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Home » भूमंडलोत्तर कहानी- 22: बंद कोठरी का दरवाजा (रश्मि शर्मा): राकेश बिहारी

भूमंडलोत्तर कहानी- 22: बंद कोठरी का दरवाजा (रश्मि शर्मा): राकेश बिहारी

समकालीन कथा-साहित्य पर आधारित स्तंभ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ की २२ वीं कड़ी में आलोचक राकेश बिहारी ‘रश्मि शर्मा’  की कहानी ‘बंद कोठरी का दरवाजा’ की चर्चा कर रहें हैं. यह कहानी समालोचन पर ही प्रकाशित हुई थी और इसने सबका ध्यान खींचा था. यह कहानी एलजीबीटी समुदाय (lesbian, gay, bisexual, and transgender) को केंद्र में रखकर लिखी गई है. समकालीन कथा-आलोचना का यह उपक्रम अब लगभग पूर्ण होने को है. राकेश बिहारी ने इस बहाने न केवल अपने समय की महत्वपूर्ण कहानियों का चयन किया है बल्कि उनके अध्ययन से समकालीन कथा-प्रवृत्तियों का भी पता चलता है. यह पुस्तकाकार भी प्रकाशित होने को है.   

by arun dev
December 27, 2018
in आलेख
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भूमंडलोत्तर कहानी- 22: बंद कोठरी का दरवाजा (रश्मि शर्मा): राकेश बिहारी
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भूमंडलोत्तर कहानी – २२
समलैंगिकता विकल्प नहीं प्रकृति है                     

(संदर्भ: रश्मि शर्मा की कहानी `बंद कोठरी का दरवाजा)

राकेश बिहारी

“History owes an apology to these people and their families. Homosexuality is part of human sexuality. They have the right of dignity and free of discrimination.”
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र  
“It is difficult to right a wrong by history. But we can set the course for the future. This case involves much more than decriminalizing homosexuality. It is about people to live with dignity”.
 न्यायमूर्ति धनंजय वाई. चंद्रचूड़

 

दो न्यायमूर्तियों के उपर्युक्त कथन उनके उस ऐतिहासिक फैसले का हिस्सा हैं, जिसके बाद आपसी सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंध भारत में आपराधिक नहीं रहे. स्वायत्तता, अंतरंगता और पहचान के मूल नागरिक अधिकारों की रक्षा की बात करने वाला यह फैसला जो 6 सितंबर 2018 को माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा सुनाया गया, समलैंगिकों के प्रति अब तक किए जाते रहे अन्याय को न सिर्फ़ स्वीकार करता है बल्कि अपने आलोक में उनके लिए सम्मानपूर्वक जीवन जीने का मार्ग भी प्रशस्त करता है. गौरतलब है कि यहाँ समलैंगिक सम्बन्धों को गैरापराधिक घोषित किए जाने के मुक़ाबले समलैंगिकों की सामाजिक प्रतिष्ठा की पुनर्बहाली पर ज्यादा ज़ोर है. अपराधी करार दिये जाने के विरुद्ध समलैंगिकों के गौरव और सम्मान की रक्षा की बात करनेवाले इस फैसले को भारतीय समाज के संदर्भ में यौन व्यवहारों के क्षेत्र में एक `पैराडाइम शिफ्ट` का सूत्रपात माना जाना चाहिए.

समलैंगिकों को यह कानूनी अधिकार एक लंबी लड़ाई के बाद हासिल हुआ है. लेकिन महज कानूनी हक हासिल हो जाने से किसी की सामाजिक प्रतिष्ठा सुनिश्चित नहीं हो जाती. पर कानून का भय समाप्त हो जाना उस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम तो जरूर है. समलैंगिकता को लेकर माननीय सर्वोच्च नयायालय का फैसला भले आज की बात हो लेकिन मनोविज्ञान और साहित्य दोनों ही में इस पर लंबे समय से चर्चा होती रही है. गोकि इतने कम समय में ऐसे फैसलों का प्रभाव समाज और साहित्य में ढूँढना जल्दबाज़ी ही कही जाएगी लेकिन इस बहाने इस विषय के सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और संवेदनात्मक पहलुओं पर एक रचनात्मक चर्चा जरूर की जा सकती है. `भूमंडलोत्तर कहानी` श्रृंखला की इस कड़ी के लिए `समालोचन डॉट कॉम` पर प्रकाशित रश्मि शर्मा की कहानी `बंद कोठरी का दरवाजा` के चयन का यह एक प्रमुख कारण है.

भारतीय संदर्भों में समलैंगिकता को लेकर एक पक्ष इतिहासकारों का भी रहा है जिन्होंने इस बात से सहमति दिखाई है कि पूर्व औपनिवेशिक भारतीय समाज में समलैंगिक सम्बन्धों को अपराध, पाप या अनैतिक नहीं माना जाता था. खजुराहो की मूर्तियाँ हो या मानवीय यौन व्यवहारों पर केन्द्रित ग्रंथ कामसूत्र, इन जगहों पर भी समलैंगिक सम्बन्धों को प्राकृतिक और आनंददायक की तरह ही चित्रित किया गया है. दो प्राचीन भारतीय ग्रन्थों `नारद स्मृति` और `सुश्रुत संहिता` में समलैंगिकता को एक लाइलाज बीमारी मानते हुये विपरीतलिंगियों के साथ समलैंगिकों की शादी को मना किया गया है. भारतीय दंड विधान के अंतर्गत धारा 377 के प्रावधानों को लागू कर आधुनिक भारतीय समाज में समलैंगिकता को अपराध के रूप में पहली बार अंग्रेजों ने स्वीकृति दी, जो आज़ादी के सत्तर वर्षों बाद भी जारी रहा.

(Art work : Robert Mapplethorpe)

 

भारत सहित दुनिया के बहुत सारे देशों में समलैंगिकता को कानूनी मान्यता हासिल होने में मनोवैज्ञानिक शोधों और अध्ययनों की ख़ासी भूमिका रही है. चूंकि समलैंगिकता संबंधी सभी शुरुआती अध्ययन मनोरोगियों और कैदियों के यौन व्यवहारों पर ही केन्द्रित थे इसलिए लंबे समय तक इसे अपराध और मनोरोग की तरह ही देखा गया. लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के शुरुआती दशक में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एवलिन हूकर ने पहली बार अपने गहन अध्ययन और शोध के बाद इस मान्यता को अस्वीकार कर दिया कि समलैंगिकता कोई मानसिक बीमारी या अपराध है. यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि हूकर ने यह अध्ययन अपने किसी छात्र के अनुरोध पर किया जो एक समलैंगिक था. भारत में समलैंगिक सम्बन्धों को संवैधानिक स्वीकृति मिलने की पृष्ठभूमि के बीच सम्बन्धों की जटिलताओं को रेखांकित करती कहानी `बंद कोठरी का दरवाजा` समलैंगिकता संबंधी मनोवैज्ञानिक शोधों की स्थापनाओं को भी परिपुष्ट करती है. इसलिए विवेच्य कहानी को समलैंगिकता संबन्धित इन ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और संवैधानिक पहलुओं के पार्श्व-आलोक में पढ़ा जाना चाहिए.

हिन्दी कथा-साहित्य के लिए समलैंगिकता कोई नया विषय नहीं है. `लिहाफ` (इस्मत चुगतई), `कुल्ली भाट` (सूर्यकांत त्रिपाठी निराला), `रसपिरिया` (फणीश्वरनाथ रेणु) जैसी कहानियों और `मछली मरी हुई` (राजकमल चौधरी), `दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता` (सुरेन्द्र वर्मा), `पंखों वाली नाव` (पंकज बिष्ट) जैसे उपन्यासों में इस विषय पर पहले भी लिखा गया है. इस संदर्भ में `लिहाफ` तो ऐतिहासिक महत्व की कहानी है. युगीन बदलावों की आहट से अनुगूंजित `बंद कोठरी का दरवाजा` को उसी परंपरा की अद्यतन  कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए. यहाँ इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि पहले इस मुद्दे पर बात करते हुये कथा-रचनाएँ बहुत कलात्मक और प्रतीकात्मक हुआ करती थीं; ऐसी कलात्मकता जो कई बार अमूर्तन के अहाते में भी प्रवेश करती हो. यहाँ यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि माननीय सर्वोच्च्च न्यायालय के हालिया फैसले में जिस तरह समलैंगिकों के सम्मानजनक और गरिमापूर्ण सामाजिक जीवन जीने के अधिकार पर ज़ोर दिया गया है उससे यह स्पष्ट है कि समाज में समलैंगिकों की स्थिति प्रतिष्ठाजनक नहीं रही है. समलैंगिकता की सामाजिक अस्वीकृति और समलैंगिकों के प्रति अपमानजनक व्यहार के कारण ही समाज में ऐसे सम्बन्धों पर पर्दा डालने का चलन रहा है.

पूर्ववर्ती कथा-रचनाओं में समलैंगिक सम्बन्धों के चित्रण में व्याप्त अमूर्तन के हद तक की उस कलात्मकता और प्रतीकात्मकता का एक कारण यह भी हो सकता है. उल्लेखनीय है कि `बंद कोठरी का दरवाजा` में ऐसे कलात्मक रचाव की कोई कोशिश नहीं दिखती है. हो सकता है कुछ पाठक-आलोचक इसे इस कहानी की कमजोरी के रूप में भी रेखांकित करें लेकिन मैं इस साफबयानी (सपाट नहीं) को इस कहानी की युगीन विशेषता मानता हूँ.

मेरी पढ़त की सीमा में यहाँ दो और समकालीन कहानियों का जिक्र भी प्रसंगानुकूल है– एक आकांक्षा पारे की `सखी साजन` और दूसरी जयश्री रॉय की `निर्वाण`. `सखी साजन` जहां स्त्री समलैंगिकता को केंद्र में रख कर लिखी गई है वहीं `निर्वाण` थाईलैंड के जनजीवन की पृष्ठभूमि में मूलतः प्रेम के संधान की कहानी है, जहां `लेडी बॉय` के बहाने समलैंगिक सम्बन्धों का संदर्भ भी आता है लेकिन उसे समलैंगिकता की कहानी नहीं कहा जा सकता. उल्लेखनीय है कि `सखी साजन` जहां अपने शुरुआती कलात्मक रचाव के बावजूद एक लेखकीय हड़बड़ी का शिकार हो जाती है वहीं `निर्वाण` के कथानक पर प्रकटतः हावी लेखकीय शोध का बोझ कथारस प्रवाह को क्षतिग्रस्त करता है. जबकि `बंद कोठरी का दरवाजा` अपने रचनात्मक धैर्य, विषयगत केन्द्रीयता और सहज कथा प्रवाह के कारण कथा-संदर्भों को बहुत साफ तरीके से रख पाती है.

कथा-परिवेश को विश्वसनीय रचाव प्रदान करने के लिए दृश्यों की जो बारीक वर्णनात्मकता यहाँ मिलती है, वह रश्मि शर्मा की रचनात्मक विशेषता है. लेकिन इसकी अतिशयता कई बार कथा की गतिशीलता को मंथर और शिथिल भी करती है. रश्मि शर्मा को अपनी आगामी कहानियों में ऐसे गैरज़रूरी वर्णन जो कथा-प्रवाह को मंथर करते हैं, से बचना चाहिए.

जिन लोगों ने यह कहानी नहीं पढ़ी है, उनके लिए यह बताना जरूरी है कि संदर्भित कहानी के केंद्र में नसरीन नामक एक नवविवाहिता का जीवन है, जिसका पति रेहान समलैंगिक है. अपेक्षाकृत बंद माहौल में पली-बढ़ी होने के बावजूद संस्कृत भाषा साहित्य में स्नातक नसरीन कमोबेश एक प्रगतिशील ख़यालों की स्त्री है जो खुदमुख्तारी के साथ जीवन जीने का सपना देखती है. अपने प्रति रेहान की यौनविमुखता कहानी में नसरीन की चिंता का मुख्य कारण है. स्वाभाविक झिझक और संकोच में लिपटी नसरीन की शुरुआती चिंताओं को रेहान `एक-दूसरे को जान समझ तो लें` के उदार और ज़हीन तर्कों से टालने में सफल हो जाता है लेकिन बीतते समय के साथ अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद रेहान का ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट करने में असफल नसरीन तरह-तरह की आशंकाओं में जीने लगती है. नसरीन की  आशंकाएं उसदिन गुस्से में बदल जाती हैं जब उसके सामने रेहान और उसके दोस्त सज्जाद का समलैंगिक रिश्ता प्रकट होता है. नसरीन रेहान से तलाक चाहती है लेकिन रेहान की ग्लानि और गिड़गिड़ाहट उसे इस `दांपत्य` का बोझ ढोने को विवश कर देती है. नसरीन के भीतर क्रमशः व्याप्त स्वप्न, संशय, अपमान, गुस्सा, दया और विवशता के भावों से विनिर्मित त्रासदियों ने उसके जीवन को कैसे एक बंद कोठरी में बदल दिया है, यही यहाँ एक कहानी के रूप में उपस्थित है.

उल्लेखनीय है कि रेहान अपनी समलैंगिक प्रकृति के कारण नसरीन के प्रति कोई यौनाकर्षण तो नहीं महसूस करता है लेकिन वह एक पारंपरिक और सामंती मर्द भी नहीं है. इस एक बात को छोड़ दें तो नसरीन के साथ उसका व्यवहार दोस्ताना है. उसके व्यक्तित्व की यही विशेषता नसरीन को उसकी स्थिति समझने के लिए विवश करती है. अपनी त्रासदी के बावजूद वह रेहान की तकलीफ और सामाजिक तिरस्कार व अपमान की आशंकाओं से उत्पन्न उस भय को भी समझना चाहती है जिसके साये में वह बचपन से आजतक जी रहा है. इसीलिए उसके लिए यह निर्णय करना कठिन है कि उसका दुख बड़ा है या रेहान का. रेहान के रूप में समलैंगिकों की मानसिक-सामाजिक स्थिति की यह चिंता ही वह कोण है जो इस कहानी को अपनी परंपरा की कहानियों के बीच नया, अलग और विशिष्ट बनाता है. एक तरफ रेहान से हमदर्दी और दूसरी तरफ अपने जीवन में फैले शून्य के दो पाटों में पिसती नसरीन के साथ हर वक्त एक दोस्त की तरह खड़ी रहनेवाली सलमा आपा एक पारंपरिक स्त्री हैं, जो अपनी वैचारिक सीमाओं के बावजूद नसरीन के साथ लगातार बहनापे का भाव रखती हैं.  

मूलतः नसरीन की दृष्टि से कही गई कहानी होने के बावजूद `बंद कोठरी का दरवाजा` रेहान के मनोविज्ञान और उसके यौन व्यवहारों को सूक्ष्मता से उद्घाटित करती है. अपने समलैंगिक होने को स्वीकार करते हुये रेहान का यह कहना कि `मैं ऐसा ही हूँ बचपन से. मेरा किसी औरत की तरफ कभी जी नहीं ललचाया.‘ बीसवी सदी के उत्तरार्द्ध के बाद हुये मनोवैज्ञानिक शोधों की उन प्राप्तियों का ही स्वीकार है जो समलैंगिकता को विकृति नहीं प्रकृति मानते हैं. इस संदर्भ में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक गैलप के उस अनुसंधान को भी याद किया जाना चाहिए जो समलैंगिकता को चयन या विकल्प मानने से इनकार करते हुये इसे एक ऐसी प्रकृति के रूप में रेखांकित करता है जो कुछ लोगों में उनके जन्म के साथ ही मौजूद होती है. मनोवैज्ञानिकों द्वारा समलैंगिकता को एक सहज मानवीय यौन व्यवहार की तरह स्वीकार किए जाने का ही यह परिणाम था कि `अमेरिकन सायकेट्रिक असोसियेशन` तथा `विश्व स्वस्थ संगठन` जैसी संस्थाओं ने समलैंगिकता को मानसिक बीमारियों की सूची से बाहर किया. उसके समानान्तर और बाद में दुनिया के कई देशों सहित भारत में समलैंगिकता को कानूनन गैरापराधिक घोषित किए जाने के पीछे इन अध्ययनों, शोधों और संधानों की महत्वपूर्ण भूमिका है.

भारतीय दंड संहिता की धारा 377, जिसके अंतर्गत समलैंगिकता को अपराध माना जाता था, को माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त किए जान के फैसले में नसरीन द्वारा अपने और रेहान दोनों के लिए मुक्ति के दरवाजे की संभावना को देखना लैंगिक पूर्वाग्रहों से मुक्ति की तरफ उठाया गया एक ऐसा कदम है जो इस कहानी के माध्यम से समलैंगिकता के संदर्भ में रूढ़ मान्यताओं को खारिज करते हुये आधुनिक और विज्ञानसम्मत  नैतिकताबोध की प्रस्तावना का समर्थन करता है- “गैस का नॉब ऑफ करते हुये नसरीन ने सोचा – सलमा आपा जो भी कहें, सरकार ने धारा 377 में बदलाव लाकर उसके लिए मुक्ति का द्वार खोल दिया है. कानूनन अपराध नहीं है रेहान और सज्जाद का रिश्ता… रेहान जैसा है, वह वैसा ही रहे… लेकिन माशरे से छुपकर कितने दिन ऐसे गुजार सकता है कोई? उसे हिम्मत करनी होगी. रेहान की झूठी शान और आबरू की खातिर वह भी अब खुद से और नहीं लड़ेगी. उसने तय किया अब उसे अपने लिए जीना है… इस सोच ने मुस्कुराहट ला दी नसरीन के चेहरे पर.“ नसरीन और रेहान की संयुक्त मुक्ति के दरवाजे की तरफ उम्मीद से देखती इस कहानी का यह अंत समलैंगिकता के संदर्भ में उल्लेखनीय तो है लेकिन मुकम्मल नहीं.

जिस दिन रेहान और सज्जाद अपनी कहानी खुद कहेंगे वह मंजर निश्चित ही कुछ और होगा. फिलहाल नसरीन की दृष्टि और जुबान से निकली इस कहानी को समलैंगिकता के पुराने विमर्श के नए प्रस्थान की तरह जरूर देखा जाना चाहिए जो अपनी संवेदनात्मक अनुगूंजों के साथ समलैंगिकों की सामाजिक प्रतिष्ठा और स्वीकृति के पक्ष में खड़ी है.


brakesh1110@gmail.com
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Tags: बंद कोठरी का दरवाजारश्मि शर्माराकेश बिहारी
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