राहुल राजेश
\”यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहाँ से!
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी!!\”
मो. इकबाल
मो. इकाबल की यह बात सिर्फ हमारे हिंदुस्तान के लिए ही नहीं, बल्कि हमारी हिंदी के लिए भी उतनी ही सच साबित हुई है! विश्व जगत पर न केवल हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियों बल्कि हमारी हिंदी की भी अमिट छाप पड़ चुकी है और हिंदी न केवल हिंदुस्तान के माथे पर, वरन् विश्व के माथे पर भी बिंदी बन चमक रही है! वह भी किसी सत्ता, किसी लॉबी, किसी मार्केटिंग एजेंसी या किसी सुपर पॉवर के बूते नहीं बल्कि अपनी मिठास, अपनी सरलता, अपनी सहजता, अपनी तीव्र स्वीकार्यता, अपनी वैज्ञानिकता और अपनी विश्वव्यापी अपील के बूते हिंदी ने अपनी जगह, अपनी हैसियत बनायी है विश्व पटल पर! अब तो आलम ये है कि सत्ता के संकरे गलियारों में फाइलों की औपचारिक भाषा बने रहकर अंग्रेजी भले अपने उखड़ते पाँव जमाए रखने की भरसक कोशिश कर रही हो, पर हिंदी न केवल देशी-विदेशी समाज बल्कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार और कारोबार तक में अपने अंगदी पाँव जमा चुकी है, जिसे उखाड़ना अब अपने एकाधिकार से लगभग पदच्युत हो चुकी अंग्रेजी के बूते की बात नहीं!
हिंदी की धमक : यहाँ से वहाँ तक, न जाने कहाँ-कहाँ तक!
हिंदी अब केवल हिंदुस्तान में ही नहीं, वरन् अंतर्राष्ट्रीय फलक पर भी अग्रणी भाषाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी है और कई मामलों में उनसे आगे भी निकल गई है! हिंदी अब न केवल भारतीय उपमहाद्वीप के कई देशों बल्कि सुदूर यूरोपीय, अमेरिकी और अफ्रीकी महादेशों तक में भी, कहीं छोटी-कहीं बड़ी आबादियों की रोजमर्रे की भाषा बनती जा रही है. नेपाल, बर्मा, भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका आदि पड़ोसी देशों में तो हिंदी बहुत पहले से ही सहबोली बनी हुई है. वहीं मॉरीशस, त्रिनिनाद, टोबैगो, सूरीनाम, फीजी जैसे अनेक एशिया-प्रशांत देशों में हिंदी मुख्य जनभाषा और आधिकारिक राजभाषा का प्रतिष्ठित दर्जा हासिल कर चुकी है!
थोड़ा और विस्तार में जाएँ तो हम पाएँगे कि पड़ोसी देश नेपाल में हिंदी बड़े पैमाने पर नेपाली के समानांतर जनसंपर्क भाषा के रूप में बोली जाती है और यहाँ के शिक्षण संस्थानों में स्नातकोत्तर तक हिंदी माध्यम से पठन-पाठन-शिक्षण की समुचित व्यवस्था भी है. सिंहल और तमिल-बहुल श्रीलंका में भी कमोबेश 08 लाख लोग हिंदी बोलते-बरतते हैं! पाकिस्तान में हिंदी उर्दू के साथ इस कदर घुल-मिल चुकी है कि वहाँ हिंदी का कुछ अलग ही अंदाज देखने को मिलता है! सिंगापुर में भी हिंदी के प्रति लगातार आकर्षण बढ़ता जा रहा है. त्रिनिनाद और टोबैगो में तकरीबन 400 शिक्षण-केंद्रों में हिंदी में पढ़ाई की व्यवस्था है. फीजी की सरकार ने अपने सरकारी स्कूलों में सभी बच्चों को हिंदी पढ़ाना शुरू कर दिया है. वहाँ माता-पिता बच्चों को हिंदी इसलिए पढ़ाते हैं ताकि उनकी अपनी संस्कृति सुरक्षित रहे.
हिंद महासागर में लघु भारत के रूप में विख्यात मॉरीशस की तो आधिकारिक राजभाषा ही हिंदी है! मॉरीशसमें ही विश्व हिंदी सचिवालय भी है! सूरीनाम में 21 मार्च, 1984 को सूरीनाम हिंदी परिषद नामक संस्था द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं को स्वीकृति मिलने के उपलक्ष्य में इस दिवस को वहाँ हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. बर्मा (म्यांमार) में भी हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक संस्थाएँ हैं, जहाँ हिंदी के साथ-साथ संस्कृत एवं पाली अध्ययन की भी व्यवस्था है.
कहने की आवश्यकता नहीं कि रूस तो लंबे समय से ही हिंदी फिल्मों और राज कपूर के बहाने हिंदी को प्यार करता आ रहा है! यूरोप-अमेरिका की तरफ बढ़ें तो ब्रिटेन में भी हिंदी के प्रति शुरू से ही रूचि रही है. यहाँ छठा विश्व हिंदी सम्मेलन भी आयोजित किया जा चुका है. अमेरिका के अनेक स्कूलों में हिंदी को पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है. यहाँ से \’हिंदी जगत\’नामक हिंदी पत्रिका भी प्रकाशित होती है. सूरीनाम से आए प्रवासियों ने यूरोपीय देश नीदरलैंडमें भी हिंदी की जड़ें जमा दी हैं! उजबेकिस्तान, आर्मेनिया, मंगोलिया, ईरान, इराक, आबूधाबी, सउदी अरब आदि देशों के बच्चे भी हिंदी भाषा सीखने को आतुर हो चले हैं! जर्मनी, चीन, कोरिया, जापान, फ्रांस आदि देशों में भी हिंदी पढ़ाई जाने लगी है! एक ताजा अनुमान के मुताबिक, हिंदी अब 50 से भी अधिक छोटे-बड़े देशों में बोली जाती है और विश्व भर के लगभग 150 विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है. हम कह सकते हैं-
बीजिंग हो, लंदन हो या अमेरिका!
हर तरफ लहरा रहा परचम हिंदी का!!
आँकड़ों के अंतर्राष्ट्रीय आईने में हिंदी
यदि आँकड़ों के आईने में भी देखें तो हिंदी सिर्फ भारत में ही नहीं, पूरे विश्व भर में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई है! भाषायी आबादी के आधार पर हिंदी अब संपूर्ण विश्व में पहले स्थान पर आ गई है और कुछ समय पहले तक प्रथम स्थान पर रहने वाली चीनी (मंडारिन) भाषा अब कहीं पीछे छूट गई है!
भाषायी आबादी के आधार पर सन् 1952 में हिंदी विश्व में पाँचवें स्थान पर थी. लेकिन सन् 1980 के आसपास वह चीनी और अंग्रेजी के बाद तीसरे स्थान पर आ गई. 1998 में युनेस्को को भेजी गई भाषा संबंधी अपनी विस्तृत और शोधपरक रिपोर्ट \”संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएँ और हिंदी\” में केंद्रीय हिंदी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रो. महावीर सरन जैन ने बताया था कि मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद, हिंदी दूसरे स्थान पर आ गई है!
लेकिन अब सुखद आश्चर्य की बात यह है कि डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल जी ने निरंतर 20 वर्षों तक भारत तथा विश्व में सभी भाषाओं संबंधी आँकड़ों का गहन विश्लेषण करके यह सिद्ध कर दिया है कि विश्व में हिंदी भाषा का प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या चीनी भाषा का प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या से भी अधिक है और हिंदी अब प्रथम स्थान पर पहुँच गई है. हिंदी ने विश्व की अंग्रेजी समेत अन्य सभी भाषाओं को पीछे छोड़ दिया है! और यह भी तय है कि हिंदी अब पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर बनी रहेगी.
इस पार, उस पार, सात समंदर पार भी जंगे-आजादी में हिंदी
हिंदी न केवल भारत के स्वाधीनता संग्राम को आजादी के अंजाम तक पहुँचाने में अहम रही बल्कि वह सुदूर दक्षिण अफ्रीका तक में भी गाँधी जी की अगुआई में गोरों के खिलाफ बगावत को आगे बढ़ाने में भी सहायक सिद्ध हुई. इतना ही नहीं, अभी हाल में पड़ोसी देश नेपाल में भी हिंदी भाषाभाषियों के दबाव में नेपाली संविधान में हिंदी भाषाभाषियों के हक में कुछ सकारात्मक फेरबदल हो पाए! दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी अपनी युवावस्था में ही वहाँ रहकर हिंदी का व्यापक प्रचार-प्रसार कर चुके थे. यह हिंदी ही थी जिसके बूते गाँधी जी सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि परदेसी सरजमीं पर भी दमित-शोषित प्रवासी एवं देसी मजदूरों-किसानों-कामगारों को एकजुट करने और उन्हें गोरों के खिलाफ आवाज बुलंद करने को तैयार कर पाए.
कहने की जरूरत नहीं कि परदेसी सरजमीं पर अपनी बोली-बानी ही एकमात्र ऐसा जरिया होती है जिसके सहारे हम परस्पर अजनबी होकर भी अनायास अपनापन महसूस करने लगते हैं, बोलने-बतियाने लगते हैं. यहाँ तक कि अपना सुख-दुख भी बाँटने लगते हैं! संग-साथ निभाने लगते हैं! गाँधी जी को हिंदी एक ऐसी जादुई छड़ी के रूप में हाथ लग गई थी जिसके सहारे उन्हें गिरमिटिया मजदूरों को भाषायी और भावनात्मक आधार पर एकजुट करना आसान हो गया था. और कहीं न कहीं, गाँधी जी और हिंदी को प्रेम करने वाले इन्हीं प्रवासी गिरमिटिया मजदूरों का ही यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक योगदान रहा कि प्रकारांतर में ही सही, विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजन और हर वर्ष 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाने के मार्ग प्रशस्त हो पाए.
हिंदी की अंतर्राष्ट्रीय हैसियत : विश्व हिंदी दिवस
गिरमिटिया प्रथा के अंतर्गत विदेशों में गए जिन भारतवंशियों ने हिंदी का परचम लहराया और हिंदी की सृजनात्मक थाती को संजोया, समृद्ध किया, उनमें दक्षिण अफ्रीका के स्वामी भवानीदयाल संन्यासी का नाम अग्रगण्य है. उनका जन्म 10 जनवरी, 1892 को दक्षिण अफ्रीका की स्वर्णनगरी कहे जाने वाले शहर जोहान्सबर्ग में हुआ था. उन्होंने वहाँ हिंदी प्रचारिणी सभा का भी गठन किया था. विदेशी सरजमीं पर हिंदी को अप्रतिम पहचान और अगाध सम्मान दिलाने वाले इन्हीं हिंदीसेवी के सम्मान में उनके जन्म दिवस (10 जनवरी) को विश्व हिंदी दिवस मनाने के लिए चुना गया, जो ऐसे अदम्य-अनन्य हिंदीसेवी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि भी है!
10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस के रूप में मनाने की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति से हिंदी की वैश्विक पहचान और इसकी विश्वव्यापी आधिकारिक स्वीकृति और अधिक सुदृढ़ हो गई. वर्तमान युग में भाषायी वर्चस्व की प्रतिस्पर्धी दौड़ में हर वर्ष विश्व हिंदी दिवस का व्यापक और विश्वव्यापी आयोजन अपरिहार्य हो गया है, तभी हम अपनी भाषिक शक्ति का प्रदर्शन भी कर पाएँगे और विश्व में फैले हिंदी प्रेमियों एव हिंदी सीखने-सिखाने को आतुर विदेशी भाषाभाषियों को एक अंतर्राष्ट्रीय मंच प्रदान कर पाएँगे. सच कहा जाए तो विश्व हिंदी दिवस का आयोजन समय की माँग बन गई है!
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के और अधिक व्यापक प्रचार-प्रसार और विकास के इसी महती उद्देश्य को आगे बढ़ाते हुए, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में 10 से 14 जनवरी, 1975 को नागपुर में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया गया और दुनिया के विभिन्न देशों में अबतक 10 विश्व हिंदी सम्मेलनों का सफल आयोजन किया जा चुका है.
हिंदी की वैश्विक स्वीकार्यता : विश्व हिंदी सम्मेलन
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में 10 से 14 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन में ही यह निर्णय लिया गया था कि अब से नियमित अंतराल और यथासंभव हरेक चौथे वर्ष विश्व के किसी एक देश में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया जाए ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का व्यापक पैमाने पर प्रचार-प्रसार हो सके और विश्व पटल पर हिंदी को स्थापित-समादृत करने हेतु सतत पहल किए जा सकें.
इसी वृहत उद्देश्य को आगे बढ़ाते हुए अबतक 10 विश्व हिंदी सम्मेलनों का सफल आयोजन किया जा चुका है. इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि ये विश्व हिंदी सम्मेलन केवल मॉरीशस, त्रिनिनाद, टोबैगो, सूरीनाम जैसे हिंदीप्रेमी देशों में ही नहीं, वरन् अंग्रेजी वर्चस्व वाले देशों में भी हो चुके हैं, जो हिंदी की वैश्विक स्वीकार्यता का जीवंत प्रमाण है! उदाहरण के लिए, छठा विश्व हिंदी सम्मेलन 14 से 18 सितंबर, 1999 को लंदन (यू.के.) में खूब धूमधाम से आयोजित किया गया. इसे यू.के. हिंदी समिति, बर्मिंघम भारतीय भाषा संगम एवं गीतांजलि बहुभाषी समुदाय के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित किया गया और इसमें 21 देशों के करीब 700 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया. लंदन में आयोजित इस छठे विश्व हिंदी सम्मेलन का ऐतिहासिक महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह राजभाषा हिंदी का स्वर्ण जयंती वर्ष भी था!
इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन 13 से 15 जुलाई, 2007 को न्यूयॉर्क (संयुक्त राष्ट्र अमेरिका) में आयोजित किया गया, जिसका केंद्रीय विषय था- \’विश्व मंच पर हिंदी\’, जो हिंदी की वैश्विक स्वीकार्यता को स्वयंसिद्ध कर रही थी. इसके बाद नौवां विश्व हिंदी सम्मेलन 22 से 24 सितंबर, 2012 को जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) में आयोजित किया गया, जिसमें 22 देशों के 600 से अधिक प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया. और अभी हाल ही में दसवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन 10 से 12 सितंबर, 2015 को भोपाल (भारत) में आयोजित किया गया, जिसका केंद्रीय विषय था- \’हिंदी जगत : विस्तार एवं संभावनाएँ\’.
विश्व हिंदी सम्मेलनों के सुखद नतीजे
विश्व हिंदी दिवस और विश्व हिंदी सम्मेलनों के निरंतर सफल आयोजनों के बेहद सुखद परिणाम आने लगे हैं. वर्धा में महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और मॉरीशस में विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना भी इन्हीं आयोजनों की देन है! विश्व हिंदी सम्मेलनों में पारित प्रस्तावों को कार्यान्वित करते हुए भारत सरकार समेत अन्य देशों की सरकारें भी अपने देश के विश्वविद्यालयों मे हिंदी पीठ की स्थापना करने लगी हैं और वहाँ के स्कूली शिक्षण में भी हिंदी को बतौर माध्यम और बतौर विषय शामिल किया जाने लगा है. प्रवासी भारतीयों और प्रवासी साहित्यकारों एवं पत्रकारों को भी विश्व हिंदी सम्मेलनों के आयोजनों से एक ही अंतराष्ट्रीय मंच पर एकजुट होने के रणनीतिक अवसर मिलने लगे हैं. आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में पारित प्रस्ताव को अमली जामा पहनाते हुए, भारत का केंद्रीय हिंदी संस्थान भी हिंदी के पाठ्यक्रमों और हिंदी कक्षाओं का संचालन कर विदेशों में और देश में भी अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी का व्यवस्थित प्रचार-प्रसार कर रहा है.
उदारीकरण और सूचना प्रौद्योगिकी के आक्रामक दौर को देखते हुए, छठे विश्व हिंदी सम्मेलन (1999) में यह महसूस किया गया था कि हिंदी को सिर्फ संवाद और साहित्य की भाषा तक ही सीमित नहीं रखा जाए, वरन् हिंदी को ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी, तकनीक, संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी (इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) की भी भाषा बनाई जाए. इसी के फलस्वरूप इस सम्मेलन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि हिंदी में प्रौद्योगिकी एवं सूचना तकनीक के विकास, मानकीकरण, विज्ञान एवं तकनीकी लेखन, प्रसारण एवं संचार के अद्यतन तकनीकों के विकास के लिए भारत सरकार एक केंद्रीय एजेंसी की स्थापना करे. भाषा विज्ञान पर गंभीरता से शोध और अनुसंधान करने वाली C-DAC, TDIL जैसी संस्थाओं की स्थापना, राष्ट्रीय अनुवाद मिशन (National Translation Mission) के शुभारंभ एवं विश्वव्यापी पहुँच और प्रचार-प्रसार हेतु सभी सरकारी वेबसाइटों के द्विभाषीकरण आदि के पीछे भी विश्व हिंदी सम्मेलनों में पारित प्रस्तावों की प्रेरक भूमिका देखी जा सकती है.
पिछले दो-तीन दशकों में माइक्रोसॉफ्ट, एप्पल, गूगल, याहू आदि जैसी विश्व की अनेक दिग्गज सॉफ्टवेयर कंपनियों का हिंदी के प्रति व्यावसायिक रुझान बहुत तेजी से बढ़ा है. इसके पीछे भी हिंदी के बाजार के साथ-साथ, इन विश्व हिंदी सम्मेलनों के भी प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभाव देखे जा सकते हैं. सन् 2000 में माइक्रोसॉफ्ट ने भाषा नामक आईटी प्रोजेक्ट भारत में लॉन्च की थी, जिसमें हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं को विंडोज और एमएस ऑफिस में समाहित करने का काम शुरू किया गया था. अभी हाल ही में भोपाल में संपन्न दसवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन भी हिंदी के हाईटेक स्वरूप को बढ़ावा देने के एक अंतर्राष्ट्रीय मंच के रूप में उभरा, जहाँ माइक्रोसॉफ्ट, एप्पल, गूगल आदि जैसी विश्व की अनेक दिग्गज सॉफ्टवेयर कंपनियाँ अपने उत्पादों, साफ्टवेयरों और एप्स में हिंदी के सुगम प्रयोगों को बाकायदा प्रदर्शित कर लोगों को आकर्षित करने की प्रतिस्पर्धा में लगी दिखीं!
संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी की धमक
संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिए जाने की वकालत लंबे समय से की जा रही है. 1975 में नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन में ही यह महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया गया था कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में आधिकारिक भाषा का स्थान दिया जाए. तब से यह बात हर विश्व सम्मेलन और हरेक अंतर्राष्ट्रीय मंच पर लगातार दुहराई जा रही है और इसके सकारात्मक नतीजे भी आने लगे हैं. वीटो पॉवर वाले कई देश अब संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत को स्थायी सदस्य का दर्जा दिलाने के साथ-साथ हिंदी को भी आधिकारिक भाषा बनाने के पक्ष में खुलकर समर्थन करने लगे हैं और भारत और हिंदी- दोनों अब इसे हासिल करने के बहुत करीब पहुँच चुके हैं.
अस्सी के दशक में तत्कालीन विदेश मंत्री श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में पहली बार हिंदी में भाषण दिया था. इससे भारत का और स्वयं हिंदी का माथा गर्व से ऊँचा हो गया था. इसके बाद लंबा अंतराल बीत गया, संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी नहीं गूँजी. लेकिन माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी ने सितंबर, 2014 में बतौर प्रधानमंत्री अपने पहले ही दौरे में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा को हिंदी में संबोधित कर भारत का और स्वयं हिंदी का माथा एक बार फिर अकल्पनीय गर्व से ऊँचा कर दिया! इसके बाद तो हिंदी के समर्थन में मानो एक नई लहर ही पैदा हो गई! प्रबल आशा है कि शीघ्र ही संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी सातवीं आधिकारिक भाषा के रूप मंा स्वीकृत हो जाएगी.
अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हिंदी
माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी ने जून, 2014 में बतौर प्रधानमंत्री अपनी पहली विदेश यात्रा में भूटान के संसद को हिंदी में ही संबोधित किया. जुलाई, 2014 को ब्राजील में संपन्न छठवें ब्रिक्स सम्मेलन में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने सम्मेलन में आए राष्ट्राध्यक्षों से हिंदी में ही बातचीत की और पूरे आत्मविश्वास से अपनी बातें रखीं. उन्होंने जहाँ कहीं भी आधिकारिक विदेश दौरा किया, वहाँ हर संभव प्रयास किया कि वे अपना पूरा भाषण हिंदी में दें या कम से कम अपने भाषण की शुरुआत हिंदी में ही करें.
नवंबर, 2015 में अपने ब्रिटेन दौरे के दौरान माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने लंदन में भी अपने भाषण की शुरुआत हिंदी में करके विश्व पटल पर हिंदी को एक बार फिर आधिकारिक तौर पर पुनर्स्थापित करने का काम किया. यह सिर्फ भाषाई प्रोटोकॉल का दबाव मात्र नहीं, वरन् हिंदी की विश्वव्यापी लोकप्रियता का भी आकर्षण था कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन ने भी हिंदी में अपने भाषण की शुरुआत की- \’नमस्ते लंदन!\’यहाँ तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन भी हिंदी बोलते सुने गए हैं- \’सबका साथ, सबका विकास!\’
हिंदी के बिना अब तो ऑक्सफोर्ड भी अधूरा!
सच कहा जाए तो अब अंग्रेजी भी हिंदी के बिना अधूरी है! अंग्रेजी का मक्का कहा जाने वाला ऑक्सफोर्ड भी अधूरा है! और तो और, अंग्रेजी की गीता कही जाने वाली, अंग्रेजी को भाषा, व्याकरण, प्रयोग और शैली के आधार पर नियमित-नियंत्रित-मानकीकृत करने वाली ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी भी हिंदी के बिना अधूरी है! ऐसा कोई भी वर्ष नहीं बीतता जिसमें ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी अपने को सालाना अपडेट करने के क्रम में अंग्रेजी के शब्द-भंडार में दस-बीस हिंदी शब्दों को शामिल नहीं करती हो! और इसकी वह बाकायदा आधिकारिक अधिसूचना भी जारी करती है!
थोड़ा इतिहास की तरफ लौटें तो इसकी शुरुआत भारत की आजादी की लड़ाई के समय ही हो गई थी. 1857 के सिपाही विद्रोह के दौरान पहली बार लाठी-चार्ज शब्द का अनूठा भाषायी प्रयोग देखने को मिला था! इसमें चार्ज शब्द तो अंग्रेजी का था, लेकिन लाठी शब्द हिंदी से था! इसके बाद तो चपाती, गुरु, पंडित, अवतार, कर्म, बंधन, योग, मंत्र, मुगल, महाराजा, पक्का, बंदोबस्त, खाकी, चीता, बंगला, जंगल, लूट, डकैत, जिमखाना, चटनी, पापड़, कीमा, भेलपूरी, पूरी, रोटी, पराठा, ढाबा, चूड़ीदार, यार इत्यादि जैसे अनेक हिंदी शब्द अंग्रेजी की ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में साल-दर-साल शामिल होते गए! मजेदार बात तो यह है कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के नवें संस्करण (2015) में शामिल नए शब्दों में सबसे अधिक शब्द हिंदी से लिए गए हैं और इनमें सबसे मजेदार शब्द है- \’अरे यार!\’
नमस्कार, ये बीसीसी हिंदी है!
लंदन स्थित बीबीसी यानी ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन एक जानी-मानी ब्रॉडकास्टिंग संस्था है. यहाँ से प्रसारित बीबीसी हिंदी सेवा बहुत ही लोकप्रिय है और यह बहुत लंबे समय से सतत चल रही है. यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि हिंदी न केवल भारत में वरन् विश्व में भी लोकप्रिय है और इसकी अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता है. बीबीसी के अलावा, जिन देशों के रेडियो स्टेशनों से हिंदी में कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं, वे हैं: जर्मनी, जापान, चीन, ईरान, अमेरिका, मॉरीशस, श्रीलंका आदि. श्रीलंका से हिंदी में प्रसारित होने वाला रेडियो कार्यक्रम बिनाका बहुत लोकप्रिय हुआ था और लोग इसी कारण रेडियो सिलोन को अब भी नॉस्टैलजिक होकर याद करते हैं! यूएई से हम एफएम कार्यक्रम हिंदी में प्रसारित किया जाता है. लंदन की बीबीसी हिंदी के अलावा, अमेरिका के व्यॉइस ऑफ अमेरिका, जर्मनी के डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड, चीन के चाइना रेडियो इंटरनैशनल की हिंदी सेवाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं.
विदेशों में हिंदी पत्र-पत्रिकाएँ एवं प्रवासी हिंदी साहित्य
अंतर्राष्ट्रीय जगत में हिंदी की पहचान और स्वीकार्यता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि विदेशों में न सिर्फ रेडियो स्टेशनों से हिंदी में कई लोकप्रिय कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं, बल्कि विदेशों में हिंदी भाषा में कई पत्र-पत्रिकाएँ भी प्रकाशित की जाती हैं. इतना ही नहीं, हिंदी में प्रकाशित इन पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने वाले पाठकों की तादाद भी विदेशों में अच्छी-खासी है. एक अनुमान के मुताबिक, विदेशों में हिंदी में प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं की संख्या सौ के करीब है. इसके अलावा, विदेशों में प्रकाशित होने वाले अनेक समाचार पत्र हिंदी की लोकप्रियता और रीडरशिप को देखते हुए भारत में अपने हिंदी संस्करण निकालने लगे हैं. इसमें मजेदार बात यह भी है कि उनके हिंदी संस्करण उनके अंग्रेजी संस्करणों से ज्यादा बिक रहे हैं और ज्यादा पढ़े जा रहे हैं!
इसके अलावा, हिंदी में रचा जा रहा प्रवासी साहित्य भी अत्यंत लोकप्रिय हो रहा है और अनिल जनविजय, कृष्णबिहारी, उषा प्रियंवदा, तेजेंद्र शर्मा, पुष्पिता आदि जैसे अनेक प्रवासी हिंदी साहित्यकार विदेशों में रहकर हिंदी की सेवा में लगे हुए हैं.
बॉलीवुड में ही नहीं, हॉलीवुड में भी हावी हिंदी
भारत के मुंबई स्थित बॉलीवुड में लगभग पूरा का पूरा कारोबार हिंदी के बूते ही टिका हुआ है. हिंदी फिल्में, गाने, धारावाहिक इत्यादि न केवल भारत में लोकप्रिय हैं, बल्कि वे विदेशों में भी उतने ही देखे-सुने और सराहे जाते हैं. बॉलीवुड के शोमैन कहे जाने वाले राज कपूर की सभी हिंदी फिल्मों को रूस में इतनी लोकप्रियता हासिल थी कि उन्हें तो विदेशी दर्शकों की माँग पर अपनी फिल्में पहले विदेश में ही रिलीज करनी पड़ती थी या फिर उनका पहला प्रीमियम शो विदेश में ही करना होता था! हिंदी फिल्मों की निरंतर बढ़ती लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अब भी कई नई फिल्में विदेशों में रिलीज होती हैं या उनका पहला प्रिमियम शो विदेशों में किया जाता है. यहाँ तक कि बॉलीवुड के कई लोकप्रिय अवार्ड फंक्शन भी विदेशों में ही किये जाते हैं, जो बहुत लोकप्रिय हैं. अभी हाल ही में जब विदेशी धरती पर आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय सिने समारोह में बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने दर्शकों को हिंदी में संबोधित किया तो पूरा ऑडिटोरियम खुशी से झूम उठा और विदेशी मीडिया में भी इसकी खूब चर्चा हुई!
पूरी दुनिया में हिंदी की बढ़ती लोकप्रियता का अब तो आलम यह है कि आज सभी अंग्रेजी चैनल और अंग्रेजी फिल्मों के निर्माता-निर्देशक अंग्रेजी कार्यक्रमों और फिल्मों को हिंदी में डब करने लगे हैं! जुरासिक पार्क, टर्मिनेटर, स्पीड, टाइटैनिक आदि जैसी अनेक अतिप्रसिद्ध अंग्रेजी फिल्मों को अधिक मुनाफे के लिए हिंदी में डब किया जाना जरूरी हो गया. इनके हिंदी संस्करणों ने भारत में इतने पैसे कमाए, जितने अंग्रेजी ने पूरे विश्व में नहीं कमा पाए! इसके अलावा, AXN, HBO, SONI, STAR आदि जैसी दिग्गज अंग्रेजी कंपनियों को भी बाजार और मुनाफे के दबाव में हिंदी में अपना प्रसारण शुरू करना पड़ा. इतना ही नहीं, DISCOVERY, NATIONAL GEOGRAPHIC, HISTORY आदि चैनलों के साथ-साथ, CARTOON NETWORK, DISENY, NICK, POGO आदि जैसे किड्स चैनलों को भी माँग और बाजार के आकर्षण में अपने हिंदी संस्करण लॉन्च करने पड़े, जो अंग्रेजी से कहीं ज्यादा देखे-सराहे जा रहे हैं!
बाजार और विज्ञापन की सबसे दमदार भाषा हिंदी
हिंदी कहीं फिल्मी गीत-संगीत तो कहीं भक्ति-संगीत में ढलकर, कहीं तीज-त्योहारों की उमंगों में सवार होकर, कहीं साहित्य, कला, संस्कृति के माध्यम बनकर तो कहीं योग, आसन, आयुर्वेद, धर्म और अध्यात्म की वाहक बनकर, न केवल भारतीय उपमहाद्वीप में बल्कि विश्व के कोने-कोने तक पहले ही फैल चुकी है. लेकिन उदारीकरण के दौर में जब मुक्त बाजार और खुली अर्थव्यवस्था का आगाज हुआ और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने उत्पाद बेचने और अपने कारोबार फैलाने विभिन्न देशों में पहुँचने लगीं तो उन्हें भारत में एक बहुत विशाल बाजार दिखा. लेकिन इस विशाल बाजार को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उन्हें जो सबसे पहले और सबसे बड़ा कदम उठाना पड़ा, वह था हिंदी को अपनाना क्योंकि भारत में सतत समृद्ध होते मध्यम वर्ग में ही सर्वाधिक विस्तृत क्रयशक्ति निहित है और इस विशाल मध्यम वर्ग की सबसे चहेती भाषा शुरू से ही हिंदी रही है!
यही कारण है कि चाहे हच, वोडाफोन, रिलायंस, एयरटेल, युनिनॉर, एयरशेल आदि जैसी टेलिकॉम कंपनियाँ हों, चाहे विविध इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद बेचने वाली सैमसंग, सोनी, एलजी, पैनासोनिक, मोटोरोला, नोकिया, कैनन, निकॉन आदि जैसी कंपनियाँ हों, चाहे नाना प्रकार की खाने-पीने की चीजें बेचने वाली पेप्सी, कोकाकोला, अंकल चिप्स, पिज्जा हट, डॉमिनोज, केएफसी आदि जैसी कंपनियाँ हों या फिर विभिन्न प्रकार की कॉस्मेटिक सामग्रियाँ बेचने वाली बेनेट-कोलमैन, प्रॉक्टर एंड गैंबल, लैक्मे आदि जैसी कंपनियाँ हो या ऐसी तमाम राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हों, सबको अपने उत्पाद बेचने के लिए हिंदी में विज्ञापन देने और हिंदी में विज्ञापन के लिए सबसे अधिक बजट आबंटित करने को बाध्य होना पड़ा! यह जानना कितना रोमांचक है कि आज कुल विज्ञापनों का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा हिंदी विज्ञापनों का है!
बाजार के दबाव में हिंदी के सबसे सफल प्रयोग का उदाहरण तो रिलांयस कंपनी के संस्थापक धीरूभाई अंबानी की वह सबसे अनूठी पहल रही, जिसमें उन्होंने हर हाथ में मोबाइल का नारा देते हुए, मोबाइल फोन में हिंदी भाषा में इनपुट डालने की मनोवंछित सुविधा सबसे पहले प्रदान कर भारत की विशाल ग्रामीण आबादी के असंख्य हाथों में रिलायंस मोबाइल पहुँचा दिया! इसके बाद तो केवल महानगरीय अमीर आबादी को अपना लक्ष्यसमूह मानने वाली तत्कालीन टेलिकॉम कंपनी हच (अब वोडाफोन) भी यकायक हिंदी में उतर आई! और इसके बाद तो एक-एक कर सारी की सारी मोबाइल कंपनियाँ हिंदी की शरण में लोट गईं!
यहाँ तक कि बाजार के दबाव में विज्ञापनों में हिंदी-अंग्रेजी की चटपटी मिलावट जैसे अनेक मजेदार प्रयोग भी होने शुरू हो गए और इससे हिंदी और अधिक लोकप्रिय हो गई! इसका सबसे पहला और सबसे सफल उदाहरण है एक विज्ञापन का सबसे लोकप्रिय टैगलाइन- ये दिल माँगे मोर! इसके बाद तो फिकर नॉट, यंगिस्तान, फुलटुस फन, फन-टूस, फन धमाका, धमाका सेल आदि जैसे अनेक मजेदार जुमले विज्ञापनों में इस्तेमाल किए जाने लगे और इनका शानदार भाषा-मनोवैज्ञानिक असर लक्षित उपभोक्ताओं पर भी पड़ता दिखा. इतना ही नहीं, अब तो ई-कॉमर्स करने वाली कंपनियों ने भी अपनी वेबसाइटों के नाम तक में हिंदी का प्रयोग करना शुरू कर दिया है, जैसे janotomano.com (जानो तो मानो डॉट कॉम), yatra.com (यात्रा डॉट कॉम), naaptol.com (नापतौल डॉट कॉम), pastiwala.com (पस्ती वाला डॉट कॉम) आदि!
कुछ कंपनियों ने अपने टैगलाइन भी हिंदी में देने शुरू कर दिए हैं, जैसे TVS Jupiter बाइक का टैगलाइन है- ज्यादा का फायदा! OLX का टैगलाइन है- बेच दे! जो कंपनियाँ अब भी अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पा रहीं, वे भी हिंदी में टैगलाइन देने लगी हैं, भले वह रोमन स्क्रिप्ट में लिखा हो! जैसे FLIPKART का टैगलाइन है- Ab har khwaish hogi puri! वहीं MICROTEK Inverter का टैगलाइन है- Sab chale befikar! QuikrHomes का टैगलाइन है- Asan hai badalna! Mahindra Gusto का टैगलाइन है- Kisi se kam nahi! KOTAK Life Insurance का टैगलाइन है- Koi hai Hamesha! ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएँगे. कुछ कंपनियाँ तो अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए और भी मजेदार प्रयोग करती नजर आ रही हैं और नित नए जुमले जुबान पर चढ़ते जा रहे हैं! उदाहरण के लिए- बेच डे (bech-day), जनताबुलस (janta-bulous)!
जो बात हिंदी में है, किसी और में कहाँ!
आज चाहे मनोरंजन की दुनिया हो, विज्ञापन की दुनिया हो, टेलीविजन की दुनिया हो या फेसबुक, ट्वीटर, गूगलप्लस आदि जैसी सोशल मीडिया की दुनिया हो या फिर किसिम-किसिम के उत्पाद और सेवाएँ बेचने वाला राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय बाजार- सबको यह पता चल गया है कि अब हिंदी सबसे अधिक मुनाफे की भाषा है! अर्थजगत हो या खेल की दुनिया – अब हर जगह हिंदी का बोलबाला है. विश्व के सबसे बड़े मीडिया महारथी रूपर्ट मर्डोक को भी हिंदी की शरण में आना पड़ा! फाइनांसियल एक्सप्रेस, इकॉनॉमिक्स टाइम्स, सीएनबीसी आवाज, जी-बिजनेस, एनडीटीवी प्रॉफिट आदि जैसे अनेक बिजनेसिया अखबारों-चैनलों को बाजार और मुनाफे के दबाव में अपने हिंदी संस्करण शुरू करने पड़े. और सबसे मजेदार बात तो यह हुई कि स्टार स्पोर्ट्स जैसे अंग्रेजीदाँ चैनल को भी स्टार क्रिक्रेट चैनल का हिंदी संस्करण शुरू करते हुए कपिलदेव के मुँह से कहलवाना पड़ गया कि “जो बात हिंदी में है, किसी और में कहाँ!!”
जी हाँ, सचमुच! यह सच है कि जो बात हिंदी में है, वह किसी और में कहाँ? हिंदी सिर्फ़ बाजार के दबाव में नहीं, बल्कि अपनी मिठास, सरलता-सहजता और तीव्रतम सुग्राह्यता के कारण पूरे विश्व में सबसे लोकप्रिय भाषा बनती जा रही है. यहाँ तक कि अमेरिका, ब्रिटेन जैसी ताकतवर अंग्रेजीदाँ सरकारों को भी अपने सालाना बजट में हिंदी के लिए अलग से बजट प्रावधान करना पड़ रहा है! अब विश्व पटल पर हिंदी की हैसियत पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता. अब हिंदी विश्व पटल पर छा गई है! अब हिंदी दुनिया को भा गई है! वरना हाल ही में सम्पन्न हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव-2016 में रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प के प्रचार अभियान में भला ये नारा क्यों गूँजता- “अबकी बार, ट्रम्प सरकार!”
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राहुल राजेश
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