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ख्यात कथाकार – उपन्यासकार बटरोही का उपन्यास, ‘गर्भगृह में नैनीताल’ २०१२ में प्रकाशित हुआ था. इस उपन्यास का यह हिस्सा आश्चर्यजनक ढंग से उत्तराखंड के वर्तमान राजनीतिक संकट पर प्रासंगिक हो उठा है. यह जितनी राजनीतिक कथा है उतनी ही सांस्कृतिक भी. इसमें वर्तमान और अतीत की धाराएँ समानांतर चलती हुई एक दूसरे में मिल-जुल जाती हैं. और यह भी कि सत्ता के लिए विधायकों के खरोद फरोख्त की यह नंगई देशभक्ति ही है न ?
दिनांक 13 मार्च, 2012: सातवीं रानी ने जना सिलबट्टा
(उर्फ कथा उत्तराखंड के भावी मुख्यमंत्री को रातोंरात अगवा करके एक ‘धरतीपुत्र’ के लाड़ले का सिंहासनारूढ़ होना : लाल खबीस)
लक्ष्मण सिंह बिष्ट \’बटरोही\’
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यह सपना काफी समय बाद का है. सपने के बीच में सपना! पाठक इस बात के लिए क्षमा करेंगे कि मुझे फिर से अपने एक निजी सपने के बारे में आपको बताना पड़ रहा है. मगर मैं कर ही क्या सकता हूँ, सपनों पर किसी का वश तो होता नहीं. आप उनकी प्रामाणिकता के बारे में सवाल नहीं उठा सकते… मानो उन्हें स्वीकार करना हमारी नियति हो! आप लाख पहरे बैठा दीजिए, वे हमारे मन की गहराइयों में किसी-न-किसी बहाने घुस ही आते हैं.
हुआ यह कि 13 मार्च, 2012 की रात को, जिस दिन उत्तराखंड प्रदेश के के नव-निर्वाचित मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने शपथ ग्रहण की, प्रदेश के पूर्व और वर्तमान सारे मुख्यमंत्री दस जनपथ में, मेरे सपने की पृष्ठभूमि में आ खड़े हुए. वे सभी बारी-बारी से कांग्रेस अध्यक्षा से हरिद्वार क्षेत्र के वर्तमान सांसद और केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री हरीश रावत की शिकायत कर रहे थे. खास बात यह थी कि शिकायतकर्ता मुख्यमंत्रियों में दोनों राष्ट्रीय दलों के नेता थे… सबसे आगे भाजपा के नित्यानंद स्वामी, उनके बाद भाजपा के ही भगतसिंह कोश्यारी, फिर कांग्रेस के नारायणदत्त तिवारी, उनके पीछे भाजपाई भुवनचंद्र खंडूड़ी और रमेश पोखरियाल ‘निशंक’; और सबसे आखिर में कांग्रेसी विजय बहुगुणा. विजय जी इस शिष्टमंडल का नेतृत्व कर रहे थे, इसलिए वह सबके बीच अलग खड़े दिखाई दे रहे थे.
मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सोनियाजी को मेरी डायरी का एक पन्ना दिखा रहे थे जिसमें मैंने सांसद हरीश रावत के द्वारा 1998 में कहे गए इस कथन को उद्धृत किया था कि प्रस्तावित उत्तराखंड राज्य को पहले केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाना चाहिए ताकि इससे पहले कि नए प्रदेश में संसाधनों को लेकर अराजकतापूर्ण छीना-झपटी हो, संभावनाओं के दोहन के लिए एक सुविचारित और विवेकसम्मत राष्ट्रीय नीति अपनाई जा सके, जिससे राज्य की आधारभूत समस्याओं – भूख, बेरोजगारी, पलायन और प्रतिभाओं का रचनात्मक दोहन वगैरह – पर सबका ध्यान सीधे फोकस हो! (पाठक इस डायरी को इसी उपन्यास के पहले अध्याय में पढ़ सकते हैं!)
सपने में ही मैंने देखा कि बहुगुणाजी सोनियाजी के सामने समस्त मुख्यमंत्रियों के द्वारा सर्वसम्मति से पारित यह प्रस्ताव पढ़कर सुना रहे थे कि माननीया, आप ऐसे आदमी को कैसे इस नवजात राज्य की बागडोर थमा सकती हैं, जो राज्य बनने से पहले ही उसका विरोध कर रहा था! प्रथक् राज्य का एक अलग नक्शा होता है, केंद्र-शासित प्रदेश उसका स्थानापन्न भला कैसे हो सकता है? प्रथक् राज्य में पूरी बागडोर जनता के हाथ में होती है; जबकि केंद्रशासित में तो एक-एक पैसे के लिए केंद्र के इशारों पर नाचना होता है! प्रदेश की गरीब जनता दिल्ली के ही चक्कर लगाती रहेगी तो यह पिछड़ा और अविकसित राज्य भला आत्मनिर्भर कैसे हो पाएगा?… क्या यह एक अलग तरह का ‘राजनीतिक पलायन’ नहीं होगा!
सोनिया जी सारी बातें ध्यान से सुन रही थीं… मगर ज्यों ही वह जवाब देने के लिए खड़ी हुईं, एकाएक मेरी नींद खुल गई. इसके बाद पूरी रात मेरी आँखों के सामने चित्रकार हिम्मतशाह की पेंटिंग्स में उकेरे गए भारी-भरकम बेडौल चेहरे से मिलता-जुलता हरीश रावत का चेहरा घूमता रहा. केवल उसी रात नहीं, उसके बाद भी, मैं अरसे तक रात को रावतजी को अपने सपनों में देखता रहा और यह सिलसिला उस दिन टूटा जब मैंने सपने में ही उनके चेहरे को लाल खबीस के रूप में बदला हुआ पाया. लाल खबीस उस रात फाँसी गधेरे से गर्नी हाउस तक फैले नैनीताल के घने जंगल में भटक रहा था.
मैंने लाल खबीस से पूछा, ‘आप हरीश रावत तो नहीं हो, लाल खबीस ?’
‘कौन हरीश रावत ? मैं किसी हरीश रावत को नहीं जानता. लोग मुझे लाल खबीस कहते हैं! मैं तो अपने दोस्त चंपावत के जमन सिंह को खोज रहा हूँ.’ लाल खबीस ने मुझसे हाथ मिलाते हुए कहा.
गलत तो मैं भी नहीं था. मैं पूरे होशो-हवास में कह रहा हूँ कि फाँसी गधेरे के ठीक सिर पर फैले हुए बाँज के घने पेड़ों के बीच अपने भीमकाय शरीर, भारी लाल चेहरे, लंबी टांगों पर बिरजिस चढ़ाए, उल्टे बूँट धारण किए लाल खबीस टक्-टक् चढ़ाई चढ़ रहा था! हरीश रावत के साथ उसकी शक्ल काफी मिल रही थी. उसके बूटों के पंजों वाला सिरा ढलान में मल्लीताल की दिशा की ओर था जब कि वह अयारपाटा के गर्नी हाउस की ओर चढ़ रहा था.
मेरे मन के असमंजस को पढ़कर उसने खुद ही अपना परिचय दिया, ‘लगता है, तुमने मुझे पहचाना नहीं! पहचानोगे भी कैसे, कभी देखा ही नहीं ठहरा. जिस साल तुम पैदा हुए, उसी के एक साल के बाद मैं हिंदुस्तान छोड़ चुका था.’… मुझे हैरानी हुई कि यह अंग्रेज़ इतनी साफ कुमाउंनी कैसे बोल रहा है?
‘क्यों, विश्वास नहीं हो रहा है… अरे भाई, मैं नैनीताल का ही तो हुआ’, वह कुमाउंनी में ही अपना परिचय देने लगा, ‘मेरे पिताजी यहीं नैनीताल डाकघर के पोस्टमास्टर हुए!… एक ईमानदार और समर्पित सरकारी कर्मचारी…’ मैंने उसे फिर ऊपर से नीचे तक टटोला और जिज्ञासा प्रकट की, ‘वैसे, कौन हुए आपके पिताजी? हो सकता है, मैंने उनका नाम सुना हो!’
‘मेरे माँ-बाप यहाँ के नहीं थे, वो आए तो बाहर से ही थे, मगर मैं यहीं नैनीताल में पैदा हुआ…. मेरा नाम एडवर्ड है, 1862 में मेरे पिता श्री विलियम क्रिस्टोफर की नियुक्ति नैनीताल के पोस्टमास्टर के रूप में हुई, उसी साल वह मेरी माँ श्रीमती मैरी ज़ेन कार्बेट के साथ नैनीताल आए. 25 जुलाई, 1875 को उनकी आठवीं संतान के रूप में मेरा जन्म हुआ. हम लोग 13 भाई-बहन थे…. ऊपर शेरवुड पहाड़ी की जड़ पर गर्नी हाउस देख रहे हो ना, वही है मेरा घर.’
‘आप जिम कार्बेट साहब तो नहीं हो चचा… प्रणाम! आपको तो मैं अच्छी तरह से पहचानता हूँ. मुझे तो यह भी मालूम है कि जब आपके पिताजी गुजरे, कंपनी सरकार ने आपके बड़े भाई टाम को उनकी जगह पर नैनीताल का पोस्टमास्टर नियुक्त किया था!’
‘आपने सही पहचाना, पैलाग हो थोकदारज्यू’, उसी तरह कुमाउंनी में मेरा अभिवादन किया लाल खबीस ने.
‘आप तो बहुत बढि़या कुमाउंनी बोलते हैं, कार्बेट साब’, कहाँ सीखी आपने इतनी अच्छी पहाड़ी? आज की पीढ़ी को तो अपनी बोली बोलना दूर रहा, उनकी समझ में भी नहीं आती पहाड़ी! हाँ, यह पीढ़ी आप से भी बढि़या अंग्रेज़ी बोल सकती है.’
‘ये तो बड़ी खुशी की बात है!… फिर भी अपनी मातृभाषा तो सबको आनी ही चाहिए! मैंने भी तो ये पहाड़ी बोली बाज़ार के लड़कों के साथ खेलते-कूदते, गाली देते हुए ही सीखी ठहरी: ‘हट साला, मारन भेल में द्वि सड़ैक, तब याद घरलै’ (चल हट साले, मारूंगा चूतड़ में दो बैंत, तब याद रखेगा!) लाल खबीस मुक्त हँसी हँसने लगा था.
‘मगर आप यहाँ आधी रात को फाँसी गधेरे के जंगल में क्या कर रहे हैं अकेले!’
‘मैं तो पिछले सत्तावन सालों से यहीं हूँ….’
एकाएक लाल खबीस के भारी चेहरे की बड़ी-बड़ी आँखें नम हो आईं. जैसे किसी गहरे अवसाद ने उसे घेर लिया हो! उसने कहना जारी रखा, ‘ये उन दिनों की बात है जब मैंने चंपावत के पाटी गाँव में जिंदगी का पहला आदमखोर मारा था. हिंदुस्तान की आज़ादी के साल मैं केन्या चला गया था और वहीं 1955 में मुझे दफन किया गया! उसी दिन से मेरी आत्मा इस जंगल में अटक गई है….’
‘मैं तो पिछले सत्तावन सालों से यहीं हूँ….’
एकाएक लाल खबीस के भारी चेहरे की बड़ी-बड़ी आँखें नम हो आईं. जैसे किसी गहरे अवसाद ने उसे घेर लिया हो! उसने कहना जारी रखा, ‘ये उन दिनों की बात है जब मैंने चंपावत के पाटी गाँव में जिंदगी का पहला आदमखोर मारा था. हिंदुस्तान की आज़ादी के साल मैं केन्या चला गया था और वहीं 1955 में मुझे दफन किया गया! उसी दिन से मेरी आत्मा इस जंगल में अटक गई है….’
अपनी बात जारी रखी लाल खबीस ने, ‘पता नहीं तुमको मालूम है या नहीं, 436 पहाड़ी औरतों-मर्दों को खा चुके चंपावत के नरभक्षी को जिस साल मैंने मारा, गाँव के जो लोग हाँका लगाने के लिए आए थे, उनमें एक जमन सिंह भी था. हो सकता है आपका हरीश रावत उससे मिलता-जुलता हो… नहीं, वह नहीं हो सकता जमन सिंह! वह होता तो मेरे पास जरूर आता….’
कहाँ दक्षिण अफ्रीका का शहर केन्या, जिसकी मिट्टी में दफनाई गई जिम की देह पिछले सैंतालीस सालों से चुपचाप सोई हुई थी… कहाँ नैनीताल का यह फाँसी गधेरा और अयारपाटा का गर्नी हाउस… जिसमें उसके जीवन के बेहतरीन इकहत्तर साल बीते!… बेचारा जिम! इतने सालों से वह क्यों बेचैन भटक रहा है? अपने बचपन की किस स्मृति को खोज रहा है वह!
जिम कॉर्बेट की छवि मेरे दिमाग में प्रकृति और जीव-जंतुओं से अथाह प्रेम करने वाले व्यक्ति की थी. वह शिकारी जरूर था, लेकिन केवल नरभक्षी बाघों को मारता था. उसका मानना था कि शेर और बाघ किसी शौक या स्वाद के लिए नरभक्षी नहीं बनता, जब उसके अस्तित्व के लिए कोई विकल्प नहीं बचता तभी वह आदमी पर झपटता है. मैंने सुना था कि पवलगढ़ के निर्दोष नर बाघ को मारने के बाद वह महीनों तक पश्चाताप की आग में सुलगता रहा था. ऐसे में अपने एक सेवक को लेकर मृत्यु के सत्तावन सालों के बाद उसे इतना बेचैन देखकर मेरा कौतूहल बढ़ता चला गया.
यह भी एक संयोग ही था कि हम दोनों को एक ही नाम के व्यक्ति की तलाश थी, मगर थे तो ये दो अलग-अलग व्यक्ति ही! जमन सिंह अलग व्यक्ति का नाम था और हरीश रावत अलग! हो सकता है कि उनके जीवन की कुछ बातें समान रही हों, या संयोगवश दोनों को एक ही तरह की विसंगति का सामना करना पड़ा हो, फिर भी, मुझे अपने मन के कौतूहल को तो शांत करना ही था.
अपनी जिज्ञासा मैंने कॉर्बेट साहब की आत्मा ‘लाल खबीस’ के सामने प्रकट की. उसने मेरी बातें ध्यान से सुनी. उत्तर में उसने मुझे जो कुछ बताया, वह किसी रोमांचक किस्से से कम नहीं था! इसके बाद लाल खबीस की छवि मेरे मन में एक विराट दैवी व्यक्तित्व के रूप में निर्मित हो गई! लाल खबीस की उन बातों को मैं ठीक उसी रूप में व्यक्त नहीं कर सकता, इसलिए इसे उसी के शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूँ. आदमी ऐसा भी हो सकता है, नैनीताल के लाल खबीस की यह कहानी सुनकर आप भी मेरी तरह यह कहने पर मजबूर हो जाएंगे. इसके बाद आपको भी मेरी तरह लगने लगेगा कि उत्तराखंड का नेतृत्व ऐसे ही किसी आदमी के हाथों में होना चाहिए! हरीश रावत इसके सामने कितना बौना लगता है!
लाल खबीस ने बताया:
जब मैंने पहले-पहल उस शेर के बारे में सुना, जिसे बाद में सरकारी हलकों में ‘चंपावत का नरभक्षी’ कहा गया, तब मैं ऐडी नावल्स के साथ मैलानी में शिकार कर रहा था. ऐडी को प्रांत के लोग अपने समय का बेहतरीन शिकारी और शिकार की कभी समाप्त न होने वाली कहानियों के भंडार के रूप में याद रखेंगे. इसलिए जब ऐडी ने यह खबर भिजवाई कि संसार के सर्वश्रेष्ठ शिकारी को सरकार ने चंपावत नरभक्षी को मारने के लिए नियुक्त किया है, तो यह मान लेना ठीक ही था कि इस जंतु की कारगुजारियों के अब गिने-चुने ही दिन रह गए हैं. मगर न जाने क्यों शेर मरा नहीं और जब चार साल बाद मैं नैनीताल गया तो सरकार के लिए वह तब भी बहुत बड़ा सिरदर्द बना हुआ था. यह शेरनी नेपाल के दो सौ लोगों की जान लेने के बाद वहाँ से हथियारबंद नेपालियों द्वारा खदेड़े जाने पर बनी-बनाई नरभक्षिणी के रूप में कुमाऊँ पहुँची थी और यहाँ चार वर्षों में वह दो सौ चैंतीस और व्यक्तियों को खा चुकी थी.
मेरे नैनीताल पहुँचने के थोड़े ही दिनों के बाद बर्टट्ररूड मुझसे मिले. अपनी दुखद मृत्यु के बाद हल्द्वानी में दफन बर्टट्ररूड उस समय नैनीताल में डिप्टी कमिश्नर थे और ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें सब लोगों का स्नेह और आदर प्राप्त था. इसलिए जब उन्होंने मुझे नरभक्षी द्वारा आतंकित अपने जिले के निवासियों का दुख और उसके बारे में अपनी चिंता व्यक्त की तो मैंने वचन दिया कि शेर द्वारा मारे जाने वाले अगले व्यक्ति की खबर मिलते ही मैं चंपावत के लिए चल पड़ूंगा. एक सप्ताह बाद सवेरे-सवेरे बर्टट्ररूड मुझसे मिलने आया और बताया कि उसके हरकारों ने सूचना दी है कि देवीधूरा और धूनाघाट के बीच बसे पाटी गाँव में नरभक्षी ने एक औरत को मार दिया है.
सूचना मिलते ही मैंने अपनी आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाकर कैंप का सामान ढोने के लिए छह आदमी पहले नियुक्त कर लिए थे और नाश्ता करके हम रवाना हो गए. पहले दिन सत्रह मील चलकर धारी पहुँचे. अगले दिन नाश्ता मोरनौला में किया, रात देवीधूरा में बिताई और अगले दिन साँझ होते-होते पाटी पहुँच गए. तब तक उस स्त्री को मरे पाँच दिन हो चुके थे….
गाँव के पुरुष, स्त्री और बच्चों की संख्या कुल मिलाकर लगभग पचास थी, वे बेहद डरे हुए थे और जब मैं वहाँ पहुँचा, हालाँकि सूरज छिपा नहीं था, गाँव के सभी लोग दरवाजों में ताले डाल अपने-अपने घरों में बंद हो चुके थे. चंपावत के इस भाग में सड़क कुछ मील तक पहाड़ी के दक्षिणी पाश्र्व के साथ-साथ उसके समानांतर और लगभग पचास गज तक घाटी के ऊपर होकर जाती है….
दो महीने पहले हमारे लोगों की यह बीस जनों की टोली चंपावत के बाज़ार की ओर जा रही थी और लगभग दिन-दोपहर जब हम इस सड़क पर चल रहे थे तो हम लोग घाटी के नीचे से आते आदमियों की दुख भरी चीख-पुकार सुनकर हक्के-बक्के रह गए, क्योंकि आवाज़ें निरंतर पास आती जा रही थीं!… देखते क्या हैं कि सामने एक शेर एक नग्न स्त्री को उठाए लिए जा रहा है. स्त्री के केश शेर के एक तरफ जमीन पर घिसट रहे हैं और उसके पैर दूसरी तरफ लटके हुए हैं. शेर ने उसकी कमर बीच में पकड़ रखी है. वह स्त्री छाती पीट-पीट कर कभी भगवान को तो कभी मानवों को सहायता देने के लिए पुकार रही थी….
बाद में मुझे पता लगा कि मारी गई यह स्त्री चंपावत के पास के एक गाँव की थी और शेर उसे तब उठा ले गया था जब वह जंगल में सूखी लकडि़याँ इकट्ठा करने गई थी. उसकी साथिनों ने भागकर गाँव में वापस आकर हो-हल्ला मचाया था. बचाव टोली जाने को तैयार हो ही रही थी कि बीस डरे हुए लोग गाँव में पहुँचे. इन लोगों को पता था कि मारी गई स्त्री को लेकर शेर किस तरफ गया है.
हमारे पहाड़ी लोग हिंदू हैं और मृतकों को जलाते हैं. जब उनके किसी व्यक्ति को नरभक्षी उठा ले जाता है तो उसके संबंधियों के लिए यह जरूरी होता है कि दाहकर्म के लिए उसके शरीर का कुछ-न-कुछ हिस्सा मिल जाए भले ही वह उसकी हड्डियों के कुछ टुकड़े ही क्यों न हों! उस स्त्री की दाहक्रिया भी अभी की जानी बाकी थी और जब हम चलने लगे तो उसके संबंधियों ने प्रार्थना की कि उसके शरीर का कोई-न-कोई भाग, जो भी मिल जाए, हम जरूर साथ लेते आएं!
दो-चार मिनट अपनी यह कहानी रोक कर मैं पर्वतीय प्रदेश में फैली इस अफवाह का प्रतिवाद करना चाहूंगा कि कई मौकों पर मैंने पहाड़ी स्त्री की पोशाक पहनी थी और जंगल में जाकर नरभक्षी को अपनी ओर आकर्षित किया था और उसे दरांती या कुल्हाड़ी से मारा था. पोशाक बदलने के इस मामले में मैंने इतना भर किया था कि साड़ी माँगकर कटी घास अपने शरीर पर लपेट ली या पेड़ों पर चढ़कर पत्तियाँ काटने लगा. मगर कभी भी यह चालबाजी मेरे किसी काम नहीं आई.
नीचे की ओर ढलती जाती लंबी पहाड़ी की ओर नज़र डाले, जिस पर दूर तक गाँव बसा हुआ था, खड़ा मैं लोगों से बातें कर रहा था. तभी मैंने गाँव से एक आदमी को बाहर निकलते और अपनी ओर पहाड़ी पर चढ़कर आते देखा. वह चिल्लाया, ‘जल्दी आइए साहब, नरभक्षी ने अभी-अभी एक लड़की को मार डाला है.’ जो आदमी मेरे पास आया था, वह अत्यधिक परेशान हो गए उन लोगों में से था जिनकी टाँगें और मुँह दोनों एक साथ काम नहीं कर पाते. जैसे ही उसने मुँह खोला, वह मुर्दे की तरह नीचे गिर पड़ा और जब वह दौड़ने लगा तो उसका मुँह बंद हो गया. इसलिए उसे ‘मुँह बंद रखो और रास्ता दिखाओ’ कहकर हम चुपचाप पहाड़ी पर से नीचे की तरफ भागते चले गए.
जहाँ लड़की को शेर ने मारा था उस जगह रक्तस्राव का निशान बन गया था और उसके पास ही इस चमकीले लाल स्राव से भिन्न चमकीली नीली गुरियों की टूटी माला पड़ी हुई थी जो उस लड़की ने पहले पहनी हुई थी…. शेरनी का अपनाया रास्ता साफ दिखाई पड़ रहा था. उसके एक तरफ रक्त के बड़े-बड़े धब्बे थे जिधर लड़की का सिर लटका हुआ था, दूसरी तरफ उसके पैरों के घिसटते जाने की लीक बनी हुई थी. पहाड़ी पर आधा मील ऊपर चढ़ने पर मुझे उस लड़की की साड़ी और पहाड़ी के मत्थे पर उसकी चोली पड़ी मिली. एक बार फिर शेरनी नंगी स्त्री को ले जा रही थी परंतु इस बार दयापूर्वक, इस बार उसका बोझ मृत स्त्री था.
मैं बहुत पतली जुराब, निक्कर और रबड़ के तल्ले वाले जूते पहने हुए था और चूँकि बिच्छू बूटी से बचकर जाने का कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा था इसलिए शेरनी की तरह उसमें से होकर ही मैं आगे बढ़ा जिससे मुझे बहुत तकलीफ हुई. बिच्छू बूटी के बाद रक्त की लीक बाईं तरफ मुड़ गई और सीधी बहुत खड़ी चढ़ाई वाली चट्टान पर दिखाई पड़ी जिस पर घने फर्न और रिंगाल बाँस लगे हुए थे. उससे नीचे सौ गज चलकर रक्त की लीक सँकरे और बहुत ढलवाँ जलमार्ग में पहुँच रही थी जिसके नीचे शेरनी कुछ कठिनाई से ही गई होगी जैसा कि उससे उखड़े पत्थरों और मिट्टी से दिखाई पड़ रहा था. इस जलमार्ग के किनारे-किनारे मैं पाँच या छह सौ गज तक चलता गया!…
शेरनी लड़की को सीधे इस जगह लेकर आई थी और मेरे आगमन ने उसके भोजन में बिघ्न डाल दिया था. हड्डियों के टुकड़े गहरे पगचिह्नों के चारों तरफ बिखरे हुए थे. पगचिह्नों में रंगीन जल धीरे-धीरे रिसता जा रहा था. कुंड के किनारे पर एक वस्तु पड़ी थी जिसे जलमार्ग पर नीचे पहुँचने पर देख मैं समझ नहीं पाया था परंतु अब देखा तो वह मानव की टाँग का टुकड़ा था. टाँग को देखते हुए मैं शेरनी के बारे में बिलकुल भूल गया था, एकाएक मुझे अनुभव हुआ कि मैं भारी खतरे में हूँ. जल्दी ही मैंने राइफल का कुंदा जमीन पर टिकाया, दोनों उंगलियाँ उसके घोड़ों पर रख दीं और जैसे ही अपना सिर ऊपर उठाया तो अपने सामने के पंद्रह फुट ऊँचे तट पर कुछ मिट्टी ढलवाँ पाश्र्व से नीचे की ओर लुढ़कती और जलकुंड में आकर गिरती देखी. अपनी राइफल ऊपर उठा देने की तत्काल क्रिया ने संभवतः मेरी जान बचा दी थी और शेरनी ने छलांग लगाना रोककर या बचने के लिए मुड़ने पर तट के शीर्ष भाग की कुछ मिट्टी उखाड़ दी थी.
तट बहुत ढलवाँ था और उस पर सरक-सरक कर नहीं चढ़ा जा सकता था और ऊपर पहुँचने का एकमात्र तरीका भागकर चढ़ना था. थोड़ी दूर जलमार्ग पर पहुँच कर मैं नीचे की तरफ दौड़ा, बीच में कुंड पड़ा और दूसरी तरफ काफी दूरी तक चला गया और एक झाड़ी पकड़ कर दूसरे किनारे पर चढ़ गया. स्ट्रोबायलैंथस की क्यारी ने, जिसकी मुड़ी डंडियाँ धीरे-धीरे फिर से सीधी खड़ी हो रही थीं, दिखा दिया कि कहाँ से और कैसे कुछ देर पहले शेरनी वहाँ से होकर गुजरी थी और उससे कुछ दूर आगे जाकर एक बढ़ी हुई नीचे लटकती चट्टान थी जहाँ उसने अपना मारा हुआ शिकार उस समय रखा था जब वह मुझ पर एक नज़र डालने आई थी….
कटी हुई टांग किसी हिंदू की रही होगी और उसका कुछ भाग अंतिम संस्कार करने भर के लिए चाहिएगा, इसलिए जलकुंड के पास से गुजरते हुए मैंने वहाँ एक गड्ढा खोदा और वह टांग उसमें गाड़ दी, जहाँ वह शेरनी से सुरक्षित बची रहेगी और जरूरत पड़ने पर खोदकर निकाली जा सकेगी….
जब मैं चट्टान पर पहुँचा और शेरनी पर अपना पैर रखा, यह आशा करते हुए कि वह सचमुच मर चुकी थी क्योंकि मेरे पास उस पर पत्थर फैंक-फैंक कर उसके मरने की सामान्य जाँच करने का समय नहीं था, लोग-बाग जंगल से बाहर निकल आए और बंदूकें, कुल्हाडि़याँ, जंग लगी तलवारें और भाले चमकाते खुले में दौड़ते हुए वहाँ पहुँच गए.
रात्रि भोजन के बाद मैं तहसीलदार के प्रांगण में खड़ा हुआ था कि मैंने देखा चीड़ की मशालें लिए एक लंबा जुलूस सामने वाली पहाड़ी के पाश्र्व से चक्करदार रास्ते से होता हुआ नीचे आ रहा है. तभी लोगों के एक समूह द्वारा गाया जा रहा पहाड़ी गीत रात की शांत हवा में उभर कर ऊपर आया.
इतने अधिक लोगों की भीड़-भाड़ में जो उसे घेरे हुए थी, जानवर की खाल उतरवाना मुश्किल था इसलिए काम को कम करने के लिए मैंने उसके धड़ से सिर और पंजे कटवा दिए और उसकी खाल को जुड़ा रहने दिया ताकि उस पर बाद में काम किया जा सके. लाश पर एक पुलिस का सिपाही तैनात कर दिया और अगले दिन जब आसपास के देहात के सब लोग वहाँ इकट्ठा हुए तो शेरनी का धड़, टांगें और पूँछ भी छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर बँटवा दिए. मांस और हड्डी के इन टुकड़ों की जरूरत उन ताबीजों में पड़ती है जो पहाड़ी बच्चों के गले में पहनाए जाते हैं और अन्य शक्तिशाली जादुई वस्तुओं के साथ जिनमें शेर को मिला देने पर माना जाता है कि उनसे पहनने वालों को जंगली जानवरों से आक्रमण के प्रति सुरक्षा मिलने के साथ साहस भी प्राप्त होता है….
उस लड़की की उंगलियाँ, जिन्हें शेरनी ने पूरी-की-पूरी निगल लिया था, स्पिरिट में रखकर तहसीलदार ने मुझे भिजवाईं जिन्हें मैंने नंदादेवी मंदिर के पास नैनीताल झील में गड़वा दिया. सूर्योदय होते ही अपने आदमियों को पीछे छोड़ और शेरनी की खाल अपने घोड़े की जीन में बाँध मैं उनसे पहले चल पड़ा ताकि देवीधूरा में खाल साफ कराने के लिए कुछ घंटे का समय दे सकूँ जहाँ जाकर मुझे अपनी रात बिताने की इच्छा थी.
पाटी गाँव में उस झोपड़ी के पास से होकर गुजरते समय मेरे मन में आया कि उस गूंगी स्त्री को यह जानकर शायद कुछ संतोष मिलेगा कि उसकी बहिन के मारे जाने का बदला लिया जा चुका है, मैंने अपना घोड़ा वहीं चरने छोड़कर पहाड़ी चढ़कर मैं उसकी झोपड़ी में पहुँचा. झटका और प्रति-झटका देने के बारे में कोई सिद्धांत बघारने के फेर में मैं नहीं पड़ूंगा क्योंकि उनके बारे में मैं कुछ नहीं जानता. मैं तो इतना-भर जानता हूँ कि यह स्त्री जिसे बारह महीने से गूंगी हो गई बताया जा रहा था और जिसने चार दिन पहले किसी भी प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास नहीं किया था अब झोंपड़ी के पीछे की तरफ और आगे की तरफ सड़क पर भाग-भाग कर अपने पति और गाँव के लोगों को जल्दी-जल्दी आकर यह देखने के लिए बुला रही थी कि देखो, साहब क्या लेकर आए हैं. वाणी के एकाएक लौट आने से बच्चे अचरज में पड़ गए और अपनी माँ के चेहरे से अपनी आँखें नहीं हटा सके.
कई महीनों के बाद सर जान हीवट, लेफ्टि. गवर्नर संयुक्त प्रांत ने नैनीताल में दरबार लगाकर चंपावत के तहसीलदार को भेंट में एक बंदूक और उस आदमी (जमन सिंह) को जो मेरे साथ उस समय गया था, जब मैं लड़की की खोज कर रहा था, एक शिकारी चाकू उस सहायता के लिए प्रदान किया जो उन्होंने मेरी की थी. दोनों हथियारों पर उपयुक्त ढंग से उत्कीर्णन किया गया था और ये संबंधित परिवारों के उत्तराधिकारियों को आगे प्राप्त होते चले जाने वाले थे.
(साभार: कुमाऊँ के नरभक्षी: जिम कार्बेट)
लाल खबीस ने ही बताया कि 1947 में आज़ादी मिलने के बाद जमन सिंह के उत्तराधिकारी को शिकारी चाकू नहीं मिला. (भारतीय इतिहास में जमन सिंह का उल्लेख नदारत है, जिसे मैं हरीश रावत समझ रहा था!) जमन का उत्तराधिकारी उसका बेटा, अपने इनाम को हासिल करने के लिए कहाँ-कहाँ तो नहीं भटका, मगर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी. जिम केन्या चले गए थे, गर्नी हाउस को किन्हीं मिसेज श्रीवास्तव ने खरीद लिया था, और इधर मृत्यु के बाद जमन सिंह की बेचैन आत्मा भी यहीं अयारपाटा के फाँसी गधेरे में भटकती रही ताकि वह अपनी व्यथा अपने स्वामी लाल खबीस से कह सके. अंततः एक दिन लाल खबीस को जमन सिंह के उत्तराधिकारी की समस्या का पता चल ही गया. दोनों ने एक-दूसरे की व्यथा आपस में बाँटी मगर दोनों की समस्या का समाधान नहीं हो सका! दोनों ही बदहवास-से फाँसी गधेरे के जंगल में भटक रहे हैं. आज हालत यह है कि नैनीताल का कोई आदमी न जिम को पहचानता, न जमन सिंह को और न उसके उत्तराधिकारी को (जिसे मैं हरीश रावत समझ बैठा था)! लाल खबीस को पहचानने का तो खैर सवाल ही नहीं उठता. नैनीताल में उत्तराखंड राज्य का उच्च न्यायालय स्थापित हो चुका है, क्या जमन सिंह के उत्तराधिकारी को अपने इस राज्य में न्याय मिल पाएगा?
जिज्ञासा का समाधान और इस जटिल कहानी का समापन भी अंत में लाल खबीस ने ही किया. लाल खबीस यानी जिम कार्बेट! एक दिन लाल खबीस शेरवुड पहाड़ी के नीचे बेचैन साँसें लेते गर्नी हाउस के लंबे बरामदे पर खड़ा सामने दायीं ओर कुमाऊँ मंडल के पुलिस उप-महानिरीक्षक के आवास की ओर चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था, ‘जिस चंपावत की नरभक्षी बाघिन के आतंक से मुक्ति दिलाकर मैंने सौ साल पहले एक गूँगी औरत की आवाज़ लौटाई थी, वहाँ आज न जंगल हैं और न जंगल में शहंशाह की तरह घूमने वाले शेर-बाघ. उस घटना को तो आज सौ साल बीत गए हैं डी. आई. जी. साहब, तुम्हारे आज़ाद उत्तराखंड का हाल यह है कि पिछले दस सालों में 124 गुलदारों में से सिर्फ 66 बचे रह गए हैं. 2012 में आरक्षित वन क्षेत्र घटकर सिर्फ 65,980.12 हैक्टेयर रह गया है. और यह उस इलाके की हालत है, जिसका नाम हमारे पुरखे पहाडि़यों ने ‘गुमदेश’ रखा था, यानी अस्पृश्य क्षेत्र; जहाँ मैं पतले रबर के तले वाले जूते पहन कर सैकड़ों मील की ऊबड़-खाबड़, ऊँची-नीची पहाडि़यों में नरभक्षियों के पीछे-पीछे दौड़ा था. अपने जीवन का पहला नरभक्षी मारा था…. लानत है तुम्हारे डिजास्टर मैनेजमैंट और अरबों-खरबों की ईको-फ्रैंडली योजनाओं पर!… राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण पर, ‘कंज़र्वेशन हिमालयाज’ पर, ‘भारतीय वन सेवा’ पर, वाशिंगटन डी. सी. की यूएस फिश एंड वाइल्डलाइफ सर्विस पर और मेरे नाम पर निर्मित अभयारण्य पर, जहाँ न अभय रहा और न अरण्य!’
इसके बाद जिम कार्बेट शांत भाव से अपनी किताब ‘रुद्रप्रयाग का आदमखोर बाघ’ का अंमित अध्याय ‘उपसंहार’ पढ़ने लगे:
जिन घटनाओं का मैंने इस किताब में जिक्र किया है, वे वर्ष 1925 और 1926 ई. की हैं. सोलह साल बाद सन् 1942 में मैं मेरठ में, द्वितीय विश्वयुद्ध से संबंधित कार्य कर रहा था और कर्नल फ्लाय ने मुझे और मेरी बहन को युद्ध के घायलों के मनोरंजन में सहयोग के लिए एक गार्डन पार्टी में आमंत्रित किया था. जब हम पार्टी में पहुँचे, वहाँ भारत के हर क्षेत्र के करीब पचास-साठ लोग टैनिस कोर्ट के चारों ओर बैठे जायकेदार चाय लगभग पी चुके थे और सिगरेट का दौर चलने वाला था. कोर्ट की दूसरी तरफ जाने के लिए मेरी बहन और मैं एक गोल चक्कर काटते हुए आगे बढ़े.
ये लोग मध्यपूर्व की लड़ाई से आए थे और कुछ दिन के विश्राम के बाद कुछ को छुट्टी पर और कुछ को डिस्चार्ज पर घर भेजा जाना था.
ग्रामोफोन पर श्रीमती फ्लाय द्वारा उपलब्ध कराए गए भारतीय रिकाॅर्ड बज रहे थे और मेरी बहन और मुझसे पार्टी के अंत तक रुके रहने का आग्रह किया गया था. पार्टी खत्म होने में करीब दो घंटे का समय बाकी था इसलिए घायलों से मिलने के लिए हमारे पास पर्याप्त समय था.
मैं गोल घेरे के अभी आधे में ही पहुँचा था कि एक लड़के से मिलना हुआ जो नीची कुर्सी पर बैठा था. वह बुरी तरह जख्मी था और उसकी कुर्सी के पास जमीन पर दो बैसाखियाँ रखी थीं. मैं उसके पास पहुँचा ही था कि वह दर्द झेलता हुआ कुर्सी से खिसका और मेरे पाँव पर अपना सिर रखने का प्रयास करने लगा. वह बहुत ही दुबला था क्योंकि वह कई महीने अस्पताल में गुजार चुका था. जब मैंने उसे थामा और कुर्सी पर बैठा दिया तो उसने कहा, मैं आपकी बहनजी से बात कर रहा था और जब मैंने उन्हें बताया कि मैं गढ़वाली हूँ तो उन्होंने पूछा कि मैं कौन हूँ और गढ़वाल के किस क्षेत्र का हूँ. जब आपने आदमखोर को मारा तब मैं छोटा था, हमारा गाँव रुद्रप्रयाग से दूर है इसलिए मैं वहाँ नहीं आ सका. मेरे पिता भी इतने तगड़े नहीं थे कि मुझे उठाकर ला पाते इसलिए मैं घर पर ही रहा. जब मेरे पिता घर लौटे तो उन्होंने बताया कि उन्होंने आदमखोर को देखा और उन साहब को भी जिन्होंने आदमखोर को मारा. जो मिठाई उस दिन बाँटी गई थी, उसमें से वे अपने हिस्से की थोड़ी मिठाई मेरे लिए भी लाए थे. उन्होंने उस दिन की भीड़ के बारे में भी बताया था. और, अब साहब, मैं खुशी-खुशी घर जाऊंगा क्योंकि मैं अपने बाबू को बता पाऊंगा कि मैंने खुद आपको देखा है. और, अगर मुझे कोई ले जाने वाला मिल गया तो मैं रुद्रप्रयाग के उस मेले में भी जाऊंगा जो आदमखोर की मौत की याद में मनाया जाता है. मैं मेले में जिससे भी मिलूंगा, उसे बताऊंगा कि मैंने आपको देखा है, आपसे बात की है.
जवानी की दहलीज पर ही बुरी तरह विकलांग और युद्ध से टूटे शरीर को लेकर लौटे उस योद्धा के पास अपने शौर्यपूर्ण करनामों को सुनाने का मोह नहीं था. उसे अपने पिता से केवल यह कहने की उत्सुकता थी कि उसने एक ऐसे आदमी को देखा है जिसे मात्र इसलिए याद किया जा सकता है कि उसने एक गोली सही निशाने पर दागी थी.
गढ़वाल का एक ठेठ गढ़वाली बेटा, सरल व साहसी, पहाड़ और उस महान् भारत का पुत्र था जिसकी संतानों को वही जान सकते हैं जिन्हें उनके बीच रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो. यही इस माटी के वे विशाल-हृदय सपूत हैं, जिनकी कोई भी जाति या धर्म हो, विभिन्न वर्गों को जोड़कर एकजुट करेंगे और भारत को महान् राष्ट्र बनाएंगे.’’ (साभार ‘रुद्रप्रयाग का आदमखोर बाघ’; अनुवाद: प्रकाश थपलियाल)
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(2012 में प्रकाशित बटरोही के चर्चित उपन्यास ‘गर्भगृह में नैनीताल’ का अंश)
बटरोही : batrohi@gmail.com
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