आपको सबसे पहले तो यह बताना है कि पिछले अनेक वर्षों से मैंने सभा–गोष्ठियों में जाना और भाषण देना छोड़ दिया है. भाषण एक स्वतंत्र कला है और उसे न केवल सीखना पड़ता है बल्कि सतत साधे रखने के लिए रियाज करते रहना पड़ता है. और मैं क्योंकि कई साल से इसे विराम दिए हूं इसलिए मुझे डर है कि आज का मेरा यह हस्तक्षेप कोई भाषण न होकर व्यक्तिगत बातचीत नुमा कुछ होगा. इस शिविर के आयोजकों ने मुझे यहां जो बुलाया है तो एक जमाने में एक वक्ता या भाषणकर्ता के रुप में मेरी महारत से परिचित होकर ही बुलाया होगा. विद्वत्ता का वही एकमात्र पैमाना भी है. आपमें से कई लोगों ने भी इसके बारे में सुना होगा या यहां पहले बोलकर गए विद्वानों से ही यह अंदाजा तो लगा ही लिया होगा कि यहां बुलाए जाने की एक जरुरी शर्त वक्तॄत्व कला में प्रवीण होना तो है ही. इसलिए शुरु में ही बता देना जरुरी है कि आपको आज काफी निराशा हाथ लगने वाली है.
अब मूल विषय पर आएं. आयोजकों ने अपने निमंत्रण–पत्र में लिखा है कि मुझे `साहित्य का सामाजिक और सांस्कॄतिक अध्ययन\’ विषय पर बोलना है. यह आपका और मेरा अतिपरिचित विषय है. इस विषय पर देश–विदेश की भाषाओं में सैकड़ों पुस्तकें होंगी, हजारों लेख पत्र–पत्रिकाओं–पुस्तकों में प्रकाशित हुए होंगे. पिछले कुछ सालों में इस पर हजारों संगोष्ठियां आयोजित की गई होंगी. और भी कितनी ही सामग्री इस विषय पर उपलब्ध होगी.
यह सब होने पर भी आप चाहते हैं कि मैं एक और भाषण इस पर दे दूं. जब इतने सारे भाषणों, प्रकाशित सामग्री से कुछ नहीं हुआ तो मेरे एक बार उस सब को दोहराने से क्या होगा ? जरा और स्पष्ट रूप में अपनी बात समझाते हुए कहूं तो जब हजारों बार इतनी स्पष्टता से समझाने पर भी यह समझ में नहीं आया तो इस एक भाषण में कैसे आ जायगा ?
इसलिए मामला समझने या समझाने का उतना नहीं है. कुछ और है. वह क्या है, इस पर मैं भी फिलहाल बहुत साफ नहीं हूं. इसलिए बहुत सामान्य और बुनियादी बातों से ही शुरु करें.
यानी हम इससे शुरु करें कि यहां जो मैं भाषण देने आया हूं और आप लोग जो सुनने आए हैं, वे कौन हैं. मैं कौन हूं और आप कौन हैं और यहां क्या करने आए हैं ?
क्या मैंने ज्ञान के क्षेत्र में कोई नई खोज कर डाली है कि उसे बांटने यहां चला आया हूं ? या मैं कोई बड़ा ज्ञानी हूं जिसे ज्ञान की पिपासा रखने वाले आप सबने यहां बुला लिया है ? हम दोनों जानते हैं कि यह सच नहीं है.
दरअसल जिस ज्ञान के आदान–प्रदान पर सब टिका है, मुझे तो उसके सर्वमान्य अर्थ पर ही शंका है.
जिसे अक्सर ज्ञान मानकर बहुत ऊंचा दर्जा दिया जाता रहा है वह कोई व्यक्तिगत चीज न होकर एक सार्वजनिक थाती है जो सदियों से एकत्र होता रहा है. वह पुस्तकों में उपलब्ध है, पुस्तकालयों में उपलब्ध है और आजकल कंप्यूटर की छोटी सी चिप में संकलित है. आपको कोई चीज जाननी है तो कंप्यूटर पर टाइप करके वह सब जानकारी मिनटों में उपलब्ध की जा सकती है. आपको जो भी जानकारी या ज्ञान चाहिए वह जितना जरुरी हो वहां से डाउनलोड कर लीजिए और वहीं फाइल में संग्रहीत कर लीजिए. उसे दिमाग में डाउनलोड करने की अब जरुरत नहीं है.
लेकिन अभी तक हम इसी सार्वजनिक जानकारी को दिमाग में डाउनलोड करने का काम करते रहे हैं. बचपन से. स्कूल में पहाड़ा रटाया जाता था और उन गिनतियों को रटने में बहुत श्रम और समय बर्बाद होता था. उसे दिमाग में स्टोर किया जाता था. फिर बाकी तथ्यों और सूचनाओं के दिमागी संग्रह में लोग लगे रहते थे. फिर सिद्धांतों और विश्वासों के संग्रह में लगते थे.
क्यों करते थे यह संग्रह ? क्योंकि अभी तक माना जाता था कि यह ज्ञान है और ज्ञान शक्ति है. यानी जितना ज्यादा ये सब चीजें आपने अपने दिमाग में डाउनलोड की हुई होंगी उतना ही आप ज्ञानी माने जाएंगे और जितना आप ज्ञानी माने जाएंगे उतना ही समाज में आपका आदर–सत्कार होगा . आपके पास उतनी ही शक्ति होगी.
इसी के लिए सब लोग जीवन भर इस डाउनलोड की क्रिया में संलग्न रहते थे और अभी भी रहते हैं. यह मान लिया जाता था और जाता है कि यह जो बाहर से एकत्रित कर दिमाग में डाउनलोडेड सामग्री है वह कोई व्यक्तिगत चीज या ईजाद है. कोई यह सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करता था कि डाउनलोड करने की यह पूरी कवायद काफी फिजूल और मूर्खतापूर्ण है. जैसे आज कैलकुलेटर पर बड़ी से बड़ी संख्याओं के जटिल से जटिल जंजालों को हल करने वाले स्कूली बच्चे पुराने स्कूलों की रटंत को क्या कहेंगे ? ज्ञान की साधना या अर्थहीन कवायद ?
इसलिए कहना होगा कि आज कंप्यूटर में एकत्र उपस्थित जानकारी या ज्ञान संसार के सब ज्ञानियों के ज्ञान से करोड़ों गुना अधिक है.
यह तो माना जा सकता है कि एक ऐसा जमाना भी रहा है मानव सभ्यता के इतिहास में जहां भाषा के उन्नत रूप नहीं हैं, हमारे जैसी प्रकाशन की सुविधा नहीं है, जानकारी को कहीं और संचित कर रखने का सुभीता नहीं है. इसलिए यही एकमात्र विकल्प रहा कि जो भी जानकारी हो उसे दिमाग में ही रख लिया जाय. इसीलिए साहित्य के दृश्य और श्रव्य दो ही भेद हुए, लिखित नहीं. बाद में इसी जानकारी का फायदा उठाने के लिए उसे ज्ञान का दर्जा दे दिया.
लेकिन आज दिमाग को इन फालतू चीजों से पाटने की कोई जरूरत नहीं है कि हम सारी जिंदगी उसे सिर में भरे घूमते रहें. आज तो कंप्यूटर पर भी बेकार फाइलें डिलीट करते चलने का चलन है.
इसलिए आज ज्ञान की पिपासा में किसी ज्ञानी के पास जाने की जरुरत नहीं है. आपको जिस भी चीज की जानकारी चाहिए या ज्ञान चाहिए वह स्वयं आपके पास उपलब्ध है. यह जो व्यक्तिगत ज्ञान का धंधा अभी भी धड़ल्ले से चल रहा है या फल–फूल रहा है तो उसके कोई संगत कारण नहीं हैं बल्कि स्वार्थगत कारण हैं .
ऐसे फिजूल धंधे क्यों चलते रहते हैं !
इसे व्यावहारिक उदाहरण से समझना होगा. मसलन दुनिया की बड़ी कंपनियां विज्ञान की नई शोधों के आधार पर अपनी उत्पादित मशीनरी में इसलिए परिवर्तन नहीं करतीं क्योंकि पुरानी मशीनों को फेंककर नई लगाने में उनके मुनाफों पर आघात होता है. इसलिए वे पुराने को ही चलाए चलते हैं. अगर नए आविष्कारों को खुली छूट मिल जाय तो वे दुनिया की भौतिक स्थितियों को तेजी से बदलने और प्राकृतिक संसाधनों की बचत को सुनिश्चित कर सकते हैं. ठीक यही मामला ज्ञान को लेकर भी है. वहां भी पुराने तरीके चल रहे हैं और सबकी (आपकी और हमारी) रोजी–रोटी चल रही है. आप इस शिविर में आते हैं और आपके कारण मैं इस शिविर में आता हूं और मेरे जैसे कितने आते हैं. इसलिए हम इस ढर्रे को बदलने नहीं देना चाहते.
केवल यही नहीं, इसे अबूझ बनाए रखना भी हमारे हित में है. जैसे आम-फहम वनस्पतियों से बनने वाली दवाओं के नाम इतने जटिल होते हैं कि कोई कुछ समझ ही न पाय, जैसे अदालतों की भाषा और धाराएं होती हैं कि बिना वकीलों के काम ही न चले. ऐसे ही साहित्य की आलोचना या शास्त्र का मामला है. ऐसे घनघोर शब्दों का, देशी-विदेशी सिद्धांतों का प्रयोग करो कि सब दंग रह जायं और स्वयं को अज्ञानी मान सब चुपचाप मान लें.
इसलिए यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मैं कोई ऐसा ज्ञानी–ध्यानी नहीं हूं जिसने किसी अघोरी साधना से कोई नया ज्ञान का खजाना खोज लिया हो. मेरे पास साहित्य या समाज या सिद्धांतों के बारे में जो भी जानकारियां हैं वे उसी सार्वजनिक स्रोत से डाउनलोड की गई हैं (पुस्तकों, पत्रिकाओं, कंप्यूटर वगैरह से), जहां से कोई भी उसे ले सकता है.
इसलिए मैं यहां किसी ज्ञान का संदेश देने नहीं आया हूं .
आप भी यहां किसी ज्ञान का विस्फोट देखने या उसे अर्जित करने नहीं आए हैं. जैसा मैंने पहले ही कहा कि इस विषय पर सैकड़ों किताबें हैं, हजारों लेख हैं और हजारों गोष्ठियां हो चुकी हैं. अगर आपके मन में विषय को लेकर कोई वास्तविक जिज्ञासा होती तो आप कोशिश करके वहां से उसे शांत कर सकते थे.
लेकिन मैंने देखा है कि जिन विषयों पर हम आज से पच्चीस बरस पहले बहस करते थे उन पर आज भी कर रहे हैं. जो विश्लेषण और निष्कर्ष हमने आज से पच्चीस बरस पहले दिए थे, आज भी वही दे रहे हैं. जो प्रश्न हम तब उठाते थे आज भी वही उठा रहे हैं. जो उत्तर हम तब देते थे आज भी वही दे रहे हैं.
यानी हमारे न तो कोई विषय हैं, न प्रश्न. हमें न तो कोई उत्तर पाने हैं और न कोई हल. यह मात्र एक शगल है. ऊबे हुए लोगों का टाइमपास. न इससे अधिक न इससे कम. ज्यादातर गोष्ठियों में यही चल रहा है. शिविर तो फिर भी कुछ व्यावहारिकता लिए हैं कि नौकरी में पदोन्नति में मदद करते हैं और भाषण देने वालों का भी बायोडाटा बढ़ता है.
यह कहकर मैं इस अवसर की गरिमा को नष्ट नहीं करना चाहता. न अपनी और आपकी उपस्थिति की महिमा को ही नष्ट करना चाहता हूं. बस इतना ही चाहता हूं कि आप किसी मिथ्या की चपेट में न रहकर सहज स्वस्थ रहें. तमाम पाखंडों से मुक्त होकर ही हम एक–दूसरे से सहज बातचीत कर सकते हैं जैसे दो मनुष्य रूपी जीवधारियों को करनी चाहिए.
तो हम सब लोग बहुत सरल व्यावहारिक कारणों से यहां आए हैं. यानी इस बैठक के आयोजन के लिए ये सरल व्यावहारिक चीजें कारणभूत रही हैं. आयोजकों ने विश्वविद्यालय और विभाग की गरिमा को बढ़ाने के लिए और उसमें अपनी सकर्मकता सिद्ध करने के लिए किसी संस्था से फंड की व्यवस्था की होगी. वे इस आयोजन की सफलता से प्रेरित हैं. मैं मित्र आयोजकों की पत रखने के साथ बतकही की सुखकामना और सेंतमेंत में कुछ धनोपार्जन हो जाने से या अधिक हुआ तो अपने किसी सिद्धांत का प्रसार करने. आप लोगों के लिए तो मैंने सुना है इधर पदोन्नति के लिए इन शिविरों में आना आवश्यक कर दिया गया है. इस तरह इन इतने मामूली से कारणों से हम यहां मिले हैं. जब मिले हैं तो मिथ्या विश्वासों और आडंबर को छोड़ कुछ बातचीत क्यों न कर ली जाय ?
सबसे पहली बात तो यह कहनी है कि अगर हम लोग वाकई साहित्य या साहित्य से जुड़ी चीजों को समझना चाहते हैं तो हमें दिमाग में पहले से भरे बहुत से कूडे–कबाड़ से मुक्त होना होगा. साहित्य को लेकर बहुत सी मान्यताएं, विश्वास, सिद्धांत हमने मन में बिठा रखे हैं. उसी के आधार पर साहित्य को देखते हैं . देखते कम हैं, अंदर की मान्यताओं की पुष्टि ज्यादा करते हैं.
अगर ऐसा कोई सिद्धांत या मत या वाद या विश्वास आपने साहित्य को लेकर बना लिया है और उसे मन में बिठा लिया है तो चाहे जितना भी अच्छे पाठक या विश्लेषक या आलोचक आप हों साहित्य के, आप साहित्य को नहीं समझ सकते. मान्यताओं का यह सेंसर अनजाने ही आपसे कतर–ब्योंत कराता रहता है. आप अपने की ही पुष्टि कर रहे होते हैं. ये विश्वास, मान्यताएं, सिद्धांत और विचार आपके व्यक्तित्व के रूप में स्थानांतरित हो जाते हैं. ऐसा होने का अर्थ ही है किसी भी संभावना का अंत . वह जो है उसके अलावा कोई चीज सही या संगत नहीं हो सकती.
और अंतत: ये विश्वास और सिद्धांत अंधविश्वासों का रूप धारण कर जाते हैं. अंधविश्वासी व्यक्ति प्रकृति से असहिष्णु, हिंसक और हत्यारा बन जाता है. उसके विश्वासों, सिद्धांतों से अलग या विरोधी शत्रु श्रेणी में आ जाते हैं और शत्रु के प्रति युद्ध में कुछ भी जायज है. यानी पूंजीवाद के विचार में अंधा व्यक्ति मार्क्सवादी की हत्या कर सकता है और एक मार्क्सवादी पूंजीवादी की. ऐसा करने में न कोई झिझक होगी, न करणीय–अकरणीय के प्रश्न.
इस विश्वासी को अंधा क्यों कहा. क्योंकि फिर न वह कुछ देखता है, न सुनता है, न सोचता है. उसका विश्वास ही देखने, सुनने और सोचने को अपदस्थ कर देता है. यह कट्टरता साहित्य में ही हो सो बात नहीं. यह धर्म की भी हो सकती है, जाति की भी, भाषा और संस्कॄति या देश की भी. एक बार यह कट्टरता हावी हो गई तो समझो किसी भी रचनात्मकता का, नएपन का, जिज्ञासा का अंत हो गया.
कैसे जानें कि यह व्यक्ति कट्टर है ? अधिकांश में तो हम जानते हैं. जब हम किसी व्यक्ति को सुनने जाते हैं तो जानते हैं कि वह क्या कहेगा. इसमें कोई रहस्य नहीं है. हम जानते हैं. किसी लेखक की पुस्तक पढ़ते हैं तो जानते हैं कि उसमें क्या होगा. कई बार कई वक्ता या लेखक हमारे प्रिय हो जाते हैं तो मानना चाहिए कि उसके विश्वास धीरे–धीरे हमारे विश्वास बनते जा रहे हैं. इससे धीरे–धीरे पूर्वग्रह बनने लगेंगे और दूसरों की बातें कम पसंद आने लगेंगी. खुले मन से सुनना और पढ़ना कम होने लगेगा. यही विश्वासों और अंधविश्वासों की शुरुआत है.
सवाल यह है कि किसी भी चीज को देखने, सुनने, पढ़ने में आपको आनंद आने की पहली शर्त तो उसका अप्रत्याशित होना ही होना चाहिए. यदि पहले से ही मालूम है कि क्या देखना, सुनना या पढ़ना है तो इसमें क्या आकर्षण ? कितना ही महान कोई क्यों न हो, लेकिन यदि पहले से मालूम है कि क्या कहेगा तो आकर्षण नहीं होगा. लेकिन हम हैं कि देखे हुए को ही बार–बार देखे जा रहे हैं, हजार बार सुने हुए को ही बार–बार सुन रहे हैं, हजार बार पढ़े हुए को ही बार–बार पढ़ रहे हैं. हजारों साल से रामलीला देखते चले आने वाले देश में यह एकदम स्वाभाविक लगता हो तो आश्चर्य नहीं.
दरअसल ऐसी स्थिति में दृष्टा और दृश्य, वक्ता और श्रोता, लेखक और पाठक दोनों ही रचनात्मकता से हीन ऊबे हुए लोग हैं. यह स्थिति बाकी ज्ञान और विज्ञानों में क्या गुल खिलाती है यह तो अलग बात है लेकिन साहित्य में इसका होना तो सांघातिक है.
इसलिए मनप्राण पर अधिकार जमा चुके विश्वासों, विचारों, मान्यताओं से मुक्त होना जरूरी है. तभी सहज, स्वाभाविक, प्राकृतिक स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है. यह साहित्य रचना में प्रवेश का सबसे सही रूप है.
इसलिए यहां जो भी कहा जा रहा है, वह न तो किसी विश्वास पर आधारित है, न अंधविश्वास पर. न सिद्धांत पर, न मूल्य पर. उसमें प्रमाण के तौर पर या पुष्टि के तौर पर किसी लेखक के उद्धरण भी नहीं दिए जा रहे कि आप उनकी मुहर लगने पर यहां कही बातों को आंख बंद कर मान लें. जो भी कहा जा रहा है केवल अपने प्रमाण पर ही. और बात को सहारा देने के लिए इसके कहने वाले की भी टेक इसके साथ नहीं है जो उन्हें गिरने से बचा सके. ये बातें बस अपनी टेक के सहारे ही खड़ी होंगी.
अगर कहे को अपने बल पर खड़े रहना है और किसी की बैसाखी नहीं लगानी है तो जरुरी है कि बुनियाद से एक–एक चीज को उठाया जाय. जिस भी चीज को खोलना हो पर्त–दर–पर्त खोला जाय कि कहन में किसी हाथ की सफाई की गुंजाइश न रहे.
इसके लिए एक उदाहरण लें. अभी कुछ दिन पहले टी वी के एक चैनल पर हिंदी को लेकर बहस हो रही थी. हिंदी वाले थे, अंग्रेजी वाले थे, संस्कॄत वाले थे. हिंदी वाले गदगदायमान थे और लगभग हिंसक थे कि देखो हिंदी दुनिया में कैसे बाजी मार रही है. अंग्रेजी वाले गदगदायमान थे और लगभग हिंसक थे कि देखो अंग्रेजी दुनिया – देश में भी कैसे बाजी मार रही है. संस्कॄत वाले तो शाश्वत गदगद हैं.
अब जरा देखें इसकी सच्चाई. यहां कोई विश्लेषण नहीं, बल्कि अपने–अपने स्वार्थों का खेल था. इसमें सब सिद्धांत शामिल थे – जनतावादी, ज्ञानवादी, शाश्वतवादी, भूमंडलवादी और सब वादी. नहीं था तो स्थिति का सहज सच्चा बयान नहीं था. सबके अपने सिद्धांत थे और स्वार्थ थे जो सच्चाई को देखने में बाधा थे.
भाषा की वास्तविकता क्या है यहां ? हिंदी वालों की बड़ी संख्या है इसलिए स्वार्थों के लिए सब उसे रिझा रहे हैं. इससे कई बार लगता है कि सब हिंदीमय हो रहा है. क्या यही वास्तविकता है ? कैसे जानें ? विशेषज्ञों से ही पूछें ? कौनसे विशेषज्ञों से ? जो अभी लड़ रहे थे और इस मसले पर आम आदमी से भी ज्यादा भ्रांत थे ?
पूछना ही है तो उस सबसे निचले स्तर पर खड़े आम देहाती से पूछें कि अपनी राष्ट्रभाषा के बारे में उसके क्या विचार हैं.
हमने पूछा कि अगर उसके सामने छूट हो कि वह अपनी संतान को हिंदी या अंग्रेजी के स्कूल में पढ़ा सकता है तो वह किसमें पढ़ाना पसंद करेगा ? इसके जवाब में उसके मन में कोई दुविधा नहीं है, न दोगलापन है. वह जीवन को देखता है और बनते भविष्य के नक्शे को और समझता है कि उसकी संतानों के लिए अंग्रेजी सही रहेगी. इस पर हिंदी वाला चीखेगा कि यह तो वक्ती दबाव है. लेकिन यह सब तर्क दोगलेपन से आएंगे जहां वह हिंदी का डंका बजाएगा लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाएगा.
ऐसे ही विश्व में हिंदी का सवाल. सरकारी आदान–प्रदान के चलते और कुछ इस प्रचार के चलते कि भारत की भाषा हिंदी है दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई हो रही है तो हिंदी वाले विश्व विजय का डंका बजाने लगते हैं. क्या यह कोई सच्चाई है ? सच्चाई तो वह है जब भारत के विश्वविद्यालय में कोई अध्यापक हिंदी की कक्षा में पहली बार जाता है और बुझे चेहरे वाले छात्रों से इस देशप्रेम या भाषाप्रेम का कारण पूछता है और जवाब मिलता है कि क्योंकि मन के विषय में नंबर कम होने से दाखिला नहीं मिला इसलिए मन मारकर हिंदी लेनी पड़ी है. ऐसा होता है अधिकांश में यह हिंदी प्रेम.
लेकिन हम सिद्धांतों से, स्वार्थों से सब देखते हैं कि वस्तुस्थिति दिखाई ही नहीं पड़ती.इसलिए जरुरी है कि इन पूर्वाग्रहों से मुक्त हो साहित्य का अध्ययन किया जाय. यह किसी भी सामाजिक या सांस्कॄतिक अध्ययन की पूर्वशर्त है.
और ऐसा करने का अर्थ है कि हम चीजों को किसी चश्मे से नहीं, वास्तविक रूप में देखने लगते हैं. ऐसा करना काफी मनोहारी है लेकिन खतरनाक भी है क्योंकि इसमें सब चीजें तमाम तरह के आवरणों, भ्रांतियों से मुक्त हो असल रूप में होती हैं. यहां कोई छोटा–बड़ा, पूर्व–निर्धारित नहीं हो सकता. जो होगा अपने बल–बूते पर होगा. कोई महान कवि अपनी कविता को बचाने नहीं आएगा, न तथाकथित महान कविता किसी कवि को बचा पाएगी. जो है वह सामने होगा बिना किसी सुरक्षा कवच के.
इसके लिए यह सही होगा कि हम हिंदी के एक महान कवि की महान कविता को विश्लेषण के लिए लें. कवि हैं सूर्यकांत त्रिपाठी \’निराला\’ और उनकी मशहूर कविता है `तोड़ती पत्थर\’ .
इसे लेने का विशेष कारण है क्योंकि एक तरह से निराला अपने बाद की कविता और बाद के कवि व्यक्तित्व के लिए बीज स्वरुप हैं. इस मायने में यह अध्ययन प्रातिनिधिक हो सकता है. हम सब कवि निराला और उनकी इस कविता पर पर्याप्त श्रद्धा रखे आए हैं. ऐसी भावुक स्थिति में वास्तविक विश्लेषण की परीक्षा और भी जरुरी है. वह कठिन भी है.
हमारा उद्देश्य कविता की पूरी व्याख्या करना नहीं है, बल्कि विश्लेषण के आधार की तरफ इशारा करना मात्र है . फिर भी आपकी सुविधा के लिए पूरी कविता इस प्रकार हैः
तोड़ती पत्थर
वह तोड़ती पत्थर.
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर–
वह तोड़ती पत्थर.
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय,कर्म–रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार–बार प्रहार:-
सामने तरू–मालिका अट्टालिका, प्राकार.
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रुप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गयीं,
प्राय: हुई दुपहर:
वह तोड़ती पत्थर.
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोयी नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह कांपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा–
‘मैं तोड़ती पत्थर !’
कोई भी बड़ा कवि अपने व्यक्तित्व से और बड़ी कविता अपने संरचना विधान से पाठक पर सम्मोहन क्रिया का उपयोग करते हैं. उस सम्मोहन से बाहर आ उसे सहज हो देख पाना कठिन है. लेकिन उसके सम्मोहन में बंधे भक्ति भाव से कीर्तन करते रहना कवि और कविता दोनों का ही अपमान है. आज तक हिंदी साहित्य इस सम्मोहन से बाहर नहीं आ पाया है. इसलिए इन कविताओं के गिर्द बना कोहरा छंट नहीं पाता. यहां हमारे उद्देश्य में उसकी भाषा संरचना का विश्लेषण शुमार नहीं है जबकि उसपर काफी कुछ कहा जा सकता है. वह मुक्त छंद में है, जो छंदशास्त्र के बहुत से अनुशासनों से उसे बचा लेते हैं. मसलन महाकवि प्रसाद की महत्वाकांक्षी रचना “कामायनी” के पहले बंध में ही आल्हा छंद का विचलन साफ दिखाई पड़ता है जब हम यह पढ़ते हैं –
“हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांव
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह .“
‘छांव’ या ‘छांह’ में ‘प्रवाह’ की तुक और पूर्व पद ‘शीतल’ और ‘प्रलय’ के प्रयोग खटकते जरूर हैं, लेकिन उसे हम वैसे ही अनदेखा करते रहते हैं जैसे संगीत में कुमार गंधर्व की गायकी पर क्लासिक कमैंट्स को. कविता का विधिवत विश्लेषण करने पर और भी न जाने कितने झोल उजागर होंगे.
पहले ही कहा कि संपूर्ण विश्लेषण यहां संभव नहीं है क्योंकि कोई भी बड़ी कविता एक चुनौती की तरह है जिस पर पूरा ग्रंथ लिखो तो भी बातें छूट जाएंगी. खैर.
कविता के पहले बंध की तीन पंक्तियों में ही एक `वह\’ है, एक `मैं\’ है और इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ने की क्रिया है. `वह\’ एक सामान्य मजदूर स्त्री है जो सड़क पर पत्थर तोड़ रही है . `मैं\’ एक दर्शक है जो काम में लीन उस स्त्री को देखता है. कमकर स्त्री के बारे में जो भी जानकारी मिलती है या जो भी उसके गतिचित्र या भावचित्र कविता में उभरते हैं वे सब इस दर्शक कवि के द्वारा ही हैं. यानी कि दर्शक कवि के मन पर बने बिंब हैं जो उसकी भावनाओं और विचार–सरणियों से संलिप्त आए हैं.
कविता में केवल इतना भर नहीं है कि एक मजदूर स्त्री पत्थर तोड़ने का काम कर रही है. इसके अलावा भी बहुत कुछ है जो वही देख सकता है जिसके पास तेज देखने वाली नजर हो, मर्मभेदी निगाह हो. और मामला केवल देखने तक ही सीमित नहीं है, बीच–बीच में कुछ टिप्पणियां भी हैं जो बिना खास विचार के संभव नहीं हैं. कुछ प्रतिक्रियाएं भी हैं जो कवि की मन:स्थिति, भावस्थिति और विचारस्थिति को ही दर्शाते हैं.
इसलिए कविता की व्याख्या करने से पहले यह जानना जरुरी है कि यह दृश्य और दर्शक कौन हैं. दृश्य के बारे में कोई बहुत उलझन नहीं है. उसमें सड़क पर पत्थर तोड़ने वाली एक गरीब स्त्री है, पत्थर तोड़ने की इस प्रक्रिया में होने वाली कर्म–श्रंखला है और वह आम रास्ता है जो कवि के अनुसार इलाहाबाद को जाता है. इलाहाबाद से सटा ही रहा होगा तभी तो वहां से शहर की अट्टालिकाएं दिख रही हैं.
इस आम दृश्य में देखने वाला कवि बहुत से रचनात्मक चित्र जोड़ता है जो व्यक्ति, भाव और विचार की श्रेणी में आते हैं. इनकी वजह से कविता में अनेक नए पेंच उपस्थित हो गए हैं जिन्हें ठीक से समझने के लिए इस देखने वाले कवि को जानना जरुरी है.
आखिर यह कवि कौन है ? व्यक्ति–विशेष है या हिंदी कवि का प्रातिनिधिक है ? या दोनों ही ?
पहली बात तो यह साफ है कि यह कवि कमकर नहीं है. वह कमकर की स्थिति से अलग, ऊपर और प्रेक्षक है जिसके पास देखने की पैनी नजर है. पढ़ा–लिखा होगा तभी तो अच्छी भाषा में सब कह पा रहा है. फुरसत में होगा तभी तो देखता घूम रहा है और दिखते को स्मृति में संजोए अप्रस्तुत विधान से सजा पा रहा है.
`वह\’ और `मैं\’ का यह विभेद किस सामाजिक और सांस्कॄतिक स्थिति और परिदृश्य को रेखांकित करता है ?
कमकर स्त्री के नरक से निकल पढ़–लिखने का सुभीता पाया व्यक्ति कुछ घूमने–फिरने की और अनुभव करने की सुविधा पा गया. कुछ शहरी भी हो गया और नए विचारों से परिचित भी. अब इस देखे हुए को अपने विचार और भावों का नमक–मिर्च लगाकर पाठक को परोस रहा है.
इस कविता से जुड़ी प्रगतिशीलता को थोड़ी देर के लिए दरकिनार कर इस कविता के बारे में बेलाग होकर सोचें तो मालूम होगा कि जो विषय यहां चुना गया है और जिस तरह विभिन्न कोणों से दृश्यों को मन के कैमरे में बंद कर फिल्माया गया है, वह आज की उपभोक्ता संस्कॄति में भी बहुत बिकने वाला माल है. आज जो ये टी. वी. चैनल अधिकतर और फटाक से इन दृश्यों के पास पहुंच जाते हैं तो इसीलिए कि यह आकर्षक हैं .
कमकर मजदूर ही नहीं स्त्री दृश्य में है इसलिए गाहे–बगाहे उसका श्याम तन, सुघर कंपन, भर बंधा यौवन भी दिख जाता है जो इस आकर्षण को और बढ़ा देता है. इस तरह सौंदर्यशास्त्र का सौंदर्य पक्ष पूरा हुआ. और उसके बाद कवि ने `लांग व्यू\’ से दृश्य में शहर की अट्टालिका को भी ले लिया और उसपर नजर टिकी दिखा गुरु हथौड़ा भी चलवा दिया. इससे वर्ग–संघर्ष का प्रतिफलन संपन्न होकर प्रगतिशील विचार और प्रतिबद्धता संपन्न हुए. इससे कवि को तो क्रांतिकारी सुख मिला ही बाद में पाठक और आलोचक को भी मिला.
यह सब कवि की कृपा से संपन्न हुआ. अब यह जानने की परवाह किसे है कि वह कमकर स्त्री असल में उस दौरान क्या सोच रही थी.
इसे कहते हैं किसी को वस्तु में बदल देना और उसका मनमर्जी इस्तेमाल कर लेना. यह इस्तेमाल आपके व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए हो सकता है, समाज के लिए हो सकता है, विचारधारा के लिए हो सकता है. इससे क्या फर्क पड़ता है !
इस्तेमाल तो इस्तेमाल है.
आज आप एक तरह से करेंगे तो कल दूसरा दूसरी तरह से. लेकिन जब आप अपने सिद्धांत के लिए इस्तेमाल करते हैं तो सही है, लेकिन जब विज्ञापन वाला अपने सिद्धांत के लिए इस्तेमाल करे तो आप गाली देंगे. सवाल यह है कि इस इस्तेमाल से अलग हटकर अगर यथार्थ के ईमानदार बयान पर ही भरोसा किया होता तो क्या यह कम प्रेरक होता ! शायद स्थिति की विडंबना के कारण और मर्मस्पर्शी होता.
आज तक निराला की यह कविता तरह–तरह से इस्तेमाल की जाती रही है और की जाती रहेगी क्योंकि स्वयं कवि ने इसकी शुरुआत की थी.
इससे भी बड़ा सवाल है इस या इस तरह की कविताओं की दुखदाई स्थितियों का प्रिय और पापुलर हो जाना. जितना जीवन के दुखदाई पक्ष को कविता प्रस्तुत करेगी उतनी ही वह कालजयी होकर पाठकों के मनप्राण पर राज करेगी. तो क्या यह मान लिया जाय कि हम `सैडिस्ट\’ हो गए हैं जो दूसरों के दुख में ही आनंद लेते हैं. अगर हम इन दुखदायी स्थितियों से मुक्त होने को अपना और समाज का लक्ष्य मानते तो इन्हें मिटे देखना चाहते. इन स्थितियों से वितॄष्णा और छुटकारा पाना या दिलाना चाहते. उसका मतलब होगा उनको दिखाने वाली कविता से भी छुटकारा.
लेकिन हम तो ऐसी स्थितियों को ही पसंद करने लगे हैं. उन स्थितियों पर टिकी कविता को ही अमर बनाए दे रहे हैं. उसका मजा ले रहे हैं. यानी जितनी जो स्थिति दुखदायी होगी, जुगुप्सु होगी उतना ही हम उसकी तरफ खिंचेंगे, उतना ही वह मजा देगी.
क्योकि ये स्थितियां मिट गईं तो जीवन में रह क्या जायगा ? सुख ? सुख भला सौंदर्य की सृष्टि कैसे कर सकता है ? इसलिए सबके स्वार्थ दुखदायी से जुड़ गए हैं . क्या कवि, क्या राजनेता, क्या कोई और नियंता. ये मिट गईं तो हमें कौन पूछेगा ?
जैसे राजनेता के वर्चस्व के लिए जरुरी है कि इस देश की जनता निर्धन रहे, दुखियारी रहे, निरक्षर रहे. इनसे वह मुक्त हो गई तो समझो जनता के नाम पर चलाई जा रही सब राजनीति और तंत्र भरभराकर गिर पड़ेंगे. इसी तरह कविता की रचनात्मकता के लिए भी जरुरी है कि दुखदायी स्थितियों का तानाबाना बना रहे. पत्थर कूटती मजदूरन हो और पैनी नजर वाला कवि हो और क्रांतिकारी विचार हो जिसे देख सब तालियां बजाएं और दशकों तक आपके वर्णन की महानता के गुण गाएं.
चीजों के इन सामाजिक, सांस्कृतिक पहलुओं को बेलाग तरह से आपके सामने रखने और आपके विश्वासों को झकझोर कर आपको कष्ट देने के लिए आप मुझे क्षमा करेंगे. लेकिन साहित्य के सामाजिक और सांस्कृतिक अध्ययन के लिए इस व्यापक और गहन परिप्रेक्ष्य से टकराना जरूरी होता है . कहे हुए को गाते चले जाने से कोई विमर्श समृद्ध नहीं हो सकता .
इसलिए आपसे इतनी अपेक्षा तो होगी ही कि आप गहरे जमे साहित्यिक विश्वासों पर चोट के कारण उत्पन्न टीस लेकर यहां से जाने की बजाय तमाम चीजों पर नए सिरे से सोचना शुरू करेंगे और साहित्य के अध्ययन में नई रचनात्मकता से प्रविष्ट होंगे.
(यह विश्वविद्यालय शिविर में दिए एक भाषण का संक्षिप्त रूप है जिसमें साहित्य को पढ़ने के लिए कुछ जरूरी बातों का संकेत है.)________
कर्ण सिंह चौहान
स्कूल की शिक्षा दिल्ली के स्कूलों में हुई तथा उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई. वहीं से एम.फिल. और पीएच. डी., दिल्ली विश्वविद्यालय में २०१२ तक अध्यापन किया. बीच के नौ-दस बरस सोफिया वि.वि., बल्गारिया और हांगुक वि.वि., सिओल, दक्षिण कोरिया में अतिथि प्रौफैसर के रूप में अध्यापन किया.
लगभग १५ पुस्तकें साहित्य की विधाओं में प्रकाशित हैं जिनमें आलोचना के नए मान, साहित्य के बुनियादी सरोकार, प्रगतिवादी आंदोलन का इतिहास, एक समीक्षक की डायरी, यूरोप में अंतर्यात्राएं (यात्रा), अमेरिका के आर पार (यात्रा), हिमालय नहीं है वितोशा (कविता), यमुना कछार का मन (कहानी) आदि प्रमुख हैं. विदेशी साहित्य से अनुवाद में जार्ज लूकाच की दो पुस्तकें, पाब्लो नेरुदा, लू शुन, कोरियाई कविता-संग्रह आदि प्रमुख हैं. देश-विदेश की पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हुए.
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