विमलेश शर्मा
ईश्वर और भाषा मनुष्य के आविष्कार हैं,बाकि सभी क्रांतियाँ मानवता के विकास और ह्रास की विभिन्न स्थितियाँ हैं. हिन्दी में कुछ हस्ताक्षर अपनी शैली से एक चौंक पैदा करते हैं. इन्हीं में से एक लेखक हैं जो अपनी रचनाओं से नित नए कीर्तिमान खड़े करते हैं. वे स्वयं ही अपनी किसी नयी रचना इस तरह सामने लाकर रख देते हैं कि पुरानी कुछ फीकी सी नजर आने लगती है. काशीनाथ सिंह सही मायने में ऐसे ही रचनाकार हैं जो अपनी हर रचना से हमें आकर्षित करते हैं. वे रचना को शिल्प और भाषा की अद्भुत कारीगरी से ऐसे रचते हैं कि रचना पाठक को अपनी तरफ खींचती हुई सी प्रतीत होती है. प्रेमचंद ने कहा है “ श्रेष्ठ रचनाकार वह होता है जो अपने स्थापित गढ़ खुद तोड़कर हर रचना के माध्यम से नए कीर्तिमान खुद खड़े करें और श्रेष्ठ रचनाएँ वे होती है जो आपको बैचेन करें ,मानस में एक गहरी हलचल पैदा कर दें.” काशीनाथ की रचनाएँ इस संदर्भ में खरी उतरती हैं. आलोचक कहते रहे हैं कि काशीनाथ प्रेमचंद परम्परा के कथाकार हैं, यह संभवतः उनकी शैली के चलते ही कहा गया है, पर मैं जब काशी का अस्सी पढ़ती हूँ तो वहाँ वे इस वाद का प्रतिवाद करते नज़र आते हैं.
अपने उपन्यासों में वे कथानकों को बहुत ही सहजता से अपने आस–पास से उठाते हैं और उन्हें इस अनूठे तरीके से स्थापित करते हैं कि बरबस ही हर पात्र आकर्षण का केन्द्र बन जाता है. वस्तुतः काशीनाथ अपनी हर रचना से चौंकाते हैं और इसी चौंक और उत्सुकता का आकर्षण उनके उपन्यास ‘उपसंहार’ में भी कायम हैं. काव्य से मिथक का घनिष्ठ संबंध रहा है , यह बात वैश्विक साहित्य पर भी भारतीय साहित्य की ही तरह लागू होती है. मिथक का सर्वमान्य अर्थ है , ऐसा आख्यान जो प्राचीन काल में सत्य माना जाता था, जिसमें धार्मिक मान्यताओं,विश्वासों एवं प्रकृति के रहस्यों के साथ वीर पुरुषों और देवताओं का चित्रण था. इनमें किवंदती. वृत्त या पारंपरिक गाथा के रूप में कथा तत्त्व सदैव से उपस्थित रहा है.
इस संदर्भ में अगर कुछ मतों को देखें तो हेनरी जे. मरे के अनुसार- ‘मिथक किसी अनुमानित या विलक्षण घटना का बोधात्मक तथा नाटकीय स्थापना है.’ अन्सर्ट कैसिरार मिथक का दायरा बहुत व्यापक मानते हुए कहते हैं ,कि मानव जीवन का कोई भी क्रियाकलाप ऐसा नहीं जो मिथकीय ना हो. परिभाषाओं के साथ ही देखें तो हिन्दी साहित्य में पहले पहल मिथक शब्द का प्रयोग हजारीप्रसाद द्विवेदी( मिथक-मीमांसा) करते दिखते हैं और फिर अन्य आलोचक इसे अन्यान्य संज्ञाओं से अभिहित करते हैं. मिथक को लेकर अनेक मत, परिभाषाएँ और विचार मिलते हैं जिनके निष्कर्ष में अगर जाएं तो मिथक कोरी कल्पना या इतिहास ना होकर, उसके ब्याज से अपने समय का सामाजिक यथार्थ प्रस्तुतिकरण भी होता है. प्रसाद की कामायनी हो या कुँवर नारयण की वाजश्रवा ,नरेन्द्र कोहली का महासमर हो, सभी इतिहास या पौराणिक आख्यानों की नींव पर अपने समय को ही परिभाषित करने का प्रयास करते हैं.
काशीनाथ सिंह का ‘उपन्यास’ इस मिथक की भी सर्वथा नयी व्याख्या करता है, ठीक हरिऔध की ही तरह. यहाँ उदाहरण भले ही कविता के क्षेत्र का दिया जा रहा है पर चूँकि मिथकीय आधार एक ही है तो हरिऔध स्वतः ही मस्तिष्क में आकर खड़े हो जाते हैं. ‘प्रियप्रवास’ में हरिऔध ‘रख लिया उंगली पर श्याम ने, कहकर गोवर्धन धारण प्रसंग के साथ-साथ कृष्ण को मानवीय भूमि पर खड़ा करने का साहस करते हैं तो काशीनाथ सिंह अपनी रचना में उस कृष्ण का चित्रण करते हैं जो महाभारत युद्ध के भीषण नरसंहार से व्यथित हैं. आत्मावलोकन के इन क्षणों में यह पौराणिक चरित्र निहत्था है, वहाँ कोई ईश्वरीय कवच नहीं है, वरन् वहाँ वह सामान्य मानव हैं.
उपसंहार का अर्थ है अंतिम अंश, अंतिम कड़ी ; सारगर्भित किन्तु सब कुछ समेटता हुआ सा एक महत्वपूर्ण अंश, एक सिंहावलोकन! पहले-पहल नामकरण ही देंखें तो उपन्यास का यह नामकरण ऐतिहासिक और रचनात्मक दोनों ही दृष्टि से उपयुक्त है. नटवर नागर कृष्ण के जीवन पर यों तो अनेक रचनाएँ हिन्दी साहित्य में मिलती हैं परन्तु सभी में कृष्ण के लीलाकारी , संहारक और समाजसेवी रूप, योगीराज कृष्ण, महाभारत के कृष्ण आदि रूपों का वर्णन ही अधिक मिलता है. धार्मिक आख्यानों में महाभारत पश्चात् के कृष्ण को लगभग बिसरा दिया गया है. काशीनाथ सिंह ने उत्तर महाभारत की इस कथा के माध्यम से एक बार फिर कृष्ण को नायक के रूप में पर कुछ भिन्न तरीके से स्थापित करने का चुनौतीपूर्ण काम किया है और ठीक इसी उकेरन में काशी के अस्सी की ही तरह उनके प्रगतिशील विचार नज़र आने लगते हैं.
वस्तुतः यह रचना ईश्वर के जीवन का उपसंहार है और उस विराट के जीवन का अंत, एक कौतुक के रुप में हर किसी के मन को अपनी तरफ़ खींचता है. इसका एक अन्य कारण कृष्ण के जीवन का वैपरीत्य भी है. कृष्ण के जीवन का एक ध्रुव उल्लास और प्रेम से पगा हुआ है तो दूसरा नितांत अकेला, हताशा और अवसाद में डूबा हुआ, बिलकुल डूबी हुई द्वारिका सा ही, समाधिस्थ. यहाँ अनेक प्रश्न हैं, तर्क हैं, शंकाएँ हैं और समाधान भी. ये शंकाएँ कब व्यक्ति चरित्र से समष्टि चरित्र बन जाती हैं आप पहचान नहीं पाते औऱ यही कारण कि अपने आकर्षण में यह रचना सदैव कोरी बनी रहती है, हर बार एक नया पाठ माँगती है.
कृष्ण यहाँ नारद पांचरात्र में उल्लिखित जीव की दशा के अनुरूप ही सभी उपाधियों से मुक्त हैं… “सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम्.”(चै च मध्य 19/170) अपने फलागम में, उक्त साहित्यिक में वर्णित प्रश्न, संभावनाओं, शंकाओं का कृष्णभावनाभावित समाज के लिए भी विशेष अर्थ है और सामान्य सांसारिक मनुष्य के लिए भी. कथा के रूप मे यह साहित्यिक इंगित करता है कि यहाँ भागवत का कन्हैया जो नटखट, शेखचिल्ली दिलफेंक और स्वभाव से ही संतुष्ट (मथुरागमन पश्चात्) था, जिस की एक छवि पर हजारों गोपीजन प्राण न्यौछावर करने को तैयार रहते थे, वह अपने जीवन की सांध्यबेला में हताश और निस्तेज है. यह उपन्यास उस कृष्ण की कहानी है जो महाभारत युद्ध की विभिषिका के पश्चात् मानसिक यंत्रणा झेल रहे हैं.
इसमें पौराणिक भक्ति ग्रंथों की तरह नंदलाल, कृष्ण कन्हैया, वासुदेव या ईश्वर के सद्कार्यों का बखान नहीं है वरन् यह उस द्वारकाधीश कृष्ण का उत्तरार्ध है जिसे महाभारत युद्ध के पश्चात्, उस युद्ध की विभिषिका ने कहीं दूर नेपथ्य में धकेल दिया गया है. यहाँ वह नायक तो है पर घटनाक्रम का नियंत्रण अब उनके हाथ में नहीं. युद्ध के परिणाम तो हैं पर उनके मनोनुकूल नहीं. दरअसल, कृष्ण के हाथों बसी द्वारिका का कृष्ण के ही हाथों उजड़ना इस उपन्यास में एक कौतुहल की सृष्टि करता है. इस कौतुहल का कारण यही है कि कृष्ण के जीवन के अंतिम प्रहर का स्पष्ट शब्द चित्र अब तक किसी भी ग्रंथ में नहीं मिल पाया है. हालांकि यत्र-तत्र कुछ किवदंतियाँ हैं, लोक कथाएँ हैं, पर प्रामाणिक रूप से उल्लेख कहीं नहीं.
अगर कोई कृति उसके पाठ के प्रारम्भ में ही पाठक के मन में एक उत्सुकता और बैचेनी जगा दे तो उसकी सृजनात्मक विशिष्टता का आकलन सहज ही किया जा सकता है. कुछ ऐसी ही उत्सुकतापूर्ण शुरुआत है इस उपन्यास की. काशीनाथ ऐसे मंझे हुए रचनाकार है जो चाहकर भी बुरा तो क्या औसत भी नहीं लिख सकते. उपसंहार लोक एवं जनभाषा के चितेरे काशीनाथ की रचना यात्रा का नवीनतम एवं बेहद आकर्षक सांस्कृतिक मोड़ है. सच है, वे अपने मानक अपनी रचनाओं से स्वयं तय करते है और उपसंहार के माध्यम से हम एक सर्वथा नए काशीनाथ को पाते हैं. यहाँ वे कृष्ण के उस विराट रूप को योगी, प्रेमी, सखा, ईश्वर,विदूषक,योद्धा, खलनायक, असहाय पिता, व्याकुल द्वारकाधीश और एक कालदृष्टा जैसी विभिन्न भूमिकाओं में रचते हैं.
“ जैसे कर्म में फल छिपा रहता है,
वैसे ही जीवन में मृत्यु छिपी रहती है”
उपन्यास की इन पंक्तियों में ही सम्पूर्ण उपन्यास का सार समाहार है. महाभारत य़ुद्ध में कृष्ण धर्म युद्ध पर थे, नीति युद्ध पर थे पर उसकी परिणति इतनी वीभत्स होगी इस बात से वे ईश्वर होकर भी अनभिज्ञ थे. मननशील कृष्ण की उपस्थिति यहाँ कामायनी के मनु सी ही है. “एक पुरूष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह” ..नायक मनु की ही तरह वे मानव मूल्यों के ध्वंस अवशेषों पर चिंतन करते हुए दिखाए गए हैं. अपने चांचल्य से दूर सम्पूर्ण उपन्यास में वे धीर, स्थितप्रज्ञ और शांत दिखाए गए हैं मानो अपने व्यक्तित्व और घटनाओं के माध्यम से मनुष्यता को कोई शांतिपाठ पढ़ा रहे हों. वे बार–बार प्रश्न उठाते हैं कि युद्धों, हिंसा–प्रतिहिंसा और द्वेष जैसी भावनाओं का मूल कारण क्या है? क्यूँ हमारी प्रेरणाएँ, मान्यताएँ और जीवनमूल्य अर्धसत्य से संचालित होते हैं और क्यूँ इन मान्यताओँ के आगे ईश्वर भी ईश्वर नहीं रह पाता. उपसंहार का कथानक इन्हीं बिंदुओं से पौराणिक कथा को आधुनिक समस्याओँ से जोड़ता हुआ दिखाई देता है. य़ुद्ध ना तो विजेता के लिए शुभकारी होते हैं ना ही विजित के लिए, ना सत्ता के लिए ना ही जनता के लिए,कथानक के माध्यम से महाभारत पश्चात् की स्थितियाँ इसी समसामयिक पक्ष को उजागर करती हैं.
महाभारत युद्ध के अठारहवें दिन के पश्चात् से लेकर प्रभासतीर्थ में कृष्ण के मृत्यु (प्रकारान्तर से कृष्ण के ईश्वर रूप की मृत्यु) तक की यह कथा इतने चिंतन, मनन और आंतरिक उतार–चढ़ावों के साथ आगे बढ़ती है कि एक समूची सभ्यता का विमर्श उसके उत्कर्ष से लेकर अवसान तक पढ़ा जा सकता है. यहाँ यह सभ्यता द्वारिका की है जिसका निर्माण कृष्ण ने विश्वकर्मा जैसे शिल्पी से करवाया था. जो इन्द्रपुरी की ही तर्ज पर रची बसी गई थी और उसके स्थापत्य और भव्यता को देखकर, इन्द्र की अमरावती के टक्कर में ही कुछ लोग इसे द्वारकावती भी पुकारते थे.
इसी द्वारका में वे एक ऐसे गणराज्य की स्थापना करना चाहते थे, जहाँ परस्पर प्रतिस्पर्धा न हो, जहाँ असमानता न हो, जहाँ विवेक, स्नेह और परस्पर प्रीती पलती हो. जो राजा लोकधर्म को नहीं जानता हो वह अपने राज्य को भी नहीं जान सकता है. इसी लीक पर चलते हुए वे लोगों के बीच रहकर उनकी इच्छाओं, ज़रूरतों और आकांक्षाओं से भली भाँति परिचित हुए और उनके इसी लोकहितकारी और समाजसेवी रूप ने द्वारिका को वैभवशाली बनाया, प्रतिष्ठा दिलाई और स्वयं उन्हें ईश्वर की उपाधि दी परंतु आज वही द्वारका रूग्ण हो गई थी उसकी सभ्यता की बुनियाद धर्म, नीति और प्रेम के जिन प्रस्तरों पर रखी गई थी, जर्जर हो गई थी.
इतिहास हर पल स्वयं को दोहराता है और समझदारी इसी में होती है कि इतिहास के उस दोहराव से पूर्व मनुष्य इतिहास की उन विभीषिकाओं से कुछ सीख ले ले. यही संदर्भ रचना में समसामयिकता का बीजारोपण कर देते हैं. युद्ध के दुष्परिणाम सम्पूर्ण सृष्टि को बांझ बना देते हैं. महाभारत युद्ध के बाद भी यही हुआ. कृष्ण की अक्षौहिणी सेना समाप्त प्रायः हो गई और जो बचे वे भी अंग-भंग. द्वारिका में धर्म और अर्थ का क्षय हुआ. धरती, वनस्पति, सरोवरों का क्षय हुआ और मानवता अंधेरी कंदराओं में छिप कर सांसे लेने लगी. कौरव पांडव युद्ध के पश्चात् जो स्थितियां उपजी वे वर्तमान पीढ़ी के समक्ष भी उत्पन्न हो सकती हैं.
जब युद्ध का प्रतिफल क्षोभ और हताशा ही होता है, फिर उसे लड़ने वाला स्वयं ईश्वर ही क्यों न हो तो फिर मनुष्य की तो बिसात ही क्या. उपन्यास में बार–बार इस तथ्य को उठाया जाता है और उदाहरण दिया जाता है कृष्ण का, कि देखो य़ुद्ध ईश्वर को भी पुनर्विचार के लिए बाध्य करता है . साम्राज्य लिप्सा की भावना और अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए लड़े गए युद्ध का मूल्य एक पूरी की पूरी सभ्यता को चुकाना पड़ता है . इस ऐतिहासिक युद्ध में नीति की मर्यादाएँ पग-पग पर टूटी, विवेक हारा और धर्म बार-बार अधर्म से छला गया. उसी की परिणति है द्वारिका में पसरा यह श्मशान सा सन्नाटा!
यहाँ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब कृष्ण ईश्वर है, युद्ध के संचालनकर्ता है तो और यह सारा प्रपंच धर्म की स्थापना के लिए ही है तो फिर ऐसी स्थितियाँ उपजाने का क्या प्रयोजन जिससे ईश्वर को ही हताशा हाथ लगे. इसी प्रश्न का उत्तर काशीनाथ देते हुए कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर छिपा होता है और ईश्वर मनुष्य का ही परिष्कृत रूप है. इसीलिए ईश्वर भी भूल कर सकता है और उस भूल के पश्चाताप पर व्यथित भी हो सकता है क्योकि आखिरकार वह भी तो मनुष्य ही है, अंश का ही अंशी रूप .
कृष्ण अपने ईश्वरत्व पर कहते हैं, “प्रत्येक मनुष्य कभी न कभी कुछ पलों या क्षणों के लिए ही सही किसी न किसी का ईश्वर हुआ करता है. ऐसा एक नहीं कई बार हो सकता है. आखिर ईश्वर है क्या ? मनुष्य के श्रेष्ठत्व का प्रकाश ही तो और यह प्रकाश सब के भीतर होता है लेकिन फूटता तभी है जब किसी को कातर बेबस, निरूपाय और प्रताड़ित देखता है. मैं भी था ईश्वर, हाँ मेरी अवधि किन्हीं कारणों से थोड़ी लम्बी खिंच गई रही होगी.”(उपसंहार-पृ.50) युद्ध के पश्चात् पराजित पक्ष की निराशा, कुंठा और हताशा तो स्वाभाविक होती है परन्तु विजेता का विश्वास और मान्यताएँ भी ध्वस्त हो सकती हैं, कृष्ण का चिंतन इसी तथ्य को उजागर करता है. कृष्ण वस्तुतः प्रत्येक मनुष्य में छिपे शुभत्व का प्रतीक है इसीलिए वे मानवता की इस भयावह क्षति के पश्चात् उपजे इस वातावरण से क्षुब्ध हैं. अनीति पर लड़े गए इस युद्ध में ऐसे-ऐसे योद्धा जो आर्यावर्त के गौरव थे , ऐसे-ऐसे महारथी जो सम्पूर्ण पृथ्वी या तारामंडल को कदम्ब के फूल की तरह अपने तीर की नोक पर उठाकर नचा सकते थे, वे निरर्थक मारे गए और वे जिस कुटिल रणनीति से मारे गए, वह युद्ध नहीं था वरन् हत्या थी. वह एक ऐसा नरसंहार था जिसके पीछे कोई तर्क नहीं था. दोनों ही पक्ष अपने स्वार्थों, अहंजन्य मानसिकता, ईर्ष्या, द्वेष को त्यागकर इस महायुद्ध को रोक सकते थे परन्तु ऐसा नहीं हुआ.
कृष्ण युद्ध पूर्व दुविधाग्रस्त थे, भयावह अंत के पश्चात् की स्थिति से किंचित् परिचित भी थे पर उन्हें तो धर्म की स्थापना करनी थी. वस्तुतः कृष्ण दोनों ही तरफ से युद्धरत थे. एक तरफ वे स्वयं थे, बिना अस्त्र– शस्त्र के तो दूसरी ओर थी उनकी एक अक्षौहिणी सेना. वे किसी भी पक्ष को असंतुष्ट नहीं रखना चाह रहे थे. वे जितने धर्म के साथ थे उतने ही अधर्म और अन्याय के साथ. एक उनके सिरहाने था तो एक पैताने. यह सब होते हुए भी कृष्ण की पीड़ा और उनकी मनःस्थिति को कृष्ण स्वयं ही समझ सकते थे इसीलिए काशीनाथ जी कहते हैं,“इस बात को उनसे ज्यादा सही तरीके से कौन समझ सकता था कि मार भी वही रहे हैं और मर भी वही रहे हैं.”(वही-पृ.41)
काशीनाथ ‘उपसंहार’ के माध्यम से अनेक शाश्वत और प्रासंगिक तथ्यों को उठाते हैं-धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर और कृष्ण के माध्यम से वे बताते है कि जब राजा अधर्म करता है तो उसकी प्रजा और भी अधिक अधर्म की ओर प्रवृत होने लगती है. इसीलिए दुविधाग्रस्त कृष्ण एक स्थान पर इतने नरसंहार के बावजूद भी युद्ध को सही ठहराते हुए नजर आते हैं,“क्योंकि राजा अंधा था, बेटा– जो भावी नरेश होने का सपना पाले था– बहरा था और मंत्रिपरिषद् गूंगी थी, क्योंकि उसके पास जीभ थी तो खड्ग और गदा की. ऐसा राज्य तो जरासंध के मगध से भी बुरा होता. नहीं रोका,ठीक किया.”(वही, पृ.-53) इसीलिए कृष्ण द्वारिकावासियों के पथभ्रष्ट होने, अपने पुत्रों के व्यभिचारी होने और सभी के असंतोष का कारण खुद को ही मानते हैं साथ ही बलराम के माध्यम से लेखक युधिष्ठर पर व्यंग्य भी कसते हैं कि जब प्रजा को सबसे अधिक अपने राजा की या कुशल प्रशासन की आवश्यकता होती है तभी वह भाग खड़ा होता है.
वह राजा ही क्या जो अपने कर्तव्यों से चुक जाए. युधिष्ठर का यही आचरण उसकी जनता के कष्टों को और अधिक बढ़ा देता है. ये घटनाएं वर्तमान राजनीति के संदर्भ में पूर्णतः सटीक हैं. यह व्यंग्य है उन सत्तासीन युधिष्ठरों और दुर्योधनों पर जिनमें न तो विपरीत स्थितियों से जूझने का पौरूष है और न ही राष्ट्र के हित–अहित का विवेक . वे पौरूषहीन क्लीव तथा विवेकहीन राजा का आचरण कर एक ऐसी अंधी संस्कृति का नेतृत्व कर रहे हैं जो समूची मानव सभ्यता को अन्धी खोह में धकेल कर दिशाहीन बना देगी. इतिहा गवाह है कि ऐसी शोषक व्यवस्था ने निजी लाभ के लिए समय-समय पर नागरिक को अस्तित्वहीन बना दिया है और उसकी सभी आस्थाओं, मूल्य,मर्यादाओं को नष्ट कर उसे निरर्थक हताश और कुण्ठित मन से जीने को विवश कर दिया है.
महाभारत युद्ध के समय कृष्ण ने तथाकथित धर्म का साथ देने के लिए अनेक बार छल किए थे. धर्म की इमारत खड़ी करने के लिए उन्होंने उसमें अधर्म की नींव रखी थी. अश्वत्थामा, दुर्योधन, भीष्म, द्रोण, कर्ण सभी के साथ जो युद्ध रणभूमि में लड़ा गया था वह न्यायपरक नहीं था वरन् कृष्ण ने उन्होंने छल और कूट बुद्धि से परास्त किया. बलराम प्रस्तुत कृति में उनके ईश्वरत्व पर आक्षेप करते हुए कहते है कि “इस युद्ध के बाद इतना ज़रूर हुआ कि जो पहले दबे स्वर में तुम्हें ‘अवतार’ या ‘ईश्वर’ कहते थे वे खुल कर स्तुतिगान करने लगे.…तुम्हें भी अच्छा लगता था और मुझे भी खुशी होती थी चलो मेरा छोटा भाई ईश्वर हैं, मैं ईश्वर का बड़ा भाई हूँ. लेकिन एक प्रश्न मेरे मन में बराबर उठता है कि ईश्वर का काम केवल संहार करना है? निरर्थक, निरूद्देश्य, निःस्वार्थ, जनसंहार ?”(वही, पृ.64) उपसंहार में ईश्वर कृष्ण मनुष्यता के धरातल पर उतर आते हैं परन्तु साथ ही वे अपने ऊपर लगे आक्षेपों का भी प्रत्युतर देकर सिद्ध करते है कि उनका ईश्वर बनना क्यों आवश्यक था.
जब चारों ओर पशुत्व हावी हो जाए तो मनुष्य को कुछ ऊपर बढ़कर ईश्वर बनना पड़ता है. वे वर्ण व्यवस्था तथा स्त्री स्वातंत्र्य जैसे विषयों पर प्रश्न उठाकर अपने ईश्वरत्व पर दंभ नहीं वरन् गर्व करते हैं. वे कहते हैं कि “क्या मनुष्य का मनुष्य होना ही काफी नहीं है आखिर क्यूं उसे वर्णों में बांटा गया है. क्यों उसकी पहचान को क्षत्रिय, वैश्य, ब्राहम्ण या शूद्र की सीमाओं में बांध दिया जाता है.”(वही,पृ.66) वे कहते हैं कि जिसे छल या अधर्म कहा जा रहा है वे रणनीति के ही अंग है. एक कुशल योद्धा जीतने के लिए ही युद्ध लड़ता है, मैने भी यही किया “ और रही बात ईश्वर की. तो मैं ईश्वर कहो या वासुदेव होना चाहता था. क्योंकि उसकी कोई जाति नहीं होती वर्ण नहीं होता, गोत्र नहीं होता. अकेला वही है जो वर्णाश्रमों के बंधनों से मुक्त हैं. मैं ईश्वर होना चाहता था क्योंकि यूँ अलग–अलग बँटना मेरा स्वभाव नहीं.”(वही-पृ.67) पर इस ईश्वरत्व प्राप्त करने में उन्हें बहुत कुछ खोना पड़ा है. वे यमुना की लहरों की हिलोर और उन हिलोरों की कूकों को अब भी अवचेतन में सुनते हैं. राधा की स्मृतियाँ अब भी उन्हें भाव विह्वल कर देती है. वे अपनी इस यात्रा को जो उन्होंने ब्रज छोड़ने के बाद तय की थी और जिसमें वे निरन्तर उलझते गए थे; कई–कई जन्मों के रूप में देखते हैं. राधा के समर्पण को याद करते हुएवे कह उठते हैं, “देखो तो ये कब की बातें हैं? जैसे पिछले कई जन्मों की . कितना आसान है यह कहना कि आत्मा वही रहती है सिर्फ देह बदलती है.
पुराने वस्त्र की तरह. यहाँ आत्मा भी बदलती गई और देह भी .”(वही,पृ.76) वंशी से पांचजन्य तक का सफर, राधा के कुंजों से कुरूक्षेत्र के रणनीतिकार का सफर निःसन्देह उन्हें शिखर तक पहुंचाने वाला था. परन्तु शिखर के पश्चात् सिर्फ और सिर्फ ढलान बचती है और लेखक ने इस स्थिति को कृष्ण के जीवन के माध्यम से बड़े ही मार्मिक रूप से चित्रित किया है. प्रेमयोग की प्रथम दीक्षागुरू, उनकी केलि सखि कनुप्रिया से विलग होकर कृष्ण वस्तुतः अस्मिताहीन हो गए हैं.
वे शिथिल हैं, असहाय है और वीभत्स वर्तमान में जीते हुए सुखद स्मृतियों को फ्लैश बैक के रूप में देख रहे हैं. वे आज सफल माने जा रहे हैं परन्तु ‘चरम सफलता में निहित है एकाकीपन का अभिशाप’ और इस अभिशाप के चलते अपने अंतिम वर्षों में वे उत्तरोतर एकाकी होते गए. अपने ईश्वरत्व के केंचुल को उतारकर वे एक ऐसे रूप में वे नजर आते है जहां मनुष्यत्व हावी है. वे सामान्य मनुष्य की ही भांति असहाय हैं, भयग्रस्त हैं. मनुज रूप में ही वे दुर्वासा के क्रोधित रूप से भयभीत होते हैं. उनके द्वारका आने पर वे उनके आदेशों की पालना में कोई कसर नहीं छोड़ते कि कहीं उन्हें उनके कोप का सामना नहीं करना पड़े. उन्हीं के आदेशों की पालना करते हुए वे रूकमणी के साथ निर्वस्त्र होकर पूरी द्वारिका में घूमते भी हैं. उनकी पत्नी रूकमणी उन्हीं की आँखों के सामने छकड़े में बैल की तरह जोती जाती है और कृष्ण असहाय, निरूपाय कभी अपराधी की तरह दौड़ते हैं, कभी हांफते है तो कभी चिंतित हो चलने लगते थे .
यहाँ स्त्री विमर्श सर उठाए खड़ा नज़र आता है तो वहीं कृष्ण पौरूषहीन. दुर्वासा मुनि के आदेश से कृष्ण पूरे शरीर पर खीर लगाते है, खड़े रहने के कारण तलवों पर खीर नहीं लग पाती ओर उसी तलवे में तीर लगने से कृष्ण की मृत्यु होती है. वस्तुतः ये घटनाएँ ईश्वर में छिपे मानव की विवशता को दर्शाती हैं. काशीनाथ ने उपसंहार में दुर्वासा को शांत रूप में दर्शा कर शाप दिलवाया है यह सम्भवतः उनकी कल्पना है. श्रीकृष्ण का अंतिम समय जिस पर इतिहास खामोश है, इतिहास, पुराण, महाभारत, श्रुतियों में जिसका जिक्र भर है, काशीनाथ उस प्रसंग को उस ईश्वर के अंतिम दिनों के जीवन को, उत्तर महाभारत की कथा नाम देकर ‘उपसंहार’ की रचना करते है. इतिहास को लिखना वो भी उस इतिहास को जो कि जनता के हृदय में आज भी पूर्ण आस्था और विश्वास के साथ जीता जागता बैठा है, निःसन्देह चुनौतीपूर्ण है.
‘उपसंहार’ वर्तमान समय से साम्य रखता है. मनुष्य को पग–पग पर सावचेत करता है. नियति के कर्मचक्र के आगे मनुष्य बेबस है पर यह बताता है कि युद्ध से बचने के अनेक कारण हो सकते हैं. आवश्यकता होती है बस निजी स्वार्थों को भूलकर समष्टि स्तर पर सोचने की. उपसंहार युद्ध पश्चात् शांति, फिर पुनः युद्ध और उसकी परिणति स्वरूप बदलते मूल्यों के उत्थान–पतन की कहानी है. यह उस वैराग्य की कहानी है जो महाभारत में विजेता घोषित होने के पश्चात् कृष्ण धारण करते हैं. यह क्रोध, ईर्ष्या और मानवीय मनोभावों के अतिरेक की कहानी हैं जहां भावावेश में व्यक्ति शापों के बाण चलाता है.
‘उपसंहार’ में कृष्ण आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अवतरित हुए है. वे प्रतिशोध से परे हैं, अरथी है, मित्रपक्ष हो या शत्रुपक्ष सभी का उत्तरदायित्व स्वयं ओढ कर चलते हैं. वे ईश्वर हो या न हो, परात्पर ब्रहम हो या ना हों परन्तु एक नीतिज्ञ, चिंतक, इतिहास–पुरूष अवश्य हैं जो रूग्ण मानवता को देखकर विचलित हो उठते है. ‘भागवत’ के कृष्ण दिग्विजयी है, सर्वशक्तिमान है परन्तु ‘उपसंहार’ के कृष्ण की अपनी विवशताएँ हैं. उनका चिंतनशील, शांत और परिस्थितयों से जूझता हुआ मानवीय व्यक्त्वि ‘उपसंहार’ की विशेषता है.
काशीनाथ सिंह भाषा के नये मुहावरे गढ़ते हुए इस उपन्यास में नजर आते हैं. ‘काशी का अस्सी’, ‘रेहन पर रग्घू’ और ‘महुआचरित’ तीनों ही उपन्यास भाषा शिल्प में बिल्कुल अलग हैं और इन सबसे अलग है ‘उपसंहार’ का शिल्प और उसकी भाषा का लालित्य. पौराणिक घटनाओं पर आधृत होने के कारण उनकी भाषा सांस्कृतिक आस्वाद से गुजरती है. सामासिक शब्दावली कथा को संक्षिप्तता प्रदान कर उसके विस्तृत अर्थ को उजागर करने का सामर्थ्य प्रदान करती है. सरल और सहज भावबोध युक्त भाषा इस उपन्यास की विशेषता है.
कहीं कहीं लेखक फुटपाथ, अव्वल जैसे शब्दों का प्रयोग कर अपनी मौजूदा उपस्थिति दर्ज कराने का प्रयास भी करता है यथा –‘दोनों तरफ फुटपाथों पर फूलों पत्तियों के गमले है और महल के परिसर में गाने बजाने और नाचने के स्वर गूँज रहे है.’ मुक्त छंद का प्रयोग उपसंहार को सरसता प्रदान करता है. तो कहीं परिनिष्ठित भाषा रूप, भावना प्रधान प्रसंगों को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त हुए हैं. यहीं नही पात्रों के अनुरूप भाषा का प्रयोग उनके चरित्रों का रेखाचित्र बनाने में भी सहायक हुए हैं. पग पग पर समोवेशित काव्य पंक्तियां सम्पूर्ण उपन्यास का मूलाधार है. साथ ही इसका काव्य पक्ष इस उपन्यास को संक्षिप्तता प्रदान करने में भी सहायक हुआ है. अन्यथा ‘उपसंहार’ भी ‘महासमर’ की भांति विस्तृत रूप में हमारे समक्ष होता. इस उपन्यास का अनूठा शिल्प और गतिशील तथा प्रवाहमयी भाषा प्रभावात्मकता पैदा करती है. तरल संवेदना , बिम्बात्मकता और सहज ग्राह्यता इस उपन्यास की अनन्य विशेषताएँ है. सूत्र वाक्य बीच–बीच में अमित अर्थ को समेटते हुए भाषायी व्यंजना को सुदृढ़ आधार भी प्रदान करते हैं.
निःसंदेह रस इस काव्य की आत्मा है. कोई भी रचना रसत्व से विहीन नहीं होती. इस संदर्भ में उपसंहार भी रसपूर्ण रचना है, जिसमें शांत रस ही अंगी रस बनकर उभरकर आया है. महाभारत युद्ध के पश्चात कृष्ण चिंतित हैं, मननशील है, प्रकारान्तर से उनमें एक वैराग्य उदित हो गया है इसीलिए यहां शांत रस प्रधान रस बन कर उभरा है. परन्तु इसी के साथ अद्भुत और भक्ति रस अन्य गौण रस है जिनका इस कृति में वर्णन है. राधा और कृष्ण के संवादों में श्रृंगार रस उभर कर आया है. मुक्तछंद की अपनी एक लय होती है और उपन्यास में इनका प्रयोग एकरसता से बचने और प्रवाहात्मकता उत्पन्न करने के लिए किया गया है जिसमें काशीनाथ पूर्ण रूपेण सफल हुए है. प्रतीकात्मक शैली कृति को आधुनिकता से जोड़ती है.
‘उपसंहार’ में इतिहास के माध्यम से आधुनिक युग की अनेक दुष्प्रवृतियों की ओर संकेत किया गया है. आत्मघाती अंधता, प्रतिशोघ की भावना, अवसरवाद और राजनीतिक ह्रास आधुनिक युग की प्रमुख समस्याऐं हैं. जिन पर लेखक ने कभी व्यंग्य और युद्ध के माध्यम से तो कहीं सीधे–सीधे कहकर ध्यान खींचने की चेष्टा की है. अगर हम यह कहें कि ‘उपसंहार’ में आधुनिक मानव की समस्याओं को प्रस्तुत करने के लिए ही उत्तर महाभारत की कथा को आधार बनाया गया है तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. वस्तुतः लेखक क्रान्तिदर्शी होता है, अतीत और अनागत का ज्ञाता होता है, अतीत के माध्यम से वर्तमान को सचेत करने का काम भी वह अपने लेखन से करता है अतः उसका सभी युगों में महत्व होता है. युद्धों की समस्या वर्ण भेद, शासन संचालन की समस्या, तटस्थता का अभाव आदि ऐसी समस्याएँ हैं जिनसे सारा विश्व अभिशप्त हैं और आधुनिक मनुष्य संशयग्रस्त और चिंताग्रस्त है. अमानुषिक और शक्तिशाली विज्ञान ने मानव के हाथ में अनेकानेक अस्त्र और शस्त्र तो थमा दिए है परन्तु उससे विवेक और सहिष्णुता छीन ली है. परिणामस्वरूप आज समूची मानवता को खतरा बना हुआ है.
कृष्ण के जीवन के अंतिम 36 वर्षों की यह कथा ईश्वर को मनुष्य सिद्ध करने का सार्थक प्रयास है. ईश्वर या प्रभु किसी अन्य लोक में नहीं विराजमान है वरन् उसका दर्शन यहीं किया जा सकता है, यदि सृष्टि चलायमान रहें, उसके सभी उपादान नियत गति करते रहें, नित्य नूतन सृजन होता रहे, मर्यादित आचरण होता रहे, साहस, दया, माया, ममता और प्रेम सर्वत्र चलता रहे तो यही साक्षात प्रभु का जीवन है इसके विपरीत अगर मूल्यों का ह्रास हो, मान्यताएँ खंडित हो और सद्प्रवत्तियों का लोप है तो यही उसका मरण है. ऐतिहासिक ध्वंसों पर नूतन निर्माण का संदेश उपसंहार देता है. लेखक का दृष्टिकोण है कि नव निर्माण अतीत की विसंगतियों को दूर करते हुए होना चाहिए. समग्र रूप में उपसंहार का उद्देश्य उन पौराणिक घटनाओं को उठाना है जिनकी अनदेखी पुरातन धार्मिक ग्रंथों में की गई है.
कृष्ण के जीवन के अंतिम वर्ष, उस ईश्वर के जीवन के अंतिम वर्ष जिसके इशारों पर सम्पूर्ण पृथ्वी थिरकती है,जिसका रूप पूर्णिमा के चांद जैसा है और मुस्कान इन्द्रधनुष जैसी, के जीवन के अंतिम वर्षों की हताशा और अकेलेपन का चित्रण हर सह्रदय को उद्वेलित कर देता है.
उपसंहार बताता है कि प्रेम की शाश्वत महिमा पूर्ण सत्य है जिसके अभाव में मनुष्य की अस्मिता का लोप हो जाता है. उक्त संदर्भों में ‘उपसंहार’ मानव मूल्यों को बचाए रखने की एक सार्थक पहल है और ईश्वर की मनुज यात्रा का एक सटीक आख्यान___ विमलेश शर्मा
अजमेर, राजस्थान
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