डिलन, कविता और नोबेलगीत चतुर्वेदी
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बॉब डिलन को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद पूरी दुनिया में एक बार फिर से यह बहस शुरू हो गई है कि साहित्य क्या है. डिलन को क़रीब बीस साल से नोबेल का दावेदार माना जाता है, लेकिन जब भी उस दावेदारी का जि़क्र होता था, यह बहस अग्रभूमि पर नहीं आती थी, क्योंकि दावेदारी के समय से ही यह लगभग सर्वमान्य, सर्वस्वीकृत था कि और किसी को भले मिल जाए, यह पुरस्कार बॉब डिलन को तो क़तई नहीं मिलेगा. नोबेल पुरस्कार की घोषणा से पहले, तीन दिन तक, मैंने विभिन्न जगहों पर जो पूर्वानुमान पढ़े थे, उनमें से अधिकांश में यह स्पष्ट भविष्यवाणी थी कि यह डिलन को नहीं मिलेगा. इतने बरसों तक नहीं मिला, तो अब मिलने का सवाल भी नहीं. लेकिन नोबेल समिति जो काम सबसे अच्छे तरीक़े से करती है, वह यह कि तमाम भविष्यवाणियों में पलीता लगाना. जिन लोगों को भी इस पुरस्कार का सबसे क़रीबी दावेदार माना जाता है, अक्सर यह पुरस्कार उन लोगों के क़रीब से होता हुआ, अनछुआ गुज़र जाता है.
मेरे प्रिय समकालीन लेखकों में से एक इलियास खौरीने अपने एक संस्मरण में यासर कमाल का जि़क्र किया है. कमाल, तुर्की के लेखक थे. ओरहन पमुक के उभरने से पहले जिन दो तुर्की लेखकों को पूरी दुनिया में जाना और माना जाता था, उनमें अहमत हमदी तानपिनार के साथ यासर कमालका भी नाम था. यासर कमाल को पूरी उम्मीद थी कि उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार ज़रूर मिलेगा. ज्यूरी की नज़र में बने रहने के लिए उन्होंने स्टॉकहोम में एक मकान किराये पर ले लिया था और वहीं रहने लगे थे. उन्होंने ध्यानाकर्षण की कुछ ऐसी कोशिशें की थीं, जिन पर बाद के बरसों में हंसा जा सकता है (ढंके-छिपे या ज़ाहिरा तौर पर ऐसी हरकतें बहुत सारे लेखक करते हैं). कमाल को कभी नोबेल नहीं मिला, हालांकि उनका काम बड़ा है. कहने का अर्थ यह है कि जिन लोगों की दावेदारी बहुत अधिक चर्चित होती है, यह पुरस्कार अक्सर उनसे शर्मा कर छिटक जाता है.
बॉब डिलन के बारे में भी यह बरसों पहले मान लिया गया था कि यह उनसे छिटक चुका है और लोग महज़ उम्मीद के लिए, एक सालाना नाउम्मीदी बांधे बैठे हैं. जैसे फिलिप रॉथ के लिए बांध ली गई है. जैसे अदूनिस के लिए. और जैसी नाउम्मीदी हारुकि मुराकामी के लिए बढ़ती जा रही है. कोई भी पुरस्कार राजनीति से निरपेक्ष नहीं होता. सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय या निर्णायक की निजी राजनीति, हमेशा पुरस्कारों को प्रभावित करती हैं. निर्णायक बदल दीजिए, पुरस्कार बदल जाएगा, उसका स्वरूप बदल जाएगा. पुरस्कारों के साथ जुड़ी एक कारुणिक विडंबना यह भी है कि वे जितना न्याय करते नज़र आते हैं, उससे कहीं ज़्यादा अन्याय करते नज़र आते हैं. जिसे पुरस्कार मिला है, यदि हम उसे पसंद करते हैं, तो हम उस निर्णय में न्याय खोज लेते हैं. और यदि उसे नापसंद करते हैं, तो उसमें तमाम तरह के अन्याय भी खोज लेते हैं. बॉब डिलन को पुरस्कार के इस निर्णय में भी दोनों ही पहलू एकदम मुखर हैं.
बॉब डिलनकी ख्याति मूलत: गायक और संगीतकार के रूप में हैं. उन्हें गायन और संगीत की दुनिया के लगभग सारे पुरस्कार मिल चुके हैं. पिछले बीस बरसों में, जब से उनके नाम की चर्चा नोबेल के लिए चल रही थी, तब से ही यह पर्याप्त स्पष्ट था कि दुनिया का एक बड़ा हिस्सा उनके साहित्यिक योगदान को भी रेखांकित करना चाहता है. इस ‘साहित्यिक योगदान’ पर हमेशा बहस होती रहेगी. क्या वह साहित्यिक योगदान इतना बड़ा है कि हमारे समय के अन्य क़द्दावर लेखकों को उपेक्षित कर नोबेल पुरस्कार उन्हें दे दिया गया? यक़ीनन, इस पर कभी एकराय क़ायम नहीं हो सकती. जो लोग ख़ुद को, और जिन्हें पूरी दुनिया, विशुद्ध लेखक मानते/मानती हैं, उन्हीं के साहित्यिक योगदान पर कभी एकराय नहीं बन पाती, डिलन तो ‘विशुद्ध लेखक’ भी नहीं हैं. उन्होंने ख़ुद को ‘कवि’ नहीं माना. 1960 के दशक में जब उनके गीतों ने प्रतिरोध के अपने तेवर, शोषितों और मानवाधिकार के प्रति प्रतिबद्धता के स्वरों और विरल साहित्यिक गुणवत्ताओं के कारण चर्चा पाई, दीवानगी की हद तक लोग उनके प्रशंसक बने, तब ही डिलन ने अपना रुख़ स्पष्ट कर दिया था- ‘मैं कवि नहीं हूं. जो कोई ख़ुद को कवि मानता है, दरअसल वह कभी कवि नहीं होता.’ उनको मिले नोबेल पुरस्कार की तरह उनकी यह ‘युवकोचित स्थापना’ भी कभी निर्विवाद नहीं हो सकती, लेकिन इससे उनका रुख़ स्पष्ट हो जाता है. उन्होंने ख़ुद को कवि नहीं माना, लेकिन अपने साहित्यिक योगदान को रेखांकित करने की आकांक्षा कभी जागृत, कभी सुप्त रूप में उनमें दिखाई देती रही है, इससे भी स्पष्ट है कि उनके इस योगदान को लेकर भी साहित्यकारों में विवाद की स्थिति हमेशा बनी रही. कई लोगों के लिए वह महज़ एक गायक हैं, जो अपने गीत ख़ुद लिखता है और सुंदर लिखता है.
बॉब डिलन के गीतों से मेरा परिचय 1990 के शुरुआती बरसों में मेरी किशोरावस्था के दौरान हुआ था, जब मैं रॉक संगीत के प्रति अपनी दीवानगी के कारण वर्तमान और इतिहास के कई गायकों को खोज-खोजकर सुनता था. कई सारे दूसरे गायकों की तरह डिलन से भी मेरा परिचय मेरे बड़े भाई ने कराया था, यह कहते हुए कि इसे सुनोगे, तो कई दूसरों को भूलने का मन करेगा. और जैसे-जैसे उमर बढ़ी, यह बात ज़रा बेहतर समझ में आती गई कि डिलन, कई दूसरों को भूल जाने में आपकी मदद करता है. महान कलाएं श्रेष्ठताओं की स्मृति का जितना सुख देती हैं, उतना ही वे कमतरों को विस्मृत करने के औज़ार भी उपलब्ध कराती हैं. बक़ौल जौन ऐलिया, ‘है मेरी दुआ कि मेरे सिवा/तुम्हें सब शायरों से वहशत हो.’
मेरी किशोरावस्था की यह स्मृति डिलन के ‘कवि-रूप’ की स्मृति नहीं है, यह डिलन के ‘गायक-रूप’ की स्मृति है. मैंने डिलन के गीत पहले सुने, बाद में उन्हें पढ़ना शुरू किया. मैंने पहले डिलन की शारीरिक आवाज़ को स्पीकर या हेडफोन से बाहर आते हुए सुना, और उनकी काव्यात्मक आवाज़ को बाद में पहचानना शुरू किया. हर कवि अपनी कविता के भीतर अपनी एक विशिष्ट आवाज़ पा लेने और उसे अटल बनाए रखने का संघर्ष करता है. वही आवाज़ उसकी कविता की श्रेष्ठता या लाघव को परिभाषित करती है. डिलन ने बेहद शुरुआत में ही इस आवाज़ को हासिल कर लिया था और समय के साथ यह खनखनाती ही गई. उन्हें नोबेल की घोषणा के बाद से, उनके बारे में अंग्रेज़ी में जिन कुछ लोगों की टिप्पणियां पढ़ी हैं, उनमें से अधिकांश में डिलन के गायक-रूप की स्मृति दर्ज है, उन्हीं गीतों में प्रवाहित उनके कवि-रूप की स्मृति बहुत कम है.
और संकट की जड़ यहीं पर है. उनका गायक-रूप इतना विशाल, महिमामंडित, सेलेब्रेटेड, भीमकाय है कि कोरी आंखों से देखने पर उनकी काव्यात्मक सूक्ष्मताएं छिपी जान पड़ती हैं. बरसों से हमने उन्हें एक गायक की तरह स्वीकार कर रखा है, हम उन्हें महान गायक मानते हैं, लेकिन वह गायक दरअसल एक कवि है, हममें से कई का चेतन-अचेतन मन इसे स्वीकार नहीं कर पाता. कलाएं स्वीकृति और अस्वीकृति के ध्रुवों के बीच डोलती हैं. सहज स्वीकृति से कोई कला महान नहीं हो जाती. पूर्ण अस्वीकृति से भी छोटी कला, बड़ी नहीं हो जाती. कविता की उत्पत्ति और विकास की ऐतिहासिक परंपराओं को देखा जाए, तो हर भाषा में कविता की शुरुआत गीतात्मक गुणों को समाहित करते हुए हुई. यह ठीक-ठीक किसी को नहीं पता कि ऐन किस समय गीत अलग हो गए, कविताएं अलग हो गईं. दोनों के बीच एक स्पष्ट फ़र्क़ बन चुका है, इस बात की तरफ़ हमारा ध्यान बीसवीं सदी में गया, जब आधुनिकतावाद ने हमारे सौंदर्यबोध, श्रेष्ठताबोध और बौद्धिक समझ को निर्णायक रूप से परिभाषित कर दिया. उसके बाद तमाम ‘वाद’ विकसित हो चुके हैं, लेकिन हमारी परिभाषाएं अभी भी अपना मूल आहार उन्हीं आधुनिक रीतियों से पाती हैं. और यह समीचीन भी है. बीसवीं सदी में प्रदर्शनकारी कलाएं पूरी तरह अलग हो गईं. गीत गाए जाने लगे. कविताएं लिखी जाने लगीं. ‘लिखना’ और ‘बोलना’ दोनों के अर्थ समय के हिसाब से बदलते रहे हैं.
अगर किसी की कविता ‘गाई’ जाती है, तो उसे एक अचंभे या घटना की तरह लिया जाता है. जैसे नेरूदा की कविताएं उनकी युवावस्था में ही गाई जाती थीं और इसके बाद भी हम नेरूदा को ‘गीतकार’ नहीं मान पाते, कवि ही मानते हैं. जैसे उर्दू के शायर अपनी ग़ज़लों को बाक़ायदा तरन्नुम में सुनाते हैं, फिर भी हम उन्हें शायर ही कहते हैं, गीतकार नहीं. गाये जाने और लिखे जाने के बीच का यह फर्क़ बहुत स्पष्ट स्थापित हो गया. वैसे, अंग्रेज़ी और दूसरी भाषाओं के मुहावरे को ध्यान में रखें, तो हमें पता चलेगा कि मोत्ज़ार्टसंगीत रचता नहीं था, संगीत ‘लिखता’ था. इस तरह, उस परंपरा को आधार बनाकर मोत्ज़ार्ट को संगीत का ‘लेखक’ भी कहा जा सकता है. प्राचीन वैदिक और शास्त्रीय संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया जाए, तो पता चलता है, उस ज़माने में ‘लेख’ का अर्थ लिखना नहीं, बल्कि ‘चित्र बनाना’ होता था. लिखने के लिए ‘उत्कीर्ण’ जैसे आशयों वाले शब्द ज़्यादा चलते थे. आज भी उर्दू में शेर ‘लिखे’ नहीं जाते, शेर ‘कहे’ जाते हैं. लिखे और कहे का यह फ्लर्ट कमोबेश क़ायम ही रहेगा.
यह गहरी मान्यता है कि आधुनिक कविता लिखी जाती है. ऐसे में कोई कविता गा रहा हो, तो वह गायक बन जाता है. कवि कम रह जाता है. मैंने अपने 22 साल के हिंदी कविता की संगत में कई वरिष्ठ कवियों को देखा है कि वे कविता के गाए जाने से, उसमें तुक या लय के आविष्कार से किस तरह छिटक उठते हैं, छनछना जाते हैं. ऐसा इसलिए भी है कि लय, तुक, गीतात्मकता, सांगीतिकता पर कवियों से ज़्यादा गीतकारों ने क़ब्ज़ा कर लिया है और गीतकार लोकप्रिय विधाओं में काम करते हैं, वे सिनेमा में जाते हैं, श्रोताओं के बीच जाते हैं, वे कैसे भी करके अपनी आवाज़ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं. कवियों को यह बात पसंद नहीं आती. जाने किन संक्रमणों के ज़रिए कवियों को यह रोग लग गया है कि लोकप्रिय में कलात्मकता का संधान नहीं हो सकता. जो भी प्रविधियां लोकप्रिय कलाओं में प्रयुक्त की जाती हैं, यदि उनका प्रयोग आप अपनी गंभीर कला में करना चाहेंगे, उसे गंभीर बनाए रखने की शर्तों पर भी, तब भी निस्संदेह आपको संदेह से देखा जाएगा. यह सिर्फ़ हमारी नहीं, दुनिया की सारी भाषाओं की कविता का सच है.
जिन चीज़ों के कारण कविता लोगों के बीच पहुंचती हो, उन सभी चीज़ों को कविता से निकाल दिया जाए, और फिर सियापा किया जाए कि लोग कविताएं नहीं पढ़ते- यह बीसवीं सदी की एक बड़ी खोजों में से एक है. इससे कवियों को उपेक्षा की आत्मरति जैसा सुख मिलता है और गीतकारों जैसे ‘निम्न’ दर्जे के कलाकारों की निंदा करने का सुख भी. यह बीसवीं सदी की एक रूढि़ बन चुकी है कि कवि है, तो किन्हीं स्थितियों में आजीविका के लिए ‘गीत’ लिख देगा, साहित्यिक श्रेष्ठता के लिए ‘कविता’ लिखेगा, लेकिन गीत को कविता की तरह नहीं बरत पाएगा, कविता को गीत की तरह नहीं ले पाएगा. और अगर वैसी कोई कोशिश करेगा, तो मुख्य धारा में नहीं आ पाएगा. साहित्य कोई छोटा-मोटा नहीं, ख़ासा बड़ा गेट्टो है!
डिलन की दिक़्क़त यह है कि उन्होंने अपना साहित्य रचने के लिए छपे हुए शब्दों, छपी हुई किताबों, स्याही और का़गज़ की मदद नहीं ली, बल्कि उन्हें रिकॉर्ड कर दिया, उन्होंने अपनी कविताओं को गा दिया. जबकि उन्हें किताबों में रखकर पढ़ा जाए, तो यह महसूस करने के लिए हमें किसी अतिरिक्त साक्ष्य की ज़रूरत नहीं होगी कि उनके गीत, सांगीतिक सीमाओं में बंधी हुई और कई बार उन सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई, श्रेष्ठ कविताएं ही हैं. और वे कविताएं ओविड, होमर और सैफ़ो की परंपरा से जुड़ती हैं. हिंदी-उर्दू जैसी भाषाओं के साथ डिलन का कोई रिश्ता नहीं है, लेकिन हम जैसे लोग जिनका रिश्ता हिंदी-उर्दू से भी है, अंग्रेज़ी से भी है और डिलन जैसे प्रतिबद्ध कवियों से भी है, हम इस बात को बेहतर महसूस कर सकते हैं, क्योंकि यह परंपरा हमारे कहीं ज़्यादा निकट है. हम मीरा, कबीर, तुलसी को अब भी गाते हैं. हम मीर, ग़ालिब और फ़ैज़ को दूसरों की आवाज़ों में अपने टेपरिकॉर्डर पर सुनते रहे हैं. हमने वह सिनेमा देखा है, जिसमें साहिर और शैलेंद्र ने अपनी आला दर्जे की कविताएं लिखी हैं. कैसी अकल्पनीय जगहों पर भी उन्होंने कविता की गुंजाइश बना दी. औरों का मैं नहीं कह सकता, पर कम से कम मुझमें अब तक इतना बौद्धिक साहस नहीं आ पाया है कि मैं साहिर और शैलेंद्र को सिर्फ़ इस नाते कवि मानने से इंकार कर दूं कि उन्होंने अपना काव्य-कर्म सिनेमा के लोकप्रिय दायरों में किया था.
हिंदी-उर्दू की कई ‘महान’ कविताओं पर उनके गीत भारी पड़ते हैं, क्या उन्हें इसलिए नकारा जाए कि वे छपी हुई किताबों में आने से पहले गाये जा चुके थे? कई बार तो मुझे लगता है कि अगर साहिर में गायन की वैसी प्रतिभा होती, और उन बरसों में भारत का सांस्कृतिक-पॉप माहौल अमेरिका जैसा होता, तो साहिर अपनी कविताएं डिलन की तरह गाकर उतना ही असर छोड़ सकते थे. यहां मैं इन कवियों की आपस में तुलना नहीं कर रहा, बल्कि उस सांस्कृतिक माहौल की कर रहा हूं. हम हिंदी-उर्दू वाले इसे इसलिए भी बेहतर समझ सकते हैं कि हमने, कम से कम अपनी भाषा में, गीतों के स्तर को लगातार गिरते हुए देखा है. गीत जैसी बेबस व बर्बाद विधा में भी कविता के तत्वों को बचाना, उनसे आला कविता बना देना, कितनी बड़ी चुनौती का काम है. और अगर एक कवि ने, बाक़ायदा अड़ लेकर, लगातार दशकों तक, इस असंभव-से लगने वाले काम को बेहद ख़ूबसूरती से अंजाम दिया है, तो यक़ीनन वह नोबेल पुरस्कार का हक़दार है. अपनी सिनेमा-पॉप इंडस्ट्री में सैकड़ों गीतकार सक्रिय हैं, वे बहुत आसानी से इस चुनौती की नामुमकि़न-सी तबीयत को समझ जाएंगे. साहिर के बाद तो कोई साहिर न हो पाया, शैलेंद्र के बाद कोई शैलेंद्र नहीं. उसी अमेरिकी पॉप और रॉक संगीत में डिलन के बाद कोई डिलन नहीं हैं. कोहेन जैसे अन्य आला नाम डिलन के साथ के ही हैं, बाद की पीढ़ी के नहीं. और नोबेल समिति ने इसी बात को रेखांकित किया है. उन्होंने डिलन को कवि नहीं कहा, उन्होंने डिलन को सिर्फ़ गायक या गीतकार नहीं कहा. ‘गीतों की महान अमेरिकी परंपरा में नई काव्यात्मक अभिव्यक्तियों को संभव करने के लिए’ उन्हें यह पुरस्कार दिया गया. जिन क्षेत्रों को कवियों ने छोड़ दिया, या जहां जाना उन्होंने अपने मान से नीचे का काम समझा, उन क्षेत्रों में जाकर डिलन ने कविता की नई अभिव्यक्तियां संभव कीं.
डिलन का रचनाकर्म महान है. उन्होंने वाचिक साहित्य की परंपरा में खड़े होकर ‘गाया हुआ साहित्य’ रचा है. और हम लोगों ने उस ‘साहित्य को सुना’ है. भले उसे उन्होंने काग़ज़ के लिए नहीं लिखा, लेकिन वह साहित्य के दायरे के भीतर ही है. इतिहास में कई नाटककारों को नाटकों के लिए नोबेल पुरस्कार मिल चुका है. आखि़र वे नाटक भी तो काग़ज़ के लिए नहीं लिखे गए थे, बल्कि मंचन के लिए ही लिखे गए थे. नाटकों को ‘पढ़ने वाले’ कम ही होते हैं, नाटक ‘देखने वाले’ काफ़ी होते हैं. उसी तरह डिलन का साहित्य ‘पढ़ने वाले’ कम हों, उनका साहित्य ‘सुनने वाले’ बहुत हैं.
इस बीच यह भी ध्यान आता है कि डिलन को आखि़र 2016 में ही नोबेल क्यों मिला? इतने सालों से नाम चल रहा है, अब तक क्यों नहीं मिला? हो सकता है कि नोबेल समिति के निर्णायकों में कोई बदलाव हुआ हो. इन दो सालों के नोबेल निर्णय बेहद प्रायोगिक रहे हैं. 2015 के नोबेल निर्णय के बाद से ही यह संभावना बलवती हो गई थी कि डिलन को मिल सकता है. पिछले साल यह पुरस्कार स्वेतलानाअलेक्सीयेविच को दिया गया था, जिन्हें साहित्यकार नहीं माना जाता. वह पत्रकार हैं और उनके पत्रकारीय रिपोर्ताजों की पुस्तकें इतनी आला दर्जे की हैं, कि उन्हें साहित्य मानते हुए नोबेल दिया गया. यह दशकों बाद नॉन-फिक्शन को साहित्य के रूप में स्थापित करने की एक पहल भी थी. ठीक उसी कड़ी में, बॉब डिलन को भी साहित्य का पुरस्कार दिया गया है, जिन्हें पहली नज़र में लोग साहित्यकार नहीं मानते. उनके ‘गीतों को साहित्य जैसा मान’ दिया गया है. जाने इस पर डिलन की अंदरूनी प्रतिक्रिया क्या होगी? पढ़ने में आया है कि नोबेल घोषणा के बाद डिलन किसी जलसे में नमू हुए थे और नोबेल पर उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा. डिलन को जानने वालों के लिए यह सामान्य होगा. जो चीज़ें कलाकारों को उत्साहित करती हैं, वह उन पर खीझे हुए-से रहते हैं. साठ के दशक में एक पत्रकार ने उन्हें ‘जीनियस’ कहा था, और इस शब्द से चिढ़कर उन्होंने उसे खदेड़ लिया था. डिलन जिस तरह के खरमग़ज़ इंसान हैं, इस पर कोई अचरज नहीं होगा कि वह नोबेल पुरस्कार लेने पहुंचें और अपने भाषण में दो-बार बातें ऐसी बोल आएं, जो ख़ुद नोबेल समिति को ही नागवार गुज़र जाए.
डिलन के गीतों का कंटेंट जिस तरह समावेशी, मानवाधिकार का पक्ष लेता, शोषितों के पक्ष में आवाज़ उठाता हुआ प्रतिबद्ध कंटेंट है, 2016 में उन्हें पुरस्कार देना, डोनाल्ड ट्रम्प नामक एक उन्माद के सदंर्भ में, अमेरिका को कहीं यह याद दिलाने की कोशिश तो नहीं कि उसे बर्बरता के अपने प्राचीन इतिहास के महिमामंडन की कोई ज़रूरत नहीं, ख़ासकर तब, जब वह मार्टिन लूथर किंग जूनियर और बॉब डिलन सरीखे, मानवता के गीतों के रचयिताओं को अपने सांस्कृतिक इतिहास में प्राप्त कर चुका हो.
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गीत चतुर्वेदी हिंदी के चर्चित कवि, कथाकार, आलोचक तथा अनुवादक हैं. उनकी कविताओं का देश – विदेश की तमाम भाषाओँ में अनुवाद हुआ है. |