय लगाकर देर तक खाना बनाती थीं कि हम सब को पता होता था कि खाना तो अब शाम को ही मिलेगा. उनको यह धुन थी कि जब वे खाना बनाएँ, तो चूल्हा भी नया और बर्तन भी नया हो. इस तरह इंतजाम करने में ही दिन गुज़र जाता था.
यतीन्द्र मिश्र : यह तो कुछ दिलचस्प संस्मरण हैं, जो आप सुना रही हैं?
शान्ती हीरानन्द
मुझे लगता है कि उनकी दो तरह की शख़्सियतें थीं. एक ही समय में दो किरदारों में रहना. एक तो वे आज़ाद रहना चाहती थीं, तो दूसरी तरफ घर में एक शरीफ बीवी की तरह रहना पसन्द करती थीं. घर में हैं, तो कुछ खाना पका रही हैं, बच्चों को देख रही हैं, अपने नवासों की खिदमत में लगी हुई हैं. ….और अगर बाहर निकलीं, तो बिल्कुल आज़ाद ख्याल सिगरेट पीने वाली बेगम अख़्तर, जिन्हें फिर गाने-बजाने की महफिलें रास आती थीं. अकसर कहती थीं कि ‘चलो थियेटर में फ़िल्म देख आएँ.’ जब घर से दिल घबड़ाए, तो होटल या दूसरे शहर जा पहुँचती थीं और मुझे भी साथ ले लेती थीं.
दूसरे शहर पहुँचते ही उन्हें घर की तलब लगती थी और मुझसे कहें- ‘बिट्टन चलो तबीयत घबरा रही है, घर चलें.’ इस पर मैं हैरान होकर कहती थी, ‘अम्मी अभी तो आए हैं, एक दो दिन रह लीजिए, तब चलते हैं.’ इस पर कहें, ‘नहीं चलो मेरा जी घबरा रहा है. घर चलते हैं.’ उनको इण्डियन एयर लाईन्स वाले भी इतना मानते थे कि जब भी उन्होंने तुरन्त जल्दबाजी में टिकट बुक करना चाहा, तो एयर लाईन्स के ऑफिसर तुरन्त उनके लिए कहीं न कहीं से टिकट का इन्तज़ाम कर देते थे.
वो मुझसे कहती थीं, बाहर जाऊँ, आज़ाद रहूँ, कुछ लोगों से मिलूँ, जो जी चाहे वो करूँ, मगर वहाँ जाकर मेरी तबीयत घबराती है और मुझे घर याद आता है. मैं आपको बताती हूँ, जो मुझे आज लगता है कि उनको कहीं चैन नहीं मिलता था.
यतीन्द्र मिश्र : उनके व्यक्तित्व को आपने बहुत सुन्दर ढंग से याद किया है. कोई ऐसी बात जो उनके शौक और पसन्द-नापसन्दगी को उजागर करती हो?
शान्ती हीरानन्द
उनको जहाँ तक मैं जानती हूँ, उनको सौगातें बाँटने का बहुत शौक था. जहाँ भी जाती थीं, बहुत सारी चीज़ें लाती थीं, सबके लिए. उनको ख़ूबसूरती पसन्द थी. जो चीज़ सुन्दर है, फिर वो उन्हें चाहिए होता था. एक दिलचस्प किस्सा है कि जब अफगानिस्तान गयीं, तो वहाँ से ढेर सारा झाड़ू लेकर आ गयीं. मैंने कहा- ‘अम्मी इस झाड़ू का क्या करेंगे’? इस पर बोलीं- ‘अरे! बहुत ख़ूबसूरत है, देखो तो सही कितना अच्छा है.’ मुझे वहाँ शर्म आ रही थी कि अम्मी झाडू़ लिए हुए हैं और वे मुझसे कहती जातीं- ‘तुम क्यों शर्मा रही हो? झाड़ू ही तो है.’ ….और सबको बिटिया कहकर एक झाड़ू देने लगीं. इस तरह उन्होंने पूरे मोहल्ले में अफगानिस्तान से लायी हुई झाड़ू बाँटी. और इस पर मजा यह कि बड़ी प्रसन्न होकर बाँट रही थीं, जैसे कितनी नायाब चीज़ लेकर आ गयी हों. उन्हें झाड़ू पसन्द आ गयी और ख़ूबसूरत लगी, तो फिर सबको वो सुन्दर लगेगी, ऐसी उनकी सोच थी.
यतीन्द्र मिश्र : रेकॉर्डिंग के समय रेडियो स्टेशन या दूरदर्शन जाते हुए कभी उन्होंने कोई अतिरिक्त तैयारी या शृंगार वगैरह करती थीं?
शान्ती हीरानन्द
बड़ी सादा इंसान थीं. यह ज़रूर था कि उनको कपड़ों का बड़ा शौक था और घर में आलमारियाँ भरी हुई थीं. जब मैं उनको टोकती कि आप ये सब क्यों नहीं पहनतीं, तो कहती थीं ‘बहुत पहना है बिट्टन, अब मन नहीं होता’. मैंने हमेशा उनको सूती साड़ियों में ही देखा, कभी-कभी सिल्क की साड़ी भी पहन लेती थीं. कहीं प्रोग्राम है, रेकॉर्डिंग है, तो अकसर सो रही हैं. जब गाड़ी आकर खड़ी हुई उन्हें लेने, तो सोकर उठीं. एक प्याली चाय पी, साड़ी बदली, बाल बाँधे और चल दीं. कभी-कभी जरा सी लिपस्टिक भी लगाती थीं. इससे ज़्यादा कुछ नहीं.
मुझे लगता है कि जब वे जवान रही होंगी, तब उन्हें सजने-सँवरने का बहुत शौक़ रहा होगा. उनकी आलमारियों में डिब्बों और बक्सों में गहने भरे रहते थे. एक बक्से को मैंने इतनी अँगूठियों से भरा देखा, तो कहा ‘अम्मी इनमें से कुछ पहन लिया कीजिए.’ इस पर उन्होंने बोला ‘अरे बिटिया! देख लो, जो तुम्हें पसन्द आए ले लो.’ मगर मैंने कभी उनका एक जेवर भी नहीं लिया, क्योंकि मेरी मंशा ये नहीं रहती थी. मैं तो बस चाहती थीं कि अम्मी खूब सजे-सँवरे और खुश रहें. और वे थीं कि बहुत सादे ढंग से तैयार होकर कहीं भी चली जाती थीं. मेरे वास्ते जब कुछ लाती थीं, तो मैं इसरार करते हुए कहती थीं ‘अम्मी पहले आप ये पहन लें, तब मैं पहन लूँगी.’ मेरी मंशा यह रहती थी कि उनके पहन लेने से साड़ियों में उनकी ही अजब सी खुशबू आ जाती थी, जो मुझे बहुत अच्छी लगती थी. इसी तरह से मैंने हमेशा उनके तन से उतरे हुए कपड़े पहनने का सुख भोगा. वो माँ ही थीं, जिनके इर्द-गिर्द मेरा सारा जीवन बीतता था.
यतीन्द्र मिश्र : क्या कभी बेगम अख़्तर साहिबा ने आपको अपना कोई वाद्य, जेवर या संगीत से जुड़ी कोई निशानी दी है?
शान्ती हीरानन्द
उन्होंने मेरी शादी में अपने दो कंगन दिए थे और मुझे पहना दिए. उसे मैंने बड़े जतन से अपने पास रखा और उनके प्रसाद की तरह पहनती रही. जब मेरी बहू आयी, तो उसे मैंने वही कंगन सबसे पहले दिया और कहा कि ये बेगम अख़्तर साहिबा का आशीर्वाद है. इसे पहनना और सम्भाल कर रखना. इसे किसी को न देना क्यांकि यह मेरी गुरु का ऐसा प्रसाद है, जो हमारे पास ही रहना चाहिए. बाक़ी कपड़ों, जरी की साड़ियों और तमाम दूसरी सौगातें तो उन्होंने बहुत दी हैं, जिन्हें मैंने उतने ही आदर से अपने पास धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा.
यतीन्द्र मिश्र : बेगम अख़्तर साहिबा की ऐसी कौन सी ख़ास बात है, जो आपको सर्वाधिक अपील करती है?
शान्ती हीरानन्द
कलाकारों की इज्ज़त करना. उस्तादों के लिए अपने घर के दरवाज़े खोल देना और उनको बड़े मान-सम्मान के साथ बुलाकर इज्ज़त देना. कभी किसी कलाकार के लिए कुछ भी अप्रिय या कड़वा नहीं कहना. बहुत शरीफ थीं. वज़नदार महिला, जिनके लिए सच्चा कलाकार होना ही सबसे बड़ी बात थी. एक बार मैं और वे पूना गये और वहाँ एक साधारण सा मराठी गायक लावणी गा रहा था. वह कोई प्रचलित कलाकार या बहुत पहुँचा हुआ कलावन्त नहीं था. एक अति साधारण आदमी, जो लावणी सुना रहा है. मैंने देखा कि जब लावणी ख़त्म हुई, तो वे एकाएक खड़ी हो गयीं और उसके पैर छूने लगीं. वो घबड़ा गया और कहने लगा- ‘बेगम साहिबा आप यह क्या कर रही हैं?’ इस पर बहुत विनम्रता से बोलीं- ‘अरे तुम्हारी जुबान में जो सरस्वती हैं, उनको प्रणाम कर रही हूँ.’ इस तरह की शख़्सियत थीं बेगम अख़्तर.
वे जब भी किसी कलाकार से मिलती थीं, तो खातिर तो जो करती थीं, वो था ही. अगर वे उन लोगों के घर गयीं या वे ख़ुद अम्मी के घर आए, तो उन्हें बिना नज़राना दिए बगै़र वापस नहीं जाने देती थीं. मुझे याद है कि उन्होंने इस तरह उस्ताद बड़े गुलाम अली ख़ाँ साहब, उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब और उस्ताद अहमद जान थिरकवा को नज़राने पेश किए थे. मुझसे कहती थीं कि ‘इन गुणीजनों के पास कला है और उसकी कद्र करना हर एक इंसान का फर्ज़ है.’
मुझे एक चीज़ उनमें बहुत भाती है कि उनके अन्दर की बनावट कुछ उस तरह की थी, जिसमें गुरुर नहीं था. उनके दामन पर गुरुर के झींटे कभी नहीं पड़े. हमेशा कहती थीं- ‘बेटा यह कभी मत सोचना कि तुम बहुत अच्छा गाती हो. जिस दिन मन में यह आ जायेगा, उस दिन गाना-बजाना चला जायेगा.’ जिस ज़माने में तवायफों को इज्ज़त की निगाह से नहीं देखा जाता था, उस दौर में बेगम अख़्तर ने अपनी पूरी रवायत को इज्ज़त दिलवायी. ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के बराबर लाकर खड़ा किया और बड़े-बड़े दिग्गज उस्तादों से अपनी गायिकी का लोहा मनवाया. उनके गाने के बाद से ग़ज़ल के लिए कभी किसी ने कोई छोटी बात नहीं कही. यह बेगम अख़्तर की सफलता थी.
मैंने उनकी जवानी का वो दौर भी देखा है, जब वे दिल्ली के लाल किले में एक परफार्मेंस के लिए गयीं, तो वहाँ तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू उनको देखकर आदर में खड़े हो गए और उनका अभिवादन किया. वहाँ उन्होंने बहादुर शाह जफ़र की ग़ज़लें गायी थीं. यह सन् 1960-62 का समय होगा. आप देखिए, कितनी बड़ी बात है कि प्रधानमंत्री ने उनका खड़े होकर एहतराम किया. बेगम अख़्तर के लिए और किसी भी कलाकार के लिए यह बहुत बड़ी बात है.
यतीन्द्र मिश्र : ऐसी कौन सी बात है, जो आप अपने गुरु से पूछ नहीं पाईं या माँग नहीं सकीं? जिसका मलाल आज भी आपको होता है?
शान्ती हीरानन्द
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(शान्ती हीरानन्द) |
कोई मलाल नहीं है. अम्मी एक बार जब मुम्बई में अरविन्द पारिख भाई के यहाँ गयीं और रहीं, तो उनसे उन्होंने कहा, जिसे अरविन्द भाई ने मुझे बाद में बताया. उन्होंने उनसे कहा- ‘मेरी बेटी शान्ती हीरानन्द ने मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा.’ यह सुनकर मेरी आँखें भीग गयीं और मुझे बड़ी राहत हुई कि मेरी उस्तानी मेरे बारे में ऐसा सोचती थीं. मुझे शण्टो, शण्टोला, बिट्टन कहती थीं और बड़े प्यार से उन्होंने मुझे सँवारा. एक बार उन्होंने एक बड़े उस्ताद का सम्मान करते हुए मुझे नसीहत दी थी, जो आज भी मुझे सीख जैसी लगती है. उन्होंने कहा था- ‘जिसका रुतबा जैसा है, उसके साथ वैसा ही निभाना चाहिए.’
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(यतीन्द्र मिश्र) |
यकीन मानिए, मैंने इसी पर चलने का उम्र भर काम किया है. अहमदाबाद के अपने अन्तिम कंसर्ट में उन्होंने आखिर में ‘सोवत निन्दिया जगाए हो रामा’ चैती गायी थी. उसके बाद उनकी आवाज़ हमेशा के लिए बन्द हो गयी. यह चैती मुझे आज भी बहुत विचलित करती है. मुझे लगता है कि अम्मी हमें छोड़कर क्यों चली गयीं. अच्छा ही हुआ कि उन्होंने मुझे चैती सिखाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई, नहीं तो मेरा तो न जाने कितना करम हो जाता.
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