सिनेमा आधुनिक कला माध्यम है. इस माध्यम में तरह-तरह के प्रयोग होते रहे हैं. तकनीकी मदद से कल्पनाशीलता को मूर्त करने में ‘चल-चित्र’ दीगर कला माध्यमों से बहुत आगे निकल गया है. हिंदी फिल्मों को भी दृष्टिसम्पन्न और कल्पनाप्रवण निर्देशक मिलते रहे हैं. इनमें नवीनतम हैं – इम्तियाज़ अली.
अगर फिल्मों से आप केवल मनोरंजन लेना चाहते हैं तो फ़िल्म –‘तमाशा’ आपके लिए नहीं है पर एक कला माध्यम के रूप में अगर आप फ़िल्म देखना चाहते हैं तो यह फ़िल्म आपको निराश नहीं करेगी. सारंग उपाध्याय फिल्मों पर क्रिएटिव ढंग से लिखते हैं. यह समीक्षा रुचिकर है और उत्सुकता पैदा करती है.
ये ‘तमाशा’ है, आपको देखना ही होगा, पहले पर्दे पर बाद में भीतर..
सारंग उपाध्याय
बहरहाल, एक दूसरे के वजूद की खुमारी में डूबने जा रहे दो जवां दिल सात दिनों तक बिना किसी संपर्क के रहते हैं और इस बात को जानकर रहते हैं कि वे फिर कभी नहीं मिलेंगे. ये बड़ा ही खतरे वाला काम है. वैसे खतरे के बीच निर्देशन का सौंदर्य तो इम्तियाज ने एक दूसरे से दैहिक स्पर्श के आकर्षण के दृश्य में रचा है. जब उंगलियों से हाथ और हाथ से आलिंगन करते इस प्रेमी जोड़े के भीतर कौतुहूल के फूल खिलते हैं. लेकिन लड़के के अनुशासन से दबे मन से निकली संस्कारों की जहरीली हवा में मुरझा जाते हैं.
जिंदगी मन के भीतर कहानियों का अंकुरण है. जिंदगी गुजरती बाहर है, लेकिन कहानियां घटती भीतर हैं. यात्राएं कहानियां बुनती हैं और किरदार चुनती हैं. यात्राएं चलती बाहर हैं, और किरदार पहुंचते भीतर हैं. मन के जंगल में किरदारों के पेड उगते हैं और आत्मा को ढंक लेते हैं. घटनाएं किस्सा नहीं होती, तमाशा होती हैं, और तमाशे कहानियां नहीं होते, बल्कि किरदारों की आवाजाही होते हैं. एक आदमी वह नहीं होता, जो दिखाई देता है बल्कि वह होता है, जिसे लोग देखना चाहते हैं. लोग दूसरों के हिसाब से दिखते हैं इसलिए ‘तमाशा’ हो जाते हैं. निर्देशक इम्तियाज अली फिल्म दिखाना चाहते हैं जबकि लोग ‘तमाशा’ देखना चाहते हैं.
इम्तियाज अली की फिल्में उनकी भीतर की बेचैनियों का अक्स है. वे विराट से शून्य में पहुंचने की यात्रा रचते हैं. उनकी आंखों से कैमरा उनके भीतर के किरदारों का चित्रण करता है. वे दुनिया घूमने के जुनून और इश्क के बीच जंग रचते हैं, उनके किरदार दौलत को मुठ्ठी से रेत की तरह छोड़ते हैं, और शौहरत को अपने पीछे भगाते हैं. इम्तियाज मुफलिसी और तंग हालातों में रहनुमाई का चमत्कार खड़ा करते हैं, दौलत के नशे में मशीन बनती दुनिया को जिंदगी का तमाशा दिखाकर उसकी आत्मा को जगाते हैं.
बहरहाल, फिल्म समीक्षाएं राय बनाती हैं, कुछ समीक्षाएं शब्दों की प्यासी होती हैं और फिल्मों को हरा करती हैं इम्तियाज की तमाशा को न शब्दों की प्यास है और न ही फिल्म में सूखा पड़ा है. ये फिल्म सुंदर दृश्यों के संयोजन से कहानी बुनती है और दर्शकों से बातें करती हैं. हां जिनकी तबीयत हरी नहीं है और मन खाली रहता है, उन्हें तमाशा देखना चाहिए. केवल इस बात को जानने के लिए कि क्या वे तमाशा बन गए हैं या बना रहे हैं?
फिल्म बेहतरीन दृश्यों का कोलाज है. ये इम्तियाज ही हैं, जो ये बता सकते हैं कि शिमला की सुकून देने वाली खुली वादियों का हर बचपन आजाद नहीं होता है, बल्कि वहां भी दूसरों की इच्छाओं और महत्वकांक्षाओं की घुटन बालमन पर काली परछाई की तरह पड़ती रहती है, और एक दिन बचपन और जवानी दोनों को निगल जाती है. इन वादियों में बचपन को कहानियां दादी और नानी नहीं सुनाती, बल्कि वो आधे घंटे के हिसाब गली के नुक्कड़ पर मिलती हैं. कुदरत के बीच बने घरों में भी बाजार का अजगर दिलों के भीतर बैठा रहता है और पैसे, मुनाफे व लालच की सांस छोड़ता रहता है. सबसे ज्यादा घुटन ऊंचाइयों पर ही होती है.
फिल्म की शुरुआत में यश सहगल जैसे बच्चों का चेहरा आपको ब्लैक एंड व्हाइट बैकग्राउंड और रामलीला के रंग–बिरंगे किरदारों के बीच बेहद सुंदर दिखाई देगा. प्यूष मिश्रा के संवाद और उनकी अदायगी यह बताने के लिए पर्याप्त है कि वे किस स्तर का अभिनय करते हैं. पहले दृश्य के भीतर संयुक्ता को देखन ना भूलें. ऐसा बादलों की सुंदर छटाओं की तरह का किरदार इम्तियाज ही रच सकते हैं. आपका पता नहीं, लेकिन संयुक्ता की चाल, उसकी आंखें और नन्हे कलाकार यश के मुंह से दोबारा उसका नाम सुनना मैं ता उम्र नहीं भूल पाऊंगा. संयुक्ता तुम एक कविता हो, जिसे सुना और पढ़ा नहीं जाता बल्कि केवल देखा और महसूस किया जाता है.
फ्रांस के कोर्सिका के अद्भुत प्राकृतिक दृश्य और समंदर किनारे सटी गलियों में मद्धम गति से पार्श्व में बजता संगीत आपके दिल की लय को दुरुस्त रखने वाले स्वर हैं. फिल्म देखते हुए इसे महसूस किया जा सकता है. आपकी मुलाकात यहीं से दीपिका पादुकोणे और रणबीर कपूर से होगी. और एक कहानी शुरू होगी, इंटरवल तक आपको अजनबी बनाए रखेगी. हां, सिनेमा को महज मनोरजंन समझने वाले दर्शकों की ऊब के लिए इम्तियाज को कतई माफी मांगने की जरूरत नहीं है. ये फिल्म की एक गति है, इसके साथ आपको कदमताल मिलाना होगा.
संपर्क और सूचनाएं अस्तित्व की आश्वस्ति का वाहक होती हैं. संपर्क में होना दरअसल आश्वस्त होना होता है. हर तरह से, हर आयाम से. प्रेमी और प्रेयसी के भीतर बिछड़ने की आशंकाएं मन के भीतर संपर्कों का नया संसार रचती हैं. कितना रोचक है स्त्री और पुरुष के बीच अपने नाम, पहचान और परिचय को जानबूझकर छिपाकर प्रेम में पड़ जाना और उससे भी अजीब है प्रेम की संभावनाओं के बीच बिछड़कर कभी न मिलने की आशंकाओं के बीच प्रेम का गहरा होता जाना.
यकीनन कहानी यहीं से शुरू होती है, जब वेद (रणबीर कपूर) और तारा (दीपिका पादुकोणे) वॉट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, इंटरनेट और मोबाइल, सहित सूचनाओं के समंदर में डूबी दुनिया के बीच एक ऐसे लड़के और लड़की के रूप में मिलते हैं, जो अजनबी ही बने रहना चाहते हैं, और अजनबी ही बिछड़ जाते हैं. और मिलते वैसे ही हैं, जैसे बिछड़ते है, एकदम अजनबी की तरह. अमूमन ऐसा होता नहीं है कि प्रेम की संभावनाओं के बीच दो अजनबी एक दूसरे से झूठ बोलने का वादा करें. अल्हड़, उन्मुक्त, बेफिक्र और जिंदगी के आवारापन में डूबे इन दोनों अजनबियों की मस्ती फिल्म मे बांधे रखती है.
बहरहाल, एक दूसरे के वजूद की खुमारी में डूबने जा रहे दो जवां दिल सात दिनों तक बिना किसी संपर्क के रहते हैं और इस बात को जानकर रहते हैं कि वे फिर कभी नहीं मिलेंगे. ये बड़ा ही खतरे वाला काम है. वैसे खतरे के बीच निर्देशन का सौंदर्य तो इम्तियाज ने एक दूसरे से दैहिक स्पर्श के आकर्षण के दृश्य में रचा है. जब उंगलियों से हाथ और हाथ से आलिंगन करते इस प्रेमी जोड़े के भीतर कौतुहूल के फूल खिलते हैं. लेकिन लड़के के अनुशासन से दबे मन से निकली संस्कारों की जहरीली हवा में मुरझा जाते हैं.
इस दृश्य में रणबीर, यानी की वेद के किरदार को ठीक से फिल्म के अंत में जाकर समझ सकते हैं कि आखिर स्त्री देह की कल–कल करती नदी में लड़का स्वाभाविक रूप से खुदको डूबने से क्यों रोकता है. वैसे अजनबी बनकर बिछड़ने के खतरे को तारा के पासपोर्ट आने का दृश्य और वेद से आखिरी बार मिलने के दृश्य में महसूस किया जा सकता है. इम्तियाज आपको यहां से फिल्म के मध्य भाग में प्रवेश कराते हैं, जो कोलकाता से दिल्ली तक पहुंचता है.
फ्रांस से अजनबी की तरह दोनों का लौटना और उस पूरे समय को एक बेहद रंगीले गाने में खत्म कर देना कमाल है. सिनेमेटोग्राफर रवि वर्मन का हुनर देखते ही बनता है. कोर्सिका के सुंदर, खुले और प्राकृतिक दृश्यों के बीच भंगड़ा करते और मौज में गाते तीन सरदारों के चेहरे पर ही कैमरे को फोकस करना उनकी रचनात्मकता का परिचय है. इम्तियाज गजब के निर्देशक हैं, वे ये जानते हैं कि कहानी को किस अंदाज में आगे बढ़ाना चाहिए. आरती बजाज का संपादन कमाल है, शुरू से अंत तक दृश्यों की एक बेहतरीन श्रंखला को मानों उन्होंने एक माला में पिरो दिया है. फिल्म में फ्लैश बैक का कमाल प्रयोग किया गया है. फिर कहूंगा ये एक निर्देशक की अनूठी क्षमता है कि वह क्रिएटीविटी के पुराने तरीके से कैसे नये दृश्य रचता है.
वेद और तारा के भारत आने के बाद की फिल्म की कहानी किसी भी समीक्षक को किसी भी सूरत में बतानी नहीं चाहिए. क्योंकि इसके बाद की कहानी आपकी जीवन यात्रा के बीच शामिल हुए किरदारों की है, जो आपके हमारे और तकरीबन सभी के जीवन में एक तमाशा रचते हैं. ये ऐसे किरदार हैं, जो हम सबके भीतर हैं, और ता–उम्र हमारी आत्मा को छिपाकर खुद ही जिंदगी जीते हैं और हमारी आत्मा का तमाशा बनाते हैं. फिर तमाशे न लिखे जाते हैं, न सुनाए जाते हैं, वह बस देखे जाते हैं. लिहाजा फिर दोहरा रहा हूं, इस फिल्म को आप एक बार देख आएं. हां एक संकेत यही है, दो अजनबी जब संयोगवश मिलते हैं और पहली बार अपना परिचय देते हैं, तो वो नहीं होते, जिस अजनबियत के साथ उन्होंने एक दूसरे को छोड़ा था. वेद वह नहीं है, जिस रूप में तारा उससे मिली थी. वह बहती नदी से जानवरों की तरह मुंह लगाकर पानी पीने वाला किरदार नहीं है, बल्कि इस बाजार की सारी तरकीबों में डूबकर केवल बिस्लरी की बॉटल प्यास बुझाने वाला एक प्रॉडक्ट मैनेजर है.
दरअसल, हर आदमी एक तमाशा है क्योंकि वह जो दिखाई दे रहा है, वह दूसरों के कहे अनुसार है, दूसरों के हिसाब से है. हिसाब का दबाव पैसे का भी है, जहां रोजी–रोटी और नोन–तेल–लकड़ी की चिंता में जाने कितने व्यक्तित्व, प्रतिभाएं और जिंदगियां झुलसकर रह गए. जबकि जो झुलसने से बच गए वे इस बाजार में एक उत्पाद बनकर रह गए और मंडी में बिकने व खरीदने के चक्र में भटक रहे हैं. इसमें मैं विशेष रूप से शामिल हूं, आपका पता नहीं?
दीपिका पादुकोणे बॉलीवुड अभिनेत्रियों के अप्रतिम सौंदर्य का प्रतिनिधि चेहरा है. जितनी खूबसूरत वे दिखती हैं, उससे कई गुणा बेहतर उनके अभिनय का सौंदर्य है. यह फिल्म दीपिका के अभिनय और सुंदरता के लिए देखनी चाहिए. रणबीर कपूर को पसंद इसलिए किया जा सकता है कि उनकी अभिनय की विविधता आपको उस किरदार से मिलाएगी, जिसके लिए आप फिल्म देखने आए हैं. यह बात उनकी हर फिल्म के लिए ठीक बैठती है.
एआर रहमान जाने–माने संगीतकार हैं, उनके संगीत को आप थियेटर में सुन सकते हैं. उनकी तुलना फिलहाल नहीं.
इम्तियाज के बारे में ऊपर कह चुका हूं. वे एक दर्शन जी रहे हैं और उसी को अपनी फिल्मों में प्रेम के रहस्यवाद के जरिये एक कहानी के रूप में पर्दे पर उतारते हैं. उनकी कहानियां जितनी नई होती हैं, उससे भी कई गुणा बेहतर उनका ट्रीटमेंट. वे एक बेजोड़ निर्देशक हैं.
यूटीवी मोशन पिक्चर्स और साजिद नाडियाड वाला की कंपनी नाडियाडवाला ग्रैंडसन इंटरटेन्मेट के बैनर तले बनी यह फिल्म नाडियाडवाला की एक अलग पहल है. वे इस तरह की फिल्मों मे पैसा लगाते नहीं हैं, हालांकि उनकी यह फिल्म पैसे की दृष्टि से असफल कही जा सकती है, लेकिन एक फिल्म के रूप में उनके द्वारा बनाई गई हाऊस फुल टू थ्री और हे बेबी टाइप की फिल्मों की तुलना में बहुत ही बेहतर कही जाएगी और हमेशा सिनेमा के स्तरीय दर्शकों द्वारा याद रखी जाएगी. तमाशा के लिए फिल्म की पूरी टीम को बधाई.
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सारंग उपाध्याय
उप समाचार संपादक
Network18khabar.ibnlive.in.com,New Delhi
sonu.upadhyay@gmail.com
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