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Home » बदलता गाँव बदलता देहात : नयी सामाजिकता का उदय (सतेंद्र कुमार) : नरेश गोस्वामी

बदलता गाँव बदलता देहात : नयी सामाजिकता का उदय (सतेंद्र कुमार) : नरेश गोस्वामी

भारत के गाँव-देहात अब ‘गोदान’, ‘मैला आँचल’ और ‘राग दरबारी’ के गाँव देहात नहीं रह गए हैं. सतेंद्र कुमार ने नई अर्थव्यवस्था, शहरीकरण और तकनीक के प्रभावों का समाजशास्त्रीय अध्ययन पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के एक गांव खानपुर को केंद्र में रखकर किया है. यह किताब ‘बदलता गांव, बदलता देहात : नयी सामाजिकता का उदय’ ऑक्‍सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से इस वर्ष प्रकाशित हुई है. इसकी समीक्षा नरेश गोस्वामी कर रहें हैं. नरेश गोस्वामी समाज विज्ञान की पत्रिका ‘प्रतिमान’ के सहायक संपादक हैं.

by arun dev
December 29, 2018
in समीक्षा
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बदलता गाँव बदलता देहात : नयी सामाजिकता का उदय (सतेंद्र कुमार) : नरेश गोस्वामी

(ऑक्‍सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस नयी दिल्‍ली. मूल्‍य : 275 रुपये,  पृष्‍ठ: 156.)

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नयी ग्रामीण सामाजिकता के शक्ति केन्द्रों की पहचान

नरेश गोस्वामी

सतेंद्र कुमार इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में अध्यापन करतें हैं. दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से डॉक्टरेट के बाद, वह लम्बे समय से पूर्वी तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पिछड़ी एवं अति पिछड़ी जातियों के राजनीतिकरण तथा लोकतंत्र के स्थानीय स्वरूप पर एथ्नोग्राफिक अध्ययन में जुटें हैं. उन्होंने गाँव -देहात, जाति के बदलते रूपों तथा युवाओं की राजनीति में बढ़ती भागीदारी पर भी लिखा है. समाजशास्त्रीय लेखन के अलावा वह कहनियाँ और कवितायें भी लिखतें हैं. वह सीएसडीएस- दिल्ली, कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले, जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय तथा लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में विजिटिंग फेलो रहें हैं.

 
नागर चेतना में गांव अभी तक मानसिक पलायन का बिम्‍ब बना हुआ है. गांव को लोग अक्‍सर एक अपरिवर्तनीय और आत्‍म-निर्भर सामाजिक इकाई और ऐसी हरी-भरी जगह के रूप में देखते हैं, जहां  जीवन शहर की आपाधापी और तेज़ रफ़्तार जीवन-शैली के उलट एक मंथर लय में बहता है. हालांकि समाजशास्‍त्र एवं मानव-शास्‍त्र के अध्‍येता मैकिम मैरियोट ने अपनी किताब विलेज इंडिया में यह बात 1955 में ही स्‍पष्‍ट कर दी थी कि गांव को लघु गणराज्‍य के रूप में कल्पित करना अर्थात् उसे शहर और कस्‍बे से विच्छिन्‍न अलग इकाई मानना एक भ्रांति है, परंतु समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययनों के अन्‍य निष्‍कर्षों की तरह यह तथ्‍य भी दैनंदिन भावबोध में नहीं उतर पाया.

भारत में ग्राम्‍य अध्‍ययन का सिलसिला 1950 के आसपास शुरू हुआ था. लेकिन, एम.एन. श्रीनिवास, श्‍यामा चरण दुबे, ब्रजराज चौहान तथा आंद्रे बेते जैसे लब्‍ध-प्रतिष्‍ठ समाजशास्त्रियों के नेतृत्‍व में विकसित हुई यह धारा आठवें दशक तक आते-आते क्षीण हो गयी. जैसे जैसे राज्‍य का फ़ोकस जन-कल्‍याण और सार्वजनिक क्षेत्र के बजाय निजी उद्यमों-उद्योगों और वैश्विक पूंजी की ओर मुड़ता गया, वैसे वैसे भारतीय समाजशास्‍त्र के प्रतिष्‍ठान का सरोकार भी गांव को छोड़ कर शहर की ओर बढ़ गया. एक समय तो ऐसा भी आया कि खेतिहर आय की अनिश्चितता, देश की समग्र अर्थव्‍यवस्‍था में ग़ैर-खेतिहर उत्‍पादों की बढ़ती हिस्‍सेदारी और गांवों से शहरों की ओर पलायन के निरंतर बढ़ते ग्राफ़ को देखते हुए दीपांकर गुप्‍ता जैसे समाजशास्‍त्री यह पूछने लगे कि गांव का अस्तित्‍व बचा भी रहेगा या नहीं !  
नयी पीढ़ी के राजनीतिक समाजशास्‍त्री सतेंद्र कुमार की यह किताब— बदलता गांव, बदलता देहात: नयी सामाजिकता का उदय ग्राम-अध्‍ययन की इस यशस्‍वी परम्‍परा में एक नया अध्‍याय जोड़ती है. पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के एक गांव खानपुर का यह एथनॉग्र‍ाफिक आख्‍यान गांव की जड़ और विज्ञापित छवि के रेशे उधेडते हुए हमारे सामने एक नया समाजशास्‍त्रीय यथार्थ प्रस्‍तुत करता है जिसमें गांव ‘न गांव रह गया है, और न शहर बन सका है’. इस अर्थ में यह किताब गांव का दो स्‍तरों पर संधान करती है. एक, उसका स्‍थानीय यथार्थ और दूसरे, इसे गढ़ता, बदलता और विरुपित करता बृहत्‍तर यथार्थ. यह गांव समकालीन राजनीति और अर्थव्‍यवस्‍था के बीच खड़ा है. इसका एक सिरा भारतीय समाज की निम्‍न जातियों के राजनीतिक सबलीकरण से तो दूसरा सिरा नव-उदारवाद की वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था से जुड़ा है.
छह अध्‍यायों में बंटी इस छोटी लेकिन चुस्‍त किताब से गुज़रते हुए हम एक ऐसे गांव से मुख़ातिब होते हैं जिसमें परिवार के बढ़ते आकार, ज़मीन के घटते रकबे और रासायनिक खादों, कीटनाशक दवाईयों तथा नये बीजों के बेतहाशा इस्‍तेमाल के बावजूद घटती उपज जैसी समस्‍याओं से जूझते छोटे और सीमांत किसान ग़ैर-खेतिहर व्‍यवसायों में पनाह ढूंढ़ रहे हैं. अब खेती उनके जीवन-यापन का मुख्‍य आधार नहीं रह गयी है. गांव में बहुत से किसान अपनी बित्‍ते भर की जोत को ठेके या बंटाई पर उठा कर कोई दूसरा काम करने लगे हैं. सूत्र रूप में कहें तो गांव में ग़ैर-कृषि अर्थव्‍यवस्‍था आकार ले चुकी है, लेकिन संकट यह है कि वह मुख्‍यत: निर्वाह-अर्थव्‍यवस्‍था के रूप में काम करती है.
यह नव-उदारवादी अर्थव्‍यवस्‍था से प्रतिकृ‍त होता गांव है जहां स्‍थानीय एमएलए और ठेकेदार पंचायत के चुनाव में पैसा लगा कर सड़क, स्‍कूल, तालाब बनाने के ठेके लेते हैं. वैसे गांव में अब दबंग जातियों का वर्चस्‍व एकक्षत्र नहीं रह गया है. अब उन्‍हें अपनी ताकत दलित, पिछड़े और अति-पिछड़े समूहों के साथ बांटनी पड़ती है. चुनाव के समय इन जातियों को अपने कप और खाट जाटवों से साझा करने में कोई आपत्ति नहीं होती, और इस तरह चुनाव-अभियान की अवधि में गांव का सामाजिक पदानुक्रम समानतापूर्ण हो जाता है.
 

इस गांव में लंबे समय तक डकैत के रूप में कुख्‍यात रहा राजशरण प्रधान बन जाता है, लेकिन कभी-कभी देखते देखते दलित नेता भोपाल सिंह भी इस पद तक पहुंच जाता है. गांव की जनता उम्‍मीदवार की नैतिकता के बजाय उसके ‘काम करवा’ सकने की क्षमता को ज्‍़यादा महत्‍तव देती है, परंतु इस बात को लेकर सजग रहती है कि अगली ‘बारी’ किसको मिलनी चाहिए!

इस किताब से गुज़रते हुए पता चलता है कि अन्‍य पिछड़े वर्ग की राजनीतिक अवधारणा अपने सामाजिक अर्थ में कितनी संदिग्‍ध और बहरूपिया है. मसलन,  गूजर जाति की तरह सैनी, गड़रिया और धीवर जैसी जातियां भी पिछड़ी मानी जाती हैं, लेकिन उनकी आर्थिक ताक़त और सामाजिक हैसियत के बीच बहुत विकट अंतर है. अधिकांशत: भूमिहीन या लगभग न के बराबर ज़मीन रखने वाले गड़रिया और धीवर जैसे जाति-समूहों की हैसियत जाटवों से कमतर है, जबकि जाटव दलित वर्ग में शामिल किए जाते हैं.

 

लेखक ने यहां मुजफ़्फ़रनगर दंगों के बाद होने वाले पंचायती चुनाव में साम्‍प्रदायिक ध्रुवीकरण के उस प्रचार-तंत्र की गहन पड़ताल की है जो फ़कीर समुदाय के रज़्ज़ाक द्वारा प्रधानी का पर्चा दाखिल करते ही गांव में ‘मुसलमानी राज’ आ जाने का ख़तरा अलापने लगता है, और जिसके चलते गूजर समुदाय अपनी किसान-अस्मिता त्‍याग कर हिंदू बन जाता है तथा पारम्‍परिक दस्‍तकार-सेवक जातियों को मुसलमान घोषित कर देता है.

ग़ौरतलब है कि ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदुत्‍ववादी संगठनों का यह प्रचार-तंत्र पिछले दो दशकों के दौरान बेहद सक्रिय रहा है, परंतु अकादमिक जगत में हिंदुत्‍व को एक लंबे समय तक मुख्‍यत: शहरी परिघटना की तरह देखा जाता रहा. यह धारणा इतनी रूढ़ हो गयी थी कि जब कोई अल्‍पचर्चित विद्वान हिंदुत्‍व के देहात में बढ़ते नेटवर्क की बात करता था तो उसकी बात पर ध्‍यान नहीं दिया जाता था. इस अर्थ में लेखक की यह किताब भारत में समाज-वैज्ञानिक लेखन की अति-सैद्धांतिकता को प्रश्‍नांकित करती है, जो ज़मीनी अध्‍ययन के बजाय वैचारिक प्रस्‍थापनाओं को ज्‍़यादा

सतेंद्र कुमार

महत्‍तव देती रही है. लेखक का यह विवरण इस बेहद ज़रूरी लेकिन अक्‍सर चर्चा से बाहर रह जाने वाले तथ्‍य की ओर संकेत करता है कि गांव-देहात में हिंदुत्‍व राजनीतिक लामबंदी के एक साधन के रूप में उभरा है. वह दबंग जातियों द्वारा अपना वर्चस्‍व बरकरार रखने का एक नया एजेण्‍डा है. इसलिए, यह अकारण नहीं है कि ‘जाट, गुर्जर, और राजपूत जैसी जातियां रातों रात राष्‍ट्रवादी हिंदुत्‍व में शामिल होकर और गो-रक्षा, हिंदू-रक्षा तथा स्‍त्री-रक्षा जैसे संगठनों का कार्यभार संभाल कर स्‍थानीय स्‍तर पर दलितों और मुसलमानों के सबलीकरण को कमज़ोर करने में जुट गयी हैं’.

किताब के तीसरे अध्‍याय— ‘युवाओं की हसरतें: नौकरी की मरीचिका’ में लेखक ने ग्रामीण युवाओं की बेकारी और बेरोज़गारी की उदाहरणों के ज़रिये गहरी पड़ताल की है. इसमें एमएससी करने के बाद क्रमश बीज और खाद की दुकान तथा कोचिंग सेंटर खोलकर जीवन-यापन की शुरुआत करने वाले दो युवाओं का वृतांत इस निर्मम सच की ओर इंगित करता है कि हमारे राज्‍य के पास काग़जी खानापूर्तियों और फरेबी जुमलों के अलावा युवाओं के लिए कोई ठोस योजना या कार्यक्रम नहीं है. मीडिया-घरानों द्वारा समय-समय पर प्रचारित की जाने वाली ‘यंग अचीवर्स’ और युवा उद्यमी की छवियों के उलट सच ये है कि ग्रामीण क्षेत्र में अधिकांश युवाओं के ऊर्जा से लबालब भरे साल निराशा और तनाव में गुज़र जाते हैं.

लेखक ने इस पहलू पर अलग से ज़ोर दिया है कि ग्रामीण युवाओं की व्‍यापक बेरोज़गारी को उस संदर्भ में रख कर देखा जाना चाहिए जिसमें स्‍थायी रोजग़ार के तौर पर खेती की तबाही के बाद किसान और मज़दूर यह मानने लगे हैं कि अब शिक्षा ही रोज़गार का साधन हो सकती है.

लेकिन गांव में शैक्षिक ढ़ांचे की स्थिति यह है कि आठवें दशक के बाद यहां कोई सरकारी स्‍कूल नहीं खुला, जब कि पिछले पंद्रह वर्षों में यहां तीन प्राईवेट स्‍कूल खुल चुके हैं. गांव के संपन्‍न और दबंग परिवार अपने बच्‍चों को इन्‍हीं स्‍कूलों में भेजते हैं. लेखक के मुताबिक़ प्राईवेट स्‍कूलों का यह जाल पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के समूचे देहात में फैल चुका है. तीन से चार हज़ार की पगार पर काम करने वाले अध्‍यापकों के सहारे चलने वाले इन स्‍कूलों में शिक्षा की गुणवत्‍ता स्‍कूल के प्रबंधकों या बच्‍चों के अभिभावकों के लिए कोई मुद्दा नहीं है. लेकिन इन तथाकथित अंग्रेजी मीडियम स्‍कूलों में बच्‍चों को क्‍या सिखाया जाता है इसका पता तब चलता है जब स्‍कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्‍हें दुबारा अंग्रेजी सिखाने वाले कोचिंग सेंटरों की शरण लेनी पड़ती है.

यह किताब बताती है कि पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में इंटरनेट, मोबाइल फ़ोन तथा मोटरबाइक ने गांव की बाहरी और भीतरी हुलिया बदल डाला है. मोबाइल फ़ोन की आमद के बाद खेती तथा ग़ैर-खेतिहार कामकाज में एक नयी तरह की गति आई है. इससे किसानों, मैकेनिकों, स्‍वरोज़गार करने वाले छोटे उद्यमियों को समय की बचत के साथ अपनी कार्यदक्षता बढ़ाने का भी मौक़ा मिला है. मसलन, सब्‍जी पैदा करने वाला एक किसान राम सिंह सैनी मण्‍डी में अपने परिचितों से मोबाइल पर बात करके भाव का पता कर लेता है. इसी तरह, बिजली का काम करने वाले मन्‍नू पाल ने अपना नाम दीवारों पर लिखवा रखा है. ग्राहकों के पास अब उसका नंबर रहता है. व्‍हाट्सएप आने के बाद अब उसके ग्राहक फिटिंग के स्‍पेस और खराब मशीन का फ़ोटो खींचकर भेज देते हैं. गांव में मोबाइल रिपेयर शॉप खुद एक व्‍यवसाय के रूप में उभर चुका है.

लेखक के अनुसार राजनीति में तो मोबाइल की भूमिका इतनी बढ़ गयी है कि कई बार ऐसा लगता है कि इसके बिना चुनाव का प्रबंधन ही नहीं किया जा सकता. कार्यकताओं की मीटिंग से लेकर मतदाताओं को संदेश भेजने, प्रतिद्व‍ंदियों की ख़बर रखने, नाराज मतदाता से संपर्क साधने और अंतत:  गांव के पड़ोसी शहरों, मेरठ, दिल्‍ली, गाजि़याबाद, नोएडा, आदि जगहों पर रहने वाले मतदाताओं से संपर्क करने जैसे काम मोबाइल के चलते आसान हो गए हैं.

लेकिन, लेखक ने सोशल मीडिया के भयावह पहलू को उजागर करते हुए यह भी दर्ज किया है कि वर्चस्‍वशाली ताकतें इसे कितनी आसानी से साम्‍प्रदायिकता फैलाने का औजार बना सकती हैं. सन् 2013 में मुजफ़्फ़रनगर जिले के कवाल गांव की घटना का उल्‍लेख करते हुए लेखक बताता है कि रोजमर्रा की एक आपराधिक घटना को किस तरह राष्‍ट्रीय मुद्दा बना दिया गया जिसमें सैंकड़ों लोगों की जान गयी, हज़ारों लोग अपने गांव-घर से विस्‍थापित हो गये और करोड़ों की संपत्ति तबाह कर दी गयी.

मोटरबाइक और मोबाइल के बाद यह गांव पारिवारिक और सामाजिक जीवन बाहरी दुनिया से ज्‍़यादा जुड़ गया है. इससे जहां नाते-रिश्‍तेदारी के संबंधों को नयी ऊर्जा मिली है, वहीं मुहल्‍ले और गांव की आपसदारी, प्रत्‍यक्ष संवाद पर बुरा असर पड़ा है. नयी पीढ़ी का ज्‍यादा समय दूसरे शहरों में रहने वाले अपने भाई-बहनों, संबंधियों से बात करने में बीतता है अथवा फेसबुक तथा व्‍हाट्सएप से जुड़े कामकाजी दोस्‍तो से. मसलन, गांव का एक व्‍यक्ति शमशु जब काम के लिए दुबई जाता है तो अपनी पत्‍नी और बच्‍चों को वहां के जीवन, बुर्ज ख़लीफ़ा और अन्‍य इमारतों की तस्‍वीरें भेजता है. धीरे-धीरे इसका परिणाम यह होता है कि उसके घर वाले अपने पड़ोसियों के बारे में कम और दुबई के विषय में ज्‍यादा जानने लगते हैं. लेखक के अनुसार गांव में रहने वाले लोगों का जीवन अब एक काल्‍पनिक दुनिया से ज्‍यादा जुड़ गया है. गांव में रहने के बावजूद उनका गांव की दुनिया से कम वास्‍ता रह गया है.

यह एक दिलचस्‍प बात है कि इस बदलते हुए गांव में जहां परिवार और जातियों के देवी-देवताओं में कोई ख़ास कमी नहीं आई, वहीं नए धार्मिक कर्मकांड, त्‍योहार, तीर्थ और धर्मगुरू जन-जीवन का अंग बन गए हैं. लेखक का मानना है कि यह नयी धार्मिकता जहां बहुजन धार्मिकता से मिलकर एक देशज रूप ले लेती हैं, वहीं दूसरी ओर वह धार्मिक कट्टरवाद तथा दक्षिणपंथी राजनीति का भी हिस्‍सा बन जाती है. इससे अगर एक नयी किस्‍म की सामूहिकता का गठन हो रहा है तो साथ हिंदुत्‍व और मध्‍यम वर्ग की धार्मिक चेतना भी जन-जीवन में पैठ करने लगी है. गांव का जीवन एक बड़ी राष्‍ट्रीय चेतना का अंग बनता जा रहा है. यह नयी धार्मिकता घर परिवार तक सीमित होने के बजाय सड़कों तथा सार्वजनिक स्‍थानों पर उतर आई है. पहले जागरण, चौकी और गणपति उत्‍सव जैसे आयोजन शहरों तक सीमित थे, लेकिन अब वे गांव की की संस्‍कृति का अंग बनने लगे हैं. पिछले दो दशकों के दौरान गांव-देहात में गुरुओं के डेरों और सत्‍संग के प्रचलन के साथ कांवड़ की यात्रा सामूहिक आस्‍था की एक व्‍यापक परिघटना के रूप में उभरी है.

किताब के आखि़री अध्‍याय में लेखक ने पिछले पांच अध्यायों की सामग्री को सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्‍य में रख कर नयी सामाजिकता का सूत्रीकरण किया है. ग़ौरतलब है कि ‘नयी सामाजिकता का उदय’ इस किताब का उप-शीर्षक भी है. नयी सामाजिकता एक बनती-उभरती अवधारणा है. हालांकि लेखक ने पिछले अध्‍यायों का समाकलन करते हुए उन तमाम प्रवृत्तियों का यथोचित विश्‍लेषण किया है जिन्‍हें नयी सामाजिकता का संरचनात्‍मक आधार माना जा सकता है, परंतु  किताब के पॉपुलर मुहावरे को देखते हुए हमारा मानना है कि लेखक को यह अलग से स्‍पष्‍ट करना चाहिए था कि नयी सामाजिकता से उनका आशय क्‍या है.

बहरहाल, जैसा कि इस अध्‍याय से ध्‍वनित होता है, नयी सामाजिकता का मतलब पिछली सामाजिकता से विच्छिन्‍न्‍ता नहीं है. दरअसल, यह नये आर्थिक-राजनीतिक यथार्थ से प्रतिकृत होती सामाजिकता है जिसमें धीरे-धीरे दबंग जातियों का एकक्षत्र वर्चस्‍व टूटा है; दलित और पिछड़े समुदाय के लोग प्रधान बनने लगे हैं, लेकिन सबलीकरण की इस प्रक्रिया के समानांतर गांव वैश्विक बाज़ार का हिस्‍सा भी बनता चला गया है. गांव का जीवन, वहां की खेती-बाड़ी, राजनीति और धार्मिक कर्मकांड अब गांव के बजाय बाज़ार की ताकतों और राज्‍य के हस्‍तक्षेप से तय होने लगे हैं. 

अब वहां के 75 प्रतिशत लोगों का जीवन ग़ैर खेतिहर व्‍यवसायों पर निर्भर करता है. गांव की मजदूर और दस्‍तकार जातियों के लोग अब सुबह काम पर निकलते हैं और देर शाम या रात घर लौटते हैं. उनके पास सुबह शाम चौपाल पर बैठकर बात करने का समय नहीं रह गया है. 

ऐसे में गांव अब आवासीय स्‍थल/स्‍थान बनता जा रहा है. पिछले दो-तीन दशकों में किसान और मज़दूर के बजाय किसान और बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों, खाद-बीज भण्‍डार के मालिकों तथा दलालों का पारस्‍परिक संबंध ज्‍यादा मज़बूत हुआ है. चुनावी राजनीति तथा पंचायती राज व्‍यवस्‍था से गांव के सत्‍ता संबंधों में संरचनात्‍मक बदलाव आया है. इनसे कमज़ोर और दलित जातियों का सशक्‍तीकरण हुआ है, परंतु इससे लोगों की लोकतांत्रिक चेतना में कोई इज़ाफ़ा नहीं हुआ है. आं‍तरिक लोकतंत्र के अभाव में विभिन्‍न जातियों और वर्गों में वंशवाद को बढ़ावा मिला है जिससे लोकतंत्र से मिलने वाले लाभ जाति-समुदाय के कुछ परिवारों तक सीमित होकर रह गए हैं. लेखक का मानना है कि चूंकि गांव की बाहरी संरचना— उत्‍पादन, वितरण और सत्‍ता संबंध बदल गए हैं इसलिए गांव का नया रंग-रूप एक नये नाम और परिभाषा की दरकार रखता है.

इससे ज़ाहिर है कि अब गांव को हम एक बनी-बनाई अवधारणा में नहीं देख सकते. इसीलिए एक समाजशास्‍त्री के तौर पर लेखक की फिक्र का दायरा अपने चयनित गांव की नियति तक सीमित नहीं है. दरअसल यह एक गांव का सघन अध्‍ययन करते हुए गांव की बदलती अवधारणा को समझने का उपक्रम है. इस मायने में यह एक ज़रूरी किताब है.

__________________
naresh.goswami@gmail.com

Tags: नरेश गोस्वामीसत्येन्द्र कुमार
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