अतुलवीर अरोड़ा की लम्बी कविता
कादम्बरी याद रहेगी (11–06–2016)
एक थी
कादंबरी
वह
शेष नहीं थी
व्यथा में अपनी
अवसाद का गद्य
लेकर प्रच्छन्न
अपनी
कथा कहती रही
जटिल
मुखर हुआ पद्य
व्यक्त अव्यक्त
अंतहीन यात्राओं से
लौटा हुआ
कवि
परिजनों के बीच
उसे तलाशता हुआ
पदस्थ
अपदस्थ
कहाँ
जीवन कहाँ था
जो कभी हुआ करता था
इस बचे खुचे समय में
वह
जीवित नहीं था
अभी
बीत चुका था
वह अभी
बीत जाएगा
कुछ ऐसा ही कहता हुआ
बीतने को था
जो कभी
बीतना न था
कौन,
भूषणभट्ट ?
तुम कहो न कहो ,
फलित होते रहेंगे
अनकहे भी शब्द
भेदी
बाण की तरह
कादम्बरी याद आएगी !
हम भूल जाएंगे ,
कादम्बरी याद रहेगी.
2
शिलातल
नहीं है कोई
बैठे रहना तुम, मुनिकुमार जी !
कामदेव पूछेगा
तुम से जब प्रश्न
उत्तर क्या दोगे ?
स्खलित
ज्ञान्पुन्ज !
दुष्प्राप्य
अपने
अस्खलित यौवन में !
रुदन से मुंद गए हैं
दीखें
चिपके नयन
खंडित न मण्डित स्वतः
पुण्डरीक के !
चन्द्रपीड खो गया
वैशम्पायन जी.
उठो, सलाम करो
अपने एक पाँव से !
|
पेंटिग : राजा रवि वर्मा |
3
विस्मृति के कक्ष में जो सो रही है
वह,
उसे कथा होना है
या कथ्य
विरह का
महाश्वेता पूछती है
प्रश्न अनुत्तरित !
वैशम्पायन जी !
कथासरित सागर ,
तुम !
सुन रहे हो या सुना रहे हो ?
शिल्प ही की त्वचा में से खिलते
बाहर आते हुए
प्रभुत्व में जादू के
मन्त्र सिद्ध हाथ !
कान कहाँ गए ?
लुप्त हुई वाणी !
आकाश में कहाँ
कौनसे
चले गए हैं
सब के सब पात्र
मर्म अभी उलझेगा
बार बार सुलझेगा
परछाइयाँ किसकी
कहाँ कहाँ ओढ़कर
भरम लील जाएगा
अरब की कथाओं में
सोये हुए प्रेम को
जगाने के लिए
शूद्रक, मेरे श्रोता !
यादों की मृत्यु तक जीवन खोजा करती है !
एक धागा खुलता है
दूसरे को बाँधने
वृत्त लेकिन फिर भी रहता है
अधूरा.
बुनती चलती रहती है.
कादंबरी को याद है
अपना आरम्भ !
अंत पता नहीं ,
वैशम्पायन जी !
एक बार फिर
अपने एक पाँव से
अपनी सरजी हुई कथा को
कथा -सलाम हो !
चंडीगढ़ से दिल्ली
दिल्ली से कोलकतां
हवा में हवा. ..!
वह कथ्य क्या हुआ ?
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कैसी हो , कादम्बरी ?
रुको तो सही
कुछ देर रुको
कंठ में ऐसे ही
भीतर गिरने से पहले
अश्रु सिंचित आँख में
विष वमन होगा ही
अंकुरित जो हो रहे हैं
दुःख
गीले शिखरों पर
पेड़ों या पहाड़ों के
मूर्छा के इंतज़ार में
अनकही ठहरी है
कथा
किसी किराए के
प्रसूतिगृह में
अंश अंश आती हुई
खुरचन जैसी
बाहर
अपने शुष्क गर्भ गृह से
वृत्त में अटका है
मरणासन्न शिशु
रक्तसना पाषाण.
चन्द्रपीड विह्वल !
कौन था वह जो समुद्र में जा गिरा
फिर अश्व बन गया
शापग्रस्त प्राण !
मिथुन में लीन हुए किन्नरों के साथ ?
आर्तनाद सुनो
महाश्वेता पीट रही है
छाती पृथ्वी की
उसी के अंक में लेटी हुई.
वधिक
प्रार्थनारत.
कैसी हो, कादंबरी ?
छठी से इक्कीसवीं में
कैसी छलांग ?
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साष्टांग कादम्बरी ! (17–06 –2016)
भूल गए
उपोद्घात
कहां शुरू हुए
ताप न तपस्या
ऋषिमूल गए !
कहां गए तपस्वी
मुनियों के तपोवन
यमुना का कीच
जल
भरसक चुप है
जीव जन्तु असुरक्षित !
जीने की कला
मांस
गोमांस राजनीति दूर निकल आई.
सूर्यमण्डल लूटने को निकल गए हो, सनत कुमार जी !
खड़े भी नहीं हुए थे
बिजली हड़प ली
सोना चांदी बांदी सेवक बंधुआ कर लिए
दावानल रचा
वनों के वन
चंदन
लुप्त हो गए
विश्वनिर्माता !
अम्बारी, काका !
पीले नीले अमरबेल चढ़े बढ़े
अमरी
नारायण
राष्ट्रों के राष्ट्र
संयुक्त
व्यापारी
शंख, गदा, खड्ग, चक्र, नृसिंहरूप
प्रकट
सद्यः प्रकट
अनार्य
पुण्यों के पुण्य,
कादंबरी तुम्हें साष्टांग प्रणाम करती है !
|
पेंटिग : राजा रवि वर्मा |
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शुरू भी नहीं हुई
और शुरू हो गई
ब्रह्मा से पूछा
नहीं
विष्णु न महेश का
स्मरण
ही किया
फिर भी
उन्हीं की प्रजाओं का हिस्सा बनी
दृश्य में न बाणासुर
न मणियों के समूह
रावण के मस्तक थे
लेकिन वे भी गायब
दैत्यों के जैसे स्पर्श र्में थे देव
दैव
निष्ठुर था
ताप, क्रोध,रुधिर, आंसू, अट्टहास था
सत्व रजोतम में
तम का महातम ही
वर्णमाला थी !
उन्हीं के थे चरण
उन्हीं की थी धूल
धूलियाँ ही धूलियाँ
कथ्य चन्द्रपीड में
कथन पुण्डरीक !
अनुभवपर्व
हत्यारा
महाश्वेता सा
पृथ्वी में से
धुन्धाया
फूट कूट खौलता
जलजालाता उबरता
ठेलता कुछ फैलता
अंतरिक्ष में !
कदम्ब की डाल
टूटा
काला आकाश !
अविनाशी शरीर
मेरा
सपर्श करो, तुम !
विगतशाप
पुण्डरीक !
उतरो आकाश से !
हाथ लिए हाथ, ओ रे, कपिंजल !
आलिंगन चन्द्रतेजोमय !
अविनाशी अप्सरा
मैं कथा, कादम्बरी !
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कादम्बरी मुग्ध ! (21- 06 -2016 )
कथा का एक
विराट
कोई प्राणवान
पिंजर रहा होगा
जो फिलहाल कथा को
पिंजरे में धकेल कर
खुद
बाहर आ गया था.
पिंजरे में कैद कथा
अपना पाठ सुना रही थी
तोता मैना को
शब्द शब्द
नाद
मंत्रोच्चार
दोनों
वाणी को
हूँहाँ में मुखर करते हुए
दरअसल कथा को
गुप्त रख कर
मौन किसी स्वप्न जैसे
हो गए थे.
कर्णाभरन
चंदन के
तिल थे या तीली
नुकीले श्रृंगार.
कथा वहीं बैठ जाती
होकर
सुगन्धित
शब्दों की कमान पर खिंचने के लिए
हाथियों के यूथ के यूथ की प्रतीक्षा में
कि चढ़ कर आएंगे
योद्धा
सेनानी
महावतों के संग
स्तम्भ के स्तम्भ
स्तम्भित अध्याय
कथा के प्रवाह को रचते हुए
कथा युद्ध थी
कथा बुद्ध थी
नायिका मुग्धा
कादम्बरी मुग्ध थी
अपने चरित्रों पर
अपनी घटनाओं के मध्य
रास
रंग में !
हालांकि प्रसंग सारे
सिरे से नदारद थे.
मिथुन स्वतः मिथुन के
कथा विशारद थे !
आती जाती रहती थी
पिंजरे के भीतर
पिंजर में सांस
तप्त !
वैशम्पायन जी ,
एक बार अपने
एक पांव पर
खड़े हो जाओ ,
माथा झुकाओ ,
और कर लो सलाम !
8
कादम्बरी नयना : 22- 06 – 2016
विस्फारित नेत्र थे
प्रश्न पूछते हुए
वर्णन में जाओगे
कथा सूत्र उठाओगे
कहां से कहां
कैसे ,
इतनी कितनी सब
इकाइयां बनाओगे
थोड़ी देर
दण्डी के पास
चले चलते हैं
अर्थस्फुट की भिक्षा में
दशकुमार चरित ही के पास
हो आते हैं.
नहीं कहीं मिलेगा तो चुराकर लाते हैं.
समास लेने होंगे तो
लौट आएंगे
भीतर
अपने पास
फिलहाल अनगिनत श्लेष सृष्टि है.
चाहूँ तो
पहन सकती हूँ
सकीर्ण
चोली भी
घाघरे में अपने विस्तीर्ण हो सकती हूँ
दिल्ली ही नहीं
पूरी सृष्टि घूम
घूम्यो है
अनन्त मेरी जंघा
प्रजाओं के सृष्टिकाल
जन्मे अजन्मे
कल्पित कर सकती हूँ
जम्बूद्वीप पृथ्वी
संकल्पित कर सकती हूँ
शुकनास वचना मैं
चन्द्रपीड शयना
मेरे कादम्बरी नयना !
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पेंटिग : राजा रवि वर्मा |
9
हेल्लो , कादम्बरी ! (23-06 -2016 )
मुझे नहीं पता
मैं मूल हूँ
या धूलिकण
बालुका नदी की
सागर संतप्त
के तट पर
अनुरक्त
कुछ कुछ आरक्त
खड़ी सोच रही हूँ
ले लूँ या
डुबकी को भूल जाऊं
उड़ जाऊं
दूर कहीं
अनजाने
अंतरिक्ष
आकाशभाषित सृष्टि
मेरी लुप्त कथा दृष्टि
कहने और लिखने के गुह्यतम रहस्य
बृहत्कथा होती मैं
पैशाची पोषित
या सोमदेव घोषित
भाषा में भिन्न
श्लोकबद्ध होकर
फिर छिन्न -विच्छिन्न
सूर्यमति , बोलो !
में मनोरंजन हूँ ?
लिए दिए घूमती हूँ
किस्से ही किस्से
किस किसके हिस्से
कुलटाएं
जागृत
वारांगनाएं
धूर्त मेरे पुरुष
कामरूप कामरस
लोल लूल लोलुप
कितनी मैं मौलिक
भौगोलिक कितनी
कितनी मूलभूत
मैं कथा में व्यभिचार
मैँ सांस्कृतिक अतिचार
मैं चित्र विचित्र
इस जीवन सम्पूर्ण में
मरण मेरा खेल
यह कल्प
जगत गल्प !
आना था दूसरे
कितने कितने कालों में
जाना
मर्म पाना था
पुल कहीं बनाना था
तोड़ते भी जाना था
में कथा का पहने हुए
जुआ
जुआरी
करती ऐय्यारी
तिल मेरी भूमि
तिल का पहाड़
राई के जंगल
काई सिवार
पहाड़ी गुफाएं
झरने लताएं
मेरे नगर
महानगर
खोदे दिए किसने
खुंदे नाखूनों से
मत्स्यपुराण मैं
खान कलाओं की
गुणाढ्य का मान
सारस्वत सम्मान
में ही हूँ शिव
और हूँ में ही पार्वती !
सूर्यमति , बोलो !
पृष्ठ मेरे खोलो !
हेल्लो , हेल्लो ,
हेल्लो ! हेल्लो !
में कहां की कादम्बरी !
मैं यहां हूँ कादम्बरी !
10
होने को मैं थी
और मुझे
होना नहीं था
शापमुक्त हो कर खुद को
खोना नहीं था
कथन शापग्रस्त मुझको
ढोना नहीं था
रोना मेरा
रोना धोना
रोना नहीं था.
एक जीवन था कहीं जो
दूजा होना था
दूसरे को पहले जैसी
पूजा होना था.
मुक्त
शापमुक्त !
लेकिन फिर भी
शापग्रस्त !
वृत्त अनावृत्त
अनावृत्त में भी वृत्त
कथा, तुमको कथा में
कदम्ब होना था !
______________
मेरा पूरा नाम मुझे \’अतुलवीर अरोड़ा\’ की शक्ल में मिला है जिसे मैंने कभी बदलने की कोशिश नहीं की. जन्म (२६ सितंबर, १९४६ ) मेरा लाहौर में हुआ था जब पाकिस्तान बनने के खटके शुरू हो चुके थे. पुराने पंजाब से विलग होने के बाद नए पंजाब में अमृतसर, जालंधर, शिमला, चंडीगढ़, दिल्ली, और अब पंचकूला (हरियाणा ) में स्थायी वास. पंजाब विश्वविद्यालय से एम. ए., हिंदी (१९६८)और पी-एच.डी. ( भाषा संकाय,१९७१)
पुस्तकें : \’आधुनिकता के संदर्भ में आज का हिंदी उपन्यास\’ (आलोचना), समकालीन रचनाशीलता और रंगतन्त्र -विचार (आलोचना), \’एक समुद्र चुपचाप \’ (कविता संग्रह), \’जैसे परम्परा सजाते हुए\’ (तेजी ग्रोवर और अर्नेस्ट अल्बर्ट के साथ मिलकर प्रकाशित किया गया कविता संकलन), सहयोगी कविता-कहानी संकलनों में हिस्सेदारी. मसलन, \’निषेध के बाद\’ (संपादक : दिविक रमेश), \’बच्चे की वापसी\’ (संपादक :बलदेव वंशी) \’कितना अन्धेरा है\’ (लंबी कविताएं, सम्पादन : मोहन सपरा), \’कविता दशक\’ (प्रताप सहगल, सुखबीर सिंह ), \’कहानी के आसपास\’, \’आज की हिंदी कहानी\’ इत्यादि.
थियेटर और फिल्म जगत में अभिनय के माध्यम से रह रह कर दखल (१९७४ से २००८ तक)
कई रंग -नाटकों की रचना. एक काव्य नाटक, \’गुनाहगार हाज़िर है\’, हाल ही में (स्व.)नीलाभ के सम्पादन में \’रंगप्रसंग \’ (४६ ) में प्रकाशित.
atulveera@gmail.com