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समालोचन

Home » अनुराधा सिंह की कविताएँ

अनुराधा सिंह की कविताएँ

अनुराधा सिंह की कविताएँ संशय की कविताएँ हैं.सबसे पहले वह लिखे हुए शब्दों को संदेह से देखती हैं कि क्या इसका अर्थ अभी भी बचा हुआ है.फिर वह प्रेम को परखती हैं कि यह कभी संभव हुआ भी था ?स्त्री होने का ज़ोखिम न केवल समाज में बल्कि भाषा में भी बढ़ता जा रहा है. सीरिया, लेबनान में ही नहीं ऐन हमारे सिरहाने उनका बहता हुआ रक्त है.अनुराधा की कविताओं में यह  बार–बार दीखता है. ये बेचैन करने वाली कविताएँ हैं. 

by arun dev
November 22, 2016
in कविता
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अनुराधा सिंह की कविताएँ
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अनुराधा सिंह की कविताएँ                     

 

लिखने से क्या होगा

मुझे लगता था कि
चिड़ियों के बारे में पढ़कर क्या होगा
उन्हें बनाये रखने के लिए
उन्हें मारना बंद कर देना चाहिए
कारखानों में चिमनियाँ
पटाखों में बारूद
बन्दूक में नली
या कम से कम
इंसान के हाथ में उंगलियाँ नहीं होनी चाहिए
आसमान में आग नहीं चिड़िया होनी चाहिए.

वनस्पतिशास्त्र की किताब में
अकेशिया पढ़ते हुए लगा कि
इसे पढ़ना नहीं बचा लेना चाहिए
आरियों में दाँत थे
दिमाग़ नहीं
हमारे हाथों में अब भी उंगलियाँ थीं
जबकि आसमान में चिड़िया होने के लिए
मिट्टी में बदस्तूर पेड़ का होना ज़रूरी था.

फिर देखा मैंने
स्त्री बची रहे प्रेम बचा रहे
इसके लिए
क़लम का
भाषा का ख़त्म होना ज़रूरी है
हर हत्या हमारी उँगलियों पर आ ठहरी
जिन्होंने प्रेम और स्त्री पर बहुत लिखा
दरअसल उन्होंने किसी स्त्री से प्रेम नहीं किया.

 

तब भी रहूँगी मैं

तब, जब हो जाऊँगी
मैं निश्चल
निर्जन वन में स्थिर जल सी
क्या तब भी बनैले पशु आयेंगे मेरे तट पर
अपनी आखेटक प्यास लेकर
तब भी क्या मेरे भीतर की तरलता
पहचान ली जाती रहेगी निस्संदेह

जब खो दूँगी भविष्य में
किसी प्रेम
की प्रत्याशा
क्या तब भी स्त्री लगती रहूंगी सम्पूर्ण

जिस दिन तिनके बीनना बंद कर दूँ
क्या तब भी माना जायेगा
उर्वर हूँ
बना रही हूँ घोंसला
आने वाली संतति के लिए
छुपा सकती हूँ अपने गर्भ में
प्रेम के कोमल रहस्य अब भी

जब थक कर रुक रहूँगी
पीपल के थिर पत्तों में
आषाढ़ी पवन की तरह
क्या तब भी
शिरोधार्य की जाएँगी
मेरे अंतर की प्रच्छन्न कामनाएँ

थक जाने पर भी
चलती उड़ती खनखनाती रहती हूँ
डरती हूँ रुक जाने से
शांत हो जाने से
स्त्रीत्व के सूख जाने से.

 

बची थीं इसीलिए

वे बनी ही थीं
बच निकलने के लिए

गर्भपात के श्रापों से सिक्त
गोलियों
हवाओं
मुनादियों और फरमानों से इसीलिए बच रहीं
ताकि सरे राह निकाल सकें
अपनी छाती और पुश्त में बिंधे तीर
तुम्हारी दृष्टि के कलुष को अपने दुपट्टे से ढांक सकें

बचे खुचे मांड और दूध की धोअन से
इसीलिए बनी थीं
कि सूँघें बस ज़रा सी हवा
और चल सकें इस थोड़ी सी बच रही पृथ्वी पर
बचते बचाते
इस नृशंस समय में भी
बचाये रहीं कोख़ हाथ और छाती
क्योंकि रोपनी थी उन्हें
रोज़ एक रोटी
उगाना था रोज़ एक मनुष्य
जोतनी थी असभ्यता की पराकाष्ठा तक लहलहाती
सभ्यता की फसल
यूँ तय था उनका बचे रहना सबसे अंत तक.

 

 

खेद है

मुझे खेद है
कि जब नहीं सोचना चाहती थी कुछ भी गंभीर
तब मैंने तुम्हारे लिए प्रेम सोचा

अला कूवनोव की खस्ताहाल गली में रह रही
बूढ़े आदमी की जवान प्रेमिका की तरह
असंभावनाओं से परिपूर्ण था मेरा प्रेम
मेरे सामने की दीवार
जिस पर कभी मेरे अकेले
कभी हम दोनों की तस्वीर टंगी रहती है
जीवन में तुम्हारे जाने आने की सनद मानी जाएगी अब से

सड़क पर सरकार का ठप्पा लगा है
फिर भी घूमती फिरती है जहाँ तहाँ
नारे लगाती है उसी के खिलाफ
पत्थर चलाती है ताबड़तोड़
और फिर लेट जाती है वहीँ गुस्ताखियों में सराबोर
मैं इस सड़क जैसी बेपरवाही और मुख़ालफ़त के साथ
इसी पर चल कर
पहुँच जाना चाहती थी तुम तक
क्योंकि अनियोजित जी सकना ही
अर्हता है प्रेम कर सकने की
अब इस प्रेम को कैसे रंगा जाये किसी कैनवास पर
क्या आस पास फैले हुए कपड़े और जूते
प्रेम की बेतरतीबी की तदबीर बन सकते हैं
या स्टेशन पर घंटों खड़ा
ख़राब इंजन
रुकी हुई ज़िन्दगी में
चुक चुके प्रेम की तस्वीर हो सकता है

क्षमाप्रार्थी हूँ
घिर जाना चाहती हूँ दुर्गम अपराधबोध में
कि जब नहीं था मेरे पास करने के लिए
कुछ और
मैंने प्रेम किया तुमसे.

 

 

बुद्धत्व

शब्द लिखे जाने से अहम था
मनुष्य बने रहना
कठिन था
क्योंकि मुझे मेरे शब्दों से पहचाना जाए
या मनुष्यत्व से
यह तय करने का अधिकार तक नहीं था मेरे पास
शब्द बहुत थे मेरे
चटख चपल कुशल कोमल
मनुष्यत्व मेरा रूखा सूखा विरल था
उन्होंने वही चुना जिसका मुझे डर था
चिरयौवन चुना मेरे शब्दों का
और चुनी वाक्पटुता
वे उत्सव के साथ थे
मेरा मनुष्य अकेला रह गया
बुढ़ाता समय के साथ
पकता, पाता वही बुद्धत्व
जो उनके किसी काम का नहीं.

 

मैं फिर बेहतर थी

उसने बहुत दिया मुझे
अब वापस कैसे करूँ उतना सब
जिन दिनों वह दे रहा था मुझे दुनियादारी के सबक
दुनिया झुलस रही थी
हिंसा और बैर की आग में
तरुण यज़दी लड़कियाँ
नोची खसोटी जा रहीं थीं वहशी दरिंदों के हाथों
मैं फिर बेहतर थी.

जितने कष्टसाध्य काम थे
उन सबके घाट पर ला खड़ा किया है उसने मुझे
मेरे जैसे कमज़ोर इंसान के लिए
किसी से मुंह फेर लेना असंभव था
अंतर्भूत था स्वयं से प्रेम करना
उसने सुनिश्चित किया कि
कोई प्रेम न करे मुझे अब
मैं भी नहीं .

फिर भी बेहतर हूँ उन औरतों से
जो अपने देशों की लड़ाई में खून खच्चर हुईं थीं सरोपा
दिल भी हुआ था उनका
दिल ही सबसे ज्यादा
मुझे तो सिर्फ चीखती धूप में खड़ा कर दिया
कुचलती रौंदती बारिश के नीचे
ठगी गयी थी मैं ऐसी
कि मेरा सारा असबाब सलामत था
वह सिर्फ मुझसे प्रेम करने की सायत
और रिवायत ही तो भूला था
और क्या हुआ था मेरे साथ
मैं बहुत बेहतर थी
लीबिया, सीरिया की बेटियों और अफ़गान औरतों से.

बहुत बेहतर थी मैं उन औरतों से
जिनके दुःख दिखते हैं
जो छाती पीट कर रो सकतीं हैं
पछाड़ खा सकती हैं विलाप कर सकती हैं
नहीं दिखा सकती थी मैंने अपने ज़ख्म
किसी पेचीदा मरहम को
नहीं माँग सकती थी अपनी बेनींद रातों का हिसाब
एहतियाती सिरहाने से
नहीं रोई कभी
क्योंकि मैं फिर बेहतर थी.

११ सालों से मुंबई और दूसरे शहरों के झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले साधनहीन छात्रों के लिए रोज़गारपरक शिक्षा हेतु कार्य कर रही हैं. लेखन और अनुवाद भी साथ- साथ.  
पता : बी 1504 , ओबेरॉय स्प्लेंडर, जोगेश्वरी ईस्ट , मुंबई.   
ईमेल: anuradhadei@yahoo.co.in
मोबाइल : 9930096966
Tags: अनुराधा सिंहनयी सदी की हिंदी कविता
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