रवि रंजन
कवि केदारनाथ सिंह जी के निधन की खबर से देश-विदेश में उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानने और हिन्दी पढ़ने-पढ़ानेवालों साथ ही सम्पूर्ण शब्द-चेतन समुदाय शोकमग्न है. दिनांक 23 मार्च, 2018 को वारसा,पोलैंड स्थित भारतीय राजदूतावास और वारसा विश्वविद्यालय के इंडोलोजी विभाग के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित ‘विश्व हिन्दी दिवस’ के दौरान केदार जी की स्मृति में दो मिनट का मौन रखा गया और प्रोफ़ेसर दनूता स्तासिक तथा सुश्री कासा निस्का द्वारा उनकी कुछ कविताओं और उनका पोलिश भाषा में अनूदित पाठ का वाचन करके उन्हें श्रद्धांजलि दी गयी. कार्यक्रम में हिन्दी प्रेमी कार्यकारी राजदूत (चार्ज डी.अफेयर्स) माननीय श्री अमरजीत सिंह ताखी, दूतावास के अधिकारीगण, भारतीय समुदाय के सदस्य तथा पोलैंड के विभिन्न विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ने-पढ़ानेवाले छात्र और अध्यापक बड़ी संख्या में उपस्थित थे.
संभवत: सन 1996-97 में हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में केदार जी के कई व्याख्यान हुए थे. वे विश्वविद्यालय के अतिथिगृह में लगभग तीन दिनों तक रुके थे और हम सबने उनके सानिध्य का सारस्वत लाभ उठाया था.
अज्ञेय की \’असाध्य वीणा\’ कविता पर केन्द्रित व्याख्यान के एक दिन पहले पुस्तकालय से सुप्रसिद्ध विद्वान भोलाभाई पटेल की पुस्तक मंगवाकर और उसे पढ़कर पूरी तैयारी के साथ दिए उनके अद्भुत व्याख्यान की याद आजकल बार-बार आ रही है. प्रश्नोत्तर के दौरान अज्ञेय की सुप्रसिद्ध ‘साँप’ कविता पर केदार जी के कवि-मित्र राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा हिन्दी में पहली बार उल्लिखित (‘अग्रज कवियों की अभ्यर्थना: समझ और सीख’, ‘ऋतुगंध’-5. मुज़फ्फ़रपुर,बिहार) बारहवीं सदी में आचार्य शेखर द्वारा प्रणीत ‘सूक्ति संग्रह:सर्प वर्ग’ के निम्नलिखित श्लोक के प्रत्यक्ष प्रभाव की ओर ध्यान आकृष्ट किये जाने पर उन जैसे वरिष्ठ विद्वान-कवि की जिज्ञासा नयी पीढ़ी के अध्येताओं के लिए अनुकरणीय है. उन्होंने मंच से कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह का आलेख उपलब्ध कराने का आग्रह किया था:
रे सर्प नैव त्वमभू: खलु सभ्यजन्तु:
नैवम् भविष्यसि तथा नगरेषु वसतुम्
जानासि नैव यदि दास्यसि सत्यमुत्तरम्
दंशं शिशिक्षि वचसा वचसाsपि वै विषम् ?
उसी दौरान शहर में आयोजित एक कार्यक्रम में उनका परिचय देते हुए केदार जी के ‘नूर मियाँ’ सरीखे एक भोलेभाले कविता-प्रेमी सज्जन द्वारा असावधानीवश ‘अकाल में सारस’ को ‘अकाल में सरस’ बोल दिए जाने के पर उनकी निश्छल हँसी आँखों के सामने तैर रही है.
विभागाध्यक्ष के रूप में मेरे कार्यकाल के दौरान केदार जी की अनौपचारिक स्वीकृति मिलने पर हैदराबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें एक सत्र के लिए विजिटिंग प्रोफ़ेसर के तौर पर आमंत्रित किया गया था,पर निजी कारणों से वे आ नहीं पाए.
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किये जाने के बाद केदार जी संभवत: सन2014 में हैदराबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग द्वारा \’समकालीन कविता और केदारनाथ सिंह\’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में विभाग के विशेष आग्रह पर आए थे और लगभग सारे सत्रों में उपस्थित रहे. उदघाटन सत्र में वरिष्ठ कवि अरुण कमल के बीज व्याख्यान के पहले विभागीय सहयोगी प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव द्वारा दिए गए किंचित दीर्घ स्वागत भाषण में अपने रचना-कर्म के सन्दर्भ में रेखांकित कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को सुनकर मुस्कुराते हुए केदार जी ने पूछा कि इसके बाद अरुण जी का काम आसान हो गया या मुश्किल ? आदरणीय अरुण जी का विनम्र उत्तर था कि “बीज व्याख्यान तो हो चुका…अब तो बस ‘बची-खुची कबिरा कही’ वाली स्थिति है.’’
अपने कृतित्व पर अरुण कमल, अनामिका, प्रोफ़ेसर गोविन्द प्रसाद समेत अनेक विद्वानों के व्याख्यान और प्रपत्र सुनने के बाद अंतिम सत्र में आत्मवक्तव्य प्रस्तुत करते हुए उन्होंने विनोदपूर्ण ढंग से कहा था:
“आज अनुभव हुआ कि अपनी कविताओं के बारे में दूसरों के मूल्यवान विचारों के बावजूद अपनी ही कविताओं के उद्धरणों को बार-बार सुनकर बर्दाश्त कर पाना कितना मुश्किल है. भारतीय काव्यशास्त्र में कहा गया है कि जीवित कवियों पर विचार नहीं करना चाहिए. इसमें जोड़ना चाहूँगा कि यदि कवि सामने बैठा हो तब तो हरगिज नहीं.’’
“आधुनिकता के विकास की प्रक्रिया की पहचान और पुनरावलोकन हमें भारतीय सन्दर्भ में करना चाहिए….आधुनिकता संबंधी बहस ख़त्म हो गयी है, लेकिन आधुनिकता की प्रक्रिया अपने ख़ास ढंग से पूरे भारतीय सन्दर्भ में आज भी जारी है. यह स्थिति पश्चिम से थोड़ी भिन्न है और इसलिए ठेठ भारतीय भी. यह एक विकासशील देश की अपनी बनावट और उसकी ख़ास ज़रूरतों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे सही सन्दर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए.”
केदारनाथ सिंह (मेरे समय के शब्द)
एफ.आर.लिविस ने लिखा है कि “कविता में शब्द हमें सोचने के लिए या फैसला सुनाने के लिए आमंत्रित नहीं करते, बल्कि वे छूने, टटोलने, स्पर्श करने, कुछ निर्मित करने के लिए बुलाते हैं.” जाहिर है कि एक अच्छी कविता से गुजरकर न केवल पाठक या आलोचक की अपने परिवेश के बारे में समझ में ही वृद्धि होती है, बल्कि सौन्दर्यबोध की दृष्टि से भी वह पहले की अपेक्षा अधिक समृद्धि का अनुभव करता है.
कालिदास के ‘मेघदूत’ के एक छंद का विवेचन-विश्लेषण करते हुए निराला ने रचना को साहित्य का ह्रदय और आलोचना को मस्तिष्क कहा है. इसलिए जहाँ श्रेष्ठ रचनाएँ विश्लेषण के लिए किसी क्षमतावान आलोचक को बाध्य कर देती है, वहीं अच्छी आलोचना भी रचनाकारों के मन:मस्तिष्क को एक सीमा तक अवश्य प्रभावित करती रही है.
किन्तु, इसके लिए ज़रूरी है कि आलोचक किसी रचनाकार के एक सामान्य वक्तव्य या सन्देश के आधार पर उसकी कविता पर मूल्य-निर्णय देने के बजाय कवि की रचनात्मक आकांक्षा से भरपूर नैतिक विकलता को व्यक्त करने वाले शब्दों के संगीत को धैर्यपूर्वक सुनने और खुद को छूने, टटोलने तथा स्पर्श करने के लिए बुलाने वाले कविता में आए ‘चित्रों के आनयन’ के लिए पर्याप्त कोशिश करे. और, जाहिर है कि यह महत कार्य केवल शास्त्रीय पारिभाषिक शब्दावली में संपन्न नहीं किया जा सकता. अर्नाल्ड हाउजर ने तो ‘कला का समाजशास्त्र’ (द सोशियोलोजी ऑफ़ आर्ट) पुस्तक मेंस्पष्ट लिखा है कि ‘कला की व्याख्या केवल समाजशास्त्रीय शब्दावली में कतई नहीं की जा सकती.’ यह बात कला-साहित्य की व्याख्या और विश्लेषण के लिए उपयोग किए जानेवाले काव्यशास्त्र व सौंदर्यशास्त्र समेत अन्य शास्त्रों की प्रविधि के बारे में भी कही जा सकती है.
कहना न होगा कि कविता के आस्वाद में गहरे उतरने के बजाय जब प्रबुद्ध पाठक या आलोचक अपने अनेकानेक पूर्वाग्रहों तथा संरक्षणवादी रवैये के तहत कई बार रचना के मूल्यांकन के दौरान जल्दबाज़ी करता है, तो वह स्वभावतः शब्दकर्म के प्रति गहरी आस्था की कोख से उपजी सघन काव्यानुभूति को जाने-अनजाने नज़रअंदाज करते हुए प्रायः शिथिल संरचना में विन्यस्त सस्ती भावुकता व नारेबाज़ी को क्रमशः जातीय परम्परा व क्रांतिकारिता के नाम पर उछालने के लिए अभिशप्त होता है. ऐसे महानुभावों को याद दिलाना शायद ज़रूरी हो कि रचना-क्षेत्र में क्रांतिकारिता के नाम पर ‘सरलता’, ‘सहजता’ एवं ‘सादगी’ का मतलब सपाटबयानी कदापि नहीं होता. इस प्रसंग में यू.आर. अनंतमूर्ति के एक निबंध का स्मरण स्वाभाविक है, जिसमें कहा गया है कि ‘एक बुरा साहित्य हरगिज अच्छी राजनीति नहीं हो सकता.’ (“ए बैड लिटरेचर कैन नॉट बी ए गुड पोलिटिक्स ऐट आल”) आज जोर देकर कहने की ज़रूरत है कि कविता में तथाकथित ‘सरलता’, ‘सहजता’ एवं ‘सादगी’ आधुनिक व उत्तर-आधुनिक मनुष्य की जटिल संवेदनशीलता व गहरे अंतर्विरोधों से उपजे तनाव का बोझ उठा पाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है.
कवि केदारनाथ सिंह जब कहते हैं कि वे जो भाषा बोलना चाहते हैं, वह दांतों के लिए बीच की जगहों में सटी है, तो अनायास पाणिनि द्वारा शब्दों के उच्चारण को लेकर दिये गये एक वक्तव्य की याद हो आती है:
“शब्दों का उच्चारण वैसे ही करना चाहिए, जिस प्रकार व्याघ्री अपने बच्चे को मुँह में दबाकर चलती हुई, न तो उसे अधिक दबाए रहती है कि उसे पीड़ा हो, न ही इतनी ढिलाई से कि शावक जमीन पर गिर जाए.”
केदारनाथ सिंह कविता के संरचनात्मक गठन को लेकर आरम्भ से ही अत्यंत जागरुक रहे हैं. ‘तीसरा सप्तक’ में अपने वक्तव्य में उन्होंने लिखा था : “कविता में सबसे अधिक ध्यान देता हूँ बिम्ब-विधान पर.” बावजूद इसके, उन्हें किन्हीं अर्थों में केवल बिम्बवादी कवि कहना, कविता के गठन को लेकर एक सचेत कवि की ईमानदारी का मखौल उड़ाना होगा.
एज़रा पाउण्ड मानते थे किकविता को भी गद्य की तरह सुलिखित होना चाहिए और कहने की आवश्यकता नहीं कि बिम्बवादी कविताएँ ‘राइम\’ के बजाय ‘रिद्म\’ या लय को केन्द्र में रखकर रचित होने के साथ ही प्राय: सुलिखित हुआ करती हैं. उनसे गुजरते हुए एक विशिष्ट निर्मिति का बोध होता है. सच तो यह है कि हमारे जमाने में भी अच्छी कविताएँ प्रायः वे ही कवि लिख रहे हैं, जिन्हें गद्य की लय को काव्यलय में पुनर्रचित करने की कला में महारत हासिल है:
“उसके बारे में कविता करना
हिमाक़त की बात होगी
और वह मैं नहीं करूंगा
मैं सिर्फ आपको आमंत्रित करूँगा
कि आप आयें और मेरे साथ सीधे
उस आगतक चलें
उस चूल्हे तक –जहाँ वह पाक रही है
एक अद्भुत ताप और गरिमा के साथ
समूची आग को गंध में बदलती हुई
दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज़
वह पक रही है
और पकना
लौटना नहीं है जड़ों की ओर
वह आगे बढ़ रही है
धीरे-धीरे
झपट्टा मारने को तैयार
वह आगे बढ़ रही है
उसकी गरमाहट पहुँच रही है आदमी की नींद
और विचारों तक
मुझे विश्वास है कि आप उसका सामना कर रहे हैं
मैंने उसका शिकार किया है
मुझे हर बार ऐसा ही लगता है
जब मैं उसे आग से निकलते देखता हूँ
मेरे हाथ खोजने लगते हैं
अपने तीर और धनुष
मेरे हाथ मुझी को खोजने लगते हैं
जब मैं उसे खाना शुरू करता हूँ
मैंने जब भी उसे तोड़ा है
मुझे हर बार वह पहले से ज्यादा स्वादिष्ट लगी है
पहले से ज्यादा गोल
और खूबसूरत
पहले से ज्यादा सूर्ख और पकी हुई
आप विश्वास करें
मैं कविता नहीं कर रहा
सिर्फ आग की ओर इशारा कर रहा हूँ
वह पक रही है
और आप देखेंगे-यह भूख के बारे में
आग का बयान है
जो दीवारों पर लिखा जा रहा है
आप देखेंगे
दीवारें धीरे-धीरे
स्वाद
में बदल रही हैं..”
(केदारनाथ सिंह: ‘रोटी’, 1978)
बावजूद इसके, यह सच है कि रचना में कई बार ‘इंटेंशनल फैलेसी’ तो होती है, लेकिन ‘इंटेशन’ की परिणति हमेशा ‘फैलेसी’ में ही हो यह ज़रूरी नहीं है. डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है कि कवि के ‘संकल्प’ और ‘कल्प’ में हमेशा भिन्नता या विपरीतता ही नहीं होती. ‘संकल्प’ उसकी ‘कल्प-सृष्टि’ को समझने में सहायक भी हो सकता है. चूँकि केदारनाथ सिंह अपनी कविताओं के माध्यम से काव्यात्मक स्थितियों के अपने अनुभव को जिन चित्रों में व्यक्त करते हैं, वे पाठक के भीतर उन्हें पुनःसृजित कर देते हैं, इसलिए उनके किसी एक वक्तव्य के आधार पर ही उनकी कविता पर बिम्बवादी अस्पष्टता का लांछन लगाना आलोचना के नाम पर रचना के साथ गैररचनात्मक व्यवहार करने जैसा है. इस प्रसंग में ‘कविता के नये प्रतिमान’ में आए नामवर सिंह के एक बयान की याद न हो आए,यह मुमकिन नहीं:
“किसी कविता को अस्पष्ट बताने वाले के भीतर अस्पष्टता का अर्थ स्पष्ट होना चाहिए. पाठकों में केवल किसी रचना की अस्पष्टता का बोध जगाना-मात्र स्पष्टता नहीं है… कविता में एक अस्पष्टता वह होती है, जिसे बच्चे समझ लेते हैं, पर विद्वान चकरा जाते हैं.”
तात्पर्य यह है कि यदि आधुनिक संवेदनशीलता का वाहक भारतीय मनुष्य आज अनेकानेक अन्तर्द्वन्द्वों, तनावों व जटिलताओं के चलते बेचैन है, तो उसके इस अनुभव-लोक की काव्यात्मक अभिव्यक्ति कतई सपाट नहीं हो सकती. कवि अगर आज अपने परिवेश, आधुनिक या उत्तर-आधुनिक कहे जानेवाले मनुष्य की अनुभूतिगत जटिलता और अपनी वास्तविक स्थिति को भुलाकर या झुठलाकर कविता लिखेगा, तो उसकी रचना वस्तुगत यथार्थ के बजाय विभ्रम और ज़मीनी हक़ीकत के बजाय जन्नत की हक़ीकत (?) का मायाजाल होगी.
साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करते हुए केदारनाथ सिंह ने एक मानीखेज़ बात कही थी: “नगर केन्द्रित आधुनिक सृजनशीलता और ग्रामोन्मुख जातीय चेतना के बीच जब-तब मैंने एक ख़ास किस्म के तनाव का भी अनुभव किया है. यह तनाव हमारे दैनिक सामाजिक जीवन की एक ऐसी जानी-पहचानी वास्तविकता है जिसकी ओर अलग से हमारा ध्यान कम ही जाता है. मेरे लिए यह अनुभव एक एस्थेटिक बोध भी है और एक गहरे अर्थ में मेरी नैतिक चेतना का एक अविच्छिन्न हिस्सा भी. अपने रचना कर्म में मेरी कोशिश यह होती है कि उसमें अनुभव के इन दोनों स्तरों की अंत:क्रिया किसी हद तक समाहित हो सके. यह किस हद तक संभव हो पाती है, यह बताना मेरे लिए कठिन है,पर वह मेरी रचना-प्रक्रिया का एक ज़रूरी हिस्सा है,इसे मैं भूलना नहीं चाहता.”
अपने इस समावेशी सौन्दर्य-बोध के तहत उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कवितायेँ रची हैं, पर ‘मातृभाषा’, ’मेरी भाषा के लोग’,’भोजपुरी’,जे.एन.यू. में हिन्दी’, ‘बनारस’, ‘पानी में घिरे हुए लोग’,’भिखारी ठाकुर’ जैसी ज़मीन से जुड़ी श्रेष्ठ कविताओं और स्वयं और अपने लोगों के बीच दिल्ली को न आने देने की कामना के बावजूद यह अलग से रेखांकित करना ज़रूरी नहीं है कि ‘नगर केन्द्रित आधुनिक सृजनशीलता और ग्रामोन्मुख जातीय चेतना…के बीच …तनाव’ में कवि केदारनाथ सिंह के यहाँ ग्रामीण संवेदना की तुलना में नागरिक संवेदनशीलता का पलड़ा भारी है. इसीलिए उनके यहाँ ‘नूर मियाँ’ तो हैं, पर त्रिलोचन का ‘नगई महरा’ नहीं है. बावजूद इसके, केदार जी की कविताओं में बौद्धिकता का कोई आतंक या नारेबाजी नहीं है. सच तो यह है कि
‘रुको आँचल में तुम्हारे यह समीरन बाँध दूँ
यह टूटता प्रण बाँध दूँ !
एक जो इन उँगलियों में कहीं उलझा रह गया है
फूल-सा वह काँपता क्षण बाँध दूँ !’
या
‘झरने लगे नीम के पत्ते
बढ़ने लगी उदासी मन की’
जैसी प्रगीतामक रचनाओं के साथ हिन्दी काव्य-क्षेत्र में प्रवेश करनेवाले केदारनाथ सिंह की आगे चलकर रचित लम्बी कविताओं में भी अंत:सलिला की तरह मौजूद प्रगीतात्मकता यथार्थ विरोधी होने के बजाय अपने समय के तमाम अंतर्विरोधों का यथार्थ चित्रण करने में समर्थ है. याद आते हैं थियोडोर अडोर्नो, जिन्होंने ‘लिरिक पोएट्री एंड सोसायटी’ शीर्षक विख्यात निबंध में लिखा है कि ‘प्रगीत तत्त्वत: सामाजिक होता है.’
केदारनाथ सिंह की एक कविता है- ‘नमक’. चूँकि एक लम्बे समय से भारत के वर्चस्वशाली वर्ग के इशारे पर नाचने वाली ज़्यादातर सरकारों की प्राथमिकताओं की सूची में से नमक और रोटी धीरे-धीरे ग़ायब होते जा रहे हैं, इसलिए इनको मुद्दा बनाकर सीधे-सीधे राजनीतिक कविता लिखने वाले कवियों की आज कमी नहीं है. किन्तु, केदारनाथ सिंह की इस कविता की वैधानिक और भाषिक संरचनात्मक वैशिष्ट्य की यदि पड़ताल की जाय तो स्पष्ट होगा कि यह कविता हमारे चित्त में जो चित्र-विधान व संवेदनशीलता पैदा करती है, वह भारतीय पारिवारिक जीवन की ज़मीनी हक़ीकत के क़रीब होने के बावजूद काव्यात्मकता के नये नियमों की खोज से उत्पन्न एक भिन्न प्रकार के काव्यबोध से परिपूर्ण है. इसमें एक अपेक्षाकृत भरे-पुरे मध्यवर्गीय तथाकथित आधुनिक परिवार में पुरुष-वर्चस्व के चलते व्याप्त लगभग दहशत-भरे माहौल में स्त्री की करुण बेबसी और कुल मिलाकर परिवार में मानवीय सम्बन्धों की ऊष्मा के अभाव को मार्मिक ढंग से उकेरा गया है. निराला की शब्दावली का प्रयोग करते हुए कहा जाय तो ऐसे दमघोंटू वातावरण में एक घरेलू स्त्री खुद को बाहर से ही बाहर नहीं, बल्कि भीतर से भी बाहर कर दी गई-सी महसूस करती है :
एक शाम शहर से गुजरते हुए
नमक ने सोचा
मैं क्यों नमक हूँ
और जब कुछ नहीं सूझा
तो वह चुपके से घुस गया एक घर में
घर सुन्दर था
जैसा कि आम तौर पर होता है
अक्टूबर के शुरू में
***
और ठीक समय पर
जब सज गई मेज
और शुरू हुआ खाना
तो सबसे अधिक खुश था नमक ही
जैसे उसकी जीभ
अपने ही स्वाद का इन्तजार कर रही हो
कि ठीक उसी समय
पुरुष जो कि सबसे अधिक चुप था
धीरे से बोला-
“दाल फीकी है”
फीकी है ?
स्त्री ने आश्चर्य से पूछा
“हाँ फीकी है –
मैं कहता हूँ दाल फीकी है”
पुरुष ने लगभग चीखते हुए कहा
अब स्त्री चुप
कुत्ता हैरान
बच्चे एकटक
एक दूसरे को ताकते हुए
फिर सबसे पहले पुरुष उठा
फिर बारी-बारी मेज से उठ गये सब
***
न सही दाल में
कुछ न कुछ फीका ज़रूर है
सब सोच रहे थे
लेकिन वह क्या है?
यह सीधी सरल भाषा में आज के संवेदनहीन होते जा रहे पारिवारिक जीवन के यथार्थ की जटिलताओं की सकारात्मक तथा अर्थबहुल पहचान कराने वाली कविता है. कथित सरलता की लीक से हटकर रचित सरल कविता में बुनियादी सरलता के निहितार्थ कितने जटिल हो सकते हैं, ‘नमक’ कविता उसका सार्थक उदाहरण है.
राजकिशोर ने सही लिखा है कि न तो सारा का सारा पुरुष-लेखन ‘पुरुषवादी’ लेखन है और न ही ‘सवर्ण’ कहे जानेवालों का सम्पूर्ण लेखन ‘सवर्णवादी’ लेखन. जिस तरह एक असावधान स्त्री-लेखक जाने-अनजाने पितृसतात्मक मूल्यों का शिकार हो जा सकती है, उसी तरह एक सावधान पुरुष लेखक स्त्रीपक्षीय मूल्यों का विकास कर सकता है या उसमें सहायक हो सकता है. दूसरे शब्दों में, केवल स्त्री-शरीर धारण करने-मात्र से स्त्री में ‘स्त्रीवादी-चेतना’ उत्पन्न हो ही जायेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है. ‘नारी भावना’ और ‘नारी चेतना’ नितांत अलग-अलग मनोदशाएँ हैं. ‘भावना’ स्वाभाविक है, जबकि चेतना अर्जित करनी पड़ती है. मुक्तिबोध के शब्द उधार लेकर कहें, तो चेतना अर्जित करने के लिए ‘बाह्य का अभ्यन्तरीकरण’ (इंटरनलाइजेशन) एक बुनियादी शर्त है और इस कसौटी पर खरा उतरने वाला पुरुष-लेखक भी एक सीमा तक ‘स्त्री-चेतना’ से लैस हो सकता है. इस दृष्टि से विचार करने पर कवि केदारनाथ सिंह के ‘अंतःकरण का आयतन’ काफी विस्तृत प्रतीत होता है. भारतीय समाज एवं परिवार में मौजूद पितृसत्ता की महीन बख़िया उधेड़ते हुए उन्होंने जो कविताएँ लिखी हैं, उनमें एक है- ‘जाना’, जो कवि के शब्दों में हिंदी की सबसे ‘ख़ौफ़नाक क्रिया’ है :
मैं जा रही हूँ – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है.
प्रसंगवश सिमोन द बोउआर का एक कथन स्मरणीय है कि “जो व्यक्ति दूसरों की यातना के लिए ह्रदयहीन हो सकता है, वह खुद अपनी तकलीफ़ के लिए पहले ही संवेदनहीन हो चुका होता है.”
इसलिए परिवार व समाज में जहाँ कहीं भी ऐसी स्थिति हो, वहाँ हमें उत्तेजन के बजाय संवेदनशून्यता ही देखनी चाहिए. भारतीय पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में दाम्पत्य व प्रेम संबंधों में एक ओर यदि अतिशय आवेश-उत्साह के दर्शन होते हैं, तो दूसरी ओर कालांतर में उन्हीं संबंधों के प्रति तटस्थता, उपेक्षा एवं संवेदनशून्यता की स्थिति भी दिखाई पड़ती है, जिसके मूल में हमारी समाजव्यवस्था के अंतर्विरोधों से पैदा हुई ‘अलगाव’ (एलियनेशन) की भावना अन्तर्निहित है. कहने की आवश्यकता नहीं कि ‘जाना’ कविता में इसी अलगाव से उत्पन्न संवेदनशून्यता का प्रतिपक्ष रचा गया है.
अपनी कई कविताओं में अलगाव का शिकार बनने के लिए अभिशप्त आधुनिक और उत्तर-आधुनिक कहे जानेवाले मनुष्य के जीवन की निरर्थकता को रेखांकित करते हुए केदारनाथ सिंह ने लिखा है :
“बरसों तक साथ-साथ
रहने के बाद
जब वे विधिवत अलग हुए
तो सारे फैसले में
यह छोटी-सी बात कहीं नहीं थी
कि जहाँ वे लौटकर जाना चाहते हैं
वह अपना अकेलापन
वे परस्पर गँवा चुके थे .”
________
यही हुआ पिछली बार
यही होगा अगली बार
हम फिर मिलेंगे
किसी दूसरे शहर में
और ताकते रह जाएँगे
एक-दूसरे का मुँह.
याद रहे कि ‘नयी कविता’ के दौर में ‘व्यक्तित्व की खोज’ और ‘पहचान की तलाश’ जैसे जोरशोर से उछाले गए नारों का सम्बन्ध सुविधाहीन भूखे-नंगे बहुसंख्यक लोगों के बीच सुविधासंपन्न जीवन व्यतीत करनेवाले उच्चवर्गीय एवं उच्च्मध्यवर्गीय सुखासीन अवकाशभोगी आधुनिक मनुष्य के उस एकान्तवादी एवं व्यक्तिनिष्ठ पहलू से रहा है, जिसमें एक ओर वह अपने पूरे अस्तित्व का सामूहिक नियति से ‘अलगाव’ अनुभव करने लगता है.पर दूसरी ओर समूह से जुड़ा रहने के लिए खुद को विवश अनुभव करता है. अपने इस आतंरिक क्षोभ के कारण वह समूह में रहते हुए समूह से भिन्न एवं विशिष्ट दीखने के लिए ‘पहचान की तलाश’ करते हुए अंतत: स्वयं से भी अलगाव (सेल्फ एलियनेशन) का शिकार होता है.जिसकी भयानक परिणति यह होती है कि केवल पाशव कर्म ही उसे जीवंत और मानवीय कर्म उबाऊ प्रतीत होने लगता है. उदारीकरण के बाद व्यवस्थापोषक राजनीति और ख़ास तौर पर अर्थनीति के कारण गरीब-अमीर ही नहीं, बल्कि गाँव और शहर के बीच लगातार चौड़ी होती जा रही खाई का नतीज़ा है पश्चिम की तरह भारत में भी ऐसे लोगों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि.
स्त्री रचनाकारों के ‘एक्टिविस्ट’ होने की ज़रूरत पर बल देने वाली और अपनी ज़मीन से जुड़ी स्त्रीवादी विचारक एवं कवयित्री कात्यायनी ने ‘यथार्थवादी प्रेमी की कविता’ में लिखा है :
प्यार करना
आसमान तक ऊपर उठ जाना
जैसे कि-
जरुरी है
प्यार करते हुए
धरती पर रहना.
ज़ाहिर है कि यहाँ ‘प्यार’-विषयक वायवीय धारणाओं के बरअक्स रोज़मर्रा के जीवन की वास्तविकताओं की भूमि पर खड़े होकर किये जाने वाले ‘प्यार’ को ज्यादा मानवीय बताया गया है. केदारनाथ सिंह की प्रेम कविताएँ भी ‘नई कविता’ के दौर में रुग्ण एकांतिकता, ऊब और तनाव आदि से उपजी अनेकानेक प्रेम कविताओं से ही नहीं, बल्कि हमारे समय में रची जा रही प्रेम कविताओं से भी नितांत भिन्न और स्वस्थ सामाजिकता की संवेदना से सम्पृक्त हैं, जिसकी वजह से उनकी प्रेम कविताओं में भी अनेकस्तरीय ध्वन्यार्थ मिलते हैं :
इस शहर में
हर आदमी छिपा रहा है
अपनी प्रेमिका का नाम
सिवा उस हॉकर के
जो सड़क पर चिल्ला रहा है
वियतनाम ! वियतनाम !
__________________________________
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.
हमारे समाज में आम तौर पर प्रेमालाप को व्यक्तिगत और कई बार नितांत गोपनीय प्रक्रिया माना जाता है,पर इस प्रसंग में दुनिया के सुन्दर होने की कवि की कामना की वजह से यह कविता हिन्दी में लिखी जानेवाली प्रेम कविताओं से भिन्न एवं विशष्ट है. वस्तुत: केदार जी की इस कविता की अंतर्ध्वनि अज्ञेय की
‘आह ! मेरा श्वास है उत्तप्त
धमनियों में उमड़ आयी है लहू की धार प्यार है अभिशप्त
तुम कहाँ हो नारि !’
से तो भिन्न है ही, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन एवं शमशेर जैसे प्रगतिशील कवियों द्वारा रचित सैकड़ों अद्भुत प्रेम कविताओं के बीच भी यह अलग से पहचानी जा सकती है. त्रिलोचन की ‘हाथों के दिन आएँगे,वे कब आएँगे’ या केदारनाथ अग्रवाल की ‘छोटे हाथ सबेरा होते लाल कमल से खिल उठते हैं/करनी करने को उत्सुक हो धूप हवा में हिल उठते है’ जैसी कविताओं से नितांत भिन्न तेवर की केदारनाथ सिंह की ‘हाथ’ कविता कवि के सौन्दर्यबोध में निहित सामाजिक निहितार्थ को चुपके से सामने लाती है.
‘प्रयोगवाद’ और ‘नई कविता’ वाले दौर में हिंदी कविता में व्याप्त यथार्थविरोधी रुझान को डॉ. नामवर सिंह ने ‘नई कविता पर क्षण भर’ शीर्षक लेखमाला के अंतर्गत रेखांकित करते हुए सितम्बर, 1963 के ‘ज्ञानोदय’ में लिखा था : “इसे विरोधाभास ही कहना चाहिए कि जब से कविता में बिम्बों की प्रवृत्ति बढ़ी है, सामाजिक जीवन के सजीव चित्र दुर्लभ हो चले. सुंदर बिम्बों के चयन की कवियों की ऐसी प्रवृत्ति हुई कि प्रस्तुत गौण हो गया और अप्रस्तुत प्रधान. इस तरह कविता का दायरा भी सीमित हो गया – पहले जीवन से खिंचकर प्रकृति की ओर और फिर प्रकृति से भी विशेष प्रकार की रमणीयता की ओर : यहाँ तक कि वातावरण का संकेत देने वाले बिम्ब भी सिमटकर एक कमरे की वस्तुओं के रूप में रह गये और बाहरी दुनिया एक खिड़की की तस्वीर के सहारे बैठ गयी. कविता को चित्र बनाने का नतीजा क्या होता है, यह बात पिछले पंद्रह वर्षों के अनुभव से स्पष्ट हो गयी है. यही हाल प्रतीक संकेत पद्धति का हुआ…… यदि इतने पर भी इस कविता के विरुद्ध प्रतिक्रिया न होती, तो विनाश – निश्चित था – विनाश सामाजिक और मानवीयता का ही नहीं, बुद्धि, ह्रदय और सृजनशीलता का भी.”
अपने रचना-कर्म के आरंभिक चरण में केदारनाथ सिंह ने जिसे ‘एक पारिवारिक प्रश्न’ कहा था,वह कुलमिलाकर उस जमाने में ‘संग्रह-त्याग’ के विवेक के साथ परम्परा से जूझकर अपने लिए नयी राह की तलाश करने के लिए बेचैन नई पीढ़ी के सामने खड़ा एक सामाजिक प्रश्न भी था, जिसे ‘पहचान की राजनीति’ से जोड़कर देखना वास्तविकता का अन्याथाकरण माना जाएगा:
छोटे से आंगन में
माँ ने लगाए हैं
तुलसी के बिरवे दो
पिता ने उगाया है
बरगद छतनार
मैं अपना नन्हा गुलाब
कहाँ रोप दूँ!
मुट्ठी में प्रश्न लिये
दौड़ रहा हूं वन–वन ,
पर्वत –पर्वत,
रेती–रेती…
बेकार.
(1957)
‘मेरे समय के शब्द’ में केदारनाथ सिंह की लिखी एक बात ‘पहचान की राजनीति’ के इस युग में संभवत: और अधिक प्रासंगिक है : “हमारा देश सामंतवाद के विरुद्ध एक लम्बे संघर्ष के बावजूद अपने मूल्यों और आचरण में सामंती अवशेषों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है.उसी अवशेष का एक रूप है जाति व्यवस्था,जो हमारे चारों ओर है. अपने सारे मानववाद के बावजूद हम एक जाति-विशेष के सदस्य माने जाते हैं. यह हमारी सामाजिक संरचना की ऐसी सीमा है, जिससे कवि की संवेदना बार-बार टकराती और क्षत-विक्षत होती है.”
केदारनाथ सिंह के रचना-संसार में एक से बढ़कर एक सुन्दर एवं प्रभावशाली बिम्बों के रचना-विधान में निहित अनुभूति की संरचना और कवि के सामाजिक विवेक की मौजूदगी के मद्देनज़र वहाँ सौन्दर्यात्मक संवेदनशीलता का सामाजिकता से विरोध के बजाय जो तालमेल है, वही उनकी कविता को सार्थक बनाता है. आज यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है कि युवा पीढ़ी के अनेक हिन्दी कवि आने-अनजाने उनकी रचनाशीलता से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभावित हैं.
पहले की तरह हमारे समय के सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों में भी कविता की कोई बहुत बड़ी भूमिका भले न हो, पर वह मनुष्य को और अधिक बेहतर मनुष्य बनाने और इस उद्देश्य से मनुष्य को सामाजिक और समाज को अपनी शक्ति और सीमा में अधिक से अधिक मानवीय बनाने के लिए किये जा रहे सांस्कृतिक प्रयास का संवेदनात्मक साक्ष्य अवश्य है. ऐसे में शब्दकर्म के प्रति केदार जी की अनन्य निष्ठा उल्लेखनीय है :
‘मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
तो मैं लिखने बैठ गया हूँ.
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पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ.’
(मुक्ति,1978)
अंतिम बात यह कि जब कविता पर अनुभूति के बजाय कोरी कल्पनाशीलता हावी होने लगती है, तो यथार्थ अपने आप बरतरफ़ हो जाता है. केदारनाथ सिंह की कविता में कल्पनाशीलता की जगह अनुभवाश्रित कल्पना के रचाव की परिधि का नाभिकीय बिंदु यथार्थ ही है, पर कवि ने उसका इस्तेमाल भोजन में नमक की तरह किया है.
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प्रोफ़ेसर एवं पूर्व अध्यक्ष,हिन्दी विभाग,
मानविकी संकाय
हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद-500046.
विजिटिंग प्रोफ़ेसर, वारसा विश्वविद्यालय,पोलैंड.
इ.मेल: raviranjan@uohyd.ac.in