बु ल डो ज़ र |
बुलडोज़र पर कविता
विजय कुमार
बुलडोज़र सहसा आ धमकता है. वह निर्माण, जीवन लय, स्मृतियों और कोमलताओं की अनदेखी करता हुआ, यांत्रिक गति से नाश के एक वहशी तर्क को रचने लगता है. वह हमारा निपट वर्तमान है. किसी सूत्रधार के आदेशों पर अपनी गर्दन को हिलाता हुआ, अपनी भुजाओं को फड़कता हुआ, एक भयावह शोर पैदा करता हुआ सारी प्रार्थनाओं को अनसुना करता जाता है, सारे प्रतिरोध को रौंद देता है. ध्वंस उसका लक्ष्य है. ताकत का तर्क अंतिम तर्क. रचा गया सब बिखरता जाता है.
लेकिन कविता इस बुलडोज़र का प्रतिलोम है. वह इस हिंसक समय में जीवन बोध को एक दूसरे धरातल पर ले जाना चाहती है. वह इस आकस्मिक मृत्यु के विरुद्ध, नाश के विरुद्ध कुछ बचा लेना चाहती है. जीवन की कोई पूंजी. कोई अर्थवत्ता. यह बचाना और संरक्षित करना क्या है- कविता इसे जानती है या जानना चाहती है.
समय बीतता जाता है. कविता में जो शब्द बद्ध हुआ, वह बुलडोज़रों के लौट जाने के बाद भी बचा रहेगा. मनुष्य होने की किसी कीमती स्मृति को संजोए रखेगा. समय के बीचोबीच रहते हुए समय के पार चले जाने की वह एक विचित्र सी कोशिश.
कुछ मित्रों से बुलडोज़र पर कविता लिखने का अनुरोध किया था. बहुत सारी कविताएँ मिलीं. विविधता की एक दिल को छू लेने वाली झांकियां हैं इनमें. कुछ और भी आ रही होंगी. सभी कवि मित्रों के प्रति आभार सहित ये कविताएँ एक ही शीर्षक के अंतर्गत यहां प्रस्तुत हैं.
राजेश जोशी
बुलडोज़र
तुमने कभी कोई बुलडोज़र देखा है
वो बिल्कुल एक सनकी शासक के दिमाग़ की तरह होता है
आगा पीछा कुछ नहीं सोचता,
उसे बस एक हुक़्म की ज़रूरत होती है
और वह तोड़ फोड़ शुरू कर देता है
सनकी शासक कल्पना में कुचलता है
जैसे विरोध में उठ रही आवाज़ को
बुलडोज़र भी साबुत नहीं छोड़ता किसी भी चीज़ को
सनकी शासक बताना भूल जाता है
कि बुलडोज़र को क्या तोड़ना है
और कब रूक जाना है
सनकी शासक ख़्वाबों की दुनिया से जब बाहर आता है
मुल्क़ मलबे का ठेर बन चुका होता है
सनकी शासक मलबे के ढेर पर खड़े होने की कोशिश करता है
पर उसकी रीढ़ टूट चुकी है
वह ज़ोर ज़ोर से हँसना चाहता है
पर बुलडोज़र ने तोड़ डाले है उसके भी सारे दाँत
बुलडोज़र किसी को नहीं पहचानता है
बुलडोज़र सब कुछ तोड़ कर
बगल में खड़ा है
अगले आदेश के लिये !
(20.4.22)
अरुण कमल
बुलडोज़र
अब न तो पहिए चलते हैं न जबड़े
पहियों के चारों तरफ़ दूब उग आयी है और चींटियों के घर
जबड़ों के दाँत टूट चुके हैं और उन पर खेलती हैं गिलहरियाँ
अपने ज़माने में मैंने कितने ही झोंपड़े ढाहे उजाड़ीं बस्तियाँ
दुनिया का सबसे सुस्त चाल वाला सबसे ख़ूँख़ार अस्त्र
एक बार एक बच्चा दब गया था पालने में सोया
मैं अक्सर सोचता कोई मेरे सामने खड़ा क्यों नहीं होता
दस लोग भी आगे आ जाते तो मेरा इस्पात काँच हो जाता
बस एक बार एक वीरांगना खड़ी हो गयी थी निहत्थे
और मुझे रुकना पड़ा था असहाय निर्बल
पीछे मुड़ना मैं नहीं जानता पर मुझे लौटना पड़ा
तोड़ना कितना आसान है बनाना कितना मुश्किल
अब चारों तरफ घनी रिहाइश है इतने इतने लोग
और मैं बच्चों का खेल मैदान हूँ
उसी बस्ती के बीच अटका अजूबा
वो ज़माना बीत गया वो हुक्मरान मर गये अपने ही वज़न से दबकर
काश मैं मिट्टी की गाड़ी होता!
विजय कुमार
बुलडोज़र
बस्तियां ही अवैध नहीं
उनकी तो सांसें भी अवैध थीं
हंसना और रोना
भूख और प्यास
मिट जाने से पहले
थोड़ी सी छत थोड़ी सी हवा
भोर की उजास और घनी रातें
ईंट की इन मामूली दीवारों के पीछे
यहीं रही होगी आदम और हव्वा की कोई जन्नत
बच्चों की किलकारी
शक्तिहीन बूढ़ों की दुआएं
सब अवैध था सब कुछ
विशाल भुजाओं वाली
राक्षसी मशीनों
के भीमकाय जबड़ों से
अब लटक रहे हैं
उनकी
याचनाओं के कुछ बचे खुचे लत्तर
इस पृथ्वी पर ज़मीन का कौन सा टुकड़ा है
कि अब वहां बचाकर ले जाएं वे अपनी लाज
कौन सा रिक्त स्थान भरें
कोर्ट याचिकाओं में
कोई जगह नहीं मनुष्य चिह्नों के लिए
दर्द सिर्फ शायरी में
और
ग्राउंड ज़ीरो पर केवल एक ‘एक्शन प्लान’
एक उन्माद
कि कुचल कर रख दिया जाएगा सब कुछ
वे अपने बिखरे हुए मलबे में
खोजते हैं अपने कुछ पुराने यकीन
कोई ज़ंग खाई हुई आस
अपना रहवास
इस दुनिया में अपने होने के सबसे सरल रहस्य
घटित के बाद
अब वहां बस एक ख़ालीपन
उसे भर नहीं सकता कोई
कोई चीत्कार
शोक आघात विलाप ख़ामोशी
बचे हैं केवल तमतमाए चेहरे
ताकत के निज़ाम में
सब बिसरा दिया जाएगा
सब लुप्त हो जाएगा
सबकुछ
उजड़ना टूटना बिखरना ध्वस्त होना
पेड़ काट डाले गए
एक बेरहम दुनिया में
चिड़ियाएँ अशांत
वे अपनी स्मृतियाँ संजोए
वे अपनी फ़रियाद लिए
मंडराती रहती हैं
ज़मीन पर गिरे हुए घोंसलों के इर्दगिर्द
कोई भरपाई नहीं
यह हाहाकार भी उनका डूब जाता है
पुलिस वैन के चीखते हुए सायरनों में.
विष्णु नागर
बुलडोज़र एक विचार है
बुलडोज़र एक विचार है
जो एक मशीन के रूप में सामने आता है
और आँखों से ओझल रहता है
बुलडोज़र एक विचार है
हर विचार सुंदर नहीं होता
लेकिन वह चूंकि मशीन बन आया है तो
इस विचार को भी कुचलता हुआ आया है
कि हर विचार को सुंदर होना चाहिए
बुलडोज़र एक विचार है
जो अपने शोर में हर दहशत को निगल लेता है
तमाशबीन इसके करतब देखते हैं
और अपने हर उद्वेलन पर खुद
बुलडोज़र चला देते हैं
जब भी देखो मशीन को
इसके पीछे के विचार को देखो
वरना हर मशीन जिसे देखकर बुलडोज़र का खयाल तक नहीं आता
बुलडोज़र साबित हो सकती है.
लीलाधर मंडलोई
रमजान में बुलडोज़र
हैरां हूं इन उजड़े घरों को देखकर
ख़ाक़ उठती है घरों से
कुछ नहीं है बाक़ी उठाने को
यह वो शहर तो नहीं
जहां हर क़दम पर ज़िंदगियां रोशन हुआ करती थीं
अब ऐसा बुलडोज़र निज़ाम
और मातम-ही-मातम
चौतरफ़ा कम होती सांसों में भागते-थकते लोग
नमाज़ में झुके सर
और दुआओं में उठे खाली हाथ
मांग रहे है सांसें रमजान के मुक़द्दस माह में
अब यहां ईदी में बर्बाद जीवन के अलावा
कुछ भी नहीं,कुछ भी नहीं.
बुलडोज़र: तुलसी के राम का स्मरण
बचपन में मैंने देखे
हरे-भरे जंगल
उनके बीच बड़ी-बड़ी मशीनों से
धरती के गर्भ को भेदते लौह अस्त्र
कोयले के भंडारों की तलाश में
क्रूर तरीक़ों से जंगलों को
नेस्तनाबूद करने के लोमहर्षक दृश्य
वे कभी स्मृति से ओझल नहीं हुए
जीव-जंतुओं के साथ उजड़ते देखा
आदिवासियों के घरों को
बुलड़ोज़र के भीमकाय उजाड़ू जबड़ों में
लुटती मनुष्यता को देखना बेहद मुश्किल था
बुलड़ोज़र के पार्श्व में थी कोई दैत्य छवि
जिसे सब डरते हुए कोसते-गरियाते
लेकिन तब उजड़ने वालों से पूछने का रिवाज था
उनके साथ कोई भेदभाव न था, न जाति भेद
धर्म कभी विकास के रास्ते हथियारबंद न था
आज बुलडोज़र पर सवार जब कोई गुज़रता है
वह ड्राइवर नहीं तानाशाह होता है
वह किसी एक क़ौम को निशाने पर लेता है
वह मद में भूल जाता है
घरों में सोये ज़ईफ़ों, बच्चों यहां तक
गर्भवती महिलाओं को
भयावह त्रासद ख़बरों के बीच
दुख और पश्चाताप में असहाय
मैं करता हूं तुलसी के राम का स्मरण
वह नहीं होता मौक़ा-ए-वारदात पर
वारदात को बेरहम ढंग से अंजाम देने वालों के भीतर
राम की जगह होता है मदांध तानाशाह का बीज
तानाशाह का ईमान और धर्म पूछती जनता
बुलडोज़रों के जाने के बाद
एक बार फिर ध्वस्त जगहों पर
मुहब्बत के फूलों के खिलने के लिए
आशियाने बनाना शुरु कर देती है
इस बनाने से यह न समझा जाए
कि जनता बुलडोज़रों के साथ
तानाशाहों के महलों की तरफ़ कूच नहीं कर सकती.
अनूप सेठी
बुलडोज़र और बुढ़िया संवाद
ओ बुलडोज़र ? तू कहां चला?
उन्नने ड्यूटी पर भेजा है
क्या कह कर भेजा है?
दरो दीवार तोड़कर आ?
जो दिख जाएं खोपड़े फोड़ कर आ?
अंधी है क्या?
दिखता नहीं?
ड्यूटी बजा रहा हूं?
लोकतंत्र का घंटा घनघना रहा हूं?
कान खोल कर सुन ले
मेरा पिंडा-जिगरा लोहे का
लौह दरवाजों से निकला
मेरा पुर्जा पुर्जा लोहे का
मेरे मुंह मत लग री बुढ़िया
दो जो चार सांसें बची हैं, ले ले
सवाल किया तो यहीं धूल चटा दूंगा
नामोनिशान मिटा दूंगा.
कृष्ण कल्पित
बुलडोज़र
ठाकुर साहेब, बहादुर कितने हो?
ऐसा समझो, ग़रीब और कमज़ोर के तो बैरी पड़े हैं !
(एक राजस्थानी कहावत)
(२)
घर वही ढहा सकता
जिसका कोई घर नहीं
जैसे युवावस्था में घर से भागा हुआ कोई भिक्षुक !
(3)
बुलडोज़र तो तुम्हारे घर पर भी चल सकता है
या तुम्हारा घर लोहे का बना हुआ है ?
(४)
उन्होंने मन्दिर तोड़ डाले
तुम मस्जिदों को ढहा दो
नफ़रतों और
बुलडोज़र का कोई धर्म नहीं होता !
(५)
तुम्हारे बुलडोज़र से
लाल क़िला नहीं ढह सकता
नहीं ढह सकता ताजमहल
गोरख-धाम नहीं ढह सकता
तुम काशी विश्वनाथ मन्दिर को नहीं ढहा सकते
जामा मस्जिद से टकराकर तुम्हारे बुलडोज़र टूट जाएँगे
तुम्हारा बुलडोज़र सिर्फ़ ग़रीबों को तबाह कर सकता है !
(६)
कबीर के सुन्न-महल को कैसे ढहाओगे
वहाँ तक तो तुम्हारी रसाई तक नहीं है, मूर्खों !
(७)
ढहा कर ही तुम सत्ता में आए हो
इसलिए तुम ढहा रहे हो
तुमने उस मस्जिद को ढहा दिया
जिसमें काशी के ब्राह्मणों के आक्रमण से आहत तुलसीदास ने पनाह ली थी
जिसमें रामचरितमानस के कई प्रसंग लिखे गए !
(८)
इसमें अब कोई संदेह नहीं कि
तुम सारे लोग एक दिन
कुचलकर मारे जाओगे !
(९)
पुण्य ही नहीं
पाप भी फलते हैं
क्या किया जाए
यह भयानक मृत्यु तुमने ख़ुद चुनी है !
(१०)
मैं बुलडोज़र से कुचलते हुए
तुम्हें देखना चाहता हूँ !
(११)
आमीन/तथास्तु !
स्वप्निल श्रीवास्तव
बुलडोज़र
ये बुलडोज़र नहीं
जैसे शत्रु देश के टैंक हो
अपने ही नागरिकों को रौंद
रहे हों
जो नाफरमानी करता है
उसे सबक सिखा देते है
इनके लिए कोई सरहद नहीं
नहीं है कोई बंदिश
इनके मनमानी को कोई चुनौती
नहीं दे सकता है
बुलडोज़र अचानक कही भी पहुंच सकते हैं
उन्हें किसी हुक्म की जरूरत
नहीं है
वे हुक्म के परे हैं
मगरमच्छ की तरह रक्ताभ हैं
इनके जबड़े
नुकीले हैं इनके दांत
वे दूर से दिखाई देते हैं
ये नदी या झील में नहीं रहते
जमीन पर कवायद करते
रहते हैं
निरपराध लोगों को बनाते हैं
शिकार
वे बिना सूचना के आते है
किसी अदालत में नहीं होती
इनके खिलाफ कार्यवाही
वे किसी अदालत का आदेश
नहीं मानते
खुद ही फतवा जारी करते हैं
पूरे इलाके में है इनका खौफ
लोग इनके डर से बाहर
नहीं निकलते
बुलडोज़र नींद में भी दुःस्वप्न
की तरह आते हैं
और हमारा चैन बर्बाद कर
देते हैं
ये तानाशाहों के सैनिक हैं
इन्हें अभयदान मिला हुआ है
वे कही भी जा सकते हैं
और किसी को भी ढहा
सकते हैं
चाहे वह इमारत हो या कोई
आदमी
थोड़ा रुक कर सोचिये
जो कारीगर इसे बनाते है
वह क्या इसके कुफ्र से बच
पाते होंगे ?
बोधिसत्व
बुलडोज़र
एक चूड़ी की दुकान में
एक सिंदूर की दुकान में
अजान के समय घुसा वह बुलडोज़र की तरह!
उसने कहा मैं चकनाचूर कर दूंगा वह सब कुछ जो मुझसे सहमत नहीं!
जो मेरे रंग का नहीं
उसे मिटा दूंगा!
उसे आंसू नहीं दिखे
उसे रोना नहीं सुनाई दिया
उस तक नहीं पहुंचीं टूटने की आवाजें
उसे बर्तनों के विलाप नहीं छू पाए!
उसे खपरैलों की चीख ने छुआ तक नहीं
कुचलने को वीरता और तोड़ने को शौर्य कह कर
ढहाता रहा टुकड़े टुकड़े जोड़ी
कोठरियों और आंगनों को!
देश की राजधानी में भी हाहाकार की तरह था वह
अपनी नफरत भरी उपस्थिति से समय को विचलित करता एक संवैधानिक व्यभिचार की तरह था!
वह आएगा और सब कुछ उजाड़ जाएगा
यह कह कर डराते थे बुलडोज़र के लोग
उनको जो बुलडोज़र के स्वर में स्वर मिलाकर नारे नहीं लगाते थे
जो बुलडोज़र का भजन नहीं गाते थे
बुलडोज़र उनको मिटाने की घोषणा करता
घूम रहा है!
बुलडोज़र को किसी की परवाह नहीं
क्योंकि उसे एक गरीब ड्राइवर नहीं
राजधानी में बैठा कोई और चला रहा था
जिसे सब कुछ कुचलना और गिरा देना पसंद था!
जो तोड़ने की आवाज सुन कर ख़ुश होता था
और जब कुछ न टूटे तो
वह बिगड़े बुलडोज़र की तरह
सड़क किनारे धूल खाता रोता था!
अच्युतानंद मिश्र
ताकतवर लोगों का भय
(प्रिय रवि राय के लिए)
सबसे ताकतवर लोग
सबसे कमजोर लोगों से लड़ रहे हैं
सबसे ताकतवर लोग हंसते हंसते पागल हो रहे हैं
सबसे कमजोर लोग गठरी बांधे
बच्चे को गोद में लिए सड़क पर
घिसट रहे हैं
वे एक के बाद एक
दुख की नदी में पार उतर कर
सूअरों को बचा रहे हैं
वे शहर की सबसे बदबूदार गली में
घास फूस की छतें उठा रहे हैं
वे मनुष्य और मनुष्यता के बारे में नहीं
न्याय अन्याय और असमानता के बारे में नहीं
दुख के बाद सुख
रात के बाद दिन
के बारे में नहीं सोच रहे हैं
वे खालिस पानी में उबल रही
चाय की पत्ती के बारे में
सीलन भरी बिस्तर पर लेटे
बुखार से तपते बच्चे के बारे में
म्युनसिपालिटी द्वारा काट दी गई
बिजली के बारे में
धर्म के बारे में नहीं
आने वाले त्यौहार के बारे में सोच रहे हैं
वे एक अंधकार से दूसरे अंधकार
के बारे में सोच रहे हैं
उस खामोशी के बारे में
उस खामोशी के भीतर दबे आक्रोश के बारे में
उस आक्रोश में छिपी हताशा के बारे में
बहुत कम सोच रहें हैं
ताकतवर लोग
ताकत की दवाई बना रहे हैं,
वे लोहे और फौलाद को पल भर में
मसलने का विज्ञान खोज रहे हैं
मुलायम गलीचे और लजीज खाने
के बारे में सोच रहे हैं
वे बार-बार ऊब रहे हैं
वे हर क्षण कुछ नया, कुछ अधिक आनंददायक
कुछ और सफल
चमत्कृत कर देने वाली
कोई चीज ढूंढ रहे हैं
वे हुक्म दे रहे हैं और नाराज हो रहे हैं
लोगों को संख्या में
और संख्या को शून्य में बदल रहे हैं
सबसे ताकतवर लोग बुलडोज़र के बारे में सोच रहे हैं
सबसे कमजोर लोग भी बुलडोज़र के बारे में सोच रहे हैं.
सबसे ताकतवर लोग खुशी से नाच रहे हैं
सबसे कमजोर लोगों का दुख समुद्र की तरह बढ़ता जा रहा है
सबसे ताकतवर लोग थोड़े हैं
सबसे ताकतवर लोग इस बात को जानते हैं
सबसे कमजोर लोग बहुत अधिक हैं
सबसे कमजोर लोग इस बात को नहीं जानते
सबसे ताकतवर लोगों को यह भय
रह रहकर सताता है
एक दिन सबसे कमजोर लोग
दुनिया के सारे बुलडोज़रों के सामने खड़े हो जाएंगे.
विनोद शाही
पत्थर धर्म
पाषाण काल से
कथा सनातन चली आ रही
अब तक पत्थर
मानव होने की
ज़िद करते हैं
शिला-पुरुष हैं एक ओर
बुलडोज़र के पहियों से
उनके कुछ टुकड़े अलग हुए तो
जन्मे बाकी के पत्थर जन
जैसे आदम की पसली से
हब्बा निकली है
जैसे पैरों से ब्रह्म देव के
शूद्रों का उद्भव होता है
मर्यादा पुरुषोत्तम
शिला-पुरुष ने
अन्य सभी को
स्वयं सेवकों में रखा है
सृष्टि पूर्व से रचित सनातन
पृथ्वी शिला सा
‘पत्थर धर्म’ चलाया है
‘बुलडोज़र स्मृति’ को
संविधान का रूप दिया है
जन जन की पत्थर काया को
तोड़ा उसने रोड़ी में
और आत्मा का चूरा कर
सीमेंट में बदला
शिला-पुरुष का भव्य भवन
यों खड़ा हुआ
अलग धर्म के लोग मगर
‘बुलडोज़र स्मृति’ के
विधि विधान के
जलसों त्योहारों से बचते हैं
हाथों में पत्थर
उनके भी हैं
और अहिंसक हैं थोड़े
गीता अपनी के मंत्र बोलते
“देह हमारी बेशक कुचले बुलडोज़र कोई
नहीं आत्मा उसके हाथों आयेगी”
परवाह नहीं, बस रौंद दिये
परधर्मी घर बुलडोज़ हुए
पत्थर के ढेर बचे पीछे
पहचान नहीं पाता है कोई
कहां पड़े दिखते पत्थर हैं
कहां स्वयं वे पड़े हुए हैं
‘बुलडोज़र स्मृति’ में लिखा मिला है
‘शठे शाठ्यम् समाचरेत’ ही
न्याय धर्म की रीति है
वे आतंकी, अर्बन नक्सल हैं
पाकिस्तानी तक उनमें हैं
बीमार देश है
दवा तिक्त पीनी पड़ती है
जड़ समाज होता जाता है
नहीं बुरा यह लेकिन इतना है
जितना उसका
पत्थर होने की
स्मृति से बंधना है
खो देना इतिहास बोध को
जीते जी पत्थर होने से
राज़ी होना है
पत्थर से मुर्दा
सभी हो रहे
कुछ पत्थर होकर भी
लेकिन थोड़े जीवित हैं
लेकिन बेहद थोड़े हैं
यह संकट की
घड़ी बड़ी है
देव जनों की प्रस्तर प्रतिमाएं
जीवित पत्थर से बनती हैं
जीवित पत्थर पर
छिपे हुए हैं
देव मूर्तियां इसलिये
हो गयीं विहीन
ईश्वर से अपने
यह संकट की
घड़ी बड़ी है
संस्कृति से जीवन
विदा हो गया
युद्ध लिप्सा से भरे हुए
मानव द्रोही काम सभी
बेजान पत्थरों के जिम्मे हैं
जीवित पत्थर से
जीवित जन
पाषाण काल में
लौट रहे हैं
लौट रहे पर
आसान नहीं उनकी यात्रा है
रस्ता
गुहाद्वार से होकर जाता है
उसके मुख पर पड़ी हुई है
एक शिला
जिस पर इतिहास आद्य काल का
भित्ति चित्र सा अंकित है
दिख रहा साफ है
शिला-पुरुष पृथ्वी के सारे
उसकी नकल किया करते हैं
पाखंडी प्रतिनिधि ईश्वर के
इतिहास शिला की
पैरोडी खाली करते हैं
इतिहास शिला से
भू कंपन से स्वर उठते हैं
बोल रही वह
मेरे पीछे छिपे रहस्य हैं
खोलो द्वार
सत्य कथा को
फिर से बाहर आने दो
पाषाण काल की ध्वनियां सारी
उसकी भाषा में अर्थ बनी हैं
पत्थर लिपि में लिखी मिलीं हैं
दुश्मन बेशक बहुत बड़ा हो
और हारना निश्चित हो
रणभूमि को ऐसे में
पीछे छोड़ो, रणछोड़ बनो
धैर्य धरी, दृढ़ बने रहो
इतिहास मदद करने आयेगा
कालयवन में शक्ति दंभ है
जड़ बुद्धि दैत्य है, वैसा ही है
जैसा होता बुलडोज़र कोई
अंध गुहा के भीतर तक भी
पीछा करता आयेगा ही
आने दो उसको पीछे पीछे
असुरारि मुचुकुंद
वहां सोया है कब से
काल तुम्हारा
कालयवन
उसका है भोजन
महा शिला से
कालयवन कंकाल बने
पड़े हुए है
काल गुहा में जाने कितने
लौटे वापिस
पाषाण काल से
जीवित पत्थर
चिकने होकर
स्वयं लुढ़कना
आगे बढ़ना सीख रहे हैं
स्वयं-सेव हैं वे ही सच्चे
मुर्दा पत्थर
लेकिन ठहरे हैं
‘शिला छाप’ हैं
भगवां ठप्पे
उनके माथों पर लगे हुए हैं
ट्रेड मार्क बनते हैं जैसे
उपयोगी चीज़ों के
खुसरो बन कर
आये हैं लेकिन वे तो अब
छाप तिलक सब छोड़ रहे हैं
वे कबीर हैं
अष्ट-छापिया
पत्थर धर्मों के पार खड़े हैं
हूबनाथ
बुलडोज़र
सिर्फ़
एक शब्द ही नहीं
एक मशीन ही नहीं
एक अवधारणा भी नहीं
बल्कि
एक पॉलिसी है
एक नीति
एक कूटनीति है
बुलडोज़र
संविधान की पुस्तक में
छिपा एक दीमक है
सत्ता की आत्मा में पैठा
एक डर है
शक्तिहीनता का संबल
पौरुषहीनता की दवाई है
बुलडोज़र
झूठ का पहाड़
जब ढहने लगे
क्रूरता के क़िले की दीवार
में सेंध लग जाए
रंगे सियार का
उतरने लगे रंग
तो सबसे बड़ा सहारा है
बुलडोज़र
खेतों को रौंदता हुआ
कमज़़ोर घरों को ढहाता
झोंपड़ियाँ उजाड़ता
नंगी भूखी भीड़ पर
रौब जमाता
जब थक जाता है
तब सत्ता की जाँघ तले
सुस्ताता है
बुलडोज़र.
विजय कुमार सुप्रसिद्ध कवि आलोचक |
सारी कविताएँ मार्मिकता के साथ प्रतिरोध का उदाहरण हैं। इनका अपना एक हस्तक्षेप है। इस काव्य आयोजन के लिए विजय कुमार जी और अरुण देव को बधाई और धन्यवाद।
समय में ज़रूरी हस्तक्षेप। तात्कालिक होते हुए भी यह विरोध आवश्यक क्योंकि जब पीठ दीवार से लगा दी जाती है तो कविता में सौंदर्य की तलाश अश्लीलता है
सामूहिक प्रतिरोध का यह एक सार्थक प्रयोग है । सभी कवियों ने विजय कुमार के अनुरोध पर ये कविताएँ लिखी हैं जो यह साबित करता कि कविताएँ आसमान से नहीं टपतीं , उन्हें लिखना पड़ता है । अभी इस अभियान में और कवि भी शामिल होंगे । सभी कविताएँ अपने-अपने ढंग से बुलडोज़र पर बुलडोज़र चला रही हैं । विजय कुमार जी का आभार कि इस आयोजन में मेरी कविता भी शामिल की । समालोचन का भी आभार इस आशा के साथ कि भविष्य में भी प्रतिरोध की कविता के प्रयोग जारी रहेंगे ।
‘काश मैं मिट्टी की गाड़ी होता !’
किसी कवि का बुलडोज़र ही ऐसी मानवीय बात सोच सकता । अरुण कमल की कविता ने शूद्रक के मृच्छकटिकम की और ऋत्विक घटक की फ़िल्म अजान्त्रिक की एक साथ याद दिला दी । इस काव्य-आयोजन की सभी कविताएँ मार्मिक और असरदार हैं लेकिन यदि ये कविताएँ किताब की शक्ल में छपे तो उसका शीर्षक होना चाहिए :
‘काश मैं मिट्टी की गाड़ी होता !’
कृष्ण कल्पित जी, मैं आपके विचार से सहमत हूँ कि बुलडोज़र पर लिखी गयी इन कविताओं का संकलन छपना चाहिये ।
बहुत जरूरी प्रतिरोध
मुद्दा बेहद संगीन और मौजूं है।
सुबह से तीन बार पढ़ गया इन कविताओं को। अरुण जी और लीलाधर मंडलोई की कविताएं तो लगभग याद हो गईं है।कृष्ण कल्पित की भी अनेक पँक्तियाँ धारदार हैं।
बाकी कविताएं बहुत मार्मिक हैं।एकाध लुकाच के शब्दों में ‘स्कीमेटिक लेखन’ का उदाहरण प्रतीत हो रही हैं।इन पर कोई विस्तृत टिप्पणी करने के पहले इन्हें कई बार पढ़ना ज़रूरी हैं। जल्दबाजी में कुछ लिखना रचना पर आलोचना का बुलडोजर चलाने जैसा होगा-
‘तोड़ना कितना आसान है बनाना कितना मुश्किल।'(अरुण कमल)
विजय कुमार ने थोड़े समय में ढेर सारे कवियों की कविताओं का संकलन करके समालोचन के ज़रिये हमें पढ़ने के लिये सौंप दिया है । लिखा है कि बुलडोज़र प्रतिलोम है । आज के इंडियन एक्सप्रेस में एक फ़ोटो छपी है । ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने बृहस्पतिवार को वडोदरा गुजरात में JCB बनाने के कारख़ाने का उद्घाटन किया था । और बुलडोज़र पर खड़े होकर फ़ोटो खिंचवाया है । JCB बनाने वाले इंग्लैंड के निवासी थे । यह मशीन वर्तमान शासक की दमनात्मक नीति का प्रतीक बन गया है । मोदी और भाजपा की राज्य सरकारें juggernaut से आगे बढ़ गयी हैं । एक समुदाय विशेष के घरों को ढहाया जा रहा है । राजेश जोशी के शब्दों में बुलडोज़र ने मोदी के दाँत और रीढ़ तोड़ दी है । वह अट्टहास करता है तो उसका कुरूप और पिलपिला चेहरा दिख रहा है ।
राजेश जोशी की कविता पढ़कर मुझे कैफ़ी आज़मी की कविता की कुछ पंक्ति याद आ गयी हैं ।
धर्म क्या है, क्या जात है ये जानता कौन
घर न जलता तो, उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आये
शाकाहारी है मेरे दोस्त, तुम्हारा ख़ंजर
तुमने बाबर की तरफ़, फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो सर में आये
अरुण कमल जी की कविता पर लिखने से पहले दो पंक्तियाँ विजय जी की । समय बीतता जाता है । कविता में जो शब्द बद्ध हुआ, वह बुलडोज़रों के लौट जाने के बाद भी बचा रहेगा ।
अरुण जी, मेरे दाँत सचमुच टूट गये थे । मैंने अगस्त 2018 में नक़ली जबड़े लगवाये थे । आपकी कविता मेरे नक़ली दाँतों को तोड़ने के लिये जुटी है । मैं ग़रीब आदमी हूँ । यह कविता लिखकर मेरी जान न निकालो । मेरा हमसफ़र मनोरोगी है । गिलहरियों को जंगल के पेड़ भोजन दे देंगे । लेकिन हमसफ़र को लोग पत्थर मारेंगे । मोदी देश के बेक़सूर नागरिकों के घर ढहाने को तुला है । यह बेलगाम घोड़ा नागरिकों को रौंदने निकला है । जंगली जानवरों की तरह इसके लंबे और नुकीले दाँत और नाखून नहीं हैं । किन्तु यह सत्ता का अह्मक किस तरफ़ निकल जायेगा इसका पता नहीं है । चींटियों के दाँत ही नहीं उन्हें कुचल देगा । सिरफिरे लोगों की बाहरी पहचान नहीं होती ।
अरुण देव और विजय कुमार के साहस,निर्भीकिता और प्रतिबद्धता को सलाम
श्रेष्ठ कवियों की श्रेष्ठ कविताएँ
शुक्रिया समालोचन
शुक्रिया विजय कुमार जी !
कविता सत्ता की स्थायी विपक्ष है।इतिहास गवाह है कि सत्ता अपने चरित्र में दमनकारी होती है चाहे विचारधारा कोई भी हो।निस्संदेह कविता अपने देश की अनिर्वाचित प्रतिनिधि होती है। बुलडोजर दमन का प्रतीक रहा है और आतताइयों के हाथों का औजार भी।ये सारी कविताएँ सत्ता से प्रतिवाद की कविताएँ हैं।बहुत ही सामयिक और कारगर । साधुवाद ।
विष्णु नागर
लोकतंत्र मशीन के रूप में तब्दील हो गया है । इसकी ज़द में आने वाले पत्थर, प्राणी और झोपड़ियाँ चकनाचूर कर दिये जाते हैं । प्रधानमंत्री कार्यालय सुबह 7 बजे खुल जाता है । स्वाभाविक रूप से वहाँ कार्यरत प्रशासनिक अधिकारी और प्र. का. का मंत्री अरुणोदय से पूर्व 4 बजे उठ जाते होंगे । यह भी हो सकता है कि ये रात भर बड़बड़ाते हुए सोते हों । ये वाक़िफ़ हो चुके हैं कि ख़ंजर उनका गला रेत देगा ।
इन सभी को दूरबीनें बाँट दी गयी थीं । जिसका सिरा प्रत्येक मंत्री के आवास की तरफ़ खुलता है । सभी मंत्री खिलौने हैं । अपने अपने कार्यालय में पहुँचने का आधिकारिक समय सुबह 10 बजे का है । मंत्रियों को आदेश है कि वे सवेरे 9 बजे कार्यालय में उपस्थित हो जायें । हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला के राज में हर मंत्री उगाही की रक़म को चौटाला की जेब में डाल आता । हरियाणा की मुख्य सड़कों पर लोगों की इमारतों पर ओमप्रकाश ने जबरन क़ब्ज़ा कर लिया । दिल्ली में सबसे बड़ा फ़ॉर्म हाउस चौटाला का है । वहाँ इसके गुंडे मुस्टंडे हो चुके हैं । क्या-क्या नहीं करते ।
इसलिये बुलडोज़र एक विचार है जो आँखों से ओझल रहता है । व्यक्तियों के शीश पददलित करता है । यह ख़याल सुंदर नहीं है । लेकिन ज़िद है कि ख़याल को सुंदर होना चाहिये । ज़िंदा रहने वाली आज़ाद क़ौमें बुलडोज़र को चुनौती देती हैं । बुलडोज़र एक मशीन है । ड्राइवर की सीट पर artificial intelligence का पुतला बैठा है । वह संवेदनहीन है । इसका धर्म व्यक्ति और उसके विचार को कुचलना है ।
कुसमय में श्रेष्ठता का आग्रह छोड़ कर विरोध दर्ज कराना ज्यादा प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है और समालोचन ने इस सांस्कृतिक प्रतिरोध की पहल की है,स्वागत है। दरिंदों को मालूम तो हो कि हम मुर्दा कौम नहीं हैं।
यदि युद्धोन्मादियो पर भौंकने को पैमाना न माना जाए तो अरुण कमल की कविता मुझे व्यक्तिगत तौर पर बेहद अर्थवान लगी।
यादवेन्द्र
लीलाधर मंडलोई
रमज़ान के मुक़द्दस महीने में नौ दिन नवरात्रों के आते हैं । मुसलमानों को कुचलने के लिये नवरात्रों के दिनों में हलाल मांस पर प्रतिबंध लगाये जाने की मुहिम चल पड़ी है । एक भोंपू भाजपा और वीएचपी के मुँह पर लगा दिया गया है । सबकी आवाज़ें एक जगह से कंट्रोल की जाती हैं । इक्का दुक्का उदाहरण हिन्दुओं के मिल जाते हैं जो रमज़ान में रोज़े रखते हैं । साल में दो बार रमज़ान और उन्हीं दिनों में नवरात्रों के अवसर पड़ते हैं । इस बार कर्नाटक में हिजाब और हलाल पहनने की जवाबदेही मुसलमानों पर डाल दी गयी है ।
बुलडोज़र: तुलसी के राम का स्मरण
यह नया निज़ाम आया है । पौधों पर गुल कम काँटे अधिक उग आये हैं । पश्चिमी छत्तीसगढ़ से दक्षिणी महाराष्ट्र के मध्य में स्थित आदिवासी इलाक़ों में कई नक्सलवादी किशोर और नौजवान अपने अपने झोलों में दास कैपिटल की किताब और पिस्टल लेकर घूमते हैं । उनके कई गुप्त इलाक़े हैं ।
परंतु अब नये दौर में मुसलमानों और हिंदुओं में फाँक डाल दी गयी है । ज़ईफ़ों तक को नहीं बख़्शा जा रहा । वे घरों में ख़ाली उदास दिन गुज़ारते हैं । अपने पोते और पोतियों को गोद में लेकर खिलाते हैं । हरियाणा में आदिवासी इलाक़ा नहीं है । किन्तु जनसत्ता अख़बार में पढ़ते थे कि वहाँ तरक़्क़ी के लिये लौह यंत्र लगे हुए होते थे । यह लौह यंत्र अब नेस्तनाबूद करने के काम आ रहे हैं । हे राम इन्हें सद्गुणों से भर दो ।
और तीखा और मर्मस्पर्शी और धंस कर अर्थ रचेंगे ये कवि।
बुलडोजर से आतंक पैदा करने वाले
उनकी ओर बुलडोजर नहीं देश की घृणा मुड़ चुकी है।हर शै अपने खात्मे का इंतज़ाम करती है।ज़हर अपना जुटाती है।इस सत्ता को बुलडोजर मिला है।
सभी रचनाकार इस समय हिंदी के ध्वजवाहक कवि है . बुलडोजर विषय पर समकालीन कविताओं का यह अद्भुत संकलन है. उम्मीद है यह क्रम जारी रहेगा,क्योंकि ऐसे कई विषय हैं जो बुलडोजर की समानता में खड़े हैं…!
हर कविता ओज से भरी हुई है. जिस साहस के साथ एक स्वर में सबने यहाँ अपना प्रतिरोध दर्ज किया है उसके लिए सभी कवियों का हृदय से आभार. अरुण भाई और विजय जी को भी इस नए और ज़रूरी प्रयास के लिए बहुत बहुत बधाई.
सभी ख्याति प्राप्त कवि हैं और अपनी कविताओं के लिए जाने जाते हैं कविताएँ तो अच्छी है, किन्तु मुझे लगता है कुछ देर से सामने आई. इन कविताओं और कवियो को उस समय लोगों के बीच होना चाहिए था जब योगी आदित्यनाथ बडे गर्व से बुलडोजर को ब्रांड बनाकर वोट मांग रहा था. अब क्या❓
जिस व्यक्ति को बुलडोजर चलाने के लिए ही वोट मिला है वो तो बेखोफ बुलडोजर चलाएगा ही न सर. योगी आदित्यनाथ को बुलडोजर पर वोट मांगने पर वोट नहीं मिलता तो इन कविताओं की सार्थकता बढ जाती. अब तो यह भविष्य में कभी क्ष उपयोग हो सकती है. वो भी कोई इन कविताओं को ग्राउंड जीरो तक ले जाने में सक्षम हो.
प्रत्येक कविता आशंका आतंक ,विरोध, आकुलता और व्याकुलता की अभिव्यक्ति का अलग अलग स्वर है । परन्तु एक साथ ये प्रतिरोध कोरस रच रहीं हैं।
सम्भवतः हर कविता उस बैचैनी को ही शब्दबद्ध कर रहीं है जो व्यक्ति-मन की अस्मिता है।
झूठ का पहाड़
जब ढहने लगे
क्रूरता के क़िले की दीवार
में सेंध लग जाए
रंगे सियार का
उतरने लगे रंग
तो सबसे बड़ा सहारा है
बुलडोजर
मित्रों की टिप्पणियों को पढ़ा। लता इन कविताओं को दो तरह के नुक्ते निगाह से समझने की कोशिश की जा रही है। एक दृष्टिकोण है जिससे निराला ने ‘देखा दुखी एक निजाम भाई’ कहा था। यह पीड़ित के दुख में बहुत ही शामिल हो जाने की दृष्टि है। ऐसे नजरिए वाले मित्र इन कविताओं को पसंद कर रहे हैं। दूसरी दृष्टि सत्ता, व्यवस्था और मर्यादा के पक्ष में दिखाई देती है। इस दृष्टि से देखने पर कविता में तात्कालिकता के दोष दिखाइए देने लगता है। दमन को उजागर करने वाले गालियां देते हुए प्रतीत होने लगते हैं। वी कविता को सौंदर्य के स्थापित प्रतिमानो से जांचने की कोशिश करते हैं। जबकि हालात के बदलने से प्रतिमान बदलते हैं। नए प्रतीक सामने आते हैं, क्योंकि जैसा अज्ञेय ने कहा पुराने पड़ गए प्रतीकों के देवता उनके भीतर से कूच कर जाते हैं। और हम पीड़ित मनुष्य के प्रति संवेदित होने की स्थिति में तभी आते हैं, जब हम अपने पुराने देवताओं के प्रति अपने भक्ति भाव से पिंड छुड़ा लेते हैं।
Vinod Shahi कविताओं को तात्कालिकता और सतहीपन का दोषी मानना सत्ता और व्यवस्था के साथ खड़ा होना नहीं है। यह तो वही बात हुई कि जो आपकी कविता को महान नहीं बताता वह दमन और शोषण के साथ खड़ा है। यह तो जबरदस्ती अपने आप को ऊंचे पेडस्टल पर खड़ा कर लेना है। यह रोज ब रोज एक अनुष्ठान हो चुका है। कविताओं में तात्कालिकता इस हद तक हावी हो गयी है कि अखबार और टी वी पर होने वाली बहसों की तरह वे भी अप्रसांगिक होती जा रही हैं। हम गोली मारने से लेकर क्रांति लाने तक की विचारहीन और नारे नुमा कविताएँ वर्षों से पढ़ रहे हैं और यही वह समय है जब कविता पब्लिक स्पेस से गायब होती गयी है। आप जिसके लिए कविताएँ लिख रहे हैं वही उसे कविता नहीं मानता। अब आप अपने भद्रलोक में क्रांति करते रहिए।
श्रीविलास सिंह
आप जो कह रहे हैं वह कोई नई बात नहीं है। कविता का भी एक अभिजात सौंदर्यशास्त्र होता है। उस मानसिकता से जुड़े हुए लोग हिंदी साहित्य के इतिहास तक से बहुत अर्से तक कबीर को बाहर करते रहे। कबीर के साहित्य के बारे में यह बात हमारे आचार्य आलोचक कहते ही रहे हैं कि हम इसे कविता ही नहीं मानते। लेकिन वह कविता हमारे देश के लोगों की आत्मा की आवाज बनकर अभी तक गूंज रही है। नए प्रश्न उठाने का साहस करने वाले लोग, मर्यादा और परंपरा वादी सोच वाले व्यक्तियों को, तात्कालिक एवं महत्वहीन लगते रहे हैं। हमें क्या चाहिए, एक अच्छी कविता जो समाज से छेड़छाड़ ना करें या एक जरूरी कविता, जो समाज को बदलने की हिम्मत दिखाएं?
Vinod Shahi कबीर का उदाहरण देने मात्र से तमाम तात्कालिक विषयों पर दैनिक टिप्पणियों जैसी कविताएँ श्रेष्ठ कविताएँ नहीं हो जाती। कबीर लोक में प्रतिष्ठित थे और उसके मुकाबले इस तरह की कविताओं ने कविता को ही लोक से दूर कर दिया है।
लोक में प्रतिष्ठा के आधार पर, समकाल पर कोई फतवा देने का के बजाय, उसे इतिहास पर छोड़ देना बेहतर है।
विषयगत तात्कालिकता की पहली जरूरत होती है अन्याय के विरुद्ध हस्तक्षेप ! हालांकि कविताएं कविता होने की हर शर्त पूरी करती हैं, फिर भी याद रखना जरूरी है कि प्रतिरोध की कविता में प्रयोजन ही प्रमुख होता है!
प्रसिद्ध कवियों की बुलडोजर पर प्रतीकात्मक रचनाएं पढ़ीं.यह
बुलडोजर उस निरंकुश सत्ता-व्यवस्था का औजार है जो सदियों से वर्णाश्रम व्यवस्था द्वारा संचालित-संगठित है.सबसे दुर्दम्य बुलडोजर तो वर्णाश्रमी व्यवस्था है जो हजारों वर्षों से भारतीय
उपमहाद्वीप की चेतना, कर्मठता, जीवन, भविष्य, रचनाशीलता
को रौंद रहा है.यह तात्कालिक ध्वंस उस अनवरत महाध्वंस की
तुलना में नगण्य है, जो अदृश्य तौर पर युद्धरत है, लेकिन हम इतने आदी हो चुके हैं कि यह सामान्य लगता है और सामने का
बुलडोजर उत्तेजित कर जाता है और कुछ लिख कर उत्तेजना
मुक्त हो जाते हैं.इससे वर्णाश्रम व्यवस्था को खरोंच भी नहीं
लगती, यह मुर्द्धन्य कविजनों को भी मालूम है.है कि नहीं मित्रो!
यह बहुत ही अच्छा उपक्रम है। मैन सभी कविताओंका मराठी में अनुवाद किया है। और आने दोस्तों में what’s app ग्रुप पर भेजी है। वहां भी काफी सराही गई है।
बुल्डोजर का दूसरा हिस्सा भी हासिल हुआ है। वे दभी कविताये मैं अनुवाद करूँगा। इन कविताओं में व्यक्त की गई भावना, पीड़ा, दर्द जड़ से ज्यादा लोगों तक पहुंचनी चाहिए।
यह बहुत ही अच्छा उपक्रम है। मैने सभी कविताओंका मराठी में अनुवाद किया है, और अपने दोस्तों में what’s app ग्रुप पर भेजी है। वहां भी काफी सराही गई है।
बुल्डोजर का दूसरा हिस्सा भी हासिल हुआ है। इन सभी कविताओं का में अनुवाद करूँगा। इन कविताओं में व्यक्त की गई भावना, पीड़ा, दर्द ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचनी चाहिए।
हर तस्वीर का दूसरा पहलू भी होता है। अधिकांश कविताएं एक पक्षीय है। बुलडोजर बना ही है तोड़ फोड़ करने के लिए। तोड़ना क्या है और क्यों, बिना इसपर विचार किए कविताओं के माध्यम से सही गलत का निर्णय नहीं किया जा सकता। सरकारी और गरीबों की जमीन को अवैध तरीके से कब्जा कर माफियाओं द्वारा बनाए गए महलों पर चले बुलडोजर पर तो कविताओं का प्रस्फुटन कभी नहीं हुआ, जो बहुत पहले हो जाना चाहिए था, तब शायद आज बुलडोजर पर कविताओं का संकलन निकालने की आवश्यकता नहीं होती। “समालोचन” से उम्मीद है कि अपने नाम की सार्थकता पर भी ध्यान दें। बुलडोजर सिर्फ मकानों पर नहीं, साहित्य में भी चलता है, वर्षों से जिसकी स्टेयरिंग पर नामी गिरामी ही काबिज हैं। वो कब और किसपर बुलडोजर चला दें उन्हेंखुद नहीं पता होता, जैसे आज के बुलडोजर को भी नहीं पता कि उसने किस किस के घर को नेस्तनाबूद कर दिया। साहित्य को भी इनके बुलडोजर से बचाने की जरूरत है।