छोटी सी बात
कश्ती की तरह हिल रहा है
सूरज की
अपने अन्दर समेट रहा है
और सूरज आज यहीं पर डूबेगा.
ख़ाली जगह
फिर रखता हूँ वहाँ
पक्षियों के लिये दाना, अपने लिए शब्द, खुरदरी ज़मीन के लिए पत्ते
ख़ाली जगह को देखता हूँ
ताकि
एक विराम चिन्ह बनाकर.
नैपकिन
तुम्हें एक नैपकिन पर लिख सकता हूँ ?
तुम्हारी स्मृतियों को काटकर
कोई आवाज़
पार नहीं जा सकती
यहाँ हर जगह भरी हुई है
सिर्फ़ एक नैपकिन ख़ाली है
जिस पर मैंने तुम्हें लिख दिया है
जब भी बासी होने लगूँ
मक्खियाँ मुझ पर भिनभिनाने लगें
मुझे इस से ढक देना.
उत्सव
मेरा कमरा कोई मन्दिर या गिरजाघर नहीं
लेकिन होने की आहट
शीशे पर छलछला रही है
जो टूटकर भी
अपना प्रतिबिम्ब छोड़ जाती है
अकेला होना ही मेरा उत्सव है
देख रहा हूँ हर वस्तु को
अकेली होते
कि मैं अन्दर हूँ
और बाहर मिट्टी में से आ रही है
मेरे जज़्ब होने की आवाज़.
जनवरी
बेसुध पड़ी है बर्फ़ पर
शीत कणों की तासीर में पिघलाती
मृत्यु की तरह छटपटाती
हवा और काँच से मिलकर
देह में छुपे सात रंगों को बनाती
बिन आवाज़
सन्तुलन
वहाँ कोई है…पहाड़ी के पीछे
और देखने चल पड़ा
कौन है
मेरे सिवा
पवित्र किताब और अधजली तीली
टूटी हुई टहनी थोड़ी राख और ख़ाली पन्ना
इतना सन्तुलित
सारा सामान एक स्टिल पेंटिंग की तरह पड़ा था
और चल पड़ा \’उसे\’ ढूँढने
स्टिल पेंटिंग में से गुज़रता हुआ.
छुपी रात का संगीत
यह घास में छुपी वह रात है
जिसने कई पहेलियाँ हल कर दी हैं
एक दरख़्त की टहनियाँ
वायलिन के धनु की तरह हिल रही हैं
एक गैरहाज़िर ऊँगली सब से श्रेष्ठ धुन निकाल रही है
इस रात जब कि
पौधे और कीड़े हवा का सन्तुलन तोड़ते जीवित हैं मिट्टी में
मेरे जैसा कोई
कामना और बेचैनी से भरा
बेजान सड़क को चूमता है
सन्नाटे में दस्तक देने के अन्दाज़ में हाथ उठाता है
तेज़ बौछार में से
पत्तों की आवाज़ सुर उठाती है
और रात भर जाती है
छिप-छिप कर कंपोज़ हो रहे नये गीत से.
कलाई घड़ी
भला कितनी जगह घेरती है
सँभाल लो
माँ की आखिरी यह निशानी
पिता ने कहा
और खामोश हो गया.
माँ बिन पिता
माँ बिन ख़ाली कमरा
एक और स्थान
जहाँ माँ देखा करती थी
देख रहा है पिता
मेरे कमरे में से उसकी तस्वीर उठा दो
कमरा भरा हुआ रहने दो
उसकी ख़ाली आँखों से.
मैं इतना जालसाज़ क्यों हूँ
माँ समुद्र थी
देखा पिता को एक दिन मैंने उसके
तट पर नहाते
कमर तक पानी में
अपना समुद्र
उनकी तरफ़
माँ एकदम समुद्र से
जाल में बदल गयी
मैं इतना जालसाज़
क्यों हूँ.
याददाश्त
यह भी न कह सकूँगा
नीला
धूप में पड़ी
परछाईं भूल जाऊँगा
हरे के अन्दर वृक्ष
सृष्टि को एक गड्ढा समझना
और खुद को इस में
कंचे की तरह फेंकना भूल जाऊँगा
ख़ाली
कि तुम्हारे अन्दर से अपना आप उठाना भूल जाऊँगा.
रुस्तम
और समुद्र में बहता एक और समुद्र
और लाल शिराएँ
परछाईं
काली पत्ती
जिस पर बैठा एक उदास कौवा
मेरी नींद में खलल डाल रहा है
मैं कोई और भेड़ हूँ
अपनी मृत्यु को एक चरवाहे की तरह
मुझे बचाते हुए देखा
पोटैशियम साइनाइड
फूल का कम्पन
गायब हो रहा धुआँ
या रात के सन्नाटे में गुम होती
हवा-घण्टियों की आवाज़
बहता है पानी
और अनन्त का सिरा तलाशता
मैं साँस लेता हूँ
तरतीब देने का समय ही ना मिला
और चरवाहे की छड़ी की तरह छूकर गुज़र गयी
और मैं कोई और भेड़ था .
मानसिक बोझ
कुछ \’होने\’ से बच गया
खुद को एक
महत्वपूर्ण तथ्य की तरह
निकाल दिया
चींटी समझ
उठा लिया .
हाँ और ना के बीच
पहुँचने के लिए
मैं रोज़
होने के लिए
रोज़ कुछ होता हूँ
मेरी हवा
काँपती है
एक तितली को
तड़प रही है .
अवचेतन
यहाँ अनैतिकता
मिट्टी के भीतर चलती है
अनछुई डाल पर
फूल झड़ते हैं
छप-छप
कहाँ करें
समुद्र ख़ाली
कायनात जब
निकाल रही थी सूरज
रख दी
ख़ाली कर दिया
समुद्र .
मगरमच्छ
एक बहती नदी है
ज़ख्म
मगरमच्छ की तरह