Olaf Brzeski ( Dream – Spontaneous combustion) courtesy of the Czarna Galler |
अज्ञेय का मानना था कि “काव्य के जो भी गुण बताए जाते या बताए जा सकते हैं, अंततोगत्वा भाषा के ही गुण है.” हिंदी कविता विमर्श में भाषा को लेकर तमाम बहसें चलती रही हैं. मुक्तिबोध, नामवर सिंह विजयदेव नारायण साही जैसे आलोचक इसमें शामिल रहे हैं. विजयदेव नारायण साही के एक लेख का शीर्षक है ‘अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग और अभिव्यंजना की कुछ समस्याएं’ आगे उन्होंने एक और लेख लिखा ‘पाश्चात्य प्रभावों के सन्दर्भ में वर्तमान काव्यभाषा की समस्याएं’.
इधर हम कविता के सरोकारों और उसके कंटेंट पर चर्चा तो करते हैं पर उसकी भाषिक रचना प्रक्रिया पर नहीं. सुशील कुमार का यह लेख बिम्ब/ सपाटबयानी/लोकधर्मिताआदि मुद्दों पर भी बहस को आमंत्रित करता हुआ लेख है.
समकालीन कविता की भाषा :
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सुशील कुमार
आधुनिक काल-खंड की सभी काव्य-प्रवृतियाँ आधुनिक होती हुई भी समकालीन नहीं हैं. भाषा के प्रति सजग कवि अब यह महसूस करने लगे हैं जो शब्द, मुहावरे और बिम्ब कविताओं में लगातार प्रयुक्त होते-होते अपनी अर्थवत्ता खोकर रुढ़ हो गए हैं, अर्थात सिक्के की तरह चलते-चलते घिस गए हैं, उनको लेकर कविताओं में समकालीन यथार्थ का अंकन नहीं हो सकता.
इसका कारण इस तथ्य में समाहित है कि वैश्विक और भारतीय राजनीतिक-सामाजिकार्थिक परिदृश्य का गहरा प्रभाव प्रचलित भाषा पर पड़ा है. देश में काँग्रेस का लम्बा कुशासन, जनजीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और घोटाले, काला धन, सरप्लस पूँजी, बाबरी-ध्वंस, गोधरा-कांड, दक्षिणपंथ और वाम-राजनीति के कुत्सित रूप, नक्सलबाड़ी और उसके च्युत मूल्य, उत्तर-आधुनिकता, ग्लोबलाइजेशन, कवियों-लेखकों के असहिष्णुता-राग, जंगल-कटाई, प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, पलायन और आदिवासी समस्याएँ, ग्रीनहाउस इफ़ेक्ट, निरंतर टूटता परिवार, महिला-प्रताड़ना, निर्भया-कांड, नैतिक अवमूल्यन, पुरस्कारों की राजनीति आदि-आदि घटित-लक्षित कई घटनाक्रम परिदृश्य में उभर कर आते हैं जिसने जनजीवन को मथकर रख दिया है.
इनको अभिव्यक्त करने के लिए कवियों ने शिल्प के स्तर पर पुराने बिम्बों की जगह नए किस्म के बिम्बों का प्रयोग, कहन की अधिकाधिक यथार्थवादी (या सपाट) शैली और कविता में लोकल डायलेक्ट्स के प्रयोग पर बल दिया जो सच को हु-ब-हू उगल सके.
नई सदी के युवा कवियों की कविताओं को अगर सामने रखकर इस पर बात करें तो एक महत्वपूर्ण बात जेहन में यह आती है कि सृजन में कवि की काव्य-भाषा किस तरह काम करती है, यह बारीकी से देखने का विषय है जिस पर पुराने सोच के प्रबुद्ध समीक्षकों-आलोचकों ने अब तक उपेक्षा भाव ही बरता है. बिम्ब और प्रतीक-योजना काव्यभाषा की अब बाध्यता नहीं रही, यद्यपि यत्र-तत्र उसका विकास देखने को मिलता है. इनकी कविताओं में बिम्ब भी बिंबवाद की सीमा को नहीं छू पाते, न ही कवि उसका कोई छद्म या विशिष्ट आलोक रचने की चेष्टा करते हैं बल्कि बिम्ब भी कविता की कहन को चित्र-छवियों की जगह अर्थ-छवियाँ प्रदान करते ही दिखते हैं जिससे उसके कथ्य को एक नया संवेग (momentum) मिलता है और वस्तु का रूप स्वत: दमक उठता है.
इसे ईमानदारी और साहस के साथ अब समझने और स्वीकार करने की जरूरत है. लोकधर्मी काव्य-चिंतकों की यह स्थापना कि रूपवादी रुझान के कवि भाषा से बात भाषा से शुरू कर भाषा पर ही खत्म कर देते हैं और कविता की एक स्वायत्त दुनिया सिरजना चाहते हैं जिसका मूल्यों से, परिवेश की सामाजिक सार्थकता से कोई संबंध नहीं होता, की गहराई में जाकर पड़ताल करना आवश्यक हो गया है.
परंपरावादी लोकधर्मी आलोचक-चिंतक नब्बे दशक के बाद से काव्यभाषा में निरंतर हुए बड़े बदलावों को कविता के रूपवादी चिंतन से जोड़ कर देखते हैं. अपने तर्क और विश्लेषण में वे अब तक परोक्षत: काव्यभाषा की बहस को कविता की अमूर्तनता की वकालत और काव्य-बिंबों की उपेक्षा कहकर कविता की मुक्ति और उससे जुड़े जेनुइन सवालों से बचते रहे हैं. पर यह गौर करने वाली बात है कि कई बार बिम्ब और चित्र भी अमूर्त होते हैं, खासकर उन रेखाचित्रों या कलाचित्रों की छवियों में जिनमें अस्पष्ट भावबोध होने की वज़ह से वह अर्थ-गुम्फित या अर्थमयी होने से चुक गए हों. कई बार हमें कई पेंटिंग या चित्रों के भाव और अर्थ अबूझ लगते हैं. कुछ उन चित्रों को देखिए, चित्र में रंग-रेखाएँ तो दिखाई पड़ रहे लेकिन अगर उनमें अमूर्तनता है तो क्या उसे भी हम बिम्ब कहेंगे क्योंकि बिंब तो मूर्त होता है? अगर किसी वस्तु या विचार के प्रति मेरे मन में चित्र-छवियां बन रही हैं तो उन्हें मैं बिम्बात्मक कहूंगा. लेकिन जब किसी वस्तु या विचार को देखकर चित्र-छवियों की जगह अर्थ-छवियां बन रही है जिसे हमारा मस्तिष्क ग्रहण कर रहा है तो उसे बिम्बात्मक कैसें कहें?
कविता में भी मूर्तनता का सवाल जितना इन्द्रियबोध से जुड़ा है उतना ही मन से भी, बल्कि यूँ कहें कि हमारे ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को भी मन-मस्तिष्क ही संचालित करता है. क्या कोई बेहोश या अचेत पड़ा व्यक्ति अपनी खुली आखों से रूप-रस-गंध-स्पर्श आदि का अनुभव कर सकता है? अतएव यह सक्रिय मन ही है जो अनुभव कराता है, इंद्रिय तो माध्यम भर है. इस कारण कविता में बिम्ब से अधिक जरूरी उसकी मूर्तमयता है. अमूर्तनता किसी भाव, विचार, रूप और वस्तु की या तो अपरिपक्व स्थिति हो सकती है या फिर सृजन में कला का जिया हुआ असफल क्षण जिसे उस कवि के अलावा पूरा-पूरा कोई और न समझ सके (क्योंकि कविता में मूर्तनता लाने में असफल कवि की प्रत्यारोपित धारणा वहाँ पहले से मौजूद होती है). इससे यह पता चलता है कि अमूर्तनता की काट सृजन की प्रमाणिक अनुभूति में है जो केवल बिम्ब-ग्रहण से ही संभव होगा, ऐसा आग्रह और हठ कविता को बिम्ब से बिम्बवाद की ओर ले जाता है.
अमूर्तनता कविता की कमजोरी है, इससे बचने का सहज मार्ग कविता की अंतर्वस्तु का वस्तुपरकता के आत्मगतता की ओर जाना है जो सदैव बिम्ब-विधायी हो, जरूरी नहीं. निष्कर्षत: परंपरावाद के अंध समर्थकों द्वारा समकालीन कविता में काव्यभाषा की बहस को कविता की अमूर्तनता की वकालत और काव्य-बिंबों की उपेक्षा से जोड़ने का कोई तुक नहीं बनता, और यह कुतर्क खारिज करने योग्य है. आज की कविता को समझने के लिए जब कविता के परंपरागत लक्षण तुक, छंद, अलंकरण, उपमान, रस आदि शनै: शनै: विलुप्त हो चले हैं तो काव्य-भाषा ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार शेष रह जाती है जिसके सहारे कविता की आंतरिक बनक को बिना कविता के बाहर गए भी आसानी से समझा जा सकता है. यह बात अब पूरी तरह समझने के लायक है कि काव्यभाषा के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण को कलावादी कहना इसकी सच्चाई को जानबूझ कर नकारना है.
कविता कितनी मूर्त है या कितनी वायवीय, कितनी सपाट है या बिम्बात्मक, कितना जनवादी है, कितना अभिजनवादी या कला-उन्मुख, कितनी मध्यमवर्गीय संचेतना और कितना रचनात्मक आत्मसंघर्ष से युक्त है, कितना भाषाई सच हैं और कितनी वंचनाएँ, कितना आत्मगत है और कितना बाह्यगत …इन सब उपादानों तक कविता में मात्र प्रयुक्त भाषा से ही हम प्रथमतः पहुँच सकते हैं.
यह कवियों की रचना का जेनेटिक लक्षण भी कहा जा सकता है. काव्यभाषा को कविता का विश्वसनीय प्रतिमान न मानना एक तरह से रीतिकालीन या बुर्जूआ धारणा का भय-त्रास मात्र है जिस शंका के कारण आलोचना-सैद्धांतिकी भाषा की नब्ज पकड़ने के बजाए केवल कविता के कथ्य पर आधारित स्थूल मान्यता तक ही सीमित होती है जिसमें कथ्य के समाजशास्त्र के आधार पर काव्यभाषा के अभिलक्षणों की उपेक्षा हो जाती है जिससे अब सहमत होना शायद संभव नहीं, न समय की मांग ही है.
मेरे विचार में, काव्यभाषा आलोचना की वह ‘लेजर किरण’ है जिससे सृजन के वस्तु और रूप में प्रवेशकर कविता का वास्तविक ‘एक्स-रे’ किया जा सकता है पर इसके लिए समीक्षकों-आलोचकों को भी उतना ही सहृदय, दृष्टि-सम्पन्न और पूर्वग्रह-मुक्त होना होना होगा. काव्य-भाषा से मुंह मोड़ना नव्य आलोचना पद्धति में एक तरह से स्थूल समाजशास्त्रीय रीति अपनाकर कविता-पांखी के नए, उगते पंख को जबरन कतरना, या कहें साहित्य के एक हठयोग जैसा है जिससे अब साहित्य का भला होना दूर की कौड़ी जान पड़ती है. हाँ, यह बात अलग है कि कुछ अभिजनवादी कवियों ने उत्तर-आधुनिकता के प्रभाव में आकर कविता में काव्य-भाषा के जिन कलात्मक उपकरणों का उपयोग किया, परंपरा और मूल मानवीय रागात्मकता से अपने को अलग-थलग कर भाषा में संवेदना की आधुनिकी और नवता के नाम पर मन को विचलित करने और चौंकाने वाली कविताएं रची, उनमें जन कहीं मानवीय संघर्ष करता नहीं दिखता, वह तो बुर्जुआ वर्ग के शौक और मौज की कविताएं बनकर रह गई हैं.
कविता का इतिहास यह साफ तौर पर बताता है कि कविता के सृष्टि-काल से ही ‘लोकधर्मिता’ कविताओं का प्रतिमान ही रहा है (चाहे नाम जो भी रहा हो) किन्तु परिवेश और युग-बोध के बदलने के साथ लोकधर्मी चिंतकों-आलोचकों को यह समझ लेना चाहिए कि सभ्यता, संस्कृति, भाषागत संरचना, रूप और वस्तु में समय के साथ जो बदलाव आए हैं, उसको कविताओं में रेखांकित करने के लिए पुराने अभिलक्षणों के परित्याग के साथ-साथ अपनी रुढ़ धारणा और परम्परागत काव्य-भाषा में भी आमूलचूल सुधार की आवश्यकता है. इसलिए यह कहते हुए मुझे लेश-मात्र भी संशय नहीं कि जब तक काव्यभाषा का सृजनशीलता से अंतर्सबंध और उसकी आंतरिक बुनावट को पूर्वग्रह-रहित होकर नहीं समझा जाएगा, तब तक लोक की नई काव्य-प्रवृत्तियों पर सम्यक और ईमानदार समीक्षा सम्भव नहीं. कविताओं की भाषा उसके कथ्य या अंतर्वस्तु से बनती है, यह कविता के भावजगत का प्रत्यक्षीकरण करती है जो एक स्वत: प्रक्रिया है जिसमें कवि का अंतर्ज्ञान, उसके जीवनानुभव और उसकी मेधा-शक्ति अन्तर्भूत होते हैं.
इसलिए काव्यलोचना में भाषा-विधान पर सेन्सर्स कतई सही नहीं. कविता में यदि कथ्य ही अमूर्त्त हो और उसके सौंदर्य में जन की जगह अभिजन का पक्ष हो, तो इसका पता भी उस कविता की काव्यभाषा से चल जाता है. अगर कोई कवि अपनी भाषा को जनपद की लोक-भाषा से नहीं सींचता, परंपरा से उसे पोषित नहीं करता, स्थानीयता का चटक रंग नहीं ला पाता, देशज भंगिमा को प्रकट करने में सफल नहीं हो पाता, मध्यमवर्गीय कुंठा-लालसा से ग्रसित हो जाता हो, बंद कमरे में किताबी भाषा की जोड़-तोड़ से ही अपना काम चलाता हो तो इसके परीक्षण की कुंजी भी प्रथमत: और अंतोगत्वा कवि की काव्यभाषा ही है क्योंकि इनकी जड़ें वहीं मौजूद हैं जहां लोकधर्मी चिंतक जाना चाहते हैं. इसलिए काव्यभाषा को कविता के प्रतिमान का विपर्यय व पाश्चात्य नव्य-समीक्षा की फलश्रुति मानना और रूपवादी झुकाव का एक आयाम कहकर तिरस्कृत करना कविता की ‘स्वायत्त दुनिया’ में अवांछनीय दखल जैसा प्रतीत होता है.
आज की कविताएं अपनी समकालीन काव्य-भाषा के गुण के कारण जितनी सहज है उतनी ही संश्लिष्ट भी, भावलोक और अनुगूँज की कई तहें रचती हैं, यह कविता के अंदर कोरा बौद्धिक विमर्श नहीं, बल्कि ऐंद्रिक सजगता को उकसाती है और काव्यभाषा अपनी पूरी संवेदना और काव्यानुशासन के साथ पाठक के हृदयाकाश में घर कर लेती है जो बिन बोले कविता की स्वायत्त दुनिया में सापेक्ष स्वतन्त्रता को उद्भासित करती है.
हमें महसूस होता है कि क्षण भर के लिए कविता को अगर एक जीवित प्राणी मान लिया जाए तो रूप-संभार उसकी देह है और अंतर्वस्तु उसकी अस्थियाँ. भाषा उसकी प्राण है और भाव उसकी धमनियों में प्रवाहित रक्त. इसकी समष्टि ही कविताओं का गोचर या मूर्त रूप है. इसके सन्तुलन का अभाव कविता को निकृष्ट और बेजान कर देती है.
इसमें एक तत्व का आधिक्य दूसरे की कमी का द्योतक बन जाता है. बाकी, लोकतत्व की व्याख्या तो कविता के अवतीर्ण होने के उपरांत की जाती है पर नहीं भूलना चाहिए कि इसका संस्कार कविता के बीज-वपन में ही पड़ जाता है क्योंकि कविता जितना वैयक्तिक कर्म है उससे अधिक एक सांस्कृतिक कर्म. इसका लोकरूप विश्वरूप का ही अवतार और व्यापकता है जिसके संतुलन को साधे बिना कवि हृदयस्पर्शी और जनोपयोगी सृजन नहीं कर सकता.
काव्य-भाषा की जड़ें भले ही परम्परा में गहरी धँसी हो, पर उसको खाद-पानी लोक या परिवेश से ही मिलता है. जिस कवि का परिवेश जीवन के यथार्थ और अंतर्द्वन्द्व से पगा हुआ नहीं, वह अपनी रचना में लोकधर्मिता और जनवाद के उस वागर्थ को नहीं उद्भासित कर सकता जो काव्य-भाषा की प्राण समझी जाती है.
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काव्य-भाषा की जड़ें भले ही परम्परा में गहरी धँसी हो, पर उसको खाद-पानी लोक या परिवेश से ही मिलता है. जिस कवि का परिवेश जीवन के यथार्थ और अंतर्द्वन्द्व से पगा हुआ नहीं, वह अपनी रचना में लोकधर्मिता और जनवाद के उस वागर्थ को नहीं उद्भासित कर सकता जो काव्य-भाषा की प्राण समझी जाती है.
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सुशील कुमार
कविता-संग्रह- कितनी रात उन घावों को सहा है (2004), तुम्हारे शब्दों से अलग (2011), जनपद झूठ नहीं बोलता (2012) प्रकाशित
संपर्क : सहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय,
स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग,
एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची – 834004
मोबाईल (0 90067 40311 और 0 94313 10216)