राजेश जोशी की कविताएँ |
बेघरों का गाना
घर के बसने से ज़्यादा उसके उजड़ने उखड़ने की कथाएँ हैं
कथाओं में बिंधी अनगिनत स्मृतियाँ, सपने और सिसकियाँ
कितनी ठोकरे, कितनी गालियाँ, कितना अपमान
हमारे बर्तनों में लगे दोंचे
और हमारी चप्पलों की उखड़ी हुई बद्दियाँ
हमारे विस्थापन की कथा का सारांश हैं.
हमारी स्मृति में अपना कहने को ज़मीन का कोई टुकड़ा नहीं
कि जिस पर तामीर हो सके एक झोपड़ा भी
अनगिनत रंग बिरंगे मिट्टी के टुकड़ों से बनी
ज़मीन की एक कथरी है
इसी की पोटरी लादे अपने सपनों में
हम भाग रहे हैं यहाँ से वहाँ
अलग अलग बम्बों का पानी पीते
शहर दर शहर
हमारा समय बेघरों का गाना हे !
दिन, दोपहर, रात बिरात कभी भी आ जाते हैं वो
कहते हैं खाली करो, खाली करो, खाली करो ज़मीन
कि इस ज़मीन पर महाजनों ने धर दी है अपनी उंगली
अब यह ज़मीन उनकी हुई
अब यहाँ सोन चिरैया आयेगी
कहना चाहते है हम कि मालिक सोन चिरैया सिर्फ कथाओं में होती है
लेकिन तब तक वो गला फाड़ कर गाने लगते हैं
सोन चिरैया आयेगी
सोन चिरैया गायेगी
घोंसला यहीं बनायेगी
अंडे देगी, सेएगी,
बच्चों को उड़ना गाना यहीं सिखाएगी
देस बिदेस से देखने को पर्यटक आयेंगे
खाली करो, खाली करो, खाली करो ज़मीन
रूक गया है चालीस गाँवों का सारा काम काज
किसी मिथक कथा से निकले दैत्य की तरह
बढ़ा चला आ रहा है बुलडोज़र
मुआवजे की कतार में भी खड़े हैं उन्हीं के कारिन्दे
हमारे छप्पर की टीन , हमारी खिड़की , हमारा ही दरवज्जा लिए
ऐलान करती घूम रही है गाड़ी
जल्दी करो….जल्दी करो ……..
खाली करो ज़मीन
कि सोन चिरैया के आने का समय हुआ……
खाली करो ज़मीन !
(16.12.15)
अभिशप्त सपने और समुद्र के फूल
उठती है जितनी तेजी से ऊपर
चढ़ते ज्वार की लहर
गिरती है उतनी ही तेजी से नीचे
लौटते हुए लेकिन धीरे धीरे
धीमी होती जाती उसकी गति
घर की ओर वापस लौटते हुए
रास्ता जैसे हमेशा लम्बा लगता है
किनारे की रेत पर बचा रहता है
बहुत देर तक लौटती लहर का गीलापन
बचे रहते हैं रेत पर
लहर के वापस लौटने के निशान
रेत पर बनी लहरों के बीच
मैं समुद्र की ओर जाते और वापस लौटते
अपने पाँवों के निशान बनाता हूँ
हर अगली लहर ले जाती हैं जिन्हें अपने साथ
स्मृति में समुद्र की, होंगे करोड़ों पाँवों के निशान
रेत पर लिखे हमारे नाम और हमारे घरोंदे
हर बार अपने साथ ले जायेगी लहर
फिर भी न हम लिखना छोड़ेंगे अपना नाम
न समुद्र छोड़ेगा साथ ले जाना उन्हें
बुद्ध की जातक कथा के कौवे
नहीं आयेंगे समुद्र को उलीच कर
हमारे नाम, हमारे घरोंदे या पाँवों के निशानों को वापस लाने
गोताखोर समुद्र की गहराइयों में लगायेंगे छलांग
खोज कर लायेंगे तरह तरह की चीजें
उनमें हमारे नाम, हमारे सपने, हमारे घरोंदे
नहीं होंगे कहीं……..
तब तक शायद वो कॅारेल्स बन चुके होंगे
क्या हमारे अधूरे अभिशप्त सपने बन जाते हैं एक दिन
तारे या समुद्री फूल
जब तुम उन सुन्दर और आकर्षक फूलों को छुओगे
तो मन ही मन पूछोगे कि ये इतने कठोर क्यों हैं
क्यों चुभते हैं इनके किनारे काँटों की तरह
तब हमारे समय के पन्नों को पलटना
तुम जान जाओगे कि यह फूल बनने से पहले सपने थे
इसलिए अब भी सुन्दर थे और आकार्षक भी
कि हर कोई उनको आकार लेता देखना चाहता था
ये हमारे सपने ही थे जिन्हें एक नृशंस समय ने
इतना कठोर और नुकीला बना दिया
पर शायद इसीलिए ये आज भी
मिटने से बच गये !
(30.3.17)
उल्लघंन
उल्लंघन कभी जानबूझ कर किये और कभी अनजाने में
बंद दरवाजे मुझे बचपन से ही पसन्द नहीं रहे
एक पाँव हमेशा घर की देहरी से बाहर ही रहा मेरा
व्याकरण के नियम जानना कभी मैंने ज़रूरी नहीं समझा
इसी कारण मुझे कभी दीमक के कीड़ों को खाने की लत नहीं लगी
और किसी व्यापारी के हाथ मैंने अपना पंख देकर
उन्हें खरीदा नहीं .1.
बहुत मुश्किल से हासिल हुई थी आज़ादी
और उससे भी ज़्यादा मुश्किल था हर पल उसकी हिफ़ाज़त करना
कोई न कोई बाज झपट्टा मारने को , आँख गड़ाए
बैठा ही रहता था किसी न किसी डगाल पर
कोई साँप रेंगता हुआ चुपचाप चला आता था
घोंसले तक अण्डे चुराने
मैंने तो अपनी आँख ही तब खोली
जब सविनय अवज्ञा के आव्हान पर सड़कों पर निकल आया देश
उसके नारे ही मेरे कानों में बोले गये पहले शब्द थे
मुझे नहीं पता कि मैं कितनी चीज़ों को उलांघ गया
उलांघी गयी चीज़ों की बाढ़ रूक जाती है
ऐसा माना जाता था
कई बार लगता है कि उल्लंघन की प्रक्रिया
उलटबाँसी बन कर रह गयी है हमारे मुल्क में
हमने सोचा था कि लांघ आये हैं हम बहुत सारी मूर्खताओं को
अब वो कभी सिर नहीं उठायेंगी
लेकिन एक दिन वो पहाड़ सी खड़ी नज़र आयीं
और हम उनकी तलहटी में खड़े बौने थे
पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं हताश होकर बैठ जाऊँगा
उल्लंघन की आदत तो मेरी रग रग में मौजूद हैं
इसे अपने पूर्वजों से पाया है मैंने
बंदर से आदमी बनने की प्रक्रिया के बीच
मैं एक कवि हूँ
और कविता तो हमेशा से ही एक हुक़्म उदूली है
हुकूमत के हर फ़रमान को ठेंगा दिखाती
कविता उल्लंघन की एक सतत प्रक्रिया है
व्याकरण के तमाम नियमों और
भाषा की तमाम सीमाओं का उल्लंघन करती
वह अपने आप ही पहुँच जाती है वहाँ
जहाँ पहुँचने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था मैंने
एक कवि ने कहा था कभी कि स्वाधीनता घटना नहीं , प्रक्रिया है 2.
उसे पाना होता है बार बार ……लगातार
तभी से न जाने कितने नियमों की अविनय सविनय अवज्ञा करता
पहुँचा हूँ मैं यहाँ तक.
सन्दर्भ
1. मुक्तिबोध की कहानी, पक्षी और दीमक.
2.अज्ञेय का कथन.
खरीदार नहीं हूँ
बाज़ार में खड़ा हूँ
हाथ में लुकाठी नहीं , जेब में छदाम नहीं
किससे कहूँ और कैसे कहूँ कि साथ चल
मेरा तो कोई घर नहीं , गाम नहीं
कहता है वह, चिन्ता की इसमें कोई बात नहीं
बिकने को रखी चीज़ों की जेब नहीं होती
होती भी है तो एकदम खाली होती है
शोकेस में सजी जैसे कमीज़ें और पतलून
इतनी कड़क इस्त्री होती है उनकी जेब पर
कि हवा भी नहीं घुस सकती अंदर
उनमें तारे रखे जा सकते हैं, न चाँद
आकाश भी ताक-झाँक कर सके मुमकिन नहीं
बस पाला बदलते ही बदल जाता है सबकुछ
खेल के नियम तुमने नहीं बनाये हैं
नहीं नहीं, लेकिन मैं ग्राहक बनूँगा
न बना सकते हो तुम मुझे जिंस
मैं बिकने को तैयार नहीं
मैं चीखकर कहता हूँ
हँसता है वह, कहता है
फिर तुम आये ही क्यों यहाँ
बाज़ार में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं
हालांकि यह तुम पर मयस्सर नहीं कि तुम खरीदार नहीं
कि तुम जिंस बनने को तैयार नहीं
खेल के नियम जिसने बनाये हैं
खेल उसी के हिसाब से खेला जायेगा
वह जब चाहेगा और जब उसे लगेगा
कि तुम भी काम की चीज़ हो
तब तुम चाहो न चाहो
वह तुम्हें बदल देगा
कभी जिंस में, कभी खरीदार में.
(21.6.11)
कृतज्ञता
सिरहाने जो खिड़की थी
वहॉँ घूमती हवा रातभर मेरी नींद की रखवाली करती थी
बगल में स्टूल पर रखे लोटे मे भरा पानी
रात भर मेरी प्यास की रखवाली करता था
खिड़की के बाहर आसमान पर हजारों तारे थे
और एक चाँद था
जो घूम घूम कर रखवाली करता था
मेरी नींद की
नींद में भटकते सपनों की
सपनों पर हर पल हमला करती कम नहीं थीं
पल पल घटती घटनाएँ
समय जंगली जानवर सा घात लगाये बैठा था
लेकिन सिरहाने के पास रखने को लोहे के औजार थे
और पत्थरों को रगड़कर आग जलाने का हुनर
हम भूले नहीं थे
आग के भीतर हमारी आवाज़ सुरक्षित थी
सपनों की रखवाली करती खुशबुएँ
फूलों के सिरहाने रतजगा करती थीं
चिड़ियें सुबह सुबह जिनकी कृतज्ञता का
गीत गाती थीं.
एक पल में दो पल
एक पल स्मृति में बंद है
और बाहर एक पल तेजी से गुजर रहा है
चीज़ों की शक़्ल बदलता हुआ
सामने रखी तस्वीर में
सेब खाती मेरी बेटी
छह बरस की है
बाहर जबकि तीस पूरे कर चुकी वह
दोनों को अगल बगल रख कर
एक बेटी को दो बेटियों की तरह देखता हूँ
कई बरस पहले का दिन अचानक दरवाजे सा खुलता है
मैं उससे भीतर जाता हूँ
हवा को गोद में उठाता हूँ
हवा छह बरस की बेटी की तरह
हल्की फुल्की है
फिर भी मुँह बनाता हूँ, कहता हूँ
ओह कितनी भारी है तू !
(5.3.07)
नहीं सीरिया
मैंने कहा समय
प्रतिध्वनित होकर लौटी आवाज़ -सीरिया !
मैंने एक बार फिर दोहराया
सीरिया नहीं …..समय…..समय
एक बार फिर प्रतिध्वनित होकर लौटी आवाज़
सीरिया……..सीरिया !
शुब्हः हुआ मुझे अपने कानों पर
कहीं ऐसा तो नहीं
कि मैं ही सुन रहा हूँ कुछ गलत !
कहीं ऐसा तो नहीं
कि विस्थापन का पर्यायवाची शब्द बन गया है सीरिया !
कि हमारा समय ही
बदल गया है एक ऐसे दुःसमय में
कि कहता हूँ समय
तो सुनाई पड़ता है सीरिया !
(15.12.15)
राजेश जोशी 11 निराला नगर , भदभदा रोड , भोपाल 462003 . |
कविता जनता की अनिर्वाचित प्रतिनिधि है। वह जनता जो सदियों से दबी-कुचली है।एक कवि उस वंचित वर्ग का वकील है जो मनुष्य से एक दर्जा नीचे रहता आया है। राजेश जोशी की कविताओं में यह प्रतिबद्धता साफ तौर से परिलक्षित होती है।इन उत्कृष्ट रचनाओ के लिए उन्हें साधुवाद !
कल आपने राजेश जोशी की कविताएँ समालोचन पर पोस्ट की थीं । संवेदनहीन समाज को जगाने की आपकी भूमिका महत्वपूर्ण है । गांधी ने कहा था ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’ पग पग पर किये जा रहे अत्याचारों से पीड़ित समाज को प्रत्यक्ष मदद की ज़रूरत है । शासकों और पूँजीपतियों के विरोध में आक्रोश जगाने की भी ।
अनेकों वर्ष पहले राजेश जोशी की कविताओं का संग्रह ख़रीदा था । तब जनसत्ता में वर्ष के अंतिम शनिवार और रविवार को रमेश उपाध्याय वर्ष की उल्लेखनीय पुस्तकों का नाम और उनके मूल्यों सहित प्रकाशकों के नाम और पते लिखते थे । तब न गूगल होता था और न ही फ्लिप कार्ट और अमेज़न । मैं विश्व पुस्तक मेला प्रगति मैदान से किताबें ख़रीदकर लाता था । तब दो वर्ष में एक बार विश्व पुस्तक मेला लगता था । अब प्रति वर्ष ।
बहरहाल, न सामान्य रूप से और न ही आपने दिये लिंक पर टिप्पणी करने की जगह मुझे नहीं मिल पा रही । मुझ में कमी है । राजेश जोशी अब वृद्ध हो गये हैं । वे प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट हैं । कम्युनिस्टों को अपनी बातें तर्कसंगत तरीक़े से लिखनी आती हैं । पाठकों के हृदयों को आंदोलित करती हैं ।
हाए ! तीसरी कविता पर टिप्पणी कहाँ खो गयी । इस कविता के शीर्षक के रहस्य की कुंजी कहीं कविता में छिपी हुई हो । शीर्षक ‘ अभिशप्त सपने और समुद्र के फूल ‘ कुछ अटपटा है । तेज़ी से ज्वार ऊपर उठता है । शायद समुद्र की भड़ास हो और वह बल लिए हुए हो । लेकिन भाटा भी तीव्र गति से समुद्र में लौटता है । यही गुरुत्वाकर्षण का नियम है । व्यक्ति अपने दफ़्तर या दूसरी किसी ड्यूटी पर जाते समय विलम्ब से घर से निकल रहा हो तो उसके चलने की गति तेज़ हो । “आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे
बोलो तुमने कभी देखा है मुझे उड़ते हुए”
ड्यूटी समाप्त होने के बाद व्यक्ति अपने सहकर्मियों के साथ इत्मिनान से घर लौटता है । यदि घर में व्यग्र होकर कोई प्रतीक्षा कर रहा हो तो व्यक्ति पहुँचने में विलम्ब नहीं करेगा ।
“दोस्तों जाँ से गुज़रता कौन है
इश्क़ हो जाता है करता कौन है
सामने वाले मकाँ में दिल ढले
रोज़ ये सजता सँवरता कौन है” अहमद हुसैन और मुहम्मद हुसैन बंधुओं द्वारा गायी गयी एक ग़ज़ल ।
समुद्र की लहरों से तट पर बनाये गया गीलापन के आपके पाँव के निशान बनाता है । लेकिन वही लहरें तट पर आकर पदचिह्नों को मिटा देती हैं । इन निशानों को ख़ुद आपने इंदिराज (रजिस्टर आदि में लिखना होगा) । गोताखोर अध्यवसायी हैं । वे आपके पदचिह्नों को वापस लौटाएँगे । लौटाये भी नहीं जा सकते । समुद्र में डूब गये व्यक्तियों को खोजने का काम गोताखोरों का है । और
“सब हवायें ले गया मेरे समन्दर की कोई
और मुझको एक कश्ती बादबानी दे गया”
बुद्ध और महावीर समकालीन थे । बुद्ध की जातक कथाएँ विवादास्पद हैं । जैन सम्प्रदाय के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर ने अपनी तपस्या के बल पर जाति स्मरण पर कई प्रयोग किए थे । वे सटीक और सार्थक थे । कॉरलेस को गूगल पर ढूँढने के प्रयास में मेरी टिप्पणी गुम हो गयी थी । राजेश जी या अरुण जी आप प्रकाश डालें । अधिकतर सपने अभिशप्त बन जाते हैं । कदाचित कोई सपना सौख्य की वर्षा करता हो । फूलों और काँटों का चोली-दामन का साथ है । लेकिन हमारे हिस्से में सुखी समाज के पुष्प ही आयेंगे । नृशंस शासकों के हाथ हमारे सपने नहीं छोड़ सकते । पहली टिप्पणी से यह टिप्पणी सार्थक बन पायी है ।