(युवा लेखक किशोर चौधरी के साथ अपनी बाड़मेर यात्रा के दौरान एक अनौपचारिक संवाद)
किशोर चौधरी – यह मेरे लिए खुशी की बात है कि आज आपसे रूबरू संवाद का यह सुखद संयोग बना है और मेरे मन में एक सहज-सी जिज्ञासा है कि रेगिस्तान की धरती पर हम उन दो नन्हें पांवों की याद करें कि वे स्मृतियां आज भी उनके साथ किस तरह कायम हैं, लोग जिन्हें नंद भारद्वाज के रूप में जानते हैं?
नंद भारद्वाज – किशोर, सबसे पहले तो आपका हार्दिक आभार कि आपके माध्यम से अपने ही क्षेत्र के लोगों से बात करने का यह सुखद संयोग बन पाया है. आपके इस आत्मीय सवाल के उत्तर में इतना ही कह सकता हूं कि हर व्यक्ति के अपनी जन्मभूमि और अपने परिवेश से जुड़े ऐसे कितने ही जीवन-अनुभव होते हैं, जो तमाम उम्र उसकी स्मृतियों का अटूट हिस्सा बने रहते हैं. वह चाहे जिन्दगी में किसी मुकाम पर पहुंच जाए, जहां वह पैदा हुआ, जिस मिट्टी से उसने सुगंध और स्वभाव ग्रहण किया, वह कभी उससे छूटता नहीं. वे अनुभव उससे जुड़े रहते हैं और उस घर-परिवार और लोक के संस्कार इस कदर गहरे पैठ जाते हैं कि उन्हें अलग करके पहचान पाना भी मुश्किल है कि कहां इनमें अन्य जगह के संस्कार शामिल हो गये हैं और कहां उसके पुराने संस्कार अब भी अपनी जगह कायम हैं.
मैं जब आकाशवाणी की सेवा में आया था, सन् 1975 में, उससे पहले मैं भी इसी क्षेत्र में रहता था. इसी बाड़मेर नगर में रहते हुए मैंने बी ए तक की शिक्षा ग्रहण की. उससे पहले अपने गांव माडपुरा-कवास में रहा, वहां से आठवें दर्जे तक की शिक्षा पाई. वहां जिस तरह की कठिनाइयां और सीमित सुविधाएं थीं, उनके बीच विकसित होने के जैसे अवसर थे, उन्हीं की मदद से विकसित हुआ और मैं ही नहीं इस क्षेत्र में रहने वाला हर विद्यार्थी इन्हीं सीमित सुविधाओं के बीच बड़ा हुआ है. इसलिए वे अनुभव मेरे ही नहीं, एक तरह से इस पूरी पीढ़ी के अनुभव हैं, जो उसके साथ अब भी संचित हैं और उनसे सीख ग्रहण कर वह आगे बढ़ती रही है. बहुत से मेरे ऐसे साथी हैं, जिन्होंने यहां से निकलकर देश के दूर-दराज क्षेत्रों में जाकर काम किया है और उपलब्धियां हासिल की हैं. कुछ लोग अपने क्षेत्र में वापस लौट पाए, कुछ नहीं भी लौट पाए. मेरे लेखन में यह बात कई बार अनायास ही व्यक्त हो जाती रही है कि काश, कभी ऐसा संयोग बने कि मैं अपने उसी परिवेश में फिर से लौट सकूं, जहां मेरा प्रारंभिकि जीवन व्यतीत हुआ, जहां से मैंने जीवन के बेहतर अनुभव ग्रहण किये, अध्ययन किया, बाकी जो विविध अनुभव हैं, उनसे भी सीखा और अपने को संवारा है. अगर ये कहें कि हमने कई कठिनाइयां अनुभव कीं या बाधाएं आईं, दरअसल वे बाधाएं नहीं, बल्कि वे परिस्थितियां होती हैं, जिनके बीच रहकर हम अपना जीवन-निर्वाह करते हैं या काम के बेहतर अवसर तलाश करते हैं.
किशोर – जीवन का यह वितान बहुत व्यापक है, लेकिन बचपन की कुछ वे स्मृतियां जो आज भी इस जीवन को खूबसूरत बनाने में हौसला देती हों, या वहां से कोई रोशनी आप तक पहुंचती हो, तो उन स्मृतियों के बारे में कुछ बताएं?
नंद – जब मैं प्राथमिक स्तर पर पढ़ाई कर रहा था, तो कुछ शिक्षक बहुत अच्छे मिले मुझे, जिन्होंने मुझ में इस तरह के बीच रोपित कर दिये, जो आगे चलकर और विकसित हुए. एक शिक्षक, जिनका मैं बहुत आदर करता था और वे थे भी इतने संवेदनशील, जिन पर मेरी एक दो कविताएं भी है, एक कविता है – ‘हरी दूब का सपना’, वह मेरे प्रिय शिक्षक मास्टर लज्जाराम पर ही केन्द्रित है. असल में जिस तरह के मेरे संस्कार थे, जो जिज्ञासाएं मुझमें जन्म ले रही थीं, या जिस तरह की संवेदनशीलता विकसित हो रही थी, शायद उन्हीं को ध्यान में रखते हुए वे बराबर मुझे उत्साहित करते रहे. मेरा हौसला बढ़ाते रहे कि तुम ये कर सकते हो, कुछ उस तरह की छोटी-छोटी प्रेरणादायी किताबें भी पढ़ने को देते – तो ये जो एक शिक्षक की दाय है, इसका कितना गहरा असर पड़ता है, इसे आप मेरे इस अनुभव से अनुमान कर सकते हैं. आज ज़िन्दगी के छह दशक पार कर लेने के बाद भी मैं उन्हें भूल नहीं पाता. उस दौर में और भी कुछ ऐसे शिक्षक थे, खासकर हैडमास्टर भंवरलाल जी गौड़, हरिदास जी जोशी वगैरह.
वह ऐसा वातावरण था, जिसमें यह सब संभव हुआ. दूसरी बात यह कि मेरी जो पारिवारिक पृष्ठभूमि है, वह भी कुछ इस तरह की रही कि उसमें सीखने को बहुत कुछ मिला. उस सीखने में मेरे पिता की बड़ी भूमिका रही है. वे जिस तरह की सोच और संवेदना के व्यक्ति थे, अपने पूरे ग्रामीण क्षेत्र में एक पढ़े-लिखे और संजीदा व्यक्ति के रूप में उनका मान-सम्मान था, जो अच्छे संस्कार और अच्छे मानवीय व्यवहार की बात करते थे, मुझ में सीखने के प्रति जो लगन और अच्छे संस्कार की बातें विकसित हुईं – ऐसी बहुत सी ज्ञान की बातें, पुराने आख्यानों की बातें, मसलन् रामायण और महाभारत की कथा को मैंने स्कूली पाठ़यक्रम के माध्यम से इतना नहीं पढ़ा-समझा, जितना मैंने अपने पिता से जाना-सीखा, जो हमारी दार्शनिक परंपरा है, आख्यान परंपरा है, लोक-संस्कार हैं, उनके बारे में जितनी जानकारियां उनसे ग्रहण कीं, वे और कहीं से नहीं मिली. वे बहुत सी बातें मैंने औपचारिक शिक्षा में बाद में जानीं और उनकी पुष्टि की. तो ये जो बुनियादी शिक्षा है, जो हमें अपने घर में और प्राथमिक स्तर पर प्राप्त होती है, उसका प्राथमिक स्तर पर विकास बहुत बेहतर होता है.
बाद में जब मैं हाई स्कूल के लिए बाड़मेर आ गया, तो यहां भी हमारा जो विद्यालय था, उसकी अपनी साख थी. उसके प्रधानाचार्य जयनारायण जी जोधा जैसे धुरंधर व्यक्ति थे, जिन्होंने गहरी रुचि लेकर विद्यालय को जो खूबसूरत रूप प्रदान किया और सरकार से मदद लेकर जैसी आधारभूत सुविधाएं जुटाई, वह अपने आप में एक मिसाल थी. कोई महाविद्यालय भी उसका क्या मुकाबला करता, बल्कि दो साल तक नया शुरू हुआ कॉलेज भी उसी विद्यालय की सुविधाओं का उपयोग करते हुए संचालित रहा. ये जो संस्थान को गरिमा प्रदान करने वाला काम था, मैं कह सकता हूं कि उस विद्यालय से जो अच्छे विद्यार्थी विभिन्न सार्वजनिक सेवाओं में गये और उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई. इसे मैं अपने बचपन और प्रारंभिक शिक्षा की उपलब्धि मानता हूं.
किशोर – नंद जी, ये जो दूर-दूर तक फैली रेत के उस दौर के ठीक विपरीत आज के दौर में, लोग कहते हैं कि बच्चे स्कूल का रुख तक नहीं करते थे, विद्यालयों का कोई ठौर-ठिकाना तक नहीं था, तब ऐसी क्या जिद या प्रेरणा थी कि जिसने आपको स्कूल और शिक्षा से जुड़े रहने का ज्ञान और समझ दी, क्या वाकई आप देख पाते थे वह ‘हरी दूब का सपना’ कि उस रेगिस्तान को लेकर ऐसा कोई ख्वाब था आपके भीतर?
नंद – देखिये, कठिन परिस्थितियां सबके सामने होती हैं, लेकिन एक सपना संजोए रखना बड़ी बात है, यानी आपके सामने उस कठिन जीवन से बाहर निकलने और एक बेहतर जीवन की कल्पना करने का इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं होता. लेकिन ऐसा सपना कोई ठीक से उगा दे, और यह जिजीविषा हमारे शिक्षण संस्थान ने निश्चय ही हमारे भीतर पैदा की. वह हमें उस सपने की ओर ले गया, हमें उस तरह के प्रेरक लोग मिले और वे केवल शिक्षक ही नहीं, अपने घर-परिवार और परिवेश में भी ऐसे कितने ही लोग थे. इसी बाड़मेर नगर में रहते हुए मुझे उनसे बहुत-सी अच्छी बातें जानने-सीखने को मिलीं कि उनका एक व्यापक और दूरगामी असर अवश्य रहा. हालांकि यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि वह जमाना बहुत अच्छा था और आज का जमाना वैसा नहीं है या वैसे लोग नहीं रहे, इस तरह का अतीत-राग मैं नहीं रखता, लेकिन कहीं उसका असर रहा जरूर. दूसरी बात यह कि कोई भी शिक्षार्थी अगर अपना नजरिया सकारात्मक बनाए रख सके, तो वह कठिन परिस्थिति में भी हार नहीं सकता.
एक जिद उसके भीतर पैदा होनी ही चाहिए. वह कैसे पैदा हो पाती है, इसे तो किसी अच्छे मनोवैज्ञानिक से ही समझा जा सकता है, फिर भी मैं इतना जरूर कहूंगा कि ये जिस किसी में भी होती है, उसे कामयाबी जरूर मिलती है. हमें यह बताया भी जाता था कि जो मन में धारण कर लो, उसके लिए फिर कुछ भी बचाकर मत रखो. मेरे खयाल से यही एक मंत्र था, जो उस वक्त काम दे गया. कुछ परिस्थितियां भी अनुकूल बनती गईं — बनता हुआ देश था, सुविधाएं विकसित हो रही थीं, हम जब हायर सैकेण्डरी में थे, तब वहीं तक शिक्षा की सुविधा थी, लेकिन हमारा भाग्य कहिये या संयोग कि ज्यों ही हमने स्कूली शिक्षा पूरी की, उसी साल वहां कॉलेज शुरू हो गया. इससे आगे की पढ़ाई जारी रखने का एक रास्ता खुल गया. उसी तरह उस जमाने में जब अपनी कॉलेज की शिक्षा पूरी की, तो मेरे कुछ हितैषी लोगों ने यह अच्छी सीख-सलाह दी कि बी ए कर लिया है तो थोड़ी हिम्मत करके एम ए भी कर लेनी चाहिए. इसी से उत्साहित होकर मैं पोस्ट ग्रैजुएशन के लिए जयपुर चला गया. वजह शायद यही रही कि शिक्षा के प्रति एक तरह का आंतरिक लगाव मुझमें शुरू से ही रहा और अच्छा लिख-पढ़ भी रहा था. कोर्स के अलावा भी बहुत चीजें पढ़ने में रुचि विकसित हो चुकी थी और कोर्स से बाहर बहुत-सी चीजों में मेरी दिलचस्पी को कुछ शिक्षकों और हितैषियों ने नोटिस भी किया, मसलन् कॉलेज में मेरे मेरे हिन्दी शिक्षक डॉ. शान्तिगोपाल पुरोहित थे, उन्होंने मुझे खूब बढ़ावा दिया.
अर्थशास्त्र के शिक्षक एम सी पालीवाल थे, वे तो एक तरह से मेरे संरक्षक ही हो गये और अर्थशास्त्र जैसे विषय को बेहद रोचक तरीके से पढ़ाया-समझाया. उसी से बाद में राजनीतिक अर्थशास्त्र में मेरी रुचि बढ़ी. बी ए के अंतिम वर्ष तक मैं गीत, कविताएं और सामयिक टिप्पणियां आदि लिखने लगा था. जब शान्तिगोपाल जी और हिन्दी की शिक्षिका कमला सिंघवी को अपनी लिखीं कुछ चीजें दिखाईं तो उन्होंने खूब उत्साहित किया और न केवल अच्छी किताबें पढ़ने की सलाह दी, बल्कि अपने निजी संग्रह से महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, निराला, प्रसाद के कई कविता संग्रह पढ़ने को दिये, जो कोर्स के अतिरिक्त थे. यह ललक और प्रवृत्ति अगर विद्यार्थी में बनी रहे, उसे पढ़ाने वाले शिक्षक में बनी रहे, तो मेरे खयाल से वह एक बेहतरीन अवसर और संयोग होता है, जो मुझे मिला.
किशोर – आपकी एक कहानी पढ़ रहा था, जिसमें पढ़-लिखकर मुनीम का काम करने वाले एक नौजवान और उसके परिवार में घटित एक दुखद सूचना के बारे में घर से आए टेलिग्राम को लेकर कशमकश का वर्णन है, फिर रात्रि में रेल यात्रा और कई अन्य कहानियों में जिस तरह रेगिस्तानी जीवन के कठिन हालात, यहां के भूगोल और आम लोगों के संघर्षपूर्ण जीवन का जो चित्र उभरता है, वह आपकी कहानियों को आम हिन्दी कहानी से अलग भी करता है, इन रेगिस्तानी जीवन स्थितियों की अपने लेखन में क्या भूमिका मानते है आप?
नंद – मेरे लेखन में रेगिस्तान एक अनिवार्य और स्वाभाविक अनुभव की तरह आता है. मैंने अपने प्रदेश या देश में चाहे जहां कार्य किया हो – जैसे उत्तर भारत में काम किया, दो बार दिल्ली पोस्टिंग रही, पूर्वोत्तर में गुवाहाटी में कार्य किया, दक्षिण में भारत में भी बहुत बार गया हूं, बड़े महानगरों और छोटे-बड़े शहरों में रहकर भी काम किया है, लेकिन जो मेरा मानस या चित्त है, वह जिस तरह मेरे अपने लोकेल, रेगिस्तानी अंचल से जुड़ा है, इसको मैं कभी अपने से अलग नहीं कर पाया, वह सदैव मेरी स्मृतियों में धड़कता रहता है. क्योंकि उसने मेरे भीतर बचपन से एक किस्म की संवेदनशीलता पैदा की और ये जो रेगिस्तान का कठिन जीवन है, इसमें ऊपरी तौर पर आपको बहुत रेत ही रेत और रूखा ही रूखा दिखाई देता है, लेकिन इसके भीतर जो एक नमी है, जमीन की कोख में और यहां के वाशिन्दों के मन में, इन दोनों के भीतर जो अन्तर्धाराएं बहती हैं, उसका अगर कहीं अहसास आपके मन में है तो आप कभी उस रूखे-सूखेपन की शिकायत नहीं करेंगे. वह हमेशा आपको प्रेरित करता है और अब तो इसकी जरूरत लोग महसूस भी करने लगे हैं.
अभी हाल ही में 2007 में जब इस इलाके में बाढ़ का पानी आकर पसर गया – हमारा गांव कवास और आस-पास का इलाका करीब डेढ़ साल तक उसमें डूबा रहा, तब मैं अपनी दूरदर्शन की टीम के साथ यहां के हालात का जायजा लेने आया था और जब इस इलाके के लोगों को इसी जमा पानी के आस-पास घेरा डाले बैठा देखा तो मुझे इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगा, जबकि जिला प्रशासन लोगों को किसी वैकल्पिक जगह पर जाने के लिए कहता रहा, बाड़मेर पास उनके लिए अस्थाई आवास भी बनाकर दिये, लेकिन लोग वहां नहीं गये. कई बाहरी लोगों का अनुमान था कि लोग यहां से पलायन कर जाएंगे, तब मैंने कहा था कि बेशक ऐसे हालात दिख रहे हों, लेकिन इस इलाके के लोग कहीं नहीं जाएंगे, वे यही रहकर पानी के उतरने का इंतजार करेंगे, परिस्थिति चाहे जितनी विकट हो, ये उससे घबराएंगे नहीं, क्योंकि ये कोई पहली बार नहीं हुआ है, हर साल उत्तरलाई के आस-पास का ताल पानी से भर जाता है, या कवास तक पानी का बहाव पहले भी आया है, और लोग ऐसे हालात का सामना करना जानते हैं, आप इन्हें कहीं जाने का सुझाव दे दीजिये, ये आपकी बात सुन लेंगे, पर जाएंगे कहीं नहीं, वही करेंगे, जो इनका अनुभव कहता है और जिस जमीन से उनकी जीवारी जुड़ी हुई है, यह उनके अन्त:करण का हिस्सा है, कुछ इसी तरह का भाव मैं स्वयं भी महसूस करता रहा हूं. मैं बरसों से इस इलाके से बाहर रह रहा हूं, लेकिन जब भी आता हूं, जो अंतरंगता, अपनापन और सुकून यहां पाता हूं, वह अन्यत्र कहीं नहीं. शायद इसीलिए मेरी रचनाओं में यह लोकेल और यहां का जीवन बार-बार आता है.
किशोर – ‘सांम्ही खुलतौ मारग’ और उसी का हिन्दी रूपान्तर ‘आगे खुलता रास्ता’ पिछले कुछ वर्षों में इस हलके के बारे में लिखा गया बेहतरीन उपन्यास है. इस उपन्यास में जो रेगिस्तान का जीवन है, वह किसी एक गांव या कस्बे के यथार्थ की ओर इंगित नहीं करता, बल्कि पूरे थार के परिदृश्य को प्रस्तुत करता है, यानी राजस्थान के उत्तर-पश्चिम में श्रीगंगानगर से लेकर मालाणी के ओर-छोर में फैले रेगिस्तान का पूरा परिदृश्य इसमें खुलकर सामने आता है. इस खुलते संसार में कोमल, सरल इन्सान हैं और इन कोमल, सरल इन्सानों की उतनी ही कोमल संवेदनाएं हैं, हमारी जिज्ञासा है कि ये किस तरह इस पूरे भूगोल और परिदृश्य को देखने का प्रयत्न करती हैं?
नंद – होता क्या है कि जब हम किसी परिवर्तन को देखना या आंकना चाहते हैं तो उसे हमें लोगों के जीवन से जोड़कर देखना होता है. मेरे इस उपन्यास की नायिका है सत्यवती, उसे बेशक मैंने नायिका के रूप में प्रस्तुत किया हो, लेकिन प्रकारान्तर से वे मेरे अपने जीवन-अनुभव भी हैं, उन पात्रों में कहीं मैं स्वयं भी हूं, उनका जो संघर्ष है, वह मेरी जीवन-यात्रा से भी मेल खाता हुआ-सा दिखेगा. आजादी के बाद के इन साठ-सत्तर सालों में हमारे रेगिस्तानी जीवन में जो परिवर्तन हुए हैं, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर जो परिस्थितियां बदली हैं, उन्हीं के साथ लोगों की सोच और जीने के तौर-तरीके भी बदले हैं और यह बदलाव बहुत गहरे स्तर पर हुआ है. यह प्रक्रिया आज भी बंद नहीं हुई है, बल्कि जारी है. बस इतनी-सी बात जोड़नी है कि इसमें एक लोक-कल्याणकारी राज्य की जो भूमिका होती है, वह उतनी नहीं दिखाई देती, जितनी दिखाई देनी चाहिए – उस परिवर्तन को सही दिशा और गति देने का जो प्रयत्न राज्य को करना चाहिए, वह कम हुआ है. लोगों की अपेक्षाएं और आकांक्षाएं निश्चित रूप से बढ़ी हैं, स्वयं लोगों ने अपने प्रयत्नों से जो चीजें बदलनी जरूरी समझीं, उन्हें बदलने का प्रयत्न किया है और ये जो उपन्यास के पात्र हैं, वे उसी परिस्थिति में से विकसित होते पात्र हैं.
आप देखेंगे कि उन्होंने शिक्षा को सबसे अधिक महत्व दिया, शिक्षा को वे बदलाव का एक बुनियादी विनियोग मानते हैं. उनका मानना है कि अगर परिस्थितयां बदलेंगी तो वे स्वयं भी एक अच्छे और जागरूक नागरिक के रूप में विकसित होंगे, साथ ही आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की जो दूसरी संभावनाएं हैं, वे विकसित होंगी. इसलिए उपन्यास में जो इस तरह के चरित्र उभरे हैं, वे उस परिदृश्य के भीतर से सहज ढंग से सामने आए हैं और उनके जीवन में होने वाले परिवर्तन को पाठक देख सकता है.
किशोर – जी, तो वह जांच इस तरह से शुरू होती है. वहां से लेकर आज तक का जो सफर है, उसमें किस तरह की मुश्किलें या कठिनाइयां आपके सामने रहीं और लेखन में वे ऐसे कौन-से पड़ाव थे, जिनके चलते पाया कि आपने अपने को और बेहतर करने का प्रयत्न किया है?
नंद – 1988-89 में राजस्थान साहित्य अकादमी ने मुझे राजस्थान के हिन्दी कवियों की कविताओं का एक प्रतिनिधि संकलन संपादित करने का जिम्मा सौंपा था, जो अकादमी की पुरानी प्रकाशन श्रृंखला ‘राजस्थान के कवि’का तीसरा भाग था. उस प्रक्रिया को पूरा करने के दौरान मुझे अपने प्रदेश की रचनाशीलता के माध्यम से अपने परिवेश और समय को और करीब से जानने का अवसर मिला. इस दौर में कविता के क्षेत्र में काम करने वाले जो लोग थे, उन सब की कविताओं के टैक्स्ट (पाठ) के माध्यम से यह जानने की कोशश की किइस परिवर्तन को हमारे दौर के कवि किस तरह से देखते-समझते रहे हैं और बाद में जब उस संपादित संकलन को नाम देने का अवसर आया तो पहले से चला आ रहा नाम ‘राजस्थान के कवि’ मुझे अनुपयुक्त-सा लगा, मैंने अकादमी अध्यक्ष को बताया कि यह सूची-पत्र वाला शीर्षक तो इस संकलन के लिए उचित नहीं है, तो उन्होंने मुझे इसका बेहतर शीर्षक देने की अनुमति दे दी और उनकी सहमति से मैंने उस संकलन को नाम दिया था – ‘रेत पर नंगे पांव’, यह शीर्षक देते हुए मेरी सहज समझ यही थी कि हमारा जो लोकेल है और इसमें जो पूरा दौर गुजरा है, जो परिस्थितियां रहीं, उनके बीच से जो जीवन-यात्रा यहां के इन्सान को करनी पड़ी है, वह एक तरह से रेत पर नंगे पांव चलते रहने की यात्रा है.
हमारे कवियों-लेखकों के पास कोई साधन-सुविधाएं नहीं रहीं, ये जनसंचार के माध्यम भी बाद में विकसित हुए हैं – रेडियो नहीं था, अखबार नहीं थे, पत्र-पत्रिकाएं नहीं थीं, प्रकाशन संस्थान नहीं थे, इसके बावजूद आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सन् 1857 से कुछ अरसा पहले इसी क्षेत्र में कविराजा बांकीदास जैसे समर्थ कवि हुए, जिनका अखिल भारतीय दृष्टिकोण था और वे लगातार अपनी कविताओं के माध्यम से अंग्रेजी दासता के खतरे के प्रति सचेत करते रहे, यही काम शंकरदान सामौर ने किया, और उस प्रथम स्वाधीनता संग्राम के कुछ ही अरसे बाद इस मालाणी क्षेत्र में कवि लच्छीराम हुए, जिन्होंने महाभारत के प्रमुख चरित्र कर्ण पर एक खण्ड-काव्य की रचना की, जो लोक-संवदेना की अभिव्यक्ति की एक मिसाल कही जा सकती है. उन्होंने महाभारत के उस पारंपरिक कर्ण की पूरी छवि ही बदल दी, जब कि उनके आस-पास ऐसा कोई वातावरण नहीं था, कोई उन्हें बताने-सिखाने वाला भी नहीं था.
भक्तिकाल में यहां बाड़मेर के पास भादरेस में कवि ईसरदास हुए, जिस तरह की सधी हुई कविता अपने समय में ईसरदास ने की, वह अद्भुत थी. जबकि इन कवियों के सामने जीवन के बेहद कठिन हालात रहे और उन परिस्थितियों में जीते हुए कवियों ने जीने और रचने का जो जज्बा दिखाया, उसी परंपरा का विकास आधुनिक काल में होता दिखाई देता है. मेरा अपना अनुभव है कि कठिन परिस्थितियों में रहते हुए भी किसी संवेदनशील और रचनाशील व्यक्ति की अगर एक बार मन की ग्रंथि खुल जाती है और कुछ बेहतर करने की इच्छा जाग जाती है तो फिर वह विकसित होने का अपना रास्ता तलाश कर लेती है. उसके भीतर जो ऊर्जा है, वह कई रूपों में सामने आती है. कठिनाइयां बहुत बड़ा मायना नहीं रखतीं, कठिनाइयां आगे बढ़ने की चुनौति और हौसला भी प्रदान करती हैं.
किशोर – हर व्यक्ति के भीतर जो अलग-अलग रंग होते हैं और जो खूबियां होती हैं, उन पर जो अलग वितान लेकर रचनाशील व्यक्ति अपना रंग, आकार और अनुभूतियां संयोजित करता रहता है – आपके लिए जैसा कहते रहे हैं कि आप एक अच्छे कवि हैं और साथ ही जो आपकी कहानियां हैं, वे अपने कथ्य, शिल्प और उनके साथ चलनेवाली पृष्ठभूमि के कारण खूब पढ़ी जाती हैं और सराही जाती हैं, उन सबके बीच आपको अपनी रचनाशीलता का कौन-सा रूप सबसे अच्छा और प्रभावी लगता है?
नंद – दरअसल ये जो सभी रूप हैं, मैं उन्हें एक लेखक की अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों की तरह लेता हूं – अगर कोई कहे कि मुझे कविता ज्यादा पसंद है, या कहानी लिखना ज्यादा रुचिकर लगता है या आलोचना मेरी प्रमुख विधा है, तो मैं तय नहीं कर पाता कि इसका क्या प्रत्युत्तर दूं. मेरे लिए तो सामने जो टास्क (कार्य) होती है या जिस तरह का संवेदनात्मक दबाव होता है, वही यह तय करता है कि मैं अपने को किस विधा या रूप में उसे बेहतर ढंग व्यक्त कर सकता हूं. लेकिन एक बात जरूर है कि कुछ चीजों के लिए कुछ फॉर्म अधिक उपयुक्त माने जाते हैं – अगर हमें कुछ तफसील से, दृष्टान्त के साथ अपने समय और उस जीवन-अनुभव को व्यक्त करना है तो शायद कथा सबसे बेहतर फॉर्म लगे, किसी काल-विशेष के परिवेश और व्यक्ति के मन को टटोलना हो, उसके अन्त:करण या मनोविज्ञान में उतरना हो, उसके मानस पर पड़ने वाले असर को जानना हो तो निश्चय ही कविता उसके लिए उपयुक्त फॉर्म होगी, क्योंकि कविता रचनाकार को पूरा स्पेस देती है, अनुशासन से मुक्त करती है, वह बिम्बों और अप्रस्तुत विधान के द्वारा गहरी व्यंजना के लिए जगह बनाती है, कवि अपने लोकेल के भीतर गहरे उतर सकता है, वह एक काल-विशेष में रहते-जीते अतीत या भविष्य के साथ अपना रिश्ता जोड़ सकता है, ऐसी उन्मुक्त सुविधा यही फॉर्म देता है.
इसी तरह चाहे नाट्य फॉर्म ले लें, या आलोचना को लें, मैं यह नहीं कहता कि ऐसा करके मैंने कोई अनूठा या अलग काम किया, जो भी साहित्य–लेखन को संजीदगी से लेता है, उसके लिए ये तमाम रूप जरूरी हैं – कम से एक लेखक के रूप में अपने को सक्षम बनाने के लिए तो इन सभी को जानना अनिवार्य ही समझें. एक अच्छा लेखक कथ्य की प्रकृति के अनुरूप उनका प्रयोग करता है. जैसे हम जो जीवन जीते हैं, उसमें एक ही तरह की गति नहीं रहती, हम परिस्थिति के अनुरूप अपनी गति, शैली और अपने तौर-तरीके बदलते हैं, यही बात रचनात्मक विधाओं पर भी लागू होती है.
किशोर – जो बाहर का अथाह रेगिस्तान है और जो भीतर का रेगिस्तान है, कहते हैं कि रेगिस्तान के बारे में लिख पाना बहुत आसान बात नहीं है, वह ऊपर से जितना साफ दिखाई देता है, भीतर से उतना ही धुंधला और सघन. आज के इस दौर में अपने उसी परिवेश और अनुभव के रूप में आप जो लिखते हैं, उससे क्या अपेक्षाएं रखें हम और क्या ऐसा अछूता रह गया है आपकी दृष्टि में, जिसके लिए अब भी प्रयत्नशील हैं?
नंद – मैं यह तो नहीं कहता कि आप यानी पाठक या श्रोता मुझसे या किसी भी रचनाकार से जो अपेक्षाएं करते हैं, वे पूरी होने पर ही वह सही रचनाकार साबित होगा. लेकिन यह स्वाभाविक बात है कि अगर किसी लेखक ने क्षेत्र विशेष में जीते हुए जो अनुभव ग्रहण किये हैं, वे निश्चय ही उसकी रचनाशीलता में प्रतिबिम्बित होंगे अवश्य. वह जो कुछ लिखेगा, वह उस लेखक का अवदान ही नहीं, स्वयं उसे भी एक पहचान मिलेगी. इसलिए प्रत्येक लेखक को अपने अनुभव-संसार को समृद्ध बनाना चाहिए, उसे व्यापक और वैविध्यमय बनाए, अपने चारों ओर के जीवन में उसकी गहरी दिलचस्पी बनी रहे और उस जीवन-शैली और जीवन-मूल्यों को अपने आचरण का अंग बना ले, अगर ऐसा वह कर पाता है तो मेरा खयाल है कि वह अपने भीतर एक बड़े रचनाकार को विकसित कर पाता है, उससे बेहतर रचनाकर्म की संभावनाएं बनती हैं. मैं तो स्वयं अपने को यही सलाह देता हूं कि यही स्पिरिट मुझमें बनी रहे. कोई उपलब्धि बड़ी हो या न हो, बेहतर काम करने की जिजीविषा अवश्य बनी रहे.
किशोर – एक आखिरी सवाल – आपके लेखन के माध्म से अंतस की पीड़ाएं, कामनाएं जो उन रचनाओं के माध्यम से उजागर हुई हैं, उन्हें आगे भी लोग जानेंगे, लेकिन ऐसी कामनाएं और आकांक्षाएं, जिन्हें अभी तक लोग नहीं जान पाए हैं और जिन्हें सामने लाना लेखक को अपनी जरूरत लगती है, वे क्या हैं, कुछ साझा करना चाहेंगे?
नंद – मेरा तो मानना है कि किसी लेखक की अव्यक्त कामनाओं या आकांक्षाओं को जानने के लिए भी उसकी उपलब्ध रचनाओं के भीतर उतरना जरूरी होता है, क्योंकि उसके अन्त:सूत्र वहीं मिलते हैं. कोई भी लेखक अपने जीवनकाल में अपनी कामनाओं या आकांक्षाओं को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाता, बहुत कुछ कहता है, लेकन बहुत कुछ कहना बकाया भी रह जाता है, ये आगे का समय और संयोग ही तय करेंगे कि जो सोचा हुआ है, या जिस पर अभी काम करना बाकी है, वह कब पूरा हो पाता है. पर होगा अवश्य. एक लेखक और व्यक्ति के रूप में मैं अपने को कतई अलग या विशिष्ट नहीं मानता, जैसे मेरे आस-पास के लोग हैं, जिस लोकेल से मैं आया हूं, वही संवेदनाएं और चिन्ताएं मेरे चित्त का हिस्सा हैं. अपने समय के सजग लोगों के स्वर में अपना स्वर शामिल करते हुए जैसे मैंने अपनी कविताओं के माध्यम से कहा भी है –
\”ये दुनिया
जैसी और जिस रूप में
हमें जीने को मिली है,
उस पर अफसोस करना बेमानी है,
हमने नहीं बिगाड़ी इसकी शक्ल
न थोपी किसी पर अपनी इच्छाएं
जब चारों तरफ से
सुलग रही हो आग,
हालात से निरापद बैठे रहना
यों आसान नहीं है.\”
मैं जीवन की निरन्तरता में विश्वास रखता हूं, यही सनातन सोच हमें विरासत में मिली है और यही बात प्रकारान्तर से वैज्ञानिक दृष्टिकोण की ओर भी इशारा करती है. यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि ‘पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता\’ उसका सिर्फ रूप बदलता है, अगर पानी है तो भाप बन जाएगा, बर्फ बन जाएगा, लेकिन नष्ट कुछ नहीं होगा. कुछ इसी तरह की सोच जीवन पर भी लागू होती है, इसी तरह की सोच को मैंने अपनी कविताओं में ढालने की कोशिश की है, उदाहरण के बतौर आप मेरी कविता ‘पीढ़ियो का पानी, या ‘आदिम बस्तियों के बीच’ को देख सकते हैं, जहां मैं अपनी ज़मीन और लोगों के बीच बीज की मानिन्द बने रहने की बात कहता हूं. हम उसी जीवन-यात्रा के सहयात्री हैं, इसलिए यह जीवन-यात्रा उनसे अलग नहीं है, मुझे अपने सहयात्री के रूप में ही पहचाना जाए, अपनों की आत्मीयता मिले, उसी में अपने रचनाकार होने की सार्थकता है.
नंद भारद्वाज, जयपुर
09829103455
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