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Home » जगदीश स्वामीनाथन की कविताओं का मर्म: अखिलेश

जगदीश स्वामीनाथन की कविताओं का मर्म: अखिलेश

चित्रकार, कलाकार, विचारक और कवि जगदीश स्वामीनाथन (June 21, 1928 – 1994) का जन्म शिमला में बसे तमिल परिवार में हुआ था. वे कांग्रेस सोशलिष्ट पार्टी और फिर कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ इंडिया के सदस्य रहे. हिंदी और अंग्रेजी की पत्रकारिता भी की. भारत भवन भोपाल के निर्माण में उनकी बड़ी भूमिका थी, बाद में आदिवासी कला के संरक्षण में वे जुट गए. वह विश्व के कुछ बड़े चित्रकारों में शामिल किये जाते हैं. उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी हैं. उनकी कविताएँ अनिवार्यता से पैदा हुईं एक चित्रकार की काव्य–संवेदना का पता तो देती ही हैं, इन कविताओं से कलाओं के अन्तर-सम्बन्धों को समझने में भी बड़ी मदद मिलती है. इन कविताओं पर मशहूर चित्रकार अखिलेश का आलेख प्रस्तुत है, पेंटिग और कविता का दुर्लभ संयोग. साथ में जे. स्वामीनाथन की कुछ कविताएँ भी दी जा रही हैं.

by arun dev
October 12, 2016
in पेंटिंग
A A
जगदीश स्वामीनाथन की कविताओं का मर्म: अखिलेश

(by Jyoti BHATT, Portrait of J. Swaminathan, 1987)

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‘ससुरों का रंग कैसा चोखा है!’

अखिलेश

जगदीश स्वामीनाथन ने बमुश्किल तमाम आठ कविताएँ लिखी हैं. खोजने पर इतनी ही मिलीं और जो आठवीं है, उसके बारे में मुझे गहरा सन्देह है कि वह स्वामी की कविता है. यह आठवीं कविता ‘पूर्वग्रह’ के किसी अंक में छपी है, जिसे अब प्राप्त करना और पड़ताल करना इस लेख को कई बार लिखने की मेहनत की तरह हो सकता है, अतः इस आठवीं को यहीं उद्धृत कर इससे छुट्टी पा लेता हूँ, शेष सात पर बात आगे. इस कविता में आये शब्द ‘फुई’ ही स्वामी की शब्दावली का आश्वासन देती है.

‘अधर में खिलता चला गया
क्षितिज का मौन
रात अपनी चादर में तारों को समेट
बन गई
एक धवल बादल की फुई
तिर आया आँखों में
पूजा का सजल थाल :
आनन्दाच्या जेहीं आनन्द तरंग
आनन्दचि अंग आनन्दा पे.”

ये सात कविताएँ सत्तर के दशक में स्वामी की प्रदर्शनी के वक्त जारी किये गये और मंजीत बाबा द्वारा सिल्क स्क्रीन में छापी गई पुस्तिका के रूप में विशेष संस्करण की तरह है. इन कविताओं में शिमला बसा है. शिमला के बहाने हिमाचल, हिमाचल के बहाने वैश्विक अनुभव. इन सात कविताओं में ऐसा क्या है, जो स्वामी को एक कवि के रूप में स्थापित करता है, इसकी जाँच करने पर कई बातों की तरफ आपका ध्यान जाता है. पहला तो यही कि ये किसी ‘उदास रामदास’ की उपस्थिति, आत्म-दया, आत्मग्लानि से भरी हुई कविताएँ नहीं है.

‘उदास रामदास’ जो लगभग मरा हुआ भिखारीनुमा कोई व्यक्ति है जिसे दूसरों के रहमोकरम पर ही जीना है. वह आत्मभिमानी नहीं है, उसकी संस्कृति, सभ्यता एक अज्ञात द्वारा नष्ट कर दी जाने लायक है ऐसा उसका गहरा विश्वास है. ये रामदास दयावती के कुनबे का वंशज है, जिसका पौरुष नष्ट हो चुका है. इस रामदास के कई नाम हैं, किन्तु हर नाम में वह हमेशा कुचला हुआ ही है. इस रामदास का सिर्फ़ एक ही अतीत है कि इसका कोई अतीत नहीं है. स्वामी की कविता में यह रामदास नदारद है.  वहाँ एक कवि हृदय है, वहाँ एक सहृदय है जिसका साक्षात्कार प्रकृति से हो रहा है.

 

(एक)

यह एक मनुष्य का रसास्वादन है. स्वामी प्रकृति के होने मात्र में विभोर हैं. चकित हैं. स्वामी का अपना काव्य-प्रेम भी इसी अनुराग के कारण इसी हतप्रभता के कारण विस्मयबोधक है. वे अक्सर जिगर मुरादाबादी का यह शेर पढ़ दिया करते थे, जिसके कारण वे जिगर को बहुत मानते भी रहे. जिगर के बारे में एक साक्षात्कार में कहते हैं. “शिमला के एक मुशायरे की याद है. मैं स्काउट था. टिकिट चेक करने का काम था. जिगर को सुना. काले तबे-सा चेहरा, मंगोल आँखें, ओंठ चाकू से चीर दिया गया हो जैसे, नदी में पान की पीक टपकती हुई. शराब में धुत.”
इन्हीं जिगर का ये शेर स्वामी को विस्मित करता है :

आज न जाने बात ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रोशन!

यह साभ्यतिक व्यवस्था में प्राकृतिक उपस्थिति ही है जिसमें मनुष्य, इस शाश्वत आत्मग्लानि में जी रहा है कि वह एक जानवर है जिसे सभ्य होना है, जो सभ्य होने की तरह-तरह की व्यवस्था बनाता रहता है जो लगातार बिगड़ती जाती है. जिससे यह अहसास और गहरा होता जाता है कि व्यवस्थित कुछ नहीं हो सकता जिस कारण वो अधिक जोर और जिद के साथ एक नई व्यवस्था जुटाने, बनाने लग जाता और इस तरह लगातार वह उस प्रकृति को नज़र अन्दाज़ करता जाता है. जिसकी वह सन्तान है, जिसका वह एक अनिवार्य-अविभाज्य अंग है. मनुष्य की साभ्यतिक सफलताओं ने उसे और अज्ञानी और असभ्य और उपेक्षा से भरा है. इस पूरी विकास-यात्रा में उसने चमत्कृत होने के कारण खोजने में प्रकृति की उपेक्षा करना ही सीखा है, जिसमें वह इस बात को लगातार भूला है कि-

ये इश्क नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजे
इक आग दरिया है और डूब के जाना है.
(स्वामी की पसन्द का एक और जिगर’)

उसे लगा कि ये क्या बेवकूफी की बात है कि इक आग दरिया है और डूब के जाना है. वह तो किनारे खड़ा होकर ही इश्क फरमाने की व्यवस्था बना रहा है. इसमें सच की जगह नहीं है. इश्क का फितूर नहीं है. इसमें जान का जोखिम नहीं है. इश्क के लिए जो कि सिर्फ़ दो शरीर का मसला है, सच की क्या ज़रूरत है? वाले भाव से सन्तुष्ट मनुष्य अब इश्क को सौदे में मुब्तिला करना चाहता है. कविता क्या इस दौरान अपने समय के सच से दूर भागी है? यह पड़ताल का विषय है, क्योंकि स्वामी की कविता अपने समय की रिपोर्ट नहीं करती है. तब फिर वह क्या करती है? इसे देखने से पहले मैं आपका ध्यान अशोक वाजपेयी की इस बात टिकाना चाहता हूँ, जिसमें वे कह रहे हैं :

“कविता के जिस विनय की ओर यहाँ इशारा है, वह सिर्फ़ कविता भर का नहीं है. स्वामी की इन कविताओं में इसका अहसास पाठक को गहरा होता है कि ये कविताएँ सिर्फ़ सच नहीं है, बल्कि उस सच्चाई के असंख्य ब्यौरों में एक-एक हैं. स्वामी की कविताओं में स्वामी दावा करते नज़र नहीं आते. वे बस वहाँ हैं और एक मनुष्य की तरह हैं, जो अपने समय की अबूझता से हतप्रभ भी है, असहाय नहीं. वह चौकन्ना है जाँचने-परखने में. वह यह भी जानता है कि उसका होना ही इसका होना है, तभी वह रात भर बरसते पानी से बहे बूढ़े रायल पेड़ को वापस लगाता भी है और अचम्भित भी होता है कि ‘ससुरा इस साल फिर फल से लदा है.”

यह वही हिज्र की रात है, जो रोशन है. यही विस्मय है. इस पूरी कविता में जिसका शीर्षक ही ‘मनचला पेड़’ है. एक पेड़, जिसके ‘मनचले’ होने का जिक्र सिर्फ़ इसलिए है कि वह मरकर फिर फलों से लद गया है. ससुरा.

कविता में हर तरह के आश्चर्य ही है, जिसमें बीज हवा के साथ जहाँ गिर जाते हैं, जम जाते हैं ‘ढीठ’. दरख़्त बन जाते हैं, ऊपर से बने रहते हैं ‘कमबख़्त’. इस कमबख़्त यानी हतभाग्य या शामत के मारे की शामत आती है गिरी बारिश के रूप में. पार साल की बारिश. जिसमें पहाड़ के मानुस भी सहम जाते हैं और ढाक गिरी है. यह ढाक इसकी शामत ले आई और धार की ऊँचाई से धान की क्यारी पर ला पटकती है.

कविता में यहाँ उस मानुस का ज़िक्र है, जो इसे कोस रहा है कि वहाँ तुझे तकलीफ थी या कोरड़ खा गये थे बेवकूफ, क्योंकि अच्छी फसल होने पर दस पेटी सेव मिलते थे. अब यह नुकसान से उपजी तात्कालिक प्रतिक्रिया है, जिसमें पेड़ बेवकूफ इसलिए हैं कि ढाक के कारण उखड़-उछल आया है. फिर से लगाया गया और फिर फलों से लद गया. उसमें आने वाले रूपक ढीठ बीज. कमबख़्त बिरक्स. जोगी या बगुले बिरक्स. बेवकूफ बिरक्स और मनचला पेड़. रायल का पेड़ मेरे ख्याल से रायल किसी ख़ास प्रकार के सेव का ब्राण्ड नाम होगा. इसमें पेड़ का मनचला होना सिर्फ़ इस कारण है कि इस प्राकृतिक विपदा को झेल जाने के बाद भी वह खड़ा है और इस साल फल से भी लदा है.

यह विस्मय है. इन विपत्तियों को झेलकर भी बचे रहना और फिर फलों से लद जाना विस्मय है. इस कविता में रामदासी उदासी, आत्म-दया, आत्मग्लानि नहीं है. असहायता है. सामूहिकता है और जीवन है. जीवन के आगे का जीवन भी है, जहाँ फिर फल हैं और इसी तरह ढीठ बीज भी. यहाँ प्राकृतिक नैरन्तर्य की तरफ इशारा है.

 

(दो)

अशोक वाजपेयी का यह कहना कि कविता भाषिक संरचना है, इन कविताओं में बेहतर ढंग से ध्वनित होता दीखता है. भाषा के स्तर पर स्वामी हिन्दी में अप्रचलित पहाड़ी बोली का उपयोग करते हैं. इन कविताओं में आये अनेक शब्द हिन्दी भाषी के लिए नितान्त अपरिचित हैं, किन्तु वे अवरोधक नहीं बनते हैं. जैसे कितने ही हिन्दी भाषियों के लिए, जो मैदानी इलाकों में रहते हैं, ‘ढाक’ शब्द अपरिचित है. वे नहीं जानते कि बिजली को कहा जाता है. यहाँ सिर्फ़ बिजली लिखने से यह अन्देशा भी है कि वो बिजली का अर्थ अपने घरों में पहुँच रही बिजली के अर्थ में लें. कविता में ‘ढाक’ शब्द बादलों में कड़कने वाली बिजली को ध्वनित करता है और पाठक उसमें उलझता-निपटता नहीं है, बल्कि बिजली गिरने से पेड़ के उखड़-उछल जाने को ठीक-ठीक पकड़ लेता है. इस तरह की विश्वसनीयता ही इन कविताओं की कामयाबी है. इनमें स्वामी का सुर रूपकों के इस्तेमाल से बेसुरा नहीं होता है, बल्कि वह पाठक को भाषा की संरचनाई खूबसूरती से व्यंजित करता है. जिसमें हिन्दी भाषा में बोलियों से आये शब्द उसे और समृद्ध बनाते हैं.

स्वामी की इन सात कविताओं में कुमाऊँनी बोली के अनेक शब्द हैं, जो इन्हें पहाड़ी महक से भर देती हैं. भाषा के धरातल पर यह संरचना नहीं दिखलाई देती है, किन्तु यह पेड़ जो मनचला है, वह अन्य प्रसंगों में बगुला या जोगी भी है और कमबख़्त तो है ही. एक कविता में एक पेड़ के लिए एक से अनेक रूपकों का इस्तेमाल कुछ कम विस्मयकारी नहीं है. बगुला और जोगी में प्राकृतिक और साभ्यतिक गुण स्वामी पास-पास रख रहे हैं.

‘सेब और सुग्गा’ कविता में भी स्वामी इसी प्रकृति को अप्राकृतिक के पास रखते हैं और पाठक को यह अहसास नहीं हो पाता कि वे एक शाश्वत के बरक्स साधारण को पढ़ रहे हैं. यहाँ सूत्रधार की तरह, जो डिंगली में आग लगाने को इसलिए कह रहा है कि सुग्गे पेड़ पर घोंसला न बना सकें, जिससे वे एक चोंच मार सौ दाने न नष्ट कर पायें, कवि ससुरों के चोखे रंग पर विस्मय करता है और बादलों के बीच हरी बिजली की तरह कौंधाता है. फिर अन्तिम दो पंक्तियों में इसी प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाते हुए, इन्हें अपना हिस्सा लेने दो महाराज कहकर डिंगली में लग सकने वाली आग ठण्डी कर लेता है. इसमें कविता की पंक्ति उसी विस्मय से भरी है.

“..ससुरों का रंग कैसा चोखा है लेकिन
देखो न
बादलों के बीच हरी बिजली कौंध रही है.”

स्वामी की मनचला पेड़’, ‘जलता दयार’, ‘सेव और सुग्गे’, ‘गाँव का झल्ला’, ‘कौन मरा’, ‘पुराना रिश्ता’, और ‘दूसरा पहाड़, इन सातों कविताओं में किसी प्रकार का दावा नहीं है. वे बस हैं. वे ठीक उसी तरह हैं, जैसे उनके चित्र जिन्हें वे discontinuity कहते हैं. क्या ये कविताएँ भी इसी discontinuity की द्योतक हैं? स्वामी चित्रांकन को जीवन के नैरन्तर्य में एक रंगात्मक हस्तक्षेप मानते रहे.

(तीन)

कला का प्रकटन एक ऐसा बिन्दु है जहाँ से जीवन में कुछ बदलाव आ गया है. अब तक के जीवनानुभव में यह चित्र भी जा जुड़ा है. इसके बाद का जीवन अब एक नया जीवन है, जिसमें इस चित्र का देखना भी शामिल हो गया है. इस चित्रानुभव में सुसंस्कारित हुआ जीवन अब तक के जीये गये जीवन से कुछ अलग है. यह जीवन नया जीवन है, एक और जन्म की तरह. ये सात कविताएँ एक साथ लिखी गई कविताएँ हैं. इनका मिज़ाज़, शब्दावली और अन्तर्धारा से साफ़ पता चलता है कि ये कविताएँ एक बैठक में लिखी गई हैं. तब हम यह मान सकते हैं कि स्वामी के जीवन में ये सात कविताएँ एक कविता की तरह हैं और उसके बाद का जीवन एक नया जीवन की तरह.

इन कविताओं के अनुभव से संचालित, संस्कारित, बाद के जीवन की दुनिया नई दुनिया है. स्वामी की सहज गम्भीर मुद्रा जिसमें आकस्मिक विनोदप्रियता पाई जाती थी. इन कविताओं के मिज़ाज़ में दीखती है. ये कविताएँ सहज ही कुमाऊँनी जीवन के कुछ रूपाकार सामने ले आती हैं. उनकी विविधता और उनका तथाकथित आधुनिक जीवन से लेन-देन भी उतना ही सहज, सरल है. इस्तेमाल की जा रही तकनालाजी का भी आतंक नहीं, वे बस एक उपयोगी वस्तु की तरह वहाँ मौजूद हैं, किन्तु सतह पर इन साधारण, सामान्य, रोज़मर्रा की जीवनन्दिनी के भीतर घट सकने वाली, घट चुकी दुर्घटना और उसके नुकसान और उसकी स्वीकारोक्ति इन कविताओं में मनुष्य की उपस्थिति को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत करती है. मनुष्य के आत्मबल, विश्वासों और अनुभव की कहानी कहती इन कविताओं में मानवीयता का, सहभागिता का और हो रहे घटनाक्रमों के सामने असहाय उपस्थिति को जितनी सरलता से स्वामी यहाँ बखान कर जाते हैं. वह विस्मय भाव है.

ये कविताएँ समाज-सुधार का संदेश सिर्फ़ इसलिए नहीं देती हैं कि वे आत्मग्लानि में नहीं लिखी गयीं. न ही स्वामी को इस बात का मूर्ख भ्रम था कि कविताओं से समाज सुधारा जा सकता है या कविता से क्रान्ति का करतब हो सकता है. ये उथली समझ, कि कविताओं से किसी तरह का संदेश दिया जा सकता है, ने इधर की कविताओं को बहुत ही अख़बारी रिपोर्ट से भर दिया. यहाँ कविता से विस्मय की जगह उपदेश, कौतुक की जगह कौशल, कल्पना की जगह थोथा यथार्थ मिलता है. ‘शिकायती’ कवि सृजनकर्ता की जगह याचक बना हुआ है.

दुनिया से नाराज़ हर बात से शिकायत रखता हुआ सिर्फ़ ईर्ष्या से भरता जा रहा कवि अपने समय से हताश है. भिक्षुक की जगह ‘भिखारी’ कवि की चाहत ने कविता को साधन की तरह बरता और उससे उम्मीदें जगा लीं. जाहिर है कविता, जो इस संसार में उसी अजूबे की तरह मौजूद है, जैसे सूर्य या चाँद या प्रकृति, इन अकारण उम्मीदों को पूरा नहीं कर सकी और बदले में शिकायती कवि, हताशा और निराशा का पुतला बन और शिकायती हो चला.

स्वामी की कविताएँ इन उम्मीदों, हताशा और निराशाओं से परे उस भिक्षुक की कविताएँ हैं, जो अपने ध्यान योग में संसार का ध्यान भी रखे है. उसकी नज़र से गाँव का झल्ला भी अछूता नहीं है और ‘निम्मल आकाश’ भी. इन जरा-सी कविताओं में बहुत-सा संसार स्वामी इसी भाव से बाँधते हैं, जिसे निराला की इस कविता से ज़्यादा मुखर ढंग से बतलाया जा सकता है. संयोग से निराला की यह कविता स्वामी की पसन्दीदा कविताओं में से एक है:

बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु !

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बन्धु !

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव,बन्धु !

पेंटिग : J. Swaminathan

(चार)

निराला की यह कविता अध्यात्म और सांसारिकता दोनों छोर पर डोलती रहती है. इसमें वैराग्य भी है और धँसकर-हँसकर जीवन जीने का लुत्फ भी है. सम्भवतः इन्हीं कारणों से यह स्वामी की पसन्द भी बनी हो. एक तरफ कवि जीवनानुराग से भरा है और चेतन भी रहा है. स्वामी का यही चौकन्नापन इन कविताओं में दीखता है. वे सिर्फ़ वर्णन नहीं हैं, न ही सिर्फ़ अनुभव भर हैं. ये देखना भी है और दिखाना भी. और उनकी यही विश्वसनीयता पाठक को आश्वस्त करती है. पाठक निराश नहीं होता, बल्कि इन कविताओं में वह लुत्फ उठाता है जो उसे किसी तरह का बोझ न महसूस कराते हुए संसार के सहज उपलब्ध होने, जिसमें घटना-दुर्घटना, अच्छा-बुरा, अकेलापन और सहभागिता सब एक साथ, एक जगह जीवन में उपलब्ध होती है. और यही उसे आश्वस्त करता है कि वह महान और तुच्छ, विराट और विराम, भूला और पाया हुआ सब एक साथ है. उसका होना ही इन सबका होना है.

इन कविताओं को पढ़ते हुए यदि स्वामी के कविता प्रेम को पाठक जानते हैं, तब भी उनका कोई ख़ास भला नहीं होगा. यह जानना कि स्वामी हिन्दी कविता, उर्दू शायरी के बहुत जानकार ही नहीं थे, बल्कि उन्हें अपने पसन्द के कवियों, शायरों की कई कविताएँ और कलाम याद भी थे. उन्हें रवीन्द्रनाथ टैगोर की बंगला कविताएँ भी कण्ठस्थ थीं. जिन्हें वे कभी-कभार ही सुनाया करते, जिसमें सबसे प्रिय ‘एकला चलो’. जिगर मुरादाबादी, मजाज, मीर तकी मीर, ग़ालिब आदि अनेक शायर स्वामी की शाम गहरी किया करते.

फ़ैज अहमद फै़ज और इक़बाल का राजनीतिक मिज़ाज़ उन्हें पसन्द न था. यह दिलचस्प है कि स्वामी का अपना जीवन बहुत ही राजनीतिक उथल-पुथल से भरा गुज़रा. जिसमें उनकी सक्रियता भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण रही जितना वैचारिक हस्तक्षेप. स्वामी की इस राजनीतिक विचारधारा का रेशा भी इन कविताओं का मन मैला नहीं करता है. वे उतनी ही पाक, उतनी ही इठलाती, उतनी ही तीव्र उपस्थिति दर्ज कराती हैं जितना बगीचे में खिला गुलाब.

इन सात कविताओं में उजला संसार नहीं है. ये कविताएँ निराला की तरह अनुभव और जीवन-रस का तौल-मौल नहीं करतीं. अज्ञेय का प्रकृतिवाद भी इनमें नहीं है, न ही ये रघुवीर सहाय के अख़बारी लेखन से प्रभावित हैं, श्रीकान्त की ऐतिहासिकता और अशोक वाजपेयी की देहमयता भी इनमें नहीं है. शमशेर का रीतापन और विनोदकुमार शुक्ल का भरा होना भी इन कविताओं में नहीं है. वे बस हैं, स्वामी की तरह की कविताओं की तरह. उनका होना किसी उम्मीद का होना नहीं है. इनका होना दावा और आश्वासन नहीं है. ये टूटी हुई, बिखरी हुई नहीं हैं. वे जोड़-तोड़ भी नहीं हैं. वे बस हैं. जैसी हैं, वैसी हैं. ये ठुकराई हुई स्वीकारोक्ति है. यदि स्वामी कविताएँ लिख रहे होते, तब भी कोई ज़्यादा फ़र्क इसलिए नहीं पड़ता कि इन सात कविताओं में उन्होंने इस संसार को उसकी समग्रता में समेटा है.

इनका सुख-दुख प्राकृतिक और सहज सहने योग्य है. जितना सुख है, उससे कम मात्रा में दुख नहीं है. किन्तु इनकी स्वीकारोक्ति महत्त्वपूर्ण है. स्वामी को महादेवी वर्मा की कविता में ‘नीर भरी दुख की बदली’ बहुत पसन्द थी. इसका कारण भी शायद यही हो कि इस नीर भरी दुख की बदली की स्वीकारोक्ति ही इस कविता की जान है.
____________________________
56akhilesh@gmail.com

 

जगदीश स्वामीनाथन की कविताएँ

J. Swaminathan

 

१.
गाँव का झल्ला

हम मानुस की कोई जात नहीं महाराज
जैसे, कौवा कौवा होता है, सुग्गा सुग्गा
और ये छितरी पूँछ वाले अबाबील अबाबील
तीर की तरह ढाक से घाटी में उतरता बाज, बाज
शेर शेर होता है, अकेला चलता है

सियार, सियार
बंदर सो बंदर, और कगार से कगार पर
कूद जाने वाला काकड़ काकड़
जानवर तो जानवर सही
बनस्पति भी अपनी-अपनी जात के होते हैं
कैल कैल है, दयार दयार
मगर हम मानुस की कोई जात नहीं
आप समझे न
मेरा मतलब इससे नहीं कि ये मंगत कोली है
मैं राजपूत
और वह जो पगडंडी पर छड़ी टेकता
लंगड़ाता चला आ रहा है इधर
बामन है, गाँव का पंडत
और आप, आपकी क्या कहें
आप तो पढ़े-लिखे हो महाराज
समझे न आप, हम मानुस की कोई जात नहीं
हम तो बस, समझें आप
कि मुखौटे हैं, मुखौटे
किसी के पीछे कौवा छुपा है
तो किसी के पीछे सुग्गा
सियार भतेरे, भतेरे बंदर
और सब बच्चे काकड़ काकड़या हरिन, क्यों महाराज
शेर कोई कोई, भेड़िये अनेक
वैसे कुछ ऐसे भी, जिनकी आँखों में कौवा भी देख लो
सियार भी, भेड़िया भी
मगर ज़्यादातर मवेशी
इधर उधर सींगें उछाल
इतराते हैं
फिर जिधर को चला दो, चल देते हैं
लेकिन कभी-कभी कोई ऐसा भी टकराता है
जिसके मुखौटे के पीछे, जंगल का जंगल लहराता है
और आकाश का विस्तार
आँखों से झरने बरसते हैं, और ओंठ यों फैलते हैं
जैसे घाटी में बिछी धूप
मगर वह हमारी जात का नहीं
देखा न मंदर की सीढ़ी पर कब से बैठा है
सूरज को तकता, ये हमारे गाँव का झल्ला.

२.
पुराना रिश्ता

परबत की धार पर बाहें फैलाए खड़ा है
जैसे एक दिन
बादलों के साथ आकाश में उड़ जाएगा जंगल
कोकूनाले तक उतरे थे ये देवदार
और आसमान को ले आए थे इतने पास
कि रात को तारे जुगनू से
गाँव में बिचरते थे
अब तो बस
जब मक्की तैयार होती है
तब एक सुसरा रीछ
पास से उतरता है
छापेमार की तरह बरबादी मचाता है
अजी क्या तमंचे, क्या दुनाली बंदूक
सभी फेल हो गये महाराज
बस, अपने ढंग का एक ही, बूढ़ा खुर्राट
न जाने कहाँ रह गया इस साल.

३.
सेव और सुग्गा

मैं कहता हूँ महाराज
इस डिंगली में आग लगा दो
पेड़ जल जाएँगे तो कहाँ बनाएँगे घोंसले
ये सुग्गे
देखो न, इकट्ठा हमला करते हैं
एक मिनट बैठे, एक चोंच मारा और गये
कि सारे दाने बेकार
सुसरों का रंग कैसा चोखा है लेकिन
देखो न
बादलों के बीच हरी बिजली कौंध रही है
भगवान का दिया है
लेने दो इनको भी अपना हिस्सा
क्यों महाराज ?

४.
दूसरा पहाड़

यह जो सामने पहाड़ है
इसके पीछे एक और पहाड़ है
जो दिखायी नहीं देता
धार-धार चढ़ जाओ इसके ऊपर
राणा के कोट तक
और वहाँ से पार झाँको
तो भी नहीं
कभी-कभी जैसे
यह पहाड़
धुंध में दुबक जाता है
और फिर चुपके से
अपनी जगह लौटकर ऐसे थिर हो जाता है
मानो कहीं गया ही न हो
– देखो न
वैसे ही आकाश को थामे खड़े हैं दयार
वैसे ही चमक रही है घराट की छत
वैसे ही बिछी हैं मक्की की पीली चादरें
और डिंगली में पूँछ हिलाते डंगर
ज्यों के त्यों बने हैं, ठूंठ सा बैठा है चरवाहा
आप कहते हो, वह पहाड़ भी
वैसे ही धुंध में लुपका है, उबर आयेगा
अजी ज़रा आकाश को तो देखो
कितना निम्मल है
न कहीं धुंध, न कोहरा, न जंगल के ऊपर अटकी
कोई बादल की फुही
वह पहाड़ दिखायी नहीं देता महाराज
उस पहाड़ में गूजरों का एक पड़ाव है
वह भी दिखायी नहीं देता
न गूजर, न काली पोशाक तनी
कमर वाली उनकी औरतें
न उनके मवेशी न झबड़े कुत्ते
रात में जिनकी आँखें
अंगारों सी धधकती हैं
इस पहाड़ के पीछे जो वादी है महाराज
वह वादी नहीं, उस पहाड़ की चुप्पी है
जो बघेरे की तरह घात लगाये बैठा है.

५.
जलता दयार

झींगुर टर्राने लगे हैं
और खड्ड में दादुर
अभी हुआ-हुआ के शोर से
इस चुप्पी को छितरा देंगे सियार
ज़रा जल्दी चलें महाराज
यह जंगल का टुकड़ा पार हो जाये
फिर कोई चिंता की बात नहीं
हम तो शाट-कट से उतर रहे हैं
वर्ना अब जंगल कहाँ रहे
देखा नहीं आपने
ठेकेदार के उस्तरे ने
इन पहाड़ों की मुंडिया किस तरह साफ कर दी
डर जानवरों का नहीं महाराज
वे तो खुद हम आप से डरकर
कहीं छिपे पड़े होंगे
डर है उस का
उस एक बूढ़े दयार का
जो रात के अँधेरे में कभी-कभी निकलता है
जड़ से शिखर तक
मशाल सा जल उठता है
एक जगह नहीं टिकता
संतरी की तरह इस जंगल में गश्त लगाता रहता है
उसे जो देख ले
पागल कुत्ते के काटे के समान
पानी के लिए तड़प-तड़पकर
दम तोड़ देता है
ज़रा हौसला करो महाराज
अब तो बस, बीस पचास कदम की बात है
वह देखो उस सितारे के नीचे
बनिये की दूकान की लालटेन टिमटिमा रही है
वहाँ पहुँचकर
घड़ी भर सुस्ता लेंगे.

६.
मनचला पेड़

बीज चले रहते हैं हवा के साथ
जहाँ गिरते हैं जम जाते हैं ढीठ
बिरक्स बन जाते हैं
और टिके रहते हैं कमबख्त
बगलों की तरह, या कि जोगी हैं महाराज
आज तो आकाश निम्मल है
पर पार साल
पानी ऐसा बरसा कि पूछो मत
हम पहाड़ के मानुस भी सहम गये
एक रात
ढाक गिरा और उसके साथ
हमारा पंद्रह साल बूढ़ा रायल का पेड़
जड़ समेत उखड़कर चला आया
धार की ऊँचाई से धान की क्यार तक
(अब जहाँ खड़ा था वहाँ तुझे तकलीफ थी
यार बोरड़ खा गये थे बेवकूफ)
सेटिंग ठीक होने पर दस पेटी देता था, दस
मैं तो सिर पीटकर रह गया मगर
लंबरदारिन ने नगाड़े पर दी चोट पर चोट
इकट्ठा हो गया सारा गाँव
गड्ढा खोदा, रात भर लगे रहे पानी में
और खड़ा किया मनचले को नये मुकाम पर
अचरज है, सुसरा इस साल फिर फल से लदा है

७.
कौन मरा

वह आग देखते हो आप
सामने वह जो खड्ड में पुल बन रहा है
अरे, नीचे नाले में वह जो टरक ज़ोर मार रहा था
पार जाने के लिए
ठीक उसकी सीध में
जहाँ वह बेतहाशा दौड़ती, कलाबाजियाँ खाती
सर धुनती नदिया
गिरिगंगा में जा भिड़ी है
वहीं किनारे पर है, हमारे गाँव का श्मशान
ऊपर पुड़ग में या पार जंगल के पास
मास्टर के गाँव में
या फिर ढाक पर ये जो दस-बीस घर टिके हैं

या अपने ही इस चमरौते में
जब कोई मानुस खत्म हो जाता है
तब हम लोग नगाड़े की चोट पर
उसे उठाते हुए
यहीं लाते हैं, आग के हवाले करते हैं
लेकिन महाराज
न कोई खबर न संदेसा
न घाटी में कहीं नगाड़े की गूँज
सुसरी मौत की सी इस चुप्पी में
यह आग कैसे जल रही है.

८.
ग्राम देवता

ये मंदिर पाण्डुओं ने बनाया है
पहले यहाँ
इस टीले के सिवा कुछ न था
काल के उदर में पगी
इसकी शहतीरों को देखो
पथरा गयी हैं
और इसके पत्थर ठोंको
फौलाद सा बोलते हैं
चौखट के पीछे
काई में भीगी इसके भीतर की रोशनी
गीली
नम
जलमग्न गुफा
कोख में जिसके
गिलगिला पत्थर
गुप्त विद्याओं को संजोए
मेंढकनुमा
बैठा है हमारे गाँव का देवता
न जाने कब से
पहले यहाँ कुछ न था
इस टीले के सिवा
बस
ये नंगा टीला
पीछे गगन के विस्तार को नापता
धौलाधार
अधर में मंडराता पारखी
नीचे
घाटी में रेंगती पारे की लीक
गिरी गंगा के किनारे
श्मशान
घराट की झिलमिलाती छत
बीस घर उस पार
दस बारह इधर जंगल के पास
चीड़ों के बीच
धूप -छाँव का उंधियाता खेल
कगार पर बैठी
मिट्टी कुरेदती सपना छोरी
हरी पोशाक ढाटू लाल गुड़हल सा
सूरज
डिंगली से डिंगली किरण पुंजों के मेहराब
सजाती ठहरती सरसराती हवा
तितलियों सा डोलती
टीले पर दूब से खेलती
धूप
सीसे में ढलता पानी
चट्टान पर
टकटकी बाँधे
गिरगिट का तन्त्रजाल
धौनी सी धड़कती छाती दोपहर की
यहाँ पहले कुछ न था
इस टीले के सिवा
ये मंदिर पाण्डुओं ने बनाया है
रातोंरात
कहते हैं
यहाँ पहले कुछ न था
दिन ढलते
एक अन्देशे के सिवा
अनहोनी का एक अहसास
यकायक आकाश सुर्ख हो गया था
गिरी-गंगा लपलपा उठी थी
महाकाल की जिह्वा की तरह
यकायक बिदक गए थे
गाम लौटते डंगर
फटी आँखे लपकी थी खड्ड की ओर
पगडण्डी छोड़
इधर उधर सिंगे उछाल
चढ़ गए थे धार पर बदहवास
चरवाहा
दौड़ पड़ा था बावला सा
गाँव की ओर
कौवे उठ उठ कर गिरते थे वृक्षों पर
और जंगल एक स्याह धब्बे सा
फैलता चला गया था हाशिये तोड़
सिमट गया था घरों के भीतर
सहमा दुबका सारा गाँव
रात भर आकाश
गड़गड़ाता रहा फटता रहा बरसता रहा
टूटती रही बिजली गिरती रही रात भर
कहते हैं स्वयं
ब्रह्मा विष्णु महेश
उतरे थे धरती पर
पाण्डुओं की मदद और
धरती के अशुभ रहस्यों से निबटने के लिए
लाये थे हाटकोटी से देवदार की
सप्त-सुरों वाली झालर-शुदा शहतीरें
चैट के लिए पीने तराशे स्लेट
दीवारों के लिए बैद्यनाथ से पत्थर
और कांगड़े में ढली ख़ास
अष्ट धात की मूर्ति
शिखर के लिए काँस कलश
रातोंरात
ये मन्दिर पाण्डुओं ने बनाया है
सुबह
जब बुद्धुओं की तरह घर लौटते
पशुओं की घण्टियों के साथ
कोहरा
छंटा
वही निम्मल नीला आकाश
और धुन्ध से उबरते टीले पर
न जाने कब से से खड़ा ये मन्दिर
हवा में फहराती जर्जर पताका
मानो कुछ हुआ ही न हो
बस
न जाने कब
रातोंरात
गर्भगृह को चीर
धरती से प्रकट हुआ
ये चिकना पत्थर
आदिम कालातीत
गाँव की नियति का पहरेदार
देवदार
चौखट के पीछे
काई में सिंची भीतर की रौशनी
गीली
नम
जलमग्न गुफा
कोख में जिसके
गुप्त विद्याओं को समेटे
मेंढकनुमा
हमारे गाँव का देवता
न जाने कब से
यहाँ पहले कुछ न था

इस टीले के सिवा.

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