उम्मीद (कविता संग्रह)
साहित्य भंडार , इलाहबाद.
प्रथम संस्करण 2015
अंगूठा भर हैं नन्हे मियाँ
देवेन्द्र आर्य
एक कहावत है- ’उम्मीद से’, पेट से होने (गर्भवती) होने के अर्थ में. थोड़ा सा अर्थ-विस्तार या अर्थान्तरण करें तो प्रदीप मिश्र का सद्यःप्रकाशित कविता संग्रह- ’उम्मीद’ न केवल उम्मीद से है बल्कि कविता के गंभीर पाठकों को हिन्दी कविता की युवा धारा के प्रति उम्मीद से भरती भी है. यह बात संज्ञान में लेने लायक है की इस समय लिखी जा रही महत्वपूर्ण कवितायेँ अधिकांशतः उन कवियों की है जो साहित्य के विधिवत विद्यार्थी नहीं रहे हैं, न ही प्राध्यापक हैं न पत्रकार. प्रदीप मिश्र पेशे से वैज्ञानिक हैं. शौकिया हिन्दी और ज्योतिर्विज्ञान में स्नात्तकोत्तर भी. लिहाज़ा वे अच्छे दिनों की तारीखें भी ‘बुरे दिनों के कैलेण्डर में‘ ढूँढ़ लेते हैं. उनकी ये पंक्तियाँ संभवतः तब की हैं जब अच्छे दिनों का मुहावरा प्रचलन में नहीं आया था. कवि यही करता है, नास्तिक के ह्रदय में ढूंढ लेता है आस्था और नमक में मिठास. संग्रह के शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियां देखें –
“आदमियों से ज़्यादा लाठियां हैं
मुद्दों से ज़्यादे घोटाले
जीवन से ज़्यादा मृत्यु के उद्घोष
फिर भी वोट डाल रहा है वह
उसे उम्मीद है
आएंगे अच्छे दिन. ”
जब अच्छे दिन बिकाऊ मॉल की तरह पाट दिए जायें बाजार में और मतदाताओं पर लाद दिए जाएँ, तब उम्मीद के ऊपर नाउम्मीदी का पर्दा पड़ जाता है. इस अनकहे को आप सुन सकें तो सुन लें, कवि तो सुनता भी है और लिखता भी –
“लिखता हूँ प्रेम
और ख़त्म हो जाती है स्याही. ”
यह स्याही का ख़त्म होना एक रूपक गढ़ता है की आगे और कुछ भी हो लेकिन उसे घृणा नहीं लिखा जा सकता है. प्रेम का होना प्रदीप के लिए प्रेम भले न हो मगर प्रेम का न होना घृणा का होना नहीं है –
“सफल प्रेमी के पास
सब कुछ था
प्रेम नहीं. ”
प्रदीप प्रकृति से खूब अच्छी तरह से जुड़ते हैं एक तरफ तो प्रकृति के रंग उसके साथ होली खेलते हैं, दूसरी तरफ़ वे लिखते हैं –
“वह दुपट्टे की तरह लपेट रही है
बरसात की बूंदों को अपने बदन पर
और पिघल कर बह जाना चाहती है
धरती के गर्भ में . ”
इस संग्रह का ब्लर्ब राजेश जोशी और निरंजन श्रोत्रिय ने लिखा है और भूमिका अजय तिवारी की है. परन्तु खुद कवि की कोई प्रस्तावना गद्य में नहीं है. ऐसा क्यों ? ब्लर्ब तो फैशन है, परन्तु तीन-तीन बैसाखियाँ. प्रदीप को यह विश्वास होना चाहिए की वे एक समर्थ कवि के रूप में विकसित हो चुके हैं और अब कविता को कुछ दे पाने की स्थिति में हैं. ऐसे में आशीर्वचन गड़बड़ी भी पैदा कर सकते हैं –
“प्रदीप मिश्र मूलतः अपनी ईमानदार संवेदनाओं के जरिये अपनी कविता पाना चाहते हैं, वे कविता गढ़ना नहीं बुनना चाहते हैं ” (निरंजन श्रोत्रिय : समावर्तन, अगस्त 2013 . ब्लर्ब से उद्धृत ).
कम ही संग्रह ऐसे होते हैं जिनकी एक चौथाई कविताएँ आपको प्रभावित कर पाएं. प्रदीप की 60 कविताओं के इस संग्रह की 20 कविताएँ (मुकम्मल कविताएँ, कुछ पंक्तियाँ नहीं) मुझे पसंद आईं. इसमें एक कविता – ’इसे धमकी की तरह पढ़ा जाय‘ खासतौर से अपने नए शिल्प के कारण आकर्षित करती है.
“मैं संतरी हूँ
मुलजिम हूँ
अर्दली हूँ
मजदूर हूँ
नौकर हूँ
सिपाही हूँ
सैनिक हूँ
नागरिक हूँ
मैं कौन हूँ ………..
मैं लस्त हूँ
पस्त हूँ
त्रस्त हूँ
अभ्यस्त हूँ
मैं कौन हूँ………..
ठहरो बताता हूँ
मैं कौन हूँ
मैं विवेक हूँ
उम्मीद हूँ
अंजोर हूँ
हुंकार हूँ. ……
इसे धमकी की तरह पढ़ा जाय
की सब कुछ हूँ मैं.”
प्रदीप का कवि विचार ही नहीं, विचारधारा से जुड़ा कवि है. वह परंपरा और आधुनिकता के अपने अन्तर्द्वन्दों को छिपाता नहीं. ‘आओ वक्रतुंड’ कविता में वह गणेश वंदना करता है, परन्तु कमाई बढ़ाने के लिए नहीं, वैमनस्यता, अपराध, शोषण मिटाने के लिए उनका आह्वाहन करता है. अंत में कविता व्यंग्य करती है –
“यह मेरी अनुवांशिक कमजोरी है
इसलिए करता रहता हूँ तुम्हारी प्रार्थना
प्रार्थना तो मोहल्ले के गुंडे से भी करता हूँ
अन्यथा घर-बदर हो जाऊंगा ………
आओ वक्रतुंड महाकाय, कृपा करो. ”
प्रदीप हिन्दी की प्रगतिशील काव्य-धारा से खुद को जोड़ते हैं और अपने अग्रज कविओं पर आभार स्वरुप कविताएं लिखते हैं. इस संग्रह में नागार्जुन, चंद्रकांत देवताले, चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन के ऊपर कविताएँ हैं. वे महत्वपूर्ण घटनाओं पर भी गहरी संवेदनात्मक कविताएँ लिखते रहे हैं. उदाहरण स्वरुप जल आप्लावित मध्यप्रदेश के हरसूद गांव पर उनकी पाँच कविताएँ इस संग्रह में हैं. गुजरात कांड पर भी दो कविताएँ हैं. एक कविता है- ’अंगूठा भर हैं नन्हे मियाँ’ किस्सा कोताह यह कि वे एक बड़े फलक के युवा कवि हैं. अपने युवतर काल में उन्होंने ‘भोर सृजन संवाद’ नमक पत्रिका भी निकाली. एक वैज्ञानिक उपन्यास ‘अंतरिक्ष नगर’भी लिखा. उनका एक बाल उपन्यास ’मुट्ठी में किस्मत’ भी प्रकाशित है और एक कविता संग्रह ‘फिर कभी’ भी. ये सूचनाएँ इस बात की ताईद करती हैं कि उनकी सोच और सृजन का फलक काफ़ी बड़ा है प्रदीप मिश्र साहित्य को ले कर बहुत हड़बड़ी में भी नहीं दिखते. ऐसे में उनसे काफ़ी उम्मीदें हैं. 128 पृष्ठों की इस किताब का मुद्रण-प्रकाशन सुरुचिपूर्ण है और मूल्य (पेपरबैक 50 रूपए) भी वाजिब है.
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देवेन्द्र आर्य
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देवेन्द्र आर्य
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गोरखपुर –273006