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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : प्रेम पर फुटकर नोट्स : अंतिम : लवली गोस्वामी

सहजि सहजि गुन रमैं : प्रेम पर फुटकर नोट्स : अंतिम : लवली गोस्वामी

कविताओं पर अंतिम रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता. कविताएँ अर्थ बदलती रहती हैं. हर पाठक उसमें कुछ जोड़ता है. यही नहीं समय और स्थान भी उसमें बदलाव लाते हैं. आप किसी कविता में जो आपको अच्छा लगा है उसे तरह तरह से समझने की कोशिश भर कर सकते हैं. यह जो अच्छा […]

by arun dev
August 5, 2016
in Uncategorized
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कविताओं पर अंतिम रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता. कविताएँ अर्थ बदलती रहती हैं. हर पाठक उसमें कुछ जोड़ता है. यही नहीं समय और स्थान भी उसमें बदलाव लाते हैं. आप किसी कविता में जो आपको अच्छा लगा है उसे तरह तरह से समझने की कोशिश भर कर सकते हैं. यह जो अच्छा सा है, पर क्या है यह ? यही उसका जादू है, जो सर चढ़ बोलता है.

कविताएँ पढिये. अगर वे  वास्तव में बेहतर हैं तो उन्हें फिर फिर आप पढ़ेंगे. समाज के काम लायक हुई तो वह उसे सहेज कर रखेगा. अपने दुःख – सुख में उन्हें गायेगा- गुनगुनाएगा.

कुछ समय पर भी छोड़ दीजिये. कविता पर कर्कश होना असभ्यता है.

लवली गोस्वामी की प्रेम पर यह लम्बी कविता आपके लिए. 


प्रेम पर फुटकर नोट्स : अंतिम                                        
लवली गोस्वामी




डरना चाहिए खुद से जब कोई
बार – बार आपकी कविताओं में आने लगे 
कोई अधकहे वाक्य पूरे अधिकार से
पूरा करे, और वह सही हो

यह चिन्ह है कि किसी ने
आपकी आत्मा में घुसपैठ कर ली है 
अब आत्मा जो प्रतिक्रिया करेगी
उसे प्रेम कह कर उम्र भर रोएंगे आप 
प्रेम में चूँकि कोई आजतक हँसता नहीं रह सका है
आग जलती जाती है और निगलती जाती है
उस लट्ठे को जिससे उसका अस्तित्व है
उम्र बढती जाती है और मिटाती जाती है
उस देह को जिसके साथ वह जन्मी होती है 
बारिश की बूंदे बादलों से बनकर झरती हैं
बदले में बादलों को खाली कर देती हैं
प्रेम बढ़ता है और पीड़ा देता है
उन आत्माओं को जो उसके रचयिता होते हैं  
एक सफेदी वह होती है
जो बर्फानी लहर का रूप धर कर
सभी ज़िन्दा चीजों को
अपनी बर्फीली कब्र में चिन जाती है
जिस क्षण तुम्हारी उँगलियों में फंसी मेरी उँगलियाँ छूटी 
गीत गाती एक गौरय्या मेरे अंदर बर्फीली कब्र में
खुली चोंच ही दफ़न हो गई




एक बार प्रेम जब आपको सबसे गहरे छूकर
 गुज़र जाता है आप फिर कभी वह नहीं नहीं हो पाते
जो कि आप प्रेम होने से पहले के दिनों में थे








हम दोनों स्मृतियों से बने आदमक़द ताबूत थे 
हमारा ज़िन्दापन शव की तरह उन ताबूतों के अंदर
सफ़ेद पट्टियो में लिपटा पड़ा था
अपने ही मन की पथरीली गलियों के भीतर
हमारी शापित आत्माएँ अदृश्य घूमा करती थीं  

यह तो हल नहीं होता कि हम प्रेम के
उन समयों को फिर से जी लेते
हल यह था कि हम मरे ही न होते 
लेकिन यह हल भी दुनिया में हमारे
न होने की तरह सम्भव नहीं था
जीवन की ज़्यादतियों से अवश होकर 
प्रेम को मरते छोड़ देने का दुःख 
ईलाज के लिए धन जुटाने में नाकाम होकर 
संबधी को मरते देखने के दुःख जैसा होता है
दुःखों के दौर में जब पैर जवाब दे जाएँ
तो एक काम कीजिए धरती पर बैठ जाइये
ज़मीं पर ऐसे रखिये अपनी हथेलियाँ
जैसे कोई ह्रदय का स्पंदन पढ़ता है
मिट्टी दुःख धारण कर लेती है
और बदले में वापस खड़े होने का
साहस देती है

         इन दिनों मैं मुसलसल इच्छाओं और दुखों के बारे में सोचती हूँ
उन बातों के होने की संभावना टटोलती हूँ, जो सचमुच कभी हो नहीं सकती
मसलन, आग जो जला देती है सबकुछ
क्या उसे नहाने की चाह नही होती होगी
मछलिओं को अपनी देह में धँसे कांटे
क्या कभी चुभते भी होंगे
जब प्यास लगती होगी समुद्र को
कैसे पीता होगा वह अपना ही नमकीन पानी
चन्द्रमा को अगर मन हो जाये गुनगुने स्पर्श में
बंध जाने का वह क्या करता होगा  
सूरज को क्या चाँदनी की ठंडी छाँव की
दरकार नही होती होगी कभी
उसे देखती हूँ तो रौशनी के उस टुकड़े का
अकेलापन याद आता है
जो  टूट गए किवाड़ के पल्ले से
बंद पड़ी अँधेरी कोठरी  के फ़र्श पर गिरता है
अपने उन साथियों से अलग
जो पत्तों  पर गिरकर उन्हें चटख रंगत देते हैं  
इस रौशनी में हवा की वह बारीकियाँ भी नज़र आती हैं
जो झुंड में शामिल दूसरी रौशनियां नहीं दिखा पाती
जिंदगी की बारीकियों को बेहतर समझना हो
तो उन लोगों से बात कीजिये जो अक्सर अकेले रहते हों
कभी – कभी मैं सोचती हूँ तो पाती हूँ कि
अधूरे छूटे प्रेम की कथा
पानी के उस हिस्से की तिलमिलाहट
और दुख की कथा है
जो चढ़े ज्वार के समय समुद्र से
दूर लैगूनों में छूट जाता है
महज़ नज़र भर की दूरी से
समुद्र के पानी को
अपलक देखता वह हर वक़्त कलपता रहता है
समुद्र तटबंधों  के नियम से बंधा है
चाहे तब भी उस तक नहीं आ सकता
वह समुद्र का ही छूटा हुआ एक हिस्सा है
जो वापिस  समुद्र तक नहीं जा सकता
मैंने जाना कि प्रेम में ज्वार के बाद
दुखों और अलगाव का मौसम आना तय होता है
लगातार गतिशील रहना हमेशा गुण ही हो ज़रूरी नहीं है
पानी का तेज़ बहाव सिर्फ धरती का श्रृंगार नाशता है (नाश करना)
धरती के मन को भीतरी परतों तक रिस कर भिगो सके   
इसके लिए पानी को एक जगह ठहरना पड़ता है
बिना ठहरे आप या तो रेस लगा सकते हैं
या हत्या कर सकते हैं, प्रेम नहीं कर सकते
जल्दबाज़ी में जब धरती की सतह से
पानी बहकर निकल जाता है
वहां मौज़ूद स्वस्थ बीजों के उग पाने की
सब होनहारियाँ ज़ाया  हो जाती हैं




प्रेम के सबसे गाढ़े दौर में जो लोग अलग हो जाते हैं अचानक
 
उनकी हँसी में उनकी आँखें कभी शामिल नहीं होती


कुछ दुःख बहुत छोटे और नुकीले होते हैं
ढूंढने से भी नही मिलते
सिर्फ मन की आँखों में किरकिरी की तरह
रह – रह कर चुभते रहते हैं
न साफ़ देखने देते हैं, न आँखें बंद करने देते हैं
नयी कृति के लिए प्राप्त प्रशंसा से कलाकार 
चार दिन भरा रहता है लबालब, पांचवें दिन
अपनी ही रचना को अवमानना की नज़र से देखता है
वे लोग भी गलत नहीं हैं जो प्रेम को कला कहते हैं

सुन्दरताओं की भी अपनी राजनीति होती है
सबसे ताक़तवर करुणा सबसे महीन सुंदरता के
नष्ट होने पर उपजती है
तभी तो तमाम कवि कविता को
कालजयी बनाने के लिए
पक्षियों और हिरणों को मार देते हैं
ऐसे ही कुछ प्रेमी महान होने के लोभ से
आतंकित होकर प्रेम को मार देते हैं
एक दिन मैंने अपने मन के किसी हिस्से में
शीत से जमे तुम्हारे नाम की हिज्जे की 
दुःख के हिमखंड टूट कर आँखों के रास्ते
चमकदार गर्म पानी बनकर बह चले 

जब से हम – तुम अर्थों में साँस लेने लगे
सुन्दर शब्द आत्मा खोकर मरघटों में जा बैठे थे




स्मृतियों और मुझमे कभी नही बनी
आधी उम्र तक मैं उन्हें मिटाती रही
बाक़ी बची आधी उम्र में उन्होंने मुझे मिटाया






मेरी कुछ इच्छाएँ अजीब भी थी 
मैं हवा जैसा होना चाहती थी तुम्हारे लिए
तुम्हारी देह के रोम – रोम को
सुंदर साज़ की तरह छूकर गुज़रना
मेरी सबसे बड़ी इच्छा थी
मैं चाहती थी तुम वह घना पेड़ हो जाओ
जिसकी पत्तियां हर बार
मेरे छूने पर लहलहाते हुए, गीत गायें
मैं तुम्हारे मन की पथरीली सी ज़मीन पर उगी 
जिद्दी हरी घास का गुच्छा होना चाहती थी 
जिसे अगर बल लगाकर उखाड़ा जाये तब भी
वह छोड़ जाये तुम्हारी आत्मा में
स्मृतियों की चंद अनभरी  ख़राशें

लगातार
 घाव देने वाले प्रेम का टूटना
साथ चलते दुःख से राहत भी देता है
देखी है आपने कभी दर्द से चीखते कलपते
इंसान के चहरे पर मौत से आई शांति
असहनीय पीड़ा में प्राण निकल जाना भी
दर्द से एक तरह की मुक्ति ही है
इन दिनों सपने हिरन हो गए हैं 
और जीवन थाह – थाह कर
क़दम रखता हाथी
एकांत में जलने के दृश्य
भव्य और मार्मिक होते हैं
गहन अँधेरे में बुर्ज़ तक जल रहे
अडिग खड़े किले की आग से
अधिक अवसादी जंगलों का
दावानल भी नहीं होता.
_________________________

\’प्रेम पर फुटकर नोट्स\’  का पहला हिस्सा यहाँ पढ़ें. 
 l.k.goswami@gmail.com 
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