वर्तमान के संघर्ष का युद्ध- क्षेत्र अतीत होता है. औपनिवेशिक शासकों ने भारतीय मिथकों को अपने हितों के सहयोगी इतिहास के रूप में सृजित किया. प्रतिक्रिया में मिथकों को समझने और व्यवस्थित करने की एक और कोशिश हुई जिसमें काशी प्रसाद जायसवाल, धर्मानंद कोसम्बी, दामोदर धर्मानंद कोसम्बी, वासुदेव शरण अग्रवाल, रामशरण शर्मा, रोमिला थापर आदि की बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका है. यह अंतर्दृष्टि खुद उस समय के लेखकों में थी. जयशंकर प्रसाद के नाटक मिथकों को साहित्य में बदलते हुए यही तो कर रहे थे.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने प्रसिद्ध निबन्ध ‘अशोक के फूल’ में कहते हैं – “प्रकृत यह है कि बहुत पुराने जमाने में आर्य लोगों को अनेक जातियों से निपटना पड़ा था. जो गर्वीली थीं, हार मानने को प्रस्तुत नहीं थीं, परवर्ती साहित्य में उनका स्मरण घृणा के साथ किया गया और जो सहज ही मित्र बन गईं, उनके प्रति अवज्ञा और उपेक्षा का भाव नहीं रहा. असुर, राक्षस, दानव और दैत्य पहली श्रेणी में तथा यक्ष, गंधर्व, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, वानर, भालू आदि दूसरी श्रेणी में आते हैं.”
मिथकों के पाठ-पुनर्पाठ की प्रक्रिया अभी थमी नहीं है अब इन्हें ‘वर्चस्ववादी अभिजात्य पाठ’ के बरक्स रखकर समझा जा रहा है. वह समय भी आएगा जब इनका एक ‘स्त्री-पाठ’ भी सामने होगा.
प्रमोद रंजन के संपादन में प्रकाशित-‘महिषासुर : मिथक और परम्पराएँ’ एक ऐसी कृति है जिसमें यात्रा, मिथक, संस्कृति का पठनीय और विचारणीय कोलाज़ मौजूद है. बेहद सरस, रोमांचक, और सोच- समझ को विस्तृत करने वाली यह कृति एक उपलब्धि की तरह है. इसका समीक्षा वरिष्ठ साहित्यकार कंवल भारती ने लिखी है.
क्या महिषासुर मिथक है?
कँवल भारती
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दलित साहित्य का एक शोध छात्र उस समय दुविधा में पड़ गया, जब दलित साहित्य में मिथकों का अध्याय उसे लिखना था. उसने अन्य अध्याय तो लिख लिए थे, पर मिथकों पर लिखने के लिए उसे कोई सामग्री नहीं मिल रही थी. उसने दलित साहित्य के कुछ बड़े लेखक को फोन करके जानकारी मांगी. जैसा कि उसने मुझे बताया, उसे कोई जानकारी नहीं मिली. अधिकांश ने कहा कि हम मिथक में विश्वास ही नहीं करते, तो कुछ ने दलित साहित्य में मिथकों पर काम होने से ही इनकार कर दिया. उसने मुझसे भी यही सवाल किया कि क्या दलित साहित्य में मिथकों पर काम नहीं हुआ है? मैंने कहा, ‘मिस्टर दलित साहित्य तो पैदा ही मिथकों से हुआ है. कौन कह रहा है कि मिथकों पर काम नहीं हुआ है.’ फिर मैंने उसे विस्तार से बताया.
मिथक पौराणिक कहानियों को कहते हैं. इन मिथकों पर सम्भवता: पहला बड़ा काम जोतिराव फुले ने किया था. उनकी किताब ‘गुलामगिरी’ मिथकों का ही तार्किक विवेचन है. उन्होंने हिन्दू अवतारों के मिथकों के आधार पर ही मूलनिवासियों का इतिहास लिखा. दलित चिन्तन की मान्यता है कि भले ही मिथक इतिहास नहीं हैं, परन्तु उनमें इतिहास जरूर है. मिथकों पर दूसरा बड़ा काम डा. आंबेडकर ने किया. उन्होंने मिथकों के अपने अध्ययन से ही आर्य-अनार्य-संघर्ष के इतिहास का विश्लेषण किया. वे पहले चिंतक थे, जिन्होंने दानव, राक्षस, दैत्य, किन्नर, नाग, यक्ष आदि असुर जातियों को मानव माना और उनके ऐतिहासिक संघर्ष को रेखांकित किया.
डा. आंबेडकर ने दो तरह के धर्मशास्त्र माने थे, एक मिथिकल यानी पौराणिक और दूसरे सिविल यानी मानवीय. पौराणिक धर्मशास्त्र वे हैं, जिनमें देवताओं और उनकी लीलाओं (कारनामों) के वर्णन में कल्पना का समावेश रहता है. उन्होंने अपनी पुस्तक ‘रिडिल्स इन हिन्दूइज्म’ में हिन्दू मिथिकल थियोलोजी का गहन तार्किक विश्लेषण किया है. पहली बार डा. आंबेडकर ने ही सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा और काली इन पांच देवियों के शौर्य और युद्ध पर सवाल खड़े किए हैं. उन्होंने महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि वैदिक देवियों ने कोई युद्ध क्यों नहीं लड़ा और पौराणिक देवियों ने ही क्यों युद्ध लड़ा? दूसरा प्रश्न उन्होंने यह उठाया कि ब्राह्मणों ने मात्र दुर्गा को ही वीरांगना क्यों घोषित किया, जिसने असुरों का संहार किया था? इन सवालों ने मिथकों के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया.
हाल में प्रमोद रंजन के सम्पादन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक ‘महिषासुर : मिथक व परम्पराएँ’ फारवर्ड प्रेस और दि मार्जिनाइज्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित हुई है, जिसमें दुर्गा और महिषासुर के मिथकों पर एक जीवंत इतिहास की यात्रा मिलती है. यद्यपि यह पुस्तक पांच खंडों में विभाजित है, जो यात्रा वृतांत, मिथक व परम्पराएँ, आन्दोलन किसका, किसके लिए, असुर और साहित्य नाम से हैं, जबकि छठा खंड परिशिष्ट है, जिसमे महिषासुर दिवस से सम्बन्धित तथ्य दिए गए हैं. किन्तु इस पुस्तक में सबसे महत्वपूर्ण खंड यात्रा वृतांत है, जिसमें प्रमोद रंजन, नवल किशोर कुमार और अनिल वर्गीज की यात्राओं के वर्णन हैं.
प्रमोद रंजन ने इतिहास और पुरातत्व की नजर से सुदूर इलाकों में महिषासुर की खोज की है. यह बहुत ही दिलचस्प और रोमांचित कर देने वाला वृतांत है. इस वृतांत पर चर्चा करने से पहले किताब की ‘भूमिका’ से एक उद्धरण देना जरूरी है, जो महिषासुर के प्रति आदिवासी समाज की आस्था को दर्शाता है. प्रमोद रंजन लिखते हैं—
‘कर्नाटक, छतीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, ओड़िसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और गुजरात से सैकड़ों जगहों पर महिषासुर दिवस मनाए जाने की सूचनाएं आ रही हैं. लेकिन पहली बार ऐसी सूचनाएं भी आ रही हैं कि आदिवासियों ने महिषासुर और रावण के अपमान के खिलाफ थाने में शिकायत देकर स्थानीय दुर्गा-पूजा समिति पर कार्रवाई की मांग की. ‘जय महिषासुर’ और ‘जय राजा रावण’ के नारों के साथ (लोग) सड़कों पर उतरे भी तथा (उन्होंने) थाने व स्थानीय अधिकारियों का घेराव भी किया. कुछ राज्यों में विभिन्न संगठनों के लोगों ने सामूहिक रूप से अधिकारियों को आवेदन देकर दुर्गा-पूजा बंद करने की मांग की है. इस तरह के आवेदन देने वालों में निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी शामिल हैं. दूसरी ओर देवी दुर्गा के अपमान को लेकर भी मुकदमे और पुलिस प्रताड़ना का सिलसिला जारी है. इस महीने (अक्टूबर 2017) दिल्ली, बुलंदशहर, जमशेदपुर, वर्धा, दादरा और नगरहवेली समेत कई जगहों पर दुर्गा के अपमान के मामले दर्ज किए गए हैं, जिनमें कुछ लोग गिरफ्तार भी हुए हैं. झारखंड में कुछ जगहों पर पुलिस ने महिषासुर दिवस को रोकने की कोशिश की है.’
महिषासुर के प्रति यह आस्था आकस्मिक नहीं है, वरन इसके पीछे उस इतिहास की परम्परा है, जो लिखी नहीं गई, और नष्ट कर दी गई. इसी परम्परा की खोज प्रमोद रंजन, नवल किशोर कुमार और अनिल वर्गीज की यात्राएँ करती हैं. पहले प्रमोद रंजन की यात्रा को देखते हैं. ‘महोबा में महिषासुर’ शीर्षक के अंतर्गत वे लिखते हैं, ‘हमारे पास दो तस्वीरें हैं. एक तस्वीर में पत्थर का एक ढांचा है, जो न मन्दिर की तरह दिखता है, न ही घर की तरह. वह पत्थर की अनगढ़ सिल्लियों से बनी छोटी सी झोंपड़ी जैसा कुछ है. दूसरी तस्वीर में किसी सड़क पर लगा एक साइनबोर्ड है, जिस पर लिखा है—‘भारत सरकार : केन्द्रीय संरक्षित स्मारक, भैंसासुर स्मारक मन्दिर, चौका तहसील, कुलपहाड़, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, लखनऊ मंडल, लखनऊ, उपमंडल महोबा, उत्तरप्रदेश.’
ये दोनों तस्वीरें उन्हें इंडिया टुडे के पीयूष बाबेले ने 16 अक्टूबर 2014 को भेजी थीं. थोडा अप्रासंगिक जरूर लगेगा, मुझे याद आता है, लखनऊ में भी एक इलाका भैंसाकुंड के नाम से है. किसी समय यह ग्वालों का क्षेत्र रहा था. अगर खोज की जाय, तो भैंसाकुण्ड का सम्बन्ध भी महिषासुर से निकल सकता है. खैर. प्रमोद रंजन के पास यही दो तस्वीरें थी, जिन्हें खोजते हुए वे अपने साथी राजन के साथ महोबा पहुँच गए. यह कोई लक्जरी यात्रा नहीं थी, बल्कि रेल, बस, टेम्पो, ऑटो रिक्शा और पैदल की यात्रा थी. दिल को लगी हो, सो राहुल सांकृत्यायन की तरह लुटिया-डोर उठाकर पैदल भी चला जा सकता है, ऐसे लोग ही पत्थरों में से हीरा खोज लाते हैं, वरना तो लक्जरी कारों और हवाई जहाजों से बुद्धिजीवी यात्रा करते ही रहते हैं, और उनके हाथ कुछ नहीं लगता है. भटकते हुए तस्वीरें दिखाते हुए वे कुलपहाड़ पहुँचते हैं, तो पता चलता है कि यहाँ ऐसा कोई मन्दिर नहीं है. लेकिन वे निराश नहीं हुए. लोगों ने उन्हें कुलपहाड़ से 70-80 किलोमीटर दूर चौका नामक स्थान पर भेज दिया. सम्भावना वहाँ भी नहीं थी. पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, एक ऑटो रिजर्ब किया और चौका के लिए रवाना हो गए. वे मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश करके हरपालपुर पहुँच गए. जब वे झांसी की ओर बढ़ने लगे, तो अचानक उन्हें हाइवे पर एक साइनबोर्ड दिखा, जिस पर वही लिखा था, जो उनके पास तस्वीर में था— ‘भैंसासुर स्मारक मन्दिर, चौका तहसील, कुलपहाड़, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण.’ वे लिखते हैं, ‘हम ख़ुशी से चीख पड़े. हम इतने प्रसन्न थे कि उस बोर्ड के साथ विक्ट्री साइन बनाते हुए एक-दूसरे की कई तस्वीरें उतार डालीं.’
साइन बोर्ड के साथ तस्वीरें लेने के बाद वे उस जगह गए, जहाँ भैंसासुर स्मारक मन्दिर था. वे लिखते हैं कि एक ऊँचे टीले पर स्थित पत्थरों का वह ढांचा किसी कोण से भी मन्दिर की तरह नहीं दिखता था. मुख्य ढांचा एक छोटे कमरे जैसा था, जो प्राचीन प्रतीत होता था. उसमें एक द्वार था, जिस पर पुरातत्व विभाग ने लोहे का गेट लगवा दिया है. जिस गाँव में यह मन्दिर स्थित है, वह कोइरी (कुशवाहा) बहुल गाँव है. उसके बाद अहिरवारों की संख्या है, कुछ घर ब्राह्मणों और राजपूतों के हैं. आसपास के गाँव में पाल जाति के लोग बहुसंख्यक हैं. लेकिन पूरा गाँव गरीबी में डूबा है. गाँव में एक सुसज्जित दुर्गा मन्दिर भी है, जिसमें लोग खूब पूजा करते हैं, परन्तु भैंसासुर मन्दिर में कोई पूजा नहीं करता है. [पृष्ठ 21]
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(भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित भैंसासुर स्मारक मंदिर ) |
महोबा में घूमते हुए उन्हें गोखर पहाड़ी पर गोरख मन्दिर मिला. पता चला कि यहाँ गोरखनाथ ने अपने शिष्यों के साथ कुछ वर्षों तक प्रवास किया था. वहां एक गोरखपंथी साधु से उन्हें पता चला कि जहाँ से पहाड़ी पर चढ़ने का रास्ता है, वहीँ शंकर मन्दिर के सामने वाली जमीन पर मिटटी के एक बड़े त्रिभुजाकार आधार के ऊपर मिटटी की पांच छोटी आकृतियाँ बनी हैं, वही महिषासुर मन्दिर है. उन्होंने साधु के साथ अपनी लम्बी बातचीत को दर्ज किया है. उसके अनुसार इस इलाके में महिषासुर की पूजा मुख्य रूप से यादव और पाल लोग करते हैं. वे गाय-भैंसों के लिए पूजा करते हैं. साधु बताता है कि महोबा में गाँव-गाँव में महिषासुर के स्थल हैं. राजस्थान के झांझ में हैं. वहां वे कारस देव के नाम से जाने जाते हैं. उसके अनुसार कारस देव महिषासुर के भाई थे. उसने यह भी बताया कि ‘मैकासुर के दो भाई भी थे. छोटे भाई का नाम उसे याद नहीं आ रहा था. पर बड़े भाई का नाम उसने अजय पार बताया. उसने कहा कि उनकी मड़ैया भी यहीं थोड़ी दूर पर है. महिषासुर, मैकासुर, कारस देव, करिया देव सब एक ही हैं. यहाँ इन्हें ग्वाल बाबा भी कहते हैं. [पृष्ठ 29]
गोरखपंथी साधु ने उन्हें ‘महोबा के आसपास के गांवों में मौजूद कुछ प्रमुख महिषासुर स्थलों का भी पता बताया, जिसके बारे में प्रमोद लिखते हैं, ‘वह एक ऐसी गुप्त सुरंग साबित हुई, जिसके भीतर से अनेक सुरंगें फूटती थीं और अंत में सभी प्राचीन काल की एक विशाल असुर-सभ्यता, उनकी उन्नत कृषि व पशुपालन तकनीक, प्रकृति-प्रेम, समतामूलक जीवन-मूल्य और अंत में एक भयानक हिंसा की ओर इशारा करते हुए बंद हो जाती थी.’ [पृष्ठ 30]
पहली सुरंग उन्हें महोबा में ही मिली, कीरत सागर के तट पर. लगभग तीन-चार सौ गज जमीन के चारों ओर बाउंड्रीवाल थी, जिसमें दो फुट का दरवाजा था. उसके ऊपर लिखा था—प्राचीन मैकासुर मन्दिर. पर उसमे न कोई भवन था और न कोई मूर्ति थी. केवल कोणस्तुपाकार की सात आकृतियाँ थीं. उन्हें एक ढाबे वाले ने बताया कि मैकासुर पशुओं को ठीक करते हैं. यहाँ लोग दूध और फूलगोभी चढ़ाते हैं. यहीं से उन्हें मोहारी गाँव में नवनिर्मित मैकासुर मन्दिर का पता चला. प्रमोद लिखते हैं कि जब वे मोहरी पहुंचे, तो देखा कि ‘वहां भी कोई मन्दिर नहीं था. स्थापत्य की दृष्टि से तो कतई नहीं. यहाँ सीमेंट का एक चबूतरा था, जिस पर चार खम्भों की छत थी. एक भैस या भैसा की मूर्ति थी, जिसके दाहिने ओर घोड़े की लगाम पकड़े हुए एक महिला की मूर्ति थी. ऊपर मोर और एक ताख था.’ [पृष्ठ 32]
यहाँ प्रमोद रंजन कुछ प्रश्न उठाते हैं—‘क्या इस भूमि पर वास करने वाले लोग अपने को सांस्कृतिक रूप से भैंसा (महिष) से जोड़ते थे? क्या भैंसा उनका गोत्र चिन्ह था? या फिर ‘महिष’ राजा, गणनायक का पर्याय है? लेकिन यह रमणी कौन है और मैकासुर के पास क्या कर रही है?’ वे यहाँ डीडी कौसम्बी को उद्धृत करते हैं—‘महोबा क्षेत्र में दुर्गा कहीं म्हसोबा (महिषासुर) का मर्दन (हत्या) करती दिखती है, तो कहीं वही उनकी संगिनी अथवा पत्नी के रूप में भी मौजूद है.’ इससे स्पष्ट है कि दुर्गा उसी अनार्य समुदाय की थी, जिसके महिषासुर थे. प्रमोद सवाल करते कि यह आर्यों का घोड़ा क्या है? क्या इस रमणी ने किसी प्रलोभन या दबाव के कारण महिषासुर की संगिनी बनने का स्वांग रचा था? [पृष्ठ 33]
वे आगे महत्वपूर्ण सूचना देते हैं— ‘मोहारी गाँव में अन्य मन्दिरों में ब्राह्मण पूजा करवाते हैं. लेकिन मैकासुर का पुजारी पाल जाति का ही हो सकता है. गड़रिया, कोइरी, अहीर और लोध समेत तमाम ओबीसी-दलित जातियां इनकी पूजा करती हैं. दलितों में अहिरवार इन्हें ज्यादा मानते हैं. धीरे-धीरे इन्हें शंकर का रूप दिया जा रहा है. गाँव में अलग-अलग जगहों पर जाकर हमने बुजुर्गों से पूछा कि इस इलाके में दुर्गा-पूजा कब आरम्भ हुई? सबका कमोबेश एक ही उत्तर था महज 15-16 साल पहले.’ [पृष्ठ 34]
महोबा से वे खजुराहो पहुंचे. वहां वे एक मन्दिर में सींग के मुकुट और भैंस के चेहरे वाली मूर्ति को देखकर चकित रह गए. उस मूर्ति के चार हाथ थे, ऊपर उठे बाएं हाथ में त्रिशूल था, तो दाएँ हाथ में कोई अन्य वस्तु, शायद कोई अस्त्र. सिर के ऊपर गोंडी धर्मचिन्ह जैसी कोई आकृति. पैरों की ओर झुका हुआ बायां हाथ कुछ देने की मुद्रा में सामने की ओर खुला हुआ व दाहिने हाथ में कमंडल जैसा कोई पात्र. वे लिखते हैं कि मन्दिर में इस तरह की लगभग एक दर्जन मूर्तियाँ थीं. वहां उन्हें खजुराहो की मूर्तिकला पर शोध करने वाली हिंदी लेखिका शरद सिंह ने उनको नंदी की मूर्तियाँ बताया. किन्तु प्रमोद का मत है कि ‘जिस बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में महिषासुर के मन्दिर हैं, जिनके भैंसासुर, मैकासुर, कारस देव, ग्वाल बाबा आदि अनेकों नाम हैं. और यहाँ से 70 किलोमीटर की दूरी पर चौका सोरा गाँव में पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित ‘भैंसासुर स्मारक मन्दिर’ है. ऐसे में इन मूर्तियों में भैंस का चेहरा होने की सम्भावना अधिक है या बैल होने की?’ प्रमोद मानते हैं कि ‘भारतीय मूर्ति व स्थापत्य कला पर बहुत कम काम हुआ है. गुणवत्तापूर्ण प्रामाणिक शोध तो नगण्य ही है. आने वाले समय में जब इस दिशा में बहुजन तबकों से आने वाले शोधार्थी सक्रिय होंगे, तो वे ब्राह्मणेत्तर परम्पराओं के आलोक में सही तथ्यों को पहिचानेंगे. [पृष्ठ 43-47]
अपनी यात्रा के निष्कर्ष में प्रमोद रंजन ने कुछ महत्वपूर्ण बातें कही हैं. वे कहते हैं, ‘बुंदेलखंड में महिषासुर से सम्बन्धित जो बहुजन-श्रमण परम्पराएँ हैं, उनमें और ब्राह्मण परम्पराओं में एक बड़ा अंतर यह दृष्टिगोचर हो रहा है कि उनके ईश्वर मन्दिरों में रहते हैं, उन्हें रहने के लिए भवन चाहिए. किन्तु बहुजन-श्रमण परम्परा में ईश्वर है ही नहीं, पुरखे हैं, जो इनके घरों, खेतों और खलिहानों में रहते हैं, प्राय: खुले में. ब्राह्मण परम्परा में ईश्वर मूर्तियों में निवास करते हैं. उन्हें मूर्तियों के माध्यम से मानव का रूप दिया जाता है. बहुजन-श्रमण परम्परा में मूर्तियाँ प्राय: नहीं होतीँ हैं, चबूतरे होते हैं, जो शायद आरम्भ में विशिष्ट स्थल को चिन्हित भर करने के लिए बनाये जाते होंगे. बहुजन-श्रमण परम्परा में उनके पुरखे उनके जीवन और कार्यों का हिस्सा हैं, वे उन पर आते हैं, उनसे बात करते हैं.’ [पृष्ठ 49]
यह ‘महिषासुर : मिथक व परम्पराएँ’ पुस्तक का एक छोटा सा परिचय है. इस सम्बन्ध में नवल किशोर कुमार के ‘छोटानागपुर के असुर’ और अनिल वर्गीज के लेख ‘राजस्थान से कर्नाटक वाया महाराष्ट्र—तलाश महिषासुर की’ विशेष प्रकाश डालते हैं. इसमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख गौरी लंकेश का ‘महिषासुर : एक पुनर्खोज’ भी पठनीय है.
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कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आम्बेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं. ‘दलित साहित्य की अवधारणा’ ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं. उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था.
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