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Home » परिप्रेक्ष्य : हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न : संजय जोठे

परिप्रेक्ष्य : हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न : संजय जोठे

हिंदी दिवस के ख़ास अवसर पर कल आपने राहुल राजेश  का आलेख पढ़ा – ‘रोमन लिपि में हिन्दी का कुतर्क’ आज प्रस्तुत  है संजय जोठे  का  आलेख – ‘हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न’ _______ किसी भाषा की दुर्दशा दरअसल उस समाज की ही दुर्दशा का प्रतिबिम्ब है. भाषा और साहित्य की  चिंता अंतत: समाज […]

by arun dev
September 15, 2016
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हिंदी दिवस के ख़ास अवसर पर कल आपने राहुल राजेश  का आलेख पढ़ा – ‘रोमन लिपि में हिन्दी का कुतर्क’ आज प्रस्तुत  है संजय जोठे  का  आलेख – ‘हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न’
_______
किसी भाषा की दुर्दशा दरअसल उस समाज की ही दुर्दशा का प्रतिबिम्ब है. भाषा और साहित्य की  चिंता अंतत: समाज की चिंता है.

जिन प्रश्नों को युवा समाजवैज्ञानिक संजय जोठे ने उठायें हैं उनपर गम्भीरता से विचार होना चाहिए.

एक आलोचनात्मक समाज हमेशा एक बेहतर समाज  होता है.
हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न                                                 
संजय जोठे

_______________





हिंदी की दुर्दशा देखकर निराशा होती है. यह निराशा इसलिए भी गहरी है क्योंकि इसके केंद्र में न केवल वैश्विक फलक पर हिंदी की कमजोर छवि बैठी है बल्कि इसके साथ ही हिंदी के झंडाबरदारों की आत्मघाती और परस्पर विरोधी समझ भी कोढ़ में खाज की तरह बैठी हुई है. हिंदी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा का नाम देकर देश के एकीकरण का स्वप्न देखने वाले गांधी या कन्हैयालाल मुंशी या मुंशी प्रेमचंदया कोई अन्य ही क्यों न हों – सबने  बड़ी गंभीरता से हिंदी की और हिंदी के द्वारा हिन्दुस्तान की सेवा की चेष्टा की है. उनके प्रयास इमानदार रहे हैं और उनके जैसे लोगों ने बड़ा काम भी किया है जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं. लेकिन इस सबके बावजूद विश्व में तो क्या भारत में ही हिंदी को कोई विशेष सम्मान नहीं मिल पाया है. कहने को हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा या मातृभाषा हो सकती है या है भी लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है भी? देशभक्ति के दबाव में या राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक श्रेष्ठता के आग्रह की तरंग में हिंदी को महान और देश की प्रमुख भाषा मान लेना एक बात है लेकिन उसे देश के वर्तमान पर शासन करने वाली और भविष्य का निर्माण करने वाली भाषा बनाना दूसरी बात है. और यही वो बिंदु है जिस पर आकर हिंदी एकदम लाचार खड़ी हो जाती है.


आज हिंदी दिवस पर आप हर अखबार में पढेंगे कि हिंदी कैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित हो रही है. अमेरिका यूरोप अफ्रीका से लेकर चीन रूस और जापान तक लोग हिंदी सीख रहे हैं और उनके विश्वविद्यालयों में हिंदी या प्राच्यविद्या के विभाग खुल रहे हैं. यह सब सुनते हुए हमें हिंदी की शक्ति पर गर्व होता है और सदियों से कुपोषित हमारा सामूहिक मन एक झूठी खुराक से मस्त होकर फिर से सो जाता है. हम गंभीरता से नहीं सोच रहे कि इस बात का अर्थ क्या है? अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी की आवश्यकता अन्य देशों को इसलिए महसूस नहीं हो रही है कि हिंदी में कोई ज्ञान विज्ञान का भण्डार अचानक उजागर हो गया है. बल्कि विदेशों में हिंदी असल में भारत की विशाल जनसंख्या और उसकी पीठ पर सवार व्यापारिक संभावनाओं की लहर के धक्के में बढ़ी चली जा रही है. यह समाधान नहीं बल्कि समस्या है. अगर इसे थोड़ी देर के लिए समाधान मान भी लें तो भी यह समझदारी से पैदा की गयी स्थति से नहीं निकला है बल्कि अशिक्षा, अन्धविश्वास और गरीबी के अँधेरे गर्त से जन्मी उस जनसंख्या के गर्भ से निकला है जो मजदूरी के लिए दो हाथ पैदा करने की चाहत में एक भूखा पेट पैदा कर लेता है. हमने जनसंख्या नियंत्रण के प्रयास किये, उनकी असफलता से ये भयानक भीड़ पैदा हुई और इस भीड़ में अपना माल खपाने के लिए दुनिया भर के व्यापारियों को हिंदी की आवश्यकता है. इस भीड़ को भी हमारे अपने उद्योगपति और सरकारें नहीं संभाल पा रही हैं और विदेशियों को हिंदी सीखकर व्यापार के लिए आना पड़ रहा है. क्या यह हमारी सफलता है? किस मुंह से हम इसे अपनी सफलता कहेंगे?

इसी तरह हिंदी के झंडाबरदार विदेशों में हिंदी के चलन की बात कर रहे हैं. कारण दुबारा वही का वही है – भारत में भ्रष्टाचार आधारभूत संरचना और अवसरों की कमी के चलते प्रतिभाशाली लोग विदेशों में पलायन करते रहे हैं और उन्होंने जगह जगह अपने कबीले बसा लिए हैं जिनमे वे हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओँ का व्यवहार जारी रखे हैं. इस कारण इन भाषाओँ को थोड़ी दृश्यता और अवकाश मिल पा रहा है. क्या यह भी हमारी सफलता है? गौर से देखिये यह भी हमारी असफलता से उपजी एक परिस्थिति है जिसे हमने जान बुझकर निर्मित नहीं किया है बल्कि परिस्थितिवश यह दशा बन गयी है. गलती से या अनजाने जो स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं उनमे गर्व का भाव भरकर संतुष्ट होते रहना भारत का मौलिक मनोरोग रहा है. इसीलिये सचेतन प्रयासों पर कम और “किरपा” या “प्रभु की लीला” पर हमारा अधिक भरोसा रहता है.

अरबिंदो घोष ने अपनी गहन गंभीर किताब “भारतीय संस्कृति के आधार” में बहुत जोर देकर कहा है कि भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में “गद्यात्मक दार्शनिक कृतियां साहित्य की श्रेणी में आने की अधिकारिणी नहीं हैं; (क्योंकि) इनमे आलोचनात्मक पहलू प्रधान है” इन गद्यों के अलावा वे कुछ प्रचलित काव्य साहित्य पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि जनमानस में प्रचलित काव्यसाहित्य को भी “काव्य के रूप में बहुत उंचा स्थान नहीं दिया जा सकता: (क्योंकि) ये विचारों के भार से इतनी दबी हुई है और भाषा की अंतर्ज्ञानात्मक  क्षमता से भिन्न बौद्धिक क्षमता की प्रधानता के कारण इतनी अधिक बोझिल है कि इनमे वह जीवनोच्छ्वास  और प्रेरणाबल हो ही नहीं सकते जो सर्जनकारी कवि-मानस के अपरिहार्य गुण होते हैं.” अपनी बात आगे बढाते हुए अरबिंदो घोष अंत में अपनी विचार प्रक्रिया के केन्द्रीय बिंदु को एकदम उजागर करते हुए भारतीय पौराणिक मनोविज्ञान की मूल समस्या को अचानक सामने ले आते हैं वे लिखते हैं “इनमे (इस काव्य और गद्य साहित्य में) जो चीज अत्यंत सक्रीय है वह है खंडन-मंडनात्मक बुद्धि न कि साक्षात्कार करने और परमोच्च विश्व दर्शन करके उस दर्शन का स्तुतिगान करने वाली आत्मा की अतिविशाल महानता इसमें नहीं पाई जाती और न ही इसमें वह ज्वाज्वल्यमान ज्योति देखने में आती है जो उपनिषदों की शक्ति है.”

इन कुछ उद्धरणों को ध्यान से समझने की कोशिश कीजिये. भारत की सनातम अव्यावहारिकता और पारलौकिक सम्मोहन की स्पष्ट गूँज इन पक्तियों में सुनी जा सकती है. दुर्भाग्य की बात ये है कि अरबिंदो घोष कोई सामान्य साहित्यकार या भाषा, संस्कृति इतिहास आदि के जानकार नहीं हैं बल्कि वे सर्वाधिक जुझारू और सम्मानित स्वतंत्रता सेनानी सहित योग और भारतीयता के सर्वाधिक पूज्य आधुनिक ऋषि माने गए हैं. आधुनिक राष्ट्रवाद सहित भारत के पुनरुत्थान की कल्पना देने वाले सबसे केन्द्रीय पात्रों में उनका अनन्य स्थान है और उन्होंने एक महाकवि और महायोगी की तरह तत्कालीन भारत के लगभग समस्त साहित्यकारों के अंतरतम को प्रभावित किया है. इस महापुरुष की भविष्य दृष्टि और भाषा दृष्टि के इस रुझान को भारत की और हिंदी की वर्तमान दुर्दशा के साथ रखकर देखिये. आप समझ सकेंगे कि हिंदी को व्यवहार की और ज्ञान विज्ञान की भाषा न बनने देने के पीछे क्या कारण और षड्यंत्र रहे हैं.

अरबिंदो घोष के मनोविज्ञान को आधार बनाकर यह प्रश्न आसानी से उठाया जा सकता है कि भारतीय भाषाओँ में और खासकर हिंदी में ज्ञान विज्ञान का सृजन क्यों असंभव सा हो गया है. सुदूर अतीत में भी झांककर देखें तो भाषा की राजनीति और भाषा से अपेक्षाओं का स्वरुप आत्मघाती होने की हद तक दुर्निवार रहा है. भारत में भाषा संवाद और एकीकरण का नहीं बल्कि विभाजन और उंच नीच को स्थापित करने का औजार रही है.

संस्कृत का उदाहरण लीजिये, यह कभी जनसामान्य की भाषा नहीं रही. हो भी नहीं सकती थी. कालिदास के नाटकों में स्पष्टता से उल्लेख है कि तत्कालीन राजदरबार और भद्रलोक के आर्य श्रेष्ठिजन संस्कृत का व्यवहार करते थे और असभ्य या अशिक्षित अनार्य जन प्राकृत बोलते थे. राजपुरुष और पुरोहित जन संस्कृत में बात कर रहे हैं और नाइ, तेली, कुम्हार किसान इत्यादि प्राकृत भाषा में बात कर रहे हैं. गौर कीजिएगा कि इन असभ्य लोगों में स्त्रियाँ भी शामिल हैं. दुःख की बात ये है कि राजपुरुषों और पुरोहितों की स्त्रियाँ को भी प्राकृत में ही संवाद करना होता था, अर्थात अनार्यों स्त्रियाँ और शूद्रों की भाषा प्राकृत है और भद्रलोक के आर्य पुरुषों की भाषा संस्कृत है. अब कल्पना कीजिये इस स्थिति में राजा और प्रजा में कैसे संवाद होता होगा? आर्य पुरुष और उसकी शुद्रा अनार्य पत्नी में कितना संवाद या प्रेम होता होगा?

इस बात को आगे बढाते हैं. चाणक्य के बारे में उल्लेख है कि उसने संस्कृत भाषा का ऐसा आतंक जमाया था कि अच्छे-अच्छे पंडितों को वह व्याकरण और शास्त्रार्थ की भूल निकालकर परास्त कर देता था. यह उल्लेख ध्यान देने योग्य है. इसका मतलब ये हुआ कि शास्त्रों में सत्य है या नहीं यह बात नहीं हो रही बल्कि शास्त्रों का अर्थ व्याकरण के अनुसार लगाया जा रहा है या नहीं इस बात पर ही सारी लड़ाई हो रही है. चाणक्य ने अधिकतर पंडितों की संस्कृत को अशुद्ध कहकर उन्हें आतंकित कर डाला था. यही रुझान अरबिंदो घोष तक प्रवाहित हो रहा है, इक्कीसवीं सदी में वे भी पौराणिक शंकर या चाणक्य की तरह इस बात पर जोर दे रहे हैं कि भाषा तर्क वितर्क, खंडन मंडन आदि की क्षमता से नहीं बल्कि “विराट विश्वपुरुष के स्तुतिगान” की क्षमता से युक्त होनी चाहिए. अब भारत के पौराणिक पाखंड और अंधविश्वास सहित ज्ञान विज्ञान सृजन के सन्दर्भ में भारतीय चित्त की अनुर्वरता को इस एक लेंस से बहुत बारीकी से देखिये. क्या नजर आता है? यह साफ़ साफ़ दिखाता है कि भारत की मुख्यधारा की पूरी दार्शनिक और साहित्यिक ज्ञान परम्परा सहित भाषा, व्याकरण और सृजन के दुराग्रह असल में तर्कबुद्धि की हत्या करने को समर्पित थे. ऐसे में विज्ञान तकनीक और लौकिक व्यवहार के ज्ञान विज्ञान का सृजन करना ही असंभव हो गया. मुख्यधारा से परे जो समुदाय जन भाषाओं में लौकिक अर्थ का साहित्य रच रहे थे वे आर्यों के भद्रलोक में समादृत न थे और जो समादृत थे वे जन समुदाय से दूरी बनाते हुए उन्हें विश्व पुरुष के स्तुतिगान में झौंकने वाला पारलौकिक साहित्य रच रहे थे.

इन दोनों स्थितियों में भारत की आम जनता के लिए आवश्यक ज्ञान का सृजन उनकी अपनी भाषा में या तो नहीं हो पा रहा था या फिर उसे यथोचित सम्मान के साथ सुरक्षित रखने या विकसित करने का कोई प्रयास नहीं हो रहा था. इन आम जनों ने लौकिक जीवन के हित में तर्कबुद्धि और विज्ञान दृष्टि का प्रयोग करके शिल्प, भेषज, धातुविज्ञान, गणित, आयुर्वेद, चिकित्सा, तन्त्र और योग आदि को विकसित किया. जाहिर सी बात है कि ये लौकिक विद्याएँ अरबिंदो घोष या चाणक्य या शंकर की दृष्टि में विश्वपुरुष के दर्शन नहीं करातीं बल्कि एक आम गरीब भारतीय की रोजमर्रा की जिन्दगी में उसे जीने में मदद करती हैं. इस अर्थ में इन तीन महापुरुषों की दृष्टि में ऐसा ज्ञान और ऐसा साहित्य सम्मान का पात्र नहीं है और जिस भाषा में ये साहित्य रचा गया वह भाषा भी निकृष्ट भाषा है. अब मजा ये देखिये कि हजारों साल के तिरस्कार के बाद आज जब भारतीय ज्ञान विज्ञान पर सवाल उठाये जा रहे हैं तो आजकल के आर्य भद्रपुरुष उन प्राचीन और तिरस्कृत अनार्य आम जनों के ज्ञान विज्ञान को अपना ज्ञान विज्ञान कहकर वाह वाही लूट रहे हैं. आजकल के “स्वदेशी इंडोलोजी” के विशेषज्ञ प्राचीन भारतीय अनार्य और श्रमण परम्पराओं द्वारा तर्कबुद्धि से जन्माये गए विज्ञान और ज्ञान राशि पर अपना दावा कर रहे हैं. यह भारत की सनातन पुराण बुद्धि का जीता जागता सबूत है जो स्वयं तो कोई सृजन नहीं करती लेकिन दूसरों के सृजन को अपने नाम से प्रकाशित अवश्य करती है.

अब वर्तमान में हिंदी के प्रश्न पर आइये. अभी आजादी से पहले अरबी फ़ारसी का प्रभाव हमने इस देश में देखा है. उसका कारण भी साफ़ है. वे राजकाज की भाषाएँ थी वे “विराट पुरुष की दिव्यता के दिग्दर्शन” की बजाय रोजमर्रा के व्यवहारिक जीवन की आवश्यकताओं को उत्तर देती थीं इसलिए इस लोक के जीवन में भरोसा रखने वाले जन समुदाय ने उसे तुरंत लपक लिया और आज भी उस दौर में जन्मी उर्दू का चमत्कार कायम है. लेकिन पारलौकिक सम्मोहन को रचने वाली संस्कृत के हजारों साल के इतिहास का दावा करने के बावजूद पूरे भारत में एक छोटा सा गाँव भी मौजूद नहीं है जो पूरी तरह संस्कृत बोलकर ज़िंदा हो. स्पष्ट होता है कि संत साहित्य में अवधी, ब्रज, भोजपुरी या क्षेत्रीय भाषा-बोलियाँ प्रचलित थी और आजादी के ठीक पहले अरबी फारसी और उर्दू जनमानस में जगह बना रही थी और इसी के साथ इंग्लिश न केवल राजकाज की भाषा बन चुकी थी बल्कि यही इंग्लिश भारत के व्यापक एकीकरण को सिद्ध भी कर रही थी. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के महारथी और विराट दिव्यपुरुष के भक्त उस समय भी संस्कृत और संस्कृति के उत्थान की पारलौकिक योजना पर ही काम कर रहे थे.

इस विस्तार में जाने से यह स्पष्ट होता है कि भारत में ऐतिहासिक रूप से जनमानस की भाषा अछूतों की भाषा रही है और यही भाषा लोक उपयोगी ज्ञान विज्ञान के सृजन का माध्यम रही है. आर्य भद्र पुरुषों की भाषा पारलौकिक सम्मोहन की भाषा रही है. इस तरह साफ़ होता है कि इस जमीन पर इस जिन्दगी से जुडी ज्ञान की प्रणालियों का सृजन करने की क्षमता कम से उन भाषाओँ में तो नहीं रही है जिन्हें हमने आज तक अपने सर पर ढोया है.

भारत में जितना ज्ञान विज्ञान और तकनीक आज प्रचलित है वह यूरोप और अरब की भाषाओँ से आया है. ग्रीक सभ्यता के पतन के बाद उनका ज्ञान विज्ञान अरबी अनुवादों से हासिल किया गया था, वही फिर यूरोपीय पुनर्जागरण का आधार बना और आज उसी ने भारत को सभ्य बनाया है. इस तरह पश्चिमी पुनर्जागरण सहित भारत की मुक्ति का स्त्रोत स्वयं भारतीय भाषाएँ नहीं रही हैं. और दुभाग्य यह है कि हमारे देशभक्त इस तथ्य को भूलकर संस्कृत और सतयुग को फिर से पाषाण युग से वापस घसीटकर लाने में अपनी ताकत लगाये हुए हैं. आज भी हिंदी में कौनसा ज्ञान विज्ञान पैदा हो रहा है? किस विश्वविद्यालय में विश्व स्तरीय शोध या अध्यापन हिंदी में हो रहा है? या हिंदी और संस्कृत का झंडा लहराने वाले लोगों के अपने बच्चे कौनसे स्कूलों कालेजों में पढ़ रहे हैं? इन प्रश्नों के उत्तर से ही सब साफ़ हो जाता है कि हिंदी और हिन्दुस्तान की इतनी बुरी हालत क्यों थी और इनका भविष्य क्या है. 
______________
sanjayjothe@gmail.com


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